आपका परिचय

मंगलवार, 29 मई 2018

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 



।।हाइकु।।


उमेश महादोषी



हाइकु

01.

कुछ हो न हो
श्वांस में सुगन्ध हो
ये उमंग हो!

02.

कुआँ ही कुआँ
ज़हर का उफान 
और ये धुआँ

03.

खनक सुनी
और सुनता रहा
भागता कहाँ।

04.

किन्तु अकेला
मैं भीड़ की देह में
काल चक्र-सा!

05.

भुलाऊँ तुम्हें
और भूलता हुआ 
रेखाचित्र : (स्व.) बी. मोहन नेगी 
कहाँ जाऊँ मैं!

06.

घड़ा था भरा
छलका तो ऐसा कि
बूँद  न बची!

07.
आहट तेरी
सुनूँ बेखबर-सा
और मैं हसूँ! 
  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018



।। कथा कहानी ।। 

योगेन्द्र नाथ शर्मा ’अरुण’



मुस्कुराती ज़िंदगी

\लता आज बेहद उदास थी! श्याम दफ्तर जा चुका था और लता की सास अपने कमरे के कोने में बने पूजा घर में चुपचाप से क्या माँग रही थीं, यह तो शायद वे ही जानती होंगी! लता ने दोनों बेटियों को रोज़ की तरह नाश्ता करा के स्कूल भेज दिया, लेकिन ख़ुद बिना कुछ खाए-पिए जाकर अपने कमरे में लेट गई!
      लता को श्याम से ऐसी उम्मीद तो कभी थी ही नहीं, जैसा व्यवहार कल रात श्याम ने किया! बैंक में मैनेजर है और शादी के आठ सालों में लता ने श्याम को ऐसे चीखते हुए कहीं नहीं देखा, जैसा कल रात को हुआ!
      लता अपने बिस्तर पर लेट गई और माथे पर बाम लगाने लगी! रात को लता पल भर के लिए भी ढंग से सो नहीं पाई! बार-बार यही सोचती रही कि श्याम को आखिर हो क्या गया कि मेरे अबार्शन की बात को लेकर इतनी जोरों से चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया! 
      तभी दरवाज़े की घंटी बज उठी! लता की सास पूजा घर में बैठी थी; वहीं से चीख कर बोली- ‘‘अरी, बहू! देख तो ले दरवाज़े पर कौन है?’’ लता ने जवाब दिया- ‘‘देखती हूँ माँ जी! देख रही हूँ!’’
      लता ने दरवाज़ा खोला, तो देखा रसोई की गैस का सिलिंडर लगाने एजेंसी का आदमी खड़ा है! लता ने उस से गैस-बुकिंग की पर्ची ली और रसोई में ले जाकर सिलिंडर बदलवाया! पूजा घर से सास ने फिर पूछा- ‘‘अरी, कौन आया है?’’ तो लता ने कहा- ‘‘गैस का सिलिंडर लगाने वाला आया है गैस एजेंसी से! आप पूजा कर लो, मैं सब करा लूँगी!’’
      लता ने सिलिंडर बदलवा कर पैसे दिए और गैस-एजेंसी का आदमी चला गया! लता ने देखा, साढ़े ग्यारह बजे हैं! अम्माजी तो अभी एक घंटे और पूजा करेंगी और बेटियाँ स्कूल से ढाई बजे तक ही आएँगी! लता का सर दर्द से फटा सा जा रहा था, इसलिए वह फिर कमरे में जाकर लेट गई! लता की आँखों में शादी के बाद के आठ साल घूम रहे थे! उसके पापा एग्जिक्युटिव इंजीनियर और माँ महिला विद्यालय में लेक्चरार हैं! लता और सीमा उनकी बेटियाँ हैं! पापा ने एक बार हँसी-हँसी में बताया था कि जब लता  पैदा हुई, तो बड़ी दुबली-पतली थी, इसलिए खुश होकर लता नाम रक्खा था!
      हँसकर लता ने ही पूछा था पापा से- ‘‘और पापा! फिर सीमा का नाम क्यों ‘सीमा’ रक्खा?’’ तो हँसकर पापा बोले थे- ‘‘बेटी लता! यह नाम तुम्हारी मम्मी का दिया हुआ है! वे दो ही संतान चाहती थीं, इसलिए जब दूसरी बेटी हुई, तो तुम्हारी मम्मी ने कहा कि यह हमारी सीमा है!’’
      लता ने करवट बदली! कल रात श्याम का चीखना और बार-बार कहना कि ‘‘अबार्शन’’ तो कराना ही पड़ेगा, लता को कहीं भीतर तक कुरेद गया है!
      फिर से विचारों का तार जुड़ गया!
      लता की शादी हुई, तो वह एम.एससी. कर चुकी थी और रिसर्च का मन बना रही थी कि पिताजी ने श्याम से उसका रिश्ता पक्का कर दिया! लता की शादी हो गई, तो उसने नौकरी करने का प्रस्ताव श्याम के सामने रक्खा था! तब श्याम ने कहा था- ‘‘मुझे तो नौकरी में कोई ऐतराज़ नहीं है लता, लेकिन घर पर माँ दिन भर अकेली रहेंगी, तो तकलीफ़ ज़रूर होगी! सोच लो; घर तो मेरी कमाई में चलता ही है!’’
      लता ने सोचा था तब कि श्याम सचमुच बहुत सुलझा हुआ पति है! और डेढ़ वर्ष बाद, जब उनकी बेटी गौरी पैदा हुई, तो श्याम की माँ ने ही उसका नाम गौरी रखते हुए कहा था कि यह तो पार्वती का रूप है! लेकिन गौरी के बाद जब रिया पैदा हुई, तो लता की सास मानों बुझ ही गईं! अब उन्हें गौरी में अपनी पार्वती नहीं दिखाई देती! रिया को तो दादी शायद ही कभी आवाज़ लगाती हों! लता ने एक-दो बार श्याम को कहा भी, तो श्याम ने भी बुझे मन से ही कहा- ‘‘अब छोड़ो भी इस बेकार की बात को? आखिर अम्मा के मन में भी तो पोते की ललक रही है और तुमने दी हैं दो-दो पोतियाँ?’’ एक बार तो लता ने कह भी दिया था- ‘‘बेटियों के बाप आप हैं जनाब! बेटा देना आपकी जिम्मेदारी है, क्या यह भी आपको समझाना पड़ेगा?’’
      तब लता ने महसूस किया था कि श्याम को लता की बात कहीं-न-कहीं चुभ गई है, लेकिन सच तो यही था! लेकिन कल रात श्याम के ऊपर जाने कैसा भूत सा सवार हुआ कि बोला- ‘‘सुनो, लता! कल या परसों सुविधा देखकर अपना अबार्शन करा लो; अब इस घर में हमें बेटी नहीं चाहिए!’’
      ‘‘क्या मतलब? क्या इसीलिए तुमने अल्ट्रासाउंड कराया था मेरा?...  मैंने तुम्हें कहा था की मैं गर्भ का अल्ट्रासाउंड करके लिंग परीक्षण नहीं करना चाहती, क्योंकि यह सब कानूनी दृष्टि से तो अवैध है ही, नैतिक और सामाजिक दृष्टि से और भी ज्यादा ख़राब बात है!... बेटी क्या मेरे और तुम्हारे प्रेम का रूप नहीं होगी?’’ लता ने श्याम को अपना दृढ़ इरादा बता दिया था!
      तभी श्याम आपा खोकर चिल्लाया था- ‘‘आखिर कितनी बेटियाँ पालेंगे हम? क्या मेरी माँ पोते का मुँह देखे बिना ही संसार से तड़पती हुई चली जाएगी?...  तुम्हारे घर की तो परम्परा ही है बेटियों को जन्म देने की... तुम्हारा कोई भाई नहीं हुआ, तो क्या मेरी माँ को भी पोता न मिले? तुम्हे अबार्शन तो कराना ही पड़ेगा!’’
      लता ने बेचैन होकर करवट बदली! सर का दर्द बाम लगाने से थोड़ा कम हो गया था! लता उठ गई और देखा कि उसकी सास पूजा ख़त्म कर चुकी हैं! एक बज रहा था; बेटियों के आने में अभी देर थी! लता ने कुछ सोचा और उठ कर मुँह-हाथ धोकर सास के पास आई!    
      सास ने देखा, लता उनके कमरे में चुपचाप खड़ी है! उनके मुँह से निकला- ‘‘क्या बात है, बहू? तबियत ठीक नहीं है क्या?’’ लता सास के पास ही पलंग पर बैठ गई और बोली- ‘‘माँ जी! आज मैं बहू नहीं, बल्कि आपकी बेटी बन कर कुछ कहने आई हूँ! बताइए, क्या मुझे बेटी मानकर प्यार की भीख आप मुझे देंगी?’’
      जाने लता के शब्दों में क्या जादू था कि लता की सास ने उसे अपने पास बिठा कर अनायास छाती से लगा लिया! लता को भी सास से यह उम्मीद नहीं थी! सास ने जैसे ही लता को छाती से लगाया, वैसे ही, रात भर उसके मन में उमड़ती रही विचारों की आँधी जैसे आँसुओं के रूप में उमड़ पड़ी! लता की हिचकियाँ बँध गईं और सास उसके सर और पीठ पर हाथ फेरकर चुप करती रहीं!
      आँसुओं की बाढ़ रुकी, तो लता ने शांत मन से कहना शुरू किया- ‘‘माँ! मुझे बताइए कि बेटी पैदा करना क्या मेरा अपराध है? आप और मैं भी तो किसी की बेटी ही हैं न?... बताओ, माँ! अगर मेरा बेटा हो जाता, तभी क्या मैं सफल औरत हुई होती? मुझे बहू न मानकर, अपनी बेटी मानकर कहिये, माँ! क्या श्याम के कहने से मैं अपने गर्भ में आ गई अपनी बेटी की इसलिए हत्या कर दूँ कि वह बेटा नहीं है?’’
      लता की सास हड़बड़ा कर बोली- ‘‘क्या हुआ, मेरी बेटी? किसने कहा तुझे कि अजन्मी बेटी को मार दे?’’
      ‘‘आपके बेटे ने कहा कि आपको पोता चाहिए; पोती नहीं चाहिए! बताओ माँ! क्या औरत होकर आप भी चाहती हैं कि मैं जन्म से पहले ही, औरत होते हुए एक औरत की हत्या कर दूँ? बताइए,माँ! बताइए! क्या सचमुच आप पोती की हत्या चाहती हैं?’’  लता ने भावुक होकर माँ के चरणों में गिरकर कहा!
      और, ... न जाने कहाँ से लता की सास में गज़ब का जोश आ गया! माँ बोली- ‘‘नहीं, नहीं, बेटी! बिल्कुल नहीं! पगला गया है श्याम! अरे, पोता हो या पोती; मेरे लिए तो चाँद और तारों से बढ़कर हैं!... पोता चाहती रही हूँ मैं... हाँ! बेटी, यह सच है, लेकिन पाप करके पोता कभी नहीं चाहिए मुझे! कभी भी नहीं...कभी नहीं! एक पोते की चाह में अपने बहू.... नहीं, नहीं, अपने बेटी की ज़िंदगी मैं नर्क नहीं बनने दूँगी!’’
      लता ने आँसुओं की झड़ी के बीच अपने सास को देखा, तो उसे लगा कि उसकी माँ ही उसे अभयदान दे रही है! सास का स्वर गूँजा- ‘‘मुझे चाहिए बेटी की मुस्कुराती ज़िंदगी!’’ और लता के सर पर हाथ फेरते हुए बोली- ‘‘चल, बेटी! मेरी पोतियाँ स्कूल से आती होंगी! उनकी चिंता नहीं है क्या तुझे?’’
      और, लता ने मुस्कुरा कर अपनी सास को छाती से लगा कर जोरों से भींच लिया! 
  •  74/3, न्यू नेहरु नगर, रूडकी-247667, जिला हरिद्वार, उ.खण्ड/मो. 09412070351

