आपका परिचय

रविवार, 30 सितंबर 2018

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  08,   अंक  :  01-02,   सितम्बर-अक्टूबर 2018 


।।कथा प्रवाह।।


मधुदीप





मुर्दाघर
       यह एक मनहूस दिन है जिसका साया इस सरकारी हस्पताल पर पड़ गया है। पूरा हस्पताल मुर्दाघर में बदल गया है जहाँ से सिर्फ उन अभागों की चीखें आ रही हैं जिनके कोई उन्हें छोड़कर चले गए हैं। ये चीखें इस मुर्दाघर से आकर पूरे हस्पताल में फैल रहे सन्नाटे को तोड़ने की असफल कोशिश कर रही हैं।
      “माँ, मुझे बचा लो! मैं मर जाऊँगी...” पाँच साल की बच्ची की चीत्कार डॉक्टर राघव के कानों तक पहुँच रही है। यह उस सरकारी हस्पताल का डॉक्टर्स रूम है जो इस समय मुर्दा हो गया है। डॉक्टर राघव के अलावा यहाँ तीन डॉक्टर और भी मौजूद हैं लेकिन वे सब बहरे हो गए हैं। बच्ची की माँ बार-बार सभी डॉक्टरों के पाँव पकड़ रही है।
      वेतन बढ़ोतरी के लिए इस सरकारी हस्पताल में डॉक्टरों की हड़ताल का यह पहला दिन है लेकिन आज पहले ही दिन जैसे सब-कुछ ठप्प हो गया है। निराश पीले जर्द चेहरे कुछ हताश चेहरों का हाथ पकड़े हस्पताल के गेट की तरफ लौट रहे हैं।
      “वह मर जायेगी डॉक्टर ...!” यह चीख सिस्टर मार्था की है जिसने डॉक्टर राघव को झकझोर दिया है। उसके पाँवों में गति आ गई है।
      “कहाँ जा रहे हो राघव?” तीनों डॉक्टरों की यह इकट्ठी आवाज है।
      “सुन नहीं रहे हो, वह मर जायेगी!” वह चिल्ला उठता है।
      “लेकिन हम हड़ताल पर हैं और आप भी हमारे साथ हैं। हम अपने हक के लिए लड़ रहे हैं।” वे उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं।
      “हक से पहले फर्ज होता है मेरे भाई !”
      “हम सब आपका बायकाट कर देंगे डॉक्टर राघव!” फिर एक साथ तीन स्वर डॉक्टर राघव के पाँवों को बाँधने का प्रयास कर रहे हैं।
      “कोई बायकाट उस शपथ से बढ़कर नहीं है फ्रेंड्स, जो हमने डॉक्टर बनने पर सबसे पहले ली थी।”
      डॉक्टर राघव तेजी से उधर जा रहा है जिधर से उस बच्ची की चीखें आ रही हैं। सिस्टर मार्था उसके पीछे लपक रही है। मुर्दाघर अब हस्पताल में बदल रहा है।
  • 138/16, ओंकारनगर-बी, त्रिनगर, दिल्ली-110035/मो. 08130070928

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  08,   अंक  :  01-02,   सितम्बर-अक्टूबर 2018 


।।कविता अनवरत।।


निर्देश निधि






गैर कानूनी


               “ए लड़की तू ही यहाँ काम करती है क्या?” पुलिस वाली ने काम वाली की बेटी राधा से कड़क कर पूछा।
      ‘‘हाँ, करती हूँ।’’ 
      ‘‘तेरी उम्र क्या है?’’
      ‘‘तेरह साल!’’
      ‘‘हाँ, यही तो! हमें शिकायत ठीक ही मिली है कि ये बाल मजदूरी कराते हैं अपने घर में।’’
      ‘‘किसने की शिकायत?’’
      ‘‘अच्छा जवाब माँगती है हमसे?’’
      ‘‘क्यों न मागूँ जवाब?’’
      ‘‘बोल कब से तेरे से गैर कानूनी रूप से काम कराते हैं इस घर के मालिक? हम इन्हें कड़ी सज़ा दिलवाएँगे।’’
      ‘‘गैर कानूनी रूप से कैसे हुआ? अम्माजी मुझे पढ़ाती-लिखाती हैं। मेरे स्कूल की फीस देती हैं। दिन-भर का खाना-पीना मेरा इन्हीं के पास है। कौन-सा कानून ये सब करेगा मेरे लिए? अगर मैं उनकी बेटी होती तो क्या उनकी बीमारी में उनकी मदद न करती, बताओ पुलिस वाली आंटी? और मुझे ये भी पता है, किसने की होगी शिकायत। उन बाजू वाले बुड्ढे अंकल ने ही न? पता है क्यों?’’
      ‘‘हाँ, उन्होने ही की है, क्योंकि देखा होगा तेरे साथ अन्याय होते।’’
      ‘‘कुछ अन्याय होते न देखा उन्होंने। उनकी पोती की उम्र की हूँ, क्या हरकत करी उन्होंने मेरे साथ अपने घर के बगीचे में?’’ 
      ‘‘क्या करने गई थी तू उनके बगीचे में?’’ पुलिसवाली ने कड़क कर पूछा।
      ‘‘अपनी अम्मा को बुलाने गई थी मैं। वो तो ये वाली अम्मा जी आ गईं मेरी चीख सुनकर। जो ये न आईं होतीं तो क्या हो सकता था मेरे साथ, आपको पता भी है? आई बड़ी, अम्माजी को कड़ी सज़ा दिलाने वाली... हुँह....   


  • विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर-203001, उ.प्र./मो. 09358488084 

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  08,   अंक  :  01-02,   सितम्बर-अक्टूबर 2018 


।।कविता अनवरत।।


ज्योत्स्ना कपिल 



चुनौती


        जूनागढ़ रियासत में जबसे वार्षिक गायन प्रतियोगिता की घोषणा हुई थी संगीत प्रेमियों में हलचल मच गई थी। उस्ताद ज़ाकिर खान और पंडित ललित शास्त्री दोनों ही बेजोड़ गायक थे। परन्तु उनमे गहरी प्रतिद्वन्दिता थी। रास्ट्रीय संगीत आयोजन के लिए दोनों पूरे दम खम के साथ रियाज़ में जुट गए , वे दोनों ही अपने हुनर की धाक जमाने को बेकरार थे। अक्सर दोनो के चेले चपाटों के बीच सिर फुटव्वल की नौबत आ जाती। खान साहब के शागिर्द अपने उस्ताद को बेहतर बताते तो शास्त्री जी के चेले अपने गुरु को।
        खान साहब जब अलाप लेते तो लोग सुध बुध खोकर उन्हें सुनते रहते, उधर शास्त्री जी के एक एक आरोह अवरोह के प्रवाह में लोग साँस रोककर उन्हें सुनते रह जाते। दोनों का रियाज़ देखकर निर्णय लेना मुश्किल हो जाता कि प्रतियोगिता का विजेता होने का गौरव किसे मिलेगा। बड़ी-बड़ी शर्ते लग रही थीं कि उनमें से विजेता कौन होगा।
        शास्त्री जी की अंगुलियाँ सितार पर थिरक रही थीं, वह अपनी तान में मगन होकर सुर लहरियाँ बिखेर रहे थे । पशु पक्षी तक जैसे उन्हें सुनकर सब कुछ भूल गए थे, तभी एक चेला भागा हुआ चला आया
        " गुरूजी, अब आपको कोई भी कभी चुनौती नही दे पाएगा, आप संगीत की दुनिया के सम्राट बने रहेंगे  "
        " क्यों क्या हो गया ?"
        " गुरु जी अभी खबर मिली है कि आज रियाज़ करते हुए खान साहब का इंतकाल हो गया " शिष्य ने बहुत उत्तेजना में बताया।
         सुनकर शास्त्री जी का मुँह पलभर को आश्चर्य से खुला रह गया, फिर आँखों में अश्रु तैर गए। उन्होंने सितार उठाकर उसके नियत स्थान पर रखकर आवरण से ढंका और माँ सरस्वती को प्रणाम किया। फिर सूनी नज़रों से आसमान ताकते हुए भर्राए स्वर में कहा
          "मेरा हौसला चला गया...अब मैं जीवन में कभी नहीं गा सकूँगा।"


रोबोट

        बड़े ट्रंक का सामान निकालते हुए शिखा ने बड़े ममत्व से अपने पुत्र राहुल के छुटपन के वस्त्र और खिलौनों को छुआ। छोटे-छोटे झबले,स्वेटर, झुनझुने, न जाने कितनी ही चीजें उसने बड़े यत्न से अब तक सम्हालकर रखी थीं।
          अरे रोबोट ! वह चिहुँक उठी। जब दो वर्ष का था बेटा, तो अमेरिका से आये बड़े भैया ने उसे ये लाकर दिया था। कई तरह के करतब दिखाता रोबोट पाकर राहुल तो निहाल हो उठा। उसमे प्राण बसने लगे थे उसके। पर शरारत का ये आलम कि कोई खिलौना बचने ही न देता था। ऐसे में इतना महँगा रोबोट बर्बाद होने देने का मन नही हुआ शिखा का । रोबोट से खेलते समय वह बहुत सख्त हो उठती बेटे के साथ । आसानी से राहुल को देती ही नहीं। लाख लानत मलामत करने पर ही कुछ समय को वह खिलौना मिल पाता । फिर उसकी पहुँच से दूर रखने को न जाने क्या-क्या जुगत लगानी पड़ती उसे ।
         शिखा के यत्नों का ही परिणाम था कि वह अब तक सही सलामत था। राहुल तो उसे भूल भी चुका था। फिर अब तो बड़ा भी हो गया था, पूरे बारह वर्ष का। अपनी वस्तुओं को माँ के मन मुताबिक सम्हालकर भी रखने लगा था।
         " अब राहुल समझदार हो गया है, आज मै उसे ये दे दूँगी। बहुत खुश हो जाएगा , उसका अब तक का सबसे प्रिय खिलौना । " बड़बड़ाते हुए उसकी ऑंखें ख़ुशी से चमक रही थीं।
          तभी राहुल ने कक्ष में प्रवेश किया। 
         " देख बेटा ,मेरे पास क्या है ?" उसने राजदाराना अंदाज में कहा।
         " क्या माँ ?"
          " ये रोबोट, अब तुम इसे अपने पास ही रख सकते हो । अब तो मेरा बेटा बहुत समझदार हो गया है।" 
         " अब इसका क्या करूँगा माँ ?" क्षण मात्र को पीड़ा के भाव उभरे, फिर कोई तवज्जो न देते हुए सख्त लहजे में बोला " मैं कोई लिटिल बेबी थोड़े ही हूँ जो रोबोट से खेलूँगा " 

    
कब तक ? 


           उसकी सूनी नज़रें कोने में लगे जाले पर टिकी हुई थीं । तभी एक कीट उस जाले की ओर बढ़ता नज़र आया। वह ध्यान से उसे घूरे जा रही थी।

        " अरे ! यहाँ बैठी क्या कर रही हो ? हॉस्पिटल नही जाना क्या ?" पति ने टोका तो जैसे वह जाग पड़ी।

       " सुनिए , मेरा जी चाहता है की नौकरी छोड़ दूँ । बचपन से काम कर - कर के थक गई हूँ  । शरीर टूट चला है । साथी डॉक्टरों की फ्लर्ट करने की कोशिश , मरीज और उनके तीमारदारों की भूखी निगाह , तो कभी हेय दृष्टि , अब बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया है । " आशिमा ने याचना भरी दृष्टि से पति को ताका।

       " पागल हो गई हो क्या ? बढ़ते बच्चो के पढ़ाई के खर्चे, फ्लैट और गाड़ी की किस्तें । ये सब कैसे पूरे होंगे ? " 

