आपका परिचय

मंगलवार, 29 मई 2018

श्रीकृष्ण 'सरल' जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष सामग्री

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 



श्रीकृष्ण 'सरल' स्मरण 


श्रीकृष्ण सरल जी 
{वर्ष 2018 स्वयं को अमर शहीदों का चारण कहने वाले महान तपस्वी राष्ट्रकवि श्रीयुत् श्रीकृष्ण ‘सरल’ का जन्मशताब्दी वर्ष है। 01 जनवरी 1919 को जन्मे सरलजी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, तदापि कहना प्रासंगिक होगा कि महान स्वाधीनता सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद से लेकर अनेकानेक ज्ञात-अज्ञात शहीदों पर शोधकार्य करके महाकाव्यों का सृजन और अपनी जमीन-जायदाद बेचकर स्वयं के व्यय पर उनका प्रकाशन-वितरण करवाने वाले सरलजी का व्यक्तित्व अपने शहीद-प्रेम के कारण अपने समकालीनों में बहुत ऊपर स्थित है। 1965 में अमरशहीद भगतसिंह की पूज्य माताजी श्रीमती विद्यादेवी को उज्जैन लाकर उनका धूमधाम से स्वागत करने वाले सरलजी का यह कथन ‘प्रकाशक लोग पुस्तकें बेचकर जायदाद बनाते हैं, मैंने जायदाद बेचकर पुस्तकें बनाई हैं’ उन्हें राष्ट्रकवियों की प्रथम पंक्ति में लाकर खड़ा करता है। उन्हें स्वाधीनता संग्रामियों का वंशज उचित ही कहा गया है। 

      ऐसे महान साहित्य मनीषी और तपस्वी व्यक्तित्व के जीवन और कर्मगाथा से जुड़े कुछ प्रसंग हम प्रस्तुत स्तम्भ में इस वर्ष में रखने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है-  सरल जी के कुछ संस्मरण। आशा है नई पीढ़ी तक उनकी स्मृतियों की सुगन्ध का एक झोंका अवश्य ही पहुँचाने में हम सफल होंगे। -संतोष सुपेकर, अविराम साहित्यिकी के श्रीकृष्ण ‘सरल’ स्मरण विशेषांक के विशेष संपादक}

मेरी सृजन संस्मृतियाँ : श्रीकृष्ण सरल
महाकाव्य लेखन की प्रेरणा
      ग्वालियर हाई कोर्ट के सामने वाली सड़क पर स्थित जब मैं प्रोफेसर श्री गुरुप्रसाद टंडन के आवास पर पहुँचा, तो वहाँ उनके पूज्य पिता-श्री स्वनाम-धन्य राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन से भेंट हो गई। मेरा परिचय जानकर उन्होंने कहा- ‘‘मैं आपको जानता हूँ। आपकी कृति ‘कवि और सैनिक’ मैंने पड़ी है, जो भूमिका-लेखन के लिए आपने गुरुप्रसाद को दे रखी है।’’ बात को आगे चलाने के उद्देश्य से मैंने कहा-
      ‘‘मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ जो मुझ अकिंचन कवि के काव्य संकलन की पाण्डुलिपि आप जैसे विद्वान ने पढ़ी है। वह आपके पढ़ने योग्य तो नहीं थी।’’
      ‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। पुस्तक मुझे बहुत पसन्द आई और मैं तो आपको परामर्श देना चाहूँगा कि अब आप महाकाव्य-लेखन प्रारम्भ कर दें, क्योंकि आपकी लेखन-शैली प्रबन्धात्मक है और मेरा विश्वास है कि आप अच्छा महाकाव्य लिख सकेंगे।’’
      हिन्दी के एक दिग्गज विद्वान, एक महान साधक द्वारा अपने लेखन की प्रशंसा सुनकर जिस हर्ष की अनुभूति मुझे हुई, वह अभूतपूर्व थी। उनके कथन के प्रति आभार व्यक्त करते हुए मैंने कहा-
      ‘‘आपके इस प्रोत्साहन को मैंने आशीर्वाद के रूप में ग्रहण किया है। महाकाव्य-लेखन के लिए किसी योग्य चरित्नायक का नाम भी बताने का कष्ट करें।’’
