आपका परिचय

रविवार, 30 सितंबर 2018

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  08,   अंक  :  01-02,   सितम्बर-अक्टूबर 2018 


।।कविता अनवरत।।


सूर्य कुमार पाण्डेय




दो गीत

01. एक डगर पर

एक डगर पर हम चलते हैं
एक डगर भीतर चलती है

जितना इस जीवन को जाना
उतना लगा नया अनजाना
पाया सब, संतुष्ट हुआ कब
जो न मिला, उसका भ्रम माना

कहीं अकर्म रहा जीवन में
नहीं नियति की यह गलती है

जब-जब अंधकार ने घेरा
मिलने आया नया सवेरा
जब भी लगा डूबने, उसने
खींचा हाथ पकड़कर मेरा

बाहर तिमिर घनेरा घिरता तब
भीतर ज्योति-शिखा जलती है

कैसा पछताना, क्या रोना
प्रतिपल अनहोनी का होना
जितना भरा, न भीतर देखा
रिक्त मिला मन का हर कोना

संग्रह की परिणति यह पाई 
इच्छा सदा हाथ मलती है।

02. यह नहीं जरूरी

हर चाँद अमावस लीलेगी
हर सूरज को ढलना होगा
हर आँख में जुगुनू चमकेंगे
हर दीपक को जलना होगा

आँधियाँ चलेंगी उपवन में
तब कुछ डालें भी टूटेंगी
जब बीज पड़ेंगे धरती में 
कोपलें नई तब फूटेंगी

यह नहीं जरूरी नदिया की
हर लहर किनारा पा जाए
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया 
जितनी गिनती की साँसें हैं
उन साँसों को चलना होगा

जब आँसू दिल से उमड़ेंगे
आँखें दुःख की भर आएँगी
जब आँच प्रेम की दहकेगी
सरिता सागर को जाएगी

यह नहीं जरूरी मिलना हो
इसलिए गले से लग जाना
नफरत की बर्फ जमी है जो
उसको तिल-तिल गलना होगा

यह नहीं जरूरी मेले से
तुम बिना ठगे घर आ जाओ
छलते आए हो औरों को
अब खुद को भी छलना होगा

  • 538 क/514, त्रिवेणीनगर द्वितीय, लखनऊ-226020, उ.प्र./मो. 09452756000

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  08,   अंक  :  01-02,   सितम्बर-अक्टूबर 2018 




।।कविता अनवरत।। 


प्रतापसिंह सोढ़ी



गज़लें


01.
उन्हें सताने में लुत्फ़ आया
हमें मनाने में लुत्फ़ आया

थी रास्ते में इक दीवार
उसे गिराने में लुत्फ़ आया

हमें तलब थी के मुखड़ा देखें
उन्हें छुपाने में लुत्फ़ आया

उधर से ज़लवों की बारिशें थीं
हमें नहाने में लुत्फ़ आया

मिली जो जुल्फ़ों की छाँव हमको
तो बैठ जाने में लुत्फ़ आया

मिले थे ज़ख्मों जिगर जो उनसे
उन्हें छुपाने में लुत्फ़ आया

02.
रेखाचित्र : (स्व.) बी.मोहन नेगी 

रात भर इक दिया दिल का जलता रहा
उससे मिलने का अरमां मचलता रहा

लब उदासी लिये उसके हँसते रहे
उसकी आँखों का काज़ल पिघलता रहा

फूल उसने बिछाये जहाँ के लिए
खुद अकेला वो काँटों पर चलता रहा

उसके मंजिल ने इक रोज चूमे कदम
जो गिरा और गिरकर सँभलता रहा

देखकर बेहिसी अपने एहबाब की
खून उसके बदन का उबलता रहा

  • 5, सुख शान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इन्दौर-452016, म.प्र./मो. 09479560623

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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  08,   अंक  :  01-02,   सितम्बर-अक्टूबर 2018  





