आपका परिचय

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

तीन और किताबें

{अविराम के ब्लाग के इस अंक में दो पुस्तकों की समीक्षा  रख  रहे हैं।  कृपया समीक्षा भेजने के साथ समीक्षित पुस्तक की एक प्रति हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।} 

बलराम अग्रवाल
‘नींव के नायक’: पारम्परिक लघुकथा, विचार और शोध की दृष्टि से महत्वपूर्ण संकलन
    समकालीन हिन्दी लघुकथा का महत्वपूर्ण संकलन ‘पेंसठ हिन्दी लघुकथाएँ’(2001) तथा पूर्व व वर्तमान पीढ़ी के लगभग 150 कथाकारों की लघुकथाओं का चर्चित संकलन ‘निर्वाचित लघुकथाएँ’(2005) कथा-क्षेत्र को देने के बाद अशोक भाटिया द्वारा संपादित लघुकथा-संकलन ‘नींव के नायक’(2010) प्रकाश में आया है। ‘नींव के नायक’ का प्रस्थान-बिन्दु क्योंकि सन् 1901 को रखा गया है इसलिए हिन्दी गद्य का जनक कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र(1850-1886) ‘नींव’ में इतने गहरे चले गए कि प्रकाश में न आ सके। पुस्तक में माधवराव सप्रे(1), प्रेमचन्द(10), माखनलाल चतुर्वेदी(2), पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’(3), जयशंकर प्रसाद(11), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी(1), छबीलेलाल गोस्वामी(1), जगदीशचन्द्र मिश्र(13), सुदर्शन(14), रामवृक्ष बेनीपुरी(1), अयोध्या प्रसाद गोयलीय(12), यशपाल(1), कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’(17), रामधारी सिंह ‘दिनकर’(4), उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’(8), रावी(9), विष्णु प्रभाकर(13), जानकीवल्लभ ‘शास्त्री’(1), रामनारायण उपाध्याय(3), हरिशंकर परसाई(12), दिगंबर झा(4), आनन्द मोहन अवस्थी(8), शरद कुमार मिश्र ‘शरद’(11), ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श’(4), श्यामनन्दन शास्त्री(8), पूरन मुद्गल(1), युगल(2), सुरेन्द्र मंथन(1) तथा सतीश दुबे(1) यानी 29 कथाकारों की कुल 177 लघुकथाएँ संगृहीत हैं। पुस्तक में ‘भूमिका-सा कुछ’ शीर्षक से अशोक भाटिया का शोधपूर्ण लेख ‘सन् 1970 तक की लघुकथाएँ’ भी है।
    रामचन्द्र शुक्ल द्वारा निर्धारित ‘गद्यकाल’(सन् 1900 से अद्यतन) की लघुकथा पर शोधपरक दृष्टि डालने वाले जिज्ञासुओं तथा शोधपरक कार्य करने वालों के ‘नींव के नायक’ एक आवश्यक पुस्तक है। आश्चर्य नहीं कि इसमें संकलित अनेक कथाकारों के लघुकथा-लेखन से बहुत-से पाठक पहली बार परिचित हों, लेकिन यह भी सही है कि अनेक महत्वपूर्ण नाम इसमें संकलित होने से छूट गए हैं। ऐसे कथाकारों में शिवनारायण उपाध्याय(रोज की कहानी, 1955), शान्ति मेहरोत्रा(खुला आकाश मेरे पंख,1962 संपादक: अज्ञेय) व भृंग तुपकरी(पंखुड़ियाँ, 1956) का