आपका परिचय

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 06,  फरवरी 2013 

।।कथा कहानी।।

सामग्री :  डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम’ की  कहानी-  जीवन रेखा।


डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम’




जीवन रेखा

      गर्मियों के शुरूआती दिन थे। हवा खुश्क हो चली थी और हवाओं के साथ चारों तरफ गर्दो-गुब्बार उड़ते दिखाई देने लगे थे। सुबह की पहली किरण के साथ जिस्म से कपड़े उतार फंेकने की ख्वाहिश दिल में गथलने लगी थी। पंखे की तेज रफ्तार हवा जिस्म की सुकून की बजाय एक अजीब से कोफ्त और बदमजगी की एहसास करा रही थी। जिसका कोई समाधान नहीं था। इसलिए सुबह हो जाने के बावजूद न चाहते हुए भी लोग अपने-अपने कमरे में पंखे के नीचे अलसाए से पडे थे।
     रहीम फर्ज की नमाज के बाद मस्जिद से घर लौट चुका था। उसने अपनी फितरत के मुताबिक कुरआन पाक की तिलवात खत्म कर ली थी और अम्मी के हाथों बनी प्यारी सी एक कप चाये पीने के बाद बिस्तर पर यों ही लेट गया था। यों ही लेटे हुए कब उसकी आंखों को झपकी आ गई। यह उसे कतई नहीं मालूम...... लेकिन जब आंख खुली तो उसके चेहरे पर परेशानी की लकीरें साफ दिख रही थीं। चेहरे पर हवाइयां उड रही थी। उसके पूरे जिस्म पर कंपकंपी सी तारी थी। होंठ सूख रहे थे, जिसे तर रखने के लिए वह बार-बार होठों पर जबान फेरता। अजीब सी कैफियत थी उसकी। वह कुछ कहना चाहता था पर अम्मी से कोई ऐसी....वैसी बात कहकर उन्हें बिलावजह परेशानी में डालने का उसका कोई इरादा नहीं था। वह कुछ पल यों ही कमरे में टहलता रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस ख्वाब की ताबीर क्या सच होकर रहेगी? वह अब्बू के कमरे में गया। वह भी अपनी बिस्तर पर नमाज के बाद निहाल से लेटे थे। अभी वह किससे क्या कहे, किससे न कहे! इसी उधेडबन में खोया हुआ था। वह किसी नतीजे पर पहुंचने की नामुमकिन कोशिश में जुटा था।
     अभी वह इसी उलझन में फंसा था कि अचानक कमरे में टेलीफोन की घंटी बज उठी। वह किसी खौफनाक खबर की दहशत में घिरा टेलीफोन की ओर बढ़ा। उसने फोन को कान से लगाया। दूसरी ओर से छोटे चाचा पूछ रहे थे- कौन ? रहीम! अरे! भईया कहां है? एक खबर देनी है। बहुत गडबड़ हो गया है यहां रात में। 
    ‘‘ऐसा क्या हो गया है चाचा जी? सब खैरियत तो है न?’’ रहीम ने सहमते हुए पूछा।
     ‘‘अब क्या कहें रहीम! कल रात कलीमउद्दीन की बीवी चल बसी। उसे हम लोग हस्पताल ले जाने के लिए रिक्शे पर बिठा ही रहे थे। उसने रिक्शा के चार कदम बढ़ते ही रास्ते में दम तोड़ दिया। फिर भी हस्पताल ले गए। एक उम्मीद बची थी। वह भी वहां जाकर टूट गई। भईया को सब बता दीजिए और आप लोग जल्दी से आ जाइए। दादाजी को भी अपने साथ लेते आइए। देर मत कीजिए.... बस निकलने की तैयारी कीजिए.... जोहर (दोपहर) की नमाज के बाद कफन-दफन का इंतेजाम किया गया है, ताकि खानदान के दूसरे लोग भी आ जाएं। अच्छा अब फोन रखता हँू।’’ वह कहना चाहता था कि अब्बू को जगा देता हँू। आप खुद बात कर लीजिए, लेकिन तब तक उन्होंने फोन कट कर दिया। वह चोगा हाथ में पकड़े हुए भौंचक खड़ा रह गया।
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
     जब रहीम ने यह खबर सुनी तो उसकी रूह कांप गई। ‘‘अरे! मेरे ख्वाब का मतलब भी तो यही निकलता है। उसने झपकी आने के बाद ख्वाब मेें यही तो देखा था कि एक जगह कुछ लोग जमा है। उनके हाथ दुआ के लिए उठे हैं और उनमें से एक शख्स रहीम से करीब आकर कहता है- ‘‘मगफिरत की दुआ करो... मगफिर (माफी)।’’  जिसके बाद उसकी नींद खुल गई थी। वह किसी अनहोनी की खबर से आतंकित हो उठा था। ओह! यह क्या देखा था मैंने... ओह पहले अम्मी-अब्बू को खबर तो दे दूँ। उसने जो यह बात घर में बतायी तो सब सकते में पड़ गए। 
     जोहरा भाभी गर्भवती थी। यह सबको मालूम था, लेकिन बच्चे की पैदाइश के वक्त ही मौत हो जाएगी। यह किसी के लिए भी यकीन करना कठिन था। दादा जी को यह खबर मिली तो वह रो पड़े। ’’या अल्लाह! अब उसके घर का क्या होगा... अरे! यह सब हुआ तो कैसे ? उसे तकलीफ होते ही हस्पताल क्यों नहीं ले गए लोग? क्या कर रहे थे सब घर में? ऐसी लापरवाही होती है भला... या खुदा यह क्या कहर बरपा किया?’’ दादा जी भरी आंखो से अपना दर्द जाहिर करते रहे। आसमान तकते रहे.... आहें भरते रहे।
      ‘‘रहीम! मैं तो बिना आफिस से छुट्टी की दरख्वास्त मंजूर कराए, गांव नहीं जा सकता। मेरी बजाय तुम दादा जी के साथ गांव चले आओ। आठ बजे की लोकल से। अभी ट्रेन आने में करीब बीस मिनट बाकी हैं। आरा से बस मिल जाएगी। दोपहर के पहले घर पहुंच जाओगे....।’’  जिंदगी में पहली बार रहीम ने भारी मन से गांव जाने के लिए तैयार होने लगा। इससे पहले वह जब भी गांव गया। वहां जाना उसकी दुगुनी खुशी का सबब रहा था। उसे गांव का माहौल बेहद पसंद था। मगर इस बार उसकी खुशियों को न जाने किसकी नजर लग गई थी।
     आनन-फानन की तैयारी के बाद किसी तरह वह दादा जी के साथ गांव पहुंचा तो जोहर की नमाज का वक्त निकल चुका था और मईयत को मस्जिद के करीब नमाजे जनाजा के लिए लाया जा चुका था। अपने-पराये सभी जमा थे वहां पर, बस हमारे पहुंचने का इंतेजार था। पूरा माहौल गम से बोझिल था।
      जब भाभी जान को कब्र में लिटाया गया। कलीम भईया बुक्का फाड़कर से पड़े। किसी तरह कुछ लोगों ने संभाला। हिम्मत से काम लेने की सलाह दी। पर दिल कोई पत्थर तो नहीं जिससे गम का ज्वार नहीं फूटे। फिर भी उनकी आंखो में आंसू थमते से लगे, किन्तु दिल में न जाने कितने गम के पहाड़ तैरते और आपस में टकराते रहे। आखिरी बार भाभी का चेहरा खोलकर सबको दिखाया गया। रहीम ने भी देखा। भाभी का पीलिया के रोगी की तरह पीला पड़ चुका चेहरा। जिस पर तब भी कहीं कोई तनाव या दुख का साया नहीं था। कब्र पर मिट्टी डालने के बाद सबने उनकी मुक्ति की दुआएं कीं और उल्टे पैर घरों को लौट गए।
      एकबारगी कलीम भईया की जिंदगी वीरान हो गई थी। यह बात पूरे खानदान को गहरे कचोट रही थी। अजीब-अजीब बातंे सुनने को मिल रही थी यानि जितनी मुँह उतनी बातें। बातों के सिलसिला का कोई अन्तिम छोर नहीं था। छोटे चाचा रहीम को पुश्तैनी मकान के सामने तैयब चाचा के चतबूतरे पर बिठाते हुए कहने लगे- ‘‘यह सब हादिसा इतनी जल्दी हो गया कि किसी को वक्त ही नहीं मिला कि आधी रात को कोई कुछ कर सके। अन्दर कलीम की मेहरारू को दर्द हुआ तो घर की औरतों-मर्दो ने समझा कि सब थोड़ी देर में हमेशा की तरह ठीक-ठाक हो जाएगा। वैसे भी जोहरा कोई पहली बार बच्चा तो नहीं जनने जा रही थी। इसके पहले वह पांच बेटियां और तीन बेटों को जन्म दे चुकी थी। यह नौवां बच्चा था जो उसके गर्भ में पल रहा था और अब कुछ ही मिनटों में बाहर आना चाहता था। घर के दरवाजे पर बैठे मर्दो को खुशखबरी का इंतेजार था। रात के करीब साढ़े ग्यारह बज रहे होंगे कि तभी इसी चबूतरे पर रहीम मेरी जरा सी आंख झपक गई। तब जानते हो। मैंने ख्वाब में क्या देखा?’’