      " मुझे बहुत बुरा लगता है जब डबल मीनिंग वाले मजाक करते हैं ये लोग। इन सबकी भूखी नज़रें जब अपने शरीर पर जमी देखती हूँ तो घिन आती है । "

         " हद है आशिमा, अच्छी भली सरकारी नौकरी है। जिला अस्पताल में स्टाफ नर्स हो। अभी कितने साल बाकि हैं नौकरी को । तुम्हारे दिमाग में ये फ़ितूर आया कहाँ से ? थोडा बर्दाश्त करना भी सीखो ।  " झिड़कते स्वर में पति ने जवाब दिया।

          " चलो उठो,आज मैं तुम्हे ड्रॉप करके आता हूँ " उन्होंने गाड़ी की चाभी उठाते हुए कहा। आशिमा की निगाह जाले की ओर गई तो देखा वह कीट जाले में फंसा फड़फड़ा रहा है और खूंखार दृष्टि जमाए एक मकड़ी उसकी ओर बढ़ रही है।
           " नहीं " वह हौले से बुदबुदाई, फिर उसने आहिस्ता से जाला साफ करने वाला उठाया और उस जाले का अस्तित्व समाप्त कर दिया।


किस ओर ?    

             "हम बालको को इस्कूल पढ़ने भेजे हैं या बेमतलब के काम के लिए। जब देखो मैडम नई नई चीजें मंगाती रहवे हैं  । "
            "अम्मा अगर आज शीशे और फेविकोल नही ले गया तो मैडम जी मारेंगी। "
          "हमाए पास नही है पैसे, किसी तरह पेट काटकर फीस के पैसों की जुगाड़ करो तो रोज इस्कूल से नई फरमाइश। जीना मुसकिल कर दिया है ।"
          "अम्मा ..."
          "चुपकर छोरा, दो झापड़ खा लेगा तो तेरा कुछ न बिगड़ जाएगा।"
          राजू  बस्ता टाँगकर मुँह लटकाए हुए विद्यालय चल दिया। पर पिटाई के भय ने उसकी गति को बहुत धीमा कर दिया था। कल ही तो मैडम ने सजावटी सामान न ले जाने पर उसे खूब भला बुरा कहा था और दो चांटे भी लगाए थे। सबके सामने हुए अपमान ने उसके कोमल मन को बहुत आहत किया था। सुस्त चाल से चलता हुआ जा रहा था कि रेलवे लाइन के पास कुछ किशोर लड़को के समूह ने उसका ध्यान आकर्षित किया। वह उत्सुकता से उस ओर चल पड़ा।
         वहाँ बच्चे जुआ खेलने में मगन थे। एक दो बच्चों के हाथ मे सुलगते हुए बीड़ी  के ठूँठ भी फँसे हुए थे। उसे देखकर उन सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ।
         "आ जा, खेलेगा क्या ?"
          वह मौन रहा, उसे समझ न आया कि क्या जवाब दे।
         " बोल न, खेलना है तो बैठ जा। " एक ने फिर पूछा।
        " मेरे पास कुछ नही। " उसने विवशता बताई।
पूछने वाले ने उसका जायजा लिया और फिर उसकी निगाह राजू के बस्ते और उसमें रखी किताबों  पर जम गई। उसकी आँखों मे एक चमक उभरी।
          "ये है तो इतना माल।"
           उसकी निगाह का पीछा करते हुए राजू की दृष्टि भी बैग पर जम गई और चेहरे पर कुछ असमंजस के भाव उभर आये।
          " लेकिन ये तो पढ़ने के लिये ... "
          " अब तक क्या मिल गया पढ़कर? एक बार दाँव लगाकर देख। अगर जीत गया तो ये सब माल तेरा " राजू की दृष्टि एक, दो और पाँच के नोटों के ढेर पर पड़ी ।उसके हाथ बस्ते पर कस गए और चेहरे पर कशमकश उभर आई। बस्ता धीरे से कंधे पर से नीचे सरकने लगा। पर ... फिर उसके चेहरे पर सख्ती उभर आयी। उसने दृढ़ता से बस्ता कंधे पर डाला और विद्यालय की ओर दौड़ लगा दी।

  • 18-ए, विक्रमादित्यपुरी, स्टेट बैंक कालोनी, बरेली, उ.प्र./मो. 08077432819 

अविराम विस्तारित

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।।कविता अनवरत।।


रमेश गौतम





देह
     विवाह का पहला वर्ष आकाश में उड़ते हुए ही बीत गया, कभी देश कभी विदेश। सफल बिजनेस मैन की पत्नी बनना भी तब लॉटरी खुल जाने से कम न लगा था नीरजा के माता-पिता को।
      सुन्दर और सुशिक्षित नीरजा को अपने बारे में सोचने का अवसर भी न मिला था कि विवाह हो गया। एक वर्ष का वैवाहिक जीवन उसकी देह के ऊपर से गुजर गया।
      पहला एबार्सन सिर्फ इसलिए कि उसकी ‘फिगर’ में कहीं ढीलापन न आ जाए, देह-सौष्ठव के प्रति इतनी चिंता! कितना संघर्ष किया था अपनी ही देह के अस्तित्व से उसने।
      काश... सुकुमार देह के अतिरिक्त भी जान पाता नारी को, व्यापार की दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि ने उसे कितना स्वार्थी और व्यक्तिवादी बना दिया है। कहीं कोई संवेदनशीलता नहीं। आज पाँच महीने से बिल्कुल अशक्त है। दूसरे एबार्सन ने उसे बिस्तर पकड़ा ही दिया।
      सुकुमार ही उसे विवश कर उस दिन भी पार्टी में ले गया था, अपने किसी बिजनेस कान्ट्रैक्ट का हवाला देकर। 
      रात भर चली पार्टी और नाच ने एक बार फिर उसकी ममता का गला घोंट दिया। तब से नारी के अभिशाप को जी रही है वह।
      कार आने की आवाज से उसकी तन्द्रा टूटी।
      ‘‘हैलो डार्लिंग, हाउ आर यू? दवाइयाँ टाइम से लीं... और हाँ कल तुम्हें डॉ. कपूर चैक करने आ रहे हैं, जरूरत समझो तो ऑफिस फोन कर लेना। अच्छा, गुडनाइट, मुझे आज रात भी बहुत सारा काम निपटाना है।’’
      छत को देखती नीरजा की आँखें एक बारगी सुकुमार की ओर मुड़ी और फिर अपनी कमजोर होती देह का मतलब समझकर वापस छत पर लौट गई, जहाँ अब भी एक बच्चे की तस्वीर धुँधला रही है।
      बगल के आफिस कम बैडरूम में रोज की तरह आज भी सुकुमार अपनी स्टेनो को डिक्टेशन दे रहा है।