श्रीकृष्ण 'सरल' जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष सामग्री

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 



श्रीकृष्ण 'सरल' स्मरण 


श्रीकृष्ण सरल जी 
{वर्ष 2018 स्वयं को अमर शहीदों का चारण कहने वाले महान तपस्वी राष्ट्रकवि श्रीयुत् श्रीकृष्ण ‘सरल’ का जन्मशताब्दी वर्ष है। 01 जनवरी 1919 को जन्मे सरलजी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, तदापि कहना प्रासंगिक होगा कि महान स्वाधीनता सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद से लेकर अनेकानेक ज्ञात-अज्ञात शहीदों पर शोधकार्य करके महाकाव्यों का सृजन और अपनी जमीन-जायदाद बेचकर स्वयं के व्यय पर उनका प्रकाशन-वितरण करवाने वाले सरलजी का व्यक्तित्व अपने शहीद-प्रेम के कारण अपने समकालीनों में बहुत ऊपर स्थित है। 1965 में अमरशहीद भगतसिंह की पूज्य माताजी श्रीमती विद्यादेवी को उज्जैन लाकर उनका धूमधाम से स्वागत करने वाले सरलजी का यह कथन ‘प्रकाशक लोग पुस्तकें बेचकर जायदाद बनाते हैं, मैंने जायदाद बेचकर पुस्तकें बनाई हैं’ उन्हें राष्ट्रकवियों की प्रथम पंक्ति में लाकर खड़ा करता है। उन्हें स्वाधीनता संग्रामियों का वंशज उचित ही कहा गया है। 

      ऐसे महान साहित्य मनीषी और तपस्वी व्यक्तित्व के जीवन और कर्मगाथा से जुड़े कुछ प्रसंग हम प्रस्तुत स्तम्भ में इस वर्ष में रखने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है-  सरल जी के कुछ संस्मरण। आशा है नई पीढ़ी तक उनकी स्मृतियों की सुगन्ध का एक झोंका अवश्य ही पहुँचाने में हम सफल होंगे। -संतोष सुपेकर, अविराम साहित्यिकी के श्रीकृष्ण ‘सरल’ स्मरण विशेषांक के विशेष संपादक}

मेरी सृजन संस्मृतियाँ : श्रीकृष्ण सरल
महाकाव्य लेखन की प्रेरणा
      ग्वालियर हाई कोर्ट के सामने वाली सड़क पर स्थित जब मैं प्रोफेसर श्री गुरुप्रसाद टंडन के आवास पर पहुँचा, तो वहाँ उनके पूज्य पिता-श्री स्वनाम-धन्य राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन से भेंट हो गई। मेरा परिचय जानकर उन्होंने कहा- ‘‘मैं आपको जानता हूँ। आपकी कृति ‘कवि और सैनिक’ मैंने पड़ी है, जो भूमिका-लेखन के लिए आपने गुरुप्रसाद को दे रखी है।’’ बात को आगे चलाने के उद्देश्य से मैंने कहा-
      ‘‘मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ जो मुझ अकिंचन कवि के काव्य संकलन की पाण्डुलिपि आप जैसे विद्वान ने पढ़ी है। वह आपके पढ़ने योग्य तो नहीं थी।’’
      ‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। पुस्तक मुझे बहुत पसन्द आई और मैं तो आपको परामर्श देना चाहूँगा कि अब आप महाकाव्य-लेखन प्रारम्भ कर दें, क्योंकि आपकी लेखन-शैली प्रबन्धात्मक है और मेरा विश्वास है कि आप अच्छा महाकाव्य लिख सकेंगे।’’
      हिन्दी के एक दिग्गज विद्वान, एक महान साधक द्वारा अपने लेखन की प्रशंसा सुनकर जिस हर्ष की अनुभूति मुझे हुई, वह अभूतपूर्व थी। उनके कथन के प्रति आभार व्यक्त करते हुए मैंने कहा-
      ‘‘आपके इस प्रोत्साहन को मैंने आशीर्वाद के रूप में ग्रहण किया है। महाकाव्य-लेखन के लिए किसी योग्य चरित्नायक का नाम भी बताने का कष्ट करें।’’
      ‘‘ किसी पौराणिक महापुरुष पर लिखने के स्थान पर आप किसी शहीद पर महाकाव्य लिखें। यदि आप ऐसा कर सके, तो एक प्रगतिशील विषय पर लिखने का श्रेय भी आपको मिलेगा और भारत की आजादी के सन्दर्भ में शहीदों का जो कर्ज हमारे राष्ट्र पर चढ़ा हुआ है, उसे उतारने का अवसर भी आपको मिलेगा।’’
      ‘‘जब इतनी कृपा की है तो किसी शहीद का नाम भी मुझे सुझा दीजिए, जो महाकाव्य-लेखन के लिए सब प्रकार से उपयुक्त हो।’’
      ‘‘मेरे मानस पर तो शहीद भगतसिंह छाया हुआ है। अपने क्रान्तिकारी-जीवन में वह दो बार मुझसे मिला था। मैं उसकी विनम्रता, अलौकिक प्रतिभा और संघर्ष-भावना का प्रशंसक रहा हूँ। उसकी आत्माहुति तो देश के लिए गर्व की बात है ही।’’
      ‘‘मैं प्रयत्न करूँगा कि मैं शहीद भगतसिंह पर अपना पहला महाकाव्य लिख सकूँ। यदि मैं ऐसा कर सका तो इसे आपके आशीर्वाद का प्रतिफल ही समझूँगा।’’
      यह थी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे महामानव से मिली महाकाव्य-लेखन की प्रेरणा। उनसे प्रेरणा पाकर भी मैं चार-पाँच वर्षों तक महाकाव्य-लेखन की दिशा में कुछ कर नहीं सका। यदि देश में एक विशेष घटना न होती तो मेरा महाकाव्य-लेखन टलता ही जाता। सन् 1962 में हमारे पड़ोसी देश चीन ने हमारे देश पर आक्रमण कर दिया था। मेरे कवि-रूप को चुनौती मिली और एक वीर-काव्य लिखने का मैंने संकल्प कर डाला।