      ‘‘ किसी पौराणिक महापुरुष पर लिखने के स्थान पर आप किसी शहीद पर महाकाव्य लिखें। यदि आप ऐसा कर सके, तो एक प्रगतिशील विषय पर लिखने का श्रेय भी आपको मिलेगा और भारत की आजादी के सन्दर्भ में शहीदों का जो कर्ज हमारे राष्ट्र पर चढ़ा हुआ है, उसे उतारने का अवसर भी आपको मिलेगा।’’
      ‘‘जब इतनी कृपा की है तो किसी शहीद का नाम भी मुझे सुझा दीजिए, जो महाकाव्य-लेखन के लिए सब प्रकार से उपयुक्त हो।’’
      ‘‘मेरे मानस पर तो शहीद भगतसिंह छाया हुआ है। अपने क्रान्तिकारी-जीवन में वह दो बार मुझसे मिला था। मैं उसकी विनम्रता, अलौकिक प्रतिभा और संघर्ष-भावना का प्रशंसक रहा हूँ। उसकी आत्माहुति तो देश के लिए गर्व की बात है ही।’’
      ‘‘मैं प्रयत्न करूँगा कि मैं शहीद भगतसिंह पर अपना पहला महाकाव्य लिख सकूँ। यदि मैं ऐसा कर सका तो इसे आपके आशीर्वाद का प्रतिफल ही समझूँगा।’’
      यह थी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे महामानव से मिली महाकाव्य-लेखन की प्रेरणा। उनसे प्रेरणा पाकर भी मैं चार-पाँच वर्षों तक महाकाव्य-लेखन की दिशा में कुछ कर नहीं सका। यदि देश में एक विशेष घटना न होती तो मेरा महाकाव्य-लेखन टलता ही जाता। सन् 1962 में हमारे पड़ोसी देश चीन ने हमारे देश पर आक्रमण कर दिया था। मेरे कवि-रूप को चुनौती मिली और एक वीर-काव्य लिखने का मैंने संकल्प कर डाला।

शहीद भगतसिंह की माँ के सानिध्य में  
      घटना उस समय की है जब सन् 1962 ई. में शहीद भगतसिंह की माता श्रीमती विद्यावती के दर्शन करने मैं पंजाब स्थित उनके गाँव खटकर कलां जा पहुँचा। शहीद की माता से ढेर सारा स्नेह और जानकारी लेकर मैं विदा होने लगा, तो उन्होंने कहा- ‘‘बेटे तुमसे मेरी दो अपेक्षाएँ हैं, क्या तुम उन्हें पूरा करोगे?’’
      माताजी के मुँह से यह बात सुनकर मेरे मन में हलचल होने लगी। मैं सोच रहा था कि पता नहीं माताजी की क्या अपेक्षाएँ हैं और मैं उन्हें पूर्ण कर सकूँगा या नहीं! मुझे सोचने का अधिक समय नहीं मिला। माताजी ने अपनी इच्छाएँ व्यक्त कर दीं। वे बोलीं-
      ‘‘बेटे, मेरी पहली अपेक्षा तो यह है कि तुम मुझसे निरंतर संपर्क बनाए रखना। हर महीने तुम्हारा कम से कम एक पत्र तो मेरे पास आना ही चाहिए और एक वर्ष में दो बार तुम्हें मुझसे मिलना ही चाहिए।’’
      मैंने वचन दे दिया।
      उन्होंने अपनी दूसरी इच्छा बताते हुए कहा- ‘‘मुझे लगता है कि मेरे दिन गिने-चुने हैं। तुम मेरे बेटे पर जो ग्रन्थ लिखने वाले हो, वह बहुत जल्दी लिखना और बहुत जल्दी छपवा लेना। भगवान के घर जाने के पहले मैं उस ग्रन्थ को देख लेना चाहती हूँ।‘‘
      माताजी की इस इच्छा के उत्तर में मैंने कहा- ‘‘माताजी! जहाँ तक लेखन का प्रश्न है, वह मेरे बस की बात है। मैं आपको वचन देता हूँ कि लेखन को ही अधिक समय देकर मैं महाकाव्य के लेखन को शीघ्र पूरा कर लूँगा। जहाँ तक उसके प्रकाशन का प्रश्न है, वह मेरे बस की बात नहीं है, उसकी व्यवस्था तो प्रकाशक लोग ही कर सकेंगे। फिर भी मैं प्रयास करूँगा कि किसी प्रकाशक को राजी करके मैं उसका प्रकाशन भी शीघ्र ही करा लूँ।’’
      माताजी मेरे इस कथन का अर्थ नहीं लगा सकीं। वे यह नहीं जानती थीं कि लिखने वाले अलग होते हैं और छापने वाले अलग। मेरे इस कथन को सुनकर उन्हें कुछ निराशा हुई और वे बोलीं- ‘‘तो क्या तुम्हारा ग्रन्थ मुझे देखने को नहीं मिलेगा?’’
      कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात उन्होंने कहना प्रारम्भ कर दिया-
      ‘‘भगतसिंह को फाँसी लगने के पहले मैं जेल में उससे मुलाकात करने गई। अपने बेटों से मिलने सुखदेव और राजगुरु की माताएँ भी वहाँ पहुँचीं। हम तीनों माताएँ अपने शहीद होने वाले बेटों की आखिरी झलक पाने के लिए अधीर थीं। और भी बहुत से लोग उनसे आखिरी मुलाकात करने के लिए जेल के फाटक के बाहर मौजूद थे। जेल के अधिकारियों ने अपना निर्णय सुना दिया कि अभियुक्तों की माताओं के अतिरिक्त अन्य लोग उनसे नहीं मिल सकेंगे। थोड़ी देर पश्चात भगतसिंह ने भी जेल के अन्दर से अपना निर्णय भेज दिया। उसने कहा कि यदि सरकार अपने देशवासियों से हमें नहीं मिलने देती, तो अपनी माताओं से मिलना भी हमें स्वीकार नहीं है। उसका तर्क था कि देशवासी हमें हमेशा ही अपनों जैसे सगे रहे हैं और जीवन की अंतिम घड़ियों में केवल अपने रक्त-सम्बन्धियों से मिलकर हम उन्हें यह अनुभव करने का अवसर नहीं देंगे कि हमने उन्हें पराया समझा है। अपने बेटों का यह निर्णय सुनकर हम लोग उनसे अन्तिम बार मिले बिना ही वापिस आ गए। हम लोग उनके निर्णय से गर्वित तो थे, पर हर्षित नहीं थे। मेरे उस बेटे ने अपने जीवन के अंतिम समय में मुझे निराश किया था। मेरे एक बेटे तुम हो जो मेरे अंतिम दिनों में मुझे निराश करने चले हो। क्या तुम ऐसा कुछ नहीं कर सकते कि मेरे शहीद हुए बेटे से मुझे मिला दो। मेरे बेटे पर जो ग्रन्थ तुम लिखोगे, उसको देखकर ही मैं समझ लूँगी कि मैंने अपने बेटे से आखिरी मुलाकात कर ली।’’
      माताजी का वक्तव्य समाप्त हो चुका था। उनके चेहरे पर गंभीर भाव थे। उनके समीप ही खड़ी हुई उनकी एक पुत्रवधू श्रीमती लीला रणवीरसिंह अपना धैर्य खो बैठी। उनके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। माताजी ने उन्हें अपने हृदय से लगाकर अपने दुपट्टे के पल्ले से उनके आँसू पोंछे। मैं इस समय तक किंकर्तव्यविमूढ़ बना खड़ा रहा था। मुझसे कुछ कहते नहीं बना। माताजी के चरणों पर गिरकर मैंने भी उनका पाद-प्राक्षालन किया। माताजी ने मुझे उठाकर अपने हृदय से लगाया और मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरने लगी। रुँधे कंठ से मैंने कहा- ‘‘माताजी, मैं आपको वचन देता हूँ कि किसी न किसी प्रकार मैं आपके बेटे पर लिखा गया महाकाव्य बहुत शीघ्र ही आपके हाथों में दे दूँगा।’’
      माताजी को यह आश्वासन देकर और उनके अनेकों आशीर्वाद और ढेर सारा दुलार लेकर मैंने उनसे विदा ली।
     उज्जैन पहुँचकर मैं साधना में लीन हो गया। कॉलेज के अध्यापन से बचा हुआ समय मैं महाकाव्य लेखन के लिए देने लगा। स्वयं को क्रान्तिकारी-जीवन में ढालने का प्रयत्न किया। घी-दूध मिठाइयों का परित्याग कर दिया। चटाई बिछाकर भूमि-शयन करने लगा। कवि-सम्मेलनों में जाना छोड़ दिया। विश्वविद्यालय से मिलने वाला स-पारिश्रमिक कार्य भी अस्वीकार करने लगा। मेरा यह व्यवहार देखकर लोग मुझ पर हँसते थे।
      मैं देर रात तक लिखता रहता था और लिखते-लिखते वहीं भूमि पर लुढ़क कर सो जाता था। शहीद-माता को दिया हुआ वचन मुझे चिन्तित किए हुए था। वही चिन्ता स्वप्न के रूप में उभर आती थी। स्वप्न में निरंतर माताजी के साथ ही रहता था। वे पूछती- ‘‘क्यों बेटे! लेखन कहाँ तक पहुँच गया?’’