  • रंगभूमि, 78-बी, संजयनगर, बाईपास, बरेली-243005, उ.प्र./मो. 09411470604

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।।कविता अनवरत।।


सविता मिश्रा





वर्दी
       ‘‘मम्मी, पापा को, दादा जी अपनी तरह फौजी बनाना चाहते थे न?’’
        ‘‘हाँ! क्यों?’’
      ‘‘क्योंकि पापा मुझ पर अब फौजी बनने का प्रेशर डाल रहे है। मैं पापा की तरह पुलिस अफसर बनना चाहता हूँ।’’ पापा की फोटो देखते हुए बेटे ने कहा।
      माँ कुछ कहती उससे पहले पापा ने माँ-बेटे के वार्तालाप को सुन लिया, अपनी तस्वीर के ऊपर टँगी दादाजी की तस्वीर देखते हुए पापा बोले-
      ‘‘बेटा मैं 16 से 18 घंटे ड्यूटी करता हूँ। कभी-कभी दो-तीन दिन बस झपकी लेकर गुजार देता हूँ। घर परिवार सबसे दूर रहना मज़बूरी है मेरी। छुट्टी साल में चार भी मिल जाये तो गनीमत समझो। क्या करेगा मुझ-सा बनकर? क्या मिलेगा बता तो तिज़ारत के सिवा??’’
      ‘‘पर पापा फौजी बनकर भी क्या मिलेगा? खाकी वर्दी फौज की पहनूँ या पुलिस की!’’
      ‘‘फौजी बन इज्जत मिलेगी! हर चीज की सहूलियत मिलेगी। उस खाकी में नीला रंग भी होगा सुकून और ताज़गी के लिए। यह खाकी मटमैली होती। जिसके कारण किसी को हमारा काम नहीं दिखता। बस दिखती है तो धूलधूसरित हमारी छवि। तेरे दादाजी की बात ना मानकर बहुत पछता रहा हूँ। फौज की वर्दी पहनकर इतना काम करता तो कुछ और मुक़ाम होता मेरा।’’
      ‘‘पापा, ठीक है सोचने का वक्त दीजिये थोड़ा।’’
      ‘‘अब तू मेरी बात मान या न मान पर इतना जरूर समझ ले, क्रोध में निर्णय और अतिशीघ्र निर्णय नहीं लेना, मतलब दोनों ही वर्दी की साख में बट्टा लगाना है!’’ पापा अपनी वर्दी पर दो स्टार लगाते हुए बोले।
      ‘‘सर कट जाने की बड़ाई नहीं है सर गर्व से ऊँचा रखने में भी मान ही है।’’ यही वाक्य कहकर मैंने अपने पिता यानी तेरे दादा से विरोध किया था। दोस्त के पिता का थाने में जलवा देखकर भ्रमित हो गया था मैं। चमकते चिराग के नीचे का अँधेरा कहाँ देख पाया था। अपनी जिद में वो रास्ता छोड़ आया, जिस पर तेरे दादा ने मेरे लिये फूल बिछा रक्खे थे!’’
      ‘‘पापा, मुझे भी काँटों भरा रास्ता स्वयं से ही तय करने दीजिये न!’’
      पापा ने देखा बेटा सयाना हो गया है। 


  • फ़्लैट नंबर-302, हिल हॉउस, खंदारी अपार्टमेंट, खंदारी, आगरा-282002, उ.प्र./मो. 09411418621

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।।कविता अनवरत।।


मनीषा सक्सेना 





वो आ गए
      बड़े बाबा के जिगरी दोस्त, छोटे चाचा यूँ तो हमारे परिवार की रिश्तेदारी में कुछ नहीं लगते पर रिश्तेदारों से बढ़कर करते हैं। घर पर कोई मौका हो, गम का या खुशी का, पिछले चालीस सालों से, वे सदैव उपस्थित रहते हैं। घर के किसी भी सदस्य का जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह, छोटे चाचा गुलाबजामन की हंडिया लेकर आते। ढेरों आशीष तो देते ही, शेरोशायरी सुनाकर माहौल को खुशगवार बना देते। हम सब भाई-बहिन हँसते हुए आपस में कहते- “वो आये नहीं?” या “वो आ गए हैं” “वो आ रहे हैं”।
      आजकल के बच्चों व बहुओं को ये बात नागवार गुज़रती है, बिन बुलाए मेहमान, खातिर करो सो अलग, होटल में जन्मदिन मनाना हो तो जा नहीं सकते क्योंकि शाम को “वो आयेंगे”। घुमा-फिरा कर बच्चे भी उनसे कहने लगे “आजकल तो व्हाट्सेप, फोन, ईमेल की इतनी सुविधा हो गयी है। आप इतनी गर्मी में बाहर मत निकला करिए, आपकी तरफ से चिंता रहती है और आप भी धूप में परेशान होते हैं। 
      “अरे नहीं बरखुरदार, जब तक आपस में मिल-बैठकर बातचीत न कर लें, तब तक मन नहीं भरता है और तुम लोगों को देखे बिना चैन भी नहीं पड़ता है। ईमेल, व्हाट्सेप वगैरह तो बेकार की चीज़ है। हाँ दूरदराज़ में रहने वाले लोगों से वार्तालाप के लिये तो ठीक है पर इससे आत्मीय सम्बन्ध नहीं बन पाते हैं। फिर धीरे से बोले, “अच्छा अब मैं चलता हूँ।”
      अगले दिन बिट्टू का जन्मदिन, सुबह-सुबह व्हाट्सेप पर गुलाबजामुन की हंडिया के चित्र के साथ छोटे चाचा का बधाई सन्देश आया। घर में दिनभर चुप्पी का दमघोंटू माहौल रहा। सबकी निगाहें दरवाज़े पर टिकी थीं, शायद अब “वो आ गए”।