शहीद भगतसिंह की माँ के सानिध्य में  
      घटना उस समय की है जब सन् 1962 ई. में शहीद भगतसिंह की माता श्रीमती विद्यावती के दर्शन करने मैं पंजाब स्थित उनके गाँव खटकर कलां जा पहुँचा। शहीद की माता से ढेर सारा स्नेह और जानकारी लेकर मैं विदा होने लगा, तो उन्होंने कहा- ‘‘बेटे तुमसे मेरी दो अपेक्षाएँ हैं, क्या तुम उन्हें पूरा करोगे?’’
      माताजी के मुँह से यह बात सुनकर मेरे मन में हलचल होने लगी। मैं सोच रहा था कि पता नहीं माताजी की क्या अपेक्षाएँ हैं और मैं उन्हें पूर्ण कर सकूँगा या नहीं! मुझे सोचने का अधिक समय नहीं मिला। माताजी ने अपनी इच्छाएँ व्यक्त कर दीं। वे बोलीं-
      ‘‘बेटे, मेरी पहली अपेक्षा तो यह है कि तुम मुझसे निरंतर संपर्क बनाए रखना। हर महीने तुम्हारा कम से कम एक पत्र तो मेरे पास आना ही चाहिए और एक वर्ष में दो बार तुम्हें मुझसे मिलना ही चाहिए।’’
      मैंने वचन दे दिया।
      उन्होंने अपनी दूसरी इच्छा बताते हुए कहा- ‘‘मुझे लगता है कि मेरे दिन गिने-चुने हैं। तुम मेरे बेटे पर जो ग्रन्थ लिखने वाले हो, वह बहुत जल्दी लिखना और बहुत जल्दी छपवा लेना। भगवान के घर जाने के पहले मैं उस ग्रन्थ को देख लेना चाहती हूँ।‘‘
      माताजी की इस इच्छा के उत्तर में मैंने कहा- ‘‘माताजी! जहाँ तक लेखन का प्रश्न है, वह मेरे बस की बात है। मैं आपको वचन देता हूँ कि लेखन को ही अधिक समय देकर मैं महाकाव्य के लेखन को शीघ्र पूरा कर लूँगा। जहाँ तक उसके प्रकाशन का प्रश्न है, वह मेरे बस की बात नहीं है, उसकी व्यवस्था तो प्रकाशक लोग ही कर सकेंगे। फिर भी मैं प्रयास करूँगा कि किसी प्रकाशक को राजी करके मैं उसका प्रकाशन भी शीघ्र ही करा लूँ।’’
      माताजी मेरे इस कथन का अर्थ नहीं लगा सकीं। वे यह नहीं जानती थीं कि लिखने वाले अलग होते हैं और छापने वाले अलग। मेरे इस कथन को सुनकर उन्हें कुछ निराशा हुई और वे बोलीं- ‘‘तो क्या तुम्हारा ग्रन्थ मुझे देखने को नहीं मिलेगा?’’
      कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात उन्होंने कहना प्रारम्भ कर दिया-
      ‘‘भगतसिंह को फाँसी लगने के पहले मैं जेल में उससे मुलाकात करने गई। अपने बेटों से मिलने सुखदेव और राजगुरु की माताएँ भी वहाँ पहुँचीं। हम तीनों माताएँ अपने शहीद होने वाले बेटों की आखिरी झलक पाने के लिए अधीर थीं। और भी बहुत से लोग उनसे आखिरी मुलाकात करने के लिए जेल के फाटक के बाहर मौजूद थे। जेल के अधिकारियों ने अपना निर्णय सुना दिया कि अभियुक्तों की माताओं के अतिरिक्त अन्य लोग उनसे नहीं मिल सकेंगे। थोड़ी देर पश्चात भगतसिंह ने भी जेल के अन्दर से अपना निर्णय भेज दिया। उसने कहा कि यदि सरकार अपने देशवासियों से हमें नहीं मिलने देती, तो अपनी माताओं से मिलना भी हमें स्वीकार नहीं है। उसका तर्क था कि देशवासी हमें हमेशा ही अपनों जैसे सगे रहे हैं और जीवन की अंतिम घड़ियों में केवल अपने रक्त-सम्बन्धियों से मिलकर हम उन्हें यह अनुभव करने का अवसर नहीं देंगे कि हमने उन्हें पराया समझा है। अपने बेटों का यह निर्णय सुनकर हम लोग उनसे अन्तिम बार मिले बिना ही वापिस आ गए। हम लोग उनके निर्णय से गर्वित तो थे, पर हर्षित नहीं थे। मेरे उस बेटे ने अपने जीवन के अंतिम समय में मुझे निराश किया था। मेरे एक बेटे तुम हो जो मेरे अंतिम दिनों में मुझे निराश करने चले हो। क्या तुम ऐसा कुछ नहीं कर सकते कि मेरे शहीद हुए बेटे से मुझे मिला दो। मेरे बेटे पर जो ग्रन्थ तुम लिखोगे, उसको देखकर ही मैं समझ लूँगी कि मैंने अपने बेटे से आखिरी मुलाकात कर ली।’’
      माताजी का वक्तव्य समाप्त हो चुका था। उनके चेहरे पर गंभीर भाव थे। उनके समीप ही खड़ी हुई उनकी एक पुत्रवधू श्रीमती लीला रणवीरसिंह अपना धैर्य खो बैठी। उनके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। माताजी ने उन्हें अपने हृदय से लगाकर अपने दुपट्टे के पल्ले से उनके आँसू पोंछे। मैं इस समय तक किंकर्तव्यविमूढ़ बना खड़ा रहा था। मुझसे कुछ कहते नहीं बना। माताजी के चरणों पर गिरकर मैंने भी उनका पाद-प्राक्षालन किया। माताजी ने मुझे उठाकर अपने हृदय से लगाया और मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरने लगी। रुँधे कंठ से मैंने कहा- ‘‘माताजी, मैं आपको वचन देता हूँ कि किसी न किसी प्रकार मैं आपके बेटे पर लिखा गया महाकाव्य बहुत शीघ्र ही आपके हाथों में दे दूँगा।’’
      माताजी को यह आश्वासन देकर और उनके अनेकों आशीर्वाद और ढेर सारा दुलार लेकर मैंने उनसे विदा ली।
     उज्जैन पहुँचकर मैं साधना में लीन हो गया। कॉलेज के अध्यापन से बचा हुआ समय मैं महाकाव्य लेखन के लिए देने लगा। स्वयं को क्रान्तिकारी-जीवन में ढालने का प्रयत्न किया। घी-दूध मिठाइयों का परित्याग कर दिया। चटाई बिछाकर भूमि-शयन करने लगा। कवि-सम्मेलनों में जाना छोड़ दिया। विश्वविद्यालय से मिलने वाला स-पारिश्रमिक कार्य भी अस्वीकार करने लगा। मेरा यह व्यवहार देखकर लोग मुझ पर हँसते थे।
      मैं देर रात तक लिखता रहता था और लिखते-लिखते वहीं भूमि पर लुढ़क कर सो जाता था। शहीद-माता को दिया हुआ वचन मुझे चिन्तित किए हुए था। वही चिन्ता स्वप्न के रूप में उभर आती थी। स्वप्न में निरंतर माताजी के साथ ही रहता था। वे पूछती- ‘‘क्यों बेटे! लेखन कहाँ तक पहुँच गया?’’
      माताजी को अपने लेखन की प्रगति के विषय में बताता और महाकाव्य के कुछ अंश उन्हें सुनाता भी था। अक्सर ही मैं उन्हें पल्ले से अपने आँसू पोंछते हुए पाता था। नींद खुलने पर मैं फिर लिखने बैठ जाता और तब तक लिखता रहता, जब तक अपने लेखन से मुझे संतोष नहीं हो जाता था।
      यह तो सपनों के संसार की बात थी। मैं पत्र लिखकर माताजी को लेखन की प्रगति बताता रहता था। लेखन-क्रम में मैं एक बार फिर माताजी से मिलने गया। मैं कुछ घटनाओं पर उनका अभिमत जानना चाहता था।
     एक वर्ष से ऊपर का समय लगा और महाकाव्य-लेखन पूर्ण हो गया। माताजी को यह खुशखबरी लिख भेजी। उन्हें यह भी लिखा कि मैं उसे शीघ्र ही छपवा भी लूँगा।
      मैं अपना काम समाप्त कर चुका था। प्रकाशकों का काम शेष था। मुझे आशा थी कि शहीदेआजम भगतसिंह पर लिखा गया महाकाव्य प्रकाशित कराने में कोई कठिनाई नहीं होगी। मैं तो यहाँ तक आशान्वित था कि उसे प्रकाशित करने के लिए प्रकाशकों में होड़ लग जाएगी। 
      महाकाव्य की पाण्डुलिपि लेकर दिल्ली पहुँचा। प्रकाशकों से मिला। कोई कहता- ‘‘हिन्दी की कविता तो बिकती ही नहीं है। इतना बड़ा महाकाव्य छापकर हम व्यर्थ अपना पैसा नहीं फँसाएँगे।’’ दूसरा कहता- ‘‘हमारी तिजोरी में कई पाण्डुलिपियाँ रखी हुई हैं। आप भी छोड़ जाइए। उन सब के छपने के पश्चात ही आपकी कृति का क्रम आ सकेगा। दो-चार साल तो आपको प्रतीक्षा करनी ही चाहिए।’’
      मैं पाण्डुलिपि लेकर किसी अन्य प्रकाशक के पास जा पहुँचता। वह कहता-
      ‘‘अगर आप इसे छपवाना ही चाहते हैं तो इसकी छपाई का पूरा पैसा हमें पेशगी दे दीजिए। हम अपने प्रकाशन का नाम डाल देंगे। हमारे प्रकाशन के नाम से आपकी पुस्तक चमक जाएगी। पुस्तक बिकने पर हम आपका पैसा आपको लौटा देंगे।’’
      मैं वहाँ से चल देता और इन्हीं उत्तरों जैसा ही कोई उत्तर पाता। कई शहरों में घूमा। ऐसा लगा जैसे भारतवर्ष के सभी प्रकाशक एक-दूसरे के भाई-बन्द हैं। मुँह लटकाए हुए मैं उज्जैन लौट आया। सोचता था जिस देश में शहीदों की यह कद्र है, उस देश का क्या होगा?
      शहीद की माता को दिया हुआ वचन प्रतिपल चिन्तित किए रहता था। एक दिन परिवार के सदस्यों को अपने सामने बिठाया और अपनी समस्या उनके सामने रख दी। परिवार में दो छोटे बच्चे भी थे, जिनमें से एक प्राथमिक विद्यालय में और दूसरा माध्यमिक विद्यालय में पढ़ता था। उन लोगों ने आश्वासन दिया कि हम लोग अपनी आवश्यकताओं को कम से कम कर देंगे और कोई ऐसी वस्तु नहीं माँगेंगे, जिसमें आपको पैसा खर्च करना पड़े। बच्चों की ओर से यह आश्वासन बहुत बड़ा आश्वासन था। पत्नी ने कहा- ‘‘मेरे पास सोने-चाँदी के जितने आभूषण हैं, उन्हें आप बेच दीजिए और शहीद भगतसिंह पर लिखी हुई किताब छपवा लीजिए।’’
      आखिर मैंने पत्नी को यह त्रास दे ही दिया। उनके सारे आभूषण बेच दिए गए। पुस्तक तो परीक्षा लेने पर तुली हुई थी। घर का अन्य सामान भी बेचना पड़ा। दस रुपया सैकड़ा प्रतिमास ब्याज-दर से एक साहूकार से कर्ज भी लिया। एक दिन कॉलेज से जब घर लौटा तो दोनों बच्चों ने मेरे हाथ में कुछ रुपये रख दिये। मैंने पूछा- ‘‘ये कहाँ से आए?’’ उन्होंने कहा- आपकी पुस्तक की छपाई में यह हमारा योगदान है। पत्नी ने स्थिति स्पष्ट की-
     ‘‘कबाड़े का सामान खरीदने वाला इधर से निकला था। इन लोगों ने अपने सारे कपड़े बेच दिए। गर्म कपड़े भी नहीं बचाए। जो कपड़े पहने हैं, वे ही कपड़े रह गए हैं।’’ बच्चों का यह त्याग और योगदान देखकर मन प्रफुल्ल हो गया। दुष्परिणाम उन्हीं को भुगतना पड़ा, जब सर्दियों के दिनों में वे ठिठुरते हुए स्कूल जाते और आते थे। उनका साथ देने के लिए हम लोगों ने भी अधिकांश वस्त्रों से विदा ले ली।
      पुस्तक द्वारा ली गई परीक्षा में हम लोग खरे उतरे। भगतसिंह महाकाव्य प्रकाशित हो गया। उसे छपा हुआ देखकर सभी लोग खुशी के मारे फूले नहीं समाते थे। शहीद-माता को सूचना दे दी गई। उनसे यह भी निवेदन कर दिया गया कि आप उज्जैन पहुँचकर ग्रन्थ का विमोचन करने की कृपा करें। यह निवेदन एक औपचारिक निवेदन था। एक प्रतिशत भी आशा नहीं थी कि वे उज्जैन पहुँच सकेंगी। मैं स्वयं उनकी हालत देख आया था। अपने मकान के एक कमरे से दूसरे कमरे तक भी वे चलकर नहीं जा सकती थीं। उनका उत्तर आ गया। लिखा था- ‘‘बेटे! मैं तुम्हारे ग्रन्थ की भेंट स्वीकार करने उज्जैन पहुँच रही हूँ।’’
      उज्जैन के उत्साह को जैसे करंट ने छू लिया हो। माताजी के स्वागत के लिए एक समिति बन गई। इस समिति की यह विशेषता थी कि सभी विचारधाराओं के लोग अपने भेदभाव भूलकर पहली बार मंच पर एक-साथ बैठे।
      माताजी उज्जैन पहुँची। लोग पगला उठे। उनका स्वागत ऐतिहासिक स्वागत बन गया। उज्जैन को राष्ट्रपतियों और प्रधामंत्रियों के स्वागत का गौरव प्राप्त हो चुका था, लेकिन भगतसिंह की माताजी के स्वागत ने पिछले सभी स्वागत पीछे छोड़ दिए। दूर-दूर तक के गाँव खाली हो गए थे और उनके निवासी माताजी के दर्शन के लिए उज्जैन पहुँच चुके थे। जिस बग्घी में बिठाकर माताजी का जुलूस निकाला गया था, वह सात बार हार-फूलों से भर गई थी। लोगों में होड़ थी। वे पुलिस के डंडे खाने को तैयार थे, लेकिन अपने हाथों से माताजी के चरण छूए बिना हटने को तैयार नहीं। माताजी ने छोटे बच्चों को पैर नहीं छूने दिए। हर बच्चे के सिर पर हाथ फेर कर और आशीर्वाद देकर ही उसे विदा करती थीं। साधु-सन्यासियों को भी माताजी ने पैर नहीं छूने दिए। वे अपना मस्तक झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर स्वयं ही उन्हें प्रणाम करती थीं। लोगों को प्रणाम करते-करते उनकर दोनों भुजाएँ बुरी तरह सूज गई थीं।
      संध्या समय आयोजित आम-सभा का वातावरण पगलाया हुआ था। माताजी ने अपने घर पर जो स्नेह मुझे दिया था, उसके कुछ संस्मरण मैंने लोगों को सुनाए। वह घटना भी मैंने लोगों को सुनाई, जब माताजी अपने फाँसी पाने वाले बेटे से अंतिम भेंट किए बिना ही जेल से लौट आईं थीं। लोगों की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बह रही थीं।
      आखिर रंगीन आवरण में लपेटी हुई भगतसिंह महाकाव्य की एक प्रति मैंने अनावरण हेतु माताजी की ओर बढ़ा दी। अपने हाथ आगे बढ़ाने के स्थान पर उन्होंने पीछे खींच लिए। मैं आश्चर्यचकित था। सभी लोग हैरान थे कि माताजी ने पुस्तक लेने से इनकार क्यों कर दिया। स्थिति माताजी ने ही स्पष्ट की। मेरी ओर मुखातिब होकर बोलीं-
      ‘‘तुम्हें पहले चन्द्रशेखर आजाद पर ग्रन्थ लिखना चाहिए था, क्योंकि भगतसिंह से पहले वह शहीद हुआ था। मेरे मुलाहिजे से तुमने पहले भगतसिंह पर ग्रन्थ लिख डाला। अगर तुम अपने नगर वालों के सामने यह वादा करो कि तुम्हारा अगला ग्रन्थ चन्द्रशेखर आजाद पर होगा, तो मैं इस ग्रन्थ की भेंट स्वीकार करूँगी, अन्यथा नहीं।’’
      माताजी की इस महानता को देख कर सभी लोग मुग्ध हो गए। बहुत देर तक उनकी जय के नारे लगते रहे। इसी बीच मैंने किसी से एक चाकू प्राप्त कर लिया और भावावेश में अपना अँगूठा चीरकर माताजी के माथे पर अपने रक्त का तिलक लगाया और उन्हें वचन दिया कि मेरा आगामी महाकाव्य चन्द्रशेखर आजाद पर ही होगा। माताजी ने आश्वस्त होकर भगतसिंह आजाद महाकाव्य का विमोचन कर उसका लोकार्पण किया और विमोचित प्रति को चूमकर उसे अपनी गोद में रख लिया। महाकाव्य की ओर देखती हुई, उन्होंने अपना सम्बोधन प्रारम्भ किया-  
      ‘‘मैंने जिसे लाहोर में खोया था, उसे उज्जैन में पा लिया है। मुझे लगता है कि ग्रन्थ के रूप में मेरा बेटा भगतसिंह ही मेरी गोद में बैठा हुआ है। जब मैं इसकी पंक्तियाँ पढ़ती हूँ, तो मुझे लगता है कि जैसे मेरा बेटा मुझसे बातें कर रहा है।’’
      सैकड़ों समीक्षकों की प्रशंसा से मेरा जो मन नहीं भरता, वह माताजी के इस मूल्यांकन से भर गया। अपनी साधना से कहीं बड़ा पुरस्कार मुझे मिल गया था।
      इस प्रकार प्रारम्भ हो गया मेरा महाकाव्य-लेखन और सात की संख्या पार करके मैं आठ तक आ पहुँचा हूँ। यह तो स्वाभाविक ही है कि निरन्तर लेखन के कारण कहीं न कहीं स्वयं को और परिवार को तो कष्ट होगा ही और इसकी अनुभूति हम सबने खूब की लेकिन मैं कभी पस्त नहीं हुआ, कुंठित नहीं हुआ और टूटा नहीं। टूटता कैसे, मैंने कभी किसी क्रान्तिकारी को टूटते नहीं देखा।
      मेरी सृजित-संस्मृतियाँ एक बड़े उपन्यास का रूप ले सकती हैं, लेकिन मैं केवल दो घटनाओं का उल्लेख और करूँगा, जो सुभाष-लेखन के क्रम में घटित हुईं।

