आपका परिचय

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

सम्पादकीय पृष्ठ : नवम्बर २०११

मेरा पन्ना/डा. उमेश महादोषी

  • पिछले माह में कई मित्रों ने ब्लॉग की सदस्यता ग्रहण की है, सभी के हम ह्रदय से आभारी हैं. धीरे-धीरे अविराम का यह  ब्लॉग संस्करण अपनी गति पकड़ रहा है.फिर भी इस थोड़े  से समय में जितने मित्र हमारे साथ जुड़े हैं, वह उत्साहबर्धक है.

  •  क्षणिका पर आपकी अच्छी रचनाओं एवं आलेखों की हमें प्रतीक्षा रहेगी. अविराम का  मुद्रित संस्करण  का नया अंक दिसंबर के तीसरे सप्ताह तक ही आ सकेगा. सदस्यता शुल्क के बारे में उपयुक्त  सूचना हम मुद्रित में ही देंगे, तब तक कृपया कोई राशि हमें न भेजें.

     

     

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    अविराम विस्तारित

    ।।कविता अनवरत।।
    सामग्री : किशन कबीरा, नारायण सिंह निर्दोष, शशिभूषण बड़ोनी, रुक्म त्रिपाठी, बाबा कानपुरी, केशव शरण, डा. विजय प्रकाश,  नरेश कुमार उदास, शिवानन्द सिंह सहयोगी, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, सत्येन्द्र तिवारी, नित्यानंद ‘तुषार’ व सनातन कुमार बाजपेयी की कवितायेँ 



    ।।कविता अनवरत।।
    किशन कबीरा

    {समकालीन कविता के सुपरिचित कवि किशन कबीरा का कविता संग्रह ‘ दलित  टोला' इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है। इसी संग्रह  से उनकी एक प्रतिनिधि कविता।}

    एकलव्य और अर्जुन

    उसके कच्चे-कवैलू वाले घर में
    न पढ़ाई के लिए कोई जगह है
    नहीं बिजली के प्रकाश की कोई व्यवस्था
    अल सुबह ही
    जुत जाते घर की गाड़ी में
    बैलों के साथ बछड़े भी

    पुस्तकें आधी-अधूरी
    सहपाठियों से मांगी-तागी
    और स्कूल की फीस
    सरकारी खाते से
    तब भी
    बड़ी मुश्किल से निकल पाता समय
    पढ़ाई के लिये
    बुझती-झपकती लालटेन के प्रकाश में
    रात-रात भर पढ़कर उसे करनी है प्रतिस्पर्धा अर्जुन से

    वह जानता है
    उसे कभी नहीं मिला
    आशीर्वाद द्रोणाचार्य का
    लेकिन
    मिलने पर वह
    ज़रूर मांग लेगा दाहिना अंगूठा
    गुरु-दक्षिणा के नाम पर

    रेखांकन : सिद्धेश्वर
    उसे कटे हुए अँगूठे की पीड़ा के साथ
    टकराना होगा
    सर्व सुविधा सम्पन्न अर्जुन से
    अर्जुन जिसे शिक्षित-प्रशिक्षित करने में लगी है
    द्रोणाचार्यों की पूरी जमात
    सब जानते हैं
    वे ही गुरु हैं उसके
    और परीक्षक भी
    और उनका शिष्य प्रेम जग जाहिर

    • कबीरा कॉटेज, कबूतरखाने के पास, राजसमन्द-313326 (राज.)

    नारायण सिंह निर्दोष






    ग़ज़ल

    काटती  रितु सर्द है  यारो!
    सूरज, उनके सुपुर्द है यारो!

    सिगरेट तुमने पी, धुआँ-
    हमारे इर्द-गिर्द है यारो!

    उनको रोग पीलिया नहीं
    बदन पै चढ़ी हर्द है यारो!

    छोटी-बड़ी आँतें लड़ रहीं
    पेट में सिर दर्द है यारो!

    कविता

    जब भी/मैं कुचला गया हूँ
    ट्रेफिक से
    अक्सर पाया गया हूँ
    अपने हाथ पर चलता हुआ
    (मंजिल पाने तक)
    उतरना पड़ा बेशक
    अपने हाथ से फुटपाथ पर
    या फिर/अपने ही दूसरे हाथ पर
    मंजूर है मुझे
    क्योंकि/मैं जानता हूँ
    नहीं होगा मेरा जिक्र
    अखबार/पोस्टर
    रेखांकन : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा
    या इतिहास के पन्नों पर
    यही कि ‘निर्दोष’
    मारा गया था कभी
    अपने हाथ पर चलता हुआ।
    • सी-21, लैह (LEIAH) अपार्टमेन्ट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096


    शशिभूषण बड़ोनी






    उन्मुक्त हँसी

    मोनालिसा की मुस्कान
    बनी हुई चित्र कृति को
    देखने के बाद सोचता हूँ
    उकेरी किस तरह होगी
    उस महान कलाकार ने
    वह मुस्कान
    कि वह रचना अमर हो गयी

    दरअसल बहुत दिनों से
    देखी नहीं मैंने अपने आस-पास
    किसी भी आदमी के चेहरे पर
    कोई उन्मुक्त सहज मुस्कान


    कई-कई दिन बीत गये
    लेकिन दिखायी नहीं पड़ी
    ऐसी हँसी
    जिसे न सही
    उस कलाकार की तरह देखें
    रेखांकन : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा
    अपनी रचनाओं में
    उल्लेख भर ही कर दूँ...