      ‘‘क्या देखा चाचा जी? कोई बुरा सपना... ?’’ उसने बेतरह चौंकते हुए पूछा।
      ‘‘हाँ! मैेंने महसूस किया कि सामने के ढलान वली गली से एक अजगर फंुफकारता हुआ दौड़ता चला आ रहा है और वह घर में घुसकर किसी को डस लेता है। यह ख्वाब टूटना था कि मेरे कानों में घर की औरतों के रोने-चीखने की आवाजें पड़ीं। मैं दोड़ कर अंन्दर गया। कमरे में सारी औरतें बेहाल थीं। सबकी आंखों में आंसू थे। जोहरा बस एक ही बाते रटे जा रही थी, ‘‘मुझे डागडर के पास ले चलो... अब मैं नहीं बचूंगी। बस किसी तरह हस्पताल चलो... मेरा दम घुट रहा है... कोई गला दबा रहा है।’’
      ‘‘फिर आप लोगों ने उसे हस्पताल ले जाने में देर क्यांे की ? उसे सही वक्त पर हस्पताल में दाखिल करा दिया गया होता तो शायद भाभी की जान बच जाती और यह परिवार नहीं उजड़ता।’’
     ‘‘अब क्या कहें रहीम! रात के वक्त रिक्शा तलाशने में देर हो गई। कोई चार कदम जाने के लिए तैयार नहीं थ। फिर तो यही कहा जाएगा न कि होनी को कौन टाल सकता है रहीम! वह तो कभी डाक्टर के पास गई ही नहीं। किसी की नहीं सुनती थी। वह सोच रही थी कि हमेशा की तरह यह बच्चा भी घर पर भी पैदा हो लेगा।’’
     ‘‘मगर चाचा जी! पिछली बार जब मैं गांव आया था। तब भाभी जान के चेहरे की रंगत देखकर उनसे कहा भी था। भाभी जान! आप की तबियत कुछ ठीक नही लगती। आप किसी डाक्टर से चेकअप करा लीजिए... तब उसने हंसते हुए धीमे लहजे में कहा था, ‘‘मुझे कुछ नहीं होगा रहीम बाबू! खा पीकर सेहतमंद हो जाऊँगी।’’ और आदतन वह चारपाई पर बैठी मुस्कुराती रही थीं।
      जब रहीम अपने ख्वाब की बात चाचा जी को बताने लगा तो वह सुनकर भौंचक रह गए। फिर तनिक धीमे लहजे में बोले, ‘रहीम! सच बात तो यह है कि उसके ऊपर भूत-प्रेत का साया था। वह भूत खेलाती थी। उसी ने उसकी जान ली है। तुम्हारी चाची भी यही कहती है। यही सही है। वरना एक अच्छी-भली औरत अचानक कैसे मर सकती है। फिर हम दोनों के सपने भी तो यही साबित करते हैं।’’ चाचा ने दिल की तसल्ली के लिए अपनी सोच जाहिर की। रहीम ने उनकी बातें सुनी, किन्तु कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
      दूसरे दिन वह पटना वापसी के लिए तैयार हुआ। कुछ और मेहमान भी जाने को तैयार दिखे। घर मुहल्ले की औरतें दरवाजे पर जमा हो गई। सबकी आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे। तभी एक औरत ने एक नवजात शिशु को कपड़े में लपेटकर सामने किया,- ‘‘यही है.... मुनिया! जिसे जोहरा ने मरने से पहले जन्म दिया। अब इसकी परवरिश कौन करेगा बाबू? यह भी मर जाती तो भला होता....? इस घर में कोई दूसरी औरत है कहां ? सारे बच्चे छोटे हैं। या अल्लाह यह क्या गजब किया..? किस बात की इतनी बड़ी सजा दी कलीम को ? बेचारा तंग-तनहा होकर रह गया...।’’ उसी भीड़ से किसी की आवाज आयी,’’ अरे ! यह बेटी नहीं नागिन है... माँ को ही डस गई’’।
पटना वापसी के कुछ दिनों बाद ही खबर मिली! बच्ची मर गई! किसी ने कहा कि उसकी सही ढंग से देखभल नहीं हुई, किसी ने कहा, उसे नमक चटाकर मार दिया गया। पहले से ही पांच पांच बेटियां क्या कम हैं, जो इसका जिम्मा कोई ढोये।’
      बरसों बाद भी रहीम को अपनी जोहरा भाभी से पहली मुलाकात याद थी। वह एक खुशगवार सुबह थी जब वह सपरिवार गांव गया था। दादी मां और चाचियों के साथ चचेरी भाभी ने भी पटनिया बाबू कहते हुए आवभगत में कोई कोर कसर नहीं रहने दी थी। रात देर तक भाभी उसके साथ अपने पीहर की बातें कहती-सुनती रही थी। उसे चिनिया बादाम मंगाकर खाने को विवश किया था। जब तक वह गांव में रहा हर रात धान के बदले बादाम और कुछ दूसरी खट्टी-मिटी चीजे मंगाकर वह खिलाती रही थीं।
      जोहरा भाभी औसतन कद काठी की होते हुए भी चेहरे से बेहद खूबसूरत दिखती थी। बातें खूब किया करती। हंसी मजाक तो उनके होठों पर चिपके रहते। किसी को रोते हुए भी हंसने को मजबूर कर देना, उनके किरदार की खूंबी थी। रहीम से जोहरा की गहरी छनती। दोनों अधिकतर समय साथ रहते, क्योंकि रहीम रिश्ते में देवर लगता था। इसलिए वह उसे किसी न किसी बहाने छेड़ने से भी नहीं चूकतीं। सज संवर कर रहना। उनको खूब पसंद था।
      छोटे चाचा और चचेरे भाई दोनों की शादियां एक साथ ही हुई थीं और एक दिन के फासले से दोनों जगह बारात गई थी। छोटी चाची कुछ पढ़ी लिखी थी, जबकि जोहरा भाभी ने पढ़ाई का वक्त सहेलियां के साथ पीहर की गलियों में मटरगश्ती करते हुए गुजारा था या फिर जैसा कि वह रहीम से कहती रही  थी कि जब गंगा नदी के बाढ़ का पानी उनके घर के दरवाजे तक आ लगता। वह किसी नाव पर सवार होकर नदी की सैर करतीं। गीत गातीं। पानी से अठखेलियां करतीं। वह तैरना भी जानती थीं। जबकि छोटी चाची उपन्यासों की शौकीन थीं और वह अपनी किताबों में ही फुर्सत के वक्त काट लिया करतीं।
      मगर रहीम को यह ख्याल आते ही बड़ी घुटन होती कि जोहरा भाभी को पांच बेटियों और तीन बेटों के जन्म देने के बाद भी तसल्ली क्यों कर नहीं हुई थी। वह और बच्चे की ख्वाहिशमंद क्यों थी? घर में खेती-‘बाडी थी और कलीम भईया की छोटी सी सरकारी नौकरी। तिस पर पूरे दस जनों की रात-दिन की आवश्यकताएं। कभी किसी के तन पर पूरे वस्त्र नहीं तो कभी मन मुताबिक खाने पीने की चीजें नहीं, मगर कलीम भईया भाभी का बहुत ख्याल रखते थे। उनकी जरूरत की किसी चीज में कोई कमी नहीं आने देते थे। जोहरा भाभी की खुशी में ही उनकी खुशी में ही उनकी खुशी पोशीदा थी।
       दरअसल इसकी भी एक खास वजह थी। खानदान में जोहरा भाभी के बच्चों के साथ साथ छोटी चाची के बच्चों की तादाद भी तेजी से बढ़ रही थी। कभी चाची जान गर्भवती होतीं तो कभी भाभी जान। एक-दूसरे की खबर लगते ही वह भी इस कोशिश में जुट जाती। नतीजा यह हुआ कि हर साल किसी ने किसी के बच्चे की पैदाईश का सिलसिला जारी रहा। यों कि दोनों के बीच एक शीत युद्ध की स्थिति बन गई और इस युद्ध में छोटी चाची विजयी हुई। जोहरा भाभी जहां नौवीं बच्ची के जन्म के साथ दुनिया को अलविदा कह गयीं। छोटी चाची ने अधिक बेटों को जन्म देकर रिकार्ड कायम किया। इस कोशिश में उनके हाथ भी जले। एक बेटा मानसिक रूप से विक्षिप्त पैदा हुआ। तब कहीं जाकर वह भी थमीं और दूसरे उन्हें जोहरा भाभी की मौत ने सकते में डाल दिया।
      जोहरा भाभी से पहले खानदान में किसी जवान औरत या मर्द की मौत नहीं हुई थी और यह जान भी बच्चे जनने के होड़ में गई थी। यह बात रहीम खूब समझ रहा था। कलीम भईया भाभी की उस हालत में सेहत और खानपान का ख्याल नहीं रख पाये थे। हमेशा की तरह इस बार भी वह बच्चा आराम से जन्म दे लेगी।
      बहरहाल, जोहरा भाभी अब इस दुनिया में नहीं, किंतु रहीम को लगता है कि आज भी वह उसके बेहद करीब बैठी बातें हंसी-मजाक कर रही है। उसे मनुहार कुछ न कुछ खाने को विवश कर रही हैं। उसके उल्टे-सीधे सवाल करके परेशान कर रही है। जिसके चेहरे में जाड़े के धूप सी नरमी और चांदनी सी चमक बसी थी। काश! वह ज्यादा बच्चे की हवस से बच पातीं। वह उनकी कुरबत से महरूम नहीं होता। आखिर घर की रौनक थीं वह।

