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शुक्रवार, 26 मई 2017

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


छायाचित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 
   ।।सामग्री।।
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सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. कपिलेश भोज,जितेन्द्र जौहर, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, डॉ. गिरीश चन्द्र पाण्डेय ‘प्रतीक’ व हमीद कानपुरी की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. अशोक भाटिया, डॉ. सिमर सदोष व मार्टिन जॉन  की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी} : इस अंक में सुशांत सुप्रिय की कहानी ‘हमला’ व छत्रसाल क्षितिज की ‘भूलना मत...’।

लघुकथा : अगली पीढ़ी  {लघुकथा : अगली पीढ़ी} : इस अंक में दीपक मशाल की लघुकथाओं पर उमेश महादोषी की प्रस्तुति ।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} : अब से क्षणिकाओं एवं क्षणिका सम्बन्धी सामग्री के लिए ‘समकालीन क्षणिका’ ब्लॉग  जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें-

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में प्रतापसिंह सोढ़ी व डॉ. सुषमा सिंह के हाइकु।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में वाणी दवे के लघुकथा संग्रह  ‘अस्थायी चार दिवारी’  की प्रो. बी. एल. आच्छा द्वारा, कमल चोपड़ा के लघुकथा संग्रह ‘अनर्थ’ की राधेश्याम भारतीय द्वारा व  हरिशंकर शर्मा जी की पुस्तक ‘शहर की पगडंडियाँ’ की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा समीक्षाएँ।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017




।।कविता अनवरत।।


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’



बंजारे हम
जनम-जनम के बंजारे हम
बस्ती बाँध न पाएगी।
अपना डेरा वहीं लगेगा
शाम जहाँ हो जाएगी।

जो भी हमको मिला राह में
बोल प्यार के बोल दिये।
कुछ भी नहीं छुपाया दिल में
दरवाजे सब खोल दिये।
निश्छल रहना बहते जाना
नदी जहाँ तक जाएगी।

ख्वाब नहीं महलों के देखे
चट्टानों पर सोए हम।
फिर क्यों कुछ कंकड़ पाने को
रो-रो नयन भिगोएँ हम।
मस्ती अपना हाथ पकड़ कर
मंज़िल तक ले जाएगी।

ओ चिरैया
छायाचित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 

ओ चिरैया!
कितनी गहरी 
हुई है तेरी प्यास!

जंगल जलकर
खाक हुए हैं
पर्वत-घाटी 
राख हुए हैं।
आँखों में 
हरदम चुभता है
धुआँ-धुआँ आकाश।

तपती 
लोहे-सी चट्टानें 
धूप चली 
धरती पिघलाने
सपनों में
बादल आ बरसे,
जागे, हुए उदास।

उड़ी है
निन्दा जैसी धूल,
चुभन-भरे
पग-पग हैं बबूल
यही चुभन
रचती है तेरी-
पीड़ा का इतिहास।

कुछ वीर छन्द...

एक तरफ़ हैं वीर बाँकुरे, मस्तक अर्पण को तैयार।
दूजी ओर डटे बातूनी, बातों की भाँजें तलवार।।

अगर देश की रक्षा करना, कर लो अब इनकी पहचान।
रेखाचित्र  : उमेश महादोषी 

खाते-हैं ये अन्न वतन का, और ज़ुबाँ पर पाकिस्तान।।

गद्दारों ने सदा दगा की, लूटा अपना हिन्दुस्तान।
बीज सदा नफ़रत के बोए, खोया भारत का सम्मान।।

सीमा पर गोलों की वर्षा,  प्राण लुटाते सच्चे लाल।
मस्ती करते कायर घर में, खूब उड़ाते हैं तर माल।।

भेजो इनको सीमाओं पर, समझेंगे अपनी औकात।
आ जाएगी अक्ल इन्हें फिर, खाएँगे जब जूते लात।।
  • जी-902,जे एम अरोमा, सेक्टर-75, नोएडा-201301, उ.प्र./मोबा. 09313727493

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डॉ. कपिलेश भोज



तुम्हारा मिलना

तुम्हारा मुस्कुरा कर मिलना
जैसे
सहसा उमंगों का समंदर
लहरा कर
आ गया हो पास


और
तुम्हारा चंद कदम साथ चलना
जैसे
भीतर उमड़ पड़ा हो
ऊर्जा का ज्वार


फिर तुम्हारा बोलना
जैसे
रातरानी की गंध से
गमक उठा हो
ताज़ा हवा का
रेखाचित्र  : रमेश गौतम 

एक स्नेहिल झोंका...

तलाशकभी कौसानी
कभी सोमेश्वर
कभी अल्मोड़ा
कभी नैनीताल की
जानी-पहचानी सड़कों
और कभी
किसी निचाट दुपहरी में
अपने गाँव लखनाड़ी के
दरख़्तों के बीच गुजरती
ख़ामोश पगडंडी पर
चहलक़दमी करते हुए
किसे ढूँढ़ रहा हूँ मैं
और
बार-बार क्यों लौट आता हूँ
रीता का रीता


प्रकृति की मोहकता भी
क्यों नहीं दे पा रही
मुझे सुकून


आख़िर कब मिलेंगे मुझे
अपनत्व भरे हृदय
और/कब दिखेंगे
स्नेह से छलछलाते नयन...
और कब तक रहेगी जारी
यह तलाश...
  • सोमेश्वर, जिला अल्मोड़ा-263637 (उत्तराखण्ड)/मोबा. 08958983636

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जितेन्द्र जौहर



मुक्तक

01.
किसी दरवेश के किरदार-सा जीवन जिया होता।
हृदय के सिंधु का अनमोल अमरित भी पिया होता।
नहीं होता तृषातुर मन, हिरन-सा रेत में व्याकुल
अगर अन्तःकरण का आपने मंथन किया होता।

02.
नहीं है आरजू कोई कि मुझको मालो-ज़र दे दे।
तू लम्बी ज़िन्दगी दे या कि मुझको मुख़्तसर दे दे।
मुझे जो भी दे, जैसा दे, सभी मंजूर है लेकिन
इनायत कर यही मुझ पर कि जीने का हुनर दे दे।

03.
मुकद्दर आज़माने से, किसी को कुछ नहीं मिलता।
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर 

फ़क़त आँसू बहाने से, किसी को कुछ नहीं मिलता।
हरिक नेमत उसे मिलती, पसीना जो बहाता है
कि श्रम से जी चुराने से किसी को कुछ नहीं मिलता।

04.
जिधर देखो, उधर केवल, अँधेरा ही अँधेरा है।
निशा के जाल में उलझा हुआ, घायल सवेरा है।
बुरे हालात हैं ‘जौहर’, नगर से राजधानी तक
सियासत के दरख़्तों पर, उलूकों का बसेरा है।
  • आई आर- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र-231218, उ.प्र./मोबा. 09450320472

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डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा



सत्य छुपाया तम ने....
आज पुकारा है जननी ने, जाग ज़रा सोई सन्तान!
फ़र्ज़ निभाने की बेला है, बदनीयत ताके शैतान।।

बढ़े शहर की ओर, बोलते, फिरें घूमते रंगे सियार।
इनके दिल में खौफ जगा दे, तू भी भर ऐसी हुंकार।।

भाँति-भाँति के भ्रम फैलाते, कुछ अपने घर के ग़द्दार।
सबक़ सिखाना बहुत ज़रूरी, बनना दो-धारी तलवार।।

चन्दन वन को खूब मिले हैं, सत्य सदा सर्पों के हार।
लेकिन मानव के हित, रखना, उन्हें कुचलने का अधिकार।।
छायाचित्र : उमेश महादोषी 


जिनके पास दया ना ममता, जिन्हें प्रिय मारक हथियार।
सीख यही इतिहास सिखाता, करो तुरत उनका संहार।।

एक बार की भूल क्षमा हो, फिर कुटिलों पर कुटिल प्रहार।
सोलह बार छोड़िए, ज़िंदा, रहे न दुश्मन दूजी बार।।

मुझे सुहाए गले मात के, वीरा अरि मुण्डों की माल।
दिप-दिप दमके स्वर्ण शिखरिणी, फिर जननी का उन्नत भाल।।

सूरज चमका ज़ोर गगन में, दिशा-दिशा फैला उजियार।
सत्य छुपाया तम ने लेकिन, आकर रवि ने दिया उघार।।

  • टॉवर एच-604, प्रमुख हिल्स, छरवडा रोड, वापी , जिला वलसाड-396191(गुजरात)

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डॉ. गिरीश चन्द्र पाण्डेय ‘प्रतीक’