      माताजी को अपने लेखन की प्रगति के विषय में बताता और महाकाव्य के कुछ अंश उन्हें सुनाता भी था। अक्सर ही मैं उन्हें पल्ले से अपने आँसू पोंछते हुए पाता था। नींद खुलने पर मैं फिर लिखने बैठ जाता और तब तक लिखता रहता, जब तक अपने लेखन से मुझे संतोष नहीं हो जाता था।
      यह तो सपनों के संसार की बात थी। मैं पत्र लिखकर माताजी को लेखन की प्रगति बताता रहता था। लेखन-क्रम में मैं एक बार फिर माताजी से मिलने गया। मैं कुछ घटनाओं पर उनका अभिमत जानना चाहता था।
     एक वर्ष से ऊपर का समय लगा और महाकाव्य-लेखन पूर्ण हो गया। माताजी को यह खुशखबरी लिख भेजी। उन्हें यह भी लिखा कि मैं उसे शीघ्र ही छपवा भी लूँगा।
      मैं अपना काम समाप्त कर चुका था। प्रकाशकों का काम शेष था। मुझे आशा थी कि शहीदेआजम भगतसिंह पर लिखा गया महाकाव्य प्रकाशित कराने में कोई कठिनाई नहीं होगी। मैं तो यहाँ तक आशान्वित था कि उसे प्रकाशित करने के लिए प्रकाशकों में होड़ लग जाएगी। 
      महाकाव्य की पाण्डुलिपि लेकर दिल्ली पहुँचा। प्रकाशकों से मिला। कोई कहता- ‘‘हिन्दी की कविता तो बिकती ही नहीं है। इतना बड़ा महाकाव्य छापकर हम व्यर्थ अपना पैसा नहीं फँसाएँगे।’’ दूसरा कहता- ‘‘हमारी तिजोरी में कई पाण्डुलिपियाँ रखी हुई हैं। आप भी छोड़ जाइए। उन सब के छपने के पश्चात ही आपकी कृति का क्रम आ सकेगा। दो-चार साल तो आपको प्रतीक्षा करनी ही चाहिए।’’
      मैं पाण्डुलिपि लेकर किसी अन्य प्रकाशक के पास जा पहुँचता। वह कहता-
      ‘‘अगर आप इसे छपवाना ही चाहते हैं तो इसकी छपाई का पूरा पैसा हमें पेशगी दे दीजिए। हम अपने प्रकाशन का नाम डाल देंगे। हमारे प्रकाशन के नाम से आपकी पुस्तक चमक जाएगी। पुस्तक बिकने पर हम आपका पैसा आपको लौटा देंगे।’’
      मैं वहाँ से चल देता और इन्हीं उत्तरों जैसा ही कोई उत्तर पाता। कई शहरों में घूमा। ऐसा लगा जैसे भारतवर्ष के सभी प्रकाशक एक-दूसरे के भाई-बन्द हैं। मुँह लटकाए हुए मैं उज्जैन लौट आया। सोचता था जिस देश में शहीदों की यह कद्र है, उस देश का क्या होगा?
      शहीद की माता को दिया हुआ वचन प्रतिपल चिन्तित किए रहता था। एक दिन परिवार के सदस्यों को अपने सामने बिठाया और अपनी समस्या उनके सामने रख दी। परिवार में दो छोटे बच्चे भी थे, जिनमें से एक प्राथमिक विद्यालय में और दूसरा माध्यमिक विद्यालय में पढ़ता था। उन लोगों ने आश्वासन दिया कि हम लोग अपनी आवश्यकताओं को कम से कम कर देंगे और कोई ऐसी वस्तु नहीं माँगेंगे, जिसमें आपको पैसा खर्च करना पड़े। बच्चों की ओर से यह आश्वासन बहुत बड़ा आश्वासन था। पत्नी ने कहा- ‘‘मेरे पास सोने-चाँदी के जितने आभूषण हैं, उन्हें आप बेच दीजिए और शहीद भगतसिंह पर लिखी हुई किताब छपवा लीजिए।’’
      आखिर मैंने पत्नी को यह त्रास दे ही दिया। उनके सारे आभूषण बेच दिए गए। पुस्तक तो परीक्षा लेने पर तुली हुई थी। घर का अन्य सामान भी बेचना पड़ा। दस रुपया सैकड़ा प्रतिमास ब्याज-दर से एक साहूकार से कर्ज भी लिया। एक दिन कॉलेज से जब घर लौटा तो दोनों बच्चों ने मेरे हाथ में कुछ रुपये रख दिये। मैंने पूछा- ‘‘ये कहाँ से आए?’’ उन्होंने कहा- आपकी पुस्तक की छपाई में यह हमारा योगदान है। पत्नी ने स्थिति स्पष्ट की-
     ‘‘कबाड़े का सामान खरीदने वाला इधर से निकला था। इन लोगों ने अपने सारे कपड़े बेच दिए। गर्म कपड़े भी नहीं बचाए। जो कपड़े पहने हैं, वे ही कपड़े रह गए हैं।’’ बच्चों का यह त्याग और योगदान देखकर मन प्रफुल्ल हो गया। दुष्परिणाम उन्हीं को भुगतना पड़ा, जब सर्दियों के दिनों में वे ठिठुरते हुए स्कूल जाते और आते थे। उनका साथ देने के लिए हम लोगों ने भी अधिकांश वस्त्रों से विदा ले ली।