    लेकिन हाय रे...
    आजकल के आदमी की
    तनाव भरी दास्तान
    मिल नहीं पाती है जो कोई
    सीधी सच्ची प्यारी मुस्कान!

    • आदर्श विहार, ग्राम व पोस्ट- शमशेर गढ़, देहरादून (उ.प्र.)

    रुक्म त्रिपाठी


     


    हे मां

    मस्तक पर है मुकुट हिमालय.,
    सागर सादर चरण पखारे ।
    केसर गमके चंदन महके,
    पवन सदा आरती उतारे ।।

    शस्य श्यामला लहरे आंचल,
    चंदा, सूरज नयन तुम्हारे ।
    मौन तुम्हारा वंदन करते,
    जगमग आसमान के तारे।।

    झर झर झर झर झरना बहता,
    कल कल करतीं सरिताएं ।
    भोर हुई है माता जागो,
    मधुर प्रभाती गीत सुनाएं ।।

    हे मां ! सब तेरे अनुचर हैं,
    चंवर डुलातीं पुष्प लताएं ।
    पशु, पक्षी नर्तन करते हैं,
    प्रहरी हैं पर्वत मालाएं ।।

    अवतारों की जननी हो तुम,
    राम, कृष्ण, गौतम की माई।
    गोद तुम्हारी में पलते हैं,
    हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई।।

    भेदभाव तुमको नहिं भाता,
    शांति, अहिंसा तुमको प्यारी।
    जग में अलग-थलग दिखती है,
    इसीलिए तस्वीर तुम्हारी।।

    महावीर, गांधी, सुभाष से,
    द्रश्य छाया चित्र  : पूनम गुप्ता 
    पुत्रों की तुम हो महतारी ।
    उसका भला हुआ ना जिसने,
    तुम पर बुरी नजर है डाली ।।

    आये, गये विदेशी कितने,
    नहीं अधिक दिन थे टिक पाये।
    उन्हें भागना पड़ा एक दिन,
    जो तुम पर अधिकार जमाए।।

    बहक गये जो बेटे उनको,
    रक्त सना आंचल दिखलाओ।
    भटक गये हैं जो भी पथ से,
    उनको मां सन्मार्ग दिखाओ ।।

    • 30, रामकृष्ण  समाधी रोड, ब्लाक-एच, फ्लैट-2,कोलकाता-700054

    बाबा कानपुरी





    हम उसी पथ के पथिक हैं

    मार्ग में अवरोध पग-पग ,
    कंटकों के जाल फैले
    सघन तम की चादरों से
    विषधरों के फन रुपहले।
                  हम उसी पथ के पथिक हैं।  
    आस्था के इन पगों की
    रक्तरंजित एड़ियाँ क्यों?
    बढ़ न पाते, स्वार्थ की
    जकड़े हुए हैं बेड़ियाँ क्यों?
    किन्तु है विस्वास मुण्झको
    छटेंगी तम की घटाएं
    भोर से कुछ ठीक वहले।
                  शुष्क मत समझो रसिक हैं।
                  हम उसी पथ के पथिक हैं।
    श्वेत हैं परिधान, उर में
    द्रश्य छाया चित्र  : अभिशक्ति 
    कालिमा निकले बजकती,
    रेत की दीवार सी नीयत
    सहज जिनकी खिसकती।
    ज्वार बन उन्माद उठते ,
    ध्वंस का अवसाद लगता।
    झाग के बादल विषैले,
                    दीन ये होकर धनिक हैं।
                    हम उसी पथ के पथिक हैं।
    • ग्राम सदरपुर, सेक्टर-45, नोएडा-201303, उ.प्र.

    केशव शरण






    ग़ज़ल

    ये अपनी ज़िन्दगानी का सफ़र था
    बुढ़ापे तक जवानी का सफ़र था

    थका डाला मेरे किरदार को भी
    बहुत लम्बा कहानी का सफ़र था

    हवा से तेज़ गुज़रे इसके लम्हे
    बहुत कम मौज-पानी का सफ़र था

    हमारी एक ही मंज़िल थी लेकिन
    शुरू से बदगुमानी का सफ़र था

    द्रश्य छाया चित्र  : पूनम गुप्ता 
    पड़े हैं फूल मुरझाये ज़मी पर
    गमकता रातरानी का सफ़र था

    कहां तक काग़जी कश्ती भी जाती
    हिलोरदार पानी का सफ़र था

    तुम्हारे गांव का टेशन था गुज़रा
    मेरी जां राजधानी का सफ़र था
    • एस-2/564, सिकरौल, वाराणसी कैन्ट, वाराणसी-2 (उ0प्र0)

    डा. विजय प्रकाश





    अब क्या कहना है

    जब कहनी थी,
    नहीं कह सके,
    कर गये पार पचास......
        प्रिये! अब क्या कहना है?
    फूल-शूल के बँटवारे में
    शूल पड़े सब हिस्से मेरे,
    द्रश्य छाया चित्र  :  उमेश महादोषी
    मन को समझाने के क्रम में
    मैंने गढ़े अनेकों किस्से;
    लेकिन किस्से गढ़ने भर से
    जीवन भला कहाँ चलता है?
    विधि ने जो लिख दिया उसे तो
        हँसकर या रोकर सहना है।
    अपने वश में सिर्फ दौड़ना,
    हार-जीत तो ईश हाथ में,
    मेरे लिए यही काफी था,
    खड़ी रही तुम सदा साथ में;
    हीरे-पन्नों के लालच में
    क्यों कर दर-दर शीश झुकाएँ?
    संघर्षों का श्रम-सीकर ही
        अपने जीवन का गहना है।
    • मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा) विभाग, मुख्य सचिवालय, बिहार, पटना- 800015.