मौसम की तरह

देखा 
मैं कहता था ना
तू भी एक दिन 
मौसम की तरह बदल जाएगा
कल तू बदला था
आज मौसम भी बदल गया
तूने तो मौसम को भी मात दे दी
मौक़ा ही नहीं दिया/इस गरीब को
मौसम की मार झेलने को
घिर आया है
बादल उमड़ घुमड़ कर
जैसे तेरी उलाहनाओं ने 
पहरा दिया था/मेरी नींद पर
सपने तो कांपने लगे थे
मौसम और तुम एक जैसे ही तो हो
है ना सही बात
मौन भी चीखता है
अरे!! तुम्हें जश्न के ढोल 
खूब सुनाई देते हैं
कभी मौन हो चुके
दर्द के क्रन्दन को सुनो
जो फाड़ देगा कान के पर्दे
दहला देगा दिल को
अरे चमचमाते जगमगाते चौराहों को
देख लेते हो 
कभी उन कोठरियों को भी/देख लो 
जिनके दिए बुझ चुके हैं
तुम्हारी पैदा की गयी काल्पनिक आँधियों से
बहुत पलट लिए हैं पन्ने
रच दिए हैं इतिहास
रेखाचित्र : स्व. पारस दासोत 
नाप लिए हैं भूगोल
जरा समाज शास्त्र को भी तो
देख लो
जिस अर्थ की बात करते हो
क्या वह सार्थक है
निरर्थक हो चुके
मौन की व्यथा को सुन लो 
जो चीख रहा है
डेंगू का मच्छर बनते
देर नहीं लगेगी
सुन लो!!!!!
कराह रही है आत्मा
इन फूलों, फूल मालाओं
गुलदस्तों 
और शब्दाडंबरो के बोझ तले
दबकर/पुकार रही है आत्मा
बचालो मुझे/इन दोगले चरित्रों से
आगे बढ़कर/उठ रही हैं 
अँगुलियाँ मेरे होने और न होने के
प्रश्नों पर
दुत्कार रही है आत्मा
स्वाभिमान के लुट जाने
और घड़ियाली आँसू बहाने पर
सुन लो ठहरकर
वो जाने वालो
मत कुचलो 
मत करो सुनी की अनसुनी
मत दबाओ आत्मा की आवाज को
मंच से नहीं बोलती आत्मा
बोलती है
महत्वाकांक्षाओं के बड़े बोल
आज अगर बिना सुने
बोलने गए तो समझ लेना
सुनने वाले बचेंगे नहीं
अब सब कुछ तेरे हाथ में है
  • ग्राम-बगोटी पो. बगोटी, लोहाघाट, चम्पावत, उ.खंड/मोबा. 09760235569

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हमीद कानपुरी



ग़ज़ल

रोज़ोशब मत सता जिन्दगी।
अब न अहसां जता ज़िन्दगी।

लाज इसकी रखो हर तरह
रब ने की है अता ज़िन्दगी।

खेल तेरा बहुत हो चुका
कर न अब तू खता ज़िन्दगी।

कुछ समझ में नहीं आ रहा,
छायाचित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 
क्यों बताती धता ज़िन्दगी।

यार मेरा जहाँ आज दिन
ढूँढ़ ला वो पता ज़िन्दगी।

लक्ष्य को भेदकर के दिखा,
तीर मत कर खता ज़िन्दगी।

(रोज़ोशब-रातदिन)
  • अब्दुल हमीद इदरीसी, सदनशाह, सिविल लाइन्स, ललितपुर, उ.प्र./मोबा. 09795772415

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।। कथा प्रवाह ।।



डॉ. बलराम अग्रवाल



घुन वाले खम्भे

‘‘हाँ, तो फिर?’’ आरोप सुनकर सफेदपोश ने तरेड़ के साथ पूछा।
‘‘यह अमानवीय कर्म है!’’ डराने वाले अन्दाज़ में वह दहाड़ा।
‘‘है, तो फिर?’’
‘‘इन गोरखधंधों के खि़लाफ़ राष्ट्रीय स्तर के पेपर्स और चैनल्स को सबूत दूँगा मैं। और...।’’
      ‘‘और?’’ लापरवाह तरीके से मुस्कुराते हुए सफेदपोश ने बीच में ही टोका।
      और...और...’’ जबर्दस्त तनाव के कारण उसका बदन काँप उठा। सफेदपोश की मुस्कान से हत्प्रभ वह तुरन्त सोच नहीं पाया कि ‘और’ के आगे क्या कहे।
      ‘‘तुझे जहाँ जो उखाड़ना है शौक़ से उखाड़...’’ इस बार सफेदपोश ने होठों से मुस्कराहट को हटाकर कहा, लेकिन मेरी तरफ से मानहानि के मुक़द्दमे के लिए तैयार होकर करना उखाड़ना। एक करोड़ का ठोकूँगा।’’
      ‘‘डरा रहे हैं?’’
      ‘‘डरा नहीं रहा, बता रहा हूँ।’’ उसके स्वर में आक्रामक तीखापन था, सबूतों को सँभालकर रखना; कोर्ट में काम आयेंगे।’’
      उसकी हेकड़ी देखकर वह दाँत किटकिटाकर रह गया। बड़ी मोटी खाल का आदमी है!... उसने सोचा.... बहुत ऊपर तक पहुँचाता लगता है पत्ती।
      उसे असंजस में देख, उँगलियों के बीच फँसी सिगरेट की राख को मेज पर रखी एस्ट्रे में झाड़ते हुए सफेदपोश व्यंग्य-भरे लहजे में बोला, अगर मैंने ‘घो...ऽ...र अपराध’ किया है...और तूने सारे सबू...ऽ...त भी जुटा रखे हैं, तो तू मेरे पास क्या करने आया है? सीधा चला क्यों नहीं गया ‘राष्ट्री...ऽ...य स्तर के’ पेपर्स और चेनल्स के पास?’’
      ‘‘सम्बन्धित पार्टी को चेताना होता है उसके खिलाफ कहीं जाने से पहले।’’ वह बोला, ‘‘एक मौका दिया जाता है सँभलने का।’’
      ‘‘सँभलने का मौका!!  क्यों?’’
      ‘‘तकाज़ा है इन्सानियत का! ...उसूल है धन्धे का !!’’ उसकी ढीठता से लगातार चौंकने के बावजूद वह रौब जमाता-सा चीखा, पत्रकार हूँ, कसाई नहीं कि बंदे को चीरने के पैसे तो घरवालों से वसूल कर लूँ और उसके भीतर का माल बाहर वालों को बेच डालूँ। और...और यह ‘तू-तड़ाक’ वाली भाषा! कोई तरीका भी होता है बात करने का या नहीं?’’
      ‘‘तू मेरे ही क्लीनिक में मुझे धमकाने आया है; और मैं तुझसे तमीज़ के साथ बात करूँ!!!’’ सफेदपोश बोला, चल छोड़, क्या लेगा... यह बता।’’
      ‘‘मैं दावत उड़ाने नहीं आया हूँ यहाँ।’’ उसने कड़ेपन से प्रतिवाद किया।
      ‘‘मान ली तेरी बात! चाहता क्या है?’’
      ‘‘इस प्रस्तावनुमा सवाल को सुनकर उसने बात को और-खींचना ठीक नहीं समझा। तुरन्त बोला, आप मित्रवत् सम्मान देंगे तो मैं सहर्ष आपके खि़लाफ़ संघर्ष के रास्ते से हट जाऊँगा।’’
         यह बात सुन सफेदपोश पुनः मुस्कुरा उठा। बोला, ‘‘जब चाहे तब, मित्रवत् बता जाना सम्मान की राशि।’’ फिर उसके चेहरे पर नज़रें गाड़ते हुए काइयाँ अन्दाज़ में पूछ बैठा, ‘‘अच्छा, एक बात बता... मेरे खिलाफ संघर्ष के रास्ते से हटने की बात छोड़; ‘इन्सानियत’ दिखाने वाली इस पत्रकारिता से हटने की कितनी क़ीमत लेगा?’’              
  • एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के पास, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32/मोबा. 08826499115

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डॉ. अशोक भाटिया





बाल मनोविज्ञान पर दो लघुकथाएँ

एक
      बेटी नाराज़ थी।
      पापा ने पूछा- क्यों नाराज हो?
      बेटी चुप।
      -केबल की तार काट दी, इसलिए?
      -हाँ।
      -स्कूल के टेस्ट हो जाएं, फिर लगा देंगे।
      -बेटी चुप।
      -कल तू सोने आई, तो मैं उठकर तेरे भाई के पास चला गया, इसलिए?
      -हाँ, आप उसे ज्यादा प्यार करते हो।
      -(हँसकर) ऐसा नहीं है। वो छोटा है न, इसलिए।
      -पर मैंने सोने से पहले आपको लातें जो मारनी थीं। उसके बिना मुझे नींद नहीं आती।
      सुनकर पापा के साथ बेटी भी हँसने लगी।
दो
      महिमा खेल रही थी। उसने एक खिलौना अपनी माँ की ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘‘मम्मी, ये काक्का है, इस्को निन्नी करा दो!’’
      माँ खिलौने को गले से लगाकर थपकाने लगी।
      महिमा एक पल तो देखती रही। अचानक उसने खिलौने को खींच लिया।
      ‘‘यह गंदा है, हट!’’ कहते हुए उसने उसे ज़मीन पर पटक दिया और अपनी माँ की गोद में बैठ गई। 
  • 1882, सेक्टर-13, अरबन स्टेट, करनाल-132001, हरि./मोबा. 09416152100

