।।कथा प्रवाह।।
सामग्री : डा. सतीश दुबे, भगीरथ परिहार, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सुनील कुमार चौहान, शिव अवतार पाल व मोहन लोधिया की लघुकथाएं
।।कथा प्रवाह।।
डा. सतीश दुबे
डा. सतीश दुबे
साया
मॉल के कैन्टिन में कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए र्दाइं ओर बैठी टॉप-जिन्स, चेहरे की दोनों साइड में स्टाइल से संवारकर लटकाए बालों और मेकअप-सैपअप युक्त अकेली बैठी युवती के चेहरे पर जाकर ठहरी विजय की आँखें, हट नहीं रही थीं। उसके अन्तर्मन से आवाज आ रही थी कि इस औरत को वह पहचानता है।
ऊहापोह की स्थिति से उबरने के लिए सम्पूर्ण आत्मशक्ति बटोरकर वह उस तक पहुँचा। उसके ‘‘एक्सक्यूज मी मैडम’’ कहते ही उसने उसकी ओर गर्दन ऊँची कर देखा तथा आश्चर्य से आँखें घुमाते हुए बोली- ‘‘विजय... तू... ’’। ’’तेने पहचान लिया?’’ ‘‘एक लपाड़ा दूँगी, तेरे को नी पेचानुगी क्या, बैठ।’’
‘‘मालती तुझे यहाँ ऐसी मॉड मेम देखकर.....’’
‘‘बस..बस रेने दे, यहाँ आने के बाद मैं मालती नहीं मधु हो गई हूँ। मक्खियों के छत्ते के शहद जैसी मीठी....। डेरे से यां कैसे आई, ये सब तेने वहाँ आते-जाते जान ही लिया होगा। यहाँ मैं कावेरीबाई की धंधा करने वाली छोकरी नहीं ‘‘कालगर्ल’’ हूँ। धंधे ने रहना-बोलना सब धीरे-धीरे सिखा दिया। एक आदमी रख लिया है मोबाइल पर ग्राहकों से बात वो ही करता है। हर काम के अलग-अलग रेट। डेरा छोड़ पाँच-सात साल में इत्ती कमाई हो गई कि फ्लैट भी ले लिया और कार भी। कौन क्या करता है ये बात शहर का साया जानता है बस। चोरी-छिपे, खुले आम क्या चल रहा है, किसे अड़ी। मैंने अपनी बात बता दी। तू अपनी कह...?’’ बिना किसी जिज्ञासा प्रश्न के अपना पूरा कच्चा चिट्ठा बयान कर मधु ने विजय की ओर देखा।
‘‘तेरे जैसा लखपति तो नहीं, पर गाँव से अच्छा हूँ। स्कूली पढ़ाई के बाद यहाँ बी.ए. तक पढ़ा और रिजर्वेशन के कारण, एक आफिस में बाबू की नौकरी मिल गई। डेरे पर जाता हूँ तो लोग बाबू विजय सिंह राठौर की अफसर जैसी इज्जत करते हैं।’’
‘‘अरे वाह! तेरी बात सुनकर सच मजा आ गया....’’ यहाँ तो क्या दूँ, घर आना, जो तू चाहेगा, उससे ज्यादह ही देकर खुश कर दूँगी।’’ कहते हुए मालती खिलखिलाई। ओठांे की लालिमा और दांतों की सफेदी के बीच से निकली फूल जैसी झरती हंसी देख विजय को लगा, सचमुच शहर ने उसकी काया को बाँछड़ी से ‘कॉलगर्ल’ बना दिया है।
‘‘कहा न तेरे को.... आना खुश कर दूँगी, फिर काहे को घूरे जा रहा है।’’
‘‘तेरी उतरी-पातरी चीज की खुशी मुझे नहीं चाहिए।’’ विजय के चेहरे पर मुस्कुराहट थी।
‘‘अच्छा!! वारे ब्रह्मचारी के बेटे.... ऐसा कर मेरे ठिये-ठिकाने का पता तो लिख ले और आने से पहले मोबाइल कर लेना.... तू आयेगा तो मुझे अच्छा लगेगा। मेरा आदमी आ रहा है, वो समझेगा ग्राहक है.... तू जा...।’’ कुर्सी से खड़े होते हुए विजय ने देखा आँसुओं से भर आईं बड़ी-बड़ी आँखों से मालती उर्फ मधु उसकी ओर देख रही है।
मॉल के कैन्टिन में कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए र्दाइं ओर बैठी टॉप-जिन्स, चेहरे की दोनों साइड में स्टाइल से संवारकर लटकाए बालों और मेकअप-सैपअप युक्त अकेली बैठी युवती के चेहरे पर जाकर ठहरी विजय की आँखें, हट नहीं रही थीं। उसके अन्तर्मन से आवाज आ रही थी कि इस औरत को वह पहचानता है।
ऊहापोह की स्थिति से उबरने के लिए सम्पूर्ण आत्मशक्ति बटोरकर वह उस तक पहुँचा। उसके ‘‘एक्सक्यूज मी मैडम’’ कहते ही उसने उसकी ओर गर्दन ऊँची कर देखा तथा आश्चर्य से आँखें घुमाते हुए बोली- ‘‘विजय... तू... ’’। ’’तेने पहचान लिया?’’ ‘‘एक लपाड़ा दूँगी, तेरे को नी पेचानुगी क्या, बैठ।’’
‘‘मालती तुझे यहाँ ऐसी मॉड मेम देखकर.....’’