  • जी-17, बेल्वेडीयर प्रेस कम्पाउंड, मोतीलाल नेहरु रोड, इलाहाबाद-211002, उ.प्र.  

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।।कविता अनवरत।।


हेमचन्द्र सकलानी





माँ, बेटी, सहेली है वो 
        
         कमर पर हाथ रख जब खाट से उठी थी कोठरी से बाहर जाने के लिये तो हल्की सी कराह मुँह से निकल पड़ी थी। डिब्बो की आवाज अभी तक उसे सुनाई नहीं पड़ी थी वर्ना उसका सबसे पहले अपने आगमन की सूचना रमणी को देने का काम था। सामने सूर्य अस्त हो चुका था। धीरे-धीरे अँधेरा फैलने लगा था, इतनी देर तो कभी नहीं की थी उसने। ‘कहाँ रह गयी’ सोचते रमणी चिन्तित होकर नीचे पगडंडी पर उतरते पुकारने लगी थी- ‘‘डिब्बो... ऐ डिब्बो... अरी डिब्बो कहाँ मर गयी थी।‘‘ 
      रमणी की आवाज सुनते डिब्बो के गले से धीरे से ‘‘हूँ‘‘ की आवाज निकली और पगडंडी पर चढ़ती डिब्बो के पैरों में तेजी आ गयी थी। जब आँखों के सामने देखा तब जाकर उसकी जान में जान आयी थी। देखते ही रमणी की आँखों में स्नेह छलक आया था, प्यार से उसके गले पर हाथ फेरते पूछा ‘‘कहाँ रह गयी थी। चल भीतर चल, ठंड हो गयी है।‘’ डिब्बो ने घीरे-धीरे कदम अपनी कोठरी की ओर बढ़ा दिये थे। सुबह हो या शाम, डिब्बो की नजरें रमणी के आगे-पीछे, इधर-उधर, जिधर वो जाती घूमती रहती थी।
      कभी इस घर में कितनी रौनक रहती थी, सास-ससुर, बेटे-बहू, पोते-पोतियों की आवाजों से आँगन चहका करता था। अब गाँव में बहुत कम लोग रह गये थे। रोजी-रोटी की तलाश में अधिकतर ने पलायन कर लिया था। जो थे वो भी कुशल-क्षेम पूछने भर तक थे। बच्चों के शहर में बसने, सास-ससुर की, फिर पति की मृत्यु के बाद अकेली रह गयी थी वह इस घर में। बेटे ने कहा भी, ‘‘चल माँ, हमारे साथ शहर में रहना।’’ वह गई भी एक दो बार लेकिन सारी सुविधाएँ होते हुए भी उसका मन न लगता था वहाँ और तीन-चार दिन बाद ही लौट आती थी। अकेलापन काटने को दौड़ता था जब, तब उसे किसी को साथ रखने की जरूरत महसूस होती थी। तब एक दिन नीचे के बड़े गाँव से खरीद लाई थी वह सुंदर-सी जवान सफेद बछिया को, जो उसे पहली नजर में भा गई थी। बछिया अपना पुराना घर छोड़ने और नये घर में आने को जैसे तैयार ही नहीं थी। उस दिन पहाड़ी की पगडंडी पर उसे लाते हुए कितना जोर लगाना पड़ा था उसे। आज भी याद करते सिहर उठती है रमणी। जल्दी ही दोनों में घनिष्ठ सहेलियों जैसा रिश्ता हो गया था। कभी-कभी डिब्बो के नखरे देख कह उठती थी ‘‘अरे मेरी माँ, अब मान भी जा।‘’ कुछ दिनों बाद खूबसूरत बछिया को जन्म दिया था इसने। घर में जैसे रौनक फिर लौट आयी थी वर्षों बाद। और उस दिन तो उसकी आँखें कौतुहल से फटी रह गयीं थीं जब बाल्टी भर दूध दिया था उसने। क्या करेगी इतने दूध का स्वयं से पूछ बैठी थी। चार किलो दूध तब होटल वाले को देना शुरू कर दिया था उसने। उसके दूध से अच्छी खासी आमदनी घर चलाने के लिये होने लगी थी। 
      एक दिन राधा के डिब्बो को जानवर बोलने पर गुस्से में बोल उठी थी रमणी ‘‘जो उसे जानवर समझते हैं कीड़े पड़ें उनके मुँह में। वो मेरी प्यारी माँ है, बेटी है, मेरी प्यारी सहेली है।‘‘ डिब्बो ने सुना तो गर्दन ऊपर नीचे हिलाते ‘‘हूँ‘‘ की आवाज निकाली थी। अपना सा मुँह लेकर रह गयी थी राधा तब।                         


  • सकलानी साहित्य सदन, विद्यापीठ मार्ग, विकासनगर, दे.दून, उ.खण्ड

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।।।।हाइकु।।



राजेन्द्र परदेसी






हाइकु

01.

प्रेम की नाव
आस्था डगमगाती
बचाए कौन

02.

मन सवाली
गुमसुम उदास
रहे अकेला

03.

दिल चाहता
लिखना प्रेम पाती
जग रोकता

04.