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डॉ. सिमर सदोष



आत्म-ग्लानि
      कभी-कभी मुझे लगता, वह आदमी दम्भी है शायद। वह बहुत कम किसी से बात करता। उसके घर में और कौन-कौन हैं, यह शायद ही कोई जानता हो। आस-पड़ोस में भी इस परिवार का कोई आना-जाना नहीं था। तथापि, वह मुझे बहुत अच्छा लगा था... बहुत भला आदमी। जब भी कभी आमना-सामना होता, मैं हाथ जोड़कर नमस्ते कह देता। वह भी बड़े सलीके से उत्तर देकर आगे बढ़ जाता।
      इस बीच कई दिन व्यतीत हो गये, उसे मैंने देखा नहीं था। चिन्ता का उपजना स्वाभाविक था। इधर-उधर गुजरते उसके दरवाजे़ की ओर ताक-झांक की... शायद कोई सुराख दिखे।
      अगले दिन साहस कर मैंने उसके घर का द्वार खटखटाया तो थोड़ी देर बाद उसने पहले थोड़ा-सा, फिर आधा द्वार खोल दिया- आइये... कहिये, कोई काम है क्या? उसने बड़े उदार लहज़े में पूछा था।
      मैंने देखा, उस आदमी के तन पर कुर्ता तो था, नीचे धोती नहीं थी। उसने इसी कारण शायद खड़े होते समय अपनी टांगों को भींच रखा था।
      कुर्ते के नीचे वाले हिस्से की उसकी नंगी टांगों की ओर अपनी नज़र को न जाने देने की मेरी भरसक कोशिशों को शायद उसने भांप लिया था। तत्काल अपने पीछे पड़ी कुर्सी को खींचकर उसने मेरी ओर खिसकते हुए पूछा- कोई जरूरी बात है क्या?
      -क्षमा कीजियेगा मुझे... ऐसा तो कुछ भी नहीं था लेकिन... वो आप कई दिनों से मिले नहीं थे न... आपको देखा भी नहीं था, इसलिये। हकलाते हुए-से मैंने अपनी बात पूर्ण की थी।
      -कोई बात नहीं। आपने ठीक किया, जो आ गये।...घर में कोई नहीं है, इसलिए चाय-वाय की बात...। उसने शायद जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया था।
      -चाय की कोई जरूरत नहीं। बस, आपके बारे में जानना ही था... आप ठीक से तो हैं न! मैंने उठने का उपक्रम करते हुए कहा था।
      -जा रहे हैं... थोड़ी देर ठहर जाते, तो शायद बच्चियाँ आ जातीं। उसने भी औपचारिकता निभानी चाही थी।
      -फिर कभी सही...। मैं चलने को हुआ था।
      -हाँ, आप शायद सोच रहे हों... ये मेरी नंगी टांगों को लेकर। असल में, मेरी दो बेटियाँ हैं। बीवी नहीं है। और भी कोई नहीं है घर में। दोनों बेटियों ने आज कहीं इंटरव्यू पर जाना था। उनके पास कोई ढंग का दुपट्टा नहीं था... सो, चार दिन पहले ही मैंने अपनी धोती उन्हें दे दी थी। कांट-छांट और रंग करके उन्होंने सूटों के साथ मिला लिया... शायद उनका काम बन जाए। मेरा क्या है, महीना खत्म होने को है। पेन्शन मिली, तो नई धोती ले लूंगा।
      उसकी बात जैसे मेरे सिर से होकर गुजर गई थी शायद... या फिर, मेरे भीतर कहीं जाकर चुभ गई थी। आत्म-ग्लानि का एक अजीब-सा मनों भारी बोझ अपने सिर पर लिये बाहर सड़क पर आकर मुझे महसूस हुआ था- मेरे अपने तन पर शायद कोई कपड़ा नहीं रहा था।

  • 186/डब्ल्यू.बी., बाज़ार शेखां, सफ़री मार्ग, जालन्धर शहर-144001(पंजाब)/मोबा. 09417756262

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मार्टिन जॉन 




अंधेरों के खिलाफ़                        
       अंधेरों ने उसे बहुत सताया था।
       एक लंबी ऊम्र गुज़र गई अंधेरों से लड़ते-लड़ते। अंततः काफी ज़द्दो-ज़हद के बाद उसने अंधेरों पर फ़तह हासिल कर ली। अब उसके पास अंधेरों का सामना करने के लिए ज़रुरत भर रौशनी है। चूंकि वह अंधेरों के खिलाफ़ ज़ंग करने वालों के दर्द से वाकिफ़ था, इसलिए अपने हिस्से की थोड़ी सी रौशनी बांटने की चाहत उसके अन्दर जागी। अपनी चाहत को अमली जामा पहनाने के लिए उसने अपने मकान के मुख्य द्वार पर लगे बिजली का बल्व रात भर जलाए रखने लगा। इससे हुआ यह कि मुख्य गली का गहन अंधेरा मुँह छुपा कर भाग गया। नये बसे मोहल्ले के तमाम मकानात के बाहर की बत्तियां बुझा दी जाती थीं। अब उसके मकान का बल्व पूरी रात अंधेरों को खदेड़ता रहता। रात की पाली वाली ड्यूटी करने वाले मोहल्ले के रेलकर्मी और कोयलाकर्मी उसकी इस उदारता के लिए मन-ही-मन शुक्रिया अदा करते? लेकिन पत्नी उसकी इस दरियादिली पर तंज कसती, ‘‘...दुनिया जहान का अंधेरा दूर भगाने का ठेका ले रखे हैं क्या?...नापा शोरबा, नपी बोटी के मौजूदा वक़्त में ज़रा बिल के बारे में भी सोच लिया करो।’’ पत्नी के व्यंग्यवाण उसकी चाहत को ज़ख़्मी करने में नाकामयाब रहे।
      अंधेरे मुँह उठने की उसकी आदत है। सो, उस दिन भोर में उठकर उसने देखा, बत्ती बुझी हुई है। भोर के धुंधलके में उसे मेन गेट पर कांच के टुकड़े इधर-उधर बिखरे दिखे। उसका मन आहात हो गया। अंधेरा दूर भगाने की कोशिश और रौशनी बांटने की उसकी चाहत शायद किसी को रास नहीं आयी। वह कुछ बुझ सा गया। मुख्य गली में फिर से अंधेरों के वर्चस्व की कल्पना उसे बेचैन करने लगी...
      रात घिरने से पहले उसने एक फैसले के तहत खुद को बुझने से बचाए रखा...
      उस रात उसके मेन गेट पर नया बल्व जगमगा रहा था....

  • अपर बेनियासोल, पो. आद्रा, जि. पुरुलिया-723121, पश्चिम बंगाल/मोबा. 09800940477

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



।।हाइकु।।


प्रतापसिंह सोढ़ी



हाइकु

01.
ओस की बूँदें
सूरज निगलता
अजगर सा।

02.
दूध में पानी
या पानी में हो दूध
रंग समान।

03.
दीपक बुझा
रेखाचित्र : बी. मोहन नेगी 
अँधेरा गहराया
मन सुलगा।

04.
नभ के आँसू
धरा पर बिखरे
मोती से सजे।

05.
कोई फाइल
आगे बढ़ती नहीं
पहिए बिना।
  • 5, सुखशांति नगर, बिचौली-हप्सी रोड, इन्दौर (म0प्र0)/मोबा. 09039409969

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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017




डॉ. सुषमा सिंह


हाइकु

01. 
होली तो हो ली
चौराहे दंगा हुआ
चली है गोली।

02. 
बजे मृदंग
नाचते ताता थैया
बढ़े उमंग।

03. 
धूप बढ़ी है
पानी से खेली होली
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया 
भंग चढ़ी है।

04. 
मन बाँसुरी
थिरके अंग-अंग
बजे मृदंग।

05. 
प्रीति का छन्द
आस की राग पर
भरे उमंग।
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अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