      पुस्तक द्वारा ली गई परीक्षा में हम लोग खरे उतरे। भगतसिंह महाकाव्य प्रकाशित हो गया। उसे छपा हुआ देखकर सभी लोग खुशी के मारे फूले नहीं समाते थे। शहीद-माता को सूचना दे दी गई। उनसे यह भी निवेदन कर दिया गया कि आप उज्जैन पहुँचकर ग्रन्थ का विमोचन करने की कृपा करें। यह निवेदन एक औपचारिक निवेदन था। एक प्रतिशत भी आशा नहीं थी कि वे उज्जैन पहुँच सकेंगी। मैं स्वयं उनकी हालत देख आया था। अपने मकान के एक कमरे से दूसरे कमरे तक भी वे चलकर नहीं जा सकती थीं। उनका उत्तर आ गया। लिखा था- ‘‘बेटे! मैं तुम्हारे ग्रन्थ की भेंट स्वीकार करने उज्जैन पहुँच रही हूँ।’’
      उज्जैन के उत्साह को जैसे करंट ने छू लिया हो। माताजी के स्वागत के लिए एक समिति बन गई। इस समिति की यह विशेषता थी कि सभी विचारधाराओं के लोग अपने भेदभाव भूलकर पहली बार मंच पर एक-साथ बैठे।
      माताजी उज्जैन पहुँची। लोग पगला उठे। उनका स्वागत ऐतिहासिक स्वागत बन गया। उज्जैन को राष्ट्रपतियों और प्रधामंत्रियों के स्वागत का गौरव प्राप्त हो चुका था, लेकिन भगतसिंह की माताजी के स्वागत ने पिछले सभी स्वागत पीछे छोड़ दिए। दूर-दूर तक के गाँव खाली हो गए थे और उनके निवासी माताजी के दर्शन के लिए उज्जैन पहुँच चुके थे। जिस बग्घी में बिठाकर माताजी का जुलूस निकाला गया था, वह सात बार हार-फूलों से भर गई थी। लोगों में होड़ थी। वे पुलिस के डंडे खाने को तैयार थे, लेकिन अपने हाथों से माताजी के चरण छूए बिना हटने को तैयार नहीं। माताजी ने छोटे बच्चों को पैर नहीं छूने दिए। हर बच्चे के सिर पर हाथ फेर कर और आशीर्वाद देकर ही उसे विदा करती थीं। साधु-सन्यासियों को भी माताजी ने पैर नहीं छूने दिए। वे अपना मस्तक झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर स्वयं ही उन्हें प्रणाम करती थीं। लोगों को प्रणाम करते-करते उनकर दोनों भुजाएँ बुरी तरह सूज गई थीं।
      संध्या समय आयोजित आम-सभा का वातावरण पगलाया हुआ था। माताजी ने अपने घर पर जो स्नेह मुझे दिया था, उसके कुछ संस्मरण मैंने लोगों को सुनाए। वह घटना भी मैंने लोगों को सुनाई, जब माताजी अपने फाँसी पाने वाले बेटे से अंतिम भेंट किए बिना ही जेल से लौट आईं थीं। लोगों की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बह रही थीं।
      आखिर रंगीन आवरण में लपेटी हुई भगतसिंह महाकाव्य की एक प्रति मैंने अनावरण हेतु माताजी की ओर बढ़ा दी। अपने हाथ आगे बढ़ाने के स्थान पर उन्होंने पीछे खींच लिए। मैं आश्चर्यचकित था। सभी लोग हैरान थे कि माताजी ने पुस्तक लेने से इनकार क्यों कर दिया। स्थिति माताजी ने ही स्पष्ट की। मेरी ओर मुखातिब होकर बोलीं-
      ‘‘तुम्हें पहले चन्द्रशेखर आजाद पर ग्रन्थ लिखना चाहिए था, क्योंकि भगतसिंह से पहले वह शहीद हुआ था। मेरे मुलाहिजे से तुमने पहले भगतसिंह पर ग्रन्थ लिख डाला। अगर तुम अपने नगर वालों के सामने यह वादा करो कि तुम्हारा अगला ग्रन्थ चन्द्रशेखर आजाद पर होगा, तो मैं इस ग्रन्थ की भेंट स्वीकार करूँगी, अन्यथा नहीं।’’
      माताजी की इस महानता को देख कर सभी लोग मुग्ध हो गए। बहुत देर तक उनकी जय के नारे लगते रहे। इसी बीच मैंने किसी से एक चाकू प्राप्त कर लिया और भावावेश में अपना अँगूठा चीरकर माताजी के माथे पर अपने रक्त का तिलक लगाया और उन्हें वचन दिया कि मेरा आगामी महाकाव्य चन्द्रशेखर आजाद पर ही होगा। माताजी ने आश्वस्त होकर भगतसिंह आजाद महाकाव्य का विमोचन कर उसका लोकार्पण किया और विमोचित प्रति को चूमकर उसे अपनी गोद में रख लिया। महाकाव्य की ओर देखती हुई, उन्होंने अपना सम्बोधन प्रारम्भ किया-  
      ‘‘मैंने जिसे लाहोर में खोया था, उसे उज्जैन में पा लिया है। मुझे लगता है कि ग्रन्थ के रूप में मेरा बेटा भगतसिंह ही मेरी गोद में बैठा हुआ है। जब मैं इसकी पंक्तियाँ पढ़ती हूँ, तो मुझे लगता है कि जैसे मेरा बेटा मुझसे बातें कर रहा है।’’
      सैकड़ों समीक्षकों की प्रशंसा से मेरा जो मन नहीं भरता, वह माताजी के इस मूल्यांकन से भर गया। अपनी साधना से कहीं बड़ा पुरस्कार मुझे मिल गया था।