रही सालती
नीरवता रात की
बिना तुम्हारे

05.

सन्नाटा मिला
अक्सर शहर में
रिश्तों के बीच

06.

शेष निशान
समय की रबड़
मिटाती घाव

07.

स्वार्थ प्रेरित
गढ़ता रहा सदा
बोनसाई ही

08.


छायाचित्र : अभिशक्ति गुप्ता 
हर कहानी
संवेदना में ढली
रास न आती

09.

सपने सभी 
खुद देखती आँख
फिर क्यों रोती

10.

बँधी रहती
अतीत की साँकल
अक्सर द्वार

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अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  08,   अंक  :  01-02,   सितम्बर-अक्टूबर 2018 


।।कथा कहानी।।


लक्ष्मी रानी लाल





आत्मसमर्पण

          शाम से ही अंधेरा गहराने लगा। वसुंधरा ने चारों ओर व्याप्त उदासी पर एक दृष्टि डालकर एप्रन उतारा। वसुंधरा ने कुर्सी पर बैठकर अपनी आंखें बंद कर लीं।
      ‘‘दीदी, चाय।’’ रूचि ने अपनी वसुंधरा दीदी को चाय देते हुए कहा।
      ‘‘मुझे आज फिर देर हो गई न। क्या करूँ मरीजों की संख्या भी तो कभी कम नहीं होती कि समय पर घर लौट सकूँ।’’ वसुंधरा ने चाय पीते हुए कहा। तभी एक करूण पुकार गूँज उठी- ...पु ..पुल ...पु ..पुल... दोनों बहनों की आँखें उस पुकार को सुनकर नम हो उठीं क्योंकि वे जानती हैं कि यह पुकार चट्टानों से टकराकर लौट आएगी। उन्हें पुरुषों की सहनशीलता पर आश्चर्य होता था। तभी तो उनके पिताजी की आँखें आसपास के जीवन से बेलाग शून्य में प्रतिफल कुछ ढूँढती रहती थीं। उसे अपनी नन्हीं बहन रिमझिम के प्रश्नों की बौछार से डर लगता था क्योंकि उसके पास कोई जवाब नहीं था।
      तभी नन्हीं सी रिमझिम ने आकर रोज की तरह पूछ ही दिया- ‘‘दीदी भैया कब आएँगे? कितने दिन हो गए अभी तक गुड़िया लेकर नहीं आए? आज आएँगे न? रोज की इस प्रतीक्षा से वह ऊब चुकी थी। अचानक बाहर के बरामदे में कुछ गिरने की आवाज आई। दोनों बहनें लपककर बरामदे में निकल आईं। एक नवयुवक बरामदे में मूचर््िछतावस्था में पड़ा था। 
      ‘‘रूचि, जरा एक तरफ से सहारा दो, बेचारा बेहोश हो गया है।’’
      ‘‘ओह दीदी, छोड़ भी दो। किसी अनजान पर भरोसा करना ठीक नहीं, ऐसा न हो कि लेने के देने पड़ जाएँ।’’ 
      ‘‘यह कौन है, तथा कैसा है, यह तो बाद की बात है पर अभी यह बेहोश है और मैं एक डॉक्टर हूँ। इस इतना ही मैं जानती हूँ।’’
      दोनों बहनें नवयुवक को सहारा देकर अंदर लाईं। वसुंधरा उनकी नब्ज देख रही थी तभी उसे होश आ गया। अचानक वह लड़खड़ाते हुए उठ खड़ा हुआ और जाने के लिए द्वार तक बढ़ा ही था कि वसुंधरा ने उसके हाथ दृढ़तापूर्वक थामकर रोक लिया।
      ‘‘कहाँ जा रहे हो, अभी चुपचाप लेटो।’’
      ‘‘मुझे जाने दें, मैं अब ठीक हो गया हूँ।’’
      ‘‘अभी तुम जा नहीं सकते, स्वस्थ्य होने के बाद ही तुम्हें इजाजत मिलेगी। अभी जो दवा दे रही हूँ, उसे खा लो।’’
नवयुवक की भृकुटि तन गई- ‘‘आप मुझे पहचानती तक नहीं, फिर जाने क्यों नहीं देगीं?’’ 
      ‘‘मैं तुम्हें पहचानती हूँ।’’ 
      ‘‘जी?’’ इस बार नवयुवक बुरी तरह से चौंका। ’‘आप मुझे पहचानती हैं?’’ 
      ‘‘हाँ, तुम इस समय एक मरीज हो तथा मैं एक डॉक्टर हूँ। इसलिए तुम्हें मेरी बात माननी चाहिए।’’
      नवयुवक ने निश्ंिचतता भरी साँस ली। वह विवशता से एक आज्ञाकारी बच्चे की भाँति पुनः लेट गया। वसुंधरा ने उसे दवा पिलाई तथा वहीं बैठकर एक पत्रिका पढ़ने लगी। पत्रिका से नजर उठाकर एक बार उसने नवयुवक की ओर देखा तभी उसकी नज़्ार नवयुवक की जेब से झाँकती हुई पिस्तौल पर पड़ी। नवयुवक के निश्छल चेहरे को देख वसुंधरा को यह सोचकर बहुत अफसोस हुआ कि ऐसे भोले एवं निष्पाक किशोरों को ही आज गुमराह किया जा रहा है। अभी इसके कुछ बनने का समय था। इसके अभिभावक अपने लाडले को डॉक्टर, इंजीनियर या कुशल प्रशासक बनाने का स्वप्न देख रहे होंगे। उनके सामने अपने बेटे का सुनहरा भविष्य होगा पर उन गुमराहों के सामने भविष्य एक प्रश्नचिन्ह बनकर खड़ा है। इसके भविष्य पर रात की कालिमा छा गई है। पता नहीं इनके जीवन में कब सवेरा होगा। 
      नवयुवक के कराहने की आवाज सुनकर वसुंधरा ने उठकर उसके सिर पर हाथ रखा। नवयुवक को काफी तेज बुखार था। 
वसुंधरा ने उसे तुरत दवा खिलाई।