।।कविता अनवरत।। 



ब्रह्मजीत गौतम




ग़ज़ल
अगर तुम करोगे इबादत वतन की
तो पाओगे हर पल मुहब्बत वतन की

मुहब्बत नहीं है जो मन में तुम्हारे
सँभालोगे कैसे अमानत वतन की

अमानत का जिम्मा लिया है जिन्होंने
बदल देंगे इक दिन वो किस्मत वतन की

न किस्मत से दुःख दूर होंगे वतन के
मिटेगी मशक्कत से गुर्बत वतन की

जो गुर्बत में रहकर लड़े सरहदों पर
उन्हीें से है इज़्जत सलामत वतन की

सलामत रहे ये तिरंगा हमारा
ये है जाँ से प्यारी अलामत वतन की

अलामत फ़क़त है नहीं ये तिरंगा 
हक़ीकत में तो है ये इज़्ज़त वतन की
रेखाचित्र : (स्व.) पारस दासोत 

नहीं करते इज़्ज़त बड़ों की जो दिल से
वो पालेंगे कैसे रिवायत वतन की

रिवायत में हो गर नयेपन की ख़ुश्बू
तो कर देगी जादू सियासत वतन की

सियासत में ईमानदारी जो आये
बहुत जल्द बदलेगी सूरत वतन की

सुनो ‘जीत’ बदलेगी सूरत तभी तो
ज़माना करेगा इबादत वतन की

  • युक्का-206, पैरामाउण्ट सिंफनी, क्रासिंग रिपब्लिक, गाजियाबाद-201016, उ.प्र./मो. 09425102154

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।।कविता अनवरत।। 


नरेश कुमार उदास





काव्य रचनाएँ

01.

जीवन
महासागर समान है
जिसमें उठता है
दुःखों का ज्वार भाटा
और कभी उमंगों से 
भरा दिल
लहरों समान 
मचलने लगता है।

02.

मेरे भाग्य में ही
लिखा होगा दर्द
होगी इतनी सारी पीड़ा
तभी मेरे भीतर
दर्द का सागर बहता रहता है
हरदम।

03.

उसने कहा-
मेरी कविताओं में है
जनमानस की पीड़ा
सारे जग के आँसू
लेकिन मैं खुश हूँ
मुझे कोई गम नहीं।

04.
आँगन में 
दीवार/खिंच गई है
मानो मन में 
कोई लकीर
खिंच गई हो। 

05.

जीवन की/आड़ी-तिरछी
पगडण्डी पर
चल रहा हूँ
दौड़ रहा हूँ
हाँफ रहा हूँ
थककर
बैठ जाना चाहता हूँ।

06.

औरत कहीं-कहीं
जूझ रही है
लड़ रही है
फिर भी 
पीछे धकेली जा रही है।
रेखाचित्र : नरेश कुमार उदास 

07.

जब भी आइने में 
देखता हूँ अपना चेहरा
तो डर जाता हूँ
अपने भीतर 
और बाहर के रूप में
अन्तर देखकर!

08.

पहाड़ की धूप
भली लगती है
लेकिन यह
सबको तरसाती है
कभी-कभी आती है
आँख-मिचौली खेलती
चली जाती है।

  • अकाश कविता निवास, 54, गली नं. 03, लक्ष्मीपुरम, सैक्टर-बी-1(चनौर), पो. बनतलाब, तह. एवं जिला- जम्मू-181123 (जम्मू-कश्मीर)/09418193842 

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।।कविता अनवरत।। 


मुकुट सक्सेना




अभी तक

जिन पूर्वजों ने
रोपे थे नीम, पीपल,
आम और बरगद के पौधे
अपनी ज़मीन पर
सींचे भी/बड़े मनोयोग से
फिर बढ़े वे,
उनके बच्चों के साथ-साथ
हुए जवान
कि उन्होंने/बड़े होते ही
बाँट लिया बाग
कई-कई हिस्सों में
और फिर बँट गए
दरख़्त भी!
छायाचित्र : उमेश महादोषी 
किसी के हिस्से में 
आया नीम,
किसी के पीपल/आम
तो किसी केे बरगद!
पर/बँट नहीं सकीं
उनकी जड़ें
जो बहुत गहराई में
गुंथी हैं/एक दूसरे में
अभी तक!!
  • 5-ग 17, जवाहर नगर, जयपुर-302004 (राज0)/मोबा. 09828089417