      इस प्रकार प्रारम्भ हो गया मेरा महाकाव्य-लेखन और सात की संख्या पार करके मैं आठ तक आ पहुँचा हूँ। यह तो स्वाभाविक ही है कि निरन्तर लेखन के कारण कहीं न कहीं स्वयं को और परिवार को तो कष्ट होगा ही और इसकी अनुभूति हम सबने खूब की लेकिन मैं कभी पस्त नहीं हुआ, कुंठित नहीं हुआ और टूटा नहीं। टूटता कैसे, मैंने कभी किसी क्रान्तिकारी को टूटते नहीं देखा।
      मेरी सृजित-संस्मृतियाँ एक बड़े उपन्यास का रूप ले सकती हैं, लेकिन मैं केवल दो घटनाओं का उल्लेख और करूँगा, जो सुभाष-लेखन के क्रम में घटित हुईं।

मेरे गाल पर एक जोर का तमाचा पड़ा
      बात उस समय की है जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर प्रामाणिक रूप से कुछ लिख सकने के लिए मैं उन सभी देशों का भ्रमण करने के लिए गया, जहाँ-जहाँ नेताजी ने भारत की आजादी के प्रयत्न किए थे। इस क्रम में मैं बर्मा की राजधानी रंगून भी पहुँचा।
      रंगून के विमान-स्थल से बाहर निकलकर जब शहर में जाने के लिए टैक्सी रोकी, तो टैक्सी वाले ने मुझे शहर में ले जाने से इनकार कर दिया और पूछा कि ‘‘क्या आपके पास शहर में जाने के लिए कलॅक्टर का अनुमति-पत्र है?’’ मैंने उससे कहा कि मेरे पास रंगून के कलॅक्टर का अनुमति-पत्र तो नहीं है पर अन्तर्राष्ट्रीय पासपोर्ट अवश्य है। वह बोला- ‘‘आपका पासपोर्ट हमारे काम का नहीं है। पहले आप यहाँ के कलॅक्टर को फोन करके उन्हें स्थिति से सूचित कीजिए और अनुमति-पत्र मिलने पर ही टैक्सी को रोकिए।’’
      विमान-स्थल के टेलीफोन से मैंने कलॅक्टर कार्यालय को फोन किया। कलॅक्टर महोदय ने निर्देश दिया कि आप वहीं प्रतीक्षा करें, हम अपने एक अफसर को आपसे मिलने भेज रहे हैं। थोड़ी देर पश्चात उनका अफसर मेरे पास पहुँच गया। उससे कुछ इस प्रकार बातचीत हुई- ‘‘मैं हिन्दुस्तान का एक लेखक हूँ। क्रान्तिकारियों के जीवन पर लिखता हूँ। हमारे देश के एक क्रान्तिकारी सुभाषचन्द्र बोस पर भी मुझे लिखना है। उन्होंने कुछ समय यहाँ रंगून में रहकर भारत की आजादी के लिए प्रयत्न किए थे। मैं उनसे सम्बन्धित स्थान यहाँ देखना चाहता हूँ, इसलिए आपसे नगर-भ्रमण का अनुमति-पत्र देने की प्रार्थना कर रहा हूँ।’’
      ‘‘ठीक है, हम आपको अनुमति-पत्र तो दे देंगे, पर हमारी दो शर्तें हैं, क्या उन्हें मानेंगे?’’
      ‘‘आप अपनी शर्तें बताइए!’’
      ‘‘हमारी पहली शर्त है कि आप पूर्ण रूप से अनुशासन में रहेंगे।’’
      ‘‘आपकी यह शर्त मुझे स्वीकार है।’’
      ‘‘हमारी दूसरी शर्त यह है कि आप रंगून नगर में केवल एक स्थान को चुन लीजिए। हम उस स्थान के अलावा कोई दूसरा स्थान आपको नहीं देखने देंगे।’’
      ‘‘आपकी यह शर्त विचित्र है। खैर, मैं आपकी यह शर्त भी स्वीकार करता हूँ। आप मुझे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का मिलिट्री हेडक्वार्टर देखने की अनुमति दे दीजिए।’’
      ‘‘वह भी आप हमारे अनुशासन में देख सकेंगे।’’
      ‘‘अधिकारी महोदय ने पुलिस को फोन किया। पुलिस की एक लॉरी वहाँ पहुँची। मुझे उस गाड़ी में बैठाया गया। गाड़ी में आए पुलिस इन्सपेक्टर को अधिकारी ने कुछ समझाया। मेरे आसपास बन्दूकधारी सिपाही बैठाए गए और पुलिस इन्सपेक्टर मेरे सामने वाली बैंच पर भरा हुआ रिवाल्वर लेकर बैठा। मुझे बड़ा विचित्र लग रहा था। गाड़ी चल दी। थोड़ी देर पश्चात पुलिस की गाड़ी एक भवन के सामने रुकी। पुलिस इन्सपेक्टर बोला- ‘‘सुभाषचन्द्र बोस का मिलिट्री हेडक्वार्टर आ गया है। गाड़ी से नीचे उतरकर देखा। एक विशाल भवन मेरे सामने था। मैं कल्पना लोक में खो गया-
      यह वही सौभाग्यशाली भवन है, जहाँ भारत-मुक्ति की योजनाएँ बनती थीं और देश के दीवाने देश की आजादी की शमां पर परवाने बनने के लिए आतुर रहते थे। यह बड़ी सौभाग्सशाली भूमि है जिसकी मिट्टी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के चरणों से पवित्र हो चुकी है। क्यों न मैं यहाँ की थोड़ी-सी मिट्टी उठाकर अपने साथ ले चलूँ? मैं गर्व के साथ वह मिट्टी अपने मित्रों को दिखाऊँगा और कहूँगा- ‘‘देखो, मैं नेताजी के चरणों से पवित्र हुई मिट्टी लाया हूँ। आप सभी इसके दर्शन करें- 