नाम मुख्यरूप से लिया जा सकता है। वस्तुतः शोध एक अन्तहीन प्रक्रिया है और यह मानकर चलना कि अकेला व्यक्ति बिना किसी बाहरी सहयोग के पहली बार में ही उसे पूरा कर दिखाएगा, न्यायसंगत नहीं है। अशोक भाटिया का यह प्रयास इस अर्थ में अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि इससे सन् 1970 से पूर्व प्रकाशित लघुकथाओं व लघुकथा संग्रहों/संकलनों की खोज का एक रास्ता खुलता है।
   पुस्तक में संकलित लघुकथाओं के अन्त में उनके प्रकाशन का वर्ष तथा स्रोत भी संपादक ने दिया है, लेकिन कुछेक में वह छूट गया है। प्रकाशन वर्ष व स्रोत का प्रकाशित होने से छूट जाना संकलन की चमक को कुछ हद तक कम करता है। ऐसी पुस्तकों की मूल्यवत्ता उनकी शोध-संबंधित पूर्णता में ही निहित होती है। रामवृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, रामधारी सिंह दिनकर, रावी, विष्णु प्रभाकर, जानकीवल्लभ शास्री, दिगंबर झा, श्यामनन्दन शास्त्री की लघुकथाओं के न तो सन् लिखे जा सके हैं न स्रोत। कुछेक कथाकारों की लघुकथाओं के अन्त में प्रकाशन वर्ष तो दिया है लेकिन स्रोत नहीं दिया जा सका। माखनलाल चतुर्वेदी की लघुकथा ‘बिल्ली और बुखार’ के स्रोत की खोज काफी महत्वपूर्ण सिद्ध होगी।
   यह निर्विवाद है कि 1970 से पूर्व लघुकथा मुख्यतः आम आदमी के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक सरोकारों से भिन्न भाव और बोध की लघुकथा है। उसका स्वर आदर्शपरक अधिक है, यथार्थपरक कम। स्वर में यथार्थपरकता की चमक यद्यपि प्रेमचंद की ‘राष्ट्र का सेवक’ और ‘बाबाजी का भोग’ तथा परसाई की 1950 के आसपास प्रकाशित व्यंग्यपरक लघुकथाओं में दिख जाती है लेकिन उस काल में वह विलीन भी हो जाती है। स्थिर नहीं रह पाती। सहस्रों वर्ष से चली आ रही उपदेशपरकता की अपनी जमीन को तोड़ नहीं पाती। इस संकलन की लघुकथाओं के अध्ययन से हम हिन्दी लघुकथा के उस संघर्षकाल को रेखांकित कर सकते हैं जब वह पुरातन कथ्यों को त्यागकर नवीन कथ्यों को अपनाने की ओर अग्रसर हो चली थी। अशोक भाटिया ने पुस्तक के प्रारम्भ में संकलित अपने लेख ‘सन् 1970 तक की हिंदी लघुकथाएँ’ को यों शुरू किया है, “हिन्दी लघुकथा की आज जो एक शक्तिशाली धारा और गति है, उसके पीछे पूरी बीसवीं सदी का रचनात्मक अवदान रहा है।” हिंदी लघुकथा के उन्नयन में पुरातन कथा-साहित्य के अवदान को ‘बीसवीं सदी’ तक सीमित करने पीछे सम्भवतः यह कारण रहा हो कि आज का आलोचक हिंदी कहानी का सफर 1901 से प्रारम्भ हुआ मानता है और हिंदी लघुकथा को अपने अवचेतन में वह हिंदी कहानी से अलग नहीं देख पा रहा है। वस्तुतः तो हिन्दी लघुकथा ही नहीं किसी भी नवीन विधा के उन्नयन में उसके पूर्ववर्ती साहित्य का रचनात्मक अवदान रहता ही है। यह बात मानव-सभ्यता पर भी लागू होती है। मनुश्य प्रारम्भ से ही परम्परा के सकारात्मक पहलुओं को ग्रहण करता और गल-सड़ चुके रिवाज़ों-चलनों को त्यागता आया है। आश्चर्यजनक यह है कि उपर्युक्त पंक्ति लिखने के बाद लेख के तीसरे ही पैरा में अशोक भाटिया यह लिखने लगते हैं कि..