  • संपादक/कथा सागर त्रैमासिक,  कोर्ट रोड़,  जज कोठी के सामने,  जामताड़ा,  झारखंड-815351

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2,  अंक : 6, फरवरी  2013  

।।क्षणिकाएँ।।

सामग्री :  डॉ. बलराम अग्रवाल, नारायण सिंह निर्दोष व डॉ. सुरेश सपन की क्षणिकाएँ।


डॉ. बलराम अग्रवाल





दो क्षणिकाएँ

1.
बिटिया ने 
ऊपर को
पत्थर जो उछाला
रेखा चित्र : राजेंद्र परदेशी 
नीचे को बैठ गया
सूरज बेचारा
छिप गया
डरपोक खरगोश सा दिन
2.
शब्द को 
न शूल बनाओ
न सुई करके
हवा में फेंको
फूट जायेंगी
सभी ओर हैं- मेरी आँखें

  • एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के पास, नवीन शाहदरा, दिल्ली


नारायण सिंह निर्दोष





दो क्षणिकाएँ

1.
पाँवों में
फटी चप्पलों की कीमत
जमा (+)
रेखा चित्र : शशिभूषण बडोनी 
जिस्म पर टंगे
चिथड़ों की कीमत
और कुल पर 
शत-प्रतिशत छूट
बराबर (=)
गरीब की कुल कीमत
2.
सहन करने की 
आखिरी हद से पूर्व ही
जब हम/बौखला जाते हैं
तब जनम लेता है- द्वन्द
फिर कुंठायें
और ढह जता है
हमारा/बचा-खुचा व्यक्तित्व

  • सी-21, लैह (स्म्प्।भ्) अपार्टमेन्ट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096


डॉ. सुरेश सपन





दो क्षणिकाएँ
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

1.
बिखरे हुए/शब्द
कुछ डायरी के इस पन्ने पर
कुछ डायरी के उस पन्ने पर
सूख गये/बस एक धूप में 
वे शब्द सब
डायरी के उस पन्ने पर
2.
आसमान साफ है
मगर जमीन पर धुंध है
कत्ल होने वाला है
जीर्ण-शीर्ण आदमी का

  • डॉ. एस.सी.पाण्डे, वरिष्ठ वैज्ञानिक, विवेकानन्द कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा (उत्तराखंड)

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2,  अंक : 6,   फरवरी  2013  

।।हाइकु।।

सामग्री : इस अंक में डॉ. भावना कुँअर के दस हाइकु।


डॉ. भावना कुँअर




दस हाइकु 


1.
कलियाँ खिलीं
कोयल गाने लगीं
नाचे मयूर।
2.
वो मृग छौना
बहुत ही सलौना
कुलाचें भरे।
3.
लेटी थी धूप
सागर तट पर
प्यास बुझाने।
4.
धुन बनाए
ओलों की बरसात
जैसे हो साज़।
5.
बरखा रानी
फैला गई खुशबू
सोंधी मिट्टी की।
6.
हुई आहट
छाया चित्र : रोहित काम्बोज 
खोला था जब द्वार
मिला  त्यौहार।
7.
परदेस में 
जब होली मनाई
तू याद आई।
8.
पड़ी है सूनी
भैया जी की कलाई
राखी न आई।
9.
घोर तन्हाई
जब माँ याद आई
फूटी रुलाई।
10.
सुबक पड़ी
कैसी थी वो निष्ठुर
विदा की घड़ी।

  • सिडनी, आस्ट्रेलिया (ई मेल : bhawnak2002@gmail-com)