    नरेश कुमार उदास





    हँसी के खजाने

    सूरज रोज चढ़ता है
    फैलाता है अपनी रौशनी
    मानों किरणों के खजाने
    लुटाता है।

    चहकती हैं रंग-बिरंगी चिड़ियाएँ
    सुरीले गीत गाती
    हर्षाती हैं

    चाँद चढ़ता है
    हर रात
    शीतल चाँदनी बिखेरता
    खिलखिलाता सा
    चाँदी की हँसी लुटाता
    मोहता है।

    मैं
    देखता हूँ
    सूरज, चाँद और पक्षियों को
    ढूँढ़ता हूँ
    उनकी खुशी का रहस्य।

    मैं हैरान हूँ
    रेखांकन : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा
    यह सोचकर
    कितना समय हो गया
    मैं नहीं लगा पाया
    ठहाके

    खुलकर हँसा नहीं
    न जाने कब से
    कौन चुरा ले गया
    मेरी हँसी के खजाने!

    • हिमाचल जैव सम्पदा प्रौद्योगिकी संस्थान, पालमपुर-176061(हि.प्र.)

    शिवानन्द सिंह सहयोगी






    चलता बना

    समय जिस पर था भरोसा छोड़कर चलता बना
    धुंध की मनहूस चादर ओढ़कर चलता बना

    तिमिरमय उस रात में जो चाँद कुछ खिलता दिखा
    चाल में अनहोनियों की पेड़ सा गिरता दिखा
    पुस्त के जिस पृष्ठ को पढ़ता रहा मैं रात भर
    सुबह का आया उजाला मोड़कर चलता बना
    समय जिस पर ................................

    जिस परस को नींद की लोरी सुनाता था कभी
    झूलनों के प्यार की डोरी झुलाता था कभी
    आड़ में निगरानियों के दर्द की गोली खिला
    आवरण वह आँसुओं का चीरकर चलता बना
    समय जिस पर ................................

    परिकलन परिकल्पना के बंद ढीले हो गये
    हृदय के अनुनाद के हर छंद गीले हो गये
    भाव हर अनुबंध का अनुलंब सा लगने लगा
    तोड़कर संबंध अनुक्रम जोड़कर चलता बना
    समय जिस पर ................................

    • ‘शिवाभा’ ए-233, गंगानगर, मवाना मार्ग, मेरठ-250001(उ0प्र0)

    त्रिलोक सिंह ठकुरेला



    गांव तरसते हैं

    सुविधाओं के लिए अभी भी गांव तरसते हैं।

    सब कहते इस लोकतन्त्र में
    शासन तेरा है,
    फिर भी होरी की कुटिया में
    घना अंधेरा है,
    अभी उजाले महाजनों के घर में बसते हैं।

    अभी व्यवस्था
    दुःशासन को पाले पोसे है,
    अभी द्रौपदी की लज्जा
    रेखांकन : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा
    भगवान - भरोसे है,
    अपमानों के दंश अभी सीता को डसते हैं।

    फसल मुनाफाखोर खा गये
    केवल कर्ज बचा,
    श्रम में घुलती गयी जिन्दगी
    बढ़ता मर्ज बचा,
    कृषक सुद के इन्द्रजाल में अब भी फॅंसते हैं।

    रोजी - रोटी की खातिर
    वह अब तक आकुल है,
    युवा बहिन का मन
    घर की हालत से व्याकुल है,
    वृद्व पिता माता के रह रह नेत्र बरसते हैं।

    • बंगला संख्या-एल-99,रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबू रोड-307026 राज.

    सत्येन्द्र तिवारी




    शब्द तूती बज रही है

    तपन से समय की झुलसा,
    मन का पखेरू उड़ रहा
    टीसता है दर्द रह-रह
    वही हिम्मत बांधता है।

    हम न उलझे जगमगाते,
    लुटेरों के जाल में
    नहीं दौड़े, दौड़ अंधी,
    कभी भी नव चाल में
        अनथके अवरोध सारे,
        पंथ दुर्गम लांघता है।

    शोर में भी नगाड़ों के
    द्रश्य छाया चित्र  : पूनम गुप्ता 
    शब्द-तूती बज रही
    बस संसदी अखाड़ों में
    नूरा कुश्ती चल रही
        न्याय की बंदर तुला पर,
        बराबर हक मांगता है।

    शहर जंगल गांव पर्वत,
    नदी भरती सिसकियां
    भंवर में आती नजर हैं
    जिन्दगी की कश्तियां
        पतवार को मन भावना की,
        शब्द-कीलें ठोंकता है।

    • 20/71, गुप्ता बिल्डिंग, रामनारायण बाजार, कानपुर-208001, उ.प्र,

    नित्यानंद ‘तुषार’






    ग़ज़ल
                    
    ये तो सोचो सवाल कैसा है
    देश का आज, हाल कैसा है
                    
    जिससे मज़हब निकल नहीं पाते
    साज़िशों का वो जाल कैसा है 
                    
    आए दिन हादसे ही होते हैं
    सोचता हूँ ये साल कैसा है
                    
    जान लेता है बे-गुनाहों की
    आपका ये कमाल कैसा है
                    
    आपने आग को हवा दी थी
    जल गए तो मलाल कैसा है
                    
    दुश्मनी से ‘तुषार’ क्या हासिल
    दोस्ती का ख़याल कैसा है
                    
    • आर-64, सेक्टर-12, प्रताप विहार, गाजियाबाद-201009 (उ.प्र.)



