।।कथा कहानी।।
सामग्री : जनार्दन मिश्र की कहानी ‘कुर्सी’
सामग्री : जनार्दन मिश्र की कहानी ‘कुर्सी’
।।कथा कहानी।।
जनार्दन मिश्र
कुर्सी
भाई! आज के इस जटिल और कुटिल समय में किसी जिले का डी.एम. बनना आसान काम नहीं...। अगर यह काम आसान रहता तो कितने प्रमोटी अब तक डी.एम. बन गये होते, वे भी महाराणा की चेतक की तरह कहीं भी छलांग लगाने की कसरत जरूर करते। पर, अपनी-अपनी नियति है और अपना-अपना भाग्य कि कौन अगले या पिछले दरवाजे से इस तथाकथित तख्तताऊस तक पहुँचने में सामर्थ्यवान होने का दर्जा प्राप्त कर सकता है...।
ऐसे ही एक वरिष्ठ अधिकारी प्रगल्भ शर्मा जी थे। ये थे मूलतः बंगाली, पर माइग्रेट होकर बिहारी-पूर्वी उत्तर प्रदेशी हो गये थे। इनकी पत्नी गोपा वेल एजूकेटेड थी, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली अपने जमाने की कॉनवेन्ट गर्ल...। गोपा की पूरी पढ़ाई-लिखाई अपने मायके में हुई थी। अपने पिता-माता से भेंट करने अक्सर उसका आना-जाना राँची होता था। राँची कॉलेज, राँची से इनके पिता अवशेष कान्त, दर्शनशास्त्र विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृति लिए थे और वहीं पर घर-द्वार बनाकर एक तरह से सेटल हो गये थे। इन्होंने अपनी एक मात्र पुत्री पढ़ाने में कोई कोताही नहीं बरती थी। केवल एक ही कोताही इनसे हो गयी थी...। वे अपनी बेटी की शादी डायरेक्ट आई.ए.एस. लड़के से करना चाहते थे....। पर माल-पानी की कमी के चलते इनके गेयर में कोई आई.ए.एस. लड़का नहीं आया...। अपनी ओर से ये भरसक प्रयास किये थे...। एक आई.ए.एस. लड़का जो ट्रेनीज के रूप में राँची समहरणालय में पदस्थापित था, उसे महर्षि अरविन्दो एवं ओशो के दर्शन का मूल उत्स समझाने के झांसे में....अपने घर तक लाये थे....। उनकी लाड़ली गोपा उस आई.ए.एस. लड़के का आतिथ्य-सत्कार जी-जान से की थी...। कई बार की भेंट के बाद वह लगातार कमल के फूल की भाँति खुलती और खिलती गयी थी, और ऐसी खिली कि उस आई.ए.एस. लड़का, जिसका नाम सुकान्तो था....उसने उसे आप की जगह ‘तुम’ कहना शुरू कर दिया था....।
‘अच्छा सुकान्तो! मुझे पसन्द करते हो न!’
‘हाँ, गोपा! मैं तुम्हें अतीव पसन्द करता हूँ।’
‘फिर अब किस बात की देर...जब सब कुछ हमारा-तुम्हारा पारदर्शी है, कहीं से कोई ग्रन्थियाँ नहीं...हम साथ-साथ कई सरहदों को पार कर चुके हैं....फिर हमारी शादी, जिसकी मुहर लगनी अब औपचारिकता मात्र रह गयी है, इसे सम्पन्न ही क्यों नहीं कर लेते...?