।। कथा कहानी ।। 


सुशांत सुप्रिय





हमला
       बाईसवीं सदी में एक दिन देश में ग़ज़ब हो गया। सुबह लोग सो कर उठे तो देखा कि चारों ओर तितलियाँ ही तितलियाँ हैं। गाँवों, क़स्बों, शहरों, महानगरों में जिधर देखो उधर तितलियाँ ही तितलियाँ थीं। घरों में तितलियाँ थीं। बाज़ारों में तितलियाँ थीं। खेतों में तितलियाँ थीं। आँगनों में तितलियाँ थीं। गलियों-मोहल्लों में, सड़कों-चौराहों पर करोड़ों-अरबों की संख्या में तितलियाँ ही तितलियाँ थीं। दफ़्तरों में तितलियाँ थीं। मंत्रालयों में तितलियाँ थीं। अदालतों में तितलियाँ थीं। अस्पतालों में तितलियाँ थीं। तितलियाँ इतनी तादाद में थीं कि लोग कम हो गए, तितलियाँ ज्यादा हो गईं। सामान्य जन-जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया। लगता था जैसे तितलियों ने देश पर हमला बोल दिया हो।
      दिल्ली में संसद का सत्र चल रहा था। तितलियाँ भारी संख्या में लोकसभा और राज्यसभा में घुस आईं। दर्शक-दीर्घा में तितलियाँ ही तितलियाँ मँडराने लगीं, अध्यक्ष और सभापति के आसनों के चारों ओर तितलियाँ ही तितलियाँ फड़फड़ाने लगीं। आखिर दोनों सदनों की कार्रवाई दिन भर के लिए स्थगित करनी पड़ी। राज्यों में भी इसी कारण से विधानसभाओं और विधान-परिषदों की कार्रवाई दिन भर के लिए स्थगित कर दी गई। सुरक्षा एजेंसियाँ चौकन्नी हो गईं। कहीं यह किसी पड़ोसी देश की साज़िश तो नहीं? तितलियों की इस घुसपैठ के पीछे कहीं कोई विदेशी हाथ तो नहीं?
      पूरे देश में कोहराम मचा हुआ था। सड़कों पर यातायात ठप्प था। स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए थे। दफ़्तरों और मंत्रालयों में कोई काम-काज नहीं हो रहा था। अदालतों की कार्रवाई दिन भर के लिए स्थगित करनी पड़ी। अस्पतालों में कई मरीज़ों की मौत हो गई क्योंकि आपातकालीन सेवा-कक्षों में भारी संख्या में तितलियों की घुसपैठ की वजह से नर्सें और डॉक्टर मरीज़ों पर ध्यान नहीं दे सके। ऑपरेशन-थियेटर में तितलियाँ मौजूद थीं जिस के कारण सभी ऑपरेशन स्थगित करने पड़े।
      तितलियाँ इतनी भारी संख्या में चारो ओर मँडरा रही थीं कि उन्होंने सूरज की रोशनी को ढँक लिया। दोपहर में अँधेरा छा गया। रेडियो व टी. वी. का प्रसारण बाधित हो गया। टेलीफ़ोन सेवाएँ ठप्प हो गईं।
      सभी अवाक् थे। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अचानक यह क्या हो गया है। सरकार सकते में थी। प्रशासन लाचार दिख रहा था।
      शुरू-शुरू में बच्चों के मज़े लग गए। वे तितलियों से खेलते हुए पाए गए। पर जब स्थिति की गम्भीरता का अहसास लोगों को हुआ तो सब के होश उड़ गए।
      ऐसा नहीं है कि लोगों ने इस समस्या से निपटने के लिए कुछ नहीं किया। बेगॉन-स्प्रे से ले कर सभी प्रकार के कीट-नाशकों का इस्तेमाल तितलियों की फ़ौज पर किया गया पर सब बेकार। तितलियों पर इनका कोई असर नहीं हुआ।
      पुलिस-वालों ने भी अपने तरीक़ों से स्थिति को नियंत्रण में करने की कोशिश की। देश में कई जगह पर पुलिस ने तितलियों पर आँसू-गैस के गोले छोड़े। कुछ जगहों पर बुद्धिमान सिपाहियों ने तितलियों पर लाठी-चार्ज किया। और कई जगहों पर तितलियों पर फ़ायरिंग भी की गई। पर कोई नतीजा नहीं निकला। तितलियों की तादाद इतनी ज्यादा थी कि गोलियाँ कम पड़ गईं।
      रेल, विमान तथा सड़क-यातायात पर तितलियों की मौजूदगी का बहुत बुरा असर पड़ा। जगह-जगह दुर्घटनाएँ हुईं जिनमें कई लोग मारे गए।
      आखि़र वैज्ञानिकों ने कुछ तितलियों को पकड़ कर ‘‘एलेक्ट्रोन माइक्रोस्कोप’’ के नीचे उनका निरीक्षण किया। उनके हैरानी की कोई सीमा नहीं रही जब उन्होंने पाया कि हर तितली के पंखों पर बारीक अक्षरों में कोई-न-कोई वादा या आश्वासन लिखा हुआ था। और तब जा कर यह गुत्थी सुलझी कि दरअसल ये तितलियाँ वे करोड़ों-अरबों वादे व आश्वासन थे जो देश की आज़ादी के बाद 1947 से अब तक नेताओं व अधिकारियों ने दिए थे पर जो पिछली दो शताब्दियों में पूरे नहीं किए गए थे। वे सभी झूठे वादे व आश्वासन तितलियाँ बन गए थे।
      यह ख़बर पूरे देश में आग की तरह फैली। लोग चर्चा करने लगे कि एक दिन तो यह होना ही था। झूठे वादों और कोरे आश्वासनों के पाप का घड़ा कभी-न-कभी तो भरना ही था।
      इतिहासकारों ने आनन-फ़ानन में एक आपात बैठक बुलाई जिसमें सरकार को याद दिलाया गया कि सैकड़ों वर्ष पहले विश्व का प्रथम गणतंत्र वैशाली भी इसी प्रकोप के कारण नष्ट हो गया था। जिस गणतंत्र में नेता और अधिकारी केवल झूठे वादे करते हैं और कोरे आश्वासन देते हैं उस गणतंत्र का वही हाल होता है जो वैशाली गणतंत्र का हुआ था। भविष्यवेत्ताओं ने भी इतिहासकारों की इस बात का समर्थन किया।
      यह सब सुनकर सरकार हरक़त में आ गई। एक सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। बैठक में वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और भविष्यवेत्ताओं की बात पर चर्चा हुई। पर एक तो कक्ष में चारो ओर तितलियाँ ही तितलियाँ मँडरा रही थीं, दूसरी ओर विपक्ष और सत्ताधारी पक्ष के सदस्यों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का ऐसा दौर चला कि बैठक का कोई नतीजा नहीं निकला। ऐसे संकट के समय में भी विभिन्न दलों के बीच यह साबित करने की होड़ लगी हुई थी कि किस पार्टी ने ज्यादा झूठे वादे किए थे, किसने कम।
      अधूरे वादों का आलम यह था कि परिवारों में पति-पत्नी ने एक-दूसरे से और माँ-बाप ने बच्चों से कई झूठे वादे किए हुए थे। वे सभी अधूरे वादे और आश्वासन असंख्य तितलियाँ बन कर घरों में चारो ओर मँडरा रहे थे और घरवालों को सता रहे थे।
      जो वादे 1960 के दशक से पहले किए गए थे वे ‘‘ब्लैक-ऐंड-व्हाइट’’ तितलियों के रूप में चारों ओर फड़फड़ा रहे थे। सिनेमा में रंगीन युग आने के बाद किए गए वादे ‘‘कलर्ड’’ तितलियों के रूप में चारों ओर मँडरा रहे थे।
      इसी तरह पूरा दिन निकल गया और इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकला। पर रात के बारह बजते ही सभी तितलियों का कायांतरण हो गया और वे टिड्डियाँ बनकर लोगों पर हमले करने लगीं। उनके निशाने पर विशेष करके मंत्री, राजनेता और अधिकारी थे। वे घरों में घुस-घुस कर सोए हुए लोगों पर हमले करने लगीं। चारों ओर हाहाकार मच गया। स्थिति बद से बदतर होती चली गई।
       आखिर सुबह चार बजे कैबिनेट की एक आपातकालीन बैठक हुई। उसमें एक मंत्रियों के समूह का गठन किया गया। सरकार ने तय किया कि सभी अधूरे वादों और आश्वासनों को एक निश्चित समय-सीमा के भीतर पूरा किया जाएगा। और कोई चारा नहीं था। टिड्डियों का हमला जारी था।
       सुबह पाँच बजे से ही यह काम शुरू हो गया। यह बेहद कठिन काम था। अधूरे वादों और आश्वासनों की तादाद करोड़ों-अरबों में थी। इतनी ही संख्या में टिड्डियाँ मौजूद थीं। जैसे ही कोई अधूरा वादा या आश्वासन पूरा होता, एक टिड्डी ग़ायब हो जाती।
      पर करोड़ों-अरबों अधूरे वादों और आश्वासनों को पूरा करने में बरसों लग गए। तब जाकर देश से टिड्डियों का क़हर समाप्त हुआ और स्थिति सामान्य हो पाई।
      इस ख़बर का असर पूरी दुनिया में हुआ। बाईसवीं सदी का इतिहास गवाह है कि दूसरे देशों के राजनेताओं और अधिकारियों ने भी इस डर से अपने-अपने देशों के तमाम अधूरे वादे और आश्वासन पूरे कर दिए कि कहीं उनके देश में भी ये टिड्डियाँ हमला न कर दें।
  • आई-5001, गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद-201010(उ.प्र.)/मोबाइल : 08512070086

