आपका परिचय

बुधवार, 4 मार्च 2015

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2015



प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


छाया चित्र : श्रद्धा पाण्डेय 
।।सामग्री।।

कृपया सम्बंधित सामग्री के पृष्ठ पर जाने के लिए स्तम्भ के साथ कोष्ठक में दिए लिंक पर क्लिक करें। 

सम्पादकीय पृष्ठ { सम्पादकीय पृष्ठ }:  नई पोस्ट नहीं। 

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} : इस अंक में 'कुछ उपमेय :  कुछ उपमान' से  स्व.  डॉ. कृष्णचन्द्र तिवारी (डॉ.राष्ट्रबन्धु), स्व. श्री रामचरण सिंह ‘अज्ञात’, सुश्री रमा मेहरोत्रा, अम्बिका प्रसाद शुक्ल ‘अम्बिकेश’,  रविशंकर मिश्र, कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’, डॉ. सूर्य प्रसाद शुक्ल, डॉ. विद्या चौहान, कुँवर प्रदीप निगम व विष्णु त्रिपाठी तथा अन्य में श्री सुशान्त सुप्रिय व श्री गणेश भारद्वाज ग़नी की काव्य रचनाएँ। 


लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} :   इस अंक में ‘पड़ाव और पड़ताल’ के पांचवें खण्ड से सर्वश्री अशोक लव, दीपक मशाल, बलराम, राजकुमार गौतम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा व श्री हरनाम शर्मा;  ‘हौसला’ संग्रह  से श्री मधुकांत की तथा अन्य में श्री दिलीप भाटिया, सुश्री पुष्पा जमुआर, श्री किशन लाल शर्मा व श्री राजेन्द्र प्रसाद यादव की लघुकथाएँ।
कहानी {कथा कहानी} : नई पोस्ट नहीं।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} :  इस अंक में श्री महेश पुनेठा एवं सुश्री हरकीरत ‘हीर’  की क्षणिकाएं।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में ‘क़ाफ़िले रोशनी के’ संग्रह से डॉ. गोपाल बाबू शर्मा व ‘साँसों की सरगम’ संग्रह से डॉ. रमा द्विवेदी के हाइकु। 

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} :  इस अंक में  विजय गिरि गोस्वामी ‘काव्यदीप’  के जनक छंद। 

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम} :  इस अंक में कवि डॉ. अशोक कुमार गुप्त 'अशोक' के  दो बाल गीत  बाल चित्रकार सर्वज्ञ उनियाल  के चित्रों के साथ।  

हमारे सरोकार (सरोकार) :  नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  नई पोस्ट नहीं।

संभावना {संभावना} :  नई पोस्ट नहीं।

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} :  नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :    इस अंक में प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय का  लघुकथा पर विश्लेणात्मक आलेख "पातनिकी" तथा दूरदर्शन केन्द्र, दिल्ली में अधिशासी डा. अमरनाथ ‘अमर’ जी से साहित्य व मीडिया से जुड़े प्रश्नों पर मनीषा जैन की बातचीत।

किताबें {किताबें} :    इस अंक में  ‘चिमनी पर टँगा चाँद यानी समय के मुहावरे को सही अर्थ देने की बेचैनी’: डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा स्व. सुरेश यादव के कविता संग्रह ‘‘चिमनी पर टँगा चाँद’’ की, ‘इंद्रधनुषी बिम्बों से सजा एक कविता-संग्रह’: डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा डॉ. मीरा गौतम के कविता संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ की; ‘अनुभूतियों की सच्चाई का काव्य कलश’:  श्री राजेन्द्र परदेसी द्वारा राजेशकुमारी के कविता संग्रह ‘काव्य कलश’ की; ‘ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित करती व्यंग्य रचनाएँ’: डॉ. अनीता देवी द्वारा मधुकान्त की व्यंग्य कथाओं के संग्रह ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ की; ‘‘देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध- ध्वनि’’: श्री ग्यारसी लाल सेन द्वारा श्री रामस्वरूप मूंदड़ा  हाइकु संग्रह ‘ ध्वनि’ की तथा ‘थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएं’: सुश्री कमलेश सूद द्वारा श्री नरेश कुमार उदास के क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’ की समीक्षा।

लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} :   इस अंक में अविराम साहित्यकी के जनवरी-मार्च 2015 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री की सूची। 

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के  20 फ़रवरी 2015  तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 05-06,  जनवरी-फरवरी 2015



।।कविता अनवरत।।



सामग्री : इस अंक में 'कुछ उपमेय :  कुछ उपमान' से  स्व.  डॉ. कृष्णचन्द्र तिवारी (डॉ. राष्ट्रबन्धु), स्व. श्री रामचरण सिंह ‘अज्ञात’, सुश्री रमा मेहरोत्रा, अम्बिका प्रसाद शुक्ल ‘अम्बिकेश’,  रविशंकर मिश्र, कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’, डॉ. सूर्य प्रसाद शुक्ल, डॉ. विद्या चौहान, कुँवर प्रदीप निगम व विष्णु त्रिपाठी तथा अन्य में श्री सुशान्त सुप्रिय व श्री गणेश भारद्वाज ग़नी की काव्य रचनाएँ। 




यह दुःखद सूचना
 इस बार के ब्लॉग पोस्ट करते-करते किसी वजह से फेस बुक पर जाना पड़ा। जाते ही इस दुःखद समाचार से सामना हुआ कि कानपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, जिन्होंने बच्चों के लिए काफी लिखा है, कल यानी 03 मार्च 2015 को श्रद्धेय डॉ. राष्ट्रबन्धु का रेलयात्रा के दौरान निधन हो गया। उनकी साठ से अधिक पुस्तके प्रकाशित हैं। आद. श्यामसुन्दर निगम जी द्वारा संपादित पुस्तक ‘कुछ उपमेय : कुछ उपमान’ में हाल ही उन्हें पढ़ा था। और उनकी सुप्रसिद्ध कविता ‘काले मेघा पानी दे’ इस अंक में शामिल करने के लिए कम्पोज कर चुका था। मैं व्यक्तिगत रूप से और ‘अविराम साहित्यिकी’ परिवार की ओर से श्रद्धेय कवि को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। डॉक्टर साहब का साहित्य में अमूल्य योगदान है, जो उन्हें सर्वदा अमर रखेगा और नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करेगा!

