अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 4, अंक : 05-06, जनवरी-फ़रवरी 2015
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।।किताबें।।
सामग्री : इस अंक में ‘चिमनी पर टँगा चाँद यानी समय के मुहावरे को सही अर्थ देने की बेचैनी’: डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा स्व. सुरेश यादव के कविता संग्रह ‘‘चिमनी पर टँगा चाँद’’ की, ‘इंद्रधनुषी बिम्बों से सजा एक कविता-संग्रह’: डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा डॉ. मीरा गौतम के कविता संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ की; ‘अनुभूतियों की सच्चाई का काव्य कलश’: श्री राजेन्द्र परदेसी द्वारा राजेशकुमारी के कविता संग्रह ‘काव्य कलश’ की; ‘ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित करती व्यंग्य रचनाएँ’: डॉ. अनीता देवी द्वारा मधुकान्त की व्यंग्य कथाओं के संग्रह ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ की; ‘‘देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध- ध्वनि’’: श्री ग्यारसी लाल सेन द्वारा श्री रामस्वरूप मूंदड़ा कक हाइकु संग्रह ‘ ध्वनि’ की तथा ‘थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएं’: सुश्री कमलेश सूद द्वारा श्री नरेश कुमार उदास के क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’ की समीक्षा।
डॉ. बलराम अग्रवाल
चिमनी पर टँगा चाँद यानी समय के मुहावरे को सही अर्थ देने की बेचैनी
‘उगते अंकुर’ (1981) तथा ‘दिन अभी डूबा नहीं’ (1986) के बाद सुरेश यादव का यह तीसरा काव्य संग्रह है। निःसंदेह, यह सवाल अनायास ही मस्तिष्क में उभर सकता है कि तीसरा संग्रह 24 वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद क्यों आया है? स्वाभाविक-जैसा लगने के बावजूद इस सवाल को माना बचकाना ही जाएगा, क्योंकि सृजनशीलता की पहचान प्रकाशनकाल के अन्तराल के बरक्स नहीं, समय के साथ उसके सरोकारों के बरक्स होनी चाहिए। ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ के साथ भी उसका आकलन करते हुए एकदम यही स्थिति अपनानी श्रेयस्कर है।
संग्रह की रचनाओं को कुल तीन खण्डों में विभक्त किया गया है- यह शहर किसका है, चट्टान तोड़ती गई तथा वह सपनों से प्यार करता है। पहले खण्ड में 24, दूसरे में 31 तथा तीसरे में 26 यानी कुल 81 कविताएँ इसमें संग्रहीत हैं। इन कविताओं के बारे में कवि का कथन है कि- ‘‘मेरी कविता को/अब न पढ़ना उस तरह/उस दिन से आज तक/शब्दों के अर्थ/बहुत बदल गए हैं‘‘ (मेरी कविता, पृष्ठ: 105)। और यह भी कि- ‘‘मेरी कविताओं की जमीन/उस आदमी के भीतर का धीरज है/छिन चुकी है/जिसके पाँवों की जमीन‘‘ (जमीन, पृष्ठ: 34)।
संग्रह की कविताओं के ये अंश कवि-मन का यथार्थ है जिसे वह पूरे संकलन में इसी सहजता से दर्शाता चलता है। किसी भी प्रकार की शाब्दिक चतुराई को वह छल मानता है- ‘‘मासूम भाव छले जाते हैं/बड़ी चतुराई से कभी-कभी-/शब्द जब होते हैं/बहुत सुन्दर’’ (मासूम भाव, पृष्ठ: 126)।
सुरेश यादव की कविताओं में बिम्बों, प्रतीकों, रूपकों का आरोपण नहीं है। जो कुछ भी है सीधा सहज-सा है लेकिन सपाट नहीं है वैसा दिखते हुए भी। अनेक दृष्टि से सुरेश यादव आहत संवेदनाओं के कवि प्रतीत होते हैं- ‘‘यह शहर किसका है?/ जब-जब मेरा मन पूछता है/जलती सिगरेट पर पड़ता है/किसी का नंगा पाँव/और/जवाब में एक बच्चा चीखता है!’’ (यह शहर किसका है, पृष्ठ: 23)।
क्यों चीखता है कवि के भीतर का यह बच्चा? इसलिए कि गाँव से उसके साथ आया चाँद पीला पड़ गया है और स्वयं वह भी सपनीले वादे ढोते-ढोते सूखकर काँटा हो गया है। लेकिन वह हताश नहीं होता है। विपरीत हवाओं के खिलाफ अलाव का विचार उसमें जागता है। क्यों? इसका उत्तर देता हुआ कवि लिखता है- ‘‘बात इतनी-सी है/आदत झुकने की नहीं है/दरिन्दगी के आगे/टूटता हूँ बार-बार इसलिए कि/झुका नहीं जाता’’ (झुका नहीं जाता, पृष्ठ: 68)। बार-बार टूटने से आहत कवि बाह्य दबावों से त्रस्त और भयभी्त न हो ऐसा नहीं है। अन्ततः तो वह है इस संसार का ही प्राणी। मनोबल टूटने की इस दशा में वह कविता को अपना सम्बल पाता है और कह उठता है- ‘‘रे कवि! हार मत/साथ कविता है‘‘ (रे कवि! हार मत, पृष्ठ: 69)। कवि से ही नहीं, वह कविता से भी कुछ कहता है- ‘‘गूँगे हर शब्द को/आवाज़ दे/पूरे जोर से झकझोर/संवेदना का द्वार/हर बन्द खिड़की/अपने हाथों- खोल कविता/कुछ बोल कविता’’ (कुछ बोल कविता, पृष्ठ: 66)।
गाँव और गरीबी के विषय में सुरेश यादव के चित्र अप्रतिम हैं- ‘‘गाँव- गरीब है इतना/‘ब्लैकबोर्ड’ की तरह/अमीरी का एक-एक अक्षर यहाँ/खड़िया-सा चमक जाता है‘‘ (गरीब गाँव, पृष्ठ: 74)। तथा, ‘‘गरीबी/बाजार में- मुँह बाँधकर जाती हुई मिलती है/खाली जेब मिलती है मेले में/गुब्बारे के साथ फूलती और फूटती है/समय के झूलों में/गरीबी झूलती है- पेंडुलम की तरह/समय को जिन्दा रखती है‘‘ (क्या होती गरीबी, पृष्ठ: 72)।
महानगर में अपने समय के एक क्रूर सत्य को कवि इन शब्दों में लिखता है- ‘‘सड़क पर गिरा/रोटी का टिफन/खुलता नहीं जब तलक/सब्जी, रोटी, दाल/बम की तरह फटते रहते हैं/मासूम लोग दूर हटते रहते हैं’’ (बम लगता है, पृष्ठ: 89)। हालत यह है कि, ‘‘अखबारों में/हर सुबह, लिपटकर आते हैं/हादसे/खुल जाते हैं/चाय की मेज पर/फैल जाते डरावनी तस्वीरों में/घर के कोने-कोने/हर सुबह!‘‘ (अखबार की सुबह, पृष्ठ: 65)। तथा, ‘‘एक पत्ता भी टूटता है/खबर फैलती है/‘सनसनी’ बनकर’’ (माहौल, पृष्ठ: 96)।
तात्पर्य यह कि ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ कवि सुरेश यादव के बहुआयामी कविकर्म को प्रस्तुत करता ऐसा काव्य संग्रह है जिसकी कविताएँ आम पाठक- जो काव्य-बिंबों, काव्य-प्रतीकों, रूपकों आदि गूढ़ काव्यांगों के पचड़े में पड़े बिना आज की कविता में स्वयं को और अपने समय को तलाशना-देखना चाहता है, उसका रसास्वादन करना चाहता है- के लिए तो सहज-ग्राह्य हैं ही, विखंडन की प्रक्रिया से गुजारे बिना कविता को कविता न कहने-मानने वालों के लिए भी स्वीकार्य सिद्ध होंगी। इस संग्रह की अन्य कविताओं में महायुद्ध, गरीब का हुनर, मेले में मुर्गा, ठहरी झील, परिंदे, नन्हा-सा दिया, घर और डर, भूख बड़ी हो गई, हाथों में लिए उजाला, ईश्वर से बात, सीख जाता है हँसना, चटकते बरतन, माटी का घड़ा, अपनी राह, चुभन से खेलता है, दूब हैं हम, रोते बच्चे की माँ, किरन, देह की दीवार, वह हँसी, जलती शाम, बेबसी तथा पूजा भी उल्लेखनीय हैं। इनमें कई को नवगीत-शैली में भी लिखा गया है। बहरहाल, एक-दो को छोड़कर काव्यपरक लयबद्धता तो हर कविता में है ही। अपने समय के मुहावरे को सही अर्थ में प्रस्तुत करने की स्पष्ट बेचैनी के कारण ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ एक सार्थक काव्य संग्रह सिद्ध होता है।
चिमनी पर टँगा चाँद : काव्य संग्रह : सुरेश यादव। प्रकाशक : शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली-110032। मूल्य : रु. 150/- मात्र। पृष्ठ : 128।
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
इंद्रधनुषी बिम्बों से सजा एक कविता-संग्रह
कविता और संगीत का अनूठा संगम कही जा सकने वाली समर्थ्य और प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. मीरा गौतम का सद्यः प्रकाशित काव्य-संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ पढ़कर महाप्राण ‘निराला’ की याद ताजा हो आई, क्योंकि डॉ. मीरा ने जो कविताएँ रची हैं, वे वस्तुतः ‘मुक्त छंद’ की कविताएँ हैं, मात्र ‘अतुकान्त’ गद्य के टुकड़े नहीं हैं!