‘‘बस..बस रेने दे, यहाँ आने के बाद मैं मालती नहीं मधु हो गई हूँ। मक्खियों के छत्ते के शहद जैसी मीठी....। डेरे से यां कैसे आई, ये सब तेने वहाँ आते-जाते जान ही लिया होगा। यहाँ मैं कावेरीबाई की धंधा करने वाली छोकरी नहीं ‘‘कालगर्ल’’ हूँ। धंधे ने रहना-बोलना सब धीरे-धीरे सिखा दिया। एक आदमी रख लिया है मोबाइल पर ग्राहकों से बात वो ही करता है। हर काम के अलग-अलग रेट। डेरा छोड़ पाँच-सात साल में इत्ती कमाई हो गई कि फ्लैट भी ले लिया और कार भी। कौन क्या करता है ये बात शहर का साया जानता है बस। चोरी-छिपे, खुले आम क्या चल रहा है, किसे अड़ी। मैंने अपनी बात बता दी। तू अपनी कह...?’’ बिना किसी जिज्ञासा प्रश्न के अपना पूरा कच्चा चिट्ठा बयान कर मधु ने विजय की ओर देखा।
‘‘तेरे जैसा लखपति तो नहीं, पर गाँव से अच्छा हूँ। स्कूली पढ़ाई के बाद यहाँ बी.ए. तक पढ़ा और रिजर्वेशन के कारण, एक आफिस में बाबू की नौकरी मिल गई। डेरे पर जाता हूँ तो लोग बाबू विजय सिंह राठौर की अफसर जैसी इज्जत करते हैं।’’
‘‘अरे वाह! तेरी बात सुनकर सच मजा आ गया....’’ यहाँ तो क्या दूँ, घर आना, जो तू चाहेगा, उससे ज्यादह ही देकर खुश कर दूँगी।’’ कहते हुए मालती खिलखिलाई। ओठांे की लालिमा और दांतों की सफेदी के बीच से निकली फूल जैसी झरती हंसी देख विजय को लगा, सचमुच शहर ने उसकी काया को बाँछड़ी से ‘कॉलगर्ल’ बना दिया है।
‘‘कहा न तेरे को.... आना खुश कर दूँगी, फिर काहे को घूरे जा रहा है।’’
द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
‘‘अच्छा!! वारे ब्रह्मचारी के बेटे.... ऐसा कर मेरे ठिये-ठिकाने का पता तो लिख ले और आने से पहले मोबाइल कर लेना.... तू आयेगा तो मुझे अच्छा लगेगा। मेरा आदमी आ रहा है, वो समझेगा ग्राहक है.... तू जा...।’’ कुर्सी से खड़े होते हुए विजय ने देखा आँसुओं से भर आईं बड़ी-बड़ी आँखों से मालती उर्फ मधु उसकी ओर देख रही है।
- 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
भगीरथ परिहार
सुनहरे भविष्य का बीमा
समधी जी हमने शादी ब्याह की सब बातें तो पक्की कर ली लेकिन एक बात तो भूल ही गये
इस ‘लेकिन’ शब्द को सुनते ही कितनी पुत्रियों के पिताओं को धरती घूमती नजर आई होगी। कितनी ही कन्याओं के जीवन को नरक कुंड बना दिया होगा, जो आत्मग्लानि से ग्रसित हो जीवन जीने की इच्छा ही समाप्त कर बैठी होगी।
आपकी पुत्री सुन्दर है, सुशील है और हर दृष्टि से योग्य है लेकिन रीति-रिवाज और अपनी मान-प्रतिष्ठा के अनुसार दान दहेज तो देना ही पड़ेगा।
बेटी का बाप कुछ हिचकिचाने लगता है।
‘किस कंजर से पाला पडा है, वो घनश्यामजी सीधे-सीधे पॉंच लाख दे रहे थे लेकिन ये कपूत छोरी की सुन्दरता पर लट्टू हो गये, नहीं तो पाँच लाख छः साल में दस लाख हो जाते और एक अच्छी खासी कोठी बनवा देते।’ बेटे का बाप मन में विचार कर रहा था। ‘कुछ नहीं तो एक फ्लेट ही बेटी के नाम बुक करा दें!’