'कुछ उपमेय :  कुछ उपमान' से 
{सुप्रसिद्ध साहित्यकार-समीक्षक  श्री श्याम सुन्दर निगम जी ने अपने सहयोगियों श्री चक्रधर शुक्ल एवं डॉ. संदीप त्रिपाठी के साथ मिलकर वर्ष 2013 में कानपुर शहर से जुड़े 70 वर्ष से अधिक आयु वाले साहित्यकारों के व्यक्तित्व व कृतित्व के प्रति सम्मान की दृष्टि से ‘कुछ उपमेय :  कुछ उपमान’ पुस्तक संपादित की थी, जिसे वी.पी. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नौबस्ता, कानपुर ने प्रकाशित किया था। इस पुस्तक में एक ओर जहाँ कानपुर के वरिष्ठ साहित्यकारों को एक मंच पर लाकर सम्मान देने, उनके प्रति बाद की पीढ़ी की ओर से कृतज्ञता ज्ञापित करने और साहित्य में विनम्रता और आदर-भाव की परम्परा की कड़ी को जोड़ने का प्रयास दिखाई देता है, वहीं वरिष्ठ जनों के प्रेरणाशील व्यक्तित्व और उनकी रचनाधर्मिता से नई पीढ़ी के समक्ष कुछ सीख के उदाहरण रखने का जज्बा भी। नि:सन्देह यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है, जिसमें संपादकों का एक ऐसा समर्पण देखने को मिलता है, जो अन्य प्रान्तों, शहरों में नई पीढ़ी को अपनी वरिष्ठ पीढ़ी और उनके अवदान के प्रति विनम्रता, स्मरण और सम्मान की भावना आत्मसात करने की प्रेरणा बन सकता है। पुस्तक में सत्तर पार के करीब 80 साहित्यकारों का संक्षिप्त परिचय, साक्षात्कार आधारित आत्मकथ्य और कुछ प्रतिनिधि रचनाएं शामिल की गई हैं। यहाँ हम इस पुस्तक के काव्य पक्ष से उदाहरणस्वरूप दस साहित्यकारों की एक-एक काव्य रचना अपने पाठकों के लिए रख रहे हैं।}


डॉ. कृष्णचन्द्र तिवारी (डॉ. राष्ट्रबन्धु)




काले मेघा पानी दे

काले मेघा पानी।
पानी दे गुड़धानी दे।।

लड्डू बरसे खेत में
बच्चे हरसें रेत में
मेघों की अगवानी में
उछलें कूदें पानी में
सबको नाना नानी दे।
हर दिन एक कहानी दे।।

कंजूसों को दानी दे
सिक्कों की निगरानी दे
रानी को हैरानी दे
घर घर मच्छर दानी दे
सब पशुओं को सानी दे।

छाया चित्र :
उमेश महादोषी 
मानवता की निशानी दे।।

अपनी जैसी बानी दे
उलझन में आसानी दे
दुश्मन पानी माँग उठें
ऐसा हमको पानी दे
परंपरा बलिदानी दे।
धरती धानी धानी दे।।

  • पारिवारिक संपर्क : 109/309, रामकृष्ण नगर, कानपुर-208012, उ.प्र. 

रामचरण सिंह ‘अज्ञात’




गीत
रूप-नाम का गर्व जहाँ, हम कैसे वहाँ रुकें।
स्वयं स्वार्थ की सिद्धि हेतु, हम कैसे भला झुकें।।

रूप-नाम के भवनों में हम, सदियों रुके रहे।
रूपसियों-षोड़सियों के, चरणों में झुके रहे।।
रजत राज्य के रनिवासे में, हम हैं बहुत रहे।
क्षणिक वासना की बयार में, हम हैं बहुत बहे।।
कामातुरा कल्पनाओं ने, नित-प्रति हमें ठगा,
खड़ा महल जो बालू पर, हम कैसे वहाँ टिकें।
स्वयं स्वार्थ की सिद्धि हेतु, हम कैसे भला झुकें।।

लौकिक अन्तःपुरियों से है, क्या लेना-देना।
देती ही रहती जो हमको, लगातार ठेना।।
जीते युद्ध अनेकों पर हम, हारे के हारे।
हम तो ऐसे हुए, कि जैसे, वन के बन्जारे।।
ऊपर-नीचे आते-जाते, साँसें बहुत थकीं,
विषम बीथियों में चल-चल हम, कैसे नहीं थकें।
स्वयं स्वार्थ की सिद्धि हेतु, हम कैसे भला झुकें।।

टूटी छत तो गौरैया का, थलकुर भी न बचा।
छाया  चित्र : डॉ. सुरेश पाण्डेय 

बचा न वह भी विश्व, जिसे हमने था स्वयं रचा।।
हमने भी तो एकाकी, जीवन जीना सीखा। 
हर पदार्थ लगता हमको, अब तो तीखा-तीखा।
जहाँ गये हम वहीं सुधा में, मदिरा हमें मिली,
ऐसी ही बातें हैं वे, जिनको हम कह न सकें।।
स्वयं स्वार्थ की सिद्धि हेतु, हम कैसे भला झुकें।।
  • पारिवारिक संपर्क : एल.आई.जी. 66, बर्रा-5, कानपुर-208027, उ.प्र.



रमा मेहरोत्रा






ये गीत

गिरें बिजली, झरें बादल, मगर-
ये गीत- जलते हैं न बहते हैं।
भरी जो आग है इनमें,
भरा इनमें जो पानी है।
नहीं वो आग बिजली में, 
न बादल इनका सानी है।
ये वो आगी है जो अन्तर
की ज्वाला ही लपेटे है।
ये वो पानी है जो जग की
सभी पीड़ा समेटे है।
इसी से तो कहा है कि-
गिरें बिजली, झरें बादल, मगर-
ये गीत- जलते हैं न बहते हैं।

सदा ही गीत किलके हैं,
गोद तूफान की जाकर।
सदा ही पीर महकी है,
घने झंझा को अपनाकर।
ये जाने कैसे पागल हैं,
जो पथ शूलों के चलते हैं।
ये वो शिशु हैं नियम से,
जोकि आँसू पी के पलते हैं।
इसी से तो कहा है कि-
गिरें बिजली, झरें बादल, मगर-
ये गीत- जलते हैं न बहते हैं।

ये वैसे तो बड़े कोमल,
छाया चित्र : श्रद्धा पाण्डेय 

मगर हैं क्या कभी टूटे।
वरन् जोड़ा ही है उनको
कि जिनके साथ हैं छूटे।
है इनका तन खिलौने सा,
हिमालय हैं मगर मन के।
पिया विष-घूंट जिस शिव ने,
बने मंदिर सदा उनके।
इसी से तो कहा है कि-
गिरें बिजली, झरें बादल, मगर-
ये गीत- जलते हैं न बहते हैं।

  • 404, गंगोत्री अपार्टमेन्ट, 7/261, स्वरूप नगर, कानपुर, उ.प्र. / मोबाइल : 09956311307 



अम्बिका प्रसाद शुक्ल ‘अम्बिकेश’




मज़दूर
वह सड़क पर जा रहा था
एक नर कंकाल सा वह,
विश्व का भूचाल सा वह,
सभ्यता का शत्रु सा,
शोषित क्षुधित बंगाल सा वह।
शुष्क-दृढ़ निज युग करों से,
प्राण छाती में दबाये,
मौज से कुछ गा रहा था।
वह सड़क पर जा रहा था।।

माघ के दिन तीव्र ठिठुरन,
तीर सा लगता समीरन,
मस्त सुख की गोद में,
करते किलोलें ये धनिक जन।
किन्तु बेपरवाह सा वह,
लाज लत्तों में लपेटे,
श्रम जनित सुख पा रहा था।
वह सड़क पर जा रहा था।।

सहज सम्भव डग बढ़ाता, 
नींव वैभव की हिलाता,
पद-प्रकम्पन मात्र ही,
इतिहास कुछ का कुछ बनाता।
वह मनीषी, विप्लवी, विध्वंसकारी,
विश्व के सारे प्रलोभन,
शान से ठुकरा रहा था।
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

वह सड़क पर जा रहा था।।

जग उसे मज़दूर कहता,
और उससे दूर रहता,
किन्तु संश्रति के सृजन में,
वह लगा भरपूर रहता।
क्रान्ति युग के इन क्षणों मे,
हर कदम उसका स्वयं ही,
एक नव युग ला रहा था।
वह सड़क पर जा रहा था।।

  • 121/1, डबल कॉलोनी, साइट नं. 1, किदवई नगर, कानपुर-208011, उ.प्र. / मोबाइल : 09795621207




रविशंकर मिश्र
(उर्दू लेखन में ‘रवि अदीब’)




गीत 
शांति दूत कह उड़ा दिया था तुमने जिसको नील गगन में
देखो नोचे पंखों वाला वही सफ़ेद कबूतर हूँ मैं
वही सफ़ेद कबूतर हूँ मैं...