अपने विलक्षण ‘समर्पण’ में कवयित्री ने जो कुछ लिखा है, वह उनके ‘ह्नदय’ को पाठकों के समक्ष रख देने में सक्षम और समर्थ हुआ है- ‘‘मल्हार एक राग है जिसे वर्षा ऋतु में गाया जाता है! भीतर आर्द्र संवेदनाएँ चुक रही हैं और बाहर मनुष्य के हस्तक्षेपों से पूरा भूगोल असंतुलित हो रहा है। दोनों एक-दूसरे को ढहाने पर लगे हैं! उन सबके लिए जो मेरी यह बात महसूस कर लें कि विकट स्थितियों में मल्हार का निनादित होना कितना जरूरी है कि बाहर और भीतर दोनों ही बचे रह सकें।’’
निस्संदेह, डॉ. मीरा की ये कविताएँ आज की आपाधापी में हमारे जीवन में आते जा रहे ‘भीतर’ और ‘बाहर’ के असंतुलन से जूझने की कविताएँ हैं, जो उद्वेलित भी करती हैं और प्रेरणा भी देती हैं। मेरी दृष्टि में आज तो ये कविताएँ नितांत प्रासंगिक हो उठी हैं। मीरा की इन कविताओं में अनेक रंग हैं, संगीत के अनेक रागों का जिक्र इनमें है और जीवन की छवियों के महकते फूल भी आपको इन कविताओं में मिल जाएँगे तो साथ ही कुछ चुभते हुए प्रश्नों के कांटे भी चुभेंगे जरूर!
‘कविता के बंध जाने का डर’ शीर्षक अपनी कविता में डॉ. मीरा ने साफ चेतावनी दी है- ‘मैं’ लिपटता जाता है कविता से जब,/लिजलिजेपन की हद से/मुक्त होना असंभव था,/कविता आप बीती का टोकरा तो नहीं/अपने सर से उठाकर/पाठक के सर पर टेक दिया/गर्दन तोड़ने के लिए! (पृष्ठ-62)
डॉ. मीरा के ये शब्द आज की हिंदी कविता को ‘आइना’ दिखाने वाले हैं, जिनमें कहीं आपका ‘दर्द’ भी छिपा हो सकता है। ऐसी ही एक और कविता है- ‘बीहड़ों में पगडंडियाँ’, जिसमें कवयित्री मीरा गौतम का ‘दिल’ ही जैसे बोल उठा है। इस कविता का सच निश्चय ही आपकी आँखों को गीला करने की सामर्थ्य स्वयं में रखता है- ‘‘अपना सा मन दे दो कवि!/चोट सहूँ पत्थर बन जाऊँ!/0 0 0/इतना ही हो पास/छद्म के चाबुक खाकर भी/बिखरूँ नहीं,/पालती रहूँ ऊर्जा तन-मन में/संभावनाओं के जागें स्वर,/व्यर्थता न रहे क्षण भर/बीहड़ों में पगडंडियाँ मापने की तरह!’’ (पृष्ठ-63)
डॉ. मीरा ने इस काव्य संग्रह में प्रकाशित कुल 65 कविताओं में ऐसी इन्द्र धनुषी छवियाँ संजोई हैं कि पाठक का मन अनायास ही ‘वाह’ कह उठता है। अपनी पहली ही कविता में मीरा अपने ‘काव्य-दर्शन’ की जैसे घोषणा कर देती है-‘‘बादलों से कहेंगे हम/पगडंडियां बचाकर रक्खें हमारे लिए/0 0 0/विध्वंस के बाद भी/जगहें मिल ही जाती हैं/अनंत संभावनाओं की तरह/नया घर बन जाता है’’ (पृष्ठ-9)
कवयित्री के ह्नदय में ‘बढ़ते विश्वव्यापी आतंकवाद’ के प्रति चिंता की सहज अभिव्यक्ति उनकी ‘ताबूतों में जिंदगी’ कविता में देखते ही बनती है। आतंकवाद का घिनौना सच एकबारगी तो हमारी आँखों में साकार हो उठता है, जब वे अपनी इस कविता में अत्यंत भावुक होकर कहती हैं- ‘‘अभी-अभी दंगों में/दहन हुआ नवजात शिशु/आँखों से मर गया पानी!/आतंक उतर आया जमीन पर/रक्त में बहता है पिशाच/तवों पर सिक रही/वोटों की रोटी!’’ (पृष्ठ-15)
इन कविताओं में ‘स्त्री’ भी बड़ी सिद्दत के साथ विद्यमान है, लेकिन कोई ‘नारा’ या कोरा ‘वाद’ बनकर नहीं, बल्कि एक शक्ति और सृष्टि की धात्री के रूप में है। कई कविताओं में स्त्री के भिन्न-भिन्न रूप आपको मिलेंगे। ‘चलो सखी घूम आएँ’, ‘पर्वत की बेटियाँ हैं नदियाँ’ और ‘पर्वतों की तलहटी में’ जैसी कविताओं में ऐसी ‘स्त्री’ विद्यमान है, जो निरंतर गलती रहती है, कभी ‘उफ’ नहीं करती, लेकिन ‘स्त्री: विषपायिनी’ शीर्षक कविता में डॉ. मीरा ने ‘स्त्री’ के सर्वथा विलक्ष़्ाण रूप को उकेरा है-‘‘जीवित है विषपायिनी/शताब्दियों से/निर्वासित कर देने की/प्रताड़नाओं के बीच,/0 0 0/उसके इर्द-गिर्द कई घेरे/कई-कई पहरे/सर्पों के विषदन्त तोड़ने में/सदियों से माहिर/फिर भी सहज और/निष्पन्द है विषपायिनी!’’ (पृष्ठ-30)
इस संग्रह की कई कवितायें चुभती भी हैं और सवालों को भी उठाती हैं। ऐसी कविता है ‘धूप के पैगाम’, जहाँ कविता की सजग अभिव्यक्ति-क्षमता को कवयित्री एक बार पुकारती है, जैसे आज वह खो गई हो? ‘कविता का वनवास’ और ‘बंट रही है कविता; सचमुच विचारोत्तेजक रचनाएँ कही जा सकती हैं, जिनमें कविता के सृजन की छटपटाहट मिलती है। डॉ. मीरा की कुछ कविताओं में गहरा दर्शन उभरा है, जिनमें ‘कहाँ हो नीलकण्ठ’ और ‘पत्तों का मरण-पर्व’ पाठकों को अवश्य प्रभावित करेंगी। इस संग्रह की एक कविता मुझे सचमुच बहुत ‘बोल्ड’ और बेहद सामयिक लगी है, जिसने बेबाक ढंग से चुभते सवाल पर आपका ध्यान खींचा है। यह कविता है ‘मीडिया में हिंदी’, जिसमें डॉ. मीरा ने चुभते सवाल उठाए हैं- ‘‘बहुत संवर गई है/बणज-ब्यौपार में!/0 0 0/उधार की लिपि में/अंग्रेजी की बन आई/देवनागरी के हर पाये पर/माल ढोती-लादती है अंग्रेजी’’ (पृष्ठ-58)
मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि डॉ. मीरा की यह कविता हिंदी को बिगाड़ते आज के ‘मीडियार्मियों’ की आँखें जरूर खोल सकेगी। कवयित्री ने ‘पर्यावरण’ और सामाजिक संबंधों में निरंतर आते जा रहे विघटन को लेकर भी बहुत सहज कविताएँ लिखी हैं, जो अपनी विचार-शक्ति से प्रभावित करती हैं। डॉ. मीरा की एक कविता ‘अंगारों में दहकते हैं शब्द’ तो सचमुच आपको हिला देगी और आप ‘शब्द-ब्रह्म’ की शक्ति को नमन करेंगे। एक प्यारी कविता है ‘चलो सखि! घूम आएं’, जिसमें डॉ. मीरा ने बड़ी शिद्दत से ‘नारी-स्वभाव’ पर प्यारे कटाक्ष भी किए हैं, जो देखते ही बनते हैं। आप भी देखिए इन पंक्तियों में छिपा हुआ कटाक्ष- ‘‘पीढ़ियां बीत गयी हैं उनकी/निंदा-रस पीते-पिलाते/उस जमात में/हम शामिल न हो जाएं/चलो सखि घूम आएं/पार्क का चक्कर लगा आएं!’’ (पृष्ठ-19)
कवयित्री डॉ. मीरा गौतम का यह कविता संग्रह निस्संदेह एक ताज़गी भरी रचनाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जो अपनी सुगंध से आपको मोह लेगा। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण-पृष्ठ ख़ासा नयनाभिराम है। इस संग्रह से अनेक संभावनाओं को जन्म मिल रहा है, इसलिए इसका स्वागत हिंदी जगत में होना जरूरी है।
मुझे गाने दो मल्हार : कविता संग्रह : डॉ. मीरा गौतम। प्रकाशक : यूनिस्टार बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.ओ. 26-27, से.34ए, चण्डीगढ़। मूल्य : रु.175/- मात्र।
राजेन्द्र परदेसी
अनुभूतियों की सच्चाई: काव्य कलश
‘काव्य कलश’ चर्चित कवयित्री राजेशकुमारी की विभिन्न विधाओं जैसे छंद, गीत, अतुकांत आदि कविताओं का नवीनतम संग्रह है। सच्चे काव्य और सच्ची कला की कसौटी अनुभूति की सच्चाई है। राजेशकुमारी इस कसौटी पर खरी उतरती हैं, उन्होंने बिना किसी लाग लपेट, आडम्बर और कृत्रिमता के जीवन सम्बन्धी अनुभूतियों को सरल और सीधे ढंग से अभिव्यक्त किया है, उन पर अलंकारों की परत चढाने की चेष्टा नहीं की परन्तु फिर भी उनमें जीवन का सत्य
निर्मल स्फटिक मणि के समान दैदीप्यमान है। राजेशकुमारी की सरल शब्दों में आत्माभिव्यक्ति उनके अक्षय आत्मविश्वास की ऊर्जा से अनुप्राणित होने के कारण उनकी कवितायें गहन वेदना से ओतप्रोत हैं। उनकी ये वेदना कृत्रिम नहीं है अपितु प्राकृतिक है, नैसर्गिक है और उसमे सिन्धु की सी अतल गहराई है। वह एक दिन की नहीं है अपितु उसमे अविरल गति है अविरल प्रवाह है अक्षत और अमर है। इसलिए वह ऊपर की वस्तु नहीं, हृदय में बसी हुई है -
कोई प्यासा न रहे, करती प्रकृति प्रयास।
पीकर बूंदे ओस की, भानु बुझाता प्यास।।
संवेदनाओं एवं भावनाओं को कवयित्री राजेशकुमारी व्यक्त करते समय स्पष्टवादिता को नहीं छोड़ती। वह अपने हृदय के उद्गार यूँ बयान करती हैं जैसे शब्द उनकी परिक्रमा कर रहे हों और वह जिस शब्द को चाहती हैं अपनी कविता में शामिल कर उसमे भाव पैदा कर देती हैं। हृदय की सागर जैसी गहराई को सतह पर लाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। यह बात कवयित्री की काव्य क्षमता को दर्शाने के लिए काफी हैद्य। द्रष्टव्य है-
खाने को रोटी नहीं, सोते भूखे पेट।
रैंक बने हैं मेमने, शासन के आखेट।।
राजेशकुमारी को एक कोमल हृदय प्राप्त है जो केवल कवि होने होने के कारण सहृदय एवं सरल ही नहीं है अपितु सात्विक गुणों से परिपूर्ण है, क्योंकि इनकी कविताओं में जो निश्छल प्रेम वेदना का निरूपण हुआ है उसमंे न कहीं कटुता है न कहीं द्वेष न कहीं घ्रणा की भावना है। इनकी वेदना तो अपनी सहज निवृति में विश्व वेदना सी बन गई है-
रक्त पिपासु के सम्मुख चाकू क्या तलवार क्या
आतंकवादी कहाँ सोचे सरहद क्या दीवार क्या
शांत बस्तियों का जलना ही जिनके मंसूबे हों
उन दरिंदों की खातिर परम्परा क्या परिवार क्या !!
राजेशकुमारी ने अपने व्यापक ज्ञान भण्डार और जीवन के अनुभव के रंगों-छंदों से अपनी कविता भण्डार को अनुपम भाव सम्पदा प्रदान की। इनकी कविताओं को पढने से ऐसा लगता है कि इनकी कविताओं में मानव मूल्यों की सतत तलाश है-
मेरे अपने ही फूलों ने झुका दिया इस डाली को
वरना मेरी गर्दन ने कभी झुकना नहीं सीखा!
