अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 11, जुलाई 2012
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : कपिलेश भोज, कन्हैयालल अग्रवाल ‘आदाब’, कृष्ण सुकुमार, अजय चन्द्रवंशी, अनिमेष, कुँवर विक्रमादित्य सिंह, चन्द्रा लखनवी, रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इन्द’ की काव्य-रचनाएँ।
कपिलेश भोज
विदीर्ण करो यह कुहासा
शिक्षा पर
जितने बढ़ रहे हैं प्रवचन और प्रशिक्षण
उतने ही
शिक्षकों और जरूरी साजोसामान से
खाली होते जा रहे हैं स्कूल और कॉलेज...
स्वास्थ्य पर
जितनी ही बढ़ रही हैं संगोष्ठियाँ और कार्यशालाएँ
डॉक्टरों और दवाओं से
उतने ही
वंचित होते जा रहे हैं अस्पताल...
जनतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी पर
जितनी बढ़ रही हैं घोषणाएँ
लिखने-पढ़ने और सोचने-विचारने के नैसर्गिक अधिकार पर
उतने ही
सख्त होते जा रहे हैं पहरे...
हे बन्धु!
कथनी और करनी के इस मायाजाल के उद्गम का
करो सन्धान
और
विदीर्ण करो यह कुहासा
ताकि
देख सको इसके पार....
उम्मीदों के हरकारे
बदहाली
और नाउम्मीदी की
स्याह कठोर चट्टानों से घिरे
दुर्गम पथ से गुजरते
देखो
उम्मीदों के इन हरकारों को...
छिल गए हों
भले ही पैर
हिंस्र पशुओं के हमलों से
हो गए हों क्षत-विक्षत
मगर
नष्ट नहीं कर सका कभी
कोई भी झंझावात इन्हें
पहचानो
हाँ, ठीक-ठीक पहचानो इन्हें
ये ही तो हैं
हर अँधेरे को चीर देने के लिए सन्नद्ध
तुम्हारे धनुर्धर
जिनके शरों को चाहिए
केवल तुम्हारा संबल....
कन्हैयालल अग्रवाल ‘आदाब’
ग़ज़ल
एक, दो, दस नहीं, सौ बात से डर लगता है
इस खुली धूप में, बरसात से डर लगता है
यह तो ख्वाहिश है कि उनसे हो मुलाकात मगर
मिल के बिछड़ेंगे वो, इस बात से डर लगता है
ठहरे हैं घर में वो अंजान की मानिंद आकर
अपने ही घर, दरो-दीवार से डर लगता है
फिर से लायेगा ख़बर ये किसी खूंरेजी की
इसलिए सुबह के अखबार से डर लगता है
इसमें अब पहले सी अपनात न है ‘आदाब’
अब तो इस शहर में रहने से डर लगता है
कृष्ण सुकुमार
ग़ज़ल
मुझे ज़ख़्मों भरे दिल को दिखाना भी नहीं आता
मुझे जलते हुए ख़ुद को बुझाना भी नहीं आता
मैं ख़ुश्बू का चहेता हूँ वो तेरी हो या फूलों की
मगर काँटों से दामन को बचाना भी नहीं आता
मुझे आता है पलकों पर बैठाना दोस्त को बेशक
मगर दुश्मन को नज़रों से गिराना भी नहीं आता
सफ़र ऐसा कि चाहूँ भी तो रूकने का कहीं कोई
बहाना भी नहीं मिलता, ठिकाना भी नहीं आता
फ़क़त इतनी गुज़ारिश है, मेरी भूलों पे मत जाना
मुझे रूठे हुए रब को मनाना भी नहीं आता
अगर ख़ुद्दार है तो अपनी ख़ुद्दारी पे क़ाइम रह
मुझे झुकना नहीं आता, झुकाना भी नहीं आता
अजय चन्द्रवंशी
ग़ज़ल
इस बेजान मोहब्बत का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
दो दिन की दीवानगी का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