‘इतनी जल्दबाजी क्या है गोपा! मैं तुझसे भाग कहाँ रहा हूँ, यदि कहीं भाग भी जाऊँ तो तुम अपनी सूक्ष्म दृष्टि से हमें ढूँढ़ निकालोगी...। जीवन का उमंग जब हम दोनों की देह में प्रबल रूप से समाहित है तो इसका लगातार उपभोग करो, कोई संशय अपने मन में न रखो....यही चेतना हमारी अन्तर्चेतना में तब्दील होगी...धैर्य रखो...प्रतीक्षा करो....तुम अपनी परीक्षाओं में निश्चित रूप से सफल होगी....केवल अधीर मत होना....कोई आई.ए.एस. कदापि झूठ नहीं बोलता....। जो बोलता है दृढ़ता और पूरी सच्चाई से...।’
एक तरह से गोपा पूरी तरह निश्चिंत हो गयी थी, जब अर्पण-समर्पण की हदें पार हो गयी थीं तो उसे आई.ए.एस. की पत्नी कहलाने का चरम सुख मन ही मन हर पल हिलोरें मार रहा था...।
पर, गोपा अधिक दिनों तक उस आई.ए.एस. ट्रेनीज से निश्चिंत न रह सकी। सुकान्तो का ट्रान्सफर सदर एस.डी.ओ. में किसी अनुमंडल में हो गया था और वह बहुत ही जल्दबाजी में बिना गोपा को बताए राँची छोड़ दिया था...। बेचारी गोपा कर भी क्या सकती थी। सुकान्तो का पता लगाकर और उसके पास पहुँचकर भी वह थक-हार गयी थी...। सुकन्तो ने उसकी एक न सुनी... और उल्टे उसने गोपा के चरित्र पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया। ‘गोपा! कैसे तुम समझ गयी कि मैं तुझी से शादी करूँगा...? मैं कहाँ और तुम....? प्रेम, शादी और काम-सुख ये सभी किसी के जीवन की अलग-अलग विधायें हैं, इन तीनों को एक साथ किसी एक साँचे में ढाला नहीं जा सकता...। तुझसे मेरा सम्बन्ध देह की भूख तक सीमित था...तुम भी मुझसे कम भूखी नहीं थी...नहीं तो तुम अपनी देह मेरे लाख चाहने के बावजूद....इस तरह बेफिक्र होकर मुझे नहीं सौंपती! तुम्हारे बाप के द्वारा मैं इनके तथाकथित ‘दर्शन’ में फँसाया गया था....और अंततः तुम्हारे देह-दर्शन की खाई में जा गिरा....अभागिन तुम कि उस घर में जन्म ली....न तुम्हारे बाप के पास गाड़ी, न कायदे का मकान और न ही कोई सामाजिक स्टेटस...वही पुराना सायकल...जिस पर वे अपना बुढ़ापा काट रहे हैं...।’
सुकान्तो की बातों से गोपा काफी आहत हुयी थी और लगी किसी शेरनी की तरह दहाड़ मारने...। बाद में सुकान्तो के अंगरक्षकों-आरक्षियों ने उसे धक्का देकर एस.डी.ओ. निवास से बाहर निकाला था। संभवतः वह जा रही थी सिविल कोर्ट में उसके विरुद्ध मुकदमा दर्ज करने...। इन्हीं सब स्थितियों को भाँपकर सुकान्तो ने पुलिस थाने की सहायता अविलम्ब ले ली थी। ...तब जाकर उसका गोपा से पीछा छूटा था।