मैं लोहू में लिथड़ा घायल देख रहा यह धरती सूखी,
मधुऋतु के सपनों को छलती जीती जगती लपटें लू की
बरसों जिसकी फ़सल से तुमने पेट भरे दस्तावेजों के
देखो देखो वही खेत हूँ और आज तक बंजर हूँ मैं
वही सफ़ेद कबूतर हूँ मैं...

सच्चाई की शोभा यात्रा में छाले पड़ गये पाँव में,
‘जय-जय’ करते सूखे कंठों को न मिला जल किसी गाँव में
आसमान से चित्र उतारे, तुमने जिसकी खुशहाली के
उसी भूमि का बासी अब तक भूखा-नंगा-बेघर हूँ मैं
छाया चित्र : 
उमेश महादोषी 
वही सफ़ेद कबूतर हूँ मैं...

धरम-करम तक बस था अपना, फल पर कुछ अधिकार नहीं था
निश्छल मन था, निर्मल तन था, लिप्सा का व्यापार नहीं था
लेकिन तुम सबके उत्तेजक नंगा नाच दिखाया जिसका-
उसी सियासत से मजबूरन आज हुआ हमबिस्तर हूँ मैं
वही सफ़ेद कबूजर हूँ मैं...

  • 111 ए/198, अशोक नगर, कानपुर-208012, उ.प्र. / मोबाइल :  09336109585




कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’




स्वर तुम्हारा, बांसुरी मैं

एक स्वर पाकर तुम्हारा, 
बन गया हूँ बांसुरी मैं।

मौन विजड़ित-बाँस सा मैं,
पड़ा था बेसुध अजाना।
किन्तु तन-मन छेड़ तुमने
कर लिया अपना न माना।
दर्द पीने को तुम्हारा,
बन गया हूँ आंजुरी मैं।

अधर क्या तुमने मिलाये,
हुए रसमय भाव मेरे।
गीत अगणित सप्त-स्वर में,
गा उठे सब घाव मेरे।
मधु अधर छूकर तुम्हारा, 
बन गया हूँ मधुकरी मैं।
छाया चित्र  :
कमलेश चौरसिया 


यदि न देते वेदना तुम,
भावना क्यों जन्म लेती।
शब्द केवल शब्द रहते,
चिन्तना यदि लय न देती।
कल्पने होकर तुम्हारा,
बन गया हूँ नभचरी मैं।

एक स्वर पाकर तुम्हारा, 
बन गया हूँ बांसुरी मैं।

  • 29 ए/2, कर्मचारी नगर, पी.ए.सी. रोड, कानपुर-208007, उ.प्र. / मोबाइल :  09307455504



डॉ. सूर्य प्रसाद शुक्ल





भगत सिंह

सिंह था भगत सिंह नर सिंह नाहर था,
क्रान्तिकारिता का वो कुशाग्र कान्तिकारी था।
दूर अति वासना विषै से वो सदा ही रहा
छाया चित्र :
अभिशक्ति 
वीर था प्रवीर था अपूर्व अविकारी था।
अम्ब-जगदम्ब का वो प्राण प्रहरी था और-
नहीं था सुरारी- असुरों का असुरारी था।
था तो वो अकेला पर गोरे शासकों के लिए,
भारतीय भान था हिमालय सा भारी था।

  • 119/501, सी-3, दर्शनपुरवा, कानपुर-208012, उ.प्र. / मोबाइल :  09839202423




डॉ. विद्या चौहान





गीत

इस हँसते रोते जीवन में-
कुछ दर्द भी है, कुछ प्यार भी है।
जब धवल हंस से पंख जोड़
उड़ते फिरते बादल नभ में।
जब मेघ आवरण खोल खोल
रवि आनन हँसता पल-पल में।
देखा करती हूँ मौन तभी-
कुछ धूप भी है, कुछ छाँव भी है।
जब मिलन स्वप्न सा अनचाहे
आ जाता है पुलकित चंचल।
तब विरह कल्पना धीरे से
फैला देती अपना आँचल।
लगता है मेरे मानस में-
रेखा चित्र :
अनुप्रिया 
कुछ तृप्ति भी है, कुछ प्यास भी है।
तट को लक्षित कर जीर्ण तरी
लहरों पर जब लहराती है।
तट कट कर जल में गिर जाता
दूरी बढ़ती ही जाती है।
तब स्थिर नयनों में लगता-
कुछ अश्रु भी हैं, कुछ हास भी है।
  • 109/417 बी, नेहरू नगर, कानपुर-208012, उ.प्र. / फोन :  0512-2554613




कुँवर प्रदीप निगम






गीत
टूटकर बिखरी पड़ी है
काँच की दीवार।
खिलखिलाकर हँस रही है
सामने तलवार।।

आँख में रंगीन सपने,
पैर फिसलन में।
उम्र प्यासी रह गई है,
भरे सावन में।
आस्था के केश खींचे,
मन सरे बाजार।।

है हमारे द्वार पर,
संदेह का पहरा।
इस सदी का साथ,
लपटों से बड़ा गहरा।
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 

हर तरफ है हो रहा,
अब खून का व्यापार।।

आदमी गुमसुम खड़ा है,
लुट गए हैं स्वर।
जैसे पक्षी के किसी ने,
काट डाले पर।
अर्थ क्या है जिंदगी का
और क्या है सार।।

  • 205 एफ, पनकी, कानपुर-208020, उ.प्र. / मोबाइल :  07376976744




विष्णु त्रिपाठी




गीत

कहाँ, कहाँ जुड़ें
कहाँ टूट जाएँ 
घड़े भरे-अधभरे
सब फूट जाएँ

सम्भावनाएँ सभी जिन्हें
सदा दिखें बाँझ
सुबह कभी दिखे नहीं
सदा दिखे साँझ
दिखने में जिन्दा जो
सचमुच हैं मुर्दा
मिला नहीं जिगर जिन्हें
मिला नहीं गुर्दा
राम करे जीतेजी
मरे हुए लोग छूट जाएँ
कहाँ, कहाँ जुड़ें
कहाँ टूट जाएँ। 

स्वयं चरें चरागाह चरवाहे
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा

रेवड़ को चरैवेति, चरैवेति टेरते
करमम् करु कर्मत्वं
करमम् करु कर्मत्वं
मंत्र मोह निर्दयी
कोल्हू को पेरते
पेशेवर देशभक्त
बँसरी चैन की बजाएँ
कहाँ, कहाँ जुड़ें
कहाँ टूट जाएँ। 