बेटी का पिता कुछ प्रत्युत्तर देता उसके पहले ही समधिन ने अपने बाण छोड दिये, ‘अब देखिये भाईसाहब, इंजीनियर जमाई चाहिए और वो भी फ्री चाहिए। कर लेते अपनी बेटी का ब्याह किसी चपरासी से या बेरोजगार से। सपने देंखेंगे कि बेटी रानी बनकर राज कर रही है। लेकिन कानी् कौड़ी खर्च नहीं करेंगे यह भी कोई बात है। उल्टे सिद्धातो का भाषण पिला देंगे।’
बेटी का बाप हिचकिचाकर अपनी कुछ मजबूरी बताने का प्रयत्न करता है कि दूल्हे के पिता फिर उन्हें समझाने लगते हैं। ‘अब आप यही समझ लीजिए कि आप अपनी बेटी के सुनहरे भविष्य के लिए प्रीमियम भर रहे है। मेच्योर होने पर ब्याज व बोनस सहित राशि मिलेगी और बेटी ताजिन्दगी प्रसन्न रहेगी और परिवार की मालकिन बनेगी। बस बेटी के नाम फ्लेट बुक करा दीजिए और किश्तों में पैसा देते जाइये। आपको भारी भी नहीं पड़ेगा।’
बेटी का बाप असमंजस में पडा कुछ नहीं बोल पाया। केवल सिर हिलाकर रह गया।
समधी जी हमने शादी ब्याह की सब बातें तो पक्की कर ली लेकिन एक बात तो भूल ही गये
इस ‘लेकिन’ शब्द को सुनते ही कितनी पुत्रियों के पिताओं को धरती घूमती नजर आई होगी। कितनी ही कन्याओं के जीवन को नरक कुंड बना दिया होगा, जो आत्मग्लानि से ग्रसित हो जीवन जीने की इच्छा ही समाप्त कर बैठी होगी।
आपकी पुत्री सुन्दर है, सुशील है और हर दृष्टि से योग्य है लेकिन रीति-रिवाज और अपनी मान-प्रतिष्ठा के अनुसार दान दहेज तो देना ही पड़ेगा।
बेटी का बाप कुछ हिचकिचाने लगता है।
रेखांकन : सिद्धेश्वर |
बेटी का पिता कुछ प्रत्युत्तर देता उसके पहले ही समधिन ने अपने बाण छोड दिये, ‘अब देखिये भाईसाहब, इंजीनियर जमाई चाहिए और वो भी फ्री चाहिए। कर लेते अपनी बेटी का ब्याह किसी चपरासी से या बेरोजगार से। सपने देंखेंगे कि बेटी रानी बनकर राज कर रही है। लेकिन कानी् कौड़ी खर्च नहीं करेंगे यह भी कोई बात है। उल्टे सिद्धातो का भाषण पिला देंगे।’
बेटी का बाप हिचकिचाकर अपनी कुछ मजबूरी बताने का प्रयत्न करता है कि दूल्हे के पिता फिर उन्हें समझाने लगते हैं। ‘अब आप यही समझ लीजिए कि आप अपनी बेटी के सुनहरे भविष्य के लिए प्रीमियम भर रहे है। मेच्योर होने पर ब्याज व बोनस सहित राशि मिलेगी और बेटी ताजिन्दगी प्रसन्न रहेगी और परिवार की मालकिन बनेगी। बस बेटी के नाम फ्लेट बुक करा दीजिए और किश्तों में पैसा देते जाइये। आपको भारी भी नहीं पड़ेगा।’
बेटी का बाप असमंजस में पडा कुछ नहीं बोल पाया। केवल सिर हिलाकर रह गया।
- 228, नयाबाजार कालोनी रावतभाटा, राजस्थान पिन- 323307
अशोक भाटिया
टूटते हुए तिनके
शाम का चारा नाँद में डालकर टेका बैठा ही था, कि मास्टर जी आ गये। प्रौढ़-शिक्षा की क्लरस खुले में ही लगती थी। पेडत्र के नीचे बैठकर मास्टरजी उनसे बतियाने लगे।
थोड़ी दूरी पर एक ठूँठ के नीचे बैठा रामफल अपने पिता को देख रहा था...