“एक तो इसे किसी बड़े नाम का अनावश्यक-अतार्किक सम्बल लेने से बचना होगा।” अगर इस वाक्य का अनुसरण करें और हिंदी लघुकथा के समकालीन पैरोकारों की दृष्टि से देखने लगें तो ‘नींव के नायक’ एक अनावश्यक संकलन सिद्ध हो जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। शोध एक अलग कार्य है। वह शान्त और धैर्यशील मनोमस्तिष्क का कार्य है। न तो पूर्वगृह और न ही आग्रह उसकी गति को रोक पाते हैं। यह शोध ही है कि गुलेरी ने जिन दृष्टांतों को अपने निबंधों में प्रयुक्त किया था और कुछेक संपादकों ने जिन्हें काट-छाँटकर लघुकथान्तर्गत प्रस्तुत कर दिया था, उन्हें लघुकथा से आज हटा दिया गया है। परसाई के विशुद्ध व्यंग्य भी उक्त धैर्यशीलता और आग्रहहीनता के कारण ही ‘लघुकथा’ स्वीकारे जा रहे हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘परिहासिनी’ भी मुक्त मनोमस्तिष्क की अपेक्षा रखती है।
   “सन् 1970 तक की लघुकथा की यात्रा का अध्ययन करने पर कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। एक यह कि हिंदी में बीसवीं सदी में निरंतर लघुकथाएँ लिखी जाती रही हैं।” वस्तुतः तो लघुकथाएँ नहीं, लघु-आकारीय कहानियाँ अथवा परम्परा का अनुसरण करती भाव-बोध-उपदेश-आदर्श-दृष्टांत प्रस्तुत करती कथाएँ लिखी जाती रही हैं जिन्हें ‘लघुकथा’ के समकालीन उन्नयन के मद्देनजर विधान्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है। स्वीकार्यता की इस शालीनता को अपनाना अवगुण नहीं है, बशर्ते कि विचार एवं कथ्य-प्रस्तुति के स्तर पर हम पुराने कथ्यों पर ही न चकराते रहें। ‘लघुकथा’ का सफर इसी दृष्टि से उल्लेखनीय है कि इसने आकार के अतिरिक्त पुरातनता के लगभग सभी भावों से मुक्ति पाकर आधुनिक मानव से जुड़कर अपने-आप को ‘समकालीन’ सिद्ध कर दिखाया है।
    कुल मिलाकर ‘नींव के नायक’ 1970 तक की लघुकथाओं की एकजुट प्रस्तुति की दृष्टि से ही नहीं, विचार और शोध की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण संकलन है।
   नींव के नायक : लघुकथा संकलन। संपादक :  अशोक भाटिया। प्रकाशक :  इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, के-71, कृष्णनगर, दिल्ली-110051
प्रथम संस्करण : 2010। मूल्य :  रु0 350/- मात्र।
  •   एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032/ई-मेल : balram.agarwal1152@gmail.com