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 6,  फरवरी   2013

।।जनक छन्द।।

सामग्री : हरिश्चन्द्र शाक्य के पाँच जनक छंद।



हरिश्चन्द्र शाक्य 



जनक छन्द


1.
कैसा अद्भुत ज्ञान है
ईश्वर को ब्रह्माण्ड में
खोज रहा विज्ञान है
2.
अधर-अधर पर गीत है
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
हवा प्रगति की चल गयी
खुशियों का संगीत है
3.
बाज, बाज ना आ रहा
बेकसूर जो कीर हैं
मार-मार कर खा रहा
4.
कैसी दुनिया आज की
चहुँ दिशि तूती बोलती 
भ्रष्टाचारी राज की
5.
मेंटो तुम छल-छन्द को
प्रेम-सुधारस बाँट दो
पाओ परमानन्द को

  • शाक्य प्रकाशन, घण्टाघर चौक,  क्लब घर,  मैनपुरी-205001 (उ0प्र0)

बाल अविराम

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2,  अंक : 6,  फरवरी  2013  


।।बाल अविराम।।

सामग्री : सुकेश साहनी की बाल-कहानी एवं अनिल द्विवेदी ‘तपन’ की दो कवितायेँ। नए बाल चित्रकार- स्मिति गंभीर व सक्षम गम्भीर।


सुकेश साहनी






{सुप्रसिद्ध कथाकार सुकेश साहनी का लघु संग्रह ‘‘अक्ल बड़ी या भैंस’’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था, जिसमें उनकी बारह प्रेरक बालकथाएं संग्रहीत हैं। प्रस्तुत है इसी संग्रह से उनकी एक बालकथा।}


अक्ल बड़ी या भैंस

     स्कूल से घर लौटते ही उदय ने चक्की के दो भारी पाट जैसे-तैसे स्टोर से बाहर निकाल दिए। फिर उन्हें लोहे की एक छड़ के, दोनों सिरों पर फँसाकर भारोत्तोलन का प्रयास करने लगा। चक्की के पाट बहुत भारी थे। प्रथम प्रयास में ही उसके पीठ में दर्द जागा और वह चीख पड़ा।
पेंटिंग : सक्षम गंभीर 
     उसकी चीख सुनकर माँ रसोईघर से दौड़ती हुई आ गयीं। उदय की पीठ में असहनीय पीड़ा हो रही थी। उन्होंने उदय को तब कुछ नहीं कहा। वे उदय को एक तरह से एक अच्छा लड़का मानती थीं। उदय जब कुछ राहत-सी महसूस करने लगा तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हें आज क्या सूझी?’’
    जवाब में उदय की आँखें भर आयीं, ‘‘माँ, आज स्कूल में मदन ने फिर मेरा हाथ उमेठ दिया। वह मुझसे बहुत तगड़ा है। मैं उससे भी ज्यादा तगड़ा बनूँगा।’’
    ‘‘अच्छा, पहले यह बताओ, स्कूल में तुम्हारे अध्यापक किसे अधिक चाहते हैं, तुम्हें या मदन को?’’
    ‘‘मुझे।’’
    माँ ने उसे समझाया- ‘‘तुम्हारी बातों से स्पष्ट है कि मदन में शारीरिक बल है, बुद्धि नहीं। बुद्धिमान आदमी अपने गुण की डींगें नहीं हाँकता। तुम चाहो तो अपनी बुद्धि के बल पर उसका घमंड दूर कर सकते हो।’’
    माँ के समझाने से उदय को नई शक्ति मिली। वह सोचने लगा। सोचते-सोचते उसकी आँखे खुशी से चमक उठीं।
पेंटिंग : सक्षम गंभीर 
    अगले दिन खेल क मैदान में उदय अपने कुछ मित्रों के साथ खड़ा था। तभी वहाँ मदन भी आ गया। अपनी आदत के मुताबिक आते ही उसने डींग हाँकनी शुरू की, ‘‘देखो, मैं यह पत्थर कितनी दूर फेंक सकता हूँ।’’ इतना कहकर वह एक भारी से पत्थर को फेंककर दिखाने लगा।
    ‘‘मदन, मुझसे मुकाबला करोगे?’’ उदय ने पूछा।
    ‘‘अबे तू!  जा मरियल, तू क्या खाकर मेरा मुकाबला करेगा?’’ मदन ने उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा।
     ‘‘ज्यादा घमंड ठीक नहीं होता’’, उदय ने अपना रूमाल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘‘इस रूमाल को ही जरा उस पत्थर तक फेंककर दिखा दो।’’
    ‘‘बस ये....ये लो।’’ मदन ने पूरी ताकत से रूमाल फेंका। रुमाल हवा में लहराता हुआ पास ही गिर गया।
     उदय ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम इस जरा से रूमाल को ही नहीं फेंक पाए, पर मैं इस रुमाल के साथ-साथ एक पत्थर को भी तुमसे अधिक दूरी तक फेंक सकता हूँ।’’ यह कहकर उदय ने रूमाल में एक छोटा-सा पत्थर लपेटा और उसे काफी दूर तक फेंक दिया। सभी लड़के जोर-जोर से तालियाँ बजाकर हँसने लगे। मदन का चेहरा मारे शर्म के लाल हो गया। वह चुपचाप वहाँ से खिसक गया।
    शाम को उदय खुशी-खुशी स्कूल से वापस लौट रहा था। वह आज की घटना जल्दी से जल्दी अपनी माँ को बताना चाहता था।

  • 193/21, सिविल लाइन्स, बरेली-243001 (उत्तर प्रदेश)



अनिल द्विवेदी ‘तपन’




{कवि-कथाकार अनिल द्विवेदी ‘तपन’ का बाल कविताओं का संग्रह ‘‘उड़न खटोला’’ मार्च 2010 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उनकी 22 बाल कविताएं संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से दो बाल कविताएं।}


क्यों अनपढ़ कहलाते?

थके-थके से चूहे चाचा
घर के अंदर आए।
रंग-बिरंगी कई किताबें
अपनी बगल दबाए।।

क्यों उदास हो, मुझे बताओ
चुहिया चाची बोली।
सर में दर्द अगर होता हो
खालो कोई गोली।।
पेंटिंग : इशिता श्रीवास्तव 

बोले चाचा, बात नहीं कुछ
ना कोई बीमारी।
पत्र-पत्रिका ना पढ़ पाना
है मेरी लाचारी।।

पढ़े-लिखे बच्चे अक्सर अब
मेरी हँसी उड़ाते।
थोड़ा सा भी पढ़-लिख लेते
क्यों अनपढ़ कहलाते।।

अभिलाषा

मेरी अभिलाषा है, मैं भी
बादल बन उड़ जाऊँ।
पवन वेग के संग-संग नभ में
हँस-हँस मजे उडाऊँ।।

कितने सुन्दर ये बादल हैं
पल-पल रंग बदलते।
गर्मी से आहत जन-जन की
व्याकुलता को हरते।।
पेंटिंग : स्मिति गंभीर 

तेज गर्जना इनकी सुनकर
सब के तन थर्राते।
मानों शेर सभी धरती के
नभ पर जा गुर्राते।।

निश्छल मन से सेवा करने
आसमान पर आते।
पृथ्वी पर पानी बरसाकर
जीवन सुखद बनाते।।

  • ‘दुलारे निकुंज’, 46-सिपाही ठाकुर, कन्नौज-209725 (उ.प्र.) 