ज़मीन से एक तिनका उठाकर वह सोचने लगा- ‘पढ़-लिख कै बापू आदमी बण ज्यागा...बड़ा आदमी हो ज्यागा...’
ज़मीन को स्लेट समझकर तिनके से लकीरें खींचते हुए, वह सोचने लगा- ‘‘मैं न्यूँ कद पढ़ूँगा...सकूल माँ तो एक भी मास्टर नी आंदा...’’
उसके हाथ का तिनका टूट गया, तो वह उठकर अपने पिता और मास्टरजी को देखते हुए खेतों में दूर निकल गयां...
साँझ को जब वह घर आया, तो बोला- ‘मैं सारा दिन तो खाली फिरूँ हूँ...तौं इब बेसक दिन माँ भी पढ़ ल्या कर... मैं खेताँ माँ तनिक और काम कर दयूँगा...!’’
शाम का चारा नाँद में डालकर टेका बैठा ही था, कि मास्टर जी आ गये। प्रौढ़-शिक्षा की क्लरस खुले में ही लगती थी। पेडत्र के नीचे बैठकर मास्टरजी उनसे बतियाने लगे।
थोड़ी दूरी पर एक ठूँठ के नीचे बैठा रामफल अपने पिता को देख रहा था...
ज़मीन से एक तिनका उठाकर वह सोचने लगा- ‘पढ़-लिख कै बापू आदमी बण ज्यागा...बड़ा आदमी हो ज्यागा...’
ज़मीन को स्लेट समझकर तिनके से लकीरें खींचते हुए, वह सोचने लगा- ‘‘मैं न्यूँ कद पढ़ूँगा...सकूल माँ तो एक भी मास्टर नी आंदा...’’
उसके हाथ का तिनका टूट गया, तो वह उठकर अपने पिता और मास्टरजी को देखते हुए खेतों में दूर निकल गयां...
साँझ को जब वह घर आया, तो बोला- ‘मैं सारा दिन तो खाली फिरूँ हूँ...तौं इब बेसक दिन माँ भी पढ़ ल्या कर... मैं खेताँ माँ तनिक और काम कर दयूँगा...!’’
- 1882, सैक्टर-13, करनाल-132001 (हरियाणा)
सुकेश साहनी
ठंडी रजाई
“कौन था ?” उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा ।
“वही, सामने वालों के यहाँ से,” पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, “बहन, रजाई दे दो, इनके दोस्त आए हैं।” फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, “इन्हें रोज़-रोज़ रजाई माँगते शर्म नहीं आती। मैंने तो साफ मना कर दिया- आज हमारे यहाँ भी कोई आने वाला है।”
“ठीक किया।” वह भी रजाई में दुबकते हुए बोला, “इन लोगों का यही इलाज है ।”
“बहुत ठंड है!” वह बड़बड़ाया।
“मेरे अपने हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे हैं।” पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अँगीठी के और नज़दीक घसीटते हुए कहा ।
“रजाई तो जैसे बिल्कुल बर्फ हो रही है, नींद आए भी तो कैसे!” वह करवट बदलते हुए बोला ।
“नींद का तो पता ही नहीं है!” पत्नी ने कहा, “इस ठंड में मेरी रजाई भी बेअसर सी हो गई है ।”
जब काफी देर तक नींद नहीं आई तो वे दोनों उठकर बैठ गए और अँगीठी पर हाथ तापने लगे।
“एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी?” पति ने कहा।
“कैसी बात करते हो?”
