आपका परिचय

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

अविराम विस्तारित

।।कथा कहानी।।
सामग्री :
जनार्दन मिश्र की कहानी ‘कुर्सी’





।।कथा कहानी।।

जनार्दन मिश्र





कुर्सी
    भाई! आज के इस जटिल और कुटिल समय में किसी जिले का डी.एम. बनना आसान काम नहीं...। अगर यह काम आसान रहता तो कितने प्रमोटी अब तक डी.एम. बन गये होते, वे भी महाराणा की चेतक की तरह कहीं भी छलांग लगाने की कसरत जरूर करते। पर, अपनी-अपनी नियति है और अपना-अपना भाग्य कि कौन अगले या पिछले दरवाजे से इस तथाकथित तख्तताऊस तक पहुँचने में सामर्थ्यवान होने का दर्जा प्राप्त कर सकता है...।
    ऐसे ही एक वरिष्ठ अधिकारी प्रगल्भ शर्मा जी थे। ये थे मूलतः बंगाली, पर माइग्रेट होकर बिहारी-पूर्वी उत्तर प्रदेशी हो गये थे। इनकी पत्नी गोपा वेल एजूकेटेड थी, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली अपने जमाने की कॉनवेन्ट गर्ल...। गोपा की पूरी पढ़ाई-लिखाई अपने मायके में हुई थी। अपने पिता-माता से भेंट करने अक्सर उसका आना-जाना राँची होता था। राँची कॉलेज, राँची से इनके पिता अवशेष कान्त, दर्शनशास्त्र विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृति लिए थे और वहीं पर घर-द्वार बनाकर एक तरह से सेटल हो गये थे। इन्होंने अपनी एक मात्र पुत्री पढ़ाने में कोई कोताही नहीं बरती थी। केवल एक ही कोताही इनसे हो गयी थी...। वे अपनी बेटी की शादी डायरेक्ट आई.ए.एस. लड़के से करना चाहते थे....। पर माल-पानी की कमी के चलते इनके गेयर में कोई आई.ए.एस. लड़का नहीं आया...। अपनी ओर से ये भरसक प्रयास किये थे...। एक आई.ए.एस. लड़का जो ट्रेनीज के रूप में राँची समहरणालय में पदस्थापित था, उसे महर्षि अरविन्दो एवं ओशो के दर्शन का मूल उत्स समझाने के झांसे में....अपने घर तक लाये थे....। उनकी लाड़ली गोपा उस आई.ए.एस. लड़के का आतिथ्य-सत्कार जी-जान से की थी...। कई बार की भेंट के बाद वह लगातार कमल के फूल की भाँति खुलती और खिलती गयी थी, और ऐसी खिली कि उस आई.ए.एस. लड़का, जिसका नाम सुकान्तो था....उसने उसे आप की जगह ‘तुम’ कहना शुरू कर दिया था....।
   ‘अच्छा सुकान्तो! मुझे पसन्द करते हो न!’
   ‘हाँ, गोपा! मैं तुम्हें अतीव पसन्द करता हूँ।’
   ‘फिर अब किस बात की देर...जब सब कुछ हमारा-तुम्हारा पारदर्शी है, कहीं से कोई ग्रन्थियाँ नहीं...हम साथ-साथ कई सरहदों को पार कर चुके हैं....फिर हमारी शादी, जिसकी मुहर लगनी अब औपचारिकता मात्र रह गयी है, इसे सम्पन्न ही क्यों नहीं कर लेते...?
   ‘इतनी जल्दबाजी क्या है गोपा! मैं तुझसे भाग कहाँ रहा हूँ, यदि कहीं भाग भी जाऊँ तो तुम अपनी सूक्ष्म दृष्टि से हमें ढूँढ़ निकालोगी...। जीवन का उमंग जब हम दोनों की देह में प्रबल रूप से समाहित है तो इसका लगातार उपभोग करो, कोई संशय अपने मन में न रखो....यही चेतना हमारी अन्तर्चेतना में तब्दील होगी...धैर्य रखो...प्रतीक्षा करो....तुम अपनी परीक्षाओं में निश्चित रूप से सफल होगी....केवल अधीर मत होना....कोई आई.ए.एस. कदापि झूठ नहीं बोलता....। जो बोलता है दृढ़ता और पूरी सच्चाई से...।’
    एक तरह से गोपा पूरी तरह निश्चिंत हो गयी थी, जब अर्पण-समर्पण की हदें पार हो गयी थीं तो उसे आई.ए.एस. की पत्नी कहलाने का चरम सुख मन ही मन हर पल हिलोरें मार रहा था...।
   पर, गोपा अधिक दिनों तक उस आई.ए.एस. ट्रेनीज से निश्चिंत न रह सकी। सुकान्तो का ट्रान्सफर सदर एस.डी.ओ. में किसी अनुमंडल में हो गया था और वह बहुत ही जल्दबाजी में बिना गोपा को बताए राँची छोड़ दिया था...। बेचारी गोपा कर भी क्या सकती थी। सुकान्तो का पता लगाकर और उसके पास पहुँचकर भी वह थक-हार गयी थी...। सुकन्तो ने उसकी एक न सुनी... और उल्टे उसने गोपा के चरित्र पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया। ‘गोपा! कैसे तुम समझ गयी कि मैं तुझी से शादी करूँगा...? मैं कहाँ और तुम....? प्रेम, शादी और काम-सुख ये सभी किसी के जीवन की अलग-अलग विधायें हैं, इन तीनों को एक साथ किसी एक साँचे में ढाला नहीं जा सकता...। तुझसे मेरा सम्बन्ध देह की भूख तक सीमित था...तुम भी मुझसे कम भूखी नहीं थी...नहीं तो तुम अपनी देह मेरे लाख चाहने के बावजूद....इस तरह बेफिक्र होकर मुझे नहीं सौंपती! तुम्हारे बाप के द्वारा मैं इनके तथाकथित ‘दर्शन’ में फँसाया गया था....और अंततः तुम्हारे देह-दर्शन की खाई में जा गिरा....अभागिन तुम कि उस घर में जन्म ली....न तुम्हारे बाप के पास गाड़ी, न कायदे का मकान और न ही कोई सामाजिक स्टेटस...वही पुराना सायकल...जिस पर वे अपना बुढ़ापा काट रहे हैं...।’
द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
   सुकान्तो की बातों से गोपा काफी आहत हुयी थी और लगी किसी शेरनी की तरह दहाड़ मारने...। बाद में सुकान्तो के अंगरक्षकों-आरक्षियों ने उसे धक्का देकर एस.डी.ओ. निवास से बाहर निकाला था। संभवतः वह जा रही थी सिविल कोर्ट में उसके विरुद्ध मुकदमा दर्ज करने...। इन्हीं सब स्थितियों को भाँपकर सुकान्तो ने पुलिस थाने की सहायता अविलम्ब ले ली थी। ...तब जाकर उसका गोपा से पीछा छूटा था।
   सुकान्तो के पास से खाली हाथ आने पर एक तरह से अर्द्धविक्षिप्त हो गयी थी, चाहती थी वह आत्महत्या कर लेना...। रातों में सोते हुए भी वह बड़बड़ाने-चीत्कार करने लग जाती- ‘राम! राम!! कहीं आदमी भी इतना घटिया होता है...कथनी और करनी में घोर अन्तर...आदमी जब अपने वायदे से मुकर जाय, तो उसमें आदमियत कहाँ...केवल लजीज-देह-मांस के भक्षण के लिए ही आदमी इस सृष्टि में पैदा हुआ है....यदि सामाजिक व्यवस्था ‘संबंध’ नहीं परिभाषित की होती तो आज जहाँ कहीं भी ‘संबंध’ बचे-खुचे हैं...कदापि नहीं बचे होते...।’
   अवशेषकान्त से अपनी बेटी की हालत छिपी न रह सकी। वे लाचार एवं अपराध बोध से ग्रसित जान पड़ने लगे। उन्होंने अपनी नौकरी में कभी भी ओछी हरकतें नहीं अपनायी...। इन्हें भी राँची कॉलेज, राँची एवं अन्य कॉलेजों का प्रधानाचार्य के लिए ऑफर मिले थे, इन्होंने इसे ठुकरा दिया था। इनका एक विद्यार्थी इन्हें इंग्लैंड एक तरह से ले जाने के लिए पूरी तैयारी कर दिया था....पर ये नहीं  माने...कहे कि शेष जिन्दगी अपने देश में काटना ज्यादा श्रेष्यकर है....।
   जब प्रगल्भ शर्मा का नाम आई.ए.एस. के प्रमोशन-लिस्ट में आने वाला था तो उनके विभागीय मंत्री ने उन्हें बुलाकर कहा- ‘शर्मा जी! आप जैसा सज्जन व्यक्ति हमने कभी नहीं देखा...आपका नाम इस प्रमोशन लिस्ट में यूं ही नहीं आयेगा...कुछ काम करना पड़ेगा। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आपके पास इसके लिए जरूरी अक्षत-पुष्प नहीं है...फिर भी आपको कुछ न कुछ उपाय तो ढूंढ़ना ही पड़ेगा, जिसमें यदि आप चाहें तो यफल हो सकते हैं। एक साथ आपका दो काम हो जायेगा...एक तो आप आई.ए.एस. बन जायेंगे और दूसरा यदि आप चाहें तो किसी जिले की जिलाधीशगीरी भी मिल जायेगी...। फिर आप चुनाव, बाढ़, सुखाड़ आदि पर रोज हाथ फेरते रहिए...। मगर इसके लिए आपको थोड़ा प्रयत्न रना पड़ेगा...इसमें मेरा चलाना रहता तो आपको इसके प्रति थोड़ी भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं पड़ती...फिर भी आप हमारे विभाग के सीनियर ऑफीसर हैं कुछ न कुछ जुगत हमें भिड़ाना ही पड़ेगा, यदि आपकी इच्छा हो तो...!’
   ‘बड़ी कृपा होगी मंत्री जी’ मि. शर्मा ने कहा।
   ‘तो ऐसा करिए शर्मा जी! मुख्यमंत्री जी के साले साहब यदि आपका काम चाह जायें...तो यह काम पल भर में हो जायेगा...’ मंत्री ने कहा।
   ‘मगर मेरा तो उनसे कोई परिचय-अरिचय नहीं...सुनते हैं कि वे बड़े माफिया हैं...उन तक मैं अँट जाऊँगा...।’
   ‘ये सब आप मुझ पर छोड़िये शर्मा जी...मुझ पर आपका विश्वास है न!’
   ‘हाँ! यह तो आपकी महती कृपा होगी।’
   ‘हाँ! तो ऐसा कीजिए आप सपत्नीक मुख्यमंत्री जी के साले साहब के यहाँ जाने का कोई निश्चित प्रोग्राम बनाइए...यदि आप कहें तो मैं भी साथ दे दूँगा, कोई आपको विशेष कठिनाई नहीं होगी....आपकी मैडम काफी स्मार्ट हैं, वे अपनी भाव-भंगिमाओं से उस साले साहब को सम्मोहित कर लेंगी, ऐसा मुझे विश्वास है, क्यों तैयार हैं न?’
   ‘सर! एक दिन की मुहलत दें, गोपा से पूछकर आपको बताऊँगा...।’
   ‘ठीक है, मगर देर मत कीजिएगा, वरना मामला हाथ से निकल जायेगा तो मेरा दोष नहीं...।’
    अपने मंत्री से ऐसी ओछी बातें सुनकर प्रगल्भ शर्मा काफी मर्माहत हुए थे। उनकी इच्छा थी वे अभी नौकरी से रिजायन कर दें...। वे अपने मंत्री के काले कारनामे बहुत निकट से देख चुके थे....सुरा और सुन्दरी की पूछ इनके दरबार में होती थी...। सुरा-सुन्दरी और अवैध धन इन्हें दे दो और कुछ भी काम इनसे निकाल लो...।
   ऐसे में प्रगल्भ शर्मा काफी उदास होकर अपने सरकारी आवास में लौटे थे। थके-हारे, जमीन से उखड़े किसी विशाल पेड़ की तरह....। आम दिनों की भाँति उनकी पत्नी अपने हाथ में चाय और गर्म पकौड़े लेकर खड़ी थी....पर मि.शर्मा ने उस ओर देखा ही नहीं...मन ही मन बुदबुदाने लग गये थे- मेरी पत्नी को कोई मुझसे छीन नहीं सकता...वह असाधारण विदुषी है...वह अपने जीवन में एक बार घृणित रूप से छली गयी है....फिर मैं उसके साथ अपने चंद स्वार्थ में ऐसा काम नहीं कर सकता....चाहे मैं आई.ए.एस. बनूँ या न बनूँ....जिलाधीश की कुर्सी मिले न मिले.... कोई फर्क नहीं पड़ता...मरना मंजूर है...पर उस स्वर्ग में जाना मंजूर नहीं...यह स्वर्ग नहीं, नरक है...नरक..।’
    गोपा को सारी स्थिति-परिस्थितियों को समझते देर न लगी...। उसने अपने पति को काफी सांत्वना दी कि मैं तुम्हें छोड़कर अब एक पल भी कहीं जाना नहीं चाहती...। तब जाकर प्रगल्भ शर्मा इत्मीनान में आये थे।
   दूसरे दिन मि. शर्मा ने एक लंबी अर्जी लिखी...मुख्य सचिव के नाम...इसकी प्रतिलिपि मुख्यमंत्री और अपने विभागीय मंत्री को भी दी...।
   ‘श्रीमान! मुझे अपनी नौकरी के सिलसिले में अब तक जो भी अनुभव रहे हैं, वे बहुत ही रोमांचकारी व विस्मयकारी हैं, जिन सभी का वर्णन मैं कतई कर नहीं सकता...मैं जिस ग्रेड में हूँ....वहीं ठीक हूँ...न मुझे प्रमोशन चाहिए और न वैध-अवैध पचाने और तथाकथित आकाओं को मलाईदार परतें बाँटने के लिए आई.ए.एस. या जिलाधीश की कुर्सी... मैं मान रहा हूँ कि मैं जिलाधीश की कुर्सी से मेल न खाते हुए...इसे सरकार को बहुत आग्रह के साथ वापिस कर रहा हूँ....।
  • संकटमोचन नगर, नयी पुलिस लाइन, आरा-802301