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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017




छत्रसाल क्षितिज

भूलना मत...
      सुबह कार्यालय पहुँचा तो एक पत्र था- 
मुख्य अभियंता (सड़क निर्माण) 
महोदय, 
      बाय पास का कार्य लगभग पूर्ण होने को है, बस एक विशालकाय पेड़ रास्ते से नहीं हट रहा है। कृपया निर्देश दें।
धन्यवाद! 
सहायक अभियंता/पानागर बाय पास परियोजना/एन.एच. 4 
      मैं कार्यालय से सीधा साइट पर पहुँचा। अभियंता ने पेड़ की तरफ इशारा किया और हम विशालकाय पेड़ के पास पहुँचे। मैंने पेड़ से कहा क्या तुम जीवन देने वाले ब्रह्मा हो, सड़क के बीच से हटो।
      एक शीतल वायु का झोंका आया लेकिन पेड़ ने कोई उत्तर नहीं दिया। मैंने पेड़ को कल तक का समय दिया और वापस कोलकाता कार्यालय आ गया। दूसरे दिन अभियंता का फोन आया कि पेड़ अभी नहीं हटा है।
      आज मौसम काफी खराब था। फरवरी-मार्च के दिन थे। अचानक तेज तूफानी वर्षा होने लगी। मैं फिर भी साइट पर गया, क्योंकि अगले महीने नेताजी सड़क का उद्घाटन करने वाले थे। देखा पेड़ के नीचे बहुत से राहगीर व पशु वर्षा से बचने के लिए बैठे थे। मैंने पेड़ से कहा क्या तुम कृष्ण के गोवर्धन पर्वत हो, सड़क से हटते क्यांे नहीं? 
      अचानक पेड़ पर हजारों पक्षियों का कलरव होने लगा। पेड़ चुप। मैंने पेड़ को कल फिर आने की धमकी दी और वापस कोलकाता आ गया। 
      अभियंता का फोन फिर आया, मैं समझ गया अड़ियल पेड़ अभी वहीं है और साइट की ओर रवाना हो गया। पेड़ के नीचे बच्चे खेल रहे थे तथा कुछ लड़कियाँ, महिलायें पेड़ से झूला झूल रही थीं। मैंने पेड़ से कहा तुम सावन या बसंत हो, सड़क से हटते क्यो नहीं। तभी एक झूला मुझे से टकराते-टकराते बचा।
      पेड़ चुप था। मैंने अभियंता को अवश्यक निर्देश दिये और वापस आ गया। दूसरे दिन साइट पर सुबह-सुबह ही पहुँच गया। देखा, सड़क बन रही है। पेड़ सड़क से थोड़ा हट कर पड़ा था और पास के ग्रामीण उस की चीड़-फाड़ मे व्यस्त थे। नजदीक आया तो ग्रामीणों ने कहा साहब धन्यवाद! आपने हमारे साल भर का ईंधन का इंतजाम कर दिया। परसों 5 तारीख को हमारा उत्सव है। भोजन इसी लकड़ी से पकेगा, आप आना। मैंने पेड़ की तरफ देखा तो वो मुस्काने लगा। 
      मैं कार्यालय वापस आ गया। शाम के करीब 6 बज रहे थे, सभी कर्मचारी जा चुके थे, सिर्फ़ ऑफिस बाय ही रुका था। अचानक मेरे कमरे मंे चारों दिशाओं से आवाजें आने लगी- ‘‘भूलना मत। 5 तारीख को मेरा मृत्यु भोज है।’’
      मैंने पहली बार उस पेड़ की आवाज सुनी। इसके बाद मेरा ट्रान्सफर हो गया, लेकिन पता चला अब उस कमरे में कोई अभियंता नहीं बैठता, क्योंकि वहाँ हमेशा आवाज आती है- ‘‘भूलना मत, 5 तारीख को मेरा मृत्यु भोज है।’’
  • बी-501,कल्पवृक्ष सीएचएस, खण्ड कॉलौनी, सेक्टर 9, कॉर्पोरेद्वान बैंक के पीछे, प्लाट नं. 4, न्यू पानवेल (पश्चिम)-410206, नवी मुंबई (महाराष्ट्र)

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



लघुकथा : अगली पीढ़ी

दीपक मशाल


     {लघुकथा की दूसरी व तीसरी पीढ़ी के लघुकथा लेखन पर केन्द्रित इस स्तम्भ का आरम्भ अविराम साहित्यिकी के मुद्रित प्रारूप में जनवरी-मार्च 2015 अंक से किया गया था। उसी सामग्री को इंटरनेट पर अपने पाठकों के लिए भी हम क्रमश: उपलब्ध करवाना आरम्भ कर रहे हैं। 
इस स्तम्भ का उद्देश्य लघुकथा की दूसरी व तीसरी पीढ़ी के लघुकथा लेखन में अच्छी चीजों को तलाशना और रेखांकित करना है। अपेक्षा यही है कि ये लघुकथाकार अपने समय और सामर्थ्य को पहचानें, कमजोरियों से निजात पायें और लघुकथा को आगे लेकर जायें। यह काम दो तरह से करने का प्रयास है। सामान्यतः नई पीढ़ी के रचनाकार विशेष के उपलब्ध लघुकथा लेखन के आधार पर प्रभावित करने वाले प्रमुख बिन्दुओं व उसकी कमजोरियों को आलेखबद्ध करते हुए समालोचनात्मक टिप्पणी के साथ उसकी कुछ अच्छी लघुकथाएँ दी जाती हैं। दूसरे प्रारूप में किसी विशिष्ट बिषय/बिन्दुओं (जो रेखांकित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो) पर केन्द्रित नई पीढ़ी के लघुकथाकारों की लघुकथाओं में उन लघुकथाकारों की रचनात्मकता के बिन्दुओं की प्रस्तुति कुछ महत्वपूर्ण लघुकथाओं के साथ देने पर विचार किया जा सकता है। प्रस्तुत लघुकथाकारों से अनुरोध है कि समालोचना को अन्यथा न लें। उद्देश्य लघुकथा सृजन में आपके/आपकी पीढ़ी के रचनाकारों की भूमिका को रेखांकित करना मात्र है। कृष्णचन्द्र महादेविया के बाद  इस अंक में हम दीपक मशाल पर प्रस्तुति दे रहे हैं। -अंक संपादक}