मेरे गाल पर एक जोर का तमाचा पड़ा
      बात उस समय की है जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर प्रामाणिक रूप से कुछ लिख सकने के लिए मैं उन सभी देशों का भ्रमण करने के लिए गया, जहाँ-जहाँ नेताजी ने भारत की आजादी के प्रयत्न किए थे। इस क्रम में मैं बर्मा की राजधानी रंगून भी पहुँचा।
      रंगून के विमान-स्थल से बाहर निकलकर जब शहर में जाने के लिए टैक्सी रोकी, तो टैक्सी वाले ने मुझे शहर में ले जाने से इनकार कर दिया और पूछा कि ‘‘क्या आपके पास शहर में जाने के लिए कलॅक्टर का अनुमति-पत्र है?’’ मैंने उससे कहा कि मेरे पास रंगून के कलॅक्टर का अनुमति-पत्र तो नहीं है पर अन्तर्राष्ट्रीय पासपोर्ट अवश्य है। वह बोला- ‘‘आपका पासपोर्ट हमारे काम का नहीं है। पहले आप यहाँ के कलॅक्टर को फोन करके उन्हें स्थिति से सूचित कीजिए और अनुमति-पत्र मिलने पर ही टैक्सी को रोकिए।’’
      विमान-स्थल के टेलीफोन से मैंने कलॅक्टर कार्यालय को फोन किया। कलॅक्टर महोदय ने निर्देश दिया कि आप वहीं प्रतीक्षा करें, हम अपने एक अफसर को आपसे मिलने भेज रहे हैं। थोड़ी देर पश्चात उनका अफसर मेरे पास पहुँच गया। उससे कुछ इस प्रकार बातचीत हुई- ‘‘मैं हिन्दुस्तान का एक लेखक हूँ। क्रान्तिकारियों के जीवन पर लिखता हूँ। हमारे देश के एक क्रान्तिकारी सुभाषचन्द्र बोस पर भी मुझे लिखना है। उन्होंने कुछ समय यहाँ रंगून में रहकर भारत की आजादी के लिए प्रयत्न किए थे। मैं उनसे सम्बन्धित स्थान यहाँ देखना चाहता हूँ, इसलिए आपसे नगर-भ्रमण का अनुमति-पत्र देने की प्रार्थना कर रहा हूँ।’’
      ‘‘ठीक है, हम आपको अनुमति-पत्र तो दे देंगे, पर हमारी दो शर्तें हैं, क्या उन्हें मानेंगे?’’
      ‘‘आप अपनी शर्तें बताइए!’’
      ‘‘हमारी पहली शर्त है कि आप पूर्ण रूप से अनुशासन में रहेंगे।’’
      ‘‘आपकी यह शर्त मुझे स्वीकार है।’’
      ‘‘हमारी दूसरी शर्त यह है कि आप रंगून नगर में केवल एक स्थान को चुन लीजिए। हम उस स्थान के अलावा कोई दूसरा स्थान आपको नहीं देखने देंगे।’’
      ‘‘आपकी यह शर्त विचित्र है। खैर, मैं आपकी यह शर्त भी स्वीकार करता हूँ। आप मुझे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का मिलिट्री हेडक्वार्टर देखने की अनुमति दे दीजिए।’’
      ‘‘वह भी आप हमारे अनुशासन में देख सकेंगे।’’
      ‘‘अधिकारी महोदय ने पुलिस को फोन किया। पुलिस की एक लॉरी वहाँ पहुँची। मुझे उस गाड़ी में बैठाया गया। गाड़ी में आए पुलिस इन्सपेक्टर को अधिकारी ने कुछ समझाया। मेरे आसपास बन्दूकधारी सिपाही बैठाए गए और पुलिस इन्सपेक्टर मेरे सामने वाली बैंच पर भरा हुआ रिवाल्वर लेकर बैठा। मुझे बड़ा विचित्र लग रहा था। गाड़ी चल दी। थोड़ी देर पश्चात पुलिस की गाड़ी एक भवन के सामने रुकी। पुलिस इन्सपेक्टर बोला- ‘‘सुभाषचन्द्र बोस का मिलिट्री हेडक्वार्टर आ गया है। गाड़ी से नीचे उतरकर देखा। एक विशाल भवन मेरे सामने था। मैं कल्पना लोक में खो गया-
      यह वही सौभाग्यशाली भवन है, जहाँ भारत-मुक्ति की योजनाएँ बनती थीं और देश के दीवाने देश की आजादी की शमां पर परवाने बनने के लिए आतुर रहते थे। यह बड़ी सौभाग्सशाली भूमि है जिसकी मिट्टी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के चरणों से पवित्र हो चुकी है। क्यों न मैं यहाँ की थोड़ी-सी मिट्टी उठाकर अपने साथ ले चलूँ? मैं गर्व के साथ वह मिट्टी अपने मित्रों को दिखाऊँगा और कहूँगा- ‘‘देखो, मैं नेताजी के चरणों से पवित्र हुई मिट्टी लाया हूँ। आप सभी इसके दर्शन करें- 
      इस विचार से मैंने मुट्ठी भर मिट्टी उठा ली। मेरे ऐसा करने पर तत्काल ही पुलिस इन्सपेक्टर ने मुझे टोकते हुए कहा- ‘‘मिट्टी वापस पटक दीजिए।’’
      कुछ क्षण तक मैंने मिट्टी अपने हाथ में ही रखी। इस पर इन्सपेक्टर नाराज होकर बोला- ‘‘आपने हमारे अनुशासन में रहने का वचन दिया है। मिट्टी ज़मीन पर पटक दीजिए।’’
      मैंने मिट्टी फेंक दी और बोला- ‘‘क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ?
      ‘‘हाँ पूछिए।’’
      ‘‘आपने मिट्टी जैसी माामूली चीज ले जाने की अनुमति मुझे क्यों नहीं दी?’’
      ‘‘मेरा प्रश्न सुनकर पुलिस इन्सपेक्टर का चेहरा तमतमा गया। अपने चेहरे पर घृणा और क्रोध के मिश्रित भाव लाते हुए उसने कहा-
      ‘‘मिट्टी को मामूली चीज आप हिन्दुस्तानी लोग समझते हैं, हम नहीं।’’
      बहुत तीखा प्रहार किया था उसने। मैं तिलमिला गया। गलती मेरी ही थी। मैं इस प्रहार से सम्हल भी नहीं पाया था कि उसने दूसरा प्रहार कर दिया- ‘‘जब आप लोग अपने देश की मिट्टी की कद्र नहीं कर सकते, तो हमारे देश की मिट्टी की क्या कद्र करेंगे?’’
      ‘‘यह मामूली प्रहार नहीं था। यह उस बर्मी पुलिस इन्सपेक्टर द्वारा जड़ा गया मेरे गाल पर जोर का तमाचा था। मुझे वह कथन याद आ गया जब हमारी उत्तरी सीमा के बहुत बड़े भू-भाग पर चीनी आक्रमकों ने अपना अधिकार जमा लिया और जब हमने अपने नेताओं से उस भू-भाग को वापिस ले लेने के लिए कहा तो उनका उत्तर था-
      ‘‘इतने विशाल देश का कुछ भाग, जो बिलकुल अनुर्वर, अनुपजाऊ और अनुपयोगी था, यदि चला भी गया तो हमारे देश का क्या बिगड़ता है।’’