हमारे नए बाल-चित्रकार 

स्मिति गंभीर 




माँ : भारती गंभीर
पिता : राकेश गंभीर
कक्षा : 7 
जन्म : 09-09-2000
स्कूल : ए.पी.एस.2 , रुड़की  











इशिता श्रीवास्तव 





माँ : रागनी श्रीवास्तव‌
पिता : संदीप श्रीवास्तव‌
जन्म : 11‍. 11. 2003
कक्षा : 3
स्कूल : विद्याभूमि पब्लिक स्कूल छिंदवाड़ा
(दादाजी सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री प्रभुदयाल श्रीवास्तव)






सक्षम  गंभीर 




माँ : भारती गंभीर 
पिता : राकेश गंभीर
कक्षा : 4 
जन्म : 08-08-2003
स्कूल : ए.पी.एस.2 , रुड़की 
ई मेल : sakshamgambhir9@gmail.com 






किताबें

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 6 ,  फरवरी   2013  

{अविराम के ब्लाग के इस अंक में प्रख्यात कथाकार एवं चिन्तक श्री विरेन्द्र कुमार गुप्त के उपन्यास ‘‘शून्य से शिखर’’ की  प्रख्यात साहित्यकार व समीक्षक डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा लिखित समीक्षा रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।}


डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’



‘संन्यास से संसार और संसार से संन्यास’ का समन्वय कराता उपन्यास ‘शून्य से शिखर’

   प्रख्यात कथाकार एवं चिन्तक श्री विरेन्द्र कुमार गुप्त का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ‘‘शून्य से शिखर’’ निःसन्देह हिन्दी कथा जगत की उपलब्धि कहा जाना चाहिए। कथाकार श्री भगवती चरण वर्मा ने अपने चर्चित उपन्यास ‘‘चित्रलेखा’’ में संन्यास की ‘व्यर्थता’ को इतिहास और कल्पना के रंगों में ढाला था, लेकिन कथाकार श्री विरेन्द्र कुमार गुप्त ने तो ‘संन्यास से संसार और संसार से संन्यास के बीच अनूठा समन्वय’ स्थापित कराते हुए ‘‘शून्य से शिखर’’ उपन्यास में समाज, राजनीति और धर्म की त्रिवेणी के बीच रोचक कथा का सृजन किया है।
         कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने कथा नायक सदानन्द को निर्मल आश्रम के भिक्षु-संन्यासी से मुख्यमंत्री के पद तक ले जाकर जहाँ राजनीति के दावँ-पेंचों के बीच ‘अध्यात्म-साधना’ पर अत्यन्त गंभीर और सकारात्मक चिन्तन अपने इस उपन्यास ‘शून्य से शिखर’ में दिया है, वहीं सुष्मिता और सुषमा जैसे सजीव नारी-पात्रों के माध्यम से श्रेष्ठ जीवन मूल्यों और नारीत्व की गरिमा भी स्थापित की है।
कथाकार ने ‘शून्य से शिखर’ में कथानक का ताना-बाना इतनी कुशलता से बुना है कि पाठक स्वयं को हर घटना-क्रम के साथ बंधा हुआ सा अनुभव करता है और उपन्यास के सभी पात्रों से पाठक सहज तादात्म्य बनाकर कथारस में डूबा रहता है।
         स्वयं कथाकार ने कथानायक सदानन्द के माध्यम से एक विचार दिया है- ‘‘सांसारिक कर्म और कर्म संन्यास के बीच संतुलन एक मनोवैज्ञानिक विषय है, हमने इसे एक सामाजिक द्वैत के रूप में लिया है, जो हानिकर है। हर तथाकथित संन्यासी के भीतर एक सांसारिक गृहस्थ और हर गृहस्थ के भीतर एक संन्यासी निरन्तर वर्तमान रहता है और रहना चाहिए।’’ (पृष्ठ-6)
        कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने संन्यास-आश्रमों में ‘मोक्ष’ और ‘निर्वाण’ की खोज मंे रहने वाले संन्यासियों के बीच निर्मल आश्रम के भिक्षु सदानन्द और गृहस्थी समीर के बीच वार्तालाप में ही बेधक प्रश्न उठाया है। ‘‘मैं भिक्षा मांगना और भिक्षा देना, दोनों को ही पाप समझता हूँ।’’ -समीर का यह वाक्य ही ‘शून्य से शिख्र’ उपन्यास की नींव बना है।
        कथा-क्रम के अनुसार, कथानायक भिक्षु सदानन्द एक दिन ‘संन्यास’ छोड़कर गृहस्थ बन जाता है और उसके इस जीवन में जन्मदाता माँ-बाप और भाई के साथ-साथ पत्नी ‘सुष्मिता’, ससुर मिश्र जी और मार्गदर्शक मित्र समीर का प्रवेश हो जाता है। कथानायक संस्कृत विद्यालय के शिक्षक से विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री तक बन जाता है।
        कथाकार श्री वीरेन्द्र कुमार गुप्त ने अपने उपन्यास में मनोविज्ञान का ऐसा सार्थक प्रयोग किया है कि पाठक उनके पात्रों, कथानायक सदानन्द, मित्र समीर, मिश्र जी, निर्मल बाबा के साथ-साथ सुष्मिता और सुषमा के चरित्र-चित्रण से अभिभूत हो उठता है।
      ‘शून्य से शिखर’ उपन्यास में कथाकार ने गंभीर चिन्तन को वाणी दी है- ‘‘सीधी सी बात है। स्त्री-पुरुष का संयोग, गृहस्थ ईश्वर का बनाया शाश्वत विधान है। मोक्ष या निर्वाण के लिए यह आपका संन्यास मनुष्य के विकृत अहं की हठ मात्र है, जो प्रकृति की ओर पीठ किये खड़ी है।’’ (पृष्ठ-23)
        कथाकार ने सदानन्द और समीर के वार्तालाप के द्वारा ‘चित्रलेखा’ के कथाकार भगवती चरण वर्मा से बहुत आगे बढ़ कर ‘संन्यास’ पर मंथन किया है- ‘‘पहला अन्तर यह है कि गृहस्थ श्रम करके अपनी और अपने आश्रितों की रोटी अर्जित करता है। संन्यासी परोपजीवी है। दूसरे, गृहस्थ उत्पादन करता है.....उसके द्वारा किया गया उत्पादन केवल उसके लिए नहीं होता, सबके लिए होता है। संन्यासी का लक्ष्य केवल अपनी आत्मा का उद्धार रहता है।’’ (पृष्ठ-31)
       सच यह है कि कथाकार श्री वीरेन्द्र गुप्त ने समाज की ज्वलन्त समस्या पर यह महत्वपूर्ण उपन्यास रचा है।
        कथाकार ने यत्र-तत्र बुद्ध द्वारा संन्यास को एक ‘संस्था’ बनाकर ‘भिक्षुओं के संघ’ बनाने को प्रतिगामी माना है और गृहस्थ को समाज का आधार माना है- ‘‘मैं समझता हूँ, जो साधना संन्यासी करता है, वह गृहस्थ के सब कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी की जा सकती है। सांसारिक युद्धों को लड़ना अपने में एक तपस्या है। एक सच्चा गृहस्थ संन्यासी से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह चुनौतियों से भागता नहीं।’’ (पृष्ठ-53)
         कथानायक सदानन्द के साथ पत्नी सुष्मिता और प्रेयसी सुषमा का ‘त्रिकोंण’ बनाकर कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने नारीत्व को जो गरिमा दी है, वह पाठक के हृदय को अभिभूत कर लेती है। सुषमा के चरित्रांकन में तो जैसे उपन्यासकार ने उदात्त को ही रूपायित कर दिया है। त्याग, दृढ़ता, संकल्प-शक्ति और कर्मशीलता जैसे उदात्त जीवन-मूल्यों को कथाकार ने सुषमा और सुष्मिता के माध्यम से अनूठी अभिव्यक्ति दी है।
        कथाकार वीरेन्द्र कुमार गुप्त का यह उपन्यास निश्चय ही उनके पूर्व उपन्यासों की ही तरह सकारात्मक चिन्तन प्रधान रोचक कृति है, जिसमें वर्तमान राजनीति के दाँव-पेंच से लेकर सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर भी सार्थक चिन्तन पाठकों को मिलेगा। ‘‘शून्य से शिखर’’ निश्चय ही हिन्दी-जगत में स्थान बनाएगा, इस विश्वास के साथ मैं सुधी पाठकों को इस कृति का परिचय दे रहा हूँ।