  • 13/94, परमट, कानपुर-208001, उ.प्र. / फोन :  0512-2536749


कुछ  और रचनाएँ 


सुशान्त सुप्रिय




तीन कविताएँ 

01. सबसे अच्छा आदमी

सबसे अच्छा है
वह आदमी
जो अभी पैदा ही नहीं हुआ

उसने हमें कभी नहीं छला
प्रपंचों पर वह कभी नहीं पला
हमें पीछे खींच कर
वह आगे नहीं चला

बची हुई है अभी
वे सारी जगहें
जिन्हें घेरता
उसका अस्तित्व
अपनी परछाईं से
बची हुई है अभी
उन सारी जगहों की
आदिम सुंदरता
उसके हिस्से की रोशनी में
नहाती हुई

बची हुई है
अब भी निर्मल
उसके हिस्से की
धूप पानी हवा
आकाश मिट्टी
बचा हुआ है अभी फ़िज़ा में
उसके हिस्से का ऑक्सीजन
राहत की बात है कि
इसी बहाने थोड़ी कम है अभी
वायुमंडल में
कार्बन डायऑक्साइड की मात्रा
रेखा चित्र : संदीप राशिनकर


नहीं बनी है एक और सरल रेखा
वक्र रेखा अभी
बची हुई है बेहतरी की
कुछ संभावनाएँ अभी

कि उपस्थित के बोझ से
कराह रही धरती को
अनुपस्थित
अच्छे आदमी से मिली है
थोड़ी-सी राहत ही सही

02. कहा पिताजी ने

जब नहीं रहेंगे
तब भी होंगे हम-
कहा पिताजी ने

जिएँगे बड़के की क़लम में
कविता बन कर

चित्र बन कर जिएँगे
बिटिया की कूची में

जिएँगे हम
मँझले के स्वाभिमान में
रेखा चित्र : उमेश महादोषी


छोटे के संकल्प में
जिएँगे हम

जैसे हमारे माता-पिता जिये हममें
और अपने बच्चों में जिएँगे ये
वैसे ही बचे रहेंगे हम भी
इन सब में-

कहा पिताजी ने
माँ से

03. केवल रेत भर

वर्षों बाद
जब मैं वहाँ लौटूँगा
सब कुछ अचीन्हा-सा होगा
पहचान का सूरज
अस्त हो चुका होगा

मेरे अपने
बीत चुके होंगे
मेरे  सपने
रीत चुके होंगे
अंजुलि में पड़ा जल
बह चुका होगा
प्राचीन हो चुका पल
ढह चुका होगा

बचपन अपनी केंचुली उतार कर
गुज़र गया होगा
यौवन अपनी छाया समेत
बिखर गया होगा

मृत आकाश तले
वह पूरा दृश्य
एक पीला पड़ चुका
पुराना श्वेत-श्याम चित्र होगा
दाग़-धब्बों से भरा हुआ
छाया चित्र : अभिशक्ति

जैसे चींटियाँ खा जाती हैं कीड़े को
वैसे नष्ट हो चुका होगा
बीत चुके कल का हर पल

मैं ढूँढ़ने निकलूँगा
पुरानी आत्मीय स्मृतियाँ
बिना यह जाने कि
एक भरी-पूरी नदी वहाँ
अब केवल रेत भर बची होगी

  • द्वारा श्री एच. बी. सिन्हा, 5174, श्यामलाल बिल्डिंग, बसंत रोड, (निकट पहाड़गंज), नई दिल्ली-110055 / मोबाइल : 09868511282 / 08512070086



गणेश भारद्वाज ग़नी




सृजन की ओर

कभी-कभी चलचित्र हो जाते हैं
स्मृतियों के चांदी के बरके
जुजुराणा के पंखों-सी ही तो हैं
स्मृतियां बचपन की।

सोचता हूं कितना बेरंग
और नीरस हो चला है जीवन अब
जब कि कुछ नहीं बदला है
सिवाए तुम्हारे।

आज भी सूरज और चांद
उसी गति से हैं गतिमान
आज भी बीज की प्रकृति है उगना
और फिर वृक्ष बनना
वृक्ष से निसृत धूप और छांव
परिकल्पना है
तुम्हारे और मेरे अहसास की।

तुमने चाहा ही नहीं
मेरे हिस्से की धूप-छांव
तुम्हें मिल सकती थी
मेरे अहाते के वृक्ष की छांव
तुम्हें भी मालूम है
पहुंचती है दोपहर बाद
तुम्हारे आंगन में।

हो सके तो आंगन बुहार लो
मेरी तरफ से आती धूप-छांव को
कर लें हम सांझा
जीवन उजाले की धूप ही नहीं 
शान्त मन की चांदनी भी 
कर सकते हैं उसी तरह आधी-आधी
हो सके तो खिड़कियां खोलकर
गुज़र जाने दो मेरे से बहती
चांदनी की आभा
तुम्हारे हृदय तक।

तब कहीं उसी तरह तरतीब बार 
हमारे अहातों की धूप-छांव
चांदनी की सुगन्ध
गुज़र जाएगी एक अनन्त तक 
छाया चित्र : रितेश गुप्ता

अनवरत बिना रूके
मेरे और तुम्हारे से 
सांझा होकर सृजन की ओर।

कभी-कभी चलचित्र हो जाते हैं
स्मृतियों के चांदी के बरके
जुजुराणा के पंखों-सी ही तो है
स्मृतियां बचपन की।
  • एम.सी. भारद्वाज हाऊस, भुटी कालोनी,  डा. शमशी, जिला कुल्लू (हि.प्र.)-175126 / मोबाइल :  09736500069

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 05-06,   जनवरी-फ़रवरी 2015


।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री :  इस अंक में ‘पड़ाव और पड़ताल’ के पांचवें खण्ड से सर्वश्री अशोक लव, दीपक मशाल, बलराम, राजकुमार गौतम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा व श्री हरनाम शर्मा;  ‘हौसला’ संग्रह  से श्री मधुकांत की तथा अन्य में श्री दिलीप भाटिया, सुश्री पुष्पा जमुआर, श्री किशन लाल शर्मा व श्री राजेन्द्र प्रसाद यादव की लघुकथाएँ। 


पड़ाव और पड़ताल-खण्ड 5 संकलन से कुछ लघुकथाएँ 

{सुप्रतिष्ठित लघुकथाकार एवं दिशा प्रकाशन के संचालक श्री मधुदीप जी द्वारा संयोजित लघुकथा संकलन श्रंखला ‘पड़ाव और पड़ताल’ के पांचवें खण्ड का सम्पादन स्वयं मधुदीप जी ने किया है। पूर्व खण्डों की भांति इस खण्ड में भी छः लघुकथाकारों की 11-11 लघुकथाएं, उन लघुकथाओं पर अलग-अलग समीक्षकों की समीक्षाएँ, सभी 66 लघुकथाओं पर एक समालोचक का समालोचनात्मक आलेख, लघुकथा पर एक अग्रलेख तथा लघुकथा आन्दोलन के पुरोधाओं, जो अब हमारे बीच नहीं हैं, में से किसी एक के आलेख/साक्षात्कार रूप में विचारों को शामिल किया गया है। इस पांचवें खण्ड शामिल छः लघुकथाकारों में शामिल हैं- सर्वश्री अशोक लव, दीपक मशाल, बलराम, राजकुमार गौतम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा व श्री हरनाम शर्मा। इनकी चयनित लघुकथाओं पर समीक्षात्मक आलेख क्रमशः सर्वश्री पवन शर्मा, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, महेश दर्पण, सूर्यकान्त नागर, डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्रा, प्रो. रूप देवगुण व डॉ. सतीश दुबे जी ने लिखे हैं। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी के साथ डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी की भेंटवार्ता को धरोहर के अन्तर्गत शामिल किया गया है। अग्रलेख ‘लघुकथा का सौन्दर्यशास्त्र’ डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’ जी ने लिखा है। इस खण्ड के सभी छः लघुकथाकारों की एक-एक प्रतिनिधि लघुकथा हम अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।}