अविराम विस्तारित

।।व्यंग्य वाण।।
सामग्री :  राजेन्द्र देवधरे ‘दर्पण’ का व्यंग्यालेख-  "पेट्रोल आसमान पर!"


।।व्यंग्य वाण।।

राजेन्द्र देवधरे ‘दर्पण’



पेट्रोल आसमान पर!

   यदि इसी तरह पेट्रोल महंगा होता गया तो एक दिन यह आम आदमी के हाथ से फुर्रर्..र.. हो जायेगा। महंगाई की नित नई ऊँचाइयों पर पहुँचते पेट्रोल के कारण कल किस प्रकार की स्थितियां देखने-सुनने को मिलेगी, आइये देखते हैं एक बानगी-
   गरीब अपने बच्चों को पेट्रोल की कहानियां सुनाकर मन समझा लिया करेंगे। उच्च और मध्यमवर्गीय लोग तेल चित्र की तरह पेट्रोल चित्रों से अपने घर की बैठक को सजाकर रखेंगे, जिससे मित्रों, रिश्तेदारों पर प्रभाव जमाया जा सके। तब अमीर लोग पेट्रोल का कीमती परफ्यूम अपने कपड़ों पर स्प्रे करेंगे और शादी, पार्टी या विशेष अवसरों पर महफिल को महकाया करेंगे। अमीरों की औरतें अपने सुगन्धित पेट्रोल स्प्रे का एक दूसरे पर इम्प्रेशन डालेंगी और कहेंगी, ‘पता है मेरे मिस्टर ने यह कीमती पेट्रोल स्प्रे अमेरिका से मंगवाया है, इम्पोर्टेड है।’ तब दूसरी उसे नीचा दिखाते हुए तपाक से कहेगी, ‘मेरे इन्होंने तो यह स्पेशल ब्राण्ड कीमती पेट्रोल स्प्रे सीधे इराक से मंगवाया है, इसलिए इसमें मिलावट की बिल्कुल गुंजागश नहीं है। महंगा जरूर है, लेकिन एकदम शुद्व है।’
    मिलावट करने वाले तब भी कहां मानने वाले होंगे। वे पेट्रोल परफ्यूम में दूसरे सस्ते तेल मिलाकर बेचा करेंगे, जिससे मध्यमवर्गीय लागों का बजट भी उन्हें कभी-कभी खरीदने की अनुमति दे देगा। प्रीति जिन्टा, बिपाशा, मलायका जैसी सुन्दरियां मॉडलिंग में नाम कमाते हुए अपनी खूबसूरती का राज पेट्रोल युक्त क्रीम को बताकर रुपया कूटेंगी। अलग-अलग नाम की कम्पनियों का पेट्रोल बाजार में बिका करेगा, जिसके ब्राण्ड एम्बेसेडर सचिन, सानिया, शाहरुख जैसी प्रतिभाएं होंगी।
   तब पेट्रोल अधिक खाने वाले स्कूटर की प्रजाति लुप्त हो जायेगी। बाईक के भाव मुँह के बल जमीन पर गिरेंगे और कार बेकार की चीज हो जाएगी। बाईक और कार की कम्पनी वाले मुहल्ले-मुहल्ले और कॉलोनी-कॉलोनी में आवाज लगाते फिरेंगे कि ‘बाइक उधार ले लो बाईक’, ‘कार किश्तों में फायनेन्स करवा लो’। इतना होने के बाद भी लोग महंगे पेट्रोल के भय से यह कहते पाये जायेंगे- ‘भैया, हाथी को पाल तो लें मगर उसका पेट भरने के लिए घास कहां से लाएंगे।
   बाइक चोर बाइक न चुराते हुए सीधे पेट्रोल पर हाथ साफ करेंगे। दहेज के लोभी तब बाइक या कार की मांग न करते हुए लड़की के पिता से पेट्रोल की मांग करते पकड़े जायेंगे। जबकि करोड़पति बाप अपनी बेटी की शादी में दूल्हेराजा को पेट्रोल के डिब्बे देकर समाज में अपनी शान दिखायेगा। पेट्रोल से होने के कारण ड्रायक्लीन बहुत महंगी हो जायेगी। जो लोग ड्रायक्लीन करवायेंगे, उनकी अमीरी के चर्चे सारे जमाने में हुआ करेंगे। जिन लोगों के यहाँ ज्यादा पेट्रोल की खपत होगी, वहां पुलिस के छापा पड़ने का अंदेशा रहेगा। त्यागे गए छकड़े, तांगे और बैलगाड़ी को लोग वापस मनाकर ले आएंगे। व्यस्त मार्गो पर सायकल वाले और पैदल यात्री ही दिखाई देंगे, जिससे यातायात पुलिस के कंधों को आराम मिलेगा और बहुत हद तक धुआं प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी।
  • 129, ‘प्रयास’, अभिषेक नगर, इन्दौर मार्ग, उज्जैन-456010 (म.प्र.)

तीन और किताबें

{अविराम के ब्लाग के इस अंक में दो पुस्तकों की समीक्षा  रख  रहे हैं।  कृपया समीक्षा भेजने के साथ समीक्षित पुस्तक की एक प्रति हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।} 