आज विसंगतियों के टक्कर में मानव फंसा हुआ है,एक कविता में टी. एस. इलियट ने लिखा है कि सूर्य की किरण हमारे ऊपर आघात कर रही हैं, कल्पनाएँ छिन्न भिन्न हो गई हैं, मृत वृक्ष छाया नहीं देते, कहीं आराम नहीं है, हर तरफ़ सूखे पत्थर हैं पानी की कल-कल ध्वनी सुनाई नहीं देती। इलियट के ये विचार वस्तुतः आज के आम आदमी की मनः स्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आज का आम आदमी जिस तरह की छटपटाहट में जी रहा है उसका वर्णन करना कठिन है उसकी विवशताएँ असीम हैं। कवयित्री राजेशकुमारी की कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
खुद को जलाकर जग को देते हो उजाला
फिर भी एक नज़र तुझे कोई देखना नहीं चाहता
कोई तुझसा बेचारा नहीं देखा।
कवयित्री राजेशकुमारी की कविता संग्रह ‘काव्य कलश’ का समग्र रूप का यदि मूल्यांकन किया जाए तो इनकी विरहानुभूति सर्वथा निश्छल एवं नैसर्गिक प्रेम की पवित्र सरिता है जो अपने पुनीत प्रवाह से पाठकों को प्रेम विगलित बना देती हैं। करुणाई भर देती है इसमें अत्यधिक स्वाभाविकता, सरलता, सरसता के दर्शन होते हैं क्यूंकि इसमें वेदना का हाहाकार नहीं है अपितु एकाकीपन की नीरवता भरी हुई है। यह मूक वेदना कविता के सहज एवं स्वाभाविक आवरण को धारण करके नैसर्गिक रूप में यहाँ अभिव्यक्त हुई है। पूर्ण विश्वास है साहित्य जगत इस कविता संग्रह का हृदय से स्वागत करेगा तथा राजेशकुमारी की लेखनी को बल प्रदान करेगा।
काव्य कलश : कविता संग्रह : राजेशकुमारी। प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद-211003। संस्करण : 2014। मूल्य : रु. 140/-।
डॉ. अनीता देवी
ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित करती व्यंग्य रचनाएँ
हिन्दी साहित्य की विधाओं में व्यंग्य विधा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हैं। इसके द्वारा जीवन के विविध आयामों का प्रस्तुतिकरण अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। व्यंग्यात्मकता के माध्यम से मानव जीवन में विघटित विसंगतियों व बिडम्बनाओं की सफल अभिव्यक्ति मन को स्पर्श कर जाती है। ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ मधुकांत की व्यंग्यात्मक रचनाओं का पहला संग्रह है। लेखक ने समाज में बिगड़ते लिंग अनुपात, नेताओं के काले चेहरों पर आदर्श के मुखौटे, कन्या भ्रूण हत्या, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, नेतागीरी में वंश परम्परा, रेल व्यवसाय में घाटा, लीडरशिप, मिड-डे-मील घोटाला, स्कूल व्यवस्था में भ्रष्टाचार व आधुनिक शिक्षा पद्धति के दोषपूर्ण होने के कारण होनहार विद्यार्थियों के भी डगमगाते आत्मविश्वास का अत्यन्त मार्मिक, हृदयग्राही एवं सफल चित्रण किया है।
इस संग्रह की प्रथम रचना ‘नेता ख्यालीराम भीड़ में’ एक नेता के उस चरित्र का वर्णन करती है, जो आदर्श जीवन जीना तो नहीं चाहता लेकिन आदर्शमयी दिखना अवश्य चाहता है। यह रचना आदर्श का मुखौटा पहनने वाले नेताओं पर करारा व्यंग्य है।
आज देश में मिलावट का कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है। दूसरा व्यंग्य ‘असली नकली ख्यालीराम’ इसी मिलावटी कारोबार पर करारा व्यंग्य है। ख्यालीराम जैसे व्यक्ति मिलावट की चर्चा तो करते हैं परन्तु कुछ ठोस कार्य नहीं करते।
संग्रह की तीसरी रचना समाज में बिगड़ते लिंग अनुपात अर्थात लड़कियों की घटती संख्या के फलस्वरूप कुँआरे लड़कों की मानसिक वेदना का चित्रण है। कन्या भ्रूण की हत्याओं से घटती लड़कियों की जनसंख्या के फलस्वरूप गली-मौहल्ले में कुँआरे घूमते लड़कों और माँ-बाप की यही वेदना एक दिन कन्याओं की आवश्यकता का महत्व जता देगी।
‘मार्किंग मास्टर ख्यालीराम’ में मूल्यांकन पद्धति का चित्र प्रस्तुत किया गया है। रचनाकार का मानना है कि शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय छात्रों की उत्तर-पुस्तिकाओं का पुनः मूल्यांकन करा ले तो बड़े भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। देश के होने वाले कर्णधारों के साथ ऐसा भद्दा मजाक किया जाएगा तो कैसे उनकी आस्था शिक्षा के साथ जुड़ पाएगी!
सरकार जनता से टैक्स के रूप में या अन्य साधनों से जो धन जुटाती है, उसकी किस प्रकार बंदर-बांट करके मौज मस्ती की जाती है। इस विषय पर ‘तम्बाकू मंत्री ख्यालीराम’ में दर्शाया गया है।
देश में रीढ़ की हड्डी समझी जाने वाली रेलवे सदैव घाटे का व्यवसाय कर रही है, क्योंकि इसमें अनेक स्थानों पर भ्रष्टाचार के छिद्र हैं। हाल ही की घटना है 10 करोड़ का रेलवे प्रमोशन घोटाला। जिसमें नियमों को ताक पर रखकर भाई-भतीजावाद की परम्परा को अपनाकर प्रमोशन सीनियॉरिटी के आधार पर नहीं होता। यात्री बेटिकट क्यों चलता है? रेल मन्त्रालय ने न तो इसकी विवशता को समझा और न ही इसको रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाया।
नेता बनाने की ‘लीडरशिप एकेडमी’ खुलते ही जो भीड़ इकट्ठी हुई, उससे पता लगता है कि देश में नेतागीरी करने का कितना बड़ा मोह लोगों ने पाल रखा है। अयोग्य से अयोग्य और चरित्रहीन व्यक्ति भी नेता बनने का सपना देखने लगा है। आजादी के 64 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज योग्य और प्रशासनिक अधिकारी नेताजी की गुलामी करने के लिए विवश है। ‘विद्याव्रत की अन्त्येष्टि’ पूर्णतया व्यंग्य रचना नहीं है, बल्कि एक रचनाकार की आत्मपीड़ा है।
कमोवेश प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों में किसी न किसी मास्टर का भूत घूमता रहता है, जो कहीं कुछ भी ठीक नहीं होने देगा। कभी मिड-डे-मील में घोटाला तो कभी सामान खरीद में, कभी फंड्स में तो कभी अबोध बालिका पर बुरी नजर... न जाने क्या-क्या।
यदि सरकार केवल काम के दिनों का वेतन देने लगे तो कर्मचारियों को छुट्टी का दिन सबसे खराब लगेगा। व्यंग्य ‘छुट्टी मास्टर ख्यालीराम’ में छुट्टी के प्रति कर्मचारियों के दृष्टिकोंण को चित्रित करने के साथ उस मजदूर की बात भी कही है जो अचानक छुट्टी हो जाने पर अपने घर खाली हाथ लौटता है।
‘स्कूल की मुँडेर पर उल्लू’ स्कूल व्यवस्था के भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य है। एक ओर अध्यापक को राष्ट्र निर्माता का सम्माननीय पद दिया गया है। जब समाज में अध्यापक ही भ्रष्टाचारी व लालची हो जाएगा तो देश का निर्माण कौन करेगा!
‘भूकम्प’ में एक कर्मठ अध्यापक छुट्टी लिए बिना, कोई शुल्क लिए बिना, पढ़ाने के लिए छात्रों को बुलाए। प्राकृतिक आपदा घटने पर उस अध्यापक पर यह अभियोग चलाया जाए कि उसने छुट्टी वाले दिन छात्रों को पढ़ाने के लिए क्यों बुलाया और इसी अपराध में उसे पदच्युत कर दिया जाए तो कौन अध्यापक छात्रों के लिए परिश्रम करेगा। गुरु पर जब इतने बंधन लग जाएंगे तो क्या अध्यापक अपने गुरुत्व की रक्षा कर पाएगा?