    सनातन कुमार बाजपेयी






    चलो चलें अविराम

    साथियो चलो चलें अविराम।
    दर्द मिटाना है दुनियाँ के, नहीं क्षणिक विश्राम।।
    साथियो...

    दुश्मन मिलें मसल दें उनको।
    कांटे मिलें कुचल दें उनको।
    अब प्रमाद को त्यागें प्रियवर, करना जग में नाम।।
    साथियो...

    अटल हिमालय से बन जायें।
    अगम सिन्धु से नित लहरायें।
    सुरसरि सी पावनता लेकर, बनें त्रिवेणी धाम।।
    साथियो...

    रामचन्द्र आदर्श हमारे।
    कृष्णचन्द्र जन-जन के प्यारे।
    न्याय धर्म की रक्षा करने, करें सतत हम काम।।
    साथियो...

    सत्य, अहिंसा व्रत अपनायें।
    घर-घर इनकी अलख जगायें।
    द्रश्य छाया चित्र  : पूनम गुप्ता 
    आतंकी घन गरज रहे जो, कर दें काम तमाम।।
    साथियो...

    पग-पग काले नाग विषैले।
    भरते हैं केवल निज थैले।
    पथ से इन्हें हटायें मिलकर, दें नूतन आयाम।।
    साथियो...

    बने विश्व सुन्दर नन्दन वन।
    लहें शान्ति-सुख सारे जन-जन।
    खुशियों के सागर लहरायें, प्रमुदित आठों याम।।
    साथियो...

    •  पुराना कछपुरा स्कूल, गढ़ा, जबलपुर-482003 (म.प्र.)  



    अविराम विस्तारित

    ।।कथा प्रवाह।।
    सामग्री : डा. सतीश दुबे, भगीरथ परिहार, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सुनील कुमार चौहान, शिव अवतार पाल व मोहन लोधिया की लघुकथाएं


    ।।कथा प्रवाह।।
    डा. सतीश दुबे
     

    साया
       मॉल के कैन्टिन में कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए र्दाइं ओर बैठी टॉप-जिन्स, चेहरे की दोनों साइड में स्टाइल से संवारकर लटकाए बालों और मेकअप-सैपअप युक्त अकेली बैठी युवती के चेहरे पर जाकर ठहरी विजय की आँखें, हट नहीं रही थीं। उसके अन्तर्मन से आवाज आ रही थी कि इस औरत को वह पहचानता है।
        ऊहापोह की स्थिति से उबरने के लिए सम्पूर्ण आत्मशक्ति बटोरकर वह उस तक पहुँचा। उसके ‘‘एक्सक्यूज मी मैडम’’ कहते ही उसने उसकी ओर गर्दन ऊँची कर देखा तथा आश्चर्य से आँखें घुमाते हुए बोली- ‘‘विजय... तू... ’’। ’’तेने पहचान लिया?’’ ‘‘एक लपाड़ा दूँगी, तेरे को नी पेचानुगी क्या, बैठ।’’
        ‘‘मालती तुझे यहाँ ऐसी मॉड मेम देखकर.....’’
        ‘‘बस..बस रेने दे, यहाँ आने के बाद मैं मालती नहीं मधु हो गई हूँ। मक्खियों के छत्ते के शहद जैसी मीठी....। डेरे से यां कैसे आई, ये सब तेने वहाँ आते-जाते जान ही लिया होगा। यहाँ मैं कावेरीबाई की धंधा करने वाली छोकरी नहीं ‘‘कालगर्ल’’ हूँ। धंधे ने रहना-बोलना सब धीरे-धीरे सिखा दिया। एक आदमी रख लिया है मोबाइल पर ग्राहकों से बात वो ही  करता है। हर काम के अलग-अलग रेट। डेरा छोड़ पाँच-सात साल में इत्ती कमाई हो गई कि फ्लैट भी ले लिया और कार भी। कौन क्या करता है ये बात शहर का साया जानता है बस। चोरी-छिपे, खुले आम क्या चल रहा है, किसे अड़ी। मैंने अपनी बात बता दी। तू अपनी कह...?’’ बिना किसी जिज्ञासा प्रश्न के अपना पूरा कच्चा चिट्ठा बयान कर मधु ने विजय की ओर देखा।
        ‘‘तेरे जैसा लखपति तो नहीं, पर गाँव से अच्छा हूँ। स्कूली पढ़ाई के बाद यहाँ बी.ए. तक पढ़ा और रिजर्वेशन के कारण, एक आफिस में बाबू की नौकरी मिल गई। डेरे पर जाता हूँ तो लोग बाबू विजय सिंह राठौर की अफसर जैसी इज्जत करते हैं।’’
       ‘‘अरे वाह! तेरी बात सुनकर सच मजा आ गया....’’ यहाँ तो क्या दूँ, घर आना, जो तू चाहेगा, उससे ज्यादह ही देकर खुश कर दूँगी।’’ कहते हुए मालती खिलखिलाई। ओठांे की लालिमा और दांतों की सफेदी के बीच से निकली फूल जैसी झरती हंसी देख विजय को लगा, सचमुच शहर ने उसकी काया को बाँछड़ी से ‘कॉलगर्ल’ बना दिया है।
       ‘‘कहा न तेरे को.... आना खुश कर दूँगी, फिर काहे को घूरे जा रहा है।’’
    द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
       ‘‘तेरी उतरी-पातरी चीज की खुशी मुझे नहीं चाहिए।’’ विजय के चेहरे पर मुस्कुराहट थी।
       ‘‘अच्छा!! वारे ब्रह्मचारी के बेटे.... ऐसा कर मेरे ठिये-ठिकाने का पता तो लिख ले और आने से पहले मोबाइल कर लेना.... तू आयेगा तो मुझे अच्छा लगेगा। मेरा आदमी आ रहा है, वो समझेगा ग्राहक है.... तू जा...।’’ कुर्सी से खड़े होते हुए विजय ने देखा आँसुओं से भर आईं बड़ी-बड़ी आँखों से मालती उर्फ मधु उसकी ओर देख रही है।
    • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)