बलराम अग्रवाल
‘नींव के नायक’: पारम्परिक लघुकथा, विचार और शोध की दृष्टि से महत्वपूर्ण संकलन
    समकालीन हिन्दी लघुकथा का महत्वपूर्ण संकलन ‘पेंसठ हिन्दी लघुकथाएँ’(2001) तथा पूर्व व वर्तमान पीढ़ी के लगभग 150 कथाकारों की लघुकथाओं का चर्चित संकलन ‘निर्वाचित लघुकथाएँ’(2005) कथा-क्षेत्र को देने के बाद अशोक भाटिया द्वारा संपादित लघुकथा-संकलन ‘नींव के नायक’(2010) प्रकाश में आया है। ‘नींव के नायक’ का प्रस्थान-बिन्दु क्योंकि सन् 1901 को रखा गया है इसलिए हिन्दी गद्य का जनक कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र(1850-1886) ‘नींव’ में इतने गहरे चले गए कि प्रकाश में न आ सके। पुस्तक में माधवराव सप्रे(1), प्रेमचन्द(10), माखनलाल चतुर्वेदी(2), पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’(3), जयशंकर प्रसाद(11), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी(1), छबीलेलाल गोस्वामी(1), जगदीशचन्द्र मिश्र(13), सुदर्शन(14), रामवृक्ष बेनीपुरी(1), अयोध्या प्रसाद गोयलीय(12), यशपाल(1), कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’(17), रामधारी सिंह ‘दिनकर’(4), उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’(8), रावी(9), विष्णु प्रभाकर(13), जानकीवल्लभ ‘शास्त्री’(1), रामनारायण उपाध्याय(3), हरिशंकर परसाई(12), दिगंबर झा(4), आनन्द मोहन अवस्थी(8), शरद कुमार मिश्र ‘शरद’(11), ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श’(4), श्यामनन्दन शास्त्री(8), पूरन मुद्गल(1), युगल(2), सुरेन्द्र मंथन(1) तथा सतीश दुबे(1) यानी 29 कथाकारों की कुल 177 लघुकथाएँ संगृहीत हैं। पुस्तक में ‘भूमिका-सा कुछ’ शीर्षक से अशोक भाटिया का शोधपूर्ण लेख ‘सन् 1970 तक की लघुकथाएँ’ भी है।
    रामचन्द्र शुक्ल द्वारा निर्धारित ‘गद्यकाल’(सन् 1900 से अद्यतन) की लघुकथा पर शोधपरक दृष्टि डालने वाले जिज्ञासुओं तथा शोधपरक कार्य करने वालों के ‘नींव के नायक’ एक आवश्यक पुस्तक है। आश्चर्य नहीं कि इसमें संकलित अनेक कथाकारों के लघुकथा-लेखन से बहुत-से पाठक पहली बार परिचित हों, लेकिन यह भी सही है कि अनेक महत्वपूर्ण नाम इसमें संकलित होने से छूट गए हैं। ऐसे कथाकारों में शिवनारायण उपाध्याय(रोज की कहानी, 1955), शान्ति मेहरोत्रा(खुला आकाश मेरे पंख,1962 संपादक: अज्ञेय) व भृंग तुपकरी(पंखुड़ियाँ, 1956) का नाम मुख्यरूप से लिया जा सकता है। वस्तुतः शोध एक अन्तहीन प्रक्रिया है और यह मानकर चलना कि अकेला व्यक्ति बिना किसी बाहरी सहयोग के पहली बार में ही उसे पूरा कर दिखाएगा, न्यायसंगत नहीं है। अशोक भाटिया का यह प्रयास इस अर्थ में अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि इससे सन् 1970 से पूर्व प्रकाशित लघुकथाओं व लघुकथा संग्रहों/संकलनों की खोज का एक रास्ता खुलता है।
   पुस्तक में संकलित लघुकथाओं के अन्त में उनके प्रकाशन का वर्ष तथा स्रोत भी संपादक ने दिया है, लेकिन कुछेक में वह छूट गया है। प्रकाशन वर्ष व स्रोत का प्रकाशित होने से छूट जाना संकलन की चमक को कुछ हद तक कम करता है। ऐसी पुस्तकों की मूल्यवत्ता उनकी शोध-संबंधित पूर्णता में ही निहित होती है। रामवृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, रामधारी सिंह दिनकर, रावी, विष्णु प्रभाकर, जानकीवल्लभ शास्री, दिगंबर झा, श्यामनन्दन शास्त्री की लघुकथाओं के न तो सन् लिखे जा सके हैं न स्रोत। कुछेक कथाकारों की लघुकथाओं के अन्त में प्रकाशन वर्ष तो दिया है लेकिन स्रोत नहीं दिया जा सका। माखनलाल चतुर्वेदी की लघुकथा ‘बिल्ली और बुखार’ के स्रोत की खोज काफी महत्वपूर्ण सिद्ध होगी।
   यह निर्विवाद है कि 1970 से पूर्व लघुकथा मुख्यतः आम आदमी के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक सरोकारों से भिन्न भाव और बोध की लघुकथा है। उसका स्वर आदर्शपरक अधिक है, यथार्थपरक कम। स्वर में यथार्थपरकता की चमक यद्यपि प्रेमचंद की ‘राष्ट्र का सेवक’ और ‘बाबाजी का भोग’ तथा परसाई की 1950 के आसपास प्रकाशित व्यंग्यपरक लघुकथाओं में दिख जाती है लेकिन उस काल में वह विलीन भी हो जाती है। स्थिर नहीं रह पाती। सहस्रों वर्ष से चली आ रही उपदेशपरकता की अपनी जमीन को तोड़ नहीं पाती। इस संकलन की लघुकथाओं के अध्ययन से हम हिन्दी लघुकथा के उस संघर्षकाल को रेखांकित कर सकते हैं जब वह पुरातन कथ्यों को त्यागकर नवीन कथ्यों को अपनाने की ओर अग्रसर हो चली थी। अशोक भाटिया ने पुस्तक के प्रारम्भ में संकलित अपने लेख ‘सन् 1970 तक की हिंदी लघुकथाएँ’ को यों शुरू किया है, “हिन्दी लघुकथा की आज जो एक शक्तिशाली धारा और गति है, उसके पीछे पूरी बीसवीं सदी का रचनात्मक अवदान रहा है।” हिंदी लघुकथा के उन्नयन में पुरातन कथा-साहित्य के अवदान को ‘बीसवीं सदी’ तक सीमित करने पीछे सम्भवतः यह कारण रहा हो कि आज का आलोचक हिंदी कहानी का सफर 1901 से प्रारम्भ हुआ मानता है और हिंदी लघुकथा को अपने अवचेतन में वह हिंदी कहानी से अलग नहीं देख पा रहा है। वस्तुतः तो हिन्दी लघुकथा ही नहीं किसी भी नवीन विधा के उन्नयन में उसके पूर्ववर्ती साहित्य का रचनात्मक अवदान रहता ही है। यह बात मानव-सभ्यता पर भी लागू होती है। मनुश्य प्रारम्भ से ही परम्परा के सकारात्मक पहलुओं को ग्रहण करता और गल-सड़ चुके रिवाज़ों-चलनों को त्यागता आया है। आश्चर्यजनक यह है कि उपर्युक्त पंक्ति लिखने के बाद लेख के तीसरे ही पैरा में अशोक भाटिया यह लिखने लगते हैं कि..“एक तो इसे किसी बड़े नाम का अनावश्यक-अतार्किक सम्बल लेने से बचना होगा।” अगर इस वाक्य का अनुसरण करें और हिंदी लघुकथा के समकालीन पैरोकारों की दृष्टि से देखने लगें तो ‘नींव के नायक’ एक अनावश्यक संकलन सिद्ध हो जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। शोध एक अलग कार्य है। वह शान्त और धैर्यशील मनोमस्तिष्क का कार्य है। न तो पूर्वगृह और न ही आग्रह उसकी गति को रोक पाते हैं। यह शोध ही है कि गुलेरी ने जिन दृष्टांतों को अपने निबंधों में प्रयुक्त किया था और कुछेक संपादकों ने जिन्हें काट-छाँटकर लघुकथान्तर्गत प्रस्तुत कर दिया था, उन्हें लघुकथा से आज हटा दिया गया है। परसाई के विशुद्ध व्यंग्य भी उक्त धैर्यशीलता और आग्रहहीनता के कारण ही ‘लघुकथा’ स्वीकारे जा रहे हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘परिहासिनी’ भी मुक्त मनोमस्तिष्क की अपेक्षा रखती है।
   “सन् 1970 तक की लघुकथा की यात्रा का अध्ययन करने पर कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। एक यह कि हिंदी में बीसवीं सदी में निरंतर लघुकथाएँ लिखी जाती रही हैं।” वस्तुतः तो लघुकथाएँ नहीं, लघु-आकारीय कहानियाँ अथवा परम्परा का अनुसरण करती भाव-बोध-उपदेश-आदर्श-दृष्टांत प्रस्तुत करती कथाएँ लिखी जाती रही हैं जिन्हें ‘लघुकथा’ के समकालीन उन्नयन के मद्देनजर विधान्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है। स्वीकार्यता की इस शालीनता को अपनाना अवगुण नहीं है, बशर्ते कि विचार एवं कथ्य-प्रस्तुति के स्तर पर हम पुराने कथ्यों पर ही न चकराते रहें। ‘लघुकथा’ का सफर इसी दृष्टि से उल्लेखनीय है कि इसने आकार के अतिरिक्त पुरातनता के लगभग सभी भावों से मुक्ति पाकर आधुनिक मानव से जुड़कर अपने-आप को ‘समकालीन’ सिद्ध कर दिखाया है।
    कुल मिलाकर ‘नींव के नायक’ 1970 तक की लघुकथाओं की एकजुट प्रस्तुति की दृष्टि से ही नहीं, विचार और शोध की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण संकलन है।
   नींव के नायक : लघुकथा संकलन। संपादक :  अशोक भाटिया। प्रकाशक :  इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, के-71, कृष्णनगर, दिल्ली-110051
प्रथम संस्करण : 2010। मूल्य :  रु0 350/- मात्र।
  •   एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032/ई-मेल : balram.agarwal1152@gmail.com

 


डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
जनक छन्द मणि मालिका: जनक छन्द की सुन्दर प्रस्तुति

  
पं. गिरिमोहन गुरु ‘नगरश्री’ कृत ‘जनक छन्द मणि मालिका’ में उनके 108 जनक छन्द संग्रहीत हैं, जो अनुभूति और संवेदना की दृष्टि से पर्याप्त मोहक और प्रभावशाली बन पड़े हैं। दोहे के प्रथम चरण पर आधारित इस त्रिपदिक छन्द में तीन चरण होते हैं, जिसका पहला और तीसरा चरण तुकान्त होना अनिवार्य है। मुक्त छन्द होने के कारण इन छन्दों में बिषयों की विविधता रहती है। जनक छन्द मणि मालिका में भी विषयों की ऐसी ही विविधता है। इसमें गाँव, नगर, भ्रष्टाचार, नेता, राजनीति, कुर्सी, संसद, दहेज, संघर्ष-महिमा, ईश प्राथर््ना, हिन्दी-दुर्दशा, संयोग, वियोग आदि के बहुत से मनोरम और प्रभावशाली चित्र हैं।
    श्री गुरु ने मणि मालिका का प्रारम्भ माँ शारदा की प्रार्थना से किया है, जिसमें उन्होंने अपनी कविताओं को सारगर्भ बनाने की प्रार्थना की है-
सुनो प्रार्थना शारदे/अर्थ व्यर्थ सब हो रहे/कविताओं में सार दे
तुकविहीन कविता से जनक छन्द को श्रेष्ठ निरूपित करते हुए वे कहते हैं-
तुक विहीन से श्रेष्ठ है/गद्य नहीं यह गीत है/इसीलिए तो ज्येष्ठ है
देश में फल-फूल रहे भ्रष्टाचार पर उनका एक मार्मिक छन्द देखिये-
भ्रष्टाचारी फल रहे/राजनीति की आग में/सीधे-सादे जल रहे
अपने गाँव के प्रति हर व्यक्ति का प्रेम और लगाव स्वाभाविक होता है। कवि को भी गाँव की याद आती है, फलस्वरूप उनके मुख से एक सुन्दर छन्द निकल पड़ता है-
बचपन बीता गाँव में/रहने का मन आज भी/आम नीम की छाँव में
उनके कुछ और रोचक और भावपूर्ण छन्दों की बानगी देखिये-
हिन्दी की जय बोलकर/हिन्दी सेवी आंग्ल में/बैठे शाला खोलकर
आसमान को चूमते/जब से कुर्सी मिल गयी/बिना पिये ही झूमते
संध्या लम्बी ताड़ सी/एक मीत तेरे बिना/रातें हुई पहाड़ सी
कुछ छन्दों में कवि दार्शनिक हो गया है। मृत्यु के बारे में उसका सोच है-
मृत्यु चल रही साथ में/जीवन की हर डोर है/होनहार के हाथ में
कहीं-कहीं उनके छन्द निराश-हताश लोगों को प्रेरणा देने का काम करते हैं-
संघर्षों के बीच में/निखरा जीवन और भी/नीरज विकसा कीच में
    श्री गुरु एक अनुभवी और प्रतिभा संपन्न सिद्ध कवि हैं। इन छन्दों की भाषा साफ-सुथरी, परिमार्जित और क्लिष्टता विहीन है। अनावश्यक प्रतीकों, संकेतों और बिम्बों से उन्होंने परहेज किया है। उनका छन्द-विधान सटीक है। अंत के कुछ छन्द व्यक्तिपरक होने से सपाटबयानी के शिकार अवश्य हो गये हैं, किन्तु यह उनका जनक छन्द के आविष्कर्ता के प्रति श्रद्धा का प्रमाण है। अस्तु, ऐसी सुन्दर प्रस्तुति के जिए उन्हे बधाई।

जनक छन्द मणि मालिका : जनक छन्द संग्रह। कवि : पं. गिरिमोहन गुरु ’नगरश्री’। प्रकाशक : एकता प्रकाशन, बी-2-बी-34, जनकपुरी, नई दिल्ली-58। मूल्य : मुद्रित नहीं। पृष्ठ संख्या : 20। संस्करण : 2009।
  • बी-85, मिनल रेजीडेन्सी, जे.के. रोड, भोपाल-462023(म.प्र.)