रचनाकार का व्यंग्य विधा में प्रथम प्रयास सफल व उच्चकोटि का है। जिसमें भारतीय समाज की ज्वलन्त समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए इन्हें सुलझााने के प्रयास किए हैं।
ख्यालीराम कुंआरा रह गया : व्यंग्य संग्रह : मधुकांत। प्रकाशक : निहाल पब्लिेकेशन्स एण्ड बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स, सी-70, गली नं. 3, उत्तरी छज्जूपुर, दिल्ली। मूल्य : रु.200/- मात्र। पृष्ठ : 96। संस्करण : 2013।
ग्यारसी लाल सेन
देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध : ध्वनि
कवि रामस्वरूप मूंदड़ा की कृति ‘ध्वनि’ जापानी से हिन्दी में आई विधा ‘हाइकु’ रचनाओं का संग्रह है। मूंदड़ा जी जाने-माने गीत व ग़ज़लकार तथा कई सम्मानों से विभूषित कवि हैं। पुलिस महकमें में सेवारत रहकर इन्होंने दीर्घ समय से साहित्य सृजन से सम्बन्ध रखा, यह अद्भुत है।
भारतीय दृष्टिकोंण हमेशा से ही समन्वयात्मक रहा है। धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक हो या साहित्यिक, कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, जहाँ से जो भी उत्तम मिला, जिसमें मानव कल्याण की चिन्ता हो, लोक मंगलकारी हो, हमारे देश ने उसे ग्रहण किया है। इस प्रकार हमारी संस्कृति को अनेक संस्कृतियों का संगम होने का गौरव प्राप्त है। सभी के सम्मिलित प्रयास से ही यह महिमा हमें प्राप्त हो सकी है। और यही भारतीय संस्कृति कहाती है।
हाइकु जापानी विधा है, जिसमें 5,7,5 अक्षरों की तीन पंक्तियाँ हैं। मूंदड़ा जी के इस संग्रह के 114 पृष्ठों में कुल 755 हाइकु संग्रहीत हैं। जापानी मूल की होने के कारण इस विधा को भले आयातित विधा कहा जाये पर साहित्यकार के समक्ष सृजन के साथ ‘बहुजन हिताय’ और ‘बहुजन सुखाय’ का उद्देश्य ही प्रमुख होता है। ये गुण इस संग्रह की रचनाओं में हैं। इन रचनाओं में जन मानस की सत्ता के साथ-साथ आध्यात्म, प्रकृति, राजनीति, पशु-पक्षी, हमारे देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध की गहन अनुभूति भी है।
हमारे देश की संस्कृति आध्यात्म आधारित है, जहाँ आत्मा, परमात्मा, जन्म, मृत्यु व पुनर्जन्म, लोक-परलोक आदि सिद्धान्तों पर आये दिन चर्चा होती रहती है। ईश्वर तत्व, जीवात्मा तत्व, प्रकृति तत्व, बह्माण्डीय सृष्टि आदि पर हमारे धर्मग्रन्थों में विस्तार से चर्चा है। इस संग्रह में कविता का प्रारंभ भी ऐसी ही गूढ़ चर्चा से किया गया है- 1. ‘‘मरती नहीं/वेश बदलती है/सच में आत्मा’’। 2. ‘‘छोड़ जाएंगे/एक एक करके/साथ श्वासें भी’’।
आज के रचनाकारों को प्रकृति से जुड़ाव नहीं रह गया है, उनके काव्य में राजनीति, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं की ही चिंताएं अधिक होने लगी हैं। यदि कुछ रचनाकार ऐसी रचनाएं करते भी हैं तो उनमें न तो प्रकृति प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है, न भव्य वर्णन, न ही पद्यों की रमणीयता, न स्वर सौष्ठव ही। आइए, मूंदड़ा जी के इन हाइकु की बानगी देखें- 1. ‘‘मन हरखा/भर गई बरखा/ताल-तलैया’’। 2. ‘‘हँस रही जो/बादलों की ओट में/सौदामिनि है’’। 3. ‘‘नीली ओढ़नी/पहनती है रात/सितारों वाली‘‘।
रूमानी स्मृतियों में रची बसी अनुभूतियों से भी बेखबर नहीं है कवि। देखिये इन हाइकु में उनके स्वर- 1. ‘‘प्यार में चोट/दर्द में डूबे गीत/यही सामान‘‘। 2. ‘‘तुम्हारी लगे/हर एक आहट/नयन थके‘‘।
कवि ने जीवन के विभिन्न पक्षों को सामने लाते हुए हमारे समाज पर कटाक्ष ही नहीं कठोर व्यंग्य भी किये हैं- 1. ‘‘लुच्चे लफंगे/सियासत में चंगे/आये थे नंगे’’। 2. ‘‘सुलगा रहे/नफरत की आग/जलेंगे हम’’। 3. ‘‘चाँद सूरज/गरीब को रोटी में/नजर आये‘‘।
संग्रह के एक-एक हाइकु की गहनता और व्यापकता में जाना संभव नहीं है पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मूंदड़ा जी की यह कृति ‘ध्वनि’ उनकी प्रतिभा से परिचय कराती है और जापानी एवं भारतीय काव्य साहित्य के मध्य सेतु का भी उद्देश्य पूर्ण करती है। ये कविताएँ देश-प्रान्त की सीमाओं को लाँघकर विश्व साहित्य का हिस्सा बनती हैं। संग्रह का आवरण सुन्दर व आकर्षक है। भूमिका हाइकु के विद्वान डॉ. भगवतशरण अग्रवाल जी ने लिखी है।
ध्वनि : हाइकु संग्रह : रामस्परूप मूँदड़ा। प्रकाशक : युगबोध प्रकाशन, 6/489, रजत कॉलोनी, बून्दी, राज.। मूल्य : रु.150/-मात्र। पृष्ठ : 115। संस्करण : 2012।
कमलेश सूद
थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएं
नरेश कुमार ‘उदास’ मूलतः हिन्दी भाषा के लेखक व कवि हैं। इनकी 14 पुस्तकें आ चुकी हैं और हाल ही में क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में उदास जी ने जीवन के हर पहलू को उजागर किया है। यदि कहें कि इसमें उन्होंने ‘गागर में सागर भरने’ का काम किया है, तो अतिश्योक्ति न होगी। संग्रह की सभी 252 क्षणिकाओं का सृजन बड़े मनोयोग से किया गया है। उदास जी की सृजनात्मकता अनेक रचनाओं में देखने को मिलती है। ये पंक्तियाँ देखें- ‘‘मिटा
सको तो/आपस के फासले/मिटाओ/वर्ना दूरियाँ/बढ़ती चली जाएँगी/दिलों में नफरत/बढ़ती जाएगी‘‘।
आज की ज्वलंत समस्याओं पर कई सारगर्भित प्रभावशाली रचनाएँ हैं। एक क्षणिका देखें- ‘‘भूख से लड़ती मां/भूख से लड़ता है बाप/भूख से लड़ते हैं बच्चे/भूख से लड़ता है/सारा घर’’। जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाया है कवि ने इस रचना में- ‘‘जीवन नश्वर है/सब जानते भी हैं/लेकिन फिर भी/जीते-जी/इस बात को/स्वीकार नहीं करते’’।
कवि को समाज में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयत्न करती, जूझती, बनती, मिटती औरत की भी चिंता है, जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- ‘‘औरत कहीं कहीं/जूझ रही है/लड़ रही है/फिर भी/पीछे धकेली जा रही है’’। समाज में भ्रूण हत्या जैसे कुकृत्य से सामाजिक मूल्यों का खंडित होना कवि को दुखी कर जाता है। लड़के-लड़कियों के अनुपात में अंतर मादा‘भ्रूणों को मिटाने से ही आया है। कवि की चिंता देखें- ‘‘मादा भ्रूणों को/आए दिन/नष्ट किया जा रहा है/लड़कियों को/पैदा होने से पूर्व ही/मिटाया जा रहा है’’।