अशोक लव

अविश्वास
     उस दिन सूरज बहुत थका-थका सा उगा था। रमेश की तरह वह भी मानो रातभर सोया न था। 
     रमेश पूछ-पूछकर हार गया था। पत्नी घुम-फिरकर एक ही उत्तर देती- ‘‘मुझे नहीं पता अस्पताल कैसे पहुँची, किसने पहुँचाया। होश में आते ही तुम्हें फोन करवा दिया था।’’
     वह बार-बार पूछता- ‘‘तुम सच-सच क्यों नहीं बता देतीं? जो हो गया सो हो गया।’’
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 

     ‘‘कुछ हुआ हो तो बताऊँ।’’ 
     ‘‘देखो! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। अस्पताल ले जाने से पहले वे तुम्हें और कहाँ ले गए थे?’’
     ‘‘मैंने बताया न कि अँधेरे के कारण सामने पड़े पत्थर से ठोकर लगते ही मैं बेहोश हो गई थी। होश आया तो अस्पताल में थी।’’
     ‘‘डॉक्टर ने बताया था कि तीन युवक तुम्हें दाखिल करा गए थे। तुम सच-सच क्यों नहीं बता देतीं? मैं उस किस्म का आदमी नहीं हूँ जैसा तुम सोच रही हो। आखिर तुम्हारा पति हूँ।’’
     ‘‘जब कुछ हुआ ही नहीं तो क्या बताऊँ? तुम मुझ पर विश्वास क्यों नहीं करते?’’
     रातभर पति-पत्नी के मध्य अविश्वास तैरता रहा था।

  • फ्लैट-363-ए, सूर्य अपार्टमेन्ट, सेक्टर-6, द्वारका, नई दिल्ली-110075 / मोबाइल : 09971010063




दीपक मशाल




ठेस
     ‘‘फ़िल्म तो अच्छी थी लेकिन इस एक्टर के बजाय किसी मस्क्युलर हीरो को लेते तो ये और भी अधिक हिट होती।’’ शो ख़त्म होने पर सिने कॉम्प्लेक्स का एग्जिट गेट धकेलकर बाहर निकलते हुए प्रेमी ने प्रेमिका पर अपना फ़िल्मी ज्ञान झाड़ा 
     ‘‘हम्म, हो सकता है।’’ प्रेमिका ने धीरे से कहा।  
     ‘‘क्या हुआ तुम इतनी चुप क्यों हो?’’ प्रेमिका की उँगलियों में उँगलियाँ डाल उसका हाथ थामे लड़के ने शिकंजा कसते हुए पूछा। 
     ‘‘नहीं हुआ कुछ नहीं समीर, बस तुम्हें बताना था कि अगले एक-दो हफ़्तों के लिए तुम्हें कहीं किसी दोस्त के यहाँ शिफ्ट करना होगा।’’
     ‘‘अरे ये क्या बात हुई!’’ 
     दोनों के हाथ छूट चुके थे 
     ‘‘समझा कर यार, सुबह पापा का फोन आया था। परसों वो किसी काम के सिलसिले में यहाँ आ रहे हैं, इसी बहाने मेरे साथ रहेंगे और शहर भी घूम लेंगे। मैं नहीं चाहती कि घर वाले जानें कि मैं लिव-इन में रहती हूँ।’’ 
     ‘‘ऐसे कैसे विधि! चार दिन बाद तो वैलेंटाइन्स डे है...।’’ लड़का परेशान हो उठा और उसने तंज मारा, ‘‘तुम तो कहती थीं कि तुम्हारी फैमिली बड़ी ब्रॉडमाइंडेड है, तुम्हारे मम्मी-पापा ने भी तो लव मैरिज की है? फिर
रेखा चित्र : के. रविन्द्र 
दिक्क़त क्या है यार, उन्हें बता दो ना।’’ 

     ‘‘समीर, मैं तुम्हें सिर्फ एक महीने से जानती हूँ, अभी हमें एक दूसरे को जानने को कुछ और वक़्त चाहिए और अगर पापा मेरे किसी फैसले में दीवार नहीं बनते तो इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं मर्यादा का पर्दा भी गिरा दूँ।’’ 
     लड़का फिर हँसने लगा और प्यार से बोला, ‘‘तुम भी अजीब हो विधि, एक तरफ़ मॉडर्न बनती हो और दूसरी तरफ़ मर्यादा की बात करती हो, फिर प्यार तो एक नज़र में होता है।’’ 
     ‘‘अच्छा! तो इसका मतलब- अगर तुम्हारी बहिन तुमसे अपने लिव-इन रिलेशन के बारे में बताये तो तुम खुशी-खुशी मान जाओगे?
     ’’विधि!!’’
     समीर भीड़ की परवाह किए बिना चीख पड़ा और इस बार आवाज़ में प्यार नहीं गुस्सा था, ठीक वही गुस्सा जो ठेस से उपजता है। 

  • भारत में : द्वारा श्री रामबिहारी चौरसिया, मालवीय नगर, बजरिया कोंच (शुक्लाजी की दुकान के सामने), जिला-जालौन-285205, उ.प्र. / ई मेल : mashal.com@gmail.com



बलराम




अपने लोग
     दिल्ली विकास प्राधिकरण की एक स्कीम में अड़तालीस स्क्वायर मीटर के प्लॉट के रजिस्ट्रेशन के लिए वह मात्र अठारह सौ रुपए जुटा पाया था। अन्तिम तिथि करीब थी और उसे दो सौ रुपए तत्काल चाहिए थे। उसे इस बात का गर्व था कि डेढ़ हजार से लेकर तीन हजार रुपए प्रति माह तक पाने वाले कई लोग उसके मित्र हैं और आवश्यकता पड़ने पर हजार-पाँच सौ तो मिल ही सकते हैं।
     और अब जब जरूरत पड़ी तो सबसे पहले वह उस मित्र के पास पहुँचा, जो सबसे अधिक तनखाह पाता था। उस मित्र ने कहा कि तत्काल तो कुछ नहीं हो सकता। दो-चार दिन बाद कहीं से कुछ हो गया तो दे सकता हूँ। इसके बाद वह दूसरे मित्र के पास गया तो उसने भी तत्काल दे पाने में असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि
रेखा चित्र : संदीप राशिनकर 
दफ्तर आना। वहाँ दस रुपए सैकड़ा प्रति माह पर एक आदमी से दिलवा दूँगा। तीसरा, जो कि उसका अन्तरंग था, मात्र पचास रुपए दे पाया।