न मैं ही अपनी जड़ को छोड़ पाया, न तुम दुनियाँ को,
इस कश-म-कश का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
हम एक-दूसरे पर बन्दूक तानकर खड़े हैं, मगर
जानता हूँ ऐसे हालात का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
न तुम अपने कमरे से निकलते हो, न मैं
बीच के इस दीवार का गिला मुझे भी है, तुम्हे भी है।
बदनसीबी आज तू भी पूरी सिद्दत के साथ आ,
ऐसे मर-मर के जीने का गिला मुझे भी है तुम्हे भी है।
(दो युवा कवियों अनिमेष एवं कुंवर विक्रिमादित्य सिंह के कविता संग्रह क्रमश: 'मायके लोटती नदी' व 'कुछ तो बाकी रह गया' हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। दोनों संभावनाशील कवियों के संग्रहों से प्रस्तुत हैं दो-दो कवितायेँ।)
अनिमेष
मनुष्यता से प्यार की पाती
आज चाहता हूँ लिखना
प्यार की कोई एक पाती
जिसमें निर्बंध अस्मिता
मनुष्यता की, हो गीत गाती
शब्द- साजों पर अन्तरात्मा से
उल्लास रंजित धुन बजाती
जिसमें न हो प्रिया के मिलन की
कोई वैयक्तिक राग की आकुलता
और न हो विरह की सुधियों का
जिसमें कोई दंश घुलता
जहाँ आँतें करोड़ों आदमी की
भूख से हों बुलबुलातीं
और पलक पर शिशुओं की
हों निरन्तर अश्रुओं की छंद सजातीं
वहाँ अपनी वेदना का व्यर्थ है बीन-वादन
मैं चाहता हूँ लिखना
जो प्यार की पाती
उसमें मनुष्यता की मुक्ति की हो बात
जो निःशेष कर दे
बन्धनों की युग लम्बी रात
प्रेम की गंगा बहे
कामना है इस धरा पर
प्रेम की गंगा बहे
ले सुधा का कोष सारा
अपनी दिव्यता की दीप्ति में
रंजित करे संसार को देवत्व आकर
ऋषियों की आर्ष-वाणी
रावणों-दुःशासनों के
रक्तपायी मन को बदल दे
वर्जन न हो सत्य का
अर्चन न हो असत्य का
सृजन हो तो सद्भाव का
सुन्दरं का विश्व रचे कोई बुद्ध आकर
हिंसा की जो चिरनीद्रित निशा है
बर्बरता की जो बज्र बधिर दिशा है
करुणा के निर्मल नीर नहा
जागे और खुल जाए, धुल जाए
मन विमल हो जाए
महावीर की सम्यक् ज्ञान-गंगा में धुलकर
प्रेम के रंग में गाँधी की अहिंसा रंग जाए
ईसा कर दे शमित युद्ध के उन्माद को
('मायके लोटती नदी' में संग्रहीत )
कुँवर विक्रमादित्य सिंह
कुछ तो बाकी रह गया
कुछ तो बाकी रह गया है!
मौन यह तन हो गया है
अल्प ये उल्लास के स्वर
कहाँ वह जो राग थे प्रखर
काल भी अँगड़ाए कैसे
प्रश्न की परछाई क्या थी
मैं निरंतर सभी में हूँ
विजय का जो पर्व था ही
अब लगे ना सर्वथा भी
परन्तु यह भाव अब है
आ खड़े है और अड़े हैं
कैसे थे अब मन अभिनंदन
नव तरंगों में जो हर मन
यह स्पर्श यों कह गया है,
कुछ तो बाकी रह गया है।
रात की भी नीड़ कैसी
किसलिए यह सब उत्पत्ति
अब जो सामने बन विपत्ति
मार्ग को ले किस दिशा में
कौन देखे क्या दशा है
कुछ तो बका रह गया है।
लेखनी के बल पे देखो
स्वार्थ ना भई! धैर्य रखो
अन्यथा जो समय है गया
मौन चितवन हो गया है,
कुछ तो बाकी रह गया!
