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गुरुवार, 24 मई 2012

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 08-09,  अप्रैल-मई 2012  

।।कविता अनवरत।।

सामग्री :  डॉ. नलिन,  डॉ. सुरेश उजाला, अमरेन्द्र सुमन, अंजु दुआ जैमिनी, वेद व्यथित, कुन्दन सिंह सजल, राजेश आनन्द असीर, मनोहर मनु एवं  कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ की काव्य रचनाएँ।


डॉ. नलिन




{वर्ष 2010 में प्रकाशित वरिष्ठ कवि आद. डॉ. नलिन जी की छोटी-छोटी प्रभावशाली गीत रचनाओं का संग्रह ‘गीतांकुर’ हमें हाल ही में पढ़ने को मिला। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो रचनाएँ।}






पवन दुधारी.....


पवन दुधारी उर पर मत धर,
मेह चला मत तीर बदन पर,
थोड़ी देर ठहर जाओ बस,
साजन होंगे बीच डगर पर।


कुंकम रोली थाल सजाकर,
दीप द्वार पर धर बैठी हूँ,
पल पल छिन छिन राह निहारूँ,
आस नयन में ले बैठी हूँ।


वो आ जाएं कर लेना फिर
बूँदों से अभिषेक मेह तू,
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
पवन छेड़ना शहनाई धुन
बैठ झरोखे ऊपर से तू।


इकतारा टूट गया...


इकतारा टूट गया,
साथ चला था, बीच डगर बंजारा रूठ गया।


राहों का उजियारा  था  वो चाहों का रखवाला था,
रातों का चंदा था तो दिन का दिनकर मतवाला था,
    मन मेरा भोला-भाला था,
राहु-केतु ऐसे झपटे हाथों से छूट गया,
दुःखों ने लूट लिया।


इतना प्यार दिया था तुमने जग को सारा लुटा सके,
कोई बैर रखे तो उसके भ्रम को आकर मिटा सके,
पर जग था इस पर घात रखे,
बिल्ली का ही भाग तेज था, छींका टूट गया,
यह दरपन फूट गया।



  • 4-ई-6, तलवंडी, कोटा-324005 (राजस्थान)





डॉ. सुरेश उजाला






ग़ज़ल


शूल की माला पिरोकर क्या करोगे
आदमियत को डुबोकर क्या करोगे


वैर के बागान फैले हर तरफ हैं
नफ़रतों के बीज बोकर क्या करोगे


आदमी पर बात का होता असर है
रेखांकन : पारस दासोत 
व्यंग्य-वाणों को चुभोकर क्या करोगे


आँसुओं का हर तरफ सैलाब फैला
रोने वालो और रोकर क्या करोगे


प्रेरकों के मूल्य जीवन में उतारो
व्यर्थ की छवियाँ संजोकर क्या करोगे


आचरण की है नदी निर्मल न जब तक
उसमें मैले हाथ धोकर क्या करोगे


भोर में पंक्षी-  प्रभाती गा रहे हैं
जागरण के वक्त सोकर क्या करोगे

  • 108-तकरोही, पं. दीनदयालपुरम मार्ग, इन्दिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.)



अमरेन्द्र सुमन




कितना महत्वपूर्ण है मर्दों के लिये.........


बहुत हद तक मर्द होते हैं लापरवाह
नियमित की दिनचर्या से
सुकुमार मुस्कुराहटों में छिपी मनोदशा से
एक पक्षीय कार्यों के लगन से
पत्नि के रुप में किसी औरत के घर आने के पूर्व तक


तमाम विकल्पों के शीर्ष तक की योग्यता के बावजूद
खर्च करता है वह अपनी उम्र का अधिकांश वक्त
अपने आधिपत्य की एक स्थिर दुनिया बसाने में


चाहता है दोस्तों के बहकावे में भटकने की खुली आजादी
दीवारों पर टंगे पारदर्शी तस्वीरों की नग्नता के साथ
लगातार संभोग


रेखांकन : बी.मोहन नेगी 
कितना महत्वपूर्ण है मर्दों के लिये
उनकी पूरी उम्र की किताब में
बोलती तस्वीर की तरह एक औरत की स्थायी उपस्थिति


बिस्तर की ओट में
जहाँ पूरी की पूरी रात
पति के आने के इन्तजार में
मोमबत्ती की तरह पिघलना
उसकी आदतों में शुमार एक हिस्सा है
अगली सुबह के लिये राशन पानी का जुगाड़
फटेहाल में पूरे घर को बहलाए रखने की गैरतकनीक पढ़ाई


पूरे घर की प्रचुर प्रतिष्ठा में छिपी होती है
सामान्य सी दिखने वाली एक औरत
वार्षिक आय सी उसकी हँसी

  • ‘‘मणि बिला’’, केवट पाड़ा (मोरटंगा रोड), दुमका (झारखण्ड)  



अंजु दुआ जैमिनी


{चर्चित कथाकार-कवयित्री अंजु दुआ जैमिनी का दोहा सतसई ‘अंजुरी भर-भर’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनके कुछ प्रतिनिधि दोहे।}
दस दोहे