 


डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
जनक छन्द मणि मालिका: जनक छन्द की सुन्दर प्रस्तुति

  
पं. गिरिमोहन गुरु ‘नगरश्री’ कृत ‘जनक छन्द मणि मालिका’ में उनके 108 जनक छन्द संग्रहीत हैं, जो अनुभूति और संवेदना की दृष्टि से पर्याप्त मोहक और प्रभावशाली बन पड़े हैं। दोहे के प्रथम चरण पर आधारित इस त्रिपदिक छन्द में तीन चरण होते हैं, जिसका पहला और तीसरा चरण तुकान्त होना अनिवार्य है। मुक्त छन्द होने के कारण इन छन्दों में बिषयों की विविधता रहती है। जनक छन्द मणि मालिका में भी विषयों की ऐसी ही विविधता है। इसमें गाँव, नगर, भ्रष्टाचार, नेता, राजनीति, कुर्सी, संसद, दहेज, संघर्ष-महिमा, ईश प्राथर््ना, हिन्दी-दुर्दशा, संयोग, वियोग आदि के बहुत से मनोरम और प्रभावशाली चित्र हैं।
    श्री गुरु ने मणि मालिका का प्रारम्भ माँ शारदा की प्रार्थना से किया है, जिसमें उन्होंने अपनी कविताओं को सारगर्भ बनाने की प्रार्थना की है-
सुनो प्रार्थना शारदे/अर्थ व्यर्थ सब हो रहे/कविताओं में सार दे
तुकविहीन कविता से जनक छन्द को श्रेष्ठ निरूपित करते हुए वे कहते हैं-
तुक विहीन से श्रेष्ठ है/गद्य नहीं यह गीत है/इसीलिए तो ज्येष्ठ है
देश में फल-फूल रहे भ्रष्टाचार पर उनका एक मार्मिक छन्द देखिये-
भ्रष्टाचारी फल रहे/राजनीति की आग में/सीधे-सादे जल रहे
अपने गाँव के प्रति हर व्यक्ति का प्रेम और लगाव स्वाभाविक होता है। कवि को भी गाँव की याद आती है, फलस्वरूप उनके मुख से एक सुन्दर छन्द निकल पड़ता है-
बचपन बीता गाँव में/रहने का मन आज भी/आम नीम की छाँव में
उनके कुछ और रोचक और भावपूर्ण छन्दों की बानगी देखिये-
हिन्दी की जय बोलकर/हिन्दी सेवी आंग्ल में/बैठे शाला खोलकर
आसमान को चूमते/जब से कुर्सी मिल गयी/बिना पिये ही झूमते
संध्या लम्बी ताड़ सी/एक मीत तेरे बिना/रातें हुई पहाड़ सी
कुछ छन्दों में कवि दार्शनिक हो गया है। मृत्यु के बारे में उसका सोच है-
मृत्यु चल रही साथ में/जीवन की हर डोर है/होनहार के हाथ में
कहीं-कहीं उनके छन्द निराश-हताश लोगों को प्रेरणा देने का काम करते हैं-
संघर्षों के बीच में/निखरा जीवन और भी/नीरज विकसा कीच में
    श्री गुरु एक अनुभवी और प्रतिभा संपन्न सिद्ध कवि हैं। इन छन्दों की भाषा साफ-सुथरी, परिमार्जित और क्लिष्टता विहीन है। अनावश्यक प्रतीकों, संकेतों और बिम्बों से उन्होंने परहेज किया है। उनका छन्द-विधान सटीक है। अंत के कुछ छन्द व्यक्तिपरक होने से सपाटबयानी के शिकार अवश्य हो गये हैं, किन्तु यह उनका जनक छन्द के आविष्कर्ता के प्रति श्रद्धा का प्रमाण है। अस्तु, ऐसी सुन्दर प्रस्तुति के जिए उन्हे बधाई।

जनक छन्द मणि मालिका : जनक छन्द संग्रह। कवि : पं. गिरिमोहन गुरु ’नगरश्री’। प्रकाशक : एकता प्रकाशन, बी-2-बी-34, जनकपुरी, नई दिल्ली-58। मूल्य : मुद्रित नहीं। पृष्ठ संख्या : 20। संस्करण : 2009।
  • बी-85, मिनल रेजीडेन्सी, जे.के. रोड, भोपाल-462023(म.प्र.)