    भगीरथ परिहार
     

    सुनहरे भविष्य का बीमा     
        समधी जी हमने शादी ब्याह की सब बातें तो पक्की कर ली लेकिन एक बात तो भूल ही गये
        इस ‘लेकिन’ शब्द को सुनते ही कितनी पुत्रियों के पिताओं को धरती घूमती नजर आई होगी। कितनी ही कन्याओं के जीवन को नरक कुंड बना दिया होगा, जो आत्मग्लानि से ग्रसित हो जीवन जीने की इच्छा ही समाप्त कर बैठी होगी।
        आपकी पुत्री सुन्दर है, सुशील है और हर दृष्टि से योग्य है लेकिन रीति-रिवाज और अपनी मान-प्रतिष्ठा के अनुसार दान दहेज तो देना ही पड़ेगा।
        बेटी का बाप कुछ हिचकिचाने लगता है।
    रेखांकन : सिद्धेश्वर
       ‘किस कंजर से पाला पडा है, वो घनश्यामजी सीधे-सीधे पॉंच लाख दे रहे थे लेकिन ये कपूत छोरी की सुन्दरता पर लट्टू हो गये, नहीं तो पाँच लाख छः साल में दस लाख हो जाते और एक अच्छी खासी कोठी बनवा देते।’ बेटे का बाप मन में विचार कर रहा था। ‘कुछ नहीं तो एक फ्लेट ही बेटी के नाम बुक करा दें!’
       बेटी का पिता कुछ प्रत्युत्तर देता उसके पहले ही समधिन ने अपने बाण छोड दिये, ‘अब देखिये भाईसाहब, इंजीनियर जमाई चाहिए और वो भी फ्री चाहिए। कर लेते अपनी बेटी का ब्याह किसी चपरासी से या बेरोजगार से। सपने देंखेंगे कि बेटी रानी बनकर राज कर रही है। लेकिन कानी् कौड़ी खर्च नहीं करेंगे यह भी कोई बात है। उल्टे सिद्धातो का भाषण पिला देंगे।’
       बेटी का बाप हिचकिचाकर अपनी कुछ मजबूरी बताने का प्रयत्न करता है कि दूल्हे के पिता फिर उन्हें समझाने लगते हैं। ‘अब आप यही समझ लीजिए कि आप अपनी बेटी के सुनहरे भविष्य के लिए प्रीमियम भर रहे है। मेच्योर होने पर ब्याज व बोनस सहित राशि मिलेगी और बेटी ताजिन्दगी प्रसन्न रहेगी और परिवार की मालकिन बनेगी। बस बेटी के नाम फ्लेट बुक करा दीजिए और किश्तों में पैसा देते जाइये। आपको भारी भी नहीं पड़ेगा।’
       बेटी का बाप असमंजस में पडा कुछ नहीं बोल पाया। केवल सिर हिलाकर रह गया।
    • 228, नयाबाजार कालोनी रावतभाटा, राजस्थान पिन- 323307

    अशोक भाटिया
     


    टूटते हुए तिनके

       शाम का चारा नाँद में डालकर टेका बैठा ही था, कि मास्टर जी आ गये। प्रौढ़-शिक्षा की क्लरस खुले में ही लगती थी। पेडत्र के नीचे बैठकर मास्टरजी उनसे बतियाने लगे।
       थोड़ी दूरी पर एक ठूँठ के नीचे बैठा रामफल अपने पिता को देख रहा था...
       ज़मीन से एक तिनका उठाकर वह सोचने लगा- ‘पढ़-लिख कै बापू आदमी बण ज्यागा...बड़ा आदमी हो ज्यागा...’
       ज़मीन को स्लेट समझकर तिनके से लकीरें खींचते हुए, वह सोचने लगा- ‘‘मैं न्यूँ कद पढ़ूँगा...सकूल माँ तो एक भी मास्टर नी आंदा...’’
       उसके हाथ का तिनका टूट गया, तो वह उठकर अपने पिता और मास्टरजी को देखते हुए खेतों में दूर निकल गयां...
       साँझ को जब वह घर आया, तो बोला- ‘मैं सारा दिन तो खाली फिरूँ हूँ...तौं इब बेसक दिन माँ भी पढ़ ल्या कर... मैं खेताँ माँ तनिक और काम कर दयूँगा...!’’
    • 1882, सैक्टर-13, करनाल-132001 (हरियाणा)