1.
पाप-गठरिया धोवती, गंगा नीर बहाय,
थाती भयली राष्ट्र की, धवल वस्त्र पहराय।
2.
फेंक-फेंक पासा हँसे, शकुनी करे धमाल,
काल चाल टेढ़ी बड़ी, छाड़े कई सवाल।
3.
भरती दान-दहेज घर, दुलहिन सासर आय,
बेचे देह गरीबनी, रेल तले कट जाय।
4.
नखरीली भाजी भयी, पटु पानी-परकास,
महँगाई उछली फिरे, हाथ बढ़ा आकाश।
5.
ऊँची-ऊँची डिगरियाँ, पर फैलावें खाब,
ढँूढ़े रोजी ना मिले, नवजुग फीकी आब।
6.
रेखांकन :  डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
नदी पेड़ परबत जलधि, देते जे अभिशाप,
मानस न दोहता भरै, भरी गगरिया पाप।
7.
दिया कीटनाशक छिड़क, मार गिरायो कीट,
मारे दुर्गुण का दवा, कौन उठायो ईंट।
8.
वजनी बस्ता पीठ पे, तन-मन भारी बोझ,
अवसादित बचपन सड़ा, सुमन-सुरभिया ओझ।
9.
ठंड खाय निर्धन मरा, जियरा सोग मनाय,
खा-पीकर झूमे धनी, उत्सव शीत मनाय।
10.
जे बनराज दहाड़ता, मन कंपित भयभीत,
दुबक गया खरगोश-सा, बिसराया बन-गीत।।12।।

  • 839, सेक्टर-21 सी, फरीदाबाद-121001 (हरियाणा)







वेद व्यथित


आकर्षण


काजल की रेख कहीं
अंदर तक पैठ  गई
तमस की आकृतियाँ
अंतर की सुरत हुईं


मन को झकझोर दिया
रेखांकन :  नरेश उदास 
गहरी सी सांसों ने...


दूर कहाँ रह पाया
आकर्षण विद्युत सा
अंग अंग संग रहा
तमस बहु रंग हुआ


गहरे तक डूब गया
अपनी ही साँसों में...


चाहा तो दूर रहूँ
शक्त नही मन था
कोमल थे तार बहुत
टूटन का डर था


सोचा संगीत बजे
उच्छल इन साँसों में...


जो भी जिया था
उस क्षण का सच था
किस ने सोचा ये
आगे का सच क्या


फिर भी वो शेष रहा
जीवन की सांसों में...



  • अनुकम्पा -1577  सेक्टर -3 ,फरीदाबाद -121004





कुन्दन सिंह सजल






ग़ज़ल


अभी तो जिन्द्रगी, बाकी बहुत है।
खुदी है, बेखुदी बाकी बहुत है।।


दिखावट को कभी भी ओढ़ लेना
अभी तो सादगी, बाकी बहुत है


दोस्तों का जरा अन्तर टटोलो
अभी भी दुश्मनी बाकी बहुत है


अभी तो साथ रहने को संभालो
अभी तो दोस्ती बाकी बहुत है


सभी वन्दों से हम इत्तफाक रखें
अभी तो वंदगी, बाकी बहुत है


रेखांकन : महावीर रंवाल्टा 
उजाला तो मिलेगा, तब मिलेगा
अभी तो तीरगी बाकी बहुत है


पता देगी तुम्हारी गुमशुदी का
याद की रौशनी बाकी बहुत है


चलो हलचल भरी महफिल टटोलें
यहां वीरानगी बाकी बहुत है


बनाकर हमको दीवाना न छोड़ो
अभी दीवानगी बाकी बहुत है


विदा होने की जिद को छोड़ भी दो
अभी तो चांदनी बाकी बहुत है

  • उदय निवास, रायपुर (पाटन), सीकर-332718 (राज.)





राजेश आनन्द असीर






ग़ज़ल


झूठी अना को ओढ़ के ख़ुद्दार बन गए
हम खुद ही अपनी राह की दीवार बन गए


रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
दहशत तो सर बुलंद किए घूमती रही
कुर्सी थी जिनके पास वो लाचार बन गए


बच्चों को दी गई ये भला कैसी तरबियत
औज़ार बनने आए थे हथियार बन गए


उलझे रहे अवाम तो रोटी की फ़िक्र में
रहबर हमारे देश के ज़रदार बन गए


सामें  की हैसियत भी नहीं जिनकी ऐ ‘असीर’
वो लोग गीतकार, ग़ज़लकार बन गए

  • 150, पार्क रोड, गांधी ग्राम, देहरादून-248001 (उ.खंड)





मनोहर मनु


गजल


गया था फर्ज से दामन छुड़ा के
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
परेशां है वो माँ का दिल दुखा के


किनारों से सफीनों को लड़ा के
समंदर हंस रहा है दूर जा के


सफ़र के इन ग़मों की उम्र कितनी
सिकुडते साये हैं बढ़ती कजा के


कभी इक पल जुदा होता नहीं है
बहुत देखा उसे हमने भुला के


यही मिटटी बिखेरेगी उजाले
कभी देखो इसे दीपक बना के



  •  माँ हॉस्पिटल, गुना (म.प्र.)





कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’


हौले-हौले नभ से उतरी


हौले-हौले नभ से उतरी, फिर बतियाती भोर
प्रेमपाश में सब जग बांधा, फेंक रेशमी डोर


जीवन की बगिया महकेगी
दशों दिशा उल्लासित
नई-नई परिभाषा होगी
जन-जन में परिभाषित
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
तोड़ मौन हरियाली झूमे, मधुकर  गुंजित शोर
प्रेमपाश में सब जग बांधा, फेंक रेशमी डोर,


भावों की मलयानिल बुनती
गीत मधुर मन भावन
प्रेम रंग में गोरी फिरती
अलसाया सा तन-मन
मधुरस से गगरी भर जाए, बाकी रहे न कोर
प्रेमपाश में सब जग बांधा, फेंक रेशमी डोर,


चाल ‘अचूक’ समय नित चलता
करता साथ शरारत
दुविधा की गठरी का बोझा
लेकर घूमे इत-उत
पूर्ण विराम हो गई पीड़ा, सुख अनन्त की ओर
प्रेमपाश में सब जग बांधा, फेंक रेशमी डोर,



  • 38-ए, विजयनगर, करतारपुरा, जयपुर-302006 (राज.)


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