नेताजी के प्रभाव ने प्राण रक्षा की
      अपने विदेश-प्रवास में एक अन्य उल्लेखनीय घटना उस समय घटी जब हाँगकाँग टूरिस्ट लॉज पहुँचकर मैंने वहाँ के मैनेजर से कहा-
      ‘‘मुझे चीनी भाषा का एक दुभाषिया चाहिए, जो चीनी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी या अंग्रेजी भाषा में मुझसे बात कर सके। मैंने मैनेजर को बताया कि मैं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर कुछ तथ्यों का संकलन करने यहाँ आया हूँ। 
      मैनेजर नेताजी के नाम का उल्लेख सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। वह थाईलैण्ड का रहने वाला था और वह नेताजी का परमभक्त था। उसने टेलीफोन करके मेरे सामने एक दुभाषिया बुला दिया। वह अंग्रेजी जानता था। मैंने उससे बात की-
      ‘‘मैं यहाँ के कुछ चीनी कवियों से मिलना चाहता हूँ। या तो आप मुझे उनके पास ले चलिए या उनमें से कुछ को मेरे पास ले आइये।’’
      दुभाषिया गया और दो चीनी कवियों को मेरे पास ले आया। मैंने उनसे बात की-
      ‘‘वह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण समय था जब सन् 1962 ई. में चीन देश ने हमारे देश पर आक्रमण किया था। उस समय भारतीय कवियों ने चीन के विरुद्ध बहुत कविताएँ लिखी थीं। मैंने सबसे ज्यादा कविताएँ लिखी थीं। यह स्वाभाविक ही है कि आप लोगों ने भी भारत के विरुद्व कविताएँ अवश्य लिखी होंगी। मैं चाहता हूँ कि हम लोग बैठकर उस तरह की कविताएँ सुनें-सुनाएँ।’’ मेरे कथन को सुनकर उन चीनी कवियों ने आपस में एक-दूसरे को देखा। उनके चेहरों पर कुटिल मुस्कान दिखाई दे रही थी। उनमें से एक ने कहा- ‘‘हम लोग तो अभी नौसिखिए हैं। हमारे वरिष्ठ कवियों ने इस प्रकार की कविताएँ अवश्य लिखी हैं। यदि आप चाहें तो हम लोग उनको यहाँ ले आते हैं। फिर हम लोग किसी पार्क में चलकर एक-दूसरे की कविताएँ सुनेंगे-सुनाएँगे।’’
      मैंने उनका प्रस्ताव मान लिया। वे लोग चले गए। मैं अपने कमरे में पहुँचकर कुछ लिखा-पढ़ी करने लगा। थोड़ी देर पश्चात होटल का मैनेजर मेरे कमरे पर पहुँचा और बोला- ‘‘मैं आपसे कुछ गोपनीय बात करना चाहता हूँ। आप कमरे का दरवाजा बन्द कर लीजिए।’’
      मैंने कमरे का दरवाजा बन्द करके पूछा- 
      ‘‘कहिए, आप क्या कहना चाहते हैं? आप इतने घबराये हुए क्यों हैं?’’
      बातचीत आरम्भ हुई-
      ‘‘क्या आपने चीनी दुभाषिए के अलावा और किसी को मिलने बुलाया था?’’
      ‘‘जी हाँ, मैंने कुछ चीनी कवियों को बुलाया है। उनके आने पर उनके साथ बाहर जाने की बात भी ठहरी है। उनके आने पर आप मुझे सूचित कर दीजिए।’’
      ‘‘वे लोग एक जीप में बैठ कर आए भी थे और मैंने झूठ बोल कर उन्हें लौटा भी दिया है। जो लोग आए थे वे कवि थे या नहीं, पर मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि वे लोग यहाँ के कुख्यात गुण्डे थे और उनमें से कुछ तो कातिल भी थे। क्रोध के आवेश में वे आपके विषय में पूछ रहे थे कि हिन्दुस्तानी कवि कहाँ है। क्या आपने उन लोगों की शान के खिलाफ कुछ बात कही थी?’’
      ‘‘मैंने तो सिर्फ इतना ही कहा था कि भारत-चीन युद्ध के दिनों में मैंने चीन के विरुद्ध बहुत सारी कविताएँ लिखीं थीं।’’
      ‘‘यह तो उनके आक्रोश के लिए काफी था। अपने राष्ट्र का अपमान वे कैसे सहते! यदि वे आपको अपने साथ ले जाते तो यह निश्चय मानिए कि आप मेरे लॉज में जीवित वापस नहीं आ सकते थे। आप नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का काम लेकर आए हैं, इस कारण आपकी रक्षा करना मैंने अपना कर्तव्य समझा। मेरा तो परामर्श है कि आप मेरा यह लॉज ही नहीं, तीन घण्टे के अन्दर हाँगकाँग भी छोड़ दीजिए, तीन घंटे पश्चात वे आपको लेने दुबारा आ जाएँगे।’’
      ‘‘आपने मेरे लिए जो कुछ किया, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूँ, लेकिन टोकियो के लिए मेरा टिकिट कल का है। मैं आज हाँगकाँग कैसे छोड़ सकता हूँ।’’ 
      ‘‘मैं इसका भी प्रबन्ध किए देता हूँ। मेरी पहचान सब दूर है।’’
      और सचमुच ही उन मैनेजर महोदय ने मेरे उसी दिन के टिकिट का प्रबन्ध कर दिया। इतना ही नहीं, मेरी सुरक्षा के लिए उन्होंने अपना सहायक मेरे साथ भेज दिया, जिसने मुझे टोकियो जाने वाले विमान में बिठाकर ही विदा ली। नेताजी के प्रभाव ने मेरे प्राणों की रक्षा की।
      अपने लेखन के क्रम में इस तरह के कड़वे अनुभव मुझे बहुत हुए हैं। ऐसा नहीं कि मुझे कड़वे अनुभव ही हुए हों। मेरे जीवन के साथ बहुत मीठे-मीठे अनुभव भी जुड़े हुए हैं। मैंने कहीं लिखा भी है-
कड़वे घूँट मिले पीने को/तो मिठास भी बहुत मिली है,
कभी धूप ने झुलसाया, तो/कभी-कभी चाँदनी खिली है।
पर यह सच है, अपने मन को/कुंठाओं ने कभी न घेरा,
रात न उतनी सघन रही है/जितना उजला रहा सवेरा।
      तो अभी केवल इतना ही। शेष फिर कभी।   