      ‘‘दीदी, अब खाने भी चलोगी या इस अजनबी की सेवा ही करती रहोगी।’’ रूचि ने तंग आकर कहा। 
      ‘‘तुम चलो, मैं तुरत आ रही हूँ।’’ वसुंधरा ने उठते हुए कहा।
      खाकर लौटने पर वसुंधरा ने उसे जगा पाया।
      ‘‘तबीयत कैसी है?’’
      ‘‘जी, अब पहले से अच्छी है।’’
      ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’
      ‘‘जी? ...जी... इंद्रजीत।’’
      नवयुवक के चेहरे पर परेशानी के भाव देख, वसुंधरा ने फिर कुछ और नहीं पूछा।
      ‘... पुपुल ... पु.. पु...ल....।’’
      वृद्धा की करूण पुकार वातावरण में गूँज उठी। किसी प्रत्युत्तर को न सुन इंद्रजीत से रहा नहीं गया।
      ‘‘पुपुल कौन है दीदी?’’
      ‘‘दीदी’’ शब्द को सुनते ही वसुंधरा के सीने में एक हाहाकार हलकोरे लेने गया। उफनते रुदन के आवेग को दबाकर उसने जवाब दिया- ‘‘मेरा छोटा भाई।’’
      क्षणभर में ही बांध तोड़कर उफनती अश्रुधारा को छिपाने के लिए वसुंधरा कमरे से बाहर चली गई। वसुंधरा की आँखों के आगे पुपुल का मासूम चेहरा बार-बार आने लगा। हलके स्पर्श का दबाव पाकर दुखता नासूर अब पुनः रिसने लगा। भाई बहनों के स्नेहसूत्र ने एक दूसरे को बाँध रखा था। पुपुल ने मेधावी तथा प्रतिभाशाली होने के कारण अपने घर को पुरस्कारों से भर दिया था। माता-पिता का आज्ञाकारी होने के साथ ही वह शिक्षकों का लाडला भी था। अवकाश प्राप्ति के बाद भी पुपुल को आगे पढ़ाने के लिए जहाँ पिताजी ने काम किया, वहीं माँ ने घर के खर्चों में कटौती करके गृहस्थी की गाड़ी को संभाले रखा। 
      माँ एक स्वनिर्मित तथा इंद्रजीत नारी थी, अपने आप में सिमटी हुई। आर्थिक अभाव में भी माता-पिता ने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। एक ही आशा थी कि पुपुल शिक्षा की समाप्ति के बाद परिवार को आर्थिक संकट से उबार लेगा।
      वसुंधरा की सिसकियाँ अब उसके नियंत्रण में नहीं रह सकीं। माँ-पिताजी तथा नन्हीं सिमझिम की वजह से दोनों बहनें कभी रो भी नहीं पाती थीं। सिसिकियों की आवाज सुनकर इंद्रजीत बरामदे में आया। वृद्धा की करूण आवाज का पीछा करता हुआ पहले वह बगल के कमरे में गया। एक वृद्ध कुर्सी पर बैठे हुए शून्य में निहार रहे थे तथा वृद्धा खाट पर लेटी रह-रहकर पुपुल-पुपुल पुकार उठती थी। इंद्रजीत व्याकुल हो उठा। 
      कमरे से बाहर निकला तो वसुंधरा सामने खड़ी थी। उसे व्याकुल देखकर वसुंधरा ने कहा- ‘‘औरतें अपनी माँग का दर्द किसी तरह से रो-धोकर झेल लेती हैं, पर कोख का दर्द नहीं झेल पातीं। उसकी कोख में एक ऐसी आग लग जाती है जिसकी पीड़ा से वह आजीवन मुक्त नहीं हो पाती।’’
      ‘‘दीदी, पुपुल कहाँ चला गया?’’
      ‘‘पुपुल गया नहीं। वह तो कभी हम लोगों से दूर होने की कल्पना भी नहीं कर सकता था? उसे तो किसी निर्दयी ने हम सबों से छीन लिया। मेरा पुपुल तो शहजादा था, अकेला नहीं गया पूरे लाव-लश्कर के साथ गया है।’’
      ‘‘दीदी, उस निर्दय का नाम बताओ, मैं उससे निपट लूँगा। इस हरे-भरे परिवार को उजाड़, उसे क्या मिला?’’
      ‘‘इतनी समझ उसे रहती तो वह यह रास्ता ही क्यों अपनाता। उसने इतने परिवार एक साथ उजाड़ डाले कि आँसुओं के समुद्र में वह डूब जाएगा। वसुंधरा बातें कहती हुई इंद्रजीत को पुपुल के कमरे में ले आई। पुपुल के कमरे में उसकी सारी चीजें यथावत रखी थीं। दीवार पर टँगी हुई तस्वीर को देख इंद्रजीत के दिमाग में जैसे एक धमाका हुआ। उसकी आँखों के आगे अमावस का अँधेरा छा गया और वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा। 
      ‘‘ओह तुम अभी अस्वस्थ हो, तुम्हें बाहर नहीं निकलना चाहिए था, लगा ली न चोट।’’ वसुंधरा ने उसे सहारा देकर कमरे में लाकर लिटा दिया।
      ‘‘अब तुम आराम ले लेटो, मैं तुम्हारे लिए गर्म दूध लेकर आती हूँ।’’
      वसुंधरा के जाते ही इंद्रजीत उठकर बैठ गया। घबराहट से कंठ सूखने लगा तो उठकर पानी पी लिया। वह कभी पागलों की भाँति अपने बालों को दोनों हाथों से पकड़कर खींचने लगता तो कभी असहाय सा चारों ओर देखता। उसे ऐसा महसूस होने लगा मानों वह आँसुओं के समंदर में गोते खा रहा हो। किनारे आने के लिए लाख हाथ-पाँव पटकता पर लहरें पुनः थपेड़े देकर उसे पटक देतीं। उसका दम घुटने लगा। जिस तस्वीर को उसने देखा है उसे वह कैसे भूल सकता है? दो वर्ष पूर्व ही तो उसे बस में सफर करते देख चुका है।