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।।कविता अनवरत।।


पं. गिरिमोहन गुरु






ग़ज़ल

प्यार में धुल धवल हो गई
जिन्दगी एक ग़ज़ल हो गई

रेखाचित्र : डॉ. सुरेंद्र वर्मा 
एक युग थी न कटती थी ये
आजकल एक पल हो गई

स्वप्न की कामनाएँ सभी
जागते ही सफल हो गई

पंक का अंक प्यारा हुआ
सूर्य पाया कमल हो गई

धन्य सृष्टा हुआ देखकर
रिक्त गागर सजल हो गई

  • श्री सेवाश्रम नर्मदा मन्दिरम, हाउसिंग बोर्ड कालोनी, होशंगाबाद-461001/मो. 09425189042

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।।कविता अनवरत।।


रमेश चन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’




गीतिका

क्या तेरी क्या मेरी सत्ता
धनपतियों की चेरी सत्ता

जनता का धन जनता के हित
करती हेरा फेरी सत्ता

टाल नहीं पाती प्रश्नों को
जब विपक्ष ने घेरी सत्ता

मजदूरों के घर पर रौनक
लगती बहुत उजेरी सत्ता

सुनता कोई नहीं किसी की
रेखाचित्र : शशिभूषण बडोनी 
दिन में लगी अँधेरी सत्ता

ध्यान रखे कृषकों-श्रमिकों का
सोती खाट खरैरी सत्ता

हाथ बड़े लम्बे सत्ता के
डाले जाल मछेरी सत्ता

जनता का आक्रोश फूटता
जब करती है देरी सत्ता



  • डी 4, मोहनकृपा हाउसिंग सोसायटी (उदय), बैजलपुर, अहमदाबाद-380015, गुज.

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।।कथा प्रवाह।।


मधुदीप





मुर्दाघर
       यह एक मनहूस दिन है जिसका साया इस सरकारी हस्पताल पर पड़ गया है। पूरा हस्पताल मुर्दाघर में बदल गया है जहाँ से सिर्फ उन अभागों की चीखें आ रही हैं जिनके कोई उन्हें छोड़कर चले गए हैं। ये चीखें इस मुर्दाघर से आकर पूरे हस्पताल में फैल रहे सन्नाटे को तोड़ने की असफल कोशिश कर रही हैं।
      “माँ, मुझे बचा लो! मैं मर जाऊँगी...” पाँच साल की बच्ची की चीत्कार डॉक्टर राघव के कानों तक पहुँच रही है। यह उस सरकारी हस्पताल का डॉक्टर्स रूम है जो इस समय मुर्दा हो गया है। डॉक्टर राघव के अलावा यहाँ तीन डॉक्टर और भी मौजूद हैं लेकिन वे सब बहरे हो गए हैं। बच्ची की माँ बार-बार सभी डॉक्टरों के पाँव पकड़ रही है।
      वेतन बढ़ोतरी के लिए इस सरकारी हस्पताल में डॉक्टरों की हड़ताल का यह पहला दिन है लेकिन आज पहले ही दिन जैसे सब-कुछ ठप्प हो गया है। निराश पीले जर्द चेहरे कुछ हताश चेहरों का हाथ पकड़े हस्पताल के गेट की तरफ लौट रहे हैं।
      “वह मर जायेगी डॉक्टर ...!” यह चीख सिस्टर मार्था की है जिसने डॉक्टर राघव को झकझोर दिया है। उसके पाँवों में गति आ गई है।
      “कहाँ जा रहे हो राघव?” तीनों डॉक्टरों की यह इकट्ठी आवाज है।
      “सुन नहीं रहे हो, वह मर जायेगी!” वह चिल्ला उठता है।
      “लेकिन हम हड़ताल पर हैं और आप भी हमारे साथ हैं। हम अपने हक के लिए लड़ रहे हैं।” वे उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं।
      “हक से पहले फर्ज होता है मेरे भाई !”
      “हम सब आपका बायकाट कर देंगे डॉक्टर राघव!” फिर एक साथ तीन स्वर डॉक्टर राघव के पाँवों को बाँधने का प्रयास कर रहे हैं।
      “कोई बायकाट उस शपथ से बढ़कर नहीं है फ्रेंड्स, जो हमने डॉक्टर बनने पर सबसे पहले ली थी।”
      डॉक्टर राघव तेजी से उधर जा रहा है जिधर से उस बच्ची की चीखें आ रही हैं। सिस्टर मार्था उसके पीछे लपक रही है। मुर्दाघर अब हस्पताल में बदल रहा है।
  • 138/16, ओंकारनगर-बी, त्रिनगर, दिल्ली-110035/मो. 08130070928