सुकान्तो के पास से खाली हाथ आने पर एक तरह से अर्द्धविक्षिप्त हो गयी थी, चाहती थी वह आत्महत्या कर लेना...। रातों में सोते हुए भी वह बड़बड़ाने-चीत्कार करने लग जाती- ‘राम! राम!! कहीं आदमी भी इतना घटिया होता है...कथनी और करनी में घोर अन्तर...आदमी जब अपने वायदे से मुकर जाय, तो उसमें आदमियत कहाँ...केवल लजीज-देह-मांस के भक्षण के लिए ही आदमी इस सृष्टि में पैदा हुआ है....यदि सामाजिक व्यवस्था ‘संबंध’ नहीं परिभाषित की होती तो आज जहाँ कहीं भी ‘संबंध’ बचे-खुचे हैं...कदापि नहीं बचे होते...।’
अवशेषकान्त से अपनी बेटी की हालत छिपी न रह सकी। वे लाचार एवं अपराध बोध से ग्रसित जान पड़ने लगे। उन्होंने अपनी नौकरी में कभी भी ओछी हरकतें नहीं अपनायी...। इन्हें भी राँची कॉलेज, राँची एवं अन्य कॉलेजों का प्रधानाचार्य के लिए ऑफर मिले थे, इन्होंने इसे ठुकरा दिया था। इनका एक विद्यार्थी इन्हें इंग्लैंड एक तरह से ले जाने के लिए पूरी तैयारी कर दिया था....पर ये नहीं माने...कहे कि शेष जिन्दगी अपने देश में काटना ज्यादा श्रेष्यकर है....।
जब प्रगल्भ शर्मा का नाम आई.ए.एस. के प्रमोशन-लिस्ट में आने वाला था तो उनके विभागीय मंत्री ने उन्हें बुलाकर कहा- ‘शर्मा जी! आप जैसा सज्जन व्यक्ति हमने कभी नहीं देखा...आपका नाम इस प्रमोशन लिस्ट में यूं ही नहीं आयेगा...कुछ काम करना पड़ेगा। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आपके पास इसके लिए जरूरी अक्षत-पुष्प नहीं है...फिर भी आपको कुछ न कुछ उपाय तो ढूंढ़ना ही पड़ेगा, जिसमें यदि आप चाहें तो यफल हो सकते हैं। एक साथ आपका दो काम हो जायेगा...एक तो आप आई.ए.एस. बन जायेंगे और दूसरा यदि आप चाहें तो किसी जिले की जिलाधीशगीरी भी मिल जायेगी...। फिर आप चुनाव, बाढ़, सुखाड़ आदि पर रोज हाथ फेरते रहिए...। मगर इसके लिए आपको थोड़ा प्रयत्न रना पड़ेगा...इसमें मेरा चलाना रहता तो आपको इसके प्रति थोड़ी भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं पड़ती...फिर भी आप हमारे विभाग के सीनियर ऑफीसर हैं कुछ न कुछ जुगत हमें भिड़ाना ही पड़ेगा, यदि आपकी इच्छा हो तो...!’
‘बड़ी कृपा होगी मंत्री जी’ मि. शर्मा ने कहा।
‘तो ऐसा करिए शर्मा जी! मुख्यमंत्री जी के साले साहब यदि आपका काम चाह जायें...तो यह काम पल भर में हो जायेगा...’ मंत्री ने कहा।
‘मगर मेरा तो उनसे कोई परिचय-अरिचय नहीं...सुनते हैं कि वे बड़े माफिया हैं...उन तक मैं अँट जाऊँगा...।’
‘ये सब आप मुझ पर छोड़िये शर्मा जी...मुझ पर आपका विश्वास है न!’
‘हाँ! यह तो आपकी महती कृपा होगी।’
‘हाँ! तो ऐसा कीजिए आप सपत्नीक मुख्यमंत्री जी के साले साहब के यहाँ जाने का कोई निश्चित प्रोग्राम बनाइए...यदि आप कहें तो मैं भी साथ दे दूँगा, कोई आपको विशेष कठिनाई नहीं होगी....आपकी मैडम काफी स्मार्ट हैं, वे अपनी भाव-भंगिमाओं से उस साले साहब को सम्मोहित कर लेंगी, ऐसा मुझे विश्वास है, क्यों तैयार हैं न?’