    सुकेश साहनी
     

    ठंडी रजाई

    “कौन था ?” उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा ।
    “वही, सामने वालों के यहाँ से,” पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, “बहन, रजाई दे दो, इनके दोस्त आए हैं।” फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, “इन्हें रोज़-रोज़ रजाई माँगते शर्म नहीं आती। मैंने तो साफ मना कर दिया- आज हमारे यहाँ भी कोई आने वाला है।”
    “ठीक किया।” वह भी रजाई में दुबकते हुए बोला, “इन लोगों का यही इलाज है ।”
    “बहुत ठंड है!” वह बड़बड़ाया।
    “मेरे अपने हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे हैं।” पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अँगीठी के और नज़दीक घसीटते हुए कहा ।
    “रजाई तो जैसे बिल्कुल बर्फ हो रही है, नींद आए भी तो कैसे!” वह करवट बदलते हुए बोला ।
    “नींद का तो पता ही नहीं है!” पत्नी ने कहा, “इस ठंड में मेरी रजाई भी बेअसर सी हो गई है ।”
    जब काफी देर तक नींद नहीं आई तो वे दोनों उठकर बैठ गए और अँगीठी पर हाथ तापने लगे।
    “एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी?” पति ने कहा।
    “कैसी बात करते हो?”
    द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
    “आज जबदस्त ठंड है, सामने वालों के यहाँ मेहमान भी आए हैं। ऐसे में रजाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी।”
    “हाँ,तो?” उसने आशाभरी नज़रों से पति की ओर देखा ।
    “मैं सोच रहा था....मेरा मतलब यह था कि....हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।”
    “तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़े ही जाएगी,” वह उछलकर खड़ी हो गई, “मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ।”
    वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था। वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी।
    • 193/21, सिविल लाइन्स, बरेली-243001 (उ.प्र.)

    सुनील कुमार चौहान
     


    सच्चाई

        वह अपने छः वर्षीय पोते सचिन से अक्सर पड़ोसी के घर न जाने को कहते रहते थे। इतने पर भी वह यदा-कदा चला ही जाता था। धीरे-धीरे उसका पड़ोसी के घर जाना बन्द-सा हो गया।
        एक दिन सचिन अपने दादाजी के साथ बाजार जा रहा था, तभी रास्ते में वही पड़ोसी मिल गये। उन्होंने सचिन को देखा तो पूछने लगे- ‘‘बेटे सचिन, क्या बात अब तुम हमारे घर नहीं आते। क्या तुम्हारे घर वालों ने हमारे घर आने से मना कर दिया है?‘‘
         इससे पहले कि सचिन कोई जबाब देता, उसके दादाजी बोल पड़े- ‘‘नहीं-नहीं, घर वाले भला क्यों मना करेंगे! यह अपने आप ही नहीं......’’
         दादाजी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि सचिन ने बीच में ही टोंक दिया- ‘‘आप ही तो बार-बार कहते थे कि उनके घर मत जाया करो।’’
        सुनते ही पड़ोसी मुस्कुरा पड़े। दादाजी का चेहरा फक पड़ गया था। वह अपने पड़ोसी से आँख भी नहीं मिला पा रहे थे। उन्हे ऐसा लग रहा था जैसे उनके पोते ने उन्हे सरेआम नंगा कर दिया हो।  
    • ग्राम- परसिया, डाक-  परवेजनगर, जिला- बदायूँ (उ0 प्र0)
    शिव अवतार पाल

     

    एडजस्ट

       उस पूरी रात उन्हें नीद नहीं आई। थोड़ी-थोड़ी देर में उठ कर बल्व जला कर घड़ी देखते, कमरे से निकल कर टहलते हुए आँगन के दो चक्कर लगाते और फिर बत्ती बुझा कर लेट जाते। पन्द्रह दिन तो जैसे-तैसे बीत गये; पर ये रात खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी, मानो सदियों लम्बी यात्रा एक बार में ही पूरी कर लेना चाहती हो।
      कल दस बजे की गाड़ी से मनु, बहू और पोते के साथ आ रहा है। चार साल पहले वह मुंबई गया था, तबसे वहीं का हो कर रह गया और वहीं शादी भी कर ली। फोन द्वारा सूचना दे कर उसने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी और वह सारी अभिलाषाओं को दिल में दफन किये मन मसोस कर रह गये थे। अब तो पोता भी दो साल का हो गया था। उन्होंने कई बार फोन पर आग्रह किया कि बहू और पोते को एक बार घुमा ले जाओ, पर हर बार उनकी उम्मीद के मधुमास पर निराशा का पतझड़ भारी पड़ता रहा।
      मनु ने एक-दो बार मुंबई आने के लिये कहा भी, पर उसकी बातों में उन्हें आमंत्रण कम औपचारिकता अधिक लगी थी। वैसे भी इस घर, शहर और यहाँ की गलियों से उन्हें इतना अधिक लगाव था कि छोड़ने की कल्पना मात्र से ही मन काँपता था।
      .......और अब उनके गठिया से दुखते जोड़ों में पता नहीं कहाँ से इतनी शक्ति आ गई थी कि अपने हाथों से घर की सफाई की, अस्त-व्यस्त सामान को करीने से लगाया और बाजार से पोते के लिये दौड़ने वाली रेलगाड़ी, बोलने वाली गुड़िया, ढोल बजाता बन्दर, नाचने वाला जोकर और ऐसे ही जाने कितने खिलौने ले आये थे।
      भोर की पहली किरण के साथ आँगन में गिलहरी और चिड़ियाँ फुदकने लगी थीं। उन्हें चुगाने के लिये उन्होंने चावल के दाने बिखेर दिये। पिछले पन्द्रह दिनों से वह यह सब कर रहे हैं, ताकि ये नन्हें जीव यहाँ आने के अभ्यस्त हो जायें। मुन्ना इनके साथ खेल कर कितना खुश होगा, मुंबई में तो फ्लैट के भीतर ही दुनिया सिमट कर रह जाती है।
    रेखांकन : हिना
      अचानक फोन की घंटी बजी। उन्होंने झपट कर रिसीवर उठाया, दूसरी ओर मनु था।
      ‘गाड़ी आ गई बेटा।’ वह चहकने लगे, ‘तुम वहीं रूको, मैं पहुँच रहा हूँ।’
      ‘सॉरी पापा।’ मनु की आवाज आयी, ‘इन्दु आने को तैयार नहीं है। दरअसल वह ए.सी. में रहने की आदी है और वहाँ तो कूलर भी नहीं है। वैसे भी छोटे शहरों में लाईट के आने-जाने का कोई वक्त नहीं होता। ऐसे में उसका एडजस्ट करना मुश्किल हो जायेगा।’
      आँगन में चिड़ियाँ चहचहा रही थीं और उनके भीतर गहरा सन्नाटा पसर चुका था।
    • 200, सती मोहल्ला, इटावा- 206001(उ.प्र.)

