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रविवार, 30 सितंबर 2018

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  08,   अंक  :  01-02,   सितम्बर-अक्टूबर 2018 


।।कविता अनवरत।।


हेमचन्द्र सकलानी





माँ, बेटी, सहेली है वो 
        
         कमर पर हाथ रख जब खाट से उठी थी कोठरी से बाहर जाने के लिये तो हल्की सी कराह मुँह से निकल पड़ी थी। डिब्बो की आवाज अभी तक उसे सुनाई नहीं पड़ी थी वर्ना उसका सबसे पहले अपने आगमन की सूचना रमणी को देने का काम था। सामने सूर्य अस्त हो चुका था। धीरे-धीरे अँधेरा फैलने लगा था, इतनी देर तो कभी नहीं की थी उसने। ‘कहाँ रह गयी’ सोचते रमणी चिन्तित होकर नीचे पगडंडी पर उतरते पुकारने लगी थी- ‘‘डिब्बो... ऐ डिब्बो... अरी डिब्बो कहाँ मर गयी थी।‘‘ 
      रमणी की आवाज सुनते डिब्बो के गले से धीरे से ‘‘हूँ‘‘ की आवाज निकली और पगडंडी पर चढ़ती डिब्बो के पैरों में तेजी आ गयी थी। जब आँखों के सामने देखा तब जाकर उसकी जान में जान आयी थी। देखते ही रमणी की आँखों में स्नेह छलक आया था, प्यार से उसके गले पर हाथ फेरते पूछा ‘‘कहाँ रह गयी थी। चल भीतर चल, ठंड हो गयी है।‘’ डिब्बो ने घीरे-धीरे कदम अपनी कोठरी की ओर बढ़ा दिये थे। सुबह हो या शाम, डिब्बो की नजरें रमणी के आगे-पीछे, इधर-उधर, जिधर वो जाती घूमती रहती थी।
      कभी इस घर में कितनी रौनक रहती थी, सास-ससुर, बेटे-बहू, पोते-पोतियों की आवाजों से आँगन चहका करता था। अब गाँव में बहुत कम लोग रह गये थे। रोजी-रोटी की तलाश में अधिकतर ने पलायन कर लिया था। जो थे वो भी कुशल-क्षेम पूछने भर तक थे। बच्चों के शहर में बसने, सास-ससुर की, फिर पति की मृत्यु के बाद अकेली रह गयी थी वह इस घर में। बेटे ने कहा भी, ‘‘चल माँ, हमारे साथ शहर में रहना।’’ वह गई भी एक दो बार लेकिन सारी सुविधाएँ होते हुए भी उसका मन न लगता था वहाँ और तीन-चार दिन बाद ही लौट आती थी। अकेलापन काटने को दौड़ता था जब, तब उसे किसी को साथ रखने की जरूरत महसूस होती थी। तब एक दिन नीचे के बड़े गाँव से खरीद लाई थी वह सुंदर-सी जवान सफेद बछिया को, जो उसे पहली नजर में भा गई थी। बछिया अपना पुराना घर छोड़ने और नये घर में आने को जैसे तैयार ही नहीं थी। उस दिन पहाड़ी की पगडंडी पर उसे लाते हुए कितना जोर लगाना पड़ा था उसे। आज भी याद करते सिहर उठती है रमणी। जल्दी ही दोनों में घनिष्ठ सहेलियों जैसा रिश्ता हो गया था। कभी-कभी डिब्बो के नखरे देख कह उठती थी ‘‘अरे मेरी माँ, अब मान भी जा।‘’ कुछ दिनों बाद खूबसूरत बछिया को जन्म दिया था इसने। घर में जैसे रौनक फिर लौट आयी थी वर्षों बाद। और उस दिन तो उसकी आँखें कौतुहल से फटी रह गयीं थीं जब बाल्टी भर दूध दिया था उसने। क्या करेगी इतने दूध का स्वयं से पूछ बैठी थी। चार किलो दूध तब होटल वाले को देना शुरू कर दिया था उसने। उसके दूध से अच्छी खासी आमदनी घर चलाने के लिये होने लगी थी। 
      एक दिन राधा के डिब्बो को जानवर बोलने पर गुस्से में बोल उठी थी रमणी ‘‘जो उसे जानवर समझते हैं कीड़े पड़ें उनके मुँह में। वो मेरी प्यारी माँ है, बेटी है, मेरी प्यारी सहेली है।‘‘ डिब्बो ने सुना तो गर्दन ऊपर नीचे हिलाते ‘‘हूँ‘‘ की आवाज निकाली थी। अपना सा मुँह लेकर रह गयी थी राधा तब।                         


  • सकलानी साहित्य सदन, विद्यापीठ मार्ग, विकासनगर, दे.दून, उ.खण्ड

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