‘सर! एक दिन की मुहलत दें, गोपा से पूछकर आपको बताऊँगा...।’
‘ठीक है, मगर देर मत कीजिएगा, वरना मामला हाथ से निकल जायेगा तो मेरा दोष नहीं...।’
अपने मंत्री से ऐसी ओछी बातें सुनकर प्रगल्भ शर्मा काफी मर्माहत हुए थे। उनकी इच्छा थी वे अभी नौकरी से रिजायन कर दें...। वे अपने मंत्री के काले कारनामे बहुत निकट से देख चुके थे....सुरा और सुन्दरी की पूछ इनके दरबार में होती थी...। सुरा-सुन्दरी और अवैध धन इन्हें दे दो और कुछ भी काम इनसे निकाल लो...।
ऐसे में प्रगल्भ शर्मा काफी उदास होकर अपने सरकारी आवास में लौटे थे। थके-हारे, जमीन से उखड़े किसी विशाल पेड़ की तरह....। आम दिनों की भाँति उनकी पत्नी अपने हाथ में चाय और गर्म पकौड़े लेकर खड़ी थी....पर मि.शर्मा ने उस ओर देखा ही नहीं...मन ही मन बुदबुदाने लग गये थे- मेरी पत्नी को कोई मुझसे छीन नहीं सकता...वह असाधारण विदुषी है...वह अपने जीवन में एक बार घृणित रूप से छली गयी है....फिर मैं उसके साथ अपने चंद स्वार्थ में ऐसा काम नहीं कर सकता....चाहे मैं आई.ए.एस. बनूँ या न बनूँ....जिलाधीश की कुर्सी मिले न मिले.... कोई फर्क नहीं पड़ता...मरना मंजूर है...पर उस स्वर्ग में जाना मंजूर नहीं...यह स्वर्ग नहीं, नरक है...नरक..।’
गोपा को सारी स्थिति-परिस्थितियों को समझते देर न लगी...। उसने अपने पति को काफी सांत्वना दी कि मैं तुम्हें छोड़कर अब एक पल भी कहीं जाना नहीं चाहती...। तब जाकर प्रगल्भ शर्मा इत्मीनान में आये थे।
दूसरे दिन मि. शर्मा ने एक लंबी अर्जी लिखी...मुख्य सचिव के नाम...इसकी प्रतिलिपि मुख्यमंत्री और अपने विभागीय मंत्री को भी दी...।
‘श्रीमान! मुझे अपनी नौकरी के सिलसिले में अब तक जो भी अनुभव रहे हैं, वे बहुत ही रोमांचकारी व विस्मयकारी हैं, जिन सभी का वर्णन मैं कतई कर नहीं सकता...मैं जिस ग्रेड में हूँ....वहीं ठीक हूँ...न मुझे प्रमोशन चाहिए और न वैध-अवैध पचाने और तथाकथित आकाओं को मलाईदार परतें बाँटने के लिए आई.ए.एस. या जिलाधीश की कुर्सी... मैं मान रहा हूँ कि मैं जिलाधीश की कुर्सी से मेल न खाते हुए...इसे सरकार को बहुत आग्रह के साथ वापिस कर रहा हूँ....।
भाई! आज के इस जटिल और कुटिल समय में किसी जिले का डी.एम. बनना आसान काम नहीं...। अगर यह काम आसान रहता तो कितने प्रमोटी अब तक डी.एम. बन गये होते, वे भी महाराणा की चेतक की तरह कहीं भी छलांग लगाने की कसरत जरूर करते। पर, अपनी-अपनी नियति है और अपना-अपना भाग्य कि कौन अगले या पिछले दरवाजे से इस तथाकथित तख्तताऊस तक पहुँचने में सामर्थ्यवान होने का दर्जा प्राप्त कर सकता है...।
ऐसे ही एक वरिष्ठ अधिकारी प्रगल्भ शर्मा जी थे। ये थे मूलतः बंगाली, पर माइग्रेट होकर बिहारी-पूर्वी उत्तर प्रदेशी हो गये थे। इनकी पत्नी गोपा वेल एजूकेटेड थी, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली अपने जमाने की कॉनवेन्ट गर्ल...। गोपा की पूरी पढ़ाई-लिखाई अपने मायके में हुई थी। अपने पिता-माता से भेंट करने अक्सर उसका आना-जाना राँची होता था। राँची कॉलेज, राँची से इनके पिता अवशेष कान्त, दर्शनशास्त्र विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृति लिए थे और वहीं पर घर-द्वार बनाकर एक तरह से सेटल हो गये थे। इन्होंने अपनी एक मात्र पुत्री पढ़ाने में कोई कोताही नहीं बरती थी। केवल एक ही कोताही इनसे हो गयी थी...। वे अपनी बेटी की शादी डायरेक्ट आई.ए.एस. लड़के से करना चाहते थे....। पर माल-पानी की कमी के चलते इनके गेयर में कोई आई.ए.एस. लड़का नहीं आया...। अपनी ओर से ये भरसक प्रयास किये थे...। एक आई.ए.एस. लड़का जो ट्रेनीज के रूप में राँची समहरणालय में पदस्थापित था, उसे महर्षि अरविन्दो एवं ओशो के दर्शन का मूल उत्स समझाने के झांसे में....अपने घर तक लाये थे....। उनकी लाड़ली गोपा उस आई.ए.एस. लड़के का आतिथ्य-सत्कार जी-जान से की थी...। कई बार की भेंट के बाद वह लगातार कमल के फूल की भाँति खुलती और खिलती गयी थी, और ऐसी खिली कि उस आई.ए.एस. लड़का, जिसका नाम सुकान्तो था....उसने उसे आप की जगह ‘तुम’ कहना शुरू कर दिया था....।
‘अच्छा सुकान्तो! मुझे पसन्द करते हो न!’