      इस विचार से मैंने मुट्ठी भर मिट्टी उठा ली। मेरे ऐसा करने पर तत्काल ही पुलिस इन्सपेक्टर ने मुझे टोकते हुए कहा- ‘‘मिट्टी वापस पटक दीजिए।’’
      कुछ क्षण तक मैंने मिट्टी अपने हाथ में ही रखी। इस पर इन्सपेक्टर नाराज होकर बोला- ‘‘आपने हमारे अनुशासन में रहने का वचन दिया है। मिट्टी ज़मीन पर पटक दीजिए।’’
      मैंने मिट्टी फेंक दी और बोला- ‘‘क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ?
      ‘‘हाँ पूछिए।’’
      ‘‘आपने मिट्टी जैसी माामूली चीज ले जाने की अनुमति मुझे क्यों नहीं दी?’’
      ‘‘मेरा प्रश्न सुनकर पुलिस इन्सपेक्टर का चेहरा तमतमा गया। अपने चेहरे पर घृणा और क्रोध के मिश्रित भाव लाते हुए उसने कहा-
      ‘‘मिट्टी को मामूली चीज आप हिन्दुस्तानी लोग समझते हैं, हम नहीं।’’
      बहुत तीखा प्रहार किया था उसने। मैं तिलमिला गया। गलती मेरी ही थी। मैं इस प्रहार से सम्हल भी नहीं पाया था कि उसने दूसरा प्रहार कर दिया- ‘‘जब आप लोग अपने देश की मिट्टी की कद्र नहीं कर सकते, तो हमारे देश की मिट्टी की क्या कद्र करेंगे?’’
      ‘‘यह मामूली प्रहार नहीं था। यह उस बर्मी पुलिस इन्सपेक्टर द्वारा जड़ा गया मेरे गाल पर जोर का तमाचा था। मुझे वह कथन याद आ गया जब हमारी उत्तरी सीमा के बहुत बड़े भू-भाग पर चीनी आक्रमकों ने अपना अधिकार जमा लिया और जब हमने अपने नेताओं से उस भू-भाग को वापिस ले लेने के लिए कहा तो उनका उत्तर था-
      ‘‘इतने विशाल देश का कुछ भाग, जो बिलकुल अनुर्वर, अनुपजाऊ और अनुपयोगी था, यदि चला भी गया तो हमारे देश का क्या बिगड़ता है।’’

नेताजी के प्रभाव ने प्राण रक्षा की
      अपने विदेश-प्रवास में एक अन्य उल्लेखनीय घटना उस समय घटी जब हाँगकाँग टूरिस्ट लॉज पहुँचकर मैंने वहाँ के मैनेजर से कहा-
      ‘‘मुझे चीनी भाषा का एक दुभाषिया चाहिए, जो चीनी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी या अंग्रेजी भाषा में मुझसे बात कर सके। मैंने मैनेजर को बताया कि मैं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर कुछ तथ्यों का संकलन करने यहाँ आया हूँ। 
      मैनेजर नेताजी के नाम का उल्लेख सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। वह थाईलैण्ड का रहने वाला था और वह नेताजी का परमभक्त था। उसने टेलीफोन करके मेरे सामने एक दुभाषिया बुला दिया। वह अंग्रेजी जानता था। मैंने उससे बात की-
      ‘‘मैं यहाँ के कुछ चीनी कवियों से मिलना चाहता हूँ। या तो आप मुझे उनके पास ले चलिए या उनमें से कुछ को मेरे पास ले आइये।’’
      दुभाषिया गया और दो चीनी कवियों को मेरे पास ले आया। मैंने उनसे बात की-
      ‘‘वह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण समय था जब सन् 1962 ई. में चीन देश ने हमारे देश पर आक्रमण किया था। उस समय भारतीय कवियों ने चीन के विरुद्ध बहुत कविताएँ लिखी थीं। मैंने सबसे ज्यादा कविताएँ लिखी थीं। यह स्वाभाविक ही है कि आप लोगों ने भी भारत के विरुद्व कविताएँ अवश्य लिखी होंगी। मैं चाहता हूँ कि हम लोग बैठकर उस तरह की कविताएँ सुनें-सुनाएँ।’’ मेरे कथन को सुनकर उन चीनी कवियों ने आपस में एक-दूसरे को देखा। उनके चेहरों पर कुटिल मुस्कान दिखाई दे रही थी। उनमें से एक ने कहा- ‘‘हम लोग तो अभी नौसिखिए हैं। हमारे वरिष्ठ कवियों ने इस प्रकार की कविताएँ अवश्य लिखी हैं। यदि आप चाहें तो हम लोग उनको यहाँ ले आते हैं। फिर हम लोग किसी पार्क में चलकर एक-दूसरे की कविताएँ सुनेंगे-सुनाएँगे।’’
      मैंने उनका प्रस्ताव मान लिया। वे लोग चले गए। मैं अपने कमरे में पहुँचकर कुछ लिखा-पढ़ी करने लगा। थोड़ी देर पश्चात होटल का मैनेजर मेरे कमरे पर पहुँचा और बोला- ‘‘मैं आपसे कुछ गोपनीय बात करना चाहता हूँ। आप कमरे का दरवाजा बन्द कर लीजिए।’’
      मैंने कमरे का दरवाजा बन्द करके पूछा- 
      ‘‘कहिए, आप क्या कहना चाहते हैं? आप इतने घबराये हुए क्यों हैं?’’