ज्योत्सना
राग के अनुराग पथ पर
टूटे-फूटे प्रेरणा पग धर
कुटिया हो या महल बराबर
गति के संग चला मन सागर
मध्यकाल जब जाता है मर
बुद्धि की मृत्यु स्पष्ट गोचर
शर से छूट आत्मा अग्रसर
देखे मूर्खों को डर-डर
अंतिम हो, अंतिम अट्हास बस भर
अनेकों की विषाक्त कीचड़ भर
कहीं पथ है जहाँ तम भर
नीड़ में घन-घन की गर्जना
एक शांत स्थिर प्राण की ज्योत्सना
('कुछ तो बाकी रह गया ' में संग्रहीत )
चन्द्रा लखनवी
ग़ज़ल
कहाँ हैं वो कहाँ हूँ मैं मुकद्दर उनसे मिलवा दे।
मेरी बेताब नज़रों को झलक उनकी दिखला दे।
दिया दिल मैंने उनको था मगर अब जान दे दूँगा
तमन्ना है कि मुझको वो दमे-गुस्ल आके नहला दे
क़यामत का सहारा है कि शायद वो मिलें आकर
ग़मे-हिज़्रां सुनाऊँगा ख़ुदा ख़िलवत में मिलवा दे
ख़ुदा इस रौशनी को तेज़ अब इतना तो कर दे जो
हरीसों को मेरी मय्यत के खाली हाथ दिख़ला दे
कहीं ये मुर्दे भी उठकर लगें न नाचनें ‘चन्द्रा’
तिलिस्म कुछ उनका ऐसा है जो मुर्दौ को भी बहका दे
रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इन्द’
ग़ज़ल
रंग पै रंग कितने हुये
रंग बेरंग कितने हुये
जिन्दगी जी सके आदमी
इसलिए ढंग कितने हुये
रोज कानून बनता गया
रोज ही भंग कितने हुये
रेत मेरा मुकद्दर हुआ
रेत में गंग कितने हुये
दूर अपनों से होते गये
दूसरे संग कितने हुये
बेहया, बेवशी, बेरुखी
हर गली नंग कितने हुये
इन्दु रिश्ते बदलने लगे
आदमी तंग कितने हुये
सामग्री : कपिलेश भोज, कन्हैयालल अग्रवाल ‘आदाब’, कृष्ण सुकुमार, अजय चन्द्रवंशी, अनिमेष, कुँवर विक्रमादित्य सिंह, चन्द्रा लखनवी, रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इन्द’ की काव्य-रचनाएँ।
कपिलेश भोज
विदीर्ण करो यह कुहासा
शिक्षा पर
जितने बढ़ रहे हैं प्रवचन और प्रशिक्षण
उतने ही
शिक्षकों और जरूरी साजोसामान से
खाली होते जा रहे हैं स्कूल और कॉलेज...
स्वास्थ्य पर
जितनी ही बढ़ रही हैं संगोष्ठियाँ और कार्यशालाएँ
डॉक्टरों और दवाओं से
उतने ही
वंचित होते जा रहे हैं अस्पताल...
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव |
जितनी बढ़ रही हैं घोषणाएँ
लिखने-पढ़ने और सोचने-विचारने के नैसर्गिक अधिकार पर
उतने ही
सख्त होते जा रहे हैं पहरे...
हे बन्धु!
कथनी और करनी के इस मायाजाल के उद्गम का
करो सन्धान
और
विदीर्ण करो यह कुहासा
ताकि
देख सको इसके पार....
उम्मीदों के हरकारे
बदहाली
और नाउम्मीदी की
स्याह कठोर चट्टानों से घिरे
दुर्गम पथ से गुजरते
देखो
उम्मीदों के इन हरकारों को...
छिल गए हों
भले ही पैर
हिंस्र पशुओं के हमलों से
छायाचित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
मगर
नष्ट नहीं कर सका कभी
कोई भी झंझावात इन्हें
पहचानो
हाँ, ठीक-ठीक पहचानो इन्हें
ये ही तो हैं
हर अँधेरे को चीर देने के लिए सन्नद्ध
तुम्हारे धनुर्धर
जिनके शरों को चाहिए
केवल तुम्हारा संबल....