     लौटकर वह अपने घर के सामने चारपाई पर उदास-सा बैठा था कि बगल का पड़ोसी किराएदार रामदास उसके पास आया और उदासी का कारण पूछा। जैसे ही उसने स्थिति बताई, रामदास ने अपनी जेब से पखवारे की आज ही मिली पूरी तनखाह निकालकर उसके सामने रख दी और कहा कि जितने चाहिए, रख लो।

  • सी-69, उपकार अपार्टमेंट, मयूर विहार फेस प्रथम, दिल्ली-110091 / मोबाइल : 09810333933



राजकुमार गौतम

अफसरशाही
     महीने का पहला इतवार था। सौदा-सुलफ लेकर पालसिंह शहर से लौट रहा था। बढ़ती महँगाई से परेशान पालसिंह के पंजे साइकिल-पैडलों के उठे हुए फन भी नहीं दबा पा रहे थे।
      फर्जी मेडीकल क्लेम्स, एल.टी.सी. तथा फण्ड से लिया टेम्परेरी एडवांस - सभी का ‘कमाया’ पैसा इस महँगाई की लम्बी जीभ चाट जाती थी। पूरी तनखाह को जेब में डालकर वह शहर गया था और मात्र राशन-पानी का ही अविश्वसनीय रकम का बिल बनिए ने बनाकर उसके हाथों में थमा दिया था। अब पालसिंह के पास उतने रुपए भी न बचे थे जितने कि महीने के शेष दिन। और आज तारीख थी सिर्फ तीन!
      पालसिंह ने देखा- सड़क पर कुछ आदमी जमा हैं। सड़क के किनारे ही सलेटी रंग की एक कार खड़ी है, जिसका एक दरवाजा खुला हुआ है। करीब जाते-जाते पालसिंह को लगा कि कार जानी-पहचानी है। उसने अपनी साइकिल को एक पेड़ से उलझाया और करीब-करीब दौड़ते हुए भीड़ में घुस गया। पालसिंह की आशंका सही थी- डायरेक्टर साहब ही थे।
     पालसिंह सब-कुछ भूल गया। डायरेक्टर साहब बेसुध-से कार की सीट पर पड़े हाँफ रहे थे। उसने साहब के जूते उतारे। उनके तलवों पर मालिश की। गाड़ी को एक तरफ लगवा दिया। पास के भट्टे पर से पानी लाया, साहब को दो घूंट पानी निगलवाया।
रेखा चित्र :
कमलेश चौरसिया 

     एक टैक्सी को रोककर साहब को अपने घर ले गया...साइकिल पर जाकर शहर से एक अच्छे डाक्टर को बुला लाया...मोहल्ले-पड़ोस में उसकी अस्थाई धाक जम गई...साहब ने डॉक्टर से हँस-हँसकर बातें कीं...बताया, कभी हल्का-सा फिट आ जाता है तो कुछ देर के लिए सेंसलेसनेस फील होती है...फरॅर ए लिटिल...नाउ नो ट्रबल...अब बिल्कुल ठीक हूँ।’’
     कार में बैठने से पहले पालसिंह के कन्धे पर हाथ रखकर, ‘‘थैक्यू, थैंक्य वेरी मच!’’ कहा। एक बच्चे को पास बुलाकर उसका नाम भी पूछा याहब ने।
     इस दो घण्टे के झमेले में पालसिंह की जेब में रेजगारी के चन्द सिक्के ही बचे रह गए थे।
     अगले दिन पालसिंह दफ्तर गया। जेब खाली होने के बावजूद वह उत्साहित था। बराबर की सीटवाले साथी को सारा वृतरन्त बताया। बराबरवाले ने अपने बराबरवाले को बताया।
     कुशल-क्षेम पूछने के बहाने चमचे लोग साहब के पास पहुँच गए।
     ‘‘किसने बताया तुम्हें?’’
     ‘‘सर, वो मिस्टर पालसिंह हैं ना...रिकार्ड सेक्शन में!’’
     
     थोड़ी देर बाद पालसिंह के अण्डमान-निकोबार के लिए स्थानान्तरण के आदेश आ धमके।

  • बी-55, पॉकेट-4, केन्द्रीय विहार-2, सेक्टर-82, नोएडा-201304, उ.प्र. / मोबाइल : 09313636195




डॉ. सतीशराज पुष्करणा




सहानुभूति
     कहीं से स्थानान्तरण होकर आए नए-नए अधिकारी और वहाँ की वर्कशॉप के एक कर्मचारी रामू दादा के मध्य अधिकारी के कार्यालय में गर्मागर्म वार्तालाप हो रहा था। अधिकारी किसी कार्य के समय पर पूरा न होने पर उसे ऊँचे स्वर में डाँट रहे थे- ‘‘तुम निहायत ही आलसी और कामचोर हो।’’
     ‘‘देखिए सर! इस तरह गाली देने का आपको कोई हक नहीं है।’’
     ‘‘क्यों नहीं है?’’
     ‘‘आप भी सरकारी नौकर हैं, और मैं भी।’’
     ‘‘चोप्प!’’
     ‘‘दहाड़िए मत! आप ट्रान्सफर से ज्यादा मेरा कुछ नहीं कर सकते।’’
     ‘‘और वही मैं होने नहीं दूँगा।’’
     ‘‘आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे दूँगा। किन्तु, आप इस प्रकार मुझे डाँट नहीं सकते। वरना...’’
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 

     ‘‘मैं लिखित कार्यवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो, कर लेना, समझे!’’
     निरुत्तर हुआ-सा रामू इसके बाद चुपचाप सिर झुकाए कार्यालय से निकल आया।
     बाहर खड़े उसके समस्त साथियों ने सहज ही अनुमान लगाया कि आज घर जाते समय साहब की खैर नहीं। दादा इन्हें भी अपने हाथ जरूर दिखाएगा ताकि वे फिर किसी को इस प्रकार अपमानित न कर सकें।
     इतने में उन्हीं में से एक फूटा, ‘‘दादा! लगता है इसे भी सबक सिखाना ही पड़ेगा।’’
     ‘‘नहीं रे! सबक तो आज उसने ही सिखा दिया है मुझे। वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, मुझसे भी ज्यादा उसे मेरे बच्चों की चिन्ता है।’’
     इतना कहकर वह अपने कार्यस्थल की ओर बढ़ गया।