दीपक मशाल का लघुकथा में उभरना एक सकारात्मक घटना जैसा है 
डॉ. उमेश महादोषी
         1980 में जन्मे दीपक मशाल का समकालीन लघुकथा सृजन में उभरने का अर्थ है विशुद्धतः इक्कीसवीं सदी की लघुकथा। उनके इस दुनियाँ में पदार्पण तक समकालीन हिन्दी लघुकथा अपना रूपाकार प्राप्त कर चुकी थी और एक रचनात्मक आन्दोलन के तौर पर लघुकथा का सृजन और विमर्श, दोनों ही अपने उत्कर्ष के तात्कालिक शिखर पर पहुँच रहे थे। दीपक जी द्वारा लघुकथा को समझने और सृजन से जुड़ने तक के बीस-तीस वर्षों में लघुकथा कई तरह की घटनाओं और प्रक्रियाओं की साक्षी बन चुकी थी। उसकी शक्ति और कमजोरियों को प्रदर्शित करने वाले सामान्य बिन्दु पूरी स्पष्टता के साथ सामने आ चुके थे, भले उसके अद्यतन होने की प्रक्रिया पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाई हो। इन वर्षों के कालखण्ड में लघुकथा की जन स्वीकार्यता बढ़ने के बावजूद अनेक वरिष्ठ लघुकथाकारों का लघुकथा सृजन से विमुख होना बेहद चिंतनीय था। उनके विमुख होने के कारणों का मुखर और बहुत स्पष्ट न होना भी लघुकथा के लिए एक तरह की चुनौती जैसा रहा है। इस तरह के वातावरण में जब एक जागरूक और सृजनात्मक प्रतिभा से सम्पन्न नया रचनाकार लघुकथा को समझने और उससे जुड़ने का प्रयास करता है, उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है, तो यह इस विधा की भावी सम्भावनाओं की ओर संकेत तो करता ही है, लघुकथा के विधागत विकास में एक सकारात्मक घटना का संकेत भी करता है। दीपक मशाल और उन जैसे अन्य लघुकथाकारों के उभरने को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
    लघुकथा में दीपक मशाल की चर्चा मैं वरिष्ठ लघुथाकारों, विशेषतः डॉ. बलराम अग्रवाल जी व रा. का. हिमांशु जी से सुनता रहा था किन्तु उनकी सृजनात्मक क्षमताओं से वास्तविक परिचय ‘पड़ाव और पड़ताल’ के मधुदीप जी संपादित पाँचवें खण्ड में शामिल उनकी लघुकथाओं के माध्यम से हुआ। ‘पड़ाव और पड़ताल’ में उनकी सभी ग्यारह लघुकथाएँ प्रभावित करती हैं। इसके बाद मैंने दीपक जी की कई अन्य लघुकथाओं को मँगवाकर पढ़ा। लगभग तीन दर्जन लघुकथाओं के पाठ में के आधार पर मुझे लघुकथा में उनकी उपस्थिति सार्थक लगी। लघुकथा के सन्दर्भ में दीपक जी की प्रतिभा को स्वीकारने में किसी को कोई संकोच नहीं होना चाहिए। 
     मोटे तौर पर दीपक जी की अधिकांश लघुकथाएँ किसी न किसी वजह से प्रभावित करती हैं। उनमें कथा तत्व विद्यमान है, कथ्य स्वाभाविक तरीके से प्रकट होते हैं। यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में रचनाकार को यह देखना जरूरी होता है कि किस यथार्थ को उसकी नकारात्मकता के साथ प्रस्तुत करना है और किसे नकारात्मक वृत्ति से सकारात्मक वृत्ति की ओर ले जाना है। अधिकांश लघुकथाओं में दीपक जी इस कार्य को बेहद सहजता से अंजाम देते हैं। ‘संशय’ में अवश्य वह चूक गये लगते हैं। इस रचना में सृजन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए लघुकथा को थोड़ा और आगे जाकर यथार्थ में सकारात्मकता लाना चाहिए था। यथार्थ की नकारात्मकता ठेस, क्रान्ति, अहम्, दखल जैसी लघुकथाओं में भी है, किन्तु वहाँ यथार्थ से पर्दा हटाकर रचनाकार अभीष्ट की प्राप्ति कर रहा है। लघुकथा की स्वाभाविकता में वातावरण और भाषा की सानुकूलता की भूमिका अहम् होती है। दीपक जी इस सन्दर्भ में बेहद सफल हैं। निर्धारण में जिस वातावरण की प्रस्तुति है, उसके लिए निश्चित रूप से लेखक को उसे समझना पड़ा होगा, कई चीजों की जानकारी अब या तब अध्ययन और मित्रों से लेनी पड़ी होगी। संशय, मुआवजा जैसी रचनाओं में स्थानीय भाषा का उपयोग, क्रान्ति में फिल्म प्रोडक्शन की शब्दावली, परछाई के संवादों को कथानायक की स्थिति और प्रकृति के अनुरूप रख पाने में उनकी सफलता जाहिर करती है कि उन्होंने लघुकथा को किस स्तर पर समझने का प्रयास किया है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्रीकृष्ण त्रिवेदी जी ने अपने एक आलेख में प्रवासी साहित्य के बारे में स्पष्ट किया है कि लेखक जिस देश में प्रवास कर रहा है, उसकी रचनाओं में उस देश का वातावरण और दूसरी चीजों की उपस्थिति ही उसे प्रवासी साहित्य का दर्जा दिला सकती है। इस दृष्टि से लघुकथा ‘समझदार’ को निसन्देह- प्रवासी लघुकथा माना जा सकता है। ‘प्रगति’, ‘पसीजे शब्द’ आदि में भी प्रवासी वातावरण है। उम्मीद है विदेश में रहता यह भारतीय लघुकथाकार कुछ और महत्वपूर्ण प्रवासी लघुकथाएँ देगा। ‘बड़े’ लघुकथा में काव्यात्मक भाषा-शैली का उपयोग प्रभावित करता है। लघुकथाओं के शीर्षक सोचे-समझे और सोद्देश्य रखे गये हैं। कई रचनाओं का अंत प्रतीकात्मक होने के कारण बेहद प्रभावशाली हो गया है। प्रतीकों का उपयोग उन्होंने बहुत खूबसूरती से किया है। उन्होंने छूट गये जैसे कोनों पर टॉर्च की रौशनी डालने का सफल प्रयास भी कई लघुकथाओं में किया है। इसे तजुर्बा, अंगुलियाँ, आतंक आदि में देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं में विषयों की विविधता भी भरपूर है। 
     कुछ जटिल विषयों को उठाते हुए लघुकथा में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत होती है। ‘माचिस’ और ‘दूध’ अच्छी लघुकथाएँ हैं, लेकिन ये और भी अच्छी हो सकती थीं। ‘माचिस’ में कल्पनाशीलता का अंश थोड़ा कम किया जा सकता है और ‘दूध’ में लड़के के व्यवहार (में परिवर्तन) को वेश्या के व्यवहार जैसा स्वाभाविक बनाने की गुंजाइश है। कुल मिलाकर दीपक मशाल की लघुकथा के प्रति समझ असंदिग्ध है। यहाँ हम उनकी चार प्रतिनिधि लघुकथाओं क्रान्ति, आतंक, प्रगति एवं पसीजे शब्द की चर्चा-प्रस्तुति कर रहे हैं।
     सांस्कृतिक-सामाजिक सन्दर्भों में मनुष्य की कार्यगतिविधियों का उद्देश्य सामाजिक चेतना पर केन्द्रित माना जाता है। सांस्कृतिक दृष्टि से कलात्मकता का पुट अधिक हो सकता है और उसकी दिशा मनुष्य के लिए एक आकर्षण का कारण हो सकती है। लेकिन हर गतिविधि का एक अर्थशास्त्र भी होता है, जिसके बिना उसका अस्तित्व संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि प्रमुख उद्देश्य के साथ गतिविधि को अस्तित्व में लाने के समायोजन को नकारा नहीं जा सकता। इसके बावजूद प्रमुख उद्देश्य प्रमुख ही रहना चाहिए। सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि का यही पाठ है। लेकिन हमने देखा है कि कला से प्राप्त लोकप्रियता ग्लैमर की ओर ले जाती है। ग्लैमर के साथ पैसा जुड़ता है। पैसा नैतिक-अनैतिक के प्रश्न को दरकिनार करता है। यह चीज जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में है, विशेषतः फिल्मों के क्षेत्र में सीमा से काफी अधिक। सीन कुछ ऐसा बने कि पर्दे पर आग लग जाये। आग लगेगी तो तमाशबीन भी अधिक जुटेंगे। और फिल्मों में पैसे का बड़ा हिस्सा तमाशबीनों की जेब से ही आता है। तो आग की प्रकृति को भी तमाशबीनों की अपेक्षाओं और आदतों का पोषक ही नहीं जनक भी बनना पड़ता है। ‘क्रान्ति’ इसी यथार्थ से पर्दा हटाती है। फिल्म का निर्देशक पर्दे पर आग लगाना चाहता है, इसलिए बार-बार रिटेक से बात न बनने पर सहायक निर्देशक का आइडिया उसे पसन्द आता है और दृश्य व संवाद- दोनों बदल जाते हैं। आग लगाने की कोशिश में शब्दों की प्रकृति और ध्वनित प्रभाव का कोई अर्थ नहीं रह जाता। फिल्म बनाना कितना सांस्कृतिक-सामाजिक रह जायेगा, यह प्रश्न बेमानी हो जाता है। कुछ लोग कहेंगे कि कला में स्वाभाविकता के लिए समाज में घटने वाली यथार्थ घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में ही रखना जरूरी है, पर ऐसे लोगों को यह भी सोचना होगा कि कला में रचनात्मकता को कैसे परिभाषित करेंगे? अभिनेत्री के माध्यम से आप नारी की जिस शक्ति को उभारना चाहते हैं, उसकी चुकायी जा रही कीमत का आकलन क्या जरूरी नहीं है? उसे शक्तिशाली बनाने का अर्थ बाजारू बनाने से अलग होता है। शायद इसीलिए दीपक मशाल जैसा रचनाकार इस कन्टेन्ट पर लघुकथा की जरूरत महसूस करता है। शीर्षक से लेकर रचना का वातावरण लघुकथा की तकनीक के सानुकूल है और कथ्य को सपोर्ट करने वाला भी। 