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।।कविता अनवरत।।


निर्देश निधि






गैर कानूनी


               “ए लड़की तू ही यहाँ काम करती है क्या?” पुलिस वाली ने काम वाली की बेटी राधा से कड़क कर पूछा।
      ‘‘हाँ, करती हूँ।’’ 
      ‘‘तेरी उम्र क्या है?’’
      ‘‘तेरह साल!’’
      ‘‘हाँ, यही तो! हमें शिकायत ठीक ही मिली है कि ये बाल मजदूरी कराते हैं अपने घर में।’’
      ‘‘किसने की शिकायत?’’
      ‘‘अच्छा जवाब माँगती है हमसे?’’
      ‘‘क्यों न मागूँ जवाब?’’
      ‘‘बोल कब से तेरे से गैर कानूनी रूप से काम कराते हैं इस घर के मालिक? हम इन्हें कड़ी सज़ा दिलवाएँगे।’’
      ‘‘गैर कानूनी रूप से कैसे हुआ? अम्माजी मुझे पढ़ाती-लिखाती हैं। मेरे स्कूल की फीस देती हैं। दिन-भर का खाना-पीना मेरा इन्हीं के पास है। कौन-सा कानून ये सब करेगा मेरे लिए? अगर मैं उनकी बेटी होती तो क्या उनकी बीमारी में उनकी मदद न करती, बताओ पुलिस वाली आंटी? और मुझे ये भी पता है, किसने की होगी शिकायत। उन बाजू वाले बुड्ढे अंकल ने ही न? पता है क्यों?’’
      ‘‘हाँ, उन्होने ही की है, क्योंकि देखा होगा तेरे साथ अन्याय होते।’’
      ‘‘कुछ अन्याय होते न देखा उन्होंने। उनकी पोती की उम्र की हूँ, क्या हरकत करी उन्होंने मेरे साथ अपने घर के बगीचे में?’’ 
      ‘‘क्या करने गई थी तू उनके बगीचे में?’’ पुलिसवाली ने कड़क कर पूछा।
      ‘‘अपनी अम्मा को बुलाने गई थी मैं। वो तो ये वाली अम्मा जी आ गईं मेरी चीख सुनकर। जो ये न आईं होतीं तो क्या हो सकता था मेरे साथ, आपको पता भी है? आई बड़ी, अम्माजी को कड़ी सज़ा दिलाने वाली... हुँह....   


  • विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर-203001, उ.प्र./मो. 09358488084 

