अविराम का ब्लॉग : वर्ष : १, अंक : ०६, जनवरी २०१२
।।कथा प्रवाह।।
सामग्री : पूरन मुदगल, विक्रम सोनी, पारस दासोत, डॉ. पूरन सिंह एवं खेमकरण ‘सोमन’ की लघुकथाएं।
पूरन मुदगल
पहला झूठ
बच्चे ने कब मेरी जेब से पैन निकाल लिया, मुझे पता ही नहीं चला। देखते-देखते उसने पैन की कैप उतार ली। निब फर्श पर मारने को हुआ तो मैंने तुरंत उसके हाथ से पैन छीन लिया। वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। उसे शांत करने के लिए पैन देना पड़ा। उसने कैप खींची और पैन का रिश्ता फिर फर्श से जोड़ने लगा। पैन बहुमूल्य था और मैं नहीं चाहता था कि बच्चा खेल-खेल में उसे बेकार कर दे।
मैंने बच्चे का ध्यान बँटाया। पैन उसके हाथ से छीनकर फुर्ती से अपना हाथ पीठ के पीछे किया, दूसरे हाथ से ऊपर की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘पैन.....चिया....।’ इस बार रोने की बजाय वह आकाश की ओर नज़र उठाकर चिड़िया को देखने लगा। उसके भोले मन ने मान लिया कि पैन चिड़िया ले गई।
एक दिन वह बर्फी का टुकड़ा खा रहा था। मैंने कहा, ‘बिट्टू, बर्फी मुझे दो।’
उसने तुरन्त बर्फी वाला हाथ पीठ के पीछे किया और तुतलाती बोली में कहा- ‘बफ्फी.....चिया....।‘
- 309, अग्रसेन कालोनी, सिरसा-125055 (हरियाणा)
विक्रम सोनी
बातचीत
‘आओ यार बैठें। बाहर कर्फ्यू लगा हुआ है, बैठे-ठाले हम भी किसी युद्ध पर बात करें।’
‘मुझे सख्त एतराज है। हम भूख पर भी बात करने में असमर्थ हैं, क्योंकि हमारे पास खाने को नहीं है। फिर युद्ध के लिए सैनिक, गोला, बारूद और युद्ध में बेमौत मरने के लिए आदमी कहाँ से लायेंगे।’
‘तुम ठीक कहते हो.... तो फिर चलो, अपने देश को नये सिरे से रचाने-बसाने की कोई ठोस योजना ही बनायें।’
दृश्य छाया चित्र : डॉ उमेश महादोषी |
‘कुछ भी कहो, लेकिन तमाम पाबंदियों के बीच भी मुझे धान की, गेहंू की सुगंध और उसकी मिठास याद रहती है।’
‘हां, शायद तुम ठीक कहते हो। मुझे भी अपने गांव वाले घर की पूरब वाली झंकिया से उगते सूरज की महक समेटना खूब भाता है।’
‘क्यों न भाये, सदियों से गांव हमारे हैं।’
‘जमीन हमारी है। आकाश हमारा है।’
‘यार, फिर यह मुल्क हमारा क्यों नहीं है?’
(श्री विक्रम सोनी के लघुकथा संग्रह ‘लावा’ से साभार)
- बी-4, तृप्ति विहार, इन्दौर रोड, उज्जैन (म.प्र.)
पारस दासोत
वयोवृद्ध टाँगों का नृत्य
कमरे की दीवारों के सहारे-सहारे.......
आज वह, अपने वयोवृद्ध पैरों से घिसटता-घिसटता, खिड़की के पास जा पहुँचा।
‘यह मैं नज़र क़ैद में ही तो हूँ! -नहीं, नहीं! मैं क़ैद में नहीं हूँ!’
‘तो फिर क्या है? क्या कभी तूने पिंजरे में क़ैद शेर को नहीं देखा?‘....
‘देखा है। मैं कई बार अपने पोते-पोतियों को शहर का चिड़ियाघर दिखाने ले गया हूं। वहां मैंने शेर को अपने छोटे-से पिंजरे में देखा है।’ -तो फिर तू इस छोटे से कमरे में टहलता-फिरता क्यों नहीं?’
वह अपने आपसे बातें करते-करते यकायक बोला-
‘वाह! आज कई दिनों के बाद खिड़की पर हूं। लगता है, चिड़ियाघर का वह शेर मेरे अन्दर उतर आया है! मैं चलूंगा-टहलूंगा! नहीं-नहीं! ये मैं गलत बक गया! मैं चल रहा हूं! टहल रहा हूं! अपने इस पिंजरे में टहल रहा हूं, घूम-फिर रहा हूं! मैं, मैं शेर हूं!’
अभी वह, खिड़की पर से हटकर दीवार का सहारा लिए चलने का प्रयास कर रहा था, उसका पुत्र आया और आज भी हमेशा की तरह वृद्ध पिता को कुछ समाचार सुनाते-सुनाते बोला- ‘पापाजी, आज अपने शहर के चिड़ियाघर का एक शेर, पिंजरा तोड़कर कहीं निकल गया है।’
‘क्या.. ऽऽ....!’