रामकुमार आत्रेय
रोचक एवं मर्मस्पर्शी कहानियाँ
   न तो कहानी कहना आसान होता है और न ही कहानी लिखना। कहानी कहने वाले के पास वक्तृत्व कला का होना आवश्यक होता है, ताकि वह अपने श्रोताओं को अपने साथ बांधकर रख सके। ठीक इसी प्रकार कहानी लिखने वाले के पास लेखन कला का होना अत्यन्त आवश्यक है अन्यथा पाठक उसकी कहानी को पढ़ने की अपेक्षा रद्दी की टोकरी में फेंकना पसंद करेंगे। ऐसे में कहानी लेखक का परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा और जो संदेश वह कहानी के पाठकों तक पहुँचाना चाहता है, वह भी नहीं पहुँच पायेगा। विख्यात कथाकार नरेश कुमार ‘उदास’ में कहानी  कहने और लिखने की क्षमता मौजूद है। पाठक उनकी इस क्षमता का परिचय उनके ताजा कहानी संकलन ‘माँ गाँव नहीं छोड़ना चाहती’ को पढ़कर प्राप्त कर सकते हैं। कहानीकार ने इस पुस्तक में संकलित कहानियों में कहानी कहने और लिखने की दोनों शैलियों का सुन्दर सम्मिश्रण किया है।
   ‘माँ गाँव नहीं छोड़ना चाहती’ में सोलह कहानियां संकलित हैं। इस संग्रह की शीर्षक कहानी ‘माँ गाँव नहीं छोड़ना चाहती’ एक बहुत ही अच्छी रचना है। कहानी की नायिका माँ जानती है कि महानगर में रहने वाले उसके पुत्र एवं पुत्रबधू उसे अपने साथ रखकर ठीक से निर्वाह नहीं कर पायेंगे। यदि वह उनके कहने पर शहर चली भी जाती है तो थोड़े ही दिनों बाद वह उनके लिए बोझ बनकर रह जाएगी। इसीलिए वह अपना घर एवं खेतों को नही छोड़ना चाहती। उसे अपनी बेटियों का भी ख्याल है कि वे गाँव में आकर आखिर किससे मिलेंगी! यह कहानी मानवीय संवेदनाओं को उभारकर माँ के मिट्टी से जुड़ाव को रेखांकित करती है।
    इस संग्रह की पहली कहानी ‘कसाईबाड़ा’ एक मार्मिक रचना है, जो पाठक के अंतर्तम को झकझोर डालने में पूरी तरह समर्थ है। औरतों पर केवल पुरुष ही अत्याचार नहीं करते बल्कि औरतें भी स्वार्थवश दूसरी औरत पर अत्याचार करने से नहीं चूकती। एक ऐसा घर जिसमें सास और जेठानी का नकाब पहने दो औरतें एक अन्य औरत को सताने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती। वह घर कसाईबाड़ा के सिवा कुछ हो ही नहीं सकता। इस कहानी की नायिका कल्पना स्त्री चेतना के जागरण का प्रतीक बनकर उभरी है।
   इस संग्रह की केवल तीन-चार कहानियों (वंशबेल, सुखिन्दर के लिए, गंदानाला और गहनों की पोटली) को यदि अपवाद के रूप में छोड़ दिया जाए तो शेष सभी कहानियां लम्बी हैं। ये कहानियां अपने भीतर किसी औपन्यासिक कृति का बीज समेटे हुए हैं। इन कहानियों में जीवन का जो परिदृश्य उभरता है वह पाठक की चेतना को संवेदना सम्पन्न बनाता है। संग्रह की सभी कहानियां कथा रस से ओत-प्रोत हैं। यदि पाठक एक बार किसी कहानी को पढ़ना शुरू करता है तो उसे अन्त तक पहुंचे बिना छोड़ नहीं पाता। कहानीकार पाठक को श्ल्पि के जादुई जाल में न उलझाकर धीरे-धीरे उसे ठीक लक्ष्य तक ले जाता है। इस प्रकार ये कहानियां अपना संदेश पाठक तक रोचक एवं मार्मिक ढंग से पहुँचाने में सक्षम हैं। पुस्तक की साज-सज्जा भी बढ़िया है तथा मुखपृष्ठ भी कथा संग्रह के शीर्षक पर आधारित है, जो गहरे तक अभिभूत करता है।

‘माँ गांव नहीं छोड़ना चाहती‘ ( कहानी संग्रह ) :  नरेश कुमार ‘उदास’। प्रकाशक : प्रगतिशील प्रकाशन, नई दिल्ली। पृष्ठ : 168 मूल्य : रु. 400/-।

  • 864, ए/12, आजाद नगर, कुरुक्षेत्र-136119 (हरियाणा)

कुछ और महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ


{अविराम के ब्लाग के इस  स्तम्भ में अब तक हमने क्रमश:  'असिक्नी', 'प्रेरणा (समकालीन लेखन के लिए)', कथा संसार, संकेत, समकालीन अभिव्यक्ति तथा हम सब साथ साथ साहित्यिक पत्रिकाओं का परिचय करवाया था।  इस  अंक में  हम दो और  पत्रिकाओं पर अपनी परिचयात्मक टिप्पणी दे रहे हैं।  जैसे-जैसे सम्भव होगा हम अन्य  लघु-पत्रिकाओं, जिनके  कम से कम दो अंक हमें पढ़ने को मिल चुके होंगे, का परिचय पाठकों से करवायेंगे। पाठकों से अनुरोध है इन पत्रिकाओं को मंगवाकर पढें और पारस्परिक सहयोग करें। पत्रिकाओं को स्तरीय रचनाएँ ही भेजें,  इससे पत्रिकाओं का स्तर तो बढ़ता ही है, रचनाकारों का अपना सकारात्मक प्रभाव भी पाठकों पर पड़ता है।}

आरोह अवरोह : जिसके अन्तस में है साहित्य का सरोवर

   आरोह अवरोह के मुखपृष्ठ को देखते ही किसी सामाजिक-राजनैतिक व्यवसायिक पत्रिका का आभास होता है, पर इसकी पुष्टि के लिए अन्दर के पृष्ठों में उतनी सामग्री नहीं मिलती, जितनी होनी चाहिए। पत्रिका का अन्तस हमें एक समृद्ध साहित्यिक लघु पत्रिका के दर्शन ही कराता है। सम्पादकीय सामाजिक-राजनैतिक, फिल्म और साहित्य के बीच संतुलन साधता प्रतीत होता है। ‘वैचारिक भूमि’ के अन्तर्गत कुछ आलेख, सांस्कृतिक रिपोर्टें, फिल्मों पर आधारित आलेख, राशिफल आदि भी इसी नीति पर मुहर लगाते दिखाई देते हैं। लेकिन अन्दर के पृष्ठों में ‘गन्धवीथी’ के अन्तर्गत पर्याप्त संख्या में कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, हाइकु, आदि विविध काव्य रचनाओं एवं ‘बरगद की छांव’ में कहानी एवं लघुकथाओं की प्रस्तुति पत्रिका के अन्तस को पूरी तरह साहित्यमय बना देती है। पत्रिका को मासिक स्तर पर दीर्घकाल तक निकालने और अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचाने की इच्छा की दृष्टि से यह एक सन्तुलित नीति हो सकती है। इस नीति के तहत मिले पाठकों को अच्छा और पर्याप्त साहित्य उपलब्ध करवाने को साहित्य के प्रचार-प्रसार की एक अलग दृष्टि माना जा सकता है। वर्ष 2011 के जून एवं अगस्त दो अंक हमने देखे हैं, दोनों अंक उपरोक्त नीति की पुष्टि करते हैं। जहाँ तक आरोह अवरोह की साहित्यिक रचनाओं का प्रश्न है, अधिकांश गीत-नवगीत एवं कई ग़ज़लें प्रभावशाली हैं। कविताओं में चेतना वर्मा (जून अंक) प्रभाव छोड़ने में सफल हैं। हाइकु दोनों ही अंकों में बहुत प्रभावशाली नहीं कहे जा सकते। कथा रचनाएँ (लघुकथा और कहानियों) में अधिसंख्यक सफल हैं। वैचारिक दृष्टि से
अधिकांश रचनाएँ समकालीन मानवीय-जीवन के विभिन्न पक्षों पर बखूबी ध्यान आकर्षित करती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि साहित्यिक रचनाओं को संख्या और गुणवत्ता- दोनों ही दृष्टि से पर्याप्त महत्व दिया गया है। सम्पादक डॉ. शंकर प्रसाद जी का यह प्रयास निश्चय ही उत्साहजनक है। उनकी टीम में साहित्यिक परामर्शी के तौर पर वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सतीशराज पुष्करणा की उपस्थिति पत्रिका के साहित्यिक योगदान को सही दिशा में ले जाने में सहायक होगी। उम्मीद है आरोह अवरोह अपने पाठको को अपने अन्तस के साहित्यिक सरोवर में स्नान करने के लिए सफलतापूर्वक आकर्षित करती रहेगी।
आरोह अवरोह :  कला, साहित्य, संस्कृति और सामाजिक सरोकार की मासिक पत्रिका। सम्पादक : डॉ. शंकर प्रसाद सम्पादकीय कार्यालय : 306, महादेवी अपार्टमेंट, काशीनाथ लेन, पूर्वी लोहानीपुर, पटना-800003 (बिहार) दूरभाष : ०९८३५०५५६२६६/०९३३४१४३३६३। ई मेल : arrohavroh@rediffmail.com ।  मूल्य : रु. 15/- प्रति एक प्रति। पृष्ठ : 64।



लघुकथा अभिव्यक्ति : लघुकथा की पूर्ण लघु पत्रिका
लघुकथा के विकास में कई प्रमुख पत्रिकाओं का विशेष योगदान रहा है, इनमें कुछ पूर्णतः लघुकथा को समर्पित पत्रिकाएँ भी रही हैं। हिन्दी में आघात/लघु आघात, मिनीयुग, जनगाथा/वर्तमान जनगाथा और पंजाबी में ‘मिन्नी’ आदि की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। पंजाबी में ‘मिन्नी’ और इन्टरनेट पर हिन्दी में वेब पत्रिका ‘लघुकथा डाट काम’ आज भी लघुकथा की पहचान बनी हुई हैं। सुपरिचित लघुकथाकार श्री मो. मुइनुद्दीन ‘अतहर’ जी ने ‘लघुकथा अभिव्यक्ति’ के माध्यम से इसी समृद्ध परम्परा से जुड़ने का प्रयास किया है। वर्तमान में पूर्णतः लघुकथा को लेकर चलने वाली हिन्दी में सम्भवतः यह अकेली मुद्रित लघु पत्रिका है। इस दृष्टि से ‘लघुकथा अभिव्यक्ति’ का लघुकथा को आगे बढ़ाने में अच्छा उपयोग किया जा सकता है। लेकिन इसके दो अंको (अप्रैल-जून 2010 एवं जुलाई-सितम्बर्र 2011) को देखने के बाद ऐसा नहीं लगता कि इस पत्रिका की मौजूदगी का लघुकथा से जुड़े लोग जितना उपयोग करना चाहिए, उतना कर पा रहे हैं। प्रत्येक अंक में लगभग चालीस तक लघुकथाकारों की लघुकथाएँ तो पढ़ने को मिल जाती हैं, पर लघुकथा के विचार पक्ष पर ‘लघुकथा अभिव्यक्ति’ का उपयोग नहीं हो पा रहा है। लघुकथाओं को देखकर भी लगता है, सभी लघुकथाकार अपनी श्रेष्ठ या प्रतिनिधि लघुकथाएँ नहीं दे रहे हैं। एक विधागत समर्पित पत्रिका के प्रत्येक अंक में चालीस में से एक तिहाई रचनाकार भी अपना प्रभाव छोड़ पाने में समर्थ न हों तो इसे क्या कहा जाये? अतहर साहब स्वयं वरिष्ठ लघुकथाकार हैं और लघुकथा की अच्छी समझ रखते हैं। लघुकथा के लिए हिन्दी में कम से कम एक पूर्ण पत्रिका की जरूरत भी है, ऐसे में वरिष्ठ लघुकथाकारों का दायित्व बन जाता है कि वे इस लघु पत्रिका को पर्याप्त रचनात्मक सहयोग देकर स्थापित करने में रुचि लें। आज लघुकथा बहुत आगे आ चुकी है, ऐसे में एक समर्पित पत्रिका की मौजूदगी से अपेक्षाएँ कुछ अधिक की ही होगी। यदि पत्रिका इन अपेक्षाओं को नहीं समझेगी या उन्हें पूरा करने की दिशा में कदम नहीं बढ़ायेगी, तो समय से बहुत पीछे होगी। अतहर जी को इस सम्बन्ध में सोचना होगा कि पत्रिका को ‘लघुकथा की पत्रिका’ से ‘लघुकथा की समर्पित पत्रिका’ बनाने के लिए वह और क्या-क्या कर सकते हैं!
   लघुकथा जैसी महत्वपूर्ण विधा के लिए भावनात्मक दृष्टि से ‘लघुकथा अभिव्यक्ति’ और उसके सम्पादक महोदय के प्रयासों का स्वागत होना चाहिए, क्योंकि पर्याप्त रचनात्मक सहयोग उपलब्ध होने पर यह लघुकथा की जरूरत को पूरा कर सकती है। उम्मीद है लघुकथाकार मित्र इस कीमती संसाधन का बेहतर उपयोग करने के बारे में अवश्य सोचेंगे।
   लघुकथा अभिव्यक्ति  :  लघुकथा की लघु पत्रिका। सम्पादक :  मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’। सम्पादकीय पता : 1308, अजीजगंज पसियाना, शास्त्री वार्ड, आर.के. टेण्ट हाउस, जबलपुर-2 (म.प्र.) फोन : 0761-2449830, मो. 09425860708। प्रष्ट : ४४। मूल्य : रु. 15/-, आजीवन सदस्यता : रु. 1000/-