‘शून्य से शिखर’ : उपन्यास। लेखक : वीरेन्द्र कुमार गुप्त। प्रकाशक : मित्तल एण्ड संस, सी-32, आर्यनगर सोसायटी, मदर डेयरी, पटपड़गंज, दिल्ली-110092। मूल्य : रु.200/-। संस्करण : 2013 (सजिल्द)। पृष्ठ : 127।

  • 74/3, न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला-हरिद्वार (उत्तराखण्ड)

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 6,  फरवरी 2013 


विश्व पुस्तक मेले में दिशा प्रका. के स्टाल पर प्रज्ञा सम्मान समारोह 
{ दिशा प्रकाशन के स्टाल पर दिखा  'अविराम साहित्यकी' का लघुकथा विशेषांक}      

सुरेश यादव को प्रज्ञा सम्मान 
          


अशोक भाटिया  को प्रज्ञा सम्मान 
 दिनांक 09.02.2013   को विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर दिशा प्रकाशन के स्टाल पर प्रज्ञा सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। भाई मधुदीप,  मधुकांत तथा हरनाम शर्मा द्वारा सर्वश्री अशोक वर्मा,  सुरेश यादव, अशोक भाटिया, आर.के.पंकज,  उमेश महादोषी, सुरेन्द्र गोयल,  श्रीमती कांता बंसल तथा शोभा रस्तोगी को उनकी लेखकीय तथा पत्रकारिता में उपलब्धियों के लिए प्रज्ञा सम्मान से सम्मानित किया गया। सभी सम्मानित साहित्यकारों को शाल, प्रतिक चिह्न, प्रमाण-पत्र  के  साथ दिशा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तकें भी भेंट की गयीं।    
अशोक वर्मा को प्रज्ञा सम्मान 
           

शोभा भारती को प्रज्ञा सम्मान 
इस अवसर पर दिशा प्रकाशन के स्टाल पर भारी भीड़ के साथ कुमार नरेन्दर, राजकुमार निजात, शकुन्त दीप,  सुधीर कुमार तथा अनेक प्रकाशक तथा लेखक बंधु उपस्थित थे। मधुदीप ने सम्मानित लेखकों का परिचय उपस्थित सभी बन्धुओं से करवाया तथा हरनाम शर्मा ने आभार व्यक्त किया। मधुकांत जी ने सूचना प्रदान की कि प्रज्ञा मंच इस वर्ष को प्रख्यात लेखिका स्वर्गीया इंद्रा स्वप्न के जन्मशती के रूप में मना रहा है तथा उनके जन्मदिन पर भव्य समारोह का आयोजन किया जायेगा। 
    पुस्तक मेले के अवसर पर दिशा प्रकाशन ने लघु पत्रिकाओं को सहयोग देने हेतु अपने स्टाल पर कई लघु-पत्रिकाओं को प्रदर्शित किया, जिनमें अविराम साहित्यकी का लघुकथा विशेषांक भी शामिल था। पूरे (समाचार सौजन्य : मधुदीप,  निदेशक, दिशा प्रकाशन)