“आज जबदस्त ठंड है, सामने वालों के यहाँ मेहमान भी आए हैं। ऐसे में रजाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी।”
“हाँ,तो?” उसने आशाभरी नज़रों से पति की ओर देखा ।
“मैं सोच रहा था....मेरा मतलब यह था कि....हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।”
“तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़े ही जाएगी,” वह उछलकर खड़ी हो गई, “मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ।”
वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था। वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी।
“कौन था ?” उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा ।
“वही, सामने वालों के यहाँ से,” पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, “बहन, रजाई दे दो, इनके दोस्त आए हैं।” फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, “इन्हें रोज़-रोज़ रजाई माँगते शर्म नहीं आती। मैंने तो साफ मना कर दिया- आज हमारे यहाँ भी कोई आने वाला है।”
“ठीक किया।” वह भी रजाई में दुबकते हुए बोला, “इन लोगों का यही इलाज है ।”
“बहुत ठंड है!” वह बड़बड़ाया।
“मेरे अपने हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे हैं।” पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अँगीठी के और नज़दीक घसीटते हुए कहा ।
“रजाई तो जैसे बिल्कुल बर्फ हो रही है, नींद आए भी तो कैसे!” वह करवट बदलते हुए बोला ।
“नींद का तो पता ही नहीं है!” पत्नी ने कहा, “इस ठंड में मेरी रजाई भी बेअसर सी हो गई है ।”
जब काफी देर तक नींद नहीं आई तो वे दोनों उठकर बैठ गए और अँगीठी पर हाथ तापने लगे।
“एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी?” पति ने कहा।
“कैसी बात करते हो?”
द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
“हाँ,तो?” उसने आशाभरी नज़रों से पति की ओर देखा ।
“मैं सोच रहा था....मेरा मतलब यह था कि....हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।”
“तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़े ही जाएगी,” वह उछलकर खड़ी हो गई, “मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ।”
वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था। वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी।
- 193/21, सिविल लाइन्स, बरेली-243001 (उ.प्र.)
सुनील कुमार चौहान
सच्चाई
वह अपने छः वर्षीय पोते सचिन से अक्सर पड़ोसी के घर न जाने को कहते रहते थे। इतने पर भी वह यदा-कदा चला ही जाता था। धीरे-धीरे उसका पड़ोसी के घर जाना बन्द-सा हो गया।
एक दिन सचिन अपने दादाजी के साथ बाजार जा रहा था, तभी रास्ते में वही पड़ोसी मिल गये। उन्होंने सचिन को देखा तो पूछने लगे- ‘‘बेटे सचिन, क्या बात अब तुम हमारे घर नहीं आते। क्या तुम्हारे घर वालों ने हमारे घर आने से मना कर दिया है?‘‘
इससे पहले कि सचिन कोई जबाब देता, उसके दादाजी बोल पड़े- ‘‘नहीं-नहीं, घर वाले भला क्यों मना करेंगे! यह अपने आप ही नहीं......’’
दादाजी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि सचिन ने बीच में ही टोंक दिया- ‘‘आप ही तो बार-बार कहते थे कि उनके घर मत जाया करो।’’
सुनते ही पड़ोसी मुस्कुरा पड़े। दादाजी का चेहरा फक पड़ गया था। वह अपने पड़ोसी से आँख भी नहीं मिला पा रहे थे। उन्हे ऐसा लग रहा था जैसे उनके पोते ने उन्हे सरेआम नंगा कर दिया हो।
वह अपने छः वर्षीय पोते सचिन से अक्सर पड़ोसी के घर न जाने को कहते रहते थे। इतने पर भी वह यदा-कदा चला ही जाता था। धीरे-धीरे उसका पड़ोसी के घर जाना बन्द-सा हो गया।
एक दिन सचिन अपने दादाजी के साथ बाजार जा रहा था, तभी रास्ते में वही पड़ोसी मिल गये। उन्होंने सचिन को देखा तो पूछने लगे- ‘‘बेटे सचिन, क्या बात अब तुम हमारे घर नहीं आते। क्या तुम्हारे घर वालों ने हमारे घर आने से मना कर दिया है?‘‘
इससे पहले कि सचिन कोई जबाब देता, उसके दादाजी बोल पड़े- ‘‘नहीं-नहीं, घर वाले भला क्यों मना करेंगे! यह अपने आप ही नहीं......’’