गतिविधियाँ

कैनेडा में हिन्दी राइटर्स गिल्ड के तीसरे वार्षिक उत्सव की धूम

 

 

  5 नवम्बर 2011 को पोर्ट क्रेडिट सेकेन्डरीस्कूल, मिसिसागा में धूमधाम से सम्पन्न हुआ। हर वर्ष की तरह गिल्ड ने एक नई शैली में कार्यक्रम प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का आरम्भ श्रीमती मानोशी चटर्जी ने सरस्वती वन्दना और एक सरस्वती भजन से किया। डॉ. शैलजा सक्सेना ने श्री रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ की कविता ‘हिन्दी की जय-जयकार करें’ का पाठ किया और हिन्दी राइटर्स गिल्ड का संक्षिप्त परिचय एवं पिछले वर्ष की गतिविधियों का विवरण प्रस्तुत किया। शैलजा ने इस कार्यक्रम को सफल बनाने में सहयोग देने के लिए शारिका फाउन्डेशन, विद्याभूषण धर, राजस्थान एसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका के सक्रिय सदस्य महेन्द्र भण्डारी का धन्यवाद दिया। इस अवसर पर मीडिया का धयवाद करते हुए उन्होंने विशेष रूप से हिन्दी टाइम्स, अपना रेडियो बॉलीवुड बीट्स, स्टार बज्ज और संगीत रेडियो प्रोग्राम का धन्यवाद दिया। शैलजा ने टाइम्स और अपना रेडियो बालीवुड्स बीट्स के प्रकाशक और प्रेसीडेन्ट राकेश तिवारी जी के हिन्दी प्रेम की चर्चा करते हुए कहा कि उन्होंने अपने समाचार पत्र और रेडियो कार्यक्रम में हिन्दी राइटर्स गिल्ड को इतना अधिकार दे रखा है कि अब हमें यह उनका कम, हमारा अधिक लगता है। डॉ. शैलजा ने ब्रैम्पटन लाइब्रेरी, ट्र्लिियन फाउन्डेशन का भी उनके सहयोग के लिए धन्यवाद किया।
   डॉ. शैलजा ने कार्यक्रम में आमंत्रित गणमान्य अतिथियों का परिचय दिया तथा उन्हें मंच पर बुलाकर उनका स्वागत किया। उन्होंने राजस्थान एसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका के अध्यक्ष श्री योगेश शर्मा के हिन्दी प्रेम व योगदान की चर्चा की। इंडो-कैनेडा चैम्बर ऑफ कामर्स के अध्यक्ष श्री सतीश ठक्कर ने भूमण्डलीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी के महत्व की चर्चा अपने हिन्दी में दिये भाषण में की। भारत से आये सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री रामेश्वर काम्बोज हिमान्शु जी ने कैनेडा में अपनी भाषा और संस्कृति से तुड़े रहने के प्रयत्नों की प्रशंसा की। इस अवसर पर सुश्री दीपिका दामेरला, सुश्री चरणदासी आदि ने भी हिन्दी राइटर्स गिल्ड के प्रयासों की प्रशंसा की।
   श्रीमती लता पांडे के संचालन में कार्यक्रम के अगले चरण में श्रीमती आशा बर्मन के काव्य संकलन ‘कही-अनकही’, डॉ. रेणुका शर्मा के का और श्रीमती व्य संकलन ‘एक धुला आसमान’ और श्री जसवीर कालरवी के पंजाबी उपन्यास ‘अमृत’ के हिन्दी अनुवाद का लोकार्पण हुआ। तत्पश्चात श्रीमती आशा बर्मन, स. जसबीर कालरवी मानोशी चटर्जी ने काव्य पाठ किया। द्वितीय चरण में कैनेडा की प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत गायिका श्रीमती रमणीक सिंह ने एक घंटे तक विभिन्न विधाओं में अपनी कलाओं का प्रदर्शन किया। कार्यक्रम का अन्त श्री विजय विक्रान्त ने घन्यवाद ज्ञापन के साथ किया। सभी प्रायोजकों का धन्यवाद करते हुए उन्हांने टी.वी. मीडिया में ऑमनी टी.वी., रॉजर्स और एटीएन का कवरेज के लिए धन्यवाद किया। (समाचार सौजन्य : हिंदी टाइम्स एवं  श्री रामेश्वर काम्बोज हिमान्शु)

 

 

 