      बातचीत आरम्भ हुई-
      ‘‘क्या आपने चीनी दुभाषिए के अलावा और किसी को मिलने बुलाया था?’’
      ‘‘जी हाँ, मैंने कुछ चीनी कवियों को बुलाया है। उनके आने पर उनके साथ बाहर जाने की बात भी ठहरी है। उनके आने पर आप मुझे सूचित कर दीजिए।’’
      ‘‘वे लोग एक जीप में बैठ कर आए भी थे और मैंने झूठ बोल कर उन्हें लौटा भी दिया है। जो लोग आए थे वे कवि थे या नहीं, पर मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि वे लोग यहाँ के कुख्यात गुण्डे थे और उनमें से कुछ तो कातिल भी थे। क्रोध के आवेश में वे आपके विषय में पूछ रहे थे कि हिन्दुस्तानी कवि कहाँ है। क्या आपने उन लोगों की शान के खिलाफ कुछ बात कही थी?’’
      ‘‘मैंने तो सिर्फ इतना ही कहा था कि भारत-चीन युद्ध के दिनों में मैंने चीन के विरुद्ध बहुत सारी कविताएँ लिखीं थीं।’’
      ‘‘यह तो उनके आक्रोश के लिए काफी था। अपने राष्ट्र का अपमान वे कैसे सहते! यदि वे आपको अपने साथ ले जाते तो यह निश्चय मानिए कि आप मेरे लॉज में जीवित वापस नहीं आ सकते थे। आप नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का काम लेकर आए हैं, इस कारण आपकी रक्षा करना मैंने अपना कर्तव्य समझा। मेरा तो परामर्श है कि आप मेरा यह लॉज ही नहीं, तीन घण्टे के अन्दर हाँगकाँग भी छोड़ दीजिए, तीन घंटे पश्चात वे आपको लेने दुबारा आ जाएँगे।’’
      ‘‘आपने मेरे लिए जो कुछ किया, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूँ, लेकिन टोकियो के लिए मेरा टिकिट कल का है। मैं आज हाँगकाँग कैसे छोड़ सकता हूँ।’’ 
      ‘‘मैं इसका भी प्रबन्ध किए देता हूँ। मेरी पहचान सब दूर है।’’
      और सचमुच ही उन मैनेजर महोदय ने मेरे उसी दिन के टिकिट का प्रबन्ध कर दिया। इतना ही नहीं, मेरी सुरक्षा के लिए उन्होंने अपना सहायक मेरे साथ भेज दिया, जिसने मुझे टोकियो जाने वाले विमान में बिठाकर ही विदा ली। नेताजी के प्रभाव ने मेरे प्राणों की रक्षा की।
      अपने लेखन के क्रम में इस तरह के कड़वे अनुभव मुझे बहुत हुए हैं। ऐसा नहीं कि मुझे कड़वे अनुभव ही हुए हों। मेरे जीवन के साथ बहुत मीठे-मीठे अनुभव भी जुड़े हुए हैं। मैंने कहीं लिखा भी है-
कड़वे घूँट मिले पीने को/तो मिठास भी बहुत मिली है,
कभी धूप ने झुलसाया, तो/कभी-कभी चाँदनी खिली है।
पर यह सच है, अपने मन को/कुंठाओं ने कभी न घेरा,
रात न उतनी सघन रही है/जितना उजला रहा सवेरा।
      तो अभी केवल इतना ही। शेष फिर कभी।   

(‘राष्ट्रकवि सरल स्मारिका’ से साभार) 

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