(‘राष्ट्रकवि सरल स्मारिका’ से साभार) 

सरोकार

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 


हमारे सरोकार 


उमेश महादोषी





महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा को पुनर्जीवित करता संग्रहालय
      हल्दीघाटी के बारे में अब तक मैंने केवल किताबों में ही पड़ा था। इसलिए जब इस बार सितम्बर (14-16) 2017 में श्री श्यामप्रकाश देवपुरा जी के निमंत्रण पर श्रीनाथद्वारा जाने का अवसर मिला, तो हल्दीघाटी की पवित्र भूमि के दर्शन करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। श्रीनाथद्वारा में अग्रज श्री माधव नागदाजी से मुलाकात हुई और उन्हें अपनी मनोभावना से अवगत कराया तो उन्होंने अपना स्नेह उड़ेलते हुए कहा, आप समय निर्धारित कर लो, मैं गाड़ी लेकर आ जाऊँगा और स्वयं आपको हल्दीघाटी के दर्शन कराके लाऊँगा। इस प्रकार 16 सितम्बर को नागदाजी के स्नेहाबलम्बन से हल्दीघाटी की पावन भूमि का दर्शन-लाभ करने सौभाग्य
मिल गया। जाते समय बेहद सुहावना मौसस सोने पर सुहागा जैसा लग था। रास्ते में हरी-भरी पहाड़ियों के मध्य से गुजरते हुए लग ही नहीं रहा था कि मैं रेगिस्तानी समझे जाने वाले राजस्थान प्रदेश का भ्रमण कर रहा हूँ। जैसे ही हम अरावली पहाड़ियों के पीली मिट्टी से युक्त भाग में संकरे रास्ते पर पहुँचे, नागदाजी ने बताया, हम लोग हल्दीघाटी पहुँच चुके हैं। मैंने कहा, सर, हम यहाँ थोड़ी देर रुक लें। मेरा मन उस भूमि और वहाँ के
हल्दीघाटी स्थित चेतक स्मारक
(छायाचित्र : माधव नागदा)
हो रहा था। नागदा साहब ने जहाँ गाड़ी रोकी, वहाँ एक सुन्दर गुफा थी, जिसमें एक मन्दिर भी है। नागदाजी बोले, इस गुफा को तो मैं भी पहली बार देख रहा हूँ। संभवतः यह रामेश्वर मन्दिर कहलाता है और इसके अन्दर जाकर सुप्रसिद्ध प्रताप गुफा स्थित है, जहाँ महाराणा प्रताप गुप्त मंत्रणा किया करते थे। पन्द्रह-बीस मिनट वहाँ रुकने के बाद हम बादशाही बाग होते हुए चेतक स्मारक की ओर बढ़ गये। बादशाही बाग वह स्थान है, जहाँ मुगल सेना ठहरी थी। चेतक स्मारक के दर्शन करने के बाद हम महाराणा प्रताप संग्रहालय देखने पहुँचे। रक्ततलाई, जहाँ हल्दीघाटी का भीषण युद्ध हुआ था और वर्तमान में एक झील के रूप में स्थित है, के दर्शन भी इसी मार्ग पर स्थित होने के कारण हमें सहज सुलभ हो गए। 

      यद्यपि हल्दीघाटी के क्षेत्र में चेतक स्मारक, रक्त तलाई, मायरा की गुफा, बादशाही बाग, मचींद, चावण्ड, आदि कई दर्शनीय स्थल हैं, लेकिन महाराणा प्रताप के बारे में एकमुश्त जानकारी देने और उनकी गाथा को जीवंत रूप में प्रस्तुत करने के कारण विशेष आकर्षण का केन्द्र है महाराणा प्रताप संग्रहालय। यह संग्रहालय एक प्राइवेट और महाराणा प्रताप की स्मृतियों को संजोने वाला समर्पित उद्यम है। इसके संकल्पक-संस्थापक- संचालक एक सेवानिवृत अध्यापक हैं, जिन्होंने अपने जीवन की सम्पूर्ण पूँजी लगाकर अनेक व्यवधानों और मुश्किलों से जूझते हुए न सिर्फ इसे स्थापित किया, बल्कि हल्दीघाटी की भावनामय और देशभक्ति के ज्वार को जगाने वाली पवित्र भूमि को पर्यटकों के माध्यम से देश के तमाम हिस्सों से जोड़ने का काम भी किया है। पर्यटक इस भूमि को प्रणाम करने पहले भी आते थे, लेकिन उन्हें इस भूमि के इतिहास और महान गाथा से परिचित कराने का कोई माध्यम नहीं था, परिणामस्वरूप वे निराश होकर लौटते थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पर्यटकों के आने का कोई लाभ इस क्षेत्र को भी नहीं मिल पाता था। संग्रहालय की स्थापना से, इसमें काम करने वाले शताधिक लोगों को तो रोजगार मिला ही है, क्षेत्र में होनेवाली गुलाब की खेती और गुलाब से बनने वाले उत्पादों की बिक्री एवं अन्य कार्यों के लिए भी अवसर पैदा हो रहे हैं। इसका सकारात्मक प्रभाव स्थानीय लोगों की जीविका के विकास पर भी पड़ना स्वाभाविक है। और एक बात, अज्ञात कारणों से आजादी के इतने
माधव नागदा  के साथ
डॉ. मोहनलाल श्रीमाली जी
 
वर्षों के बाद भी जो काम सरकारों, स्वयंसेवी संस्थानों और राजनैतिक संगठनों ने नहीं किया, वह काम एक व्यक्ति, एक परिवार ने कर दिखाया है। संग्रहालय के ऐसे कर्मठ और दृढ़ इच्छाशक्ति के धनी संस्थापक डॉ. मोहनलाल श्रीमाली जी से भेंट का सौभाग्य भी हमें मिल गया। दरअसल लौटने से पहले हम लोग संग्रहालय में स्थित रेस्तरां में चाय पीने के लिए घुसे तो वहाँ श्रीमालीजी भोजन कर रहे थे। वह नागदा साहब के मित्र भी हैं सो उन्होंने नागदाजी को देखते ही अपने पास की कुर्सियों पर बुला लिया और आग्रहपूर्वक हमें चाय पिलवाई। नागदाजी ने मेरा परिचय कराया और बातों का सिलसिला आरम्भ हुआ तो लगभग पौने घंटे से अधिक का समय यूँ ही बीत गया। अपने पाठकों के लिए संग्रहालय की स्थापना और उसके पीछे श्रीमाली जी की भावना, समर्पण और योगदान को साझा करना मुझे सामाजिक दृष्टि से अत्यंत उपयोगी लग रहा है।