दादाजी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि सचिन ने बीच में ही टोंक दिया- ‘‘आप ही तो बार-बार कहते थे कि उनके घर मत जाया करो।’’
सुनते ही पड़ोसी मुस्कुरा पड़े। दादाजी का चेहरा फक पड़ गया था। वह अपने पड़ोसी से आँख भी नहीं मिला पा रहे थे। उन्हे ऐसा लग रहा था जैसे उनके पोते ने उन्हे सरेआम नंगा कर दिया हो।
- ग्राम- परसिया, डाक- परवेजनगर, जिला- बदायूँ (उ0 प्र0)
शिव अवतार पाल
एडजस्ट
उस पूरी रात उन्हें नीद नहीं आई। थोड़ी-थोड़ी देर में उठ कर बल्व जला कर घड़ी देखते, कमरे से निकल कर टहलते हुए आँगन के दो चक्कर लगाते और फिर बत्ती बुझा कर लेट जाते। पन्द्रह दिन तो जैसे-तैसे बीत गये; पर ये रात खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी, मानो सदियों लम्बी यात्रा एक बार में ही पूरी कर लेना चाहती हो।
कल दस बजे की गाड़ी से मनु, बहू और पोते के साथ आ रहा है। चार साल पहले वह मुंबई गया था, तबसे वहीं का हो कर रह गया और वहीं शादी भी कर ली। फोन द्वारा सूचना दे कर उसने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी और वह सारी अभिलाषाओं को दिल में दफन किये मन मसोस कर रह गये थे। अब तो पोता भी दो साल का हो गया था। उन्होंने कई बार फोन पर आग्रह किया कि बहू और पोते को एक बार घुमा ले जाओ, पर हर बार उनकी उम्मीद के मधुमास पर निराशा का पतझड़ भारी पड़ता रहा।
मनु ने एक-दो बार मुंबई आने के लिये कहा भी, पर उसकी बातों में उन्हें आमंत्रण कम औपचारिकता अधिक लगी थी। वैसे भी इस घर, शहर और यहाँ की गलियों से उन्हें इतना अधिक लगाव था कि छोड़ने की कल्पना मात्र से ही मन काँपता था।
.......और अब उनके गठिया से दुखते जोड़ों में पता नहीं कहाँ से इतनी शक्ति आ गई थी कि अपने हाथों से घर की सफाई की, अस्त-व्यस्त सामान को करीने से लगाया और बाजार से पोते के लिये दौड़ने वाली रेलगाड़ी, बोलने वाली गुड़िया, ढोल बजाता बन्दर, नाचने वाला जोकर और ऐसे ही जाने कितने खिलौने ले आये थे।
भोर की पहली किरण के साथ आँगन में गिलहरी और चिड़ियाँ फुदकने लगी थीं। उन्हें चुगाने के लिये उन्होंने चावल के दाने बिखेर दिये। पिछले पन्द्रह दिनों से वह यह सब कर रहे हैं, ताकि ये नन्हें जीव यहाँ आने के अभ्यस्त हो जायें। मुन्ना इनके साथ खेल कर कितना खुश होगा, मुंबई में तो फ्लैट के भीतर ही दुनिया सिमट कर रह जाती है।
अचानक फोन की घंटी बजी। उन्होंने झपट कर रिसीवर उठाया, दूसरी ओर मनु था।
‘गाड़ी आ गई बेटा।’ वह चहकने लगे, ‘तुम वहीं रूको, मैं पहुँच रहा हूँ।’
‘सॉरी पापा।’ मनु की आवाज आयी, ‘इन्दु आने को तैयार नहीं है। दरअसल वह ए.सी. में रहने की आदी है और वहाँ तो कूलर भी नहीं है। वैसे भी छोटे शहरों में लाईट के आने-जाने का कोई वक्त नहीं होता। ऐसे में उसका एडजस्ट करना मुश्किल हो जायेगा।’
आँगन में चिड़ियाँ चहचहा रही थीं और उनके भीतर गहरा सन्नाटा पसर चुका था।
उस पूरी रात उन्हें नीद नहीं आई। थोड़ी-थोड़ी देर में उठ कर बल्व जला कर घड़ी देखते, कमरे से निकल कर टहलते हुए आँगन के दो चक्कर लगाते और फिर बत्ती बुझा कर लेट जाते। पन्द्रह दिन तो जैसे-तैसे बीत गये; पर ये रात खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी, मानो सदियों लम्बी यात्रा एक बार में ही पूरी कर लेना चाहती हो।