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।।कविता अनवरत।।


ज्योत्स्ना कपिल 



चुनौती


        जूनागढ़ रियासत में जबसे वार्षिक गायन प्रतियोगिता की घोषणा हुई थी संगीत प्रेमियों में हलचल मच गई थी। उस्ताद ज़ाकिर खान और पंडित ललित शास्त्री दोनों ही बेजोड़ गायक थे। परन्तु उनमे गहरी प्रतिद्वन्दिता थी। रास्ट्रीय संगीत आयोजन के लिए दोनों पूरे दम खम के साथ रियाज़ में जुट गए , वे दोनों ही अपने हुनर की धाक जमाने को बेकरार थे। अक्सर दोनो के चेले चपाटों के बीच सिर फुटव्वल की नौबत आ जाती। खान साहब के शागिर्द अपने उस्ताद को बेहतर बताते तो शास्त्री जी के चेले अपने गुरु को।
        खान साहब जब अलाप लेते तो लोग सुध बुध खोकर उन्हें सुनते रहते, उधर शास्त्री जी के एक एक आरोह अवरोह के प्रवाह में लोग साँस रोककर उन्हें सुनते रह जाते। दोनों का रियाज़ देखकर निर्णय लेना मुश्किल हो जाता कि प्रतियोगिता का विजेता होने का गौरव किसे मिलेगा। बड़ी-बड़ी शर्ते लग रही थीं कि उनमें से विजेता कौन होगा।
        शास्त्री जी की अंगुलियाँ सितार पर थिरक रही थीं, वह अपनी तान में मगन होकर सुर लहरियाँ बिखेर रहे थे । पशु पक्षी तक जैसे उन्हें सुनकर सब कुछ भूल गए थे, तभी एक चेला भागा हुआ चला आया
        " गुरूजी, अब आपको कोई भी कभी चुनौती नही दे पाएगा, आप संगीत की दुनिया के सम्राट बने रहेंगे  "
        " क्यों क्या हो गया ?"
        " गुरु जी अभी खबर मिली है कि आज रियाज़ करते हुए खान साहब का इंतकाल हो गया " शिष्य ने बहुत उत्तेजना में बताया।
         सुनकर शास्त्री जी का मुँह पलभर को आश्चर्य से खुला रह गया, फिर आँखों में अश्रु तैर गए। उन्होंने सितार उठाकर उसके नियत स्थान पर रखकर आवरण से ढंका और माँ सरस्वती को प्रणाम किया। फिर सूनी नज़रों से आसमान ताकते हुए भर्राए स्वर में कहा
          "मेरा हौसला चला गया...अब मैं जीवन में कभी नहीं गा सकूँगा।"


रोबोट

        बड़े ट्रंक का सामान निकालते हुए शिखा ने बड़े ममत्व से अपने पुत्र राहुल के छुटपन के वस्त्र और खिलौनों को छुआ। छोटे-छोटे झबले,स्वेटर, झुनझुने, न जाने कितनी ही चीजें उसने बड़े यत्न से अब तक सम्हालकर रखी थीं।
          अरे रोबोट ! वह चिहुँक उठी। जब दो वर्ष का था बेटा, तो अमेरिका से आये बड़े भैया ने उसे ये लाकर दिया था। कई तरह के करतब दिखाता रोबोट पाकर राहुल तो निहाल हो उठा। उसमे प्राण बसने लगे थे उसके। पर शरारत का ये आलम कि कोई खिलौना बचने ही न देता था। ऐसे में इतना महँगा रोबोट बर्बाद होने देने का मन नही हुआ शिखा का । रोबोट से खेलते समय वह बहुत सख्त हो उठती बेटे के साथ । आसानी से राहुल को देती ही नहीं। लाख लानत मलामत करने पर ही कुछ समय को वह खिलौना मिल पाता । फिर उसकी पहुँच से दूर रखने को न जाने क्या-क्या जुगत लगानी पड़ती उसे ।
         शिखा के यत्नों का ही परिणाम था कि वह अब तक सही सलामत था। राहुल तो उसे भूल भी चुका था। फिर अब तो बड़ा भी हो गया था, पूरे बारह वर्ष का। अपनी वस्तुओं को माँ के मन मुताबिक सम्हालकर भी रखने लगा था।
         " अब राहुल समझदार हो गया है, आज मै उसे ये दे दूँगी। बहुत खुश हो जाएगा , उसका अब तक का सबसे प्रिय खिलौना । " बड़बड़ाते हुए उसकी ऑंखें ख़ुशी से चमक रही थीं।
          तभी राहुल ने कक्ष में प्रवेश किया। 
         " देख बेटा ,मेरे पास क्या है ?" उसने राजदाराना अंदाज में कहा।
         " क्या माँ ?"
          " ये रोबोट, अब तुम इसे अपने पास ही रख सकते हो । अब तो मेरा बेटा बहुत समझदार हो गया है।" 
         " अब इसका क्या करूँगा माँ ?" क्षण मात्र को पीड़ा के भाव उभरे, फिर कोई तवज्जो न देते हुए सख्त लहजे में बोला " मैं कोई लिटिल बेबी थोड़े ही हूँ जो रोबोट से खेलूँगा " 

    
कब तक ? 