बस के यात्रियों को पुपुल ने अपने सरल स्वभाव के कारण मित्र बना लिया था। उसके लतीफों का सभी बेहद आनंद उठा रहे थे। पुपुल ने अपने हाथ में एक प्यारी सी गुड़िया थाम रखी थी। इंद्रजीत तथा उसके साथियों ने अपनी बंदूकों से सारे लतीफे हवा में उड़ा दिये थे। पूरी बस खून से रंग गई थी। 
      इंद्रजीत के मस्तिष्क की शिराऐं फटने लगीं। वह एक परिवार का दर्द सहन नहीं कर पा रहा था और ऐसे कितने परिवार उसने अपने इस रक्तरंजित हाथ से मिटा डाले थे। उसने जोर लगाकर फिर अपने बालों को खींचा ही था कि वसुंधरा दूध का गिलास हाथ में लिए आ पहुँची।
      ‘‘क्या हुआ, सिर बहुत दर्द कर रहा है। तुम दूध पी लो मैं तुम्हारे सिर की मालिश कर देती हूँ। मैं तेल लेकर आ रही हूँ।’’
      वसुंधरा कमरे से बाहर निकली। रूचि की जलती हुई आँखों का उसे सामना करना पड़ा। ‘‘क्यों दीदी, तुम्हारा वह मरीज कैसा है? मरीज को दूध देते या सिर की मालिश करते किसी डॉक्टर को नहीं देखा था। दीदी, वह साँप है, दूध पीते डस लेगा। उसकी जेब में पिस्तौल देखी है न। तुम्हें तो अब तक पुलिस को सूचना दे देनी चाहिए थी।’’
      ‘‘ऐसे मुजरिमों को पुलिस की आवश्यकता नहीं होती, इन्हें प्यार से ही रास्ते पर लाया जा सकता है। इन्हें सही दिशा-निर्देश की आवश्यकता है। इन्हें गुमराह होने से बचाना आवश्यक है। आखिर क्यों ये भटक गए हैं? किसके हाथों की कठपुतली आज के नवयुवक हो गए हैं, इस बात की गहराई तक जाना चाहिए। रहा सवाल सिर की मालिश या दूध पिलाने का, तो सुनो, अभी वह एक मरीज है तथा हम लोगों का मेहमान भी।’’ वसुंधरा ने अपने तर्कसंगत उत्तर से रूचि को शांत किया।
      ‘‘ठीक है दीदी, लाओ तेल मैं सिर की मालिश कर देती हूँ। अब तुम जाकर आराम करो।’’
      रूचि तेल लेकर कमरे में पहुँची तो इंद्रजीत आँखें बंद किए पड़ा था। सिर पर स्पर्श पाकर इंद्रजीत ने उसके हाथ को पकड़ लिया।
      ‘‘दीदी... छोड़ दो। मुझे यूँ ही नींद आ जाएगी।’’
      ‘‘मैं दीदी नहीं, रूचि हूँ।’’
      ’‘ओह तुम हो। तुम जाकर सो जाओ।’’
      ‘‘मैं सिर दबा रही हूँ, गला नहीं। आप तो बहुत वीर नजर आ रहे थे पर हाथ रखते डर गये?’’
      ‘‘मैं डरता नहीं हूँ।’‘
      ‘‘बाइ द वे, ये जो जेब के अंदर से खिलौना झाँक रहा है, उसे अपनी सुरक्षा के लिए रखा है या...’’
      इंद्रजीत परेशान हो उठा था। उसने सोने की चेष्टा करते हुए रूचि को जाने के लिए आग्रह किया। 
      ‘‘ओ. के., मैं जा रही हूँ।’’
      ‘‘काश! मैं कुछ वर्ष पूर्व इस घर का मेहमान बना होता।’’ मर्माहत इन्द्रजीत लेटे-लेटे बड़बड़ाया। ‘‘...तब डॉक्टर दीदी के संपर्क में आकर मैं भी मनुष्य बन जाता।‘‘ रूचि ने जाते-जाते सुना तो ठहर गई। 
      ‘‘कुछ वर्ष पूर्व आए होते तो मेरे पुपुल भैया से मिलते, जिन्हें किसी निर्दयी ने हमसे छीनकर जीवन-भर हमें बिलखने को छोड़ दिया। उन्होंने कभी किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं था।’’
      रूचि की सिसकियों से घबड़ाकर इंद्रजीत उठकर खड़ा हो गया। रूचि के सिर पर स्नेहिल स्पर्श रखते हुए बोला- ‘‘मैं तुम्हारे भाई की जगह लेने लायक तो हूँ नहीं, पर थोड़ी देर के लिए सही इस अनजान भाई का आदेश समझकर सोने चली जाओ।’’ रुचि सिसकियों को रोकती हुई कमरे से निकल गई।
      वसुंधरा सुबह चाय का प्याला लेकर इंद्रजीत को उठाने गई। उसने कमरे के बाहर से ही आवाज लगाई- ‘‘इन्द्रजीत उठो, सवेरा हो गया।’’
      जबाव न पाकर उसने किवाड़ को धीरे से धक्का दिया तो वह स्वयं ही खुल गया। अंदर इंद्रजीत को न पाकर वह सब ओर आश्चर्य से देख रही थी कि हाथ में अखबार लिए रूचि दौड़ती हुई आई। हाँफते हुए उसने अखबार अपनी दीदी के सामने रख दिया। मोटे-मोटे अक्षरों में मुखपृष्ठ पर ही छपा था- ‘‘कुख्यात आतंकवादी इंद्रजीत सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया।’’

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