    मोहन लोधिया
     






    माँ का वात्सल्य
    द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
       रामदीन ने अपनी गाय का नाम गौरी रखा था। कुछ दिन बाद गौरी ने बछड़े को जन्म दिया। बछड़े को सभी प्यार करते थे। रामदीन की पत्नी तो उसे पुत्रवत स्नेह करती और गोद में खिलाती थी। एक दिन रामदीन की पत्नी बछड़े को गोद में लेकर दुलार रही थी तभी बछड़े ने स्तनपान के लिये मुँह लगा दिया। रामदीन की पत्नी ने गुस्से से बछड़े को गिरा दिया।
       जमीन पर गिरे हुए बछड़े को देखकर गौरी जोर से रंभाने लगी। उसकी नजर दीवार पर टंगे कैलेंडर पर टिकी थी। कैलेंडर के चित्र में बालक श्रीकृष्ण गाय के थन से मुंह लगाकर दूध पी रहे थे। गौरी सोच रही थी, क्या माँ का वात्सल्य पशु और मनुष्य में अलग-अलग होता है?
    • 135/136, ‘मोहन निकेत’, अवधपुरी, नर्मदा रोड, जबलपुर-482008 (म.प्र.)

    अविराम विस्तारित

    ।।सामग्री।।
    क्षणिकाएँ  :  मंजू मिश्र  व मदन दुबे


    ।।क्षणिकाएँ।।

     मंजु मिश्रा



    1.
    मेरी ख्वाहिशों ने
    रिश्ते जोड़ लिए आसमानों से
    उगा लिए हैं पंख
    और उड़ने लगी हैं हवाओं में
    अब तो बस !
    ख़ुदा ही ख़ैर करे !!
    2.
    सपनों की फसल..
    बोती हूँ हर रात,
    एक नया सपना
    फ़िर सींचती हूँ
    ख्यालों में !

    रेखांकन : बी.मोहन नेगी
    सींचते सींचते
    थक जाती हूँ
    लेकिन जाने
    ये कैसी फसल है ?

    न बढ़ती है
    न सूखती है,
    बस यूँ ही आँखों में
    टँगी रहती है!
    3.
    दरख्तों ने तो
    अपनी
    प्यास के पैगाम भेजे थे
    मगर सूखी हुई नदियाँ,
    भला करतीं तो क्या करतीं
    4.
    चाँद बनके उतरे हैं
    ख़वाब मेरी आँखों में
    ज़िन्दगी धड़कती है
    हौले हौले सांसों में
    5.
    दिग्भ्रमित ह्रदय की
    व्यर्थ कल्पना पर
    मुझको विश्वास नहीं हैं
    मेरे पाँव,
    जहाँ टिकते हैं,
    धरती है,
    आकाश नहीं है !!
    • कैलिफ़ोर्निया,  ई मेल-  manjumishra@gmail&com

    मदन दुबे




    १. व्यभिचार

    फूलो से करते
    रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
    भृंग व्यभिचार
    कलियों ने देखा
    पढ़ा अपना लेखा

    २. आख्यान

    आत्मा ने लिखा
    स्वयं का आख्यान
    स्मृति पढ़ती रही
    कलम चलती रही
    • 49/280, जसूजा सिटी, भेड़ाघाट रोड, धनवन्तरिनगर, जबलपुर-482002(म.प्र.)