आज भारत के प्रत्येक बड़े शहर में हर पल डरती, सहमती, आगे बढ़ती दामिनी को देखा जा सकता है; जो कदम तो फूँक-फूँक कर रखती है पर मन में अनजाना सा डर उसे हर पल दहला देता है। यह डर सोते हुए भी उसका पीछा नहीं छोड़ता- ‘‘लड़की के सपनों में/बार-बार क्यों चले आ रहे हैं/बलात्कारी चेहरे/लड़की सोये-सोये/चीख उठती है/हर बार’’।
संग्रह की हर क्षणिका दिल को झकझोरकर यथार्थ के धरातल पर हमें निर्णयात्मक भूमिका निभाने के लिए छोड़ देती है। इसी भूमिका के तहत उदास जी समाज में बढ़ती नफरत और दिलों के फासलों को पाटने के लिए कई जगह आग्रह करते दिखते हैं। सामाजिक कुरीतियों, सामाजिक चेतना व पर्यावरण आदि जैसे विषयों पर भी कवि अपनी चिंता भी बेहद सादगी से रखता है।
मन के भीतर की पीड़ा व अपनों से बिछुड़ने का दर्द कवि अच्छे से समझता है। दर्दीले गीतों में फूटती उदास मन की व्यथा को इस क्षणिका में सटीक अभिव्यक्ति मिली हैं- ‘‘उदास दिनों में/अनायास ही/फूट पड़ते हैं/कंठ से/कुछ दर्दीले गीत/और मन बोझिल सा हो जाता है‘‘।
क्षणिकाओं की इस माला में दुःख-सुख, राजनीति, ममता, वात्सल्य, अनुशासन आदि कितने ही मोती हैं, जिनकी चमक असाधारण है। थोड़े शब्दों में जीवन को कह जाना, क्षणिका का एक बड़ा गुण है और इस संग्रह का भी। इस संग्रह में आपको जीवन के हर पहलू पर कवि के विचार मिलेंगे। इन्हें पढ़ते हुए आपका मन गहरे तक स्पंदित हुए बिना नहीं रहेगा। संग्रह की शीर्षक रचना में माँ की गोद को आकाश से भी बड़ा बताया गया है, जिसमें बालक का सम्पूर्ण संसार समाया होता है- ‘‘गोदी में/लेटे-लेटे/नन्हे मुन्ने ने/मचलते हुए/माँ से अचानक पूछा था/माँऽऽऽऽ आकाश कितना बड़ा है?/माँ ने उसे/प्यार से थपथपाते/आँचल में ढकते हुए कहा था/मेरी गोद से/छोटाऽऽ हैऽऽ रे’’।
पुस्तक का मुखपृष्ठ आकर्षक व मुद्रण त्रुटिहीन है। विश्वास है कि यह संग्रह पाठकों की आशाओं पर खरा उतरेगा और साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनायेगा।
माँ आकाश कितना बड़ा है : क्षणिका संग्रह : नरेश कुमार ‘उदास’। प्रकाशक : प्रगतिशील प्रकाशन, एन-3/25, प्रथम तल, मोहन गार्डन, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59। मूल्य : रु. 150/- मात्र। पृष्ठ : 104। संस्करण : 2014।
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।।किताबें।।
सामग्री : इस अंक में ‘चिमनी पर टँगा चाँद यानी समय के मुहावरे को सही अर्थ देने की बेचैनी’: डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा स्व. सुरेश यादव के कविता संग्रह ‘‘चिमनी पर टँगा चाँद’’ की, ‘इंद्रधनुषी बिम्बों से सजा एक कविता-संग्रह’: डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा डॉ. मीरा गौतम के कविता संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ की; ‘अनुभूतियों की सच्चाई का काव्य कलश’: श्री राजेन्द्र परदेसी द्वारा राजेशकुमारी के कविता संग्रह ‘काव्य कलश’ की; ‘ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित करती व्यंग्य रचनाएँ’: डॉ. अनीता देवी द्वारा मधुकान्त की व्यंग्य कथाओं के संग्रह ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ की; ‘‘देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध- ध्वनि’’: श्री ग्यारसी लाल सेन द्वारा श्री रामस्वरूप मूंदड़ा कक हाइकु संग्रह ‘ ध्वनि’ की तथा ‘थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएं’: सुश्री कमलेश सूद द्वारा श्री नरेश कुमार उदास के क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’ की समीक्षा।
डॉ. बलराम अग्रवाल
चिमनी पर टँगा चाँद यानी समय के मुहावरे को सही अर्थ देने की बेचैनी
‘उगते अंकुर’ (1981) तथा ‘दिन अभी डूबा नहीं’ (1986) के बाद सुरेश यादव का यह तीसरा काव्य संग्रह है। निःसंदेह, यह सवाल अनायास ही मस्तिष्क में उभर सकता है कि तीसरा संग्रह 24 वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद क्यों आया है? स्वाभाविक-जैसा लगने के बावजूद इस सवाल को माना बचकाना ही जाएगा, क्योंकि सृजनशीलता की पहचान प्रकाशनकाल के अन्तराल के बरक्स नहीं, समय के साथ उसके सरोकारों के बरक्स होनी चाहिए। ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ के साथ भी उसका आकलन करते हुए एकदम यही स्थिति अपनानी श्रेयस्कर है।
संग्रह की रचनाओं को कुल तीन खण्डों में विभक्त किया गया है- यह शहर किसका है, चट्टान तोड़ती गई तथा वह सपनों से प्यार करता है। पहले खण्ड में 24, दूसरे में 31 तथा तीसरे में 26 यानी कुल 81 कविताएँ इसमें संग्रहीत हैं। इन कविताओं के बारे में कवि का कथन है कि- ‘‘मेरी कविता को/अब न पढ़ना उस तरह/उस दिन से आज तक/शब्दों के अर्थ/बहुत बदल गए हैं‘‘ (मेरी कविता, पृष्ठ: 105)। और यह भी कि- ‘‘मेरी कविताओं की जमीन/उस आदमी के भीतर का धीरज है/छिन चुकी है/जिसके पाँवों की जमीन‘‘ (जमीन, पृष्ठ: 34)।
संग्रह की कविताओं के ये अंश कवि-मन का यथार्थ है जिसे वह पूरे संकलन में इसी सहजता से दर्शाता चलता है। किसी भी प्रकार की शाब्दिक चतुराई को वह छल मानता है- ‘‘मासूम भाव छले जाते हैं/बड़ी चतुराई से कभी-कभी-/शब्द जब होते हैं/बहुत सुन्दर’’ (मासूम भाव, पृष्ठ: 126)।
सुरेश यादव की कविताओं में बिम्बों, प्रतीकों, रूपकों का आरोपण नहीं है। जो कुछ भी है सीधा सहज-सा है लेकिन सपाट नहीं है वैसा दिखते हुए भी। अनेक दृष्टि से सुरेश यादव आहत संवेदनाओं के कवि प्रतीत होते हैं- ‘‘यह शहर किसका है?/ जब-जब मेरा मन पूछता है/जलती सिगरेट पर पड़ता है/किसी का नंगा पाँव/और/जवाब में एक बच्चा चीखता है!’’ (यह शहर किसका है, पृष्ठ: 23)।
क्यों चीखता है कवि के भीतर का यह बच्चा? इसलिए कि गाँव से उसके साथ आया चाँद पीला पड़ गया है और स्वयं वह भी सपनीले वादे ढोते-ढोते सूखकर काँटा हो गया है। लेकिन वह हताश नहीं होता है। विपरीत हवाओं के खिलाफ अलाव का विचार उसमें जागता है। क्यों? इसका उत्तर देता हुआ कवि लिखता है- ‘‘बात इतनी-सी है/आदत झुकने की नहीं है/दरिन्दगी के आगे/टूटता हूँ बार-बार इसलिए कि/झुका नहीं जाता’’ (झुका नहीं जाता, पृष्ठ: 68)। बार-बार टूटने से आहत कवि बाह्य दबावों से त्रस्त और भयभी्त न हो ऐसा नहीं है। अन्ततः तो वह है इस संसार का ही प्राणी। मनोबल टूटने की इस दशा में वह कविता को अपना सम्बल पाता है और कह उठता है- ‘‘रे कवि! हार मत/साथ कविता है‘‘ (रे कवि! हार मत, पृष्ठ: 69)। कवि से ही नहीं, वह कविता से भी कुछ कहता है- ‘‘गूँगे हर शब्द को/आवाज़ दे/पूरे जोर से झकझोर/संवेदना का द्वार/हर बन्द खिड़की/अपने हाथों- खोल कविता/कुछ बोल कविता’’ (कुछ बोल कविता, पृष्ठ: 66)।