सरस्वती सुमन के मुरुक विशेषांक एवं हाइकु कृतियों का लोकार्पण, परिचर्चा एवं हाइकु-सम्मेलन
    गत् 13 नवम्बर, 2011 को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के निराला सभागार में ‘वैदिक क्रान्ति परिषद्’, देहरादून के सौजन्य से कृतियों का लोकार्पण, परिचर्चा एवं हाइकु-सम्मेलन सम्पन्न हुआ, जिसका कुशल संचालन करते हुए जितेन्द्र जौहर ने सभी उपस्थित अतिथियों एवं श्रोताओं का अभिनन्दन किया तथा मंचासीन अतिथियों को बैज लगवाकर उनका स्वागत किया। सर्वप्रथम अध्यक्ष डॉ0 कुँअर बेचैन, मुख्य अतिथि डॉ0 आनन्द सुमन सिंह ने दीप-प्रज्वलन किया तथा डॉ0 मिथिलेश दीक्षित, डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव, डॉ0 विद्याविन्दु सिंह, डॉ0 रेखा व्यास ने माँ सरस्वती को पुष्पार्पण किया।   डॉ0 आनन्द सुमन सिंह ने समारोह की प्रासंगिकता के विषय में अपने विचार व्यक्त किये तथा विषय-प्रवर्तन करते हुए कहा कि साहित्य जीवन और समाज का अंकन करने वाला एक बड़ा माध्यम होता है। आज का यह समारोह एक साथ तीन आयामों को समायोजित किये हुए है। एक साथ ही एक पत्रिका एवं सात पुस्तकों का लोकार्पण एक बड़े मंच से होना साहित्य के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि है। इसके लिए उन्होंने ‘सरस्वती सुमन’ के अतिथि सम्पादक जितेन्द्र जौहर तथा पुस्तकों की लेखिका डॉ0 मिथिलेश दीक्षित को बधाई दी।
    समारोह के प्रथम सत्र में ‘सरस्वती सुमन’ पत्रिका के मुक्तक-विशेषांक का लोकार्पण डॉ0 मिथिलेश दीक्षित एवं डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव के द्वारा तथा डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ‘डॉ0 मिथिलेश दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता’ का लोकार्पण डॉ0 आनन्द सुमन सिंह द्वारा किया गया। डॉ0 दीक्षित के हाइकु-संग्रहों ‘सदी के प्रथम दशक का हिन्दी हाइकु-काव्य’, ‘परिसंवाद’, ‘एक पल के लिए’, ‘अमर बेल’, ‘लहरों पर धूप’, ‘आशा के बीज’ का लोकार्पण डॉ0 कुँअर बेचैन, कमलेश भट्ट ‘कमल’, राजेन्द्र परदेसी, डॉ0 सुरेश उजाला, डॉ0 विद्याविन्दु सिंह, डॉ0 रेखा व्यास आदि के द्वारा किया गया।
    डॉ0 आनन्द सुमन सिह के सम्पादकत्व में देहरादून से प्रकाशित होने वाली प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती सुमन’ के मुक्तक विशेषांक के अतिथि सम्पादक जितेन्द्र जौहर ने इस लोकार्पित विशेषांक का समग्रता के साथ, संक्षेप में परिचय प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि यह विशेषांक काव्य-साहित्य में अनेक दृष्टिकोणों से बहुत उपयोगी है। निश्चित ही, इसकी भूमिका हिन्दी साहित्य में स्थायी महत्व प्राप्त करेगी। डॉ0 आनन्द सुमन सिंह ने डॉ0 मिथिलेश दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता पर आधारित डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित ग्रन्थ को हाइकु-काव्य का विशिष्ट और श्रमसाध्य प्रदेय बताया। डॉ0 मिथिलेश दीक्षित द्वारा रचित और सम्पादित हाइकु-पुस्तकों के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि डॉ0 दीक्षित ने हाइकु कविता के द्वारा मानवीय मूल्यों के प्रतिष्ठापन एवं परिवर्द्धन के लिए एक सार्थक रचनात्मक अभियान चलाकर अपनी भाषा, अपने साहित्य और अपने देश का गौरव बढ़ाया है। डॉ0 विद्याविन्दु सिंह ने कहा कि रचना वही सराहनीय होती है, जो शाश्वत जीवन-मूल्यों को लेकर चले, जिसमें समसामयिक यथार्थबोध हो और वह कालजयी हो। डॉ0 मिथिलेश दीक्षित का हाइकु-साहित्य इसी प्रकार का है। उनके हाइकु में कथन की सहज सम्प्रेषणीयता के साथ, अनुभूति की गहराई भी है। भाव पक्ष की भाँति उनका शिल्पपक्ष भी ललित है। डॉ0 दीक्षित का हाइकु-साहित्य एक अच्छी कोशिश है समसामयिक यथार्थ की प्रस्तुति का, संघर्षों में जूझते हारे-थके मनों में आशा, आस्था और विश्वास की लौ जगाने का। उन्होंने हाइकु-संकलन ‘अमरबेल’ की चर्चा की। डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव ने ‘सरस्वती-सुमन’ के सम्पादक एवं अतिथि सम्पादक को मुक्तक-विशेषांक हेतु बधाई दी और साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में इसे मील का पत्थर बताया। साथ ही डॉ0 मिथिलेश दीक्षित के हाइकु-साक्षात्कार-ग्रन्थ ‘परिसंवाद’ को देश का प्रथम हाइकु-साक्षात्कार-ग्रन्थ बताया और प्रशंसा की।  डॉ0 रेखा व्यास ने ‘एक पल के लिए’ हाइकु-संकलन को जीवन्त और सोद्देश्य हाइकु-कविताओं का संकलन बताते हुए कहा कि इन कविताओं में मानव की विविध अवस्थाओं और संवेदनाओं का चित्रण है। यह संकलन कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण और पठनीय संकलन है। प्रीति एम0 शाह ने ‘लहरों पर धूप’ के सन्दर्भ में कहा कि अनन्य शब्द-साधना के बल पर डॉ0 दीक्षित ने प्रकृति-सौन्दर्य, दार्शनिकता, ईश्वर में आस्था, सामाजिक-चेतना जैसे विविध विषयों को हाइकु कविता में सजाकर-पिरोकर अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। डॉ0 कुँवर बेचैन ने ‘सदी के प्रथम दशक का हिन्दी हाइकु काव्य’ को हाइकु-कविता-यात्रा का श्रेष्ठ सम्पादित ग्रन्थ बताया तथा कमलेश भट्ट ‘कमल’ ने अनेक हाइकु-संकलनों को प्रस्तुत करने वाली डॉ0 मिथिलेश दीक्षित की सराहना करते हुए कहा कि उन्होंने हाइकु-काव्य को अपनी विविधमुखी रचनाधर्मिता से समृद्ध किया है। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक समीक्षकों की भी समीक्षाएँ उपलब्ध हुईं, जिनमें डॉ0 अमिता दुबे, डॉ0 निशा गहलौत, प्रतिमा अवस्थी, डॉ0 चन्द्रेश्वर,   डॉ0 रश्मिशील, डॉ0 सन्तलाल विश्वकर्मा, राजेन्द्र परदेसी, हरिश्चन्द्र शाक्य, विजय तन्हा, डॉ0 सुरेश उजाला, यतीश चतुर्वेदी, विजय प्रकाश मिश्रा, प्रदीप श्रीवास्तव, डॉ0 कामिनी सिंह, जितेन्द्र जौहर, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, नीलमेन्दु सागर, विजय चतुर्वेदी आदि विद्वानों की समीक्षाएँ प्रमुख हैं।
इसी सत्र में ‘डॉ0 मिथिलेश दीक्षित के हाइकु-काव्य के विविध आयाम’ विषय पर एक वृहद परिचर्चा सम्पन्न हुई, जिसमें साहित्य, दूरदर्शन एवं पत्रकारिता से सम्बन्धित देश के अनेक प्रमुख विद्वानों ने डॉ0 दीक्षित के काव्य के अनेक जीवन्त पक्षों पर अपने-अपने विचार व्यक्त किये।
मुख्य अतिथि डॉ0 आनन्द सुमन सिंह ने डॉ0 दीक्षित के समग्र रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न डॉ0 मिथिलेश दीक्षित मानवीय मूल्यों से समन्वित साहित्य का सृजन, प्रचार और प्रसार करने वाली भारत की एक प्रमुख महिला साहित्यकार हैं। आपकी बहुआयामी रचनाधर्मिता ने हिन्दी साहित्य के अनेक आयामों को समृद्ध किया है। जिस प्रकार निबन्ध और समीक्षा के क्षेत्र में आपकी प्रसिद्धि है, उसी प्रकार काव्य के क्षेत्र में हाइकुकार एवं क्षणिकाकार के रूप में आप एक प्रमुख और सशक्त हस्ताक्षर हैं। विजय प्रकाश मिश्र ने बताया कि डॉ0 मिथिलेश दीक्षित की रचनाएँ संवेदन की उच्चतर भावभूमि की रचनाएँ हैं। कभी-कभी लगता है कि इनमें वर्ड्सवर्थ एवं टी0एस0 इलियट के काव्य-सौष्ठव की आँच महसूस होती है। साथ ही वे तर्क और दर्शन के ऊँचे पैरामीटर को छूती नज़र आती हैं और जीवन के हर पहलू में अर्थपूर्ण सामंजस्य स्थापित करती हैं। प्रीति एम0 शाह ने उनके हाइकु की प्रासंगिकता और उपयोगिता के बारे में कहा कि डॉ0 दीक्षित का परिचय इतना विस्तृत एवं ओजस्वी है, जितना इनका हिन्दी एवं संस्कृत भाषा के प्रति लगाव एवं मनन उनकी इस साधना से आज की जल्दी बात कहने समझने वाली पीढ़ी अवश्य ही लाभान्वित होगी। प्रदीप श्रीवास्तव ने स्पष्ट किया कि डॉ0 दीक्षित के साहित्य को किसी खाँचे में नहीं रखा जा सकता। पिछले कई दशक से विपुल साहित्य सृजित करती आ रहीं मिथिलेश जी की रचनाएँ करूणा के भाव को उसके चरम तक ले जाती हैं। वे समाज के अन्तिम व्यक्ति तक के होठों पर संतुष्टि की मुस्कान देखना चाहती हैं। हिन्दी साहित्य मंे हाइकु को स्थापित करने वाले साहित्य-शिल्पियों में शुमार मिथिलेश जी वास्तव में, हाइकु का जैसा विशाल संसार रचती आ रही हैं, वह किसी साधक के ही वश का है। डॉ0 निशा गहलौत ने   डॉ0 दीक्षित के प्रकृति-चित्रण के सन्दर्भ में कहा कि उनके हाइकु में विषय की ऊँचाई के साथ-साथ मानवीय चेतना का जीवन्त उत्कर्ष दृष्टिगत होता है। अर्थगत सादगी का आभास देने वाले मिथिलेश जी के कितने ही हाइकु दार्शनिक-आध्यात्मिक भावबोध को समाहित किये हुए हैं, इसीलिए उनका कविता-संसार निर्दोष कंचन सा निखरकर सामने आता है।  डॉ0 विद्या विन्दु सिंह ने अपने विचार   डॉ0 दीक्षित की पुस्तक ‘अमर बेल’ के सम्बन्ध में प्रेषित किये कि इसमें संकलित हाइकु प्रकृति विषयक अनेक आयामों का निदर्शन करते हैं तथा सुन्दर शिल्प के साथ महान् प्रयोजन को संकेतित करते हैं। पूरा संकलन प्रकृति एवं पर्यावरण की संरक्षा पर केंद्रित हैं। सुन्दर कथ्य के कारण शिल्प में भी लयात्मक सौष्ठव स्वाभाविक रूप से आ गया है। डॉ0 अमिता दुबे ने उनकी ‘लहरों पर धूप’ पुस्तक पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह संकलन विविधता से युक्त सहज सम्प्रेषणीय भावों से ओतप्रोत सीधी-सच्ची भाषा में मन को स्पर्श करने वाला आनन्द देने वाला और कहीं-कहीं कुछ गंभीरता से सोचने को विवश करने वाला है। दिल्ली दूरदर्शन की निदेशक डॉ0 रेखा व्यास ने उनकी सार्थक, साभिप्राय, जीवन्त हाइकु-कविताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि शाश्वत जीवन के महान् लक्ष्य को भी क्षण की तीव्र अनुभूति के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।  डॉ0 दीक्षित का ‘एक पल के लिए’ हाइकु-संकलन का यह भी एक प्रयोजन है। राजेन्द्र परदेसी ने डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव के द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ‘डॉ0 मिथिलेश दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता’ पर प्रकाश डालते हुए डॉ0 दीक्षित के समग्र चिन्तन पर बात की। उन्होंने कहा कि सामान्य जन-जीवन से जुड़े होने के कारण ही डॉ0 दीक्षित ने साहित्य-जगत् में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। हाइकु के क्षेत्र में उन्होंने अन्य अनेक हाइकुकारों को भी जोड़ने का प्रयास किया है। डॉ0 दीक्षित अपने को भीड़ का ही एक हिस्सा मानने वाली ऐसी मानवतावादी रचनाकार हैं, जिन्होंने सदैव शाश्वत मूल्यों के अभिरक्षण के लिए लड़ाई लड़ी है। डॉ0 चन्द्रेश्वर ने अपना आलेख प्रेषित किया जिसमें डॉ0 दीक्षित के हाइकु के सम्बन्ध में उनका कहना है कि ये हाइकु एक साथ प्रेम, प्रकृति, पर्यावरण, अध्यात्म एवं सामाजिक विमर्श लेकर चलते हैं। डॉ0 दीक्षित के इस चित्रण में एक विरल सन्तुलन एवं सामंजस्य परिलक्षित होता है। यह इसलिए भी कि उनकी कविताओं का धरातल नैतिकता से निर्मित हुआ है और इसे परम्परा से अर्जित करने में वे कमाल का हुनर रखती हैं। डॉ0 सुरेश उजाला ने डॉ0 दीक्षित की हाइकु-कविताओं के सामाजिक पक्ष पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उनकी हाइकु कविताएँ समाज के सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। डॉ0 सन्तलाल विश्वकर्मा ने डॉ0 दीक्षित की हाइकु काव्य-रचनाओं में कथ्य और शिल्प के सौंदर्य पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। डॉ0 रश्मि शील ने  डॉ0 दीक्षित के हाइकुओं में उनकी व्यापक दृष्टि और समग्र बोध के विषय में कहते हुए स्पष्ट किया कि इन रचनाओं में ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की त्रिवेणी सर्वत्र प्रवाहित है, जिसमें उदात्त आकर्षण और शैल्पिक सौन्दर्य है। जितेन्द्र जौहर ने भीड़ से अलग श्रेष्ठ चिन्तन प्रधान सृजन को समर्पित डॉ0 मिथिलेश दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता को अप्रतिम और उत्कृष्ट बताते हुए कहा कि गुरू-गम्भीर-सूक्ष्म चिन्तन की चन्द्रिका उनके हाइकु के सृजन के चारो ओर धवल आभा-मण्डल का निर्माण कर देती है, जिसकी प्रभावपरिधि में आकर रसज्ञ पाठक के मुँह से अनायास निकल पड़ता है-यह हुई न बात। यतीश चतुर्वेदी ने डॉ0 दीक्षित के संकलन ‘आशा के बीज’ के बारे में बताया कि डॉ0 दीक्षित का बिम्ब-विधान आन्तरिक सौन्दर्य को भी उद्घाटित करता है। सृष्टि की अखण्ड व्यवस्था और उसके आन्तरिक सौन्दर्य की भी इन हाइकु-कविताओं में अभिव्यक्ति है। संग्रह के प्रकृतिपरक हाइकु अत्यन्त सजीव और प्रभावोत्पादक हैं। लगता है, मानो प्रकृति के सम्पूर्ण फलक को हाइकु में समेटकर गागर में पूरा सागर भर दिया गया है। उन्होंने डॉ0 दीक्षित के ‘परिसंवाद’ ग्रन्थ के सम्बन्ध में कहा कि इस ग्रन्थ में विभिन्न विद्वानों के साक्षात्कारों द्वारा हाइकु कविता के उद्भव, स्वरूप, विकास, कथ्य, शिल्प, लोकप्रियता एवं सम्भावनाओं पर पर्याप्त विवेचना की गयी है।
डॉ0 मिथिलेश दीक्षित ने स्वयं भी हाइकु के संदर्भ में बताया कि यह क्षण-विशेष की कविता नहीं है। वस्तुतः यह एक निश्चित फॅार्मेट में गहन और तीव्र भाव-बोध की कविता है, जो रचनाकार से साधना की माँग करती है। यदि साधक चाहे, तो इसमें चिरन्तन और सौर्वभौम सत्य का उद्घाटन कर सकता है। इनके अतिरिक्त डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव, डॉ0 कुँअर बेचैन, प्रतिमा अवस्थाी, डॉ0 कमलेश भट्ट ‘कमल’ आदि अनेक विद्वानों ने डॉ0 दीक्षित के हाइकु साहित्य पर पर्याप्त प्रकाश डाला।
    कृतियों का लोकार्पण, परिचर्चा एवं हाइकु-सम्मेलन के द्वितीय सत्र में हाइकु-सम्मेलन सम्पन्न हुआ, जिसमें देश के अनेक हाइकुकारों ने अपने हाइकु प्रस्तुत किये। प्रकृति, पर्यावरण, समसमायिकता, शिक्षा, साहित्य, राजनीति, दर्शन, अध्यात्म आदि अनेक विषयों पर हाइकु, हाइकु-मुक्तक, हाइकु-दोहे और हाइकु-रूबाई प्रस्तुत किये गये। इस सम्मेलन में सहभागी रचनाकारों में प्रमुख थे- धन सिंह खोबा ‘सुधाकर’, डॉ0 कुँअर बेचैन, कमलेश भट्ट ‘कमल’, डॉ0 मिथिलेश दीक्षित, डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव, यतीश चतुर्वेदी, जितेन्द्र जौहर, डॉ0 मिर्ज़ा हसन नासिर, डॉ0 सन्तलाल विश्वकर्मा, आर0पी0 शुक्ला, डॉ0 सुरेश उजाला,  डॉ0 डंडा लखनवी, हरिश्चन्द्र शाक्य, विजय तन्हा, डॉ0 विद्याविन्दु सिंह, राजेन्द्र वर्मा, राजेन्द्र परदेसी, डॉ0 करूणेश प्रकाश, महावीर प्रसाद ‘रज’ आदि।
इनके अतिरिक्त उपस्थित हाइकुकारों में राजेन्द्र कृष्ण श्रीवास्तव, डॉ0 रेखा व्यास, डॉ0 रश्मि शील, डॉ0 पल्लवी आदि हाइकुकारों ने भी अपने हाइकु उपलब्ध कराये। डॉ0 कुँवर बेचैन ने अध्यक्षता करते हुए हाइकु-कविता के वर्तमान स्वरूप पर प्रकाश डाला और इस सम्मेलन की वर्तमान साहित्य के क्षेत्र में उपादेयता का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि यह भारत का एक वृहद् हाइकु-सम्मेलन है, जिसका भविष्य में महत्व आँका जायेगा। हाइकु सम्मेलन की संयोजक डॉ0 मिथिलेश दीक्षित ने तथा संचालक जितेद्र जौहर ने मंचासीन और उपस्थित श्रोतागण के प्रति आभार व्यक्त किया। अन्त में सभी सत्रों में उपस्थित अतिथियों एवं उपस्थित श्रोताओं के प्रति प्रदीप श्रीवास्तव ने संयोजक राजेन्द्र परदेसी, यतीश चतुर्वेदी, विजय प्रकाश मिश्रा की ओर से कृतज्ञता अर्पित की।
    इस समारोह में बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार, समाजसेवी, शिक्षाविद्, दूरदर्शन से जुड़े लोगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी। इस समारोह की भव्यता, उपादेयता एवं सफलता के सम्बन्ध में लगभग पाँच दर्ज़न श्रोताओं ने अपनी उत्कृष्ट प्रतिक्रिया (कमेंट्स) को भी अंकित किया।