‘हाँ, गोपा! मैं तुम्हें अतीव पसन्द करता हूँ।’
‘फिर अब किस बात की देर...जब सब कुछ हमारा-तुम्हारा पारदर्शी है, कहीं से कोई ग्रन्थियाँ नहीं...हम साथ-साथ कई सरहदों को पार कर चुके हैं....फिर हमारी शादी, जिसकी मुहर लगनी अब औपचारिकता मात्र रह गयी है, इसे सम्पन्न ही क्यों नहीं कर लेते...?
‘इतनी जल्दबाजी क्या है गोपा! मैं तुझसे भाग कहाँ रहा हूँ, यदि कहीं भाग भी जाऊँ तो तुम अपनी सूक्ष्म दृष्टि से हमें ढूँढ़ निकालोगी...। जीवन का उमंग जब हम दोनों की देह में प्रबल रूप से समाहित है तो इसका लगातार उपभोग करो, कोई संशय अपने मन में न रखो....यही चेतना हमारी अन्तर्चेतना में तब्दील होगी...धैर्य रखो...प्रतीक्षा करो....तुम अपनी परीक्षाओं में निश्चित रूप से सफल होगी....केवल अधीर मत होना....कोई आई.ए.एस. कदापि झूठ नहीं बोलता....। जो बोलता है दृढ़ता और पूरी सच्चाई से...।’
एक तरह से गोपा पूरी तरह निश्चिंत हो गयी थी, जब अर्पण-समर्पण की हदें पार हो गयी थीं तो उसे आई.ए.एस. की पत्नी कहलाने का चरम सुख मन ही मन हर पल हिलोरें मार रहा था...।
पर, गोपा अधिक दिनों तक उस आई.ए.एस. ट्रेनीज से निश्चिंत न रह सकी। सुकान्तो का ट्रान्सफर सदर एस.डी.ओ. में किसी अनुमंडल में हो गया था और वह बहुत ही जल्दबाजी में बिना गोपा को बताए राँची छोड़ दिया था...। बेचारी गोपा कर भी क्या सकती थी। सुकान्तो का पता लगाकर और उसके पास पहुँचकर भी वह थक-हार गयी थी...। सुकन्तो ने उसकी एक न सुनी... और उल्टे उसने गोपा के चरित्र पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया। ‘गोपा! कैसे तुम समझ गयी कि मैं तुझी से शादी करूँगा...? मैं कहाँ और तुम....? प्रेम, शादी और काम-सुख ये सभी किसी के जीवन की अलग-अलग विधायें हैं, इन तीनों को एक साथ किसी एक साँचे में ढाला नहीं जा सकता...। तुझसे मेरा सम्बन्ध देह की भूख तक सीमित था...तुम भी मुझसे कम भूखी नहीं थी...नहीं तो तुम अपनी देह मेरे लाख चाहने के बावजूद....इस तरह बेफिक्र होकर मुझे नहीं सौंपती! तुम्हारे बाप के द्वारा मैं इनके तथाकथित ‘दर्शन’ में फँसाया गया था....और अंततः तुम्हारे देह-दर्शन की खाई में जा गिरा....अभागिन तुम कि उस घर में जन्म ली....न तुम्हारे बाप के पास गाड़ी, न कायदे का मकान और न ही कोई सामाजिक स्टेटस...वही पुराना सायकल...जिस पर वे अपना बुढ़ापा काट रहे हैं...।’
द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