  • लघुकथानगर, महेन्द्रू, पटना-800006 (बिहार) / मोबाइल : 09835283820




हरनाम शर्मा




प्रतिक्रियावादी
     अभी बस की पंक्ति में आकर खड़ा ही हुआ था कि एक तटस्थ भाव से घूरते नवयुवक भिखारी ने साधिकार हाथ फैला दिया- ‘‘कुछ पैसे दो।’’
     गठे शरीर का नवयुवक और इस ढंग से भीख माँगे! इसके व्यवहार से मेरी भौंहें तन गईं- ‘‘कुछ काम करके नहीं खा सकते?’’ मैं अनुमान लगा रहा था कि वह लज्जित होकर चला जाएगा।
     ‘‘भाई साहब, मैं काम की ही तलाश में हूँ, तब तक तो खाने को चाहिए न! आप ही यह कृपा कर दें, मुझे कोई काम दिला दें।’’
     ‘‘विचार-गोष्ठी की चख-चख से ऊबकर निकलते हुए सोचा भी न था कि ऐसे ढीठ भिखारी से पाला पड़नेवाला है। साम्यवादी चिन्तक होने के नाते सप्ताह में चार बार कभी दिल्ली, कभी बाहर भाषण-गोष्ठी में साम्यवादी-विदेशी संस्थानों के अनुदान पर आना-जाना लगा रहता है। भिखारी को टालने की गर्ज से कहा, ‘‘मैं खुद ही काम की तलाश में हूँ।’’
     अब भिखारी के ताज्जुब में आने की बारी थी। उसने अपनी आँखों का क्षेत्रफल बढ़ाकर मेरे उजले झकाझक कपड़ों, जूतों, सूटकेस, पान, सिगरेट और चमेली के तेल की सुगन्ध का तादात्म्य मेरी बेरोजगारी से लगाने का असफल-सा प्रयास किया।
     दो बेरोजगार विपरीत स्थितियों में आमने-सामने थे।
     उसके माथे पर सलवटें पाकर मैंने सोचा, ऐसे भिखारी अक्सर बुरा मानकर चले जाते हैं। किन्तु वह
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा 
झल्लाया, ‘‘देने हों तो दो, क्यों अपने व्यर्थ चिन्तन में मेरा समय बर्बाद करते हो?’’

     गजब है! मेरा सोच व्यर्थ और इस टटपूँजिए का समय मूल्यवान। काश! हाथ में पकड़ी सिगरेट कोड़ा बन जाती तो उसकी पीठ पर खूब निशान जमाता, गिनता और भूल जाता।
    मैं पीछा छुड़ाने के लिए लाइन से बाहर निकलकर सीधा फिर विचार-गोष्ठी में पहुँचा। वहाँ वही वाद-विवाद, शोर-शराबा था। सीधे तनकर मैंने कहा, ‘‘व्यवहार-रहित चिन्तन व्यर्थ है और हम सभी पालतू कुत्ते यहाँ भौंकने के लिए इकट्ठे हुए हैं।’’ लगभग सभी ने आँखें तरेरीं। कुछ मेरी ओर लपके। मैं मुड़ा तो एक नवयुवक ने कहा, ‘‘कैच हिम, काउण्टर रेवोल्यूशनरी, ही इज फुलिश, रास्कल, स्काउन्ड्रल, रिएक्शनरी...’’
     जब मैं उनकी पहुँच से बाहर हो गया तो मुझे सुनाई दिया, ‘‘लेट हिम गो, ही हैज गॉन मेड।’’ 

  • ए.जी. 1/54-सी, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018 / फोन : 011-2554353 / मोबाइल :  09910518657



'हौसला' संग्रह  से कुछ लघुकथाएँ 
मधुकांत 




{चर्चित साहित्यकार मधुकांत जी की निःशक्त जीवन पर केन्द्रित लघुकथाओं का संग्रह ‘‘हौसला’’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएं।}

नकली नोट
      कॉलेज के छात्रों को शरारत सूझी। उन्होंने अपनी कॉपी में दस रुपये के आकार का कागज फाड़ा और सूरदास की ओर बढ़ा दिया- बाबा दस रुपये की मेंगफली दे दो....।
    सूरदास ने दस रुपये के नोट को उंगलियों से पहचानने का प्रयत्न किया .... मुस्कुराया... और दो पैकेट मूंगफली के दे दिए। सीट खाली पड़ी थी इसलिए सूरदास वहीं बैठ गया। राजू और उसके साथी चुपचाप मूंगफली खाने लगे।
     सामने बैठा यात्री सब देख रहा था। जब उससे न रहा गया तो पूछा- बच्चो मूंगफली का स्वाद कैसा है? बच्चों ने नजरें झुका लीं। एक बालक फुसफुसाया- जैसा चोरी के गुड़ का होता है।
     फिर यात्री ने सूरदास से कुछ पूछना चाहा- सूरदास तुमको मालूम है....।
     मुझे सब मालूम है- सूरदास ने हंसते हुए कहा- बचपन में मेरा पोता भी ऐसी ही शरारत करता था.....।
     विद्यार्थियों की आंखें अधिक झुक गयीं। 

कलम बने हाथ
      प्रजातन्त्र के पक्ष में कवि ने जनता के सम्मुख शासन के विरोध में अपनी कविता सुनाई तो जनता ने उसे सपने की बात सोची।
     राजा को जब इसका पता लगा तो उन्होंने कवि को दरबार में बुला लिया। उसे धन-दौलत और मान-
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
सम्मान का लालच दिया गया परन्तु कवि ने अस्वीकार कर दिया। अपनी आज्ञा का अपमान होता देखकर राजा ने जल्लाद को बुलाकर कविता लिखने वाले के दोनों हाथों को कलम करवा (कटवा) दिया।

    भयभीत जनता ने उसकी कविता सुननी बन्द कर दी। अब वह पेन नहीं पकड़ सकता था परन्तु वह कलम हुए हाथ को रोशनाई में डुबाकर दीवार पर कविताएं लिखने लगा।

भाग-दौड़
     ईमानदार क्लर्की में रोटी की लड़ाई न लड़ी जा रही थी तो उसने सायं के समय एक लाला के यहां पार्ट टाइम कर लिया। पांच बजे दफ्तर छूटते ही उसे छह बजे तक पहुँचना होता था। किसी दिन लेट हो गए तो गए काम से।
     आज भी हाथ में भारी थैला लिए सदर बाजार से गुजर रहा था और प्रतिदिन की भाँति पटरी वालों पर क्रोध आ रहा था। भीड़ के कारण उसके कंधे छिलने से लगे थे।
     उसे इतना तो ध्यान है वह एक बुढ़िया से टकराया, वह गिर पड़ी लेकिन पीछे मुड़कर देखने का अर्थ था पार्ट आइम से छुट्टी, इसलिए वह अधिक तेजी से चलने लगा।
     हार-थककर रात के समय जब घर में प्रवेश किया तो गैलरी में मां के कराहने की आवाज सुनी।
     ‘‘क्या बात है मां?’’ वह वहीं ठहर गया।
     ‘‘पैर में मोच आ गयी, राह चलते एक बदमाश धकेल कर चला गया।’’ मां कराहतक हुए कोसने लगी।
      ‘‘ओह!’’ जेब में पड़ा ओवर टाइम उसे बहुत बोझिल लगने लगा।

  • डॉ. मधुकान्त, 211-एल, मॉडल टाउन, डबल पार्क, रोहतक (हरियाणा) / मोबाइल :  09896667714