कल दस बजे की गाड़ी से मनु, बहू और पोते के साथ आ रहा है। चार साल पहले वह मुंबई गया था, तबसे वहीं का हो कर रह गया और वहीं शादी भी कर ली। फोन द्वारा सूचना दे कर उसने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी और वह सारी अभिलाषाओं को दिल में दफन किये मन मसोस कर रह गये थे। अब तो पोता भी दो साल का हो गया था। उन्होंने कई बार फोन पर आग्रह किया कि बहू और पोते को एक बार घुमा ले जाओ, पर हर बार उनकी उम्मीद के मधुमास पर निराशा का पतझड़ भारी पड़ता रहा।
मनु ने एक-दो बार मुंबई आने के लिये कहा भी, पर उसकी बातों में उन्हें आमंत्रण कम औपचारिकता अधिक लगी थी। वैसे भी इस घर, शहर और यहाँ की गलियों से उन्हें इतना अधिक लगाव था कि छोड़ने की कल्पना मात्र से ही मन काँपता था।
.......और अब उनके गठिया से दुखते जोड़ों में पता नहीं कहाँ से इतनी शक्ति आ गई थी कि अपने हाथों से घर की सफाई की, अस्त-व्यस्त सामान को करीने से लगाया और बाजार से पोते के लिये दौड़ने वाली रेलगाड़ी, बोलने वाली गुड़िया, ढोल बजाता बन्दर, नाचने वाला जोकर और ऐसे ही जाने कितने खिलौने ले आये थे।
भोर की पहली किरण के साथ आँगन में गिलहरी और चिड़ियाँ फुदकने लगी थीं। उन्हें चुगाने के लिये उन्होंने चावल के दाने बिखेर दिये। पिछले पन्द्रह दिनों से वह यह सब कर रहे हैं, ताकि ये नन्हें जीव यहाँ आने के अभ्यस्त हो जायें। मुन्ना इनके साथ खेल कर कितना खुश होगा, मुंबई में तो फ्लैट के भीतर ही दुनिया सिमट कर रह जाती है।
रेखांकन : हिना |
‘गाड़ी आ गई बेटा।’ वह चहकने लगे, ‘तुम वहीं रूको, मैं पहुँच रहा हूँ।’
‘सॉरी पापा।’ मनु की आवाज आयी, ‘इन्दु आने को तैयार नहीं है। दरअसल वह ए.सी. में रहने की आदी है और वहाँ तो कूलर भी नहीं है। वैसे भी छोटे शहरों में लाईट के आने-जाने का कोई वक्त नहीं होता। ऐसे में उसका एडजस्ट करना मुश्किल हो जायेगा।’
आँगन में चिड़ियाँ चहचहा रही थीं और उनके भीतर गहरा सन्नाटा पसर चुका था।
- 200, सती मोहल्ला, इटावा- 206001(उ.प्र.)
मोहन लोधिया
माँ का वात्सल्य
रामदीन ने अपनी गाय का नाम गौरी रखा था। कुछ दिन बाद गौरी ने बछड़े को जन्म दिया। बछड़े को सभी प्यार करते थे। रामदीन की पत्नी तो उसे पुत्रवत स्नेह करती और गोद में खिलाती थी। एक दिन रामदीन की पत्नी बछड़े को गोद में लेकर दुलार रही थी तभी बछड़े ने स्तनपान के लिये मुँह लगा दिया। रामदीन की पत्नी ने गुस्से से बछड़े को गिरा दिया।
जमीन पर गिरे हुए बछड़े को देखकर गौरी जोर से रंभाने लगी। उसकी नजर दीवार पर टंगे कैलेंडर पर टिकी थी। कैलेंडर के चित्र में बालक श्रीकृष्ण गाय के थन से मुंह लगाकर दूध पी रहे थे। गौरी सोच रही थी, क्या माँ का वात्सल्य पशु और मनुष्य में अलग-अलग होता है?
द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
जमीन पर गिरे हुए बछड़े को देखकर गौरी जोर से रंभाने लगी। उसकी नजर दीवार पर टंगे कैलेंडर पर टिकी थी। कैलेंडर के चित्र में बालक श्रीकृष्ण गाय के थन से मुंह लगाकर दूध पी रहे थे। गौरी सोच रही थी, क्या माँ का वात्सल्य पशु और मनुष्य में अलग-अलग होता है?
- 135/136, ‘मोहन निकेत’, अवधपुरी, नर्मदा रोड, जबलपुर-482008 (म.प्र.)
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