सुकान्तो के पास से खाली हाथ आने पर एक तरह से अर्द्धविक्षिप्त हो गयी थी, चाहती थी वह आत्महत्या कर लेना...। रातों में सोते हुए भी वह बड़बड़ाने-चीत्कार करने लग जाती- ‘राम! राम!! कहीं आदमी भी इतना घटिया होता है...कथनी और करनी में घोर अन्तर...आदमी जब अपने वायदे से मुकर जाय, तो उसमें आदमियत कहाँ...केवल लजीज-देह-मांस के भक्षण के लिए ही आदमी इस सृष्टि में पैदा हुआ है....यदि सामाजिक व्यवस्था ‘संबंध’ नहीं परिभाषित की होती तो आज जहाँ कहीं भी ‘संबंध’ बचे-खुचे हैं...कदापि नहीं बचे होते...।’
अवशेषकान्त से अपनी बेटी की हालत छिपी न रह सकी। वे लाचार एवं अपराध बोध से ग्रसित जान पड़ने लगे। उन्होंने अपनी नौकरी में कभी भी ओछी हरकतें नहीं अपनायी...। इन्हें भी राँची कॉलेज, राँची एवं अन्य कॉलेजों का प्रधानाचार्य के लिए ऑफर मिले थे, इन्होंने इसे ठुकरा दिया था। इनका एक विद्यार्थी इन्हें इंग्लैंड एक तरह से ले जाने के लिए पूरी तैयारी कर दिया था....पर ये नहीं माने...कहे कि शेष जिन्दगी अपने देश में काटना ज्यादा श्रेष्यकर है....।
जब प्रगल्भ शर्मा का नाम आई.ए.एस. के प्रमोशन-लिस्ट में आने वाला था तो उनके विभागीय मंत्री ने उन्हें बुलाकर कहा- ‘शर्मा जी! आप जैसा सज्जन व्यक्ति हमने कभी नहीं देखा...आपका नाम इस प्रमोशन लिस्ट में यूं ही नहीं आयेगा...कुछ काम करना पड़ेगा। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आपके पास इसके लिए जरूरी अक्षत-पुष्प नहीं है...फिर भी आपको कुछ न कुछ उपाय तो ढूंढ़ना ही पड़ेगा, जिसमें यदि आप चाहें तो यफल हो सकते हैं। एक साथ आपका दो काम हो जायेगा...एक तो आप आई.ए.एस. बन जायेंगे और दूसरा यदि आप चाहें तो किसी जिले की जिलाधीशगीरी भी मिल जायेगी...। फिर आप चुनाव, बाढ़, सुखाड़ आदि पर रोज हाथ फेरते रहिए...। मगर इसके लिए आपको थोड़ा प्रयत्न रना पड़ेगा...इसमें मेरा चलाना रहता तो आपको इसके प्रति थोड़ी भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं पड़ती...फिर भी आप हमारे विभाग के सीनियर ऑफीसर हैं कुछ न कुछ जुगत हमें भिड़ाना ही पड़ेगा, यदि आपकी इच्छा हो तो...!’
‘बड़ी कृपा होगी मंत्री जी’ मि. शर्मा ने कहा।
‘तो ऐसा करिए शर्मा जी! मुख्यमंत्री जी के साले साहब यदि आपका काम चाह जायें...तो यह काम पल भर में हो जायेगा...’ मंत्री ने कहा।
‘मगर मेरा तो उनसे कोई परिचय-अरिचय नहीं...सुनते हैं कि वे बड़े माफिया हैं...उन तक मैं अँट जाऊँगा...।’
‘ये सब आप मुझ पर छोड़िये शर्मा जी...मुझ पर आपका विश्वास है न!’