( प्रस्तुति-राजेन्द्र परदेसी, भारतीय पब्लिक अकादमी, चांदन रोड, फरीदी नगर, लखनऊ-226015, मो0-09415045584 )
 

 

गोवा में मिला ‘हम सब साथ साथ’ के सदस्यों को सम्मान

 

कर्नाटक की प्रसिद्ध शैक्षिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संस्था शिक्षक विकास परिषद ने ज्ञानदीप मंडल एवं शिक्षक विकास प्रतिष्ठान के साथ मिलकर गोवा में 17वें राष्ट्रीय शैक्षिक सम्मेलन का 2 दिवसीय आयोजन किया। इस आयोजन की मुख्य अतिथि थीं दिल्ली निवासी प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. राज बुद्धिराजा। अन्य विशिष्ट अतिथियों में सर्वश्री पांडुरंग नाइक, मोहन नाइक, डॉ दिवाकर गौर, विजय पंडित,  डॉ. विजयेन्द्र शर्मा, डॉ. आर. एल. शिवहरे आदि शामिल रहे। सम्मेलन के पहले दिन उद्घाटन सत्र में अनेक वक्ताओं ने अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए। संस्था के अध्यक्ष श्री आर. वी. कुलकर्णी ने अतिथियों का स्वागत करते हुए संस्था की गतिविधियों का परिचय दिया। इस सम्मेलन में कला प्रदर्शनी, शैक्षिक विचार-विमर्श एवं विभिन्न सांस्कृतिक व साहित्यिक कार्यक्रमों का सुदर व भव्य आयोजन किया गया। इसमें ढेर सारे स्कूली बच्चों ने भी भाग लिया।

सम्मेलन के विभिन्न सत्रों में देश के दूर दराज क्षेत्रों से पधारी विभिन्न साहित्यिक, सामाजिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक क्षेत्र की अनेक प्रतिभाओं को राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय सम्मान भी प्रदान किया गया। इसमें जहाँ लाइफ टाइम अचीवमेंट राष्ट्रीय अवार्ड से डॉ. राज बुद्धिराजा को सम्मानित किया गया वहीं हम सब साथ साथ के सदस्यों सर्वश्री अखिलेश द्धिवेदी अकेला (दिल्ली) व डॉ. जगदीश चंद्र शर्मा (राजस्थान) को राष्ट्रीय साहित्य भूषण तथा डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़ (गुजरात) को राष्ट्रीय शिक्षक भूषण अवार्ड से सम्मानित किया गया। सम्मेलन के दौरान हम सब साथ साथ के सदस्यों सर्वश्री  नमिता राकेश (फरीदाबाद) व किशोर श्रीवास्तव ( दिल्ली ) को भी विशेष सम्मान प्रदान किया गया।
  ( रपटः इरफान सैफी राही, नई दिल्ली)

 

बुधवार, 16 नवंबर 2011

50. श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी

श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी

 
 


जन्म : 30 नवम्बर 1940 ग्राम चुरियानी, फतेहपुर, उ.प्र. में।
शिक्षा : हिन्दी, अंग्रेजी एवं गणित जैसे तीन महत्वपूर्ण बिषयों में परास्नातक हैं। साथ ही आपको गांधी साहित्य की शोध उपाधि भी प्राप्त है। लेखन/प्रकाशन/योगदान: हिन्दी की प्रायः सभी विधाओं में लेखन। गाँधी जी का गाँवों पर प्रभाव (शोध प्रबन्ध), वापसी तथा मकान(उपन्यास), केंचुल (कहानी संग्रह), तुलसी: सन्दर्भो में (समीक्षा), पुराना कलेन्डर व संड़क के पंछी (ललित निबन्ध), साहित्य और समय (संस्मरण और समीक्षा), राष्ट्रीय अंत्याक्षरी, बड़ा मूर्ख कौन एवं दि ग्रीन सहारा (बाल साहित्य) आदि आपके प्रमुख प्रकाशित ग्रन्थ हैं। श्री त्रिवेदी जी ने भारत के साथ-साथ विदेश में भी अध्यापन कार्य किया है। पिछले लगभग पचपन वर्षों से अनवरत एवं समर्पित भाव से साहित्य साधना में रत हैं।
सम्पर्क :  द्वीपान्तर, लाल बहादुर शास्त्री मार्ग, फतेहपुर-212601 (उ0प्र0)
फोन :  05180-222828
ई मेल :  sktrivedimailcox@gmail.com

                    


अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप :  सितम्बर-दिसंबर २०१० अंक मेंएक नवगीत
 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : अभी कोई नहीं 



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे
 

49. डॉ. विद्याभूषण

डॉ. विद्याभूषण

 
जन्म : 05.09.1940।
शिक्षा : पी-एच.डी. तक।
लेखन/प्रकाशन/योगदान : अध्यापन, व्यवसाय, खेती, पत्रकारिता आदि के क्षेत्रों में भरपूर योगदान के बाद समाज, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्रों में दिशाखोजी गतिविधियों के मध्य सृजन और विचार की शब्द-यात्रा जारी। क्रमशः, अभिज्ञान, प्रसंग एवं वर्तमान संदर्भ जैसी पत्रिकाओं के साथ कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का सम्पादन कर चुके आद0 विद्याभूषण जी की कविता (सिर्फ सोलह सफे, अतिपूर्वा, सीढ़ियों पै धूप, इंधन चुनते हुए, आग के आसपास,  इंधन और आग के बीच, बीस सुरों की सदी, पठार को सुनो), गीत (मन एक जंगल है, लब पर लय की लौ, एक्सप्रेशन), कहानी (कोरस, कोरस वाली गली, नायाब नर्सरी), नाटक, आलोचना एवं समाज दर्शन पर लगभग डेढ़ दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। आपकी रचनाओं का गुजराती, तेलगू, कुडुख और नागपुरी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। दैनिक देशप्राण एवं झारखंड जागरण के सम्पादन से भी सम्बद्ध रहे हैं।
सम्पर्क : प्रतिमान प्रकाशन, शिवशक्ति लेन, किशोरगंज, हरमू पथ, रांची-834001 (झार0)
फोन : 09955161422
ई मेल : vidhybhushan@gmail.com
                    

अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप :  सितम्बर-दिसंबर  २०१० अंक मेंएक कविता 'अगले गणतंत्र का मंत्र' एवं एक नवगीत 'एक अंजुरी जल'
 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : अक्टूबर २०११ अंक में सात व्यंग्य दोहे



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे
 

48. मुनव्वर राना

मुनव्वर राना


जन्म : 26.11.1952, रायबरेली, उ.प्र. में।
लेखन/प्रकाशन/योगदान : मशहूर एवं प्रतिष्ठित शायर आदरणीय मुनव्वर राना जी मूलतः रायबरेली (उ0प्र0) के रहने वाले हैं, परन्तु उनका काफी समय कोलकाता में बीता है। शायरी में उनका अपना एक अलग स्थान है। आरम्भ में मुनव्वर अली आतिश नाम से लिखते थे पर वाली आसी साहब ने उन्हें बना दिया मुनव्वर राना। अपनी जबान और अपनी मिट्टी उनके जेहन में गहरे तक रची बसी है, पर वह आलोचना को नहीं मानते। माँ, पीपल छाँव, बदन सराय, सब उसके लिए, ग़ज़ल गाँव, नीम के फूल, घर अकेला हो गया, कहो जिल्ले इलाही से, बग़ैर नक्शे का मकान, फिर कबीर, नए मौसम के फूल आदि उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं। रचनाएँ हिन्दी, बंगला, उर्दू सहित कई भाषाओं में उपलब्ध। अपना स्वतन्त्र ब्लाग (http://munawwar-rana.blogspot.com)।
सम्मान : मीर ताकी मीर पुरस्कार से सम्मानित।
सम्पर्क : 12, बोलाई दत्त स्ट्रीट, कोलकाता-73 (पश्चिम बंगाल)
फोन : 09415020167 



अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप : सितम्बर-दिसंबर २०१० अंक मेंएक ग़ज़ल 
 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : अभी कोई नहीं 