गाँव और गरीबी के विषय में सुरेश यादव के चित्र अप्रतिम हैं- ‘‘गाँव- गरीब है इतना/‘ब्लैकबोर्ड’ की तरह/अमीरी का एक-एक अक्षर यहाँ/खड़िया-सा चमक जाता है‘‘ (गरीब गाँव, पृष्ठ: 74)। तथा, ‘‘गरीबी/बाजार में- मुँह बाँधकर जाती हुई मिलती है/खाली जेब मिलती है मेले में/गुब्बारे के साथ फूलती और फूटती है/समय के झूलों में/गरीबी झूलती है- पेंडुलम की तरह/समय को जिन्दा रखती है‘‘ (क्या होती गरीबी, पृष्ठ: 72)।
महानगर में अपने समय के एक क्रूर सत्य को कवि इन शब्दों में लिखता है- ‘‘सड़क पर गिरा/रोटी का टिफन/खुलता नहीं जब तलक/सब्जी, रोटी, दाल/बम की तरह फटते रहते हैं/मासूम लोग दूर हटते रहते हैं’’ (बम लगता है, पृष्ठ: 89)। हालत यह है कि, ‘‘अखबारों में/हर सुबह, लिपटकर आते हैं/हादसे/खुल जाते हैं/चाय की मेज पर/फैल जाते डरावनी तस्वीरों में/घर के कोने-कोने/हर सुबह!‘‘ (अखबार की सुबह, पृष्ठ: 65)। तथा, ‘‘एक पत्ता भी टूटता है/खबर फैलती है/‘सनसनी’ बनकर’’ (माहौल, पृष्ठ: 96)।
तात्पर्य यह कि ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ कवि सुरेश यादव के बहुआयामी कविकर्म को प्रस्तुत करता ऐसा काव्य संग्रह है जिसकी कविताएँ आम पाठक- जो काव्य-बिंबों, काव्य-प्रतीकों, रूपकों आदि गूढ़ काव्यांगों के पचड़े में पड़े बिना आज की कविता में स्वयं को और अपने समय को तलाशना-देखना चाहता है, उसका रसास्वादन करना चाहता है- के लिए तो सहज-ग्राह्य हैं ही, विखंडन की प्रक्रिया से गुजारे बिना कविता को कविता न कहने-मानने वालों के लिए भी स्वीकार्य सिद्ध होंगी। इस संग्रह की अन्य कविताओं में महायुद्ध, गरीब का हुनर, मेले में मुर्गा, ठहरी झील, परिंदे, नन्हा-सा दिया, घर और डर, भूख बड़ी हो गई, हाथों में लिए उजाला, ईश्वर से बात, सीख जाता है हँसना, चटकते बरतन, माटी का घड़ा, अपनी राह, चुभन से खेलता है, दूब हैं हम, रोते बच्चे की माँ, किरन, देह की दीवार, वह हँसी, जलती शाम, बेबसी तथा पूजा भी उल्लेखनीय हैं। इनमें कई को नवगीत-शैली में भी लिखा गया है। बहरहाल, एक-दो को छोड़कर काव्यपरक लयबद्धता तो हर कविता में है ही। अपने समय के मुहावरे को सही अर्थ में प्रस्तुत करने की स्पष्ट बेचैनी के कारण ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ एक सार्थक काव्य संग्रह सिद्ध होता है।
चिमनी पर टँगा चाँद : काव्य संग्रह : सुरेश यादव। प्रकाशक : शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली-110032। मूल्य : रु. 150/- मात्र। पृष्ठ : 128।
- एम-70, निकट पुराना जैन मन्दिर, उल्धनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032/मोबाइल: 08826499115
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
इंद्रधनुषी बिम्बों से सजा एक कविता-संग्रह
कविता और संगीत का अनूठा संगम कही जा सकने वाली समर्थ्य और प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. मीरा गौतम का सद्यः प्रकाशित काव्य-संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ पढ़कर महाप्राण ‘निराला’ की याद ताजा हो आई, क्योंकि डॉ. मीरा ने जो कविताएँ रची हैं, वे वस्तुतः ‘मुक्त छंद’ की कविताएँ हैं, मात्र ‘अतुकान्त’ गद्य के टुकड़े नहीं हैं!
अपने विलक्षण ‘समर्पण’ में कवयित्री ने जो कुछ लिखा है, वह उनके ‘ह्नदय’ को पाठकों के समक्ष रख देने में सक्षम और समर्थ हुआ है- ‘‘मल्हार एक राग है जिसे वर्षा ऋतु में गाया जाता है! भीतर आर्द्र संवेदनाएँ चुक रही हैं और बाहर मनुष्य के हस्तक्षेपों से पूरा भूगोल असंतुलित हो रहा है। दोनों एक-दूसरे को ढहाने पर लगे हैं! उन सबके लिए जो मेरी यह बात महसूस कर लें कि विकट स्थितियों में मल्हार का निनादित होना कितना जरूरी है कि बाहर और भीतर दोनों ही बचे रह सकें।’’
निस्संदेह, डॉ. मीरा की ये कविताएँ आज की आपाधापी में हमारे जीवन में आते जा रहे ‘भीतर’ और ‘बाहर’ के असंतुलन से जूझने की कविताएँ हैं, जो उद्वेलित भी करती हैं और प्रेरणा भी देती हैं। मेरी दृष्टि में आज तो ये कविताएँ नितांत प्रासंगिक हो उठी हैं। मीरा की इन कविताओं में अनेक रंग हैं, संगीत के अनेक रागों का जिक्र इनमें है और जीवन की छवियों के महकते फूल भी आपको इन कविताओं में मिल जाएँगे तो साथ ही कुछ चुभते हुए प्रश्नों के कांटे भी चुभेंगे जरूर!
‘कविता के बंध जाने का डर’ शीर्षक अपनी कविता में डॉ. मीरा ने साफ चेतावनी दी है- ‘मैं’ लिपटता जाता है कविता से जब,/लिजलिजेपन की हद से/मुक्त होना असंभव था,/कविता आप बीती का टोकरा तो नहीं/अपने सर से उठाकर/पाठक के सर पर टेक दिया/गर्दन तोड़ने के लिए! (पृष्ठ-62)
डॉ. मीरा के ये शब्द आज की हिंदी कविता को ‘आइना’ दिखाने वाले हैं, जिनमें कहीं आपका ‘दर्द’ भी छिपा हो सकता है। ऐसी ही एक और कविता है- ‘बीहड़ों में पगडंडियाँ’, जिसमें कवयित्री मीरा गौतम का ‘दिल’ ही जैसे बोल उठा है। इस कविता का सच निश्चय ही आपकी आँखों को गीला करने की सामर्थ्य स्वयं में रखता है- ‘‘अपना सा मन दे दो कवि!/चोट सहूँ पत्थर बन जाऊँ!/0 0 0/इतना ही हो पास/छद्म के चाबुक खाकर भी/बिखरूँ नहीं,/पालती रहूँ ऊर्जा तन-मन में/संभावनाओं के जागें स्वर,/व्यर्थता न रहे क्षण भर/बीहड़ों में पगडंडियाँ मापने की तरह!’’ (पृष्ठ-63)
डॉ. मीरा ने इस काव्य संग्रह में प्रकाशित कुल 65 कविताओं में ऐसी इन्द्र धनुषी छवियाँ संजोई हैं कि पाठक का मन अनायास ही ‘वाह’ कह उठता है। अपनी पहली ही कविता में मीरा अपने ‘काव्य-दर्शन’ की जैसे घोषणा कर देती है-‘‘बादलों से कहेंगे हम/पगडंडियां बचाकर रक्खें हमारे लिए/0 0 0/विध्वंस के बाद भी/जगहें मिल ही जाती हैं/अनंत संभावनाओं की तरह/नया घर बन जाता है’’ (पृष्ठ-9)