      19 अक्टूबर 1949 (अभिलेखों में 03 जुलाई 1951) को जन्में बी.ए. व बी.एड. तक शिक्षित डॉ. मोहन लाल श्रीमाली सरकारी शिक्षक थे। अपनी शिक्षा एवं शिक्षा के क्षेत्र में आने का पूरा श्रेय स्वनामधन्य स्वतंत्रता सेनानी श्री बलवन्त सिंह मेहताजी को देते हुए कहते हैं, ‘‘मेहता साहब महाराणा प्रताप के परम भक्त थे। हल्दीघाटी से जुड़ी मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि के दृष्टिगत उन्होंने मुझे प्रेरित किया कि मैं हल्दीघाटी को ही अपना कर्मक्षेत्र
संग्रहालय प्रांगण में मेवाड़ी संस्कृति की एक झाँकी
(छायाचित्र : उमेश महादोषी)
बनाऊँ। इसीलिए उन्होंने मुझे शिक्षा के क्षेत्र में आने में मदद की। उन दिनों पर्यटकों के मार्गदर्शन के लिए हल्दीघाटी के पाँच कि.मी. के पूरे क्षेत्र में कोई सुविधा नहीं थी। मेहता साहब ने इस कमी को पूरा करने के लिए मुझे कहा। 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने इस क्षेत्र का दौरा किया, तब यहाँ एक छोटे-से भवन का निर्माण कराया गया, जिसे बाद में पर्यटन विभाग को अन्तरित करके ‘मिड वे’ रेस्तरां में बदल दिया गया। लेकिन पर्यटन विभाग उसे चला नहीं पाया और उसे चलाने के लिए मेरे पिता श्री जमुनालाल श्रीमाली जी से अनुरोध किया। भवन का कोई किराया न लेने का वादा किया गया। पिताजी के अथक परिश्रम से जब वह कुछ चलने लगा तो भवन का किराया माँगा गया। लेकिन आय इतनी नहीं थी कि हम किराया दे पाते। अतः उसे बन्द करना पड़ा। लेकिन उस दौरान पर्यटकों को होने वाली परेशानियों से रूबरू होने और सरकार द्वारा इस क्षेत्र की निरंतर उपेक्षा ने मुझे कुछ करने को प्रेरित किया। शिक्षा विभाग में मेरे परिश्रम और ईमानदारी से किए गए कार्यों, जिनमें सरकारी मदद से कुछ स्कूलों का निर्माण भी शामिल था, के दृष्टिगत कई प्रशासनिक अधिकारियों, जिलाधिकारी रहे श्री सुभाष गर्ग, शिक्षा निदेशक रहे श्री ललित पंवार आदि ने मेरा उत्साह बढ़ाया। अन्ततः मैंने महाराणा प्रताप संग्रहालय बनाने की योजना बनाई। भूमि मेरे पास थी, लेकिन निर्माण के लिए धन नहीं था। बैंक से ऋण मिला नहीं। लेकिन इच्छाशक्ति और संकल्प था। पारिवारिक जमीन बेची, पत्नी के आभूषण बेचे और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति से मिला धन, सब लगा दिया। बाद में एक प्राइवेट बैंक से लगभग 30 लाख का ऋण मिला। इस प्रकार 1997 में आरम्भ किये गये इस संग्रहालय का उद्घाटन 2003 में महामहिम राज्यपाल श्री अंशुमान सिंह जी के कर-कमलों से सम्पन्न हुआ। यद्यपि विकास एवं निर्माण कार्य अभी भी जारी है।’’

   
कैप्शन जोसंग्रहालय प्रांगण में
हल्दीघाटी की यशोगाथा को दर्शाती एक झाँकी

(छायाचित्र : उमेश महादोषी)
  श्रीमालीजी के अनुसार, आरम्भ में पर्यटक संग्रहालय देखने में संकोच करते थे। उस समय दस रुपये प्रवेश शुल्क था। प्रबंधकगण पर्यटकों को इस आश्वासन पर संग्रहालय देखने को तैयार करते थे कि प्रवेश शुल्क संग्रहालय पसंद आने पर देखने के बाद दीजियेगा। लोगों को संग्रहालय अच्छा लगता और वे जाते समय शुल्क देकर जाते। इस प्रकार पर्यटकों का रुझान बढ़ता गया। पहले साल दर्शनार्थियों की संख्या दस हजार थी, जो अब तक एक लाख प्रति वर्ष तक पहुँच चुकी है। अक्टूबर-दिसम्बर व जन्माष्टमी आदि प्रमुख त्यौहारों के समय बड़ी संख्या में आते हैं। वर्तमान में संग्रहालय का शुल्क एक सौ रुपये प्रति दर्शनार्थी है।

     डॉ. मोहनलाल श्रीमाली द्वारा स्थापित यह संग्रहालय उनकी सात बीघा पैतृक भूमि पर चेतक स्मारक से थोड़ी ही दूरी पर खमनोर और बलीचा गाँवों के मध्य स्थित है। संग्रहालय में महाराणा प्रताप की स्मृतियों और धरोहर को बड़ी सिद्दत के साथ संजोया गया है। थियेटर भवन में प्रवेश करते ही स्वागत कक्ष में महाराणा प्रताप से जुड़े चित्रों और फाइबर निर्मित एक वृहद मानचित्र पर हल्दीघाटी के प्रमुख स्थलों और मार्गों का सांकेतिक प्रदर्शन किया गया है। एक संक्षिप्त फिल्म के माध्यम से इसी कक्ष में पर्यटकों को संग्रहालय की जानकारी दी जाती है। अगले कक्ष (थिएटर हॉल) में महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा को लगभग 15 मिनट की फिल्म के माध्यम से दिखाया जाता है। आगे बढ़ने पर महाराणा से जुड़े कई प्रसंगों और घटनाओं को फाइबर से बनी विद्युत-सुसज्जित जीवंत झाँकियों के माध्यम से दर्शाया गया है। इस सबको आधुनिक स्वचालित तकनीक के माध्यम से इस प्रकार संचालित किया जाता है कि दर्शक मंत्रमुग्ध होकर देखता रहता है। संग्रहालय के इस प्रमुख भाग से बाहर आने पर गुलाब के उत्पादों की निर्माण-प्रक्रिया एवं स्थानीय संस्कृति को दर्शाने वाली कलात्मक मूर्तियों के साथ महाराणा प्रताप और हल्दीघाटी के युद्ध से जुड़े योद्धाओं व प्रसंगों को भी बड़ी और जीवंत मूर्तियों के माध्यम से खुले प्रांगण में प्रदर्शित किया गया है। इस प्रकार समूचा संग्रहालय हल्दीघाटी के युद्ध, महाराणा प्रताप के शौर्य और मेवाड़ी सांस्कृतिक धरोहर का एक यादगार और सजीव परिदृश्य प्रस्तुत करता है। प्रांगण में  गुलाब के स्थानीय उत्पाद पर्यटकों को बिक्री हेतु भी उपलब्ध हैं। संग्रहालय में पर्यटकों के भोजन एवं जलपान हेतु एक साफ-सुथरा रेस्तरां भी है। प्रवेश से लेकर विदा होने के क्षण तक दर्शक देशभक्ति और मेवाड़ की संस्कृति के प्रति सम्मोहित-सा बना रहता है।
      इतनी बड़ी परियोजना के निर्माण और संचालन में कठिनाइयाँ भी अवश्य आती हैं। निर्माण और स्थापना की कठिनाइयाँ तो आकर चलीं जाती हैं, लेकिन संचालन और भविष्य की आवश्यकताओं से जुड़ी चुनौतियों से जूझना बड़ा प्रश्न होता है। इस सन्दर्भ में डॉ. श्रीमालीजी का कहना है, पर्यटकों की बढ़ती संख्या और रुचि के दृष्टिगत स्थान की कमी और थियेटर की अल्पक्षमता सबसे बड़ी मुश्किल है। चूँकि सरकारी सहभागिता कीमत को कई गुना बढ़ा देती है, इसलिए सरकारी सहभागिता और मदद के बिना ही वह इसका विस्तार करना चाहते
डॉ. उमेश महादोषी  के साथ 
डॉ. मोहनलाल श्रीमाली जी
हैं। थियेटर की वर्तमान क्षमता 50 दर्शक से बढ़ाकर दोगुनी करना बहुत आवश्यक हो चुका है। अन्य सुविधाओं को भी समानुपात में बढ़ाना होगा। इसके लिए सरकार से दस बीघा भूमि कीमत देकर खरीदना चाहते हैं, जो नहीं मिल पा रही है। दूसरी बात, दक्षिण भारत व अन्य अहिन्दीभाषी क्षेत्रों से आने वाले पर्यटकों को समस्त जानकारी उनकी अपनी भाषा में मिल सके, इसकी अत्याधुनिक डिजीटल तकनीक भारत से बाहर उपलब्ध है, उसे लाने के प्रयास भी करने हैं। 

     एक समय पूरनपुर जिला पीलीभीत (उ.प्र.) में रहने वाले स्वनामधन्य महाकवि (स्व) पं. रामभरोसे लाल ‘पंकज’ जी ने ‘हिन्दूपति महाराणा प्रताप’ महाकाव्य लिखकर महाराणा प्रताप की स्मृतियों को बड़े स्तर पर संजोया था और उस पर सरकारी अनुग्रह स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। स्वक्षमताओं से किया जाने वाला श्रीमालीजी का यह कार्य भी निसंदेह महाराणा प्रताप की स्मृतियों को राष्ट्रीय फलक पर पुनर्जीवित करने वाला है। सरकारों को बिना हस्तक्षेप के उनका यथावांछित सहयोग करना ही चाहिए।

  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

अविराम के अंक

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018



अविराम साहित्यिकी 
(समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिक पत्रिका)
खंड (वर्ष) :  7 / अंक : 1 / अप्रैल-जून 2018 (मुद्रित)

प्रधान सम्पादिका :  मध्यमा गुप्ता

अंक सम्पादक :  डॉ. उमेश महादोषी 

सम्पादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन

मुद्रण सहयोगी :  पवन कुमार 


रेखाचित्र : राजवंत राज 





अविराम  साहित्यिकी का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सदस्योंको 14 मई 2018  को तथा अन्य सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 18 मई 2018  तक भेजा जा चुका है।10  जून 2018  तक अंक प्राप्त न होने पर सदस्य एवं अंक के रचनाकार अविलम्ब पुनः प्रति भेजने का आग्रह करें। अन्य मित्रों को आग्रह करने पर उनके ई मेल पर पीडीफ़ प्रति भेजी जा सकती है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है-


।।सामग्री।।

अनवरत-1 (काव्य रचनाएँ)

सूर्यकुमार पाण्डेय (3)
वी. एन. सिंह (4)
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ (7)
कृष्ण सुकुमार (09)
अमीश दुबे (11)
रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’/गिरीश ‘अश्क’ (13)

जम्मू-कश्मीर व हि.प्र. में लघुकथा

विशेष संपादकीय: नरेश कुमार ‘उदास’ (14)
नीरू शर्मा/यशपाल‘निर्मल’ (15)
शकुन्त दीपमाला (16)
चाँद दीपिका (17)
नरेश कुमार ‘उदास’ (18)
कृष्ण चन्द्र महादेविया (19)
कृष्णा अवस्थी/हंसराज भारती (20)
अशोक दर्द (21)
कमलेश सूद (22)
देवराज डडवाल/उषा कालिया (23)
सुमन शेखर/नलिनी विभा ‘नाजली’ (24)
मृदुला सिन्हा (25)
सुशील गौतम (26)
मनोज कुमार ‘शिव’/हीरासिंह ‘कौशल’ (27)
मनोज चौहान (28)