कुछ और लघुकथाएँ


दिलीप भाटिया




रक्षा बन्धन :  भरी कलाई, भीगी पलकें 
फ्रेन्ड्स,
हेलो! आज राखी है, फेसबुक पर पोस्ट करने के लिए मेरे पास ऐसी कोई फोटो नहीं है, जिसे आप लाइक या शेयर कर सकें, हाँ, बस एक छोटी सी कहानी है आज धागों के त्यौहार के दिन की, आप सुनेंगे?
प्रातः मन्दिर गया, तो वहां पर मन्दिर की सफाई कर रही ग्रामीण महिला ने मेरी कलाई पर रेशम की डोरी बांध दी, याद आया, अपने जन्म-दिन पर मैंने उसे साड़ी खरीदने हेतु कुछ रूपए दिए थे, उस की इस रिटर्न गिफ्ट से मेरी सूनी कलाई पर पहला स्नेह का धागा बंधा।
घर आया, तो कोरियर वाला, एक लिफाफा दे गया, राखी के साथ एक छोटा सा भाव भरा पत्र ‘‘भैया, मैं अनजान शहर में पति के ऑपरेशन हेतु ट्रेन में यात्रा कर रही थी, हमारी वार्Ÿाालाप से तुमने अपना ब्लड डोनेशन कार्ड दे दिया था, अनजान शहर में वह संजीवनी बना, आज मेरी कलाई में सुहाग की चूड़ियां तुम्हारे ही कार्ड के कारण हैं, तुम्हारी कलाई के लिए राखी का धागा भेज रही हूँ, सुजाता बहन।‘‘ भरी आंखों से स्वयं ही दूसरा धागा कलाई पर बांध लिया। 
      दिन मंे पुरानी कॉलोनी में हमारे यहां काम करने वाली बाई अचानक आ गई ‘‘सर, हर रविवार को आप मेरे बेटे को गणित व अंग्रेजी पढ़ाया करते थे, इस वर्ष कक्षा 10 की बोर्ड की परीक्षा में स्कूल में प्रथम आया है,
 रेखा चित्र : अनुप्रिया 
मैं गरीब, ट्यूशन फीस आपको क्या देती? मेरा बेटा कुछ लायक बन गया है, आज मैं आप को राखी बांधने आई हूँ।‘‘ भरी आंखों से एक और धागा मेरी कलाई पर सज गया था।

सायंकाल समीप के गांव के स्कूल की मेडम का फोन आया, ‘‘सर, आपने नवरात्रि पर हमारे गांव के स्कूल में पोषाहार बनाने वाली दो कामवालियों के साड़ी भेजी थीं, उन्होने आप के लिए राखी भेजी है, आप घर पर हैं, तो मैं उनकी ओर से बांधने आती हूँ, आज स्कूल की छुट्टी है, वरना उनकी इच्छा थी कि आप को हम आज अपने स्कूल में ही बुलाते‘‘ कुछ समय बाद, नाजिमा मेडम घर आकर मेरी कलाई पर दो और धागे बांध गई।
राखी का दिन ऐसा भी होता है, इस समय कलाई भरी हुई है, निर्मल, पवित्र, आत्मीय धागों से एवं आंखें छलक रही हैं, स्नेह, प्यार से। इन रिश्तों को किस श्रेणी में रखूं, सगे, खून के, अपने, पराए, आत्मीय, औपचारिक, स्वार्थी, मतलबी या कुछ और? मुझे तो कुछ समझ में नही आ रहा है, आप मेरी समस्या का समाधान बतलाऐंगे क्या?
फ्रेंड - दिलीप कैलाश

  • 372/201, न्यूमार्केट, रावतभाटा-323307, राजस्थान / मोबाइल नं : 09461591498





पुष्पा जमुआर




अपना अधिकार

     ‘‘क्या बात है राकेश आज बहुत उदास लग रहे हो?’’
     राकेश ने कोई उत्तर न दिया और मौन बैठा रहा। उदय ने पुनः प्रश्न को दोहराया, ‘‘राकेश! चुप क्यों हो? बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ?’’
      ‘‘कोई कुछ नहीं कर सकता.... बताने से फायदा?’’
      ‘‘बताओ तो सही....।’’
      ‘‘क्या बताऊँ! आज कई दिन से हमारे घर में महाभारत चल रहा है....।’’
      ‘‘महाभारत! कैसा महाभारत! साफ-साफ कहो न....।’’
      ‘‘मम्मी चाहती हैं मैं इंटर में बायलॉजी लूँ ताकि डाक्टर बन सकूँ....।’’
      ‘‘तो....!’’
रेखा चित्र :  
कमलेश चौरसिया 

      ‘‘पूरी बात तो सुन! पापा चाहते हैं कि मैं मैथ लेकर भविष्य में उन्हीं की तरह इंजीनियर बन सकूं.....।’’
      ‘‘पर तुम क्या चाहते हो?’’
      ‘‘मैं तो एन.डी.ए. ज्वाइन करना चाहता हूँ... मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं स्लेक्ट भी हो जाऊँगा।’’
      ‘‘तो फिर देर किस बात की.... आगे बढ़ो।’’
      ‘‘पर... मम्मी... पापा... का क्या करूँ?’’
      ‘‘अजीब आदमी हो.... पढ़ना तुम्हें है, जीवन तुम्हारा है, रुचि तुम्हारी है.... निर्णय भी तुम्हें ही करना चाहिए...।’’
      ‘‘तो भी यार....।’’
      ‘‘कुछ नहीं, साहस पैदा करो और बहुत ही आदर एवं शालीनता से अपने मम्मी-पापा का अच्छा मूड देखकर उन्हें निर्णय से अवगत करा दो...।’’
      ‘‘तुम ठीक कहते हो... यही करूँगा मैं।’’  

  • ‘काशी निकेतन’, रामसहाय लेन, महेन्द्रू, पटना-800006 (बिहार) / मोबाइल : 09308572771





किशन लाल शर्मा




भविष्य

     ‘‘हमारा नेता कैसा हो?’’
     ‘‘जीतेगा भई जीतेगा।’’
     ‘‘तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ है।’’
     नगर निगम के चुनाव होने थे। एक पार्षद प्रत्यासी का जुलूस निकल रहा था। नारों की आवाज सुनकर मैं घर से बाहर निकल आया। जुलूस में लगभग पचास लोग थे। दस-बारह मर्द, आठ-दस युवा और बाकी बच्चे, जो नाबालिग थे। उन्हें अभी वोट देने का अधिकार भी नहीं था।
     बच्चों को नारे लगाते देखकर मैं सोचने लगा। क्या यह बाल मजदूरी या बाल शोषण नहीं? हमारे देश के कर्णधार आखिर देश के भविष्य को किधर ले जा रहे हैं?

  • 103 रामस्वरूप कॉलोनी, आगरा-282010 (उ.प्र.)





राजेन्द्र प्रसाद यादव

सर्वश्रेष्ठ प्राणी

        फार्च्यूनर कार में बैठकर जाते हुए रात्रि में फुटपाथ पर सोते हुए दो व्यक्तियों को देखकर कुत्ता टॉमी ने
रेखा चित्र : उमेश महादोषी 
कुतिया मैरी से दुम हिलाते हुए कहा‘ ‘‘मैरी! यार मुझे तो यह बात झूठी लगती है कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणाी है। मैं तो समझता हूँ कि जिस प्रकार से कुत्तों में कुछ तो बहुत ही ऐश-आराम से जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जबकि काफी संख्या में तो कुत्तों को कभी भर पेट भोजन भी नहीं मिलता। इसी प्रकार मनुष्यों में भी कुछ तो इतनी सुविधाओं से लैस हैं, कि वे सारी सुविधाओं का उपभोग ही नहीं कर पाते; जबकि दूसरे बहुत से मनुष्यों को न तो भर पेट भोजन मिल पाता है और न ही विश्राम के लिए उपयुक्त स्थान। फिर यह कैसे माना जा सकता है कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है!’’

    मैरी ने सहमति में सिर हिला दिया।

  • ग्राम- पहिया बुजुर्ग, पोस्ट- बाँसेपुर डड़वा, जिला आजमगढ़ (उ.प्र.) / मोबाइल : 09198841245