     स्कूली शिक्षा में कान्वेन्ट कल्चर के माध्यम से कुछ उन्नत चीजों के साथ समस्याएँ भी आई हैं। भाषायी समस्या बहुत बड़ी है। अंग्रेजी सिखाना गलत नहीं है, लेकिन उसे थोपना और इस कदर थोपना कि बच्चों का विकास अवरुद्ध होने लगे, वे दूसरी समस्याओं, विशेषतः मनोवैज्ञानिक, का शिकार होने लगें तो इस पर सिर्फ माता-पिता और सामाजिक लोगों को ही नहीं, स्वयं स्कूल संचालकों और शिक्षा विशेषज्ञों को भी सोचना चाहिए। एक अहम् प्रश्न यह है कि शहरों-कस्बों में अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे हिन्दी वातावरण वाले परिवारों से आते हैं। घर में अंग्रेजी का स्वाभाविक वातावरण नहीं होता। स्कूलों में अंग्रेजी बोलना सिखाने की अलग से कोई व्यवस्था नहीं होती। एक विषय के तौर पर अंग्रेजी की औपचारिक शिक्षा का स्तर भी बहुत संतोषजनक नहीं होता। लेकिन बच्चों को अंग्रेजी में ही बोलने के लिए बाध्य किया जाता है, वे चाहे अपनी बात कह पायें या नहीं। इस प्रक्रिया में इन स्कूलों में बहुत सारे बच्चे गूँगे-बहरे बनकर रह जाते हैं। कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं। यहाँ तक कि उनका स्वाभाविक विकास अवरुद्ध होने लग जाता है। मैंने अपने बेटे के सन्दर्भ में रुड़की के एक प्रमुख स्कूल के प्रिंसिपल के समक्ष इस मुद्दे को उठाया था, प्रिंसिपल साहब संवेदनशील थे सो उन्होंने समस्या को समझा और अपने स्कूल में बच्चों को ऐसी किसी बात को, जिसे वह अंग्रेजी में व्यक्त नहीं कर पा रहे हों, हिन्दी में व्यक्त करने की अनुमति दे दी थी और शिक्षक-शिक्षिकाओं को हिदायत भी। लेकिन हर स्कूल ऐसा नहीं कर पाता है। दीपक मशाल ने इसी समस्या को ‘आतंक’ में बेहद सरल-स्वाभाविक ढंग से उठाया है। बच्चा बाथरूम जाने की अनुमति के लिए अंग्रेजी में नहीं बोल पाता, हिन्दी में पूछने पर टीचर दण्ड देते हैं। इसलिए भयग्रस्त होकर पेशाब आने पर भी वह बाथरूम नहीं जाता और उसका पेशाब पैंट में ही निकल जाता है। लघुकथा का सकारात्मक पक्ष यह है कि शिकायत आने पर उसका पिता बच्चे को सीने से लगाकर प्यार से समस्या को जानने का प्रयास करता है। खेद की बात है कि स्कूल वाले इस बात की शिकायत तो करते हैं लेकिन अपने स्तर पर समस्या को जानने-समझने और समाधान का प्रयास नहीं करते। यह संवेदनहीन स्थिति है। दीपक जी ने ‘आतंक’ में स्कूली आतंक को अभिव्यक्ति तो दी ही है, एक गम्भीर समस्या की ओर भी समाज का ध्यान आकर्षित करने में भी वह सफल हुए हैं।
     जिन लघुकथाओं में जीवन से जुड़े बदलावों की चर्चा हुई है, उनमें सामान्यतः समय के साथ आ चुके बदलाव ही शामिल होते हैं। भविष्य के संभावित बदलावों की एक कल्पना दीपक मशाल की ‘प्रगति’ में देखने को मिलती है। इसमें रचनाकार ने भविष्य के रिश्तों और सम्बोधनों में आने वाले परिवर्तनों का कल्पनाशील किन्तु स्वाभाविक चित्र भविष्य के ही एक समय बिन्दु पर स्थित होकर प्रस्तुत किया है। कल्पनाशीलता का एक अच्छा उदाहरण है यह। आज कई कार्यालयों में जूनियर-सीनियर सभी एक दूसरे को नाम से पुकारते हैं, बिना किसी सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग किए। सम्बोधनों से पता ही नहीं चलता कि कौन जूनियर है और कौन सीनियर। निसन्देह ‘प्रगति’ की कल्पनाशीलता कोरी कल्पना नहीं है। कार्यालयों की संस्कृति बहुत सारे अर्थ लेकर घरों और व्यक्तिगत रिश्तों में भी प्रवेश कर रही है। दूसरी ओर बच्चे और उनके माध्यम से आ रही पीढ़ी के लिए बहुत सारे शब्दों-सन्दर्भों के अर्थ बदलते जा रहे हैं। ऐसे में यह लघुकथा भविष्य की स्थितियों पर एक यथार्थ कमेंट प्रस्तुत कर रही है। दीपक जी की यह कल्पना रुचिकर है कि चालीस-पचास वर्षों के बाद बच्चे माता-पिता, दादा-दादी, बुआ-चाचा आदि जैसे शब्दों को भूल चुके होंगे, उनके लिए हर व्यक्ति सिर्फ एक व्यक्ति होगा, जिसका कोई एक नाम होगा। सम्बोधित करने के लिए वह नाम ही पर्याप्त होगा, किसी रिश्ते या आदर सूचक शब्दों का प्रयोग कॉम्प्लीकेटेड चीज बनकर रह जायेगा, जिसे मैनेज करना उस समय की नई पीढ़ी के लिए सम्भव नहीं होगा। जीवन का आनन्द जिसे जिस चीज में मिलता है, उसके लिए जिन्दगी वैसी ही चीजों से जुड़ जाती है। लघुकथा का वातावरण, विशेषतः संवादों में व्याप्त मनोविनोद संकेत करता है कि मम्मी-पापा, दादा-दादी की पीढ़ियों को संतानों की पीढ़ियों के जीवन से जुड़ी चीजों के साथ आनन्दित होना सीख लेना चाहिए। ‘जैनरेशन गैप’ से जनित पीड़ा को पसीने में बहा देने का यही एक तरीका होगा।
     जीवन से जुड़ी कई यथार्थ स्थितियाँ ऐसी होती हैं, जिनमें पर्याप्त नकारात्मकता होती है, लेकिन वही रचनात्मकता का स्रोत बन जाती है। ‘पसीजे शब्द’ एक ऐसी ही लघुकथा है। नकारात्मक यथार्थ के बावजूद रचनात्मक लघुकथा! दीपक जी की सर्वोत्तम लघुकथाओं में से एक। रचना का प्रमुख पात्र, एक ऐसा व्यक्ति है, जो बेहद मेहनती और ईमानदार है और इसी के बलबूते पर उसने एक मुकाम हासिल किया है। लेकिन उसके बचपन से जुड़ी कुछ विशेष (कड़वी) यादें हैं, जिन्हें वह किसी भी रूप में याद नहीं करना चाहता। विदेश में रहता यह व्यक्ति अपनी स्थिति को लगातार मजबूत करने के लिए छुट्टी के दिन भी काम करता है। छोटी सी बेटी द्वारा पावर्टी याने गरीबी का मतलब पूछे जाने पर उसका गला भर आता है। वह कहना चाहता है कि उसकी अपनी सन्तान को गरीबी का मतलब पता न चले यानी जो दुर्दिन उसने देखे हैं, वे सन्तान को न देखने पड़ें, इसीलिए वह इतनी मेहनत करता है, अपना देश छोड़कर परदेश में आ बसा है, लेकिन उसके शब्द दर्द के पसीने में पसीज जाते हैं और वह अपनी बेटी को सीने से भींच लेता है। बेटी उसके आँसुओं में कुछ अर्थ ढूँढ़ने लग जाती है। यह पीड़ा और संवेदनात्मक पराकाष्ठा का क्षण है, जो लघुकथा को चरम पर ले जाता है। चीजों के प्रति उसकी चिड़चिड़ाहट नकारात्मकता को दर्शाती है, वहीं बेटी के प्रति गहनतम प्रेम रचनात्मकता को। संभवतः संतान के प्रति इसी प्रेम के चलते उसने परिश्रम और ईमानदारी का संकल्प लिया और बहुत कुछ (जो रचना में पर्दे के पीछे है) झेलकर भी किसी गलत रास्ते पर नहीं गया, इस सरल-स्वाभाविक रचना में निसन्देह ऐसा कुछ है, जिसमें डूबा जा सकता है, जिसे अन्तर्मन में सहेजा जा सकता है!
     यह कहते हुए मैं बेहद उत्साहित हूँ कि दीपक मशाल की लघुकथाओं में बहुत कुछ है, जिसकी अपेक्षा की जाती है। नई पीढ़ी के अभी तक मेरी दृष्टि में आये, वह सबसे ऊर्जावान और संजीदा लघुकथाकार हैं। उनके लेखन में परिपक्वता है। इक्कीसवीं सदी में सृजित लघुकथाओं का समुचित प्रतिनिधित्व प्रस्तुत किया है उन्होंने। आने वाले समय में वह लघुकथा के भंडार को समृद्ध तो करेंगे ही, नए आयाम भी देंगे; यह विश्वास किया जा सकता है। 