- स्थान एवं पो0 सोमेश्वर, जिला-अल्मोड़ा (उत्तराखण्ड)-263637
कन्हैयालल अग्रवाल ‘आदाब’
ग़ज़ल
एक, दो, दस नहीं, सौ बात से डर लगता है
इस खुली धूप में, बरसात से डर लगता है
रेखांकन : पारस दासोत |
मिल के बिछड़ेंगे वो, इस बात से डर लगता है
ठहरे हैं घर में वो अंजान की मानिंद आकर
अपने ही घर, दरो-दीवार से डर लगता है
फिर से लायेगा ख़बर ये किसी खूंरेजी की
इसलिए सुबह के अखबार से डर लगता है
इसमें अब पहले सी अपनात न है ‘आदाब’
अब तो इस शहर में रहने से डर लगता है
- बंगला नं. 89, गवालियर रोड, नौलक्खा, आगरा-282001
कृष्ण सुकुमार
ग़ज़ल
मुझे ज़ख़्मों भरे दिल को दिखाना भी नहीं आता
मुझे जलते हुए ख़ुद को बुझाना भी नहीं आता
मैं ख़ुश्बू का चहेता हूँ वो तेरी हो या फूलों की
मगर काँटों से दामन को बचाना भी नहीं आता
मुझे आता है पलकों पर बैठाना दोस्त को बेशक
छायाचित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
सफ़र ऐसा कि चाहूँ भी तो रूकने का कहीं कोई
बहाना भी नहीं मिलता, ठिकाना भी नहीं आता
फ़क़त इतनी गुज़ारिश है, मेरी भूलों पे मत जाना
मुझे रूठे हुए रब को मनाना भी नहीं आता
अगर ख़ुद्दार है तो अपनी ख़ुद्दारी पे क़ाइम रह
मुझे झुकना नहीं आता, झुकाना भी नहीं आता
- 153-ए/8, सोलानी कुंज, भा. पौ. सं., रूड़की-247667(उत्तराखण्ड)
अजय चन्द्रवंशी
ग़ज़ल
इस बेजान मोहब्बत का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
दो दिन की दीवानगी का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
न मैं ही अपनी जड़ को छोड़ पाया, न तुम दुनियाँ को,
इस कश-म-कश का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
जानता हूँ ऐसे हालात का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
न तुम अपने कमरे से निकलते हो, न मैं
बीच के इस दीवार का गिला मुझे भी है, तुम्हे भी है।
बदनसीबी आज तू भी पूरी सिद्दत के साथ आ,
ऐसे मर-मर के जीने का गिला मुझे भी है तुम्हे भी है।
- राजमहल चौक, फूलवारी के सामने, कवर्धा, जिला- कबीरधाम-491995 (छ.गढ़)
(दो युवा कवियों अनिमेष एवं कुंवर विक्रिमादित्य सिंह के कविता संग्रह क्रमश: 'मायके लोटती नदी' व 'कुछ तो बाकी रह गया' हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। दोनों संभावनाशील कवियों के संग्रहों से प्रस्तुत हैं दो-दो कवितायेँ।)
अनिमेष
मनुष्यता से प्यार की पाती
आज चाहता हूँ लिखना
प्यार की कोई एक पाती
जिसमें निर्बंध अस्मिता
मनुष्यता की, हो गीत गाती
शब्द- साजों पर अन्तरात्मा से
उल्लास रंजित धुन बजाती
जिसमें न हो प्रिया के मिलन की
कोई वैयक्तिक राग की आकुलता
और न हो विरह की सुधियों का
जिसमें कोई दंश घुलता
छाया चित्र : रोहित काम्बोज |
भूख से हों बुलबुलातीं
और पलक पर शिशुओं की
हों निरन्तर अश्रुओं की छंद सजातीं
वहाँ अपनी वेदना का व्यर्थ है बीन-वादन
मैं चाहता हूँ लिखना
जो प्यार की पाती
उसमें मनुष्यता की मुक्ति की हो बात
जो निःशेष कर दे
बन्धनों की युग लम्बी रात
प्रेम की गंगा बहे
कामना है इस धरा पर
प्रेम की गंगा बहे
ले सुधा का कोष सारा
अपनी दिव्यता की दीप्ति में
रंजित करे संसार को देवत्व आकर
ऋषियों की आर्ष-वाणी
रावणों-दुःशासनों के
रेखांकन : बी मोहन नेगी |
वर्जन न हो सत्य का
अर्चन न हो असत्य का
सृजन हो तो सद्भाव का
सुन्दरं का विश्व रचे कोई बुद्ध आकर
हिंसा की जो चिरनीद्रित निशा है
बर्बरता की जो बज्र बधिर दिशा है
करुणा के निर्मल नीर नहा
जागे और खुल जाए, धुल जाए
मन विमल हो जाए
महावीर की सम्यक् ज्ञान-गंगा में धुलकर
प्रेम के रंग में गाँधी की अहिंसा रंग जाए
ईसा कर दे शमित युद्ध के उन्माद को
('मायके लोटती नदी' में संग्रहीत )
- एस.पी. कोठी के पीछे, एस.डी.ओ. रोड, हाजीपुर, वैशाली (बिहार)
कुँवर विक्रमादित्य सिंह
कुछ तो बाकी रह गया
कुछ तो बाकी रह गया है!