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे
 

47. अशोक भाटिया

अशोक भाटिया




जन्म : 5 जनवरी 1955 को अम्बाला छावनी (हरियाणा) में।
शिक्षा : हिन्दी में पी-एच. डी.।
लेखन/प्रकाशन/योगदान  : यद्यपि कविता एवं शोध-समालोचना में भी भाटिया जी का असरदार दखल रहा है, पर वह मूलतः लघुकथाकार के रूप में पहचाने जाते हैं। वह लघुकथा के विकासकाल के उन प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं, जिनका योगदान अलग से पहचाना जा सकता है। उनकी 16 में से 7 पुस्तकें लघुकथा पर हैं। इनमें ‘श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएं’, ‘पैंसठ हिन्दी लघुकथाएं’, ‘निर्वाचित लघुकथाएं’, ‘विश्व साहित्य से लघुकथाएं’ एवं ‘नींव के नायक’ महत्वपूर्ण सम्पादित पुस्तकें हैं। ‘जंगल में आदमी’ एवं ‘अंधेरे में आँख’ उनके निजी लघुकथा-संग्रह हैं। उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकों में ‘समकालीन हिन्दी समीक्षा’, ‘समकालीन हिन्दी कहानी का इतिहास’, एवं ‘सूखे में यात्रा’ (कविता संग्रह) महत्वपूर्ण हैं।  महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से भाटिया जी की रचनाओं का प्रसारण भी हुआ है। लघुकथा पर भाटिया जी के एक दर्जन से अधिक समालोचनात्मक एवं खोजपरक लेख चर्चा में रहे हैं। उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण साहित्यकारों के साक्षात्कारों के माध्यम से भी लघुकथा से जुड़े प्रश्नों का समाधान खोजने का प्रयास किया है। उनको लघुकथा में योगदान के लिए कई महत्वपूर्ण सम्मानों से भी नवाजा गया है।
सम्प्रति :  राजकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक।
सम्मान :  डॉ. नागेन्द्र प्रसाद सिंह लघुकथा आलोचना शिखर सम्मान आदि सम्मान 
सम्पर्क : 1882, सैक्टर-13, करनाल-132001 (हरियाणा)
फोन : 0184-२२१०२०२ / ०९४१६१५२१०० 

                    

अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप : सितम्बर-दिसंबर  २०१० अंक में छ: लघुकथाएं- परमपिता, लकीरें, भूख, बाबे नानक दा  घर, प्रतिक्रिया, बेपर्दा 
                           जून २०११ अंक में एक क्षणिका 


 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : अभी कोई नहीं 



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे
 

46. हलीम आइना

हलीम आइना


जन्म : 6 मई 1966 ।
शिक्षा : हिन्दी में स्नातकोत्तर तथा फिल्म कथ-पटकथा पाठ्यक्रम।
लेखन/प्रकाशन/योगदान :  देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, वेब साइटों एवं संकलनों में प्रकाशन। आकाशवाणी-दूरदर्शन पर प्रसारण। कवि सम्मेलनों में सहभागिता। अंसारी दर्पण-2010 एवं मोमिन इण्डिया-2010 का सम्पादन। अन्सारी वेलफेयर सोसायटी के संस्थापक-समन्वयक। श्री भारतेन्दु समिति, विकल्प जनसांस्कृतिक मंच एवं काव्य मधुबन, अम्बेडकर सेवा समिति आदि संस्थाओं से भी सम्बद्ध।
सम्मान : राजस्थान सरकार के पर्यावरण विभाग सहित विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
सम्पर्क  :  ‘मुईन कुटी’, निकट बी0 एड0 कालेज, सकतपुरा, कोटा-324008 (राज0)
फोन : 09460006542

                    

अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप :  जून २०१० अंक में चार व्यंग्य हाइकु

 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : अभी कोई नहीं 



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे
 

45. दिनेश रस्तोगी

दिनेश रस्तोगी
लेखन : मूलतः कवि।
सम्प्रति : प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृति के बाद स्वतन्त्र लेखन।
सम्पर्क : निधि निलयम्, 8-बी, अभिरूप, साउथ सिटी, शाहजहांपुर-242226 (उ0प्र0)
फोन : 09450414473
                    


अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप :  जून २०१० अंक में पांच  दोहे

 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : अभी कोई नहीं 



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे
 

44. अशोक अंजुम

अशोक अंजुम 

 

लेखन/प्रकाशन/योगदान :  चर्चित कवि ,व्यंग्यकार एवं लघुकथाकार। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। पांच ग़ज़ल संग्रह, चार हास्य-व्यंग्य कविता संग्रह, एक गीत संग्रह एवं एक दोहा संग्रह  प्रकाशित पुस्तकें। हास्य-व्यंग्य, ग़ज़ल, गीत, दोहा एवं लघुकथा पर लगभग दो दर्जन पुस्तकों एवं ‘अभिनव प्रयास’ काव्य त्रैमासिकी का सम्पादन एवं पर्यावरण की द्विमासिक पत्रिका ‘हमरी धरती’ के सलाहकार सम्पादक।
सम्मान :  ‘स्व. प्रभात शंकर स्मृति सम्मान’ सहित कई सम्मानों से विभूषित।
सम्पर्क :  615, ट्रक गेट, कासिमपुर (पा0हा0), अलीगढ़ (उ0प्र0)
फोन : 09258779744 / 09358218907

                    

अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप :   जून २०१० अंक में एक  रचना- बोतल खुल जाने के बाद  
 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : अभी कोई नहीं 



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे
 

43. नारायण सिंह निर्दोष

नारायण सिंह निर्दोष





जन्म  :  15 फरवरी 1958, कुकथला (आगरा)।
लेखन/प्रकाशन/योगदान :  मूलतः कवि। कविता, गीत एवं ग़ज़ल के साथ-साथ चित्रकारी में भी कुछ येगदान किया। निर्दोष जी पिछली सदी के आठवें-नौवें दशक में उभरे कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक। तब नई कविता में प्रयोगधर्मिता और आगरा शहर में अपनी विशिष्ट सक्रियता के लिए चर्चित रहे, जिसके चलते कई नये व युवा रचनाकारों को न सिर्फ प्लेटफार्म मिला अपितु उनका मार्गदर्शन भी हुआ। आगरा में उसी दौरान शारदा साहित्य एवं ललित कला मंच की स्थापना की, जिसके तत्वावधान में अनेकों कार्यक्रम आयोजित हुए। चर्चित ‘तरुणिका’ एवं ‘धूप एक बरामदे की’ कविता संकलनों के सम्पादन-प्रकाशन के माध्यम से कई उभरते हुए रचनाकारों की प्रतिभा को उजागर किया। एक लम्बी अनुपस्थिति के बाद साहित्य-पटल पर पुनः दृष्टिगोचर। अपना स्वतन्त्र ब्लाग: काव्य कलश (http://kaavyakalash.blogspot.com)।
सम्प्रति  :  दिल्ली जल बोर्ड में सहायक अभियन्ता।
सम्पर्क :  सी-21, लैह (LEIAH) अपार्टमेन्ट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096
फोन :  011-43050992 / 09810131230
ई मेल :  nsnirdosh@gmail.com

                    

अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप :  मार्च  २०१० अंक में दो  क्षणिकाएं 
                         जून २०१० अंक में चार कवितायेँ- तुम आती हो, अर्ध्य, कटु-भ्रम, मैं बेशरम का पेड़ हूँ
                         मार्च २०११ अंक में दो कवितायेँ- विरोध, कश्मीर
                        जून २०११ अंक में तीन क्षणिकाएं 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : अभी कोई नहीं 



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे
 

42. रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’



जन्म : 19 मार्च 1949, हरिपुर, सहारनपुर में।
शिक्षा  :  हिन्दी में स्नातकोत्तर एवं शिक्षा में स्नातक।
लेखन/प्रकाशन/योगदान  :  वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद हिमांशु जी कविता, हाइकु, तांका, चोका, लघुकथा, व्यंग्य, लघु उपन्यास, बाल साहित्य आदि तमाम विधाओं मे लिखते हैं, लेकिन लघुकथा तथा हाइकु व हाइकु आधारित छन्दों में उनका योगदान विषेष उल्लेखनीय है। शैक्षणिक लेखन एवं सम्पादन भी किया। अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से प्रसारण। माटी, पानी और हवा, अंजुरी भर आसीस, कुकड़ूँ कूँ , हुआ सवेरा (कविता संग्रह), झरना(पोस्टर कविता), मुन्ना और फुलिया (बालकथा हिंदी व अंग्रेजी में), धरती के आँसू, दीपा, दूसरा सवेरा (लघु उपन्यास), असभ्य नगर (लघुकथा-संग्रह), खूँटी पर टँगी आत्मा (व्यंग्य-संग्रह), मेरे सात जनम (हाइकु-संग्रह), झरना, सोनमछरिया, कुआँ (पोस्टर कविता, बच्चों के लिए), भाषा चन्द्रिका (व्याकरण) प्रमुख प्रकाशित कृतियां। रचनायें गुजराती, पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी, सिन्धी, संस्कृत, नेपाली आदि कई भाषाओं में अनूदित। शैक्षणिक एवं साहित्यिक कार्यक्रमों में हिमांशु जी काफी सक्रिय रहे हैं। लघुकथा एवं हिन्दी में हाइकु की विकास यात्रा में आपका सक्रिय योगदान रहा है। आप लघुकथा की एक मात्र समर्पित बेब पत्रिका ’लघुकथा डाट काम’ (www.laghukatha.com) का श्री सुकेश साहनी जी के साथ संयुक्त रूप से सम्पादन कर रहे हैं। हिमांशु जी के द्वारा हाइकु के समर्पित ब्लाग ‘हिन्दी हाइकु’ (hindihaiku.wordpress.com) तथा ‘हाइगा’, ‘तांका ’व ‘चोका’  के समर्पित ब्लाग ‘त्रिवेणी’ (http://trivenni.blogspot.com) का डॉ. हरदीप कौर सन्धु जी के साथ संयुक्त रूप से सम्पादन एवं प्रस्तुति एवं ‘सहज साहित्य’ (http://wwwsamvedan.blogspot.com)ब्लाग की स्वतन्त्र प्रस्तुति भी विशेष उल्लेखनीय है। इन्टरनेट पर कविता कोष, गद्यकोष, अनुभूति आदि कई अन्य प्रमुख बेबसाइटों पर भी उपलब्ध। विदेश में भी कई साहित्यिक आयोजनों में सहभागी रहे। डॉ. भावना कुँअर के साथ संयुक्त रूप में उनके द्वारा सम्पादित हाइकु संकलन ‘चन्दन मन’ एक उल्लेखनीय कृति है। कई अन्य साहित्यिक व शैक्षणिक पुस्तकों का संपादन भी किया बतौर  अतिथि संपादक  अविराम के जून २०११ में प्रकाशित हाइकु विशेषांक का संपादन किया। केन्द्रीय विद्यालय संगठन की बहुत सी परियोजनाओं के संसाधक व निदेशक के रूप में कार्य किया

सम्मान  : परमेश्वर गोयल सम्मान -1998, शरबती देवी स्मृति सम्मान-अक्तुबर 2010, एवं अखिल भारतीय हिन्दी-प्रसार प्रतिष्ठान पटना द्वारा ' लघुकथा रत्न'  सम्मान -दिसम्बर २०१० से विभूषित
सम्प्रति : केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृति के बाद साहित्य-सेवा में समर्पित
संपर्क : 37-बी/02, रोहिणी, सेक्टर-17, नई दिल्ली-110089
फोन :  09313727493
ई मेल : rdkamboj@gmail.com
                    

अविराम में आपकी रचनाओं का प्रकाशन   

मुद्रित प्रारूप : जून २०१० अंक में चार कवितायेँ-  कहाँ गए?,  बेटियों  की मुस्कान, गांव अपना, मैं घर लौटा 
                       सितम्बर-दिसंबर २०१० अंक में चार क्षणिकाएं 
                    जून २०११ अंक में दस हाइकु, चार क्षणिकाएं एवं सम्पादकीय (इस अंक के अतिथि संपादक भी रहे )
                    सितम्बर २०११ अंक में डॉ. सुधा गुप्ता के तांका संग्रह 'सात छेद वाली मैं' की समीक्षा- सात सुरों की सफल साधना
 
ब्लॉग प्रारूप (अविराम विस्तारित) : सितम्बर २०१० अंक में सात हाइकु  



नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगायदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे