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बुधवार, 2 अप्रैल 2014

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 07- 08,  मार्च-अप्रैल 2014


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


छाया चित्र : उमेश महादोषी 
।।सामग्री।।

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सम्पादकीय पृष्ठ सम्पादकीय पृष्ठ } :  नई पोस्ट नहीं। 

अविराम विस्तारित :

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, चमेली जुगरान, भगवानदास जैन, किशन स्वरूप, अशोक अंजुम, शुभदा पाण्डेय, सजीवन मयंक, रमेश चन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, श्याम झँवर ‘श्याम’, अवधेश, कृष्ण कुमार त्रिवेदी, कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} :   इस अंक में प्रताप सिंह सोढ़ी, कमलेश भारतीय, सुधा भार्गव, राधेश्याम ‘भारतीय’, बच्चन लाल बच्चन, वंदना सहाय, वाणी दवे, कृष्ण चन्द्र महादेविया, अजहर हयात, कांता देवांगन, कमलेश चौरसिया, कृष्ण मोहन ‘अम्भोज’, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’, पुष्पा चिले, श्रेयस निसाल, संजय बोरूडे की लघुकथाएं।

कहानी {कथा कहानी} :  नई पोस्ट नहीं।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} :  इस अंक में श्री नित्यानन्द गायेन व सु श्री अनिता ललित जी की क्षणिकाएं।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} : इस अंक में श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के हाइकु व रेखा रोहतगी के कुछ ताँका और एक ताँका कविता।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} : इस अंक में डॉ. ब्रह्मजीत गौतम एवं श्री प्रदीप पराग के जनक छंद।

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम} :  इस अंक में पढ़िए- डॉ.महेन्द्र प्रताप पाण्डेय ‘‘नन्द’’ तथा नरेश कुमार ‘उदास’ बाल कविताएँ नन्हें बाल चित्रकारों सक्षम गम्भीर व स्तुति शर्मा के चित्रों के साथ।

हमारे सरोकार (सरोकार) : नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  इस अंक में ललित नारायण उपाध्याय की व्यंग्य रचना।

संभावना {संभावना}: नई पोस्ट नहीं।

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} : नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श}:   नई पोस्ट नहीं ।

किताबें {किताबें} : इस अंक में डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन "पड़ाव और पड़ताल" की श्री ओम प्रकाश कश्यप द्वारा लिखित समीक्षा। 

लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ}: नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा}: नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ}: पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) : नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} : अविराम साहित्यकी के जनवरी-मार्च 2014 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री / रचनाकारों से सम्बंधित सूचना। 

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) : अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 25  मार्च 2014 तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार}: नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 07- 08,  मार्च-अप्रैल 2014



।।कविता अनवरत।।

सामग्री : इस  अंक में डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, चमेली जुगरान, भगवानदास जैन, किशन स्वरूप, अशोक अंजुम, शुभदा पाण्डेय, सजीवन मयंक, रमेश चन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, श्याम झँवर ‘श्याम’, अवधेश, कृष्ण कुमार त्रिवेदी, कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ की काव्य रचनाएँ। 


डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’



दूर चले आए अपनों से

दूर चले आए अपनों से, जीवन को बेहद उलझाया!
संदेहों को पाला  मन में, विश्वासों  को   ठुकराया!!

प्रश्नों के मरुथल में भटके,
उत्तर खोजे नहीं कभी!
उलझे रहे मीन-मेख में,
सीधी राह न चले कभी!!
तर्कों की राहों पर चल के, भाव का  धन लुटवाया!
संदेहों को पाला  मन में, विश्वासों  को   ठुकराया!!

स्नेह-दीप के उजियारों को,
रेखा चित्र :  बी मोहन नेगी 

अंधियारा  हमने समझा!
गैरों पर नित किया भरोसा,
अपनों को दुश्मन समझा!!
बने गुलाम बुद्धि के हर पल, भावों को खूब रुलाया!
संदेहों को पाला  मन में, विश्वासों  को   ठुकराया!!

आँखों के आँसू तो सूखे,
अधरों पर मुस्कानें ओढ़ी!
कृत्रिमता मन को भाई नित,
सहज भावना हमने छोड़ी!!
घुटघुट कर सो गई भावना, तर्कों को हमने अपनाया!
संदेहों को  पाला  मन में, विश्वासों  को   ठुकराया!!

  • 74/3, न्यू नेहरू नगर, रूड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड) / मोबाइल : 09412070351



चमेली जुगरान




{कवयित्री चमेली जुगरान जी का वर्ष 2011 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’ हमें हाल ही में पढ़ने का सुअवसर मिला। पाठकों के लिए उनके इस संग्रह से पस्तुत हैं उनकी तीन प्रतिनिधि कविताएँ।}

ऐसा तो था प्यार

हम तो चाहते हैं तुम्हें बहुत
बता रहे थे वे-

फिर बात कही कल की
याद कर हँसे खूब।
एक ने कहा-
पता है जब गिर पड़ी थीं तुम
बीच बाजार में
खुल गई थी साड़ी
दूर पड़ी चप्पल
टेढ़ी-मेढ़ी हुई ऐनक
हँसे थे सड़क पर लोग!
रेखा चित्र :  के. रविन्द्र 


बेचारी वृद्धा! दिखाई नहीं देता
घूमने आई हैं।
दूसरे ने ताना मारा

दुबारा हँसे थे घर के लोग
लेकिन इतना सुनकर
रोती रही रात भर इक नन्हीं-सी जान
क्यों न थी मैं वहाँ?
पकड़ती नानी का हाथ
जाहिर है- प्यार होता ही है ऐसा
गिरे कोई तो...
चोट खाता है कोई और!

नाथुला का फौजी
(नाथुला :  तिब्बत से जुड़ी पर्वत चोटी)

सीमान्त प्रदेश की
वो महकती शाम
याद आता है ढलकता सूरज
खिलखिलाती हँसी
खनकती सरकती चूड़ियों की झंकार
रेशमी सरसराते आंचल!

किसी की विदाई
किसी की अगुवाई
युद्ध के मँडराते बादल
फिर भी शाम थी नशीली
जाम थे हाथ में!

घर से दूर खड़ा उदास फौजी
तरसती निगाह फेरे बुदबुदाता
कितने दिनों बाद सुनी
रेखा चित्र : शशिभूषण बड़ोनी 

चूड़ियों की खनक
हँसी की उमड़ती नदी
सुनने को व्याकुल मन
लगा हम घर आ गए!

याद दिलाती हैं ये चूड़ियाँ
ममता भरे संसार की
लाल-पीले दुपट्टे
वो आँगन बिखरती धूप जहाँ
बसन्ती हवा देती थी संदेशे
आ गया बसन्त
कर ले ठिठोली।

मगर कल हमें लौट जाना है
बर्फीली चोटियाँ
करतीं जहाँ इंतजार
आती नहीं आवाज़ वहाँ से
केवल भय है उसका
खड़ा है जो सीमा पार!

बाँधना नहीं मुझे

माँ मैं अब बड़ी
हो गई हूँ-
बाँधना नहीं तुम
पिता को अभिवादन मेरा।

गर्विता हो तुम भी
हीन भावना से फिर भी
दिल जलाती हो मेरा
मानती हूँ दुलार तुम्हारा
लाया है, मुझे यहाँ तक।
रेखा चित्र :  उमेश महादोषी 

समर्थ जाना है स्वयं को
परखना है, नापना है
कहीं तुम्हारा प्रतिरूप
तो नहीं बनना मुझे!

क्या बात है माँ!
चाहकर भी तुमसे स्वतंत्र नहीं 
मुक्त करो मुझे
मैं अब बड़ी हो गई!

  • डी-31, आई.एफ.एस. अपार्टमेन्ट्स, मयूर विहार, फेस-1, दिल्ली-91 /  मोबाइल : 09868543734



भगवानदास जैन





ग़ज़ल

दुनिया के मेले में देखे हमने लासानी चेहरे।
लेकिन उनमें ज़्यादातर थे बिल्कुल बेमानी चेहरे।

ढूँढ़ रहे हैं बरसों से हम दुनिया के चिड़ियाघर में,
काश नज़र आ जाएँ यारो कुछ तो इन्सानी चेहरे।

जीहाँ-जीहाँ करने वाले अवसरवादी इस युग में,
दर-दर पर बिकते देखे हमने तो दरबानी चेहरे।
रेखा चित्र : राजेंद्र परदेसी 


अपना मुल्क है अपनी हुकूमत दुख के डेरे हैं फिर भी,
लूट रहे हैं देश को अब भी खुलकर सुल्तानी चेहरे।

बदसूरत चेहरों का जमघट शीशमहल में बैठा है,
क्या जाने कब कर दें ये पथराव की नादानी चेहरे।

जिनकी रगों में ख़ून के बदले केवल पानी बहता है,
हो जाते हैं शर्म से इक दिन वे ही पानी-पानी चेहरे।

थम जाता है वक़्त भी जिनके क़दमों की आहट पाकर,
इतिहासों में गुम हैं अब वे सारे नूरानी चेहरे।

सर्द हैं ज्यादा जर्द भी हैं कुछ गर्द में लिपटे मर्द भी हैं
क्या ही रंग-बिरंगे हैं अब के हिन्दुस्तानी चेहरे।

  • बी-105, मंगलतीर्थ पार्क, कैनाल के पास, जशोदानगर रोड, मणिनगर (पूर्व), अहमदाबाद-382445(गुजरात)


किशन स्वरूप

ग़ज़ल

अब हकीकत से यहाँ हर शख़्स कतराने लगा
आइने का सच मुखौटे ओढ़ कर भाने लगा

हो गए सूने सभी चौपाल, पनघट और अलाव
गाँव से हर रास्ता अब शहर को जाने लगा

हर समस्या का उसी के पास हल है दोस्तो
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 

हर नया नेता बना, ये ढोल पिटवाने लगा

देख, ऐ बापू! तुम्हारे बन्दरों का क्या हुआ
एक है सालार जिसको मौन-व्रत भाने लगा

कान में उँगली दबाए दूसरा सरकार है
चीखते गणतंत्र की आवाज झुठलाने लगा

तीसरा कानून की मानिन्द अन्धा हो गया
जुर्म हो या जुल्म सब चंगा नज़र आने लगा

हम जहाँ से भी चले थे आ गए लेकिन कहाँ
आदमी को आदमी बौना नज़र आने लगा

  • 108/3, मंगल पांडेय नगर, मेरठ-250004 / फोन :  0121-2603523 / मोबाइल :  09837003216


अशोक अंजुम




ग़ज़ल

हादिसातों की कहानी कम नहीं
हौसलों में भी रवानी कम नहीं

मेरे बाजू हैं मुसलसल काम पर
यूँ समन्दर में भी पानी कम नहीं

साथ तेरे जो गुजारी है कभी
चार दिन की ज़िन्दगानी कम नहीं
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 


प्यार हमको आपसे था ही नहीं
आपकी ये सचबयानी कम नहीं

हम अँधेरों की कहानी क्यों कहें
साथ में यादें सुहानी कम नहीं

  • गली-2, चन्द्रविहार कॉलोनी, (नगला डालचंद), क्वारसी रोड बाईपास, अलीगढ़-202001(उ.प्र.)

         / मोबाइल : 09258779744


शुभदा पाण्डेय




संदूक में नदी

परिवर्तित कम होते हो तुम
क्योंकि परिवर्तित करने वाली हवा
होते ही गर्म
बन जाती है शहरी
तुम्हारे तट पर बसी सई
जाने कहाँ-कहाँ चली गई
एक झाँपी लकड़ी के संदूक से
निकल ही आती है
निकालते हुए तिलकहवा बर्तन
त्यौहारों पर
झाँकते हैं उसमें
वो छत, आँगन, ओसारे
आम, पीपल, बरगद
खेत, खलिहान, कोठिले
रेखा चित्र :  बी मोहन नेगी

कुछ चीन्हे-अचीन्हे चेहरे
पचरा गाती औरतें
आम छीलती मोती बहिन
चटक चुनरी में सिंगारो भाभी
लछुमन केवटी, पदारथ भड़भूज
खपड़हा के यदु भाई
समायी हैं इसमें
बर्तनों के साथ
नदी बनी जिन्दगी
पूछी जाती है हमेशा
अपनी गंगोत्री के साथ

(सई : एक नदी
पचरा : एक प्रकार का देवी लोकगीत)

  • असम विश्वविद्यालय, शिलचर-788011, असम / मोबाइल : 09435376047 



सजीवन मयंक




जो पड़ोस में आग लगाकर आये हैं

जो पड़ोस में आग लगाकर आये हैं
खुद अपने भी हाथ जलाकर आये हैं

कल तक सीना ताने जो चलते थे 
आज स्वयं ही नजर झुकाकर आये हैं

कल पीठ में जिसने मारा था खंजर
आज उसी को गले लगाकर आये हैं

कल तक बाहों में थे, हमको दिखे नही
वही सामने अब लहराकर आये हैं

जहां अनेंको कश्ती डूबी उसी जगह
रेखा चित्र :  उमेश महादोषी 

हम अपनी कश्ती तैराकर आये हैं

रोज शाम से ही सूरज सो जाता है
हम ही उसको सुबह जगाकर आये हैं

तेरी महफिल में न कोई दखल पड़े
हम अपने दुख दर्द छिपाकर आये हैं

  • 251, शनिचरा वार्ड-1, नरसिंह गली, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.)



रमेश चन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’


गीतिका

कैसे उन्हें मनाने जायें?
कैसे उनको घाव दिखायें?

रीति निभाना भी मुश्किल है
वे हमको वेवफा बतायें

कर्त्तव्यों की बलि वेदी पर
अधिकारों की मांग जतायें

कुशल पूछ आगे बढ़ जाते
रेखा चित्र :  डॉ सुरेन्द्र वर्मा 

कितनों के संग प्रीति निभायें?

लगते सबको वे उनके हैं
किस-किस के हिस्से में आयें?

कुछ लोगों के दुःख मिटाकर
वे सबके मसिहा बन जायें

हाथ हिला अभिवादन करते
हँस-मुस्का कर रीति निभायें

  • डी-4, उदय हाउसिंग सोसायटी, वैजलपुर, अहमदाबाद-380015, गुजरात



श्याम झँवर ‘श्याम’




पर्यावरण सन्देश

अपने घर में और गली में
रखें स्वच्छता जन-जीवन में

शुद्ध हवा के लिए जरूरी
वाहन कम कर दें जीवन में

वृक्ष नहीं कोई भी काटे
छाया चित्र : रितेश गुप्ता 

कसम, सभी खाएं जीवन में

वृक्ष लगाएं, फूल-उगाएं
सुन्दरता पाएं जीवन में

झरने, फूल, पहाड़, वृक्ष हैं
तोहफे कुदरत के जीवन में

  • 581, सेक्टर 14/2 विकास नगर, नीमच-458441 (म.प्र.) मोबाइल :  09407423981



अवधेश




आपको जयगीत नूतन वर्ष हो!

तिमिर पर आरूढ़ ज्योर्तिकर्ष हो
ज्ञान वारिधि में विमल आमर्ष हो
आपके शुभगीत हम गाते रहें
आपको शुभगीत नूतनवर्ष हो

विहंग जब बोलें सुकंठ सम्हालकर
मिलें जब प्रिय-प्रियतमा भुज डालकर
आपके मुद मान का स्वागत करें
आपके शुभमान जीवन ज्ञान पर
आपको जब प्राप्त नव उत्कर्ष हो
स्नेहमय, जीवनव्रती संघर्ष हो
आपके प्रिय गीत हम गाते रहें
छाया चित्र : ज्योत्सना शर्मा 

आपको प्रियगीत, नूतनवर्ष हो

राष्ट्रवट सुखदा फले फलता रहे
चेतना की छाँह प्रिय मिलता रहे
खो न जायें हम प्रमादी बन यहाँ
भावना के गीत से समता रहे
आपको जब नेहदीपक यश मिले
जीवनी में सदा ही अपयश धुले
आपके जयगीत हम गाते रहें
आपको जयगीत नूतन वर्ष हो

आपके मुदगीत हम गाते रहें
आपको मुदगीत नूतनवर्ष हो

  • 2, ब्रह्मपुरी, सीतापुर-261001 (उ.प्र.)




कृष्ण कुमार त्रिवेदी




ग़ज़ल

रोको शायर की कलम, अब न लिखे ऐसी ग़ज़ल
न जमीं जाये खिसक, न फलक जाये दहल

गर्द-ए-आइना को अब न हटाओ लोगो,
राज खुल जायेगा, है कौन असल कौन नकल।

शास्त्र पर बैठ के मत समझो है दरख्त अपना,
गजर बजते ही तेरा, छूट जाये अपना दखल।
रेखा चित्र :  सिद्धेश्वर 


मैं हूँ मदहोश, संभाले रहो मुझको साकी,
जाम लवरेज है, रोको कहीं जाये न मचल।

वो शमां और थी, जो जलती थी तेरे खातिर,
शीशा-ए-कैद में है हुस्न, रे पागल तू संभल।

तेरे जज्बातों की, कौन करे कद्र यहां,
तोड़ दो कलम को और कागजों को डालो मसल। 

  • श्री ऑफसैट प्रिण्टर्स, राजेन्द्र नगर, रामपुरा, जालौन, उ. प्र.



कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’

ग़ज़ल

कभी बरबाद कर बैठे, कभी आबाद कर बैठे
ज़रा से होश में आए, तुम्हें फिर याद कर बैठे

हमें मारा कहाँ खंजर से, बस नज़रों से है मारा
सुनेगा कौन कहाँ अब मेरी, किसे फरियाद कर बैठे

जो दिन भर चाँद बनके, चाँदनी देते रहे मुझको
रेखा चित्र :  मनीषा सक्सेना 

मुहब्बत तेरी खुशबू छोड़ खुद बरबाद कर बैठे

बना मेहमान रक्खा है, तुझे इस दिल के दर्पन में
मिली जब-जब भी फुर्सत, साथ तो संवाद कर बैठे

शुरू से अन्त तक कहते रहे, दुनियाँ में क्या रक्खा
इसी दुनियाँ में अपनी जिन्दगी आबाद कर बैठे

अभी तक जिसको मैंने अपनी आँखों से नहीं देखा
वो सूरत अजब और अचूक होगी याद कर बैठे

  • 38-ए, विजयनगर, करतारपुरा, जयपुर-302006, राज.

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 07- 08, मार्च-अप्रैल 2014



।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री :  इस अंक में प्रताप सिंह सोढ़ी, कमलेश भारतीय, सुधा भार्गव,  राधेश्याम ‘भारतीय’,  बच्चन लाल बच्चन, वंदना सहाय, वाणी दवे, कृष्ण चन्द्र महादेविया, अजहर हयात, कांता देवांगन, कमलेश चौरसिया, कृष्ण मोहन ‘अम्भोज’, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’, पुष्पा चिले, श्रेयस निसाल, संजय बोरूडे की लघुकथाएं।



प्रताप सिंह सोढ़ी



विडम्बना

     किलकारी निकालते दादी के साथ लुका-छिपी खेल रहे बालक को देख अचानक मुझे बसंती और वह दिन याद आ गया जब अपनी हथेली मेरे सामने रखते हुए उसने पूछा था- ‘‘बीबी जी, आप सबका हाथ देखती हैं, आज मेरा हाथ भी देखकर....।’’ इतना कह वह शरमा गई थी। 
रेखा चित्र : के.रविन्द्र 
     मैंने देखा था उसके फूले पेट और हथेली पर बनी उन रेखाओं को जो वर्तन मांजते-मांजते जगह-जगह से छिल गईं थीं। हथेली के ऊपर बने माउंट उभर कर खुरदरे एवं छोटे-छोटे टिग्गड़ों के समान दिखाई देने लगे थे। हथेली में बनी रेखाएँ बर्तन घिसने की रगड़ से छिल गईं थीं। बड़ी तन्मयता से धुंधली रेखाओं का अध्ययन करने के बाद मैंने अपना फैसला सुनाया था, ‘‘बसंती इस बार तुम्हें लड़का ही होगा।’’
     बसंती के पहले से ही तीन लड़कियाँ थीं और लड़के की आशा में वह चौथे बच्चे को जन्म देने जा रही थी। मेरी भविष्यवाणी सुन उसके चेहरे पर रौनक छा गई थी। बसंती को लड़का ही हुआ, लेकिन लड़के को जन्म देने के बाद वह चल बसी। मैं सोच रही थी कि काश नौ माह अपनी उम्मीद पालने वाली बसंती इस बच्चे के साथ होती।

  • 5, सुख-शान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इन्दौर-452016 (म.प्र.)




कमलेश भारतीय




कायर

     सहेलियां दुल्हन को सजाने-संवारने में मग्न थीं। एक चिबुक उठा कर देखती तो दूसरी हथेलियों में रचायी मेंहदी निहारने लगती। कोई आंखों में काजल डालती और कोई मांग में सिंदूर। और एक कलाकृति को रूप-दर्प देकर सभी बाहर निकल गयीं। बारात आ पहुंची थी। 
      तभी राजीव आ गया। थका-टूटा। विवाह में जितना सहयोग उसका था उतना सगे भाइयों का भी नहीं। वह उसके सामने बैठ गया। चुप। जैसे शब्द अपने अर्थ खो चुके हों। भाषा निरर्थक लगने लगी हो। 
     -अब तो जा रही हो, आनंदी?
     -हूं।
     -एक बात बताओगी?
     -हूं।
     लोग तो यही समझते हैं न कि हम भाई-बहन हैं।
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 

     हूं।
     -पर तुम जो जानती हो, अच्छी तरह समझती रही हो कि मैं तुम्हें बिल्कुल ऐसी ही...इसी रूप में पाने की चाह रखता हूं।
     -हूं।
     -पर क्या तुमने कभी, किसी एक क्षण भी मुझे उस रूप में देखा है? 
     लाल जोड़े में सेे लाल-लाल दो आंखें उसे घूरने लगीं जैसे मांद में कोई शेरनी तड़प उठी हो। 
     -चाहा था...पर तुम कायर निकले। मैं चुप रही कि तुम शुरुआत करोगे। तुम्हें भाई कह कर मैंने जानना चाहा कि तुम मुझे किस रूप में चाहते हो पर तुमने भाई बनना ही स्वीकार कर लिया। और आज तक लोगों को कम खुद को अधिक धोखा देते रहे। सारी दुनिया, मेरे मां-बाप तुम्हारी प्रशंसा करते नहीं थकते...पर मैं थूकती हूं तुम्हारे पौरुष पर...जाओ कोई और बहन ढूंढो।
     वह भीगी बिल्ली सा बाहर निकल आया। बाद में कमरा काफी देर तक सिसकता रहा।

  • उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी, पंचकूला-134113, हरियाणा



सुधा भार्गव 




बंद ताले

छोटे भाई की शादी थी। दिसंबर की कड़ाके की ठण्ड। हाथ पैर ठिठुरे जाते थे, पर बराती बनने की उमंग में करीब 120 लोग लड़की वालों के दरवाजे पर एक दिन पहले ही आन धमके। 
पिताजी सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए जनमासे में चहल कदमी कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ दूरी पर 5-6 युवकों की टोली बड़े जोश से बातें करने में व्यस्त थे।
-क्या बात है, तुम लोग नहाये नहीं? पिताजी ने पूछा। 
-कैसे नहायें अंकल, बाथरूम में बाल्टी ही नहीं है।
-अभी बाल्टियाँ मंगवाए देता हूं और क्या चाहिए वह भी देख लो। 
-मेरे बाथरूम में तौलिया भी नहीं है। दूसरा युवक बोला। 
-ठीक है, चुटकी बजाते ही सब हाजिर हो जायेगा ।
पिताजी तो चले गये, पर लड़कों का लाउडस्पीकर चालू था।
-जब इंतजाम नहीं कर सकते तो ये लड़की वाले बारातियों को बुला क्यों लेते हैं! 
-अरे दोस्त, लगता है ये सस्ते में टालने वाले हैं। पर हम ऐसे सस्ते में टलने वाले नहीं।
छाया चित्र : रितेश गुप्ता 

उनकी बातें विराम पर आना ही नहीं चाहती थीं, लेकिन सामने एक सेवक को बाल्टियों, तौलियों से लदा देख उनके बीच मौन पसर गया।
एक बुजुर्ग महाशय को जब यह पता चला कि बारातियों की मांगें पिताजी पूरी कर रहे हैं तो उनसे यह भलमनसाहत सही न गई।
-’’लड़के के पिता होकर समधी के सामने इतना झुकना ठीक नहीं, आखिर हम सब हैं तो बराती। बाराती तो बाराती ही होते हैं।’’ त्रिवेदी जी बोले। 
-लड़के-लड़की का रिश्ता हो जाने के बाद दो परिवार एक हो जाते हैं। मेरी तो यही कोशिश रहेगी कि दोनों के सुख-दुख, मान-अपमान की कड़ियाँ इस प्रकार बिंधी रहें कि भोगे एक तो अनुभूति हो दूसरे को। पिताजी शांत स्वर में बोले। 
सुनने वालों के दिमाग के ताले खुल चुके थे। 

  • जे-703, स्प्रिंगफील्ड अपार्टमेंट, स्पसंेर मॉल के सामन,े बगंलौर-102, कर्नाटक



राधेश्याम ‘भारतीय’



कर्जदार

     गांव में चार-पांच आदमी बैठे ताश खेल रहे थे। इसी बीच एक आदमी पूछ बैठा- ‘‘रामप्रकाश कौन साल सरपंची का चुनाव जीता था।’’
     ‘‘अरे छोड़ न, कै बेतुकी बात लेकर बैठ गया। लाला ने गाँव छोड़े हो लिए आठ-दस साल।’’
     ‘‘बस यूं ही पूछ बैठा, उस साल मेरा छोरा होया था।’’
     ‘‘अरे कमाल कर दिया तैन्ने, अपने छोरे के जन्म का भी पता नहीं।’’
     ‘‘मैं बताऊँ.....।’’ पास बैठा रामभज लुहार बोल पड़ा।
     ‘‘अरे छोड़ नै, सारा दिन तो तेरा पागलां जैसा हाल होया रहवै सै....’’
     ‘‘अभी पहला व्यक्ति अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी दूसरा बोल पड़ा- ‘‘तैन्ने अपना खाया भी याद रहवै सै?’’
छाया चित्र : डॉ.बलराम अग्रवाल 

     यह बात सुनकर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया।
     ‘‘भाइयो, मैंने कुछ याद हो, चाहे ना हो पर या बात मैं मरदे दम तक नीं भूल सकदा। बीस मई थी उस दिन... या बात गलत साबित होज्यै तो मेरे चार जूत मारियों।’’
     ‘‘पर रामभज, तू या बात इतने दावे ते क्यूंकर कहवै सै।’’
     ‘‘इस साल मेरे बाबू ने मेरी बाहाण के ब्या ताही दस हजार रुपये कर्ज लिए थे रामप्रकाश तै। मैं हर महीने की बीस तारीख नै शहर जाकर ब्याज देकर आता हूँ। कर्ज आदमी नै पागल बणा दै।’’ इतना कह रामभज माथा पकड़ बैठ गया।

  • नसीब विहार कॉलोनी, घरोंडा, करनाल-132114, हरियाणा



बच्चन लाल बच्चन





रिश्ता 

    स्टाफ बस की सीटें क्रमशः खाली होती जा रही थीं। लौटती बस से सभी अपने मन के मुताबिक स्टापेज पर उतर रहे थे। हठात् एक लड़की मेरे पास आकर बैठ गई। दो-चार बातें की। मैं सोचता रहा वह मेरे पास आकर क्यों बैठी?
     दूसरे दिन रिसेस के समय पुनः पास आकर बैठ गई और बोली- ‘‘नयी-नयी ड्यूटी ज्वाइन की हूं, यदि आप कुछ न सोचें तो आप मेरे पिता के समान हैं।’’

  • 12/1, मयूरभंज रोड, कोलकाता-700023 (प.बंगाल)

फोन :  033 27003593



‘लघुकथा वर्तिका’ से कुछ लघुकथाएँ 

{नई पीढ़ी की चर्चित लघुकथाकार श्रीमती उषा अग्रवाल ‘पारस’ ने विगत दिनों एक महत्वपूर्ण लघुकथा संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ का सम्पादन किया है। इसके पहले खण्ड में कई वरिष्ठ लघुकथाकारों की लघुकथाएँ शामिल हैं, जबकि दूसरे खण्ड में नई पीढ़ी के 83 लघुकथाकारों, जिनमें कई की तो शुरूआत ही है, को शामिल किया गया है। इस संकलन का सबसे बड़ा योगदान कई नए लोगों को समकालीन लघुकथा से जोड़ना है। इन नए लघुकथाकारों में भविष्य को लेकर असीम संभावनाएं दिखाई देती हैं। प्रस्तुत हैं ‘लघुकथा वर्तिका’ के दूसरे खण्ड के कुछ लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा। } 


वंदना सहाय




सैंटाक्लॉज

    लंबाई छः फुट के करीब, चौड़ी छाती और गाँव में कुश्ती में सबको मात देने वाला यह था बीस-वर्षीय विजय, जो गाँव में अपनी माँ के साथ रहता था।
    विजय को अपनी चौड़ी छाती, नई उगी काली दाड़ी-मूँछों और बड़े जतन से उभारी गई मांसपेशियों पर बड़ा नाज़ था। 
    अचानक कुछ समय बाद विजय की माँ बीमार हो गई। गाँव के डाक्टरों ने उसे शहर ले जाकर दिखलाने को कहा। सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने के बावजूद विजय को और भी कई तरह के खर्चों के लिए पैसे कम पड़ रहे थे। वहाँ के वार्ड-बॉय ने तरस खाकर उसे एक केक-पेस्ट्री की दुकान में नौकरी दिला दी।
    क्रिसमस का पर्व आ रहा था, दुकान में सुबह से शाम तक विजय को सैंटाक्लॉज़ का मॉस्क लगाकर और
रेखा चित्र : वंदना सहाय 
उसकी पोशाक पहन लोगों से हाथ मिलाना होता था। बच्चे खुश हो जाते इस टॉफियाँ बाँटते सैंटाक्लॉज से मिलकर।

    और अब अखाड़े के विजयी योद्धा की चौड़ी छाती सैंटाक्लॉज के ढीले पोशाक में छुपकर रह गई थी। उसकी उभरी हुई माँसपेशियाँ और गठा बदन किसी को भी प्रतिस्पर्धा देने में अक्षम था। वह अपनी काली दाड़ी-मँूछों को भूल गया था।
    वहाँ पर खुशियाँ मनाते लोग यह सोच भी नहीं सकते थे कि सफेद दाड़ी-मूँछों वाला यह मात्र बीस वर्ष का सैंटाक्लॉज़ जो लोगों को हँसाकर उनमें खुशियाँ बाँट रहा है, असल में बेरहम वक़्त की धूप में अपनी रजत भवों के शामियाने के नीचे अपनी आँखों में अपनी माँ के स्वस्थ हो जाने पर उसके गाँव लौटने के सपने की हिफाजत कर रहा है।

  • 249, ‘यजुर्वेद’, दीक्षित नगर, नारी रोड, नागपुर-440026 (महारष्ट्र) मोबाइल: 09325887111


वाणी दवे

बौने पापा

    इसी दशहरे की बात है। रावण दहन के लिए मैं और मेरा परिवार दशहरा मैदान में गये थे, जहाँ विशालकाय रावण के पुतले को देखने के लिए पूरा शहर इकट्ठा हुआ था। नन्हें बच्चे अपने पापा के कंधों और हाथों पर चढ़कर आतिशबाजी देखकर आनन्दित हो रहे थे। अपने बचपन के दिनों की यादें ताजा कर मुझे भी बड़ा आनंद आ रहा था, लेकिन न जाने कब इस पूरे जमघट में एक परिवार हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। अपने तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ उनकी माँ जो कि पहनावे से गरीब और साधारण शक्लो-सूरत वाली थी,
रेख चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
अपनी गोद में साल भर के बच्चे को उठाये थी एवं अन्य बच्चा जो पापा की उँगली पकड़े हुए था, रो रहा था। वह आतिशबाजी देखना चाहता था। उसके पापा ने उसे गोद में उठा लिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक बौने से कद-काठी का वह आदमी जिसे खुद कुछ नज़र नहीं आ रहा है, वह अपने नन्हें-से बच्चे को कंधों पर चढ़ाकर आसमान और वह चमक दिखा रहा है, जिसे वह खुद देख पाने में असमर्थ है। पापा ऐसे ही होते हैं। मजबूत कंधों वाले पापा, अपने बच्चों को हर तकलीफ से बचाने वाले पापा।


  • जी-5, सिंचाई कॉलोनी, दशहरा मैदान, उज्जैन (म.प्र.)/08989450821


कृष्ण चन्द्र महादेविया




कपड़े

     श्वेता ठाकुर के मासूम चेहरे के पीछे की ठग और मर्दखोर युवती को सुधारने के प्रयत्न में असफल डॉ. देवा ने उसके हाथ में पैकेट रख दिया। उसने पैकेट खोला और कीमती वस्त्र देखकर उसकी आँखें चमक गईं थीं।
    ‘‘देव, जब आपसे दूसरी बार मिली थी, तब भी आपने मुझे कपड़े दिये थे और फिर आपने बढ़िया सूट दिया है।... यह जानते हुए भी कि अब हम कभी मिल नहीं पायेंगे।’’ उसके चेहरे को ध्यान से देखते हुए श्वेता ठाकुर ने कहा।
    ‘‘श्वेता, जब तुम पहली बार मिली थी, उस दिन तुम्हारे पुराने और फटे कपड़े देखकर मेरा दिल भर आया था। इसलिए दूसरी मुलाकात में तन ढाँपने के लिए वस्त्र दिए थे। आज इसलिए दिये हैं कि जिस रास्ते पर तुम चल पड़ी हो वह अन्ततः बीमारी और बदनामी के सिवाय तुम्हें कुछ नहीं देगा।
रेखा चित्र : शशिभूषण बड़ोनी 
ऐसे में ये कपड़े तुम्हें आज आबरू ढाँपने के लिए दिये हैं।’’ डॉ. देव ने गम्भीरता से कहा और तेज-तेज लौट आया था।

     श्वेता के सिर से पाँव तक तीव्र झनझनाहट सी रेंग गई फिर देवा की सोच पर सोचते हुए उसकी आँखों में सचमुच के आँसू टप-टप बहने लग गये थे।

  • डाकघर महादेव, सुन्दर नगर, जिला मंडी (हि.प्र.)



अजहर हयात

आदर

     ‘‘नहीं-नहीं! बाबाजी गिर जाओगे’’, कॉलेज के लड़के ने बूढ़े को मशविरा दिया। सिटी बस मुसाफिरों से खचाखच भरी थी कि तिल रखने की भी जगह नहीं थी। मगर बूढ़ा एक पैर और एक हाथ के सहारे बस के गेट पर लटक गया। आखिर अंदर से एक ऐसा धक्का लगा कि उसकी पकड़ कमजोर पड़ गई और हाथ छूट गया और पैर उखड़ गये। दूसरे मुसाफिरों ने आवाज लगाई, ‘‘अरे-अरे बस रोको, बस रोको, बूढ़ा गिर गया है’’। बस रुक गई, लोग बूढ़े को देखने लगे। एक ने कहा अरे ये तो मर गया है। सब लोग एक साथ बोल उठे- ‘‘हाय मर गया बेचारा’’। सबने कहा अस्पताल पहुंचा दो और फिर बूढ़े को आहिस्ता से उठाया गया और बस में पूरी एक सीट खाली कर दी गई। बूढ़े की लाश को आदर के साथ रख दिया गया और फिर बस चल पड़ी।

  • 9ए, हयात मंजिल, राठोर लेआउट, अनंत नगर, नागपुर-13 (महाराष्ट्र)



कांता देवांगन


नेक तोहफा

   बचपन का वह सुखद क्षण जो हमने अंकल वामसन के साथ गुजारे, भूले से भी भुलाये नहीं जा सकते। बस्ती में खुशियां आती भी तो उनके लाने पर ही। हम बच्चों के लिए तो वह क्रिसमस पर हमारे सेंटाक्लॉज और नये वर्ष पर सूर्य की नई किरणें।
    एक छोटी सी बस्ती में, सब साथ-साथ, दुःख-सुख के साथी थे। दो जून की रोटी का नसीब हो पाना ही हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी। ऐसे में क्रिसमस, नया वर्ष मनाना तो दूर की बात थी। उस बस्ती में केवल वामसन अंकल ही ऐसे थे जिनकी परिस्थिति थोड़ी अच्छी थी। अंकल वामसन एक प्रसन्नचित्त व खुले स्वभाव के व्यक्ति थे। हर किसी का सुख और दुःख बाँटना उनकी जिंदगी का एक हिस्सा था। सबके चेहरे पर मुस्कान बिखेरने की उनके अन्दर एक कला थी।
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 
    उनका एक बेटा था पीटर, एक अव्वल दर्जे का मुक्केबाज और हँसमुख स्वभाव का मस्तमौला युवक। बात-बात में लोगों को हँसाने वाला युवक। मैं पढ़ाकू और वह पढ़ाई से भागने वाला। हम दोनों में यही एक फर्क था। इसलिए अंकल उसे मुक्केबाजी के लिए प्रोत्साहित करते और मुझे पढ़ाई के लिए। हम दोनों का अपना-अपना उद्देश्य, मैं पढ़ाई में तेज था इसलिए छात्रवृत्ति मिलने पर उच्च पढ़ाई के लिए विदेश चला गया। 
    तीन साल बाद पढ़ाई खत्म होने के बाद आने पर पता चला कि पीटर नशे में धुत रहता है और अंकल वामसन इससे बहुत परेशान रहते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने मन ही मन ठान लिया कि अंकल वामसन की वह पुरानी हँसी और चेहरे की मुस्कान वापस लाकर ही रहूँगा। पीटर को नशामुक्ति केन्द्र में भर्ती करवाकर जब उन्हें पुराना पीटर वापस किया तो उनके चेहरे की वह मुस्कान देखकर मुझे बचपन की वह याद ताजा हो गई, जब अंकल हमें तोहफा देकर हमारे चेहरे की मुस्कान देखकर मुस्कुराया करते थे।

  •   नर्मदा निवास, न्यू कॉलोनी, पचोर, राजगढ़-465683, म.प्र.




कमलेश चौरसिया




मानवता

     पुलिस कांस्टेबल रामधारी के घर से दो मकान आगे उस्मान अली का घर है। नित्यक्रिया से निवृत्त हो दोनों अपने घर से एक साथ निकलते हैं। थोड़ी चहलकदमी कर बतियाते, सुख-दुःख का समाचार पूछते, मंदिर-मस्जिद जाकर अपने-अपने आराध्य से अमन-चैन की दुआ माँगते हैं और अधूरे छोड़े गये वार्तालाप को पूरा करते हुए घर लौटते हैं। यह उनकी दिनचर्या में शामिल है।
    रामधारी के हिन्दू मित्र ने बताया कि पाकिस्तान में बड़ी मारकाट मची है। उसने हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार को मसाले में लपेट चटखारे लेता हुआ धार्मिक उन्माद का जहर कानों में उड़ेल दिया। रामधारी का मन द्रवित हो उठा।
    एक दिन वह करीब 6 बजे अपनी ड्यूटी से घर वापस आ रहा था। उसने देखा कि धर्मोन्माद में उन्मत्त कुछ हिन्दू तलवार, भाले और कट्टे लेकर मुट्ठी भर मुस्लिमों के पीछे भाग रहे हैं। पुलिस को देखकर उन्होंने
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
बचाने की गुहार लगाई और दया की याचना की। रामधारी के मन में पाकिस्तान में मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर किये जा रहे अत्याचार का विवरण कौंध गया। वह भी जोश में भर उठा। उसी समय उसे उस्मान अली याद आ गया। उस छवि में अपनों के खोने का दर्द सीने में तीर की शीतलहर पैदा कर गया। वह दहाड़ता हुआ बलवाइयों के सामने ढाल बनकर खड़ा हो गया, लेकिन आक्रोश के उफान में वह स्वयं को बचा नहीं सका। आखिरी साँसें लेते समय उसके चेहरे पर आत्मसंतुष्टि झिलमिला रही थी कि उसने अपने देश के नाम पर बट्टा नहीं लगने दिया और मानवता के नाते अपने जैसे दूसरे मनुष्य को बचाते हुए बलिदान हो गया। 


  • गिरीश-201, डब्ल्यू.एच.सी. रोड, धरमपेठ, नागपुर-440010 (महारष्ट्र)



कृष्ण मोहन ‘अम्भोज’




मुँह दिखाई

     आज सरला के हाथ पत्र लिखते हुए कंपकंपा रहे थे। आँखें गीली हो चली थीं। टपकते आंसुओं की बूंदों में अतीत दिखाई देने लगा। तीन साल की उम्र में माँ का साया सर से उठ गया था। पूरा बचपन सौतेली माँ की झिड़कियाँ सहकर ही बीता। दसवीं दर्जा तक पढ़ाई हो सकी और पिता ने हाथ पीले कर दिये। सौतेली माँ और सौतेला भाई दोनों ही उससे छुटकारा पाना चाहते थे। ससुराल आकर भी उसे सासू माँ से सौतेली माँ सा ही व्यवहार मिला। वह यह सब सहकर पथरा सी गई। अब तो पिता का साया भी सर से उठ गया। आज जैसे-
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 
तैसे पत्र लिखकर अपने सौतेले भाई के पास पोस्ट भी कर दिया।

     लिखा था- ‘‘भैया राकेश मैं तुम्हें अपना छोटा भाई ही समझती रही, भले ही तुमने मुझे बहन न माना हो। यहाँ तक कि तुम मुझे अपनी शादी में भी लिवाने नहीं आए। कोई बात नहीं। पिताजी ने कुछ रुपये बचत कर मेरे नाम जमा कर दिये थे। आज मैं उनके कागजात हस्ताक्षर कर तुम्हारे पास भेज रही हूँ। तुम रुपये निकाल लेना और इन्हें मेरी ओर से भावज को मुँह दिखाई समझ लेना।
     यह पत्र जब तुम्हें मिलेगा, मैं इस दुनियां से विदा हो चुकी होऊँगी। तुम्हारी बहन सरला।... पत्र पढ़कर राकेश सन्न रह गया। फूट-फूट कर रोने लगा। शायद उसे अतीत कचोटने लगा।

  • नर्मदा निवास, न्यू कॉलोनी, पचोर, राजगढ़-465683, म.प्र.



डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’




विमल भाई

     विमल भाई ने अभी किताब बंद ही की थी कि छः-सात मित्र उनके कमरे पर आ धमके। दरअसल विमल भाई का सात-आठ प्रतियोगी छात्रों का समूह था और बारी के हिसाब से आज शाम की चाय का प्रोग्राम विमल भाई के ही कमरे पर था। विमल भाई ने कुर्सी पे बैठे-बैठे ही सबको हाय-हैलो किया, महफ़िल जम गयी और देश-दुनिया की ख़बरों पर सबकी टिप्पणियाँ आने लगीं; तभी स्विस राजनयिक के साथ बलात्कार की घटना पर सभी की त्योरियाँ चढ़ गयीं। सुशील जूनियर का कहना था कि जब विदेशी राजनयिक की सुरक्षा हमारी सरकार नहीं कर सकती तो देश की आम स्त्रियाँ अपने आपको कितना सुरक्षित मानें। शिवेन्द्र भाई का तर्क
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 
था- ‘‘यदि सरकार शोहदों के ख़िलाफ़ काररवाई नहीं करती है तो अपने देश का मालिक भगवान ही है!’’ साथियों के बीच ‘विचारक’ के नाम से मशहूर अबतक शान्तिपूर्वक सभी को सुन रहे मृगेन्द्र जी ने अत्यन्त गम्भीर चिन्ता ज़ाहिर की- ‘‘अपने देश की अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर छीछालेदर हो गयी, क्या कहेंगे आप?’’ चर्चा अपने चरम पर थी कि शिवराम भैया बरबस ही बोल पड़े-‘‘मानवता तो बची ही नहीं....।’’ वे अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि विमल भाई अपने निराले अन्दाज़ में मुस्कराते हुए बोल पड़े- ‘‘मानवता अभी खतम कहाँ भइल बाऽ, अगर मानवता बचल ना रहीत त ओकरा के पैतालिस मिनट बाद जिंदा छोड़ दिहितन सब!’’ सबने विमल भाई को दाद दी- ‘‘बिलकुल खरी बात बोले हैं विमल भाई!’’... और सब ज़ोर-ज़ोर से खिलखिला पड़े। विमल भाई अबतक चाय तैयार कर चुके थे। सभी ने ‘मजा आ गया’ के साथ चाय समाप्त की और कल शाम की चाय के लिये शिवराम भैया के यहाँ मिलने का वायदा कर अपने-अपने रूम की राह पकड़ ली। पीसीएस प्री. का इम्तिहान सर पर था।


  • 24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.)-212601/ मोबाइल  09839942005



पुष्पा चिले


कफन

    ‘‘मालकिन एक पुराना कम्बल या रजाई दे दो। बहुत जाड़ा लगता है, एक कम्बल से बच्चों को तो किसी तरह ढक देती हूँ परन्तु मेरी रातें नहीं कटतीं।’’
    संध्या कहीं जाने को तैयार हो रही थी। 
    ‘‘कमली आज तो मैं समाजसेवा के एक कार्यक्रम में जा रही हूँ, कल-वल निकाल दूँगी।’’ 
    करीब दस दिन बाद पैरों में तेल लगाते हुए कमली ने फिर कम्बल वाली बात दुहराई।
    ‘‘अरे हाँ! मैं भूल गई थी। कल जरूर निकाल दूँगी।’’ पन्द्रह दिन निकल गये। इस बीच कमली ने दबी जुबान से फिर संध्या से निवेदन किया।
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 

    ‘‘अरे बाबा, निकाल दूँगी। बार-बार भूल जाती हूँ। घर की जिम्मेदारी, फिर समाज सेवा के काम। क्या-क्या याद रखूँ।’’
     तीन-चार दिन बाद संध्या गरम कपड़ों का ट्रंक धूप में रखवा रही थी। उसी में नीचे एक पुराना कम्बल पड़ा मिल गया। उसे याद आया कि कमली ने कम्बल माँगा था। उसने कम्बल निकलवा लिया, सोचा कल कमली आयेगी तो उसे दे दूँगी।
    दूसरे दिन सुबह कमली की लड़की वैजंती आई। वह कुछ कहती, इससे पहले ही संध्या उसे कम्बल देते हुए बोली- ‘‘ले वैजंती, यह अपनी माँ को दे देना। बड़ा गरम है।’’
     ‘‘मालकिन.... माई तो...।’’
     ‘‘क्या बात है। बोल ना! ये गंगा-जमुना क्यों बहाये जा रही हो?’’
    ‘‘कल रात... रात ठंड के मारे... माई की... मौत हो गई।’’ लाइये मालकिन यह कम्बल मरने के बाद कफन तो ओढ़ लेगी माई।

  • 232, मागंज वार्ड नं.1, दमोह-470661 (म.प्र.) / मोबाइल : 09977058102



श्रेयस निसाल

सौरभ का नया मित्र

    सौरभ की छुट्टियाँ चल रही थीं और घर बैठे-बैठे वह बोर हो रहा था। उसने सोचा अपने पास-पड़ोस में कुछ खोजबीन की जाये। साइकिल निकाली और अपने मिशन पर चल दिया। कई जगहों पर वह घूमता रहा।
    उसे बड़ा अच्छा लगा इस तरह से घूमना। अतः उसने निश्चय किया कि अब वह रोज इसी तरह घर से बाहर निकलेगा। एक दिन ऐसे ही टहलते हुए उसने देखा कि एक कुत्ता कुछ लँगड़ाते हुए चल रहा है और दर्द से परेशान है। वह तुरन्त साइकिल से नीचे उतरा और उस मूक प्राणी के पास पहुँच गया। वैसे भी सौरभ को प्राणियों से अधिक लगाव था। मूक प्राणी बिचारे अपनी सहायता के लिए गुहार नहीं लगा सकते। आव देखा न ताव। सौरभ ने पानी की बोतल से उस कुत्ते के जख्म को धो दिया। जख्म अभी ताजा था और अधिक गहरा नहीं था।
     दिन बीतते रहे। हमेशा की तरह सौरभ अपनी साइकिल पर सवार हो घूमने जाता रहा। घूमते-घूमते एक
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
दिन वह किसी अंजान इलाके में पहुँच गया। अचानक सड़क के कुछ आवारा कुत्ते उसे देखकर जोर-जोर से भौंकने लगे। सौरभ घबरा गया कि कहीं ये कुत्ते उस पर हमला न कर दें। अचानक सड़क के दूसरी ओर से एक कुत्ता आया और वह उन आवारा कुत्तों पर टूट पड़ा।

    यह वही कुत्ता था जिसकी सौरभ ने सुश्रूवा की थी। आज उसी ने सौरभ को बचाया। अब वह बिल्कुल ठीक हो गया था। जरूरतमंद की सहायता का नतीजा उसकी आँखों के सामने था।
    इसके बाद सौरभ ने कभी अपने आपको अकेला महसूस नहीं किया। वह कुत्ता उसका मित्र बन गया था। जिसे उसने प्यार से ‘लियो’ नाम दिया था।

  • नागपुर/ मोबाइल : 09823046901


संजय बोरूडे

शादी का तरीका

    बाबा साहब ने लड़की पसंद की थी। अब शादी की रस्में, दहेज और बाकी शर्तों की चर्चा करने के लिये उसे और घरवालों को बुलाया।
    सब रिश्तेदारों और मेहमानों के सामने बाबा साहब ने बताया, ‘‘मुझे लड़की शत-प्रतिशत पसंद है और मेरी कोई शर्त या माँग नहीं है। मेरी अच्छी खासी नौकरी है। मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है। आपकी बेटी पढ़ी-लिखी और सुशील है इसलिये मुझे पसंद है और तो और मैं यह भी कहना चाहूँगा कि हो सके तो शादी सीधे-सादे तरीके से करोगे तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’’
    ‘‘तो क्या शादी के लिये जो भी पैसा खर्च होने वाला है....’’ लड़की के मामा पूछने लगे।
    ‘‘नहीं-नहीं।’’ बाबा साहब के पिता ने बात काटते हुये कहा- ‘‘आप गलत समझ रहे हैं। हमे शादी के खर्चे के पैसे भी नहीं चाहिये।’’
    सब दंग रह गये और लड़की खुशी से उछलने लगी। इतना सरल और सुशील लड़का अपना जीवन साथी
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
होगा, ये सोचकर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था।

    ‘‘फिर ये कैसी शादी? ना बारात, ना समारोह। हमारे घर की पहली शादी है, वह तो बड़ी धूमधाम से होनी चाहिये।’’ लड़की के चाचा जो मशहूर व्यापारी थे, बोले।
    ‘‘ठीक है।’’ बाबा साहब ने कहा, ‘‘तो कम से कम दिल दहला देने वाला और कान फोड़ने वाला डी.जे. मत लगवाइयेगा।’’
    ‘‘ये कैसी शादी की बात कर रहे हैं? क्या आप हमें भिखारी समझ रहे हैं?’’ लड़की का भाई ताव में आ गया। ‘‘अगर डी.जे. नहीं होगा तो मेरे दोस्त नाचेंगे कैसे? पूरा गाँव शादी में शरीक होगा और आप ये कह रहे हैं?’’
    ‘‘आपका सुधारवादी ढंग और सोच अपने पास रखिये। नहीं होगी शादी’’ लड़की के मशहूर व्यापारी चाचा बोले। ‘‘आपसे अच्छे कई रिश्ते मिल जायेंगे, जो हमारी बराबरी के होंगे और हैसियत के भी।’’

  • 204, मुला, शासकीय निवासस्थाने, डी.एस.पी. चौक, अहमद नगर-414001 (महाराष्ट्र) / मोबाइल : 09372560518