           उसकी सूनी नज़रें कोने में लगे जाले पर टिकी हुई थीं । तभी एक कीट उस जाले की ओर बढ़ता नज़र आया। वह ध्यान से उसे घूरे जा रही थी।

        " अरे ! यहाँ बैठी क्या कर रही हो ? हॉस्पिटल नही जाना क्या ?" पति ने टोका तो जैसे वह जाग पड़ी।

       " सुनिए , मेरा जी चाहता है की नौकरी छोड़ दूँ । बचपन से काम कर - कर के थक गई हूँ  । शरीर टूट चला है । साथी डॉक्टरों की फ्लर्ट करने की कोशिश , मरीज और उनके तीमारदारों की भूखी निगाह , तो कभी हेय दृष्टि , अब बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया है । " आशिमा ने याचना भरी दृष्टि से पति को ताका।

       " पागल हो गई हो क्या ? बढ़ते बच्चो के पढ़ाई के खर्चे, फ्लैट और गाड़ी की किस्तें । ये सब कैसे पूरे होंगे ? " 

      " मुझे बहुत बुरा लगता है जब डबल मीनिंग वाले मजाक करते हैं ये लोग। इन सबकी भूखी नज़रें जब अपने शरीर पर जमी देखती हूँ तो घिन आती है । "

         " हद है आशिमा, अच्छी भली सरकारी नौकरी है। जिला अस्पताल में स्टाफ नर्स हो। अभी कितने साल बाकि हैं नौकरी को । तुम्हारे दिमाग में ये फ़ितूर आया कहाँ से ? थोडा बर्दाश्त करना भी सीखो ।  " झिड़कते स्वर में पति ने जवाब दिया।

          " चलो उठो,आज मैं तुम्हे ड्रॉप करके आता हूँ " उन्होंने गाड़ी की चाभी उठाते हुए कहा। आशिमा की निगाह जाले की ओर गई तो देखा वह कीट जाले में फंसा फड़फड़ा रहा है और खूंखार दृष्टि जमाए एक मकड़ी उसकी ओर बढ़ रही है।
           " नहीं " वह हौले से बुदबुदाई, फिर उसने आहिस्ता से जाला साफ करने वाला उठाया और उस जाले का अस्तित्व समाप्त कर दिया।


किस ओर ?    

             "हम बालको को इस्कूल पढ़ने भेजे हैं या बेमतलब के काम के लिए। जब देखो मैडम नई नई चीजें मंगाती रहवे हैं  । "
            "अम्मा अगर आज शीशे और फेविकोल नही ले गया तो मैडम जी मारेंगी। "
          "हमाए पास नही है पैसे, किसी तरह पेट काटकर फीस के पैसों की जुगाड़ करो तो रोज इस्कूल से नई फरमाइश। जीना मुसकिल कर दिया है ।"
          "अम्मा ..."
          "चुपकर छोरा, दो झापड़ खा लेगा तो तेरा कुछ न बिगड़ जाएगा।"
          राजू  बस्ता टाँगकर मुँह लटकाए हुए विद्यालय चल दिया। पर पिटाई के भय ने उसकी गति को बहुत धीमा कर दिया था। कल ही तो मैडम ने सजावटी सामान न ले जाने पर उसे खूब भला बुरा कहा था और दो चांटे भी लगाए थे। सबके सामने हुए अपमान ने उसके कोमल मन को बहुत आहत किया था। सुस्त चाल से चलता हुआ जा रहा था कि रेलवे लाइन के पास कुछ किशोर लड़को के समूह ने उसका ध्यान आकर्षित किया। वह उत्सुकता से उस ओर चल पड़ा।
         वहाँ बच्चे जुआ खेलने में मगन थे। एक दो बच्चों के हाथ मे सुलगते हुए बीड़ी  के ठूँठ भी फँसे हुए थे। उसे देखकर उन सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ।
         "आ जा, खेलेगा क्या ?"
          वह मौन रहा, उसे समझ न आया कि क्या जवाब दे।
         " बोल न, खेलना है तो बैठ जा। " एक ने फिर पूछा।
        " मेरे पास कुछ नही। " उसने विवशता बताई।
पूछने वाले ने उसका जायजा लिया और फिर उसकी निगाह राजू के बस्ते और उसमें रखी किताबों  पर जम गई। उसकी आँखों मे एक चमक उभरी।
          "ये है तो इतना माल।"
           उसकी निगाह का पीछा करते हुए राजू की दृष्टि भी बैग पर जम गई और चेहरे पर कुछ असमंजस के भाव उभर आये।
          " लेकिन ये तो पढ़ने के लिये ... "
          " अब तक क्या मिल गया पढ़कर? एक बार दाँव लगाकर देख। अगर जीत गया तो ये सब माल तेरा " राजू की दृष्टि एक, दो और पाँच के नोटों के ढेर पर पड़ी ।उसके हाथ बस्ते पर कस गए और चेहरे पर कशमकश उभर आई। बस्ता धीरे से कंधे पर से नीचे सरकने लगा। पर ... फिर उसके चेहरे पर सख्ती उभर आयी। उसने दृढ़ता से बस्ता कंधे पर डाला और विद्यालय की ओर दौड़ लगा दी।