रामकुमार आत्रेय
रोचक एवं मर्मस्पर्शी कहानियाँ
   न तो कहानी कहना आसान होता है और न ही कहानी लिखना। कहानी कहने वाले के पास वक्तृत्व कला का होना आवश्यक होता है, ताकि वह अपने श्रोताओं को अपने साथ बांधकर रख सके। ठीक इसी प्रकार कहानी लिखने वाले के पास लेखन कला का होना अत्यन्त आवश्यक है अन्यथा पाठक उसकी कहानी को पढ़ने की अपेक्षा रद्दी की टोकरी में फेंकना पसंद करेंगे। ऐसे में कहानी लेखक का परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा और जो संदेश वह कहानी के पाठकों तक पहुँचाना चाहता है, वह भी नहीं पहुँच पायेगा। विख्यात कथाकार नरेश कुमार ‘उदास’ में कहानी  कहने और लिखने की क्षमता मौजूद है। पाठक उनकी इस क्षमता का परिचय उनके ताजा कहानी संकलन ‘माँ गाँव नहीं छोड़ना चाहती’ को पढ़कर प्राप्त कर सकते हैं। कहानीकार ने इस पुस्तक में संकलित कहानियों में कहानी कहने और लिखने की दोनों शैलियों का सुन्दर सम्मिश्रण किया है।
   ‘माँ गाँव नहीं छोड़ना चाहती’ में सोलह कहानियां संकलित हैं। इस संग्रह की शीर्षक कहानी ‘माँ गाँव नहीं छोड़ना चाहती’ एक बहुत ही अच्छी रचना है। कहानी की नायिका माँ जानती है कि महानगर में रहने वाले उसके पुत्र एवं पुत्रबधू उसे अपने साथ रखकर ठीक से निर्वाह नहीं कर पायेंगे। यदि वह उनके कहने पर शहर चली भी जाती है तो थोड़े ही दिनों बाद वह उनके लिए बोझ बनकर रह जाएगी। इसीलिए वह अपना घर एवं खेतों को नही छोड़ना चाहती। उसे अपनी बेटियों का भी ख्याल है कि वे गाँव में आकर आखिर किससे मिलेंगी! यह कहानी मानवीय संवेदनाओं को उभारकर माँ के मिट्टी से जुड़ाव को रेखांकित करती है।
    इस संग्रह की पहली कहानी ‘कसाईबाड़ा’ एक मार्मिक रचना है, जो पाठक के अंतर्तम को झकझोर डालने में पूरी तरह समर्थ है। औरतों पर केवल पुरुष ही अत्याचार नहीं करते बल्कि औरतें भी स्वार्थवश दूसरी औरत पर अत्याचार करने से नहीं चूकती। एक ऐसा घर जिसमें सास और जेठानी का नकाब पहने दो औरतें एक अन्य औरत को सताने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती। वह घर कसाईबाड़ा के सिवा कुछ हो ही नहीं सकता। इस कहानी की नायिका कल्पना स्त्री चेतना के जागरण का प्रतीक बनकर उभरी है।
   इस संग्रह की केवल तीन-चार कहानियों (वंशबेल, सुखिन्दर के लिए, गंदानाला और गहनों की पोटली) को यदि अपवाद के रूप में छोड़ दिया जाए तो शेष सभी कहानियां लम्बी हैं। ये कहानियां अपने भीतर किसी औपन्यासिक कृति का बीज समेटे हुए हैं। इन कहानियों में जीवन का जो परिदृश्य उभरता है वह पाठक की चेतना को संवेदना सम्पन्न बनाता है। संग्रह की सभी कहानियां कथा रस से ओत-प्रोत हैं। यदि पाठक एक बार किसी कहानी को पढ़ना शुरू करता है तो उसे अन्त तक पहुंचे बिना छोड़ नहीं पाता। कहानीकार पाठक को श्ल्पि के जादुई जाल में न उलझाकर धीरे-धीरे उसे ठीक लक्ष्य तक ले जाता है। इस प्रकार ये कहानियां अपना संदेश पाठक तक रोचक एवं मार्मिक ढंग से पहुँचाने में सक्षम हैं। पुस्तक की साज-सज्जा भी बढ़िया है तथा मुखपृष्ठ भी कथा संग्रह के शीर्षक पर आधारित है, जो गहरे तक अभिभूत करता है।

‘माँ गांव नहीं छोड़ना चाहती‘ ( कहानी संग्रह ) :  नरेश कुमार ‘उदास’। प्रकाशक : प्रगतिशील प्रकाशन, नई दिल्ली। पृष्ठ : 168 मूल्य : रु. 400/-।

  • 864, ए/12, आजाद नगर, कुरुक्षेत्र-136119 (हरियाणा)

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