    अविराम विस्तारित

    ।।सामग्री।।

    ताँका : डॉ. सुधा गुप्ता
    हाइकु :  के.एल.दीवान  एवं   आचार्य राधेश्याम सेमवाल 

    ।।ताँका।।
    डॉ. सुधा गुप्ता




     {हाइकु व ताँका की सुप्रसिद्ध की कवयित्री डॉ. सुधा गुप्ता जी का ताँका संग्रह ‘सात छेद वाली मैं’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं कुछ खूबसूरत ताँका।}

    1.
    सुनो जी कान्हा!
    सात छेद वाली मैं
    ख़ाली ही ख़ाली
    तूने अधर धरी
    सुरों की धार बही
    2.
    बाँस की पोरी
    निकम्मी, खोखली मैं
    बेसुरी, कोरी
    तूने फूँक जो भरी
    बन गई ‘बाँसुरी’
    3.
    कोई न गुन
    दो टके का न तन
    तूने छू दिया
    रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
    कान्हा! निकली धुन
    लो, मैं ‘नौ लखी’ हुई
    4.
    छम से बजी
    राधिका की पायल
    सुन के धुन
    दौड़ पड़ी गोपियाँ
    उफनी है कालिन्दी
    5.
    तेर ही जादू
    दूध पीना भूला है
    गैया का छौना
    चित्र-से मोर, शुक
    कैसा ये किया टोना

    • 120 बी/2, साकेत, मेरठ (उ.प्र.)


    ।।हाइकु।।

    के.एल.दीवान

     



    पाँच हाइकु
    1.
    हैं नादान ये
    रोशनी की खेज में
    आग बांटते
    2.
    रेखांकन : विज्ञान व्रत 
    देखा तुझे तो
    लगा गुलाब खिला
    कांटों के बीच
    3.
    बिगुल बजा
    अंधेरों के खिलाफ़
    जंग छेड़ दे
    4.
    हमने सौंपी
    आने वाले कल को
    तारीख़ काली
    5.
    हमने सौंपी
    आने वाले कल को
    तारीख़ काली
    • ज्ञानोदय अकादमी, 8, निर्मला छावनी, हरिद्वार-249401 (उत्तराखण्ड)

    आचार्य राधेश्याम सेमवाल
     






    चार  हाइकु
    1.
    न करो क्रोध
    बेटी है प्रकृति की
    विश्वास बोध।
    2.
    होता है भूखा
    पुरुष विजय का
    नारी प्रेम की।
    3.
    नर की दृष्टि
    होती है नारियों की
    रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा
    अन्तर-दृष्टि।
    4.
    कभी मौन ही
    वाणी से अधिक
    होता मुखर।
    • एम-57, शिवलोक कालोनी, फेज-3, हरिद्वार (उ.खण्ड)

    अविराम विस्तारित

    ।।सामग्री।।
    जनक छन्द : डॉ. ब्रह्मजीत  गौतम, महावीर उत्तरांचली  व हरिश्चंद्र शाक्य


    डॉ. ब्रह्मजीत गौतम

    {डॉ. गौतम जी जनक छन्द के विद्वान एवं सशक्त रचनाकार हैं। हाल ही में उनका जनक छन्द संग्रह ‘जनक छन्द की साधना’ प्रकाशित हुआ है। इसी संग्रह से उनके कुछ जनक छन्द यहाँ प्रस्तुत हैं।}

    जनक छन्द
    1.
     नदी, सरोवर, पोखरे
    घूँसखोर बाबू सदृश
    गँदले पानी से भरे
    2.
    रातें तो मगरूर हैं
    दिन भी हुए पहाड़-से
    दोनों ही अति क्रूर हैं
    3.
    काग गा रहे फाग हैं
    रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव
    गधे शान से चर रहे
    लोकतंत्र का बाग है
    4.
    डूब रहा रवि सत्य का
    झूठ दमकता शान से
    अंत करो इस कृत्य का
    5.
    बादल जैसा प्यार दो
    जो कुछ लिया समुद्र से
    सब वसुधा पर वार दो
    6.
    हवा लगी आकाश की
    पेड़ पुराना क्यों रुचे
    राह नवीन तलाश की
    7.
    कैसा आया काल है
    जो चलता ईमान पर
    उसका खस्ता हाल है
    8.
    जहाँ दृष्टि जाती वहाँ
    हिंसा, बलवे, कत्ल हैं
    अमन रहे जाकर कहाँ
    • बी-85, मिनाल रेजीडेंसी, जे.के. रोड, भोपाल-462023(म.प्र.)


    महावीर उत्तरांचली
     






    जनक छन्द
    1.
    वफ़ादार ये नैन हैं
    हाल सखी जाने नहीं
    साजन तो बेचैन हैं
    2.
    राजनीति सबसे बुरी
    रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव
    ‘महावीर’ सब पर चले
    ये है दो धारी छुरी
    3.
    शांति-धैर्य गुमनाम है
    मानवता दिखती नहीं
    बस! कत्ल सरेआम है
    •  बी-4/79, पर्यटन विहार, वसुन्धरा एन्क्लेव, नई दिल्ली


    हरिश्चन्द्र शाक्य
     






    जनक छन्द
    1.
    सोना बरसे मेह में
    रेखांकन : पारस दासोत
    रोज दिवाली ही रहे
    धनवानों के गेह में
    2.
    जीवन भागम-भाग है
    बढ़ जाने की होड़ में
    हर सीने में आग है।
    3.
    बच्चों की किलकारियाँ
    मन में भरती मोद हैं
    खुश होती महतारियाँ
    4.
    मन में नयी उमंग है
    तन में सचमुच जोश है
    तो पुलकित हर अंग है
    • शाक्य प्रकाशन, घण्टाघर चौक, क्लब घर, मैनपुरी-205001 (उ.प्र.)