‘हाँ! यह तो आपकी महती कृपा होगी।’
‘हाँ! तो ऐसा कीजिए आप सपत्नीक मुख्यमंत्री जी के साले साहब के यहाँ जाने का कोई निश्चित प्रोग्राम बनाइए...यदि आप कहें तो मैं भी साथ दे दूँगा, कोई आपको विशेष कठिनाई नहीं होगी....आपकी मैडम काफी स्मार्ट हैं, वे अपनी भाव-भंगिमाओं से उस साले साहब को सम्मोहित कर लेंगी, ऐसा मुझे विश्वास है, क्यों तैयार हैं न?’
‘सर! एक दिन की मुहलत दें, गोपा से पूछकर आपको बताऊँगा...।’
‘ठीक है, मगर देर मत कीजिएगा, वरना मामला हाथ से निकल जायेगा तो मेरा दोष नहीं...।’
अपने मंत्री से ऐसी ओछी बातें सुनकर प्रगल्भ शर्मा काफी मर्माहत हुए थे। उनकी इच्छा थी वे अभी नौकरी से रिजायन कर दें...। वे अपने मंत्री के काले कारनामे बहुत निकट से देख चुके थे....सुरा और सुन्दरी की पूछ इनके दरबार में होती थी...। सुरा-सुन्दरी और अवैध धन इन्हें दे दो और कुछ भी काम इनसे निकाल लो...।
ऐसे में प्रगल्भ शर्मा काफी उदास होकर अपने सरकारी आवास में लौटे थे। थके-हारे, जमीन से उखड़े किसी विशाल पेड़ की तरह....। आम दिनों की भाँति उनकी पत्नी अपने हाथ में चाय और गर्म पकौड़े लेकर खड़ी थी....पर मि.शर्मा ने उस ओर देखा ही नहीं...मन ही मन बुदबुदाने लग गये थे- मेरी पत्नी को कोई मुझसे छीन नहीं सकता...वह असाधारण विदुषी है...वह अपने जीवन में एक बार घृणित रूप से छली गयी है....फिर मैं उसके साथ अपने चंद स्वार्थ में ऐसा काम नहीं कर सकता....चाहे मैं आई.ए.एस. बनूँ या न बनूँ....जिलाधीश की कुर्सी मिले न मिले.... कोई फर्क नहीं पड़ता...मरना मंजूर है...पर उस स्वर्ग में जाना मंजूर नहीं...यह स्वर्ग नहीं, नरक है...नरक..।’
गोपा को सारी स्थिति-परिस्थितियों को समझते देर न लगी...। उसने अपने पति को काफी सांत्वना दी कि मैं तुम्हें छोड़कर अब एक पल भी कहीं जाना नहीं चाहती...। तब जाकर प्रगल्भ शर्मा इत्मीनान में आये थे।
दूसरे दिन मि. शर्मा ने एक लंबी अर्जी लिखी...मुख्य सचिव के नाम...इसकी प्रतिलिपि मुख्यमंत्री और अपने विभागीय मंत्री को भी दी...।
‘श्रीमान! मुझे अपनी नौकरी के सिलसिले में अब तक जो भी अनुभव रहे हैं, वे बहुत ही रोमांचकारी व विस्मयकारी हैं, जिन सभी का वर्णन मैं कतई कर नहीं सकता...मैं जिस ग्रेड में हूँ....वहीं ठीक हूँ...न मुझे प्रमोशन चाहिए और न वैध-अवैध पचाने और तथाकथित आकाओं को मलाईदार परतें बाँटने के लिए आई.ए.एस. या जिलाधीश की कुर्सी... मैं मान रहा हूँ कि मैं जिलाधीश की कुर्सी से मेल न खाते हुए...इसे सरकार को बहुत आग्रह के साथ वापिस कर रहा हूँ....।
- संकटमोचन नगर, नयी पुलिस लाइन, आरा-802301
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