वृद्व पिता, अपनी वयोवृद्ध टांगों से, दीवार का सहारा लिए बिना ही, नृत्य कर रहा था।
- प्लाट नं. 129, गली नं. 9-बी, मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-302021(राज.)
डॉ. पूरन सिंह
रद्दी कागज
अचानक घर की काल बेल बजने लगी थी।
मैंने दरवाजा खोला।
‘सर आपका कोरियर है। यहाँ...इस जगह, हाँ बिल्कुल यहीं साइन कर दीजिए।’ इतना कहकर कोरियर वाले लड़के ने एक बड़ा सा पैकेट मुझे थमा दिया था और चला गया था।
मैंने पैकेट खोला। उसमें चार सुन्दर सी पुस्तकें निकली, जिनमें से दो कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह तथा एक उपन्यास था। मुझे बहुत खुशी हुई और साथ ही जिज्ञासा भी हुई कि ये बहुमूल्य धरोहर आखिर भेजी किसने है, सो मैंने उसे उलट-पलटकर देखा था। राम वर्मा सर ने भेजी थी। मैंने उनका लेखन पढ़ा था। वरिष्ठ साहित्यकार हैं। मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं पुनः उन पुस्तकों को पलटने लगा था। मैं उन पुस्तकों में रखा कोई पत्र देख रहा था, शायद उन्होंने मेरे नाम लिखा हो। कोई पत्र नहीं मिला था।
मैंने पता देखा तो उस पर मोबाइल नंबर लिखा था।
रेखांकन : नरेश उदास |
‘हैलो! मैं दिल्ली से योगेश्वर बोल रहा हूँ।’
‘जी बोलिए।’
‘आप कौन बोल रही हैं?’
‘मैं सीता.... सीता वर्मा बोल रही हूँ।’ संभवतः राम वर्मा की पत्नी बोल रही थीं।
‘राम वर्मा सर से बात कराइए प्लीज....।’
‘वे अब इस दुनियां में नहीं रहे।’ आवाज में कंपन था।
‘ओह सेड! दरअसल उनकी कुछ किताबें आई थीं।’
‘हाँ, मैंने ही भेजी थी।’ वे बोली थीं।
‘बिल्कुल ठीक किया आपने.... मैं शीघ्र ही पढ़कर उन सभी की समीक्षा आपको भेजता हूँ।’ मेरी श्रद्धा राम वर्मा सर के लिए और बढ़ गयी थी।
‘अरे, भाई साहब सुनिए तो.... सीता वर्मा बोली थी, समीक्षा-अमीक्षा लिखने की जरूरत नहीं है.... दरअसल हुआ क्या था, आपका नाम-पत और आपका ही क्यों, ... नजाने कितने लोगों के नाम-पते उनकी डायरी में लिखे थे। मैंने सभी को किताबें भेज दी हैं।... क्या करती मैं.... पूरा कमरा पुस्तकों से भरा पड़ा है.... बुलाया था मैंने रद्दी वाले को... उसने लेने से मना कर दिया, कहने लगा, बहिन जी इन छोटे-छोटे कागजों से तो थैली भी नहीं बनेगी। क्या करती मैं.... इनके सभी जानने वालों को मैंने किताबें भेज दी हैं.....समीक्षा मत लिखना। फिर आप कागज भेजोगे। फिर रद्दी बढ़ेगी.....बड़ी मुश्किल से तो खतम कर पाई हूँ। क्या करती मैं.... आप समीक्षा.....नहीं....न.....ना.....नहीं...।’ कहते-कहते उन्होंने फोन काट दिया था।
और मैं....मैं तो मोबाइल कान से लगाए मुंह बाए स्तब्ध खड़ा था।
- 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेलनगर, नई दिल्ली-110008
खेमकरण ‘सोमन’
टेस्ट
डॉक्टर ने रिपोर्ट कार्ड देखा। फिर चेहरे पर परेशानी का भाव लाकर कहा- ‘‘नहीं....नहीं.....मैं इस रिपोर्ट से सन्तुष्ट नहीं हूँ। माताजी
का ब्लड टेस्ट फिर से करवाना होगा।’’
‘‘जी सर!’’ कहकर लड़के ने डाक्टर द्वारा दिया गया पर्चा पकड़ लिया।
‘और सुनो!’’ डॉक्टर ने आगे कहा- ‘‘इस बार वो सामने नवीन पैथोलॉजी में जाना, न कि प्रकाश पैथोलॉजी में। यद रहे नवीन पैथोलॉजी। पिछली बार की तरह भूल मत करना।’’
रास्ते में लड़के ने पर्चा देखा तो हैरान! डॉक्टर ने सारे के सारे टेस्ट वही लिखे थे जो कुछ ही देर पहले वह प्रकाश पैथोलॉजी से करवा के लाया था।
- प्रथम कुंज, ग्राम व डाक- भूरावाली, रुद्रपुर, जिला- ऊधमसिंह नगर-263153 (उत्तराखण्ड)
सभी लघुकथाएं सार्थक .... पहला झूठ और रद्दी कागज ने विशेष प्रभावित किया ....
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 01-03 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं..शहीद कब वतन से आदाब मांगता है .. नयी पुरानी हलचल में .
सभी लघुकथाएँ रोचक हैं।
जवाब देंहटाएंसादर