हिन्दी कथा साहित्य एवं स्वयं प्रकाश विषयक राष्ट्रीय सेमीनार




चित्तौड़गढ़। यथार्थ को संजोते हुए जीवन की वास्तविकता का चित्रण कर समाज की गतिशीलता को बनाये रखने का मर्म ही कहानी हैं। सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता शक्ति एक कथाकार की विशेषता है और स्वयं प्रकाश इसके पर्याय बनकर उभरे हैं। उनकी कहानियों में खास तौर पर कथा और कहन की शैली खासतौर पर दिखती हैं। यही कारण है कि पाठक को कहानियों अपने आस-पास के परिवेश से मेल खाती हुई अनुभव होती हैं। विलग अन्दाज की भाषा शैली के कारण स्वयं प्रकाश पाठकों के होकर रह जाते हैं। चित्तौड़गढ़ में आयोजित समकालीन हिन्दी कथा साहित्य एवं स्वयं प्रकाश विषयक राष्ट्रीय सेमीनार में मुख्यतः यह बात उभरकर आयी।
         सेमीनार का बीज वक्तव्य देते हुए सुखाडिया विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो माधव हाडा ने कहा कि यथार्थ के प्रचलित ढाँचे ने पारम्परिक कहन को बहुत नुकसान पहुंचाया है लेकिन अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद स्वयं प्रकाश ऐसे कथाकार हैं जो यथार्थ के नए नए पक्षों का उद्घाटन करते हुए कहन को क्षतिग्रस्त नहीं होने देते। उन्होंने कहा कि कहानी और कथा का भेद जिस तरह से उनकी कहानियों को पढते हुए समझा जा सकता हैवैसा किसी भी समकालीन कथाकार के यहाँ दुर्लभ है। प्रो हाड़ा ने कहा कि आज के दौर में लेखक को स्वयं लेखक होने की चिन्ता खाये जा रही है वहीं मनुष्य एवं मनुष्य की चिन्ता स्वयं प्रकाश की कहानियों में परिलक्षित होती है। हिन्दू कालेज दिल्ली से आए युवा आलोचक पल्लव ने आयोजन के महत्त्व को प्रकाशित करते हुए कहा कि प्रशंसाओं के घटाटोप में उस आलोचना की बडी जरूरत है जो हमारे समय की सही रचनाशीलता को स्थापित करे। इस सत्र में कथाकार स्वयं प्रकाश ने अपनी चर्चित कहानी श्कानदांवश् का पाठ किया जो रोचक कहन में भी अपने समय की जटिल और उलझी हुई सच्चाइयों को समझने का अवसर देती है। पाठक जिसे किस्सा समझकर रचना का आनंद लेता है वह कोरा किस्सा न होकर उससे कहीं आगे का दस्तावेज हो जाती है। सत्र के समापन पर सम्भावना के अध्यक्ष डा. के.सी. शर्मा ने आगे भी इस तरह के आयोजन जारी रखने का विश्वास जताया। शुरूआत में श्रमिक नेता घनश्याम सिंह राणावत, जी.एन.एस. चैहान, जेपी दशोरा, अजयसिंह, योगेश शर्मा ने अतिथियों का अभिनन्दन किया।
       दूसरे सत्र के मुख्य वक्ता युवा कवि अशोक कुमार पांडेय ने अपने समकालीन कथा साहित्य की विभिन्न प्रवृतियों के कईं उदाहरण श्रोताओं के सामने रखे। उन्होंने समय के साथ बदलती परिस्थितियों और संक्रमण के दौर में भी स्वयं प्रकाश के अपने लेखन को लेकर प्रतिबद्ध बने रहने पर खुशी जाहिर की। उन्होंने समकाल की व्याख्या करते हुए कहा कि यह सही है कि किसी भी काल के विभिन्न संस्तर होते हैं. एक ही समय में हम आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक सभी स्तरों पर इन संस्तरों को महसूस कर सकते हैं। लेकिन जहाँ उत्तर-आधुनिक विमर्श इन्हें अलग-अलग करके देखते हैं वहीँ एक वामपंथी लेखक इन सबके बीच उपस्थित अंतर्संबंध की पडताल करता है और इसीलिए उसे अपनी रचनाओं की ब्रांडिंग नहीं करनी पडती। उसके लेखन में स्त्री, दलित, साम्प्रदायिकता, आर्थिक शोषण सभी सहज स्वाभाविक रूप से आते हैं। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ इसकी गवाह हैं। उनकी दूसरी खूबी यह है कि वह पूरी तरह एशियाई ढब के किस्सागो हैं, जिनके यहाँ स्थानीयता को भूमंडलीय में तब्दील होते देखा जा सकता है। इस रूप में वह विमर्शों के हवाई दौर में विचार की सख्त जमीन पर खडे महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। सत्र की अध्यक्षता करते हुए कवि और चिंतक डा. सदाशिव श्रोत्रिय ने कहा कि कोइ भी व्यक्ति दूसरों की पीड़ा और व्यथा को समझकर ही साहित्यकार बन सकता है और सही अर्थों में समाज को कुछ दे सकता हैं। उन्होंने स्वयं प्रकाश के साथ भीनमाल और चित्तौड में व्यतीत दिनों पर एक संस्मरण का वाचन किया जिसे श्रोताओं ने पर्याप्त पसंद किया। जबलपुर विश्वविद्यालय की मोनालिसा और राजकीय महाविद्यालय मण्डफिया के प्राध्यापक डा. अखिलेश चाष्टा ने पत्रवाचन कर स्वयं प्रकाश की कहानियों का समकालीन परिदृश्य में विश्लेषण किया। विमर्श के दौरान पार्टीशन, चैथा हादसा, नीलकान्त का सफर जैसी कहानियों की खूब चर्चा रही। इस सत्र का संचालन माणिक ने किया।
        तीसरे सत्र के मुख्य वक्ता डॉ कामेश्वर प्रसाद सिंह ने समाकालीन परिदृश्य में स्वयं प्रकाश की उपस्थिति का महत्त्व दर्शाते हुए कहा कि पार्टीशन जैसी कहानी केवल साम्प्रदायिकता जैसी समस्या पर ही बात नहीं करती अपितु संश्लिष्ट यथार्थ को सही सही खोलकर कर पाठक तक पहुंचा देती है। उन्होंने क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है? का उल्लेख करते हुए कहा कि मध्यवर्ग का काइंयापन इस कहानी में जिस तरह निकलकर आता है वह इस एक खास ढंग से देखने से रोकता है। इस सत्र में इग्नू दिल्ली की शोध छात्रा रेखासिंह ने पत्र वाचन किया। अध्यक्षता कर रहे राजस्थान विद्यापीठ के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मलय पानेरी ने कहा कि स्वयं प्रकाश की कहानियां नींद से जगाने के साथ आँखें खोल देने का काम भी करती हैं। उन्होंने स्वयं प्रकाश की एक अल्पचर्चित कहानी ढलान पर का उल्लेख करते हुए बताया कि अधेड होते मनुष्य का जैसा प्रभावी चित्र इस कहानी में आया है वह दुर्लभ है। सत्र का संचालन करते हुए डॉ रेणु व्यास ने कहा कि स्वयं प्रकाश की कहानी के पात्रों में हमेशा पाठक भी शामिल होता है यही उनकी कहानी की ताकत होती है।
समापन सत्र में डा. सत्यनारायण व्यास ने कहा कि जब तक मनुष्य और मनुष्यता है जब तक साहित्य की आवश्यकताओं की प्रासंगिकता रहेगी। उन्होंने कहा कि मानवता सबसे बड़ी विचारधारा है और हमें यह समझना होगा कि वामपंथी हुए बिना भी प्रगतिशील हुआ जा सकता है। सामाजिक यथार्थ के साथ मानवीय पक्ष स्वयं प्रकाश की कहानियों की विशेषता है एवं उनका सम्पूर्ण साहित्य, सृजन इंसानियत के मूल्यों को बार-बार केन्द्र में लाता है। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात समालोचक प्रो. नवलकिशोर ने स्वयं प्रकाश की कहानियों के रचना कौशल के बारीक सूत्रों को पकडते हुए उनकी के छोटी कहानी हत्या का उल्लेख किया।   उन्होंने कहा कि मामूली दिखाई दे रहे दृश्य में कुछ विशिष्ट खोज लाना और उसे विशिष्ट अंदाज में प्रस्तुत करना स्वयं प्रकाश जैसे लेखक के लिए ही संभव है। चित्रकार और कवि रवि कुमार ने इस सत्र में कहा कि किसी भी कहानी में विचार की अनुपस्थिति असंभव है और साहित्य व्यक्ति के अनुभव के दायरे को बढ़ाता हैं। इस सत्र का संचालन कर रहे राजकीय महाविद्यालय डूंगरपुर के प्राध्यापक हिमांशु पण्डया ने कहा कि गलत का प्रतिरोध प्रबलता से करना ही स्वयं प्रकाश की कहानियों को अन्य लेखकों से अलग खड़ा करती है।     
           रावतभाटा के रंगकर्मी रविकुमार द्वारा निर्मित स्वयंप्रकाश की कहानियों के खास हिस्सों पर केन्द्रित करके पोस्टर प्रदर्शनी इस सेमीनार का एक और मुख्य आकर्षण रही। यहीं बनास जन, समयांतर, लोक संघर्ष सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की एक प्रदर्शनी भी लगाई गई। सेमीनार में प्रतिभागियों द्वारा अपने अनुभव सुनाने के क्रम में विकास अग्रवाल ने स्वयंप्रकाश के साथ बिताये अपने समय को संक्षेप में याद किया। आयोजन में गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सहायक आचार्य डॉ गजेन्द्र मीणा प्रतिभागियों के प्रतिनिधि के रूप में सेमीनार पर अपना वक्तव्य दिया। इस सत्र में विकास अग्रवाल ने भी अपनी संक्षित टिप्पणी की। आखिर में आभार आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी लक्ष्मण व्यास ने दिया।
        आयोजन में उदयपुर विश्वविद्यालय से जुडे अध्यापकों एवं शोध छात्रों के साथ नगर और आस-पास के अनेक साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। आयोजन स्थल पर चित्रकार रविकुमार द्वारा कथा-कविता पोस्टर प्रदर्शनी, ज्योतिपर्व प्रकाशन द्वारा स्वयं प्रकाश की पुस्तकों की प्रदर्शनी एवं लघु पत्रिकाओं की प्रदर्शनी को प्रतिभागियों ने सराहा। ( समाचार सौजन्य : डा. कनक जैन, संयोजक, राष्ट्रीय सेमीनार, म-16, हाउसिंग बोर्ड, कुम्भा नगर, चित्तौडगढ -312001)


विश्व पुस्तक मेले में उद्भ्रांत की पुस्तकों का लोकार्पण

    