मौन यह तन हो गया है
अल्प ये उल्लास के स्वर
कहाँ वह जो राग थे प्रखर
काल भी अँगड़ाए कैसे
प्रश्न की परछाई क्या थी
मैं निरंतर सभी में हूँ
विजय का जो पर्व था ही
अब लगे ना सर्वथा भी
छायाचित्र : उमेश महादोषी |
आ खड़े है और अड़े हैं
कैसे थे अब मन अभिनंदन
नव तरंगों में जो हर मन
यह स्पर्श यों कह गया है,
रात की भी नीड़ कैसी
किसलिए यह सब उत्पत्ति
अब जो सामने बन विपत्ति
मार्ग को ले किस दिशा में
कौन देखे क्या दशा है
कुछ तो बका रह गया है।
लेखनी के बल पे देखो
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
अन्यथा जो समय है गया
मौन चितवन हो गया है,
कुछ तो बाकी रह गया!
ज्योत्सना
राग के अनुराग पथ पर
टूटे-फूटे प्रेरणा पग धर
गति के संग चला मन सागर
मध्यकाल जब जाता है मर
बुद्धि की मृत्यु स्पष्ट गोचर
शर से छूट आत्मा अग्रसर
देखे मूर्खों को डर-डर
अंतिम हो, अंतिम अट्हास बस भर
अनेकों की विषाक्त कीचड़ भर
कहीं पथ है जहाँ तम भर
नीड़ में घन-घन की गर्जना
एक शांत स्थिर प्राण की ज्योत्सना
('कुछ तो बाकी रह गया ' में संग्रहीत )
- 1, छिब्बर मार्ग, (आर्य नगर), देहरादून-248001(उ.खंड)
चन्द्रा लखनवी
ग़ज़ल
कहाँ हैं वो कहाँ हूँ मैं मुकद्दर उनसे मिलवा दे।
मेरी बेताब नज़रों को झलक उनकी दिखला दे।
दिया दिल मैंने उनको था मगर अब जान दे दूँगा
छायाचित्र : उमेश महादोषी |
क़यामत का सहारा है कि शायद वो मिलें आकर
ग़मे-हिज़्रां सुनाऊँगा ख़ुदा ख़िलवत में मिलवा दे
ख़ुदा इस रौशनी को तेज़ अब इतना तो कर दे जो
हरीसों को मेरी मय्यत के खाली हाथ दिख़ला दे
कहीं ये मुर्दे भी उठकर लगें न नाचनें ‘चन्द्रा’
तिलिस्म कुछ उनका ऐसा है जो मुर्दौ को भी बहका दे
- 922, जनकपुरी, बरेली-243122 (उ.प्र.)
रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इन्द’
ग़ज़ल
रंग पै रंग कितने हुये
रंग बेरंग कितने हुये
जिन्दगी जी सके आदमी
इसलिए ढंग कितने हुये
रोज कानून बनता गया
रोज ही भंग कितने हुये
छाया चित्र : अभिशक्ति |
रेत में गंग कितने हुये
दूर अपनों से होते गये
दूसरे संग कितने हुये
बेहया, बेवशी, बेरुखी
हर गली नंग कितने हुये
इन्दु रिश्ते बदलने लगे
आदमी तंग कितने हुये
- इंदु साहित्य सदन, बड़ा गांव स्टैण्ड, झांसी-284121 (उ.प्र.)
अविराम विस्तारित
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।।कविता अनवरत।।
इस प्रस्तुति का जितना व्यापक कैनवास रहा उतनी ही मुखर और उत्कृष्ट रचनाएं .किसे सराहें किसे छोड़ें .आनंद वर्षं होता रहा जब तक पढ़ते रहे .एक रंग आता रहा और दूसरा जाता रहा .
बहुत सुंदर सुंदर अभिव्यक्तियाँ है एक ही स्थान पर वाह !
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