दीपक मशाल की चार प्रतिनिधि लघुकथाएँ

क्रान्ति 
     शूटिंग जारी थी 
     - साले कमीने, घर में माँ-बहन नहीं है क्या?
     अभिनेत्री ने चीखते हुए सीटी बजाने वाले बदमाश को लताड़ा। 
     - कट, कट, कट... नहीं यार बात नहीं बन रही आमना, एक्स्प्रेशन्स ही ढँग से नहीं आ रहे। फिर ट्राई करते हैं, अबके सही से करना। निर्देशक ने युवा अभिनेत्री को समझाते हुए कहा। 
     - ओके गाइज़, गैट रेडी फॉर रीटेक। क्लैप, रोल लाइट 
     - रोलिंग 
     - रोल साउण्ड, रोल कैमरा 
     - रोलिंग    
     - रोलिंग 
     - एक्शन 
     - साले कमीने, घर में माँ-बहन नहीं है क्या?
     - कट कट, कट इट... वो मज़ा ही नहीं आ रहा, मैं इस सीन को कुछ ऐसा बनाना चाहता हूँ कि लोग आने वाले कई सालों तक याद रखें। पर्दे पर आग लग जाए, कुछ ऐसा कि एक नई क्रान्ति पैदा हो। तुम समझ रही हो न?
     - या नो प्रॉब्लम, वी कैन डू इट अगेन। अभिनेत्री ने कोई ना-नुकुर नहीं की। 
     - अरे मोहन, बाल ठीक कर मैडम के। निर्देशक ने मेकअप आर्टिस्ट को बुलाया कि तभी सहायक निर्देशक ने उससे कुछ मशविरा किया, जिस पर निर्देशक ने खुश होते हुए सहमति की मोहर लगा दी। 
     - हाँ, ये ठीक कह रहे हो, कमाल का पकड़ा तुमने। बदलकर यही कर देते हैं, तहलका मचा देगा ये। 
     - यस गाइज़, वन मोर टाइम... लाइट, कैमरा, एक्शन...  
     अभिनेत्री ने बदमाश के बालों को पकड़ पूरे जोश से उसकी नाक को अपने घुटने पर मारा और 
     - मादर... घर में माँ-बहन नहीं तेरे? भेन के... 

आतंक 
     समर सेन के लिए स्कूल से भेजी गई बेटे की शिक़ायत उन्हें सिर्फ़ हैरान ही नहीं बल्कि परेशांन करने वाली भी थी। खुद की याददाश्त पर ज़ोर देने के बाद भी जब ऐसा कुछ याद न आया तो उन्होंने पत्नी से पूछा 
     - अरे सुनो, क्या विकू कभी रात में भी बिस्तर गीला करता है क्या?
     - नहीं, रात में तो उसने आज तक कभी ऐसा नहीं किया, ये तो पिछले हफ़्ते से हो रहा है कि रोज जब स्कूल से लौटकर आता है तो पैन्ट में ही सू-सू किए आता है। 
     रात को बेटे को बिस्तर में अपने सीने से लगाकर उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए प्यार से पूछा 
     - बेटा क्या बात है, स्कूल में तुम पैंट में क्यों सू-सू कर लेते हो? तुम तो मेरे राजाबेटा हो ना, तुम्हें तो बाथरूम में जाना चाहिए, जैसे घर में जाते हो। 
     विकू उनके सीने से चिपक कर सहमते हुए बोला 
     - पापा, मैं बाथरूम जाने के लिए सर से अंग्रेज़ी में नहीं पूछ पाता और जो बच्चे हिन्दी में पूछते हैं सर उन्हें पनिशमेंट देते हैं।  


प्रगति 
     अपने हर काम के लिए लगभग 90-95 प्रतिशत तक मशीनों पर निर्भर हो चुके मानव को अपने वर्तमान युग को अतीत से सम्बन्ध जोड़कर देखना हास्यास्पद लगने लगा था, तभी न एक दिन मैनी ने ऐजो को एक तस्वीर दिखाते हुए कहा
     - तुम विश्वास कर सकोगे ऐजो कि आज से लगभग पचास साल पहले यानि सन 2000 के आसपास के युग की इस तस्वीर से दुनिया कितनी बदल चुकी है, अगर तुम उस समय पैदा हुए होते तो किमी को बुआ कहकर बुलाते और जॉन को चाचा। 
     - अच्छा! क्या तुम भी अपने रिश्तेदारों को ऐसे ही बुलाती थीं मैनी?
     ऐजो ने उत्सुकतावश और जानना चाहा। 
     मैनी के बोलने से पहले ही पास में सोफेनुमा कुर्सी पर पसरे सैम ने बताना चालू किया।
     - अरे नहीं, हमारे समय तक कुछ और बदलाव आये थे। हमने उस समय के चाचा-बुआ को अंकल-आंटी कहना शुरू कर दिया था। 
     - हाऊ इंट्रेस्टिंग! कितनी जल्दी बदलाव आते गए! क्या मिस्टर समीर और मिस रिमी को भी उस समय में मैं चाचा-बुआ कहकर बुलाता सैम?
     ऐजो ने रिश्तों के नामों पर डिसकशन में मजा लेना शुरू कर दिया था। 
     - नहीं डिअर यहाँ चाचा की पार्टनर को लोग चाची कहते थे, समीर और रिमी को तुम उस समय में दादा-दादी कहते।
     ब्लैक कॉफ़ी के सिप मारते हुए ऐजो ने फिर कहा 
     - कितना कॉम्प्लीकेटेड था न सबकुछ उस समय, कैसे मैनेज करते थे तुम लोग? और तुम दोनों को कैसे बोलता मैं उस समय मैनी?
     - सैम को पापा और मुझे मम्मी। हँसते हुए मैनी ने जवाब दिया। 


पसीजे शब्द 
     जब उसने पहली बार इस पराई ज़मीन पर क़दम रखा था तो जेब में दस पाउंड और बैग में तीन जोड़ी कपड़े भर थे। आज ये न सिर्फ उसका कहना है बल्कि लोगों का मानना भी है कि पंद्रह सालों में उसने अपनी लगन, मेहनत और ईमानदारी के दम पर ‘फर्श से अर्श’ तक का सफ़र तय किया है। मगर बचपन की न जाने वो कौन सी यादें हैं जिनका वह अपने आज से कोई भी रिश्ता नहीं रखना चाहता था। कोई भारतप्रेमी अंग्रेज़ दोस्त उससे भारत के विषय में जानकारी लेना चाहता तो वह चिड़चिड़ा हो उठता।
     आज इतवार को शत-प्रतिशत छुट्टी घोषित करती गुनगुनी धूप निकली थी लेकिन उसने आज भी एक क्लाइंट को समय दे रखा था। दफ्तर जाने के लिए जूतों में पैर डाले, तस्मे बाँधे, फिर कलाई पर घड़ी पहन ही रहा था कि तभी उसकी फूल सी बेटी हाथ में पेन-कॉपी और जिहन में सवाल लिए उसके पास आई। 
     - पापा ये पावर्टी क्या होती है?
     वह पल भर को ठिठका, बेटी के माथे को चूमा फिर ठण्डी आवाज़ में बोला 
     - गरीबी बेटा! 
     वह जोर से खिलखिला उठी। 
     - ओह्हो आप भी न बुद्धू हो पापा... हिंदी मीनिंग तो मुझे भी पता है लेकिन गरीबी का मतलब क्या होता है।
     जवाब भरे गले से निकला 
     - तुम्हें इसका मतलब पता न चले इसीलिये तो.... 
     शेष शब्द दर्द के पसीने में पसीज गए, उसने अचानक बेटी को सीने से भींच लिया। बेटी उसके आँसुओं में गरीबी के मायने ढूँढने में लग गई।
  • दीपक मशाल, कोलम्बस-ओहायो/ईमेल : mashal.com@gmail.com
  • भारत में : द्वारा श्री रामबिहारी चौरसिया, मालवीय नगर, बजरिया कोंच (शुक्लाजी की दुकान के सामने), जिला जालौन-285205, उ.प्र.