विश्व पुस्तक मेले में गत दिनांक 07 फरवरी को अमन प्रकाशन के स्टॉल पर वरिष्ठ कवि उद्भ्रांत से सम्बंधित पांच पुस्तकों का लोकार्पण करते हुए मूर्धन्य कवि डॉ. केदारनाथ सिंह ने कहा कि एक श्रेष्ठ कवि की नई पुस्तकों का लोकार्पण करते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है। यह कोई औपचारिकता मात्र नहीं है, बल्कि सच्चाई है कि उद्भ्रांत की कृतियों में ऐसा बहुत कुछ है जिसकी समाज को आवश्यकता है। पाठक जब उनकी कविता को पढ़ेंगे तो उन्हें समय की बेहतर समझ मिलेगी क्योंकि उनका समग्र काव्य आज की ज़रूरत को रेखांकित करता है। वरिष्ठ आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि उद्भ्रांत हमारे समय के ऐसे महत्त्वपूर्ण कवि हैं जो हमेशा चर्चा में रहते हैं। उनकी काव्यकृतियों के नये संस्करण होना और उन पर केन्द्रित आलोचना पुस्तकों का लगातार आना यह सिद्ध करता है कि उन्हें भावक पाठक और सहृदय आलोचक दोनों ही उपलब्ध हैं। ऐसा सुयोग बहुत कम कवियों को मिलता है। आलोचक डॉ. कर्णसिंह चौहान ने कहा कि उद्भ्रांत जी से चार दशक पूर्व बाँदा के प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में भेंट हुई थी। फिर उन्होंने कानपुर से ‘युवा’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका निकाली जिसने देशभर के प्रगतिशील साथियों को जोड़ दिया। लगभग दो दशक पहले वे दिल्ली आये तो उनकी उपस्थिति से राजधानी की हलचलें बढ़ गईं। उनका साहित्यिक योगदान बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण भी है।
जिन पुस्तकों का लोकार्पण हुआ वे क्रमशः इस प्रकार थीं-उद्भ्रांत रचित खण्डकाव्य ‘वक्रतुण्ड’ का द्वितीय संस्करण, डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय द्वारा सम्पादित समीक्षा पुस्तक ‘वक्रतुण्ड: मिथक की समकालीनता’, उद्भ्रांत द्वारा सम्पादित वाचिक आलोचना की पुस्तिका ‘लोकार्पण की भूमिका: काव्यनाटक और दलित विमर्श’, डॉ. शिवपूजन लाल का आलोचना ग्रंथ ‘उद्भ्रांत का काव्य: मिथक के अनछुए पहलू’ और उद्भ्रांत की बहुचर्चित लम्बी कविता ‘रुद्रावतार’ का मात्र दस रूपये लागत मूल्य  और पांच हजार प्रतियों का गुटका संस्करण, जिसे केदार जी ने ‘विलक्षण प्रयोग’ की संज्ञा दी। दूरदर्शन महानिदेशालय की अतिरिक्त महानिदेशक सुश्री दीपा चंद्रा के मुख्य आथित्य वाले इस कार्यक्रम में सर्वश्री दिनेश मिश्र (भूतपूर्व निदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ), जलेस की दिल्ली इकाई के सचिव डॉ. बली सिंह, मीडिया विशेषज्ञ धीरंजन मालवे, दूरदर्शन की साप्ताहिक ‘पत्रिका’ कार्यक्रम के प्रोड्यूसर डॉ. अमरनाथ अमर, दूरदर्शन के सहायक केन्द्र निदेशक श्री पुरुषोत्तम नारायण सिंह और कवि जनार्दन मिश्र तथा अखिलेश मिश्र ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कवि को बधाईयाँ दीं। 
उसी दिन ज्योतिपर्व प्रकाशन के स्टॉल पर उद्भ्रांत के कहानी संग्रह ‘मेरी प्रिय कथाएं’ का लोकार्पण करते हुए डॉ. खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि उद्भ्रांत ने अनेक विधाओं में काम किया है, इसलिए स्वाभाविक है कि ‘ज्योतिपर्व प्रकाशन’ की इस चर्चित कथा श्रंृखला में उनके द्वारा चयनित उनकी कहानियों का संग्रह आता। संग्रह की कहानियां अपने समय की चर्चित कहानियां रहीं हैं किन्तु अपनी कथावस्तु के कारण निश्चय ही आज के पाठक भी उन्हें अवश्य पसंद करेंगे। (समाचार सौजन्य : सुनील, डी1/782ए, हर्ष विहार, दिल्ली-110093)



जनसुलभ साहित्यमाला की 12 पुस्तकों का विमोचन

हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर (उ.प्र.) द्वारा प्रकशित जनसुलभ साहित्यमाला की 12 पुस्तकों के सैट का विमोचन विश्व पुस्तक मेले में संपन्न हुआ। अनेक गणमान्य साहित्यकार और साहित्यप्रेमी उपस्थित थे। प्रत्येक पुस्तक का मूल्य पचास रुपये पूरे सैट का मूल्य कुल पाँच सौ रुपये रखा गया है। सैट में शामिल पुस्तकों में शामिल हैं-  कमरा नंबर 103 (सुधा ओम ढींगरा), इमराना हाज़िर हो  (महेशचंद्र द्विवेदी), कहानियाँ अमेरिका से (संपादक : इला प्रसाद), कुत्तेवाले पापा  (मीना अग्रवाल) व प्रेमचंद की कालजयी कहानियाँ  (संपादक : डॉ. कमलकिशोर गोयनका) {सभी कहानी संग्रह}; लघुकथाएँ मानव-जीवन की (सम्पादक : सुकेश साहनी व  रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु'); दूध का धुला लोकतंत्र (गोपाल चतुर्वेदी), आदमी और कुत्ते की नाक  (डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल) व सच का सामना  (हरीशकुमार सिंह) {व्यंग्य संग्रह}: अफलातून की अकादमी  (डॉ. शिव शर्मा); सिनेमा, साहित्य और संस्कृति (नवलकिशोर शर्मा); मान भी जा छुटकी  (गीतिका गोयल)। (समाचार सौजन्य : रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु' /  डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल)

 शशांक मिश्र भारती को विद्यासागर (डी.लिट.) की उपाधि

       

 गत दिनों विक्रममशिला हिन्दी विद्यापीठ के 17 वें अधिवेशन में मौनतीर्थ गंगाघाट उज्जैन पर मुख्य अतिथिश्री एस.एस. सिसौदिया रामचाकर, विशिष्ट अतिथि डा.हरीशप्रधान कुलाधिपति डा. सुमनभाई जी, कुलपति डा.तेजनारायण कुशवाहा व कुलसचिव डा. देवेन्द्रनाथ साह की उपस्थिति में शाहजहांपुर उ.0प्र. निवासी व रा.इ. का. दुबौला पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड में शिक्षक पद पर कार्यरत श्री शशांक मिश्र भारती को उनकी कृति पर्यावरण की कविताएं के लिए विद्यासागर (डी.लिट.) की उपाधि से अलंकृत किया गया। इनके अलावा 65 हिन्दी सेवियों को विद्यासागर, 88 को विद्यावाचस्पति, 15 को भारतगौरव, 5 को अंग गौरव, 3 को महाकवि, 1 को पत्रकार शिरोमणि, 1को ज्योतिष शिरोमणि, 16 को भारतीय भाषा रत्न, 9 को साहित्य शिरोमणि और 14 को समाजसेवी रत्न से अलंकृत किया गया।
       सम्मानित होने पर अनेक साहित्यकारों शिक्षकों  गाणमान्य नागरिकों ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बधाई दी है। (समाचार सौजन्य : कु. एकांशी शिखा, सम्पादन सहयोगी, देवसुधा  दुबौला-पिथौरागढ़)