कथा कहानी 

ज्वार: लक्ष्मी रानी लाल (29)

नई सदी की लघुकथा

संध्या तिवारी/चन्द्रेश छतलानी (34)
कुमार गौरव (35)
जानकी बिष्ट वाही (36)
सविता इन्द्र गुप्ता (37)
पवन जैन/कान्ता राय (38)
चित्रा राणा राघव (39)
कनक हरलालका (40)
शैलेष गुप्त ‘वीर’/छवि निगम (41)
सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ (42)
संजय वर्मा ‘दृष्टि’ (43)
कविता वर्मा/संगीता गांधी (44)
शेख़ शहज़ाद उस्मानी (46)

सरोकार 

भारत में दलित राजनीति: मनीष कुमार सिंह (47)
अनवरत-1 (काव्य रचनाएँ)
हरिश्चन्द्र शाक्य (50)
मेनका त्रिपाठी/अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’ (51)
वीना गर्ग/कोमल वाधवानी (52)

कथा प्रवाह (लघुकथाएँ)

भगीरथ (53)
शराफत अली खान (55)
ओम प्रकाश मंजुल/निरुपमा अग्रवाल (57)

सरल शताब्दी वर्ष पर विशेष

सरल जी के स्मरण क्रम में उनकी कृति ‘नेताजी का मृत्यु रहस्य’ से एक एकांकी (59)

किताबें (समीक्षााएँ)

हिन्दी लघुकथा का मार्गदर्शक दस्तावेज: डॉ. बलराम अग्रवाल की शोधालोचना पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान’ (62)/सौन्दर्य बोध के सूत्रों को प्रतिबिम्बित करती लघुकथाएँ: डॉ. संध्या तिवारी के लघुकथा संग्रह ‘ततः किम्’ (63) की डॉ.उमेश महादोषी द्वारा/अनुभूत यथार्थ-बोध तथा भावों की कविताएँ: कमलेश चौरसिया के कविता संग्रह ‘पानी का पाट’ की स्व.(डॉ.) सतीश दुबे द्वारा (64) समीक्षा।

स्तम्भ 

माइक पर : संपादकीय (आव. 2)/गतिविधियाँ (66)/प्राप्ति स्वीकार (68)/सूचनाएँ (28, 33, 46 एवं 58)

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018

{लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूं रोड, बरेली, उ.प्र. के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें।स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा } 


डॉ. उमेश महादोषी



सकारात्मक चिंतन की रचनात्मक कहानियाँ

प्रतापसिंह सोढ़ी जी को देशभर में मूलतः एक लघुकथाकार के रूप में पहचाना जाता है, लेकिन वे एक कहानीकार भी हैं और कवि भी। लघुकथाओं की तरह उनकी कहानियाँ भी प्रभावित करती हैं। लघुकथा हो या कहानी, सामाजिक सरोकारों के साथ पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों की सोंधी गंध उनकी रचनात्मकता के केन्द्र में प्रायः उपस्थित रहती है। कहानी संग्रह ‘हम सब गुनहगार हैं’ में सोढ़ी जी की बारह मौलिक कहानियों के साथ छः लघुकथाएँ भी
संग्रहीत हैं। इन कहानियों में भाषागत सहजता-सरलता तो है ही, जीवन मूल्यों से जुड़ी भाव-प्रवणता भी पाठक मन को बाँधे रखती है। इनमें से अधिकांश कहानियों का सम्बन्ध आर्थिक रूप से निम्न एवं निम्न-मध्यम वर्ग के परिवेश से है। उस परिवेश की तमाम अच्छाइयों-बुराइयों के सजीव चित्रण के मध्य सकारात्मक भाव-चिंतन का प्रभावी सम्प्रेषण देखने को मिलता है। 
      संग्रह की पहली कहानी ‘उमंग के क्षण’ एक ऐसे ट्रक ड्राइवर गरमीत की कहानी है, जो आम ड्राइवरों के चाल-चलन और व्यवहार से इतर अपनी पूरी कमाई पत्नी के हाथ पर रखता है और परिवार के साथ खुश रहता है। इस बार ट्रक रास्ते में पलट जाने के कारण वह घर पर सही समय पर नहीं पहुँच पाया। तमाम शंका-आशंकाओं के बीच घर में उसकी पत्नी बेहद पेरशान होती है। वह गुरुद्वारे मन्नत माँगने जाती है, लौटने पर उसकी पड़ोसन शुभ समाचार देती है कि उसके ‘वो’ आये थे और ट्रक के पलटने व स्वयं के सकुशल होने की सूचना देकर गये हैं। पति की कुशल जानकर पत्नी खुशी की उमंग से भर जाती है। शराब के नशे में डूबते साथी ड्राइवरों के तंज भरे मजाकों के बीच गरमीत के आत्मनियंत्रण और उसके घर पर सही समय पर न पहुँचने से परेशान पत्नी की बेचैनी के दृश्य कथा को प्रभावशाली बनाते हैं।
      ‘सिद्धि की गुड़िया’ बाल्यावस्था में पनपे प्रेम के विछोह की भावपूर्ण कथा है। ‘नपे तुले कदम’ एक ऐसे निम्नवर्गीय ब्राह्मण लड़के की कहानी है, जो अपने घर व शहर से भागकर दूसरे शहर में गन्ने के रस की चर्खी पर नौकरी करता है और इस बात से डरता है कि उसके घर वालों को यह पता न चल जाये कि वह किसी की दुकान पर झूठे बर्तन धोता है। लेकिन जब वह नौकरी बदलता है तो घरों में काम करने वाली एक लड़की से प्रेम-विवाह करके अपने जीवन को व्यवस्थित कर लेता है। अब उसके मन से सारा डर निकल चुका है और वह जातिगत भेदभाव की भावना से दूर निडरता के साथ जीना सीख जाता है। प्रेम-डगर पर जीवन की सहजता-सरलता मिल जाये तो उसे निडरता के साथ अपनाने का सन्देश देती एक सकारात्मक कथा है। संग्रह की शीर्षक कथा ‘हम सब गुनहगार हैं’ पति-पत्नी के गहरे प्रेमान्त की कथा होने के साथ हमारे समाज के पिछड़े तबके, विशेषतः मुस्लिम समाज में बीमारियों का विशेषज्ञ डॉक्टरों से इलाज कराने की वजाय नीम-हकीमों के साथ मन्नतों और गंडे-तावीजों के लिए बाबाओं-पीरों-फकीरों के पीछे दौड़ने के दुष्प्रभावों को रेखांकित करती है।
      जीवन का कुछ अर्थ अपने लिए भी होता है, लेकिन उस अर्थ वाला अध्याय समाप्त हो जाये तो भी जीवन पलायन के लिए नहीं होता। जीवन का दूसरा अर्थ अपनी जिम्मेवारियों एवं स्वयं से जुड़े निकट संबन्धियों की खुशियों के लिए भी होता है। एक ट्रक दुर्घटना के कारण अपनी टाँगे गंवाने पर डॉक्टर से मौत माँगते ‘एहसास’ के जयदयाल को जब इस बात का एहसास होता है तो उसकी जीने की मर चुकी इच्छा पुनः जाग उठती है। ‘बीस साल बाद’ की अनु, ‘सांवली’ की सांवली, ‘मर्द’ की मंगली भी जीवन के दूसरे अर्थ का अध्याय खोलकर ही जीवन-संघर्ष को अपनाती हैं। ‘नई कमीज’ व ‘अपना खून’ कहानियों में ‘पारिवारिक रिश्तों’ की सोंधी गंध पाठक मन को अच्छी लगती है। ‘मायूस आँख बन्द होंठ’ अधूरे प्रेम की प्रभावशाली कहानी है। कई निम्न आयवर्ग के शोरशराबे का कारण बनते परिवारों के मध्य एक शालीन परिवार रहने आ जाता है, जिससे सभी प्रसन्न हैं। उस परिवार की लड़की घर की खिड़की से रोजाना झाँकती है, जिसे देखकर कथानायक सत्यजीत आकर्षित हो जाता है। वह उसका परिचय जानना और घनिष्ठता बढ़ाना चाहता है। लेकिन यह काम कैसे करे, इसी कशमकश में काफी समय निकल जाता है। एक दिन वह उसे पत्र लिखने का निर्णय करता है, लेकिन उसी दिन वह परिवार उस घर को छोड़कर जाने लगता है साथ ही सत्यजीत को पता चलता है कि उस लड़की को थ्रॉट कैंसर है। सत्यजीत का सपना टूट जाता है। ‘एक कप चाय में शायरी’ एक बुजुर्ग शायर की व्यथा-कथा है, जिसे एक कप चाय पिलाकर होटल में एक होटलवाला उसका कलाम इसलिए पढ़वाना चाहता है कि इससे उसके होटल में ग्राहकों की संख्या बढ़ जायेगी। संग्रह में गुरुबख्श सिंह की पंजाबी कहानी का सोढ़ी जी द्वारा अनुवाद (स्त्री मोहरा है पुरुष की शतरंज का) भी शामिल किया गया है, जो पुरुषों द्वारा स्त्री को उपयोग करने के प्रसंग की एक प्रभावशाली कथा है। संग्रह में शामिल सोढ़ी जी की छः लघुकथाएँ बहुचर्चित और पठनीय हैं।
      कुल मिलाकर संग्रह की कहानियाँ सकारात्मक चिंतन की पठनीय दस्तावेज हैं। 

हम सब गुनहगार हैं : कहानी संग्रह : प्रतापसिंह सोढ़ी। प्रका.: रिसर्च लिंक प्रकाशन, 81, सर्वसुविधा नगर एक्यटेंशन, कनाड़िया रोड, इन्दौर-452016, म.प्र.। मूल्य: रु. 120/- मात्र। सं.: 2017।