  • 18-ए, विक्रमादित्यपुरी, स्टेट बैंक कालोनी, बरेली, उ.प्र./मो. 08077432819 

अविराम विस्तारित

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।।कविता अनवरत।।


रमेश गौतम





देह
     विवाह का पहला वर्ष आकाश में उड़ते हुए ही बीत गया, कभी देश कभी विदेश। सफल बिजनेस मैन की पत्नी बनना भी तब लॉटरी खुल जाने से कम न लगा था नीरजा के माता-पिता को।
      सुन्दर और सुशिक्षित नीरजा को अपने बारे में सोचने का अवसर भी न मिला था कि विवाह हो गया। एक वर्ष का वैवाहिक जीवन उसकी देह के ऊपर से गुजर गया।
      पहला एबार्सन सिर्फ इसलिए कि उसकी ‘फिगर’ में कहीं ढीलापन न आ जाए, देह-सौष्ठव के प्रति इतनी चिंता! कितना संघर्ष किया था अपनी ही देह के अस्तित्व से उसने।
      काश... सुकुमार देह के अतिरिक्त भी जान पाता नारी को, व्यापार की दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि ने उसे कितना स्वार्थी और व्यक्तिवादी बना दिया है। कहीं कोई संवेदनशीलता नहीं। आज पाँच महीने से बिल्कुल अशक्त है। दूसरे एबार्सन ने उसे बिस्तर पकड़ा ही दिया।
      सुकुमार ही उसे विवश कर उस दिन भी पार्टी में ले गया था, अपने किसी बिजनेस कान्ट्रैक्ट का हवाला देकर। 
      रात भर चली पार्टी और नाच ने एक बार फिर उसकी ममता का गला घोंट दिया। तब से नारी के अभिशाप को जी रही है वह।
      कार आने की आवाज से उसकी तन्द्रा टूटी।
      ‘‘हैलो डार्लिंग, हाउ आर यू? दवाइयाँ टाइम से लीं... और हाँ कल तुम्हें डॉ. कपूर चैक करने आ रहे हैं, जरूरत समझो तो ऑफिस फोन कर लेना। अच्छा, गुडनाइट, मुझे आज रात भी बहुत सारा काम निपटाना है।’’
      छत को देखती नीरजा की आँखें एक बारगी सुकुमार की ओर मुड़ी और फिर अपनी कमजोर होती देह का मतलब समझकर वापस छत पर लौट गई, जहाँ अब भी एक बच्चे की तस्वीर धुँधला रही है।
      बगल के आफिस कम बैडरूम में रोज की तरह आज भी सुकुमार अपनी स्टेनो को डिक्टेशन दे रहा है।


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