कवयित्री के ह्नदय में ‘बढ़ते विश्वव्यापी आतंकवाद’ के प्रति चिंता की सहज अभिव्यक्ति उनकी ‘ताबूतों में जिंदगी’ कविता में देखते ही बनती है। आतंकवाद का घिनौना सच एकबारगी तो हमारी आँखों में साकार हो उठता है, जब वे अपनी इस कविता में अत्यंत भावुक होकर कहती हैं- ‘‘अभी-अभी दंगों में/दहन हुआ नवजात शिशु/आँखों से मर गया पानी!/आतंक उतर आया जमीन पर/रक्त में बहता है पिशाच/तवों पर सिक रही/वोटों की रोटी!’’ (पृष्ठ-15)
इन कविताओं में ‘स्त्री’ भी बड़ी सिद्दत के साथ विद्यमान है, लेकिन कोई ‘नारा’ या कोरा ‘वाद’ बनकर नहीं, बल्कि एक शक्ति और सृष्टि की धात्री के रूप में है। कई कविताओं में स्त्री के भिन्न-भिन्न रूप आपको मिलेंगे। ‘चलो सखी घूम आएँ’, ‘पर्वत की बेटियाँ हैं नदियाँ’ और ‘पर्वतों की तलहटी में’ जैसी कविताओं में ऐसी ‘स्त्री’ विद्यमान है, जो निरंतर गलती रहती है, कभी ‘उफ’ नहीं करती, लेकिन ‘स्त्री: विषपायिनी’ शीर्षक कविता में डॉ. मीरा ने ‘स्त्री’ के सर्वथा विलक्ष़्ाण रूप को उकेरा है-‘‘जीवित है विषपायिनी/शताब्दियों से/निर्वासित कर देने की/प्रताड़नाओं के बीच,/0 0 0/उसके इर्द-गिर्द कई घेरे/कई-कई पहरे/सर्पों के विषदन्त तोड़ने में/सदियों से माहिर/फिर भी सहज और/निष्पन्द है विषपायिनी!’’ (पृष्ठ-30)
इस संग्रह की कई कवितायें चुभती भी हैं और सवालों को भी उठाती हैं। ऐसी कविता है ‘धूप के पैगाम’, जहाँ कविता की सजग अभिव्यक्ति-क्षमता को कवयित्री एक बार पुकारती है, जैसे आज वह खो गई हो? ‘कविता का वनवास’ और ‘बंट रही है कविता; सचमुच विचारोत्तेजक रचनाएँ कही जा सकती हैं, जिनमें कविता के सृजन की छटपटाहट मिलती है। डॉ. मीरा की कुछ कविताओं में गहरा दर्शन उभरा है, जिनमें ‘कहाँ हो नीलकण्ठ’ और ‘पत्तों का मरण-पर्व’ पाठकों को अवश्य प्रभावित करेंगी। इस संग्रह की एक कविता मुझे सचमुच बहुत ‘बोल्ड’ और बेहद सामयिक लगी है, जिसने बेबाक ढंग से चुभते सवाल पर आपका ध्यान खींचा है। यह कविता है ‘मीडिया में हिंदी’, जिसमें डॉ. मीरा ने चुभते सवाल उठाए हैं- ‘‘बहुत संवर गई है/बणज-ब्यौपार में!/0 0 0/उधार की लिपि में/अंग्रेजी की बन आई/देवनागरी के हर पाये पर/माल ढोती-लादती है अंग्रेजी’’ (पृष्ठ-58)
मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि डॉ. मीरा की यह कविता हिंदी को बिगाड़ते आज के ‘मीडियार्मियों’ की आँखें जरूर खोल सकेगी। कवयित्री ने ‘पर्यावरण’ और सामाजिक संबंधों में निरंतर आते जा रहे विघटन को लेकर भी बहुत सहज कविताएँ लिखी हैं, जो अपनी विचार-शक्ति से प्रभावित करती हैं। डॉ. मीरा की एक कविता ‘अंगारों में दहकते हैं शब्द’ तो सचमुच आपको हिला देगी और आप ‘शब्द-ब्रह्म’ की शक्ति को नमन करेंगे। एक प्यारी कविता है ‘चलो सखि! घूम आएं’, जिसमें डॉ. मीरा ने बड़ी शिद्दत से ‘नारी-स्वभाव’ पर प्यारे कटाक्ष भी किए हैं, जो देखते ही बनते हैं। आप भी देखिए इन पंक्तियों में छिपा हुआ कटाक्ष- ‘‘पीढ़ियां बीत गयी हैं उनकी/निंदा-रस पीते-पिलाते/उस जमात में/हम शामिल न हो जाएं/चलो सखि घूम आएं/पार्क का चक्कर लगा आएं!’’ (पृष्ठ-19)
कवयित्री डॉ. मीरा गौतम का यह कविता संग्रह निस्संदेह एक ताज़गी भरी रचनाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जो अपनी सुगंध से आपको मोह लेगा। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण-पृष्ठ ख़ासा नयनाभिराम है। इस संग्रह से अनेक संभावनाओं को जन्म मिल रहा है, इसलिए इसका स्वागत हिंदी जगत में होना जरूरी है।
मुझे गाने दो मल्हार : कविता संग्रह : डॉ. मीरा गौतम। प्रकाशक : यूनिस्टार बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.ओ. 26-27, से.34ए, चण्डीगढ़। मूल्य : रु.175/- मात्र।
- 74/3, न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उ.खंड) / मोबाइल : 09412070351
राजेन्द्र परदेसी
अनुभूतियों की सच्चाई: काव्य कलश
‘काव्य कलश’ चर्चित कवयित्री राजेशकुमारी की विभिन्न विधाओं जैसे छंद, गीत, अतुकांत आदि कविताओं का नवीनतम संग्रह है। सच्चे काव्य और सच्ची कला की कसौटी अनुभूति की सच्चाई है। राजेशकुमारी इस कसौटी पर खरी उतरती हैं, उन्होंने बिना किसी लाग लपेट, आडम्बर और कृत्रिमता के जीवन सम्बन्धी अनुभूतियों को सरल और सीधे ढंग से अभिव्यक्त किया है, उन पर अलंकारों की परत चढाने की चेष्टा नहीं की परन्तु फिर भी उनमें जीवन का सत्य
निर्मल स्फटिक मणि के समान दैदीप्यमान है। राजेशकुमारी की सरल शब्दों में आत्माभिव्यक्ति उनके अक्षय आत्मविश्वास की ऊर्जा से अनुप्राणित होने के कारण उनकी कवितायें गहन वेदना से ओतप्रोत हैं। उनकी ये वेदना कृत्रिम नहीं है अपितु प्राकृतिक है, नैसर्गिक है और उसमे सिन्धु की सी अतल गहराई है। वह एक दिन की नहीं है अपितु उसमे अविरल गति है अविरल प्रवाह है अक्षत और अमर है। इसलिए वह ऊपर की वस्तु नहीं, हृदय में बसी हुई है -
कोई प्यासा न रहे, करती प्रकृति प्रयास।
पीकर बूंदे ओस की, भानु बुझाता प्यास।।
संवेदनाओं एवं भावनाओं को कवयित्री राजेशकुमारी व्यक्त करते समय स्पष्टवादिता को नहीं छोड़ती। वह अपने हृदय के उद्गार यूँ बयान करती हैं जैसे शब्द उनकी परिक्रमा कर रहे हों और वह जिस शब्द को चाहती हैं अपनी कविता में शामिल कर उसमे भाव पैदा कर देती हैं। हृदय की सागर जैसी गहराई को सतह पर लाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। यह बात कवयित्री की काव्य क्षमता को दर्शाने के लिए काफी हैद्य। द्रष्टव्य है-
खाने को रोटी नहीं, सोते भूखे पेट।
रैंक बने हैं मेमने, शासन के आखेट।।
राजेशकुमारी को एक कोमल हृदय प्राप्त है जो केवल कवि होने होने के कारण सहृदय एवं सरल ही नहीं है अपितु सात्विक गुणों से परिपूर्ण है, क्योंकि इनकी कविताओं में जो निश्छल प्रेम वेदना का निरूपण हुआ है उसमंे न कहीं कटुता है न कहीं द्वेष न कहीं घ्रणा की भावना है। इनकी वेदना तो अपनी सहज निवृति में विश्व वेदना सी बन गई है-
रक्त पिपासु के सम्मुख चाकू क्या तलवार क्या
आतंकवादी कहाँ सोचे सरहद क्या दीवार क्या
शांत बस्तियों का जलना ही जिनके मंसूबे हों
उन दरिंदों की खातिर परम्परा क्या परिवार क्या !!
राजेशकुमारी ने अपने व्यापक ज्ञान भण्डार और जीवन के अनुभव के रंगों-छंदों से अपनी कविता भण्डार को अनुपम भाव सम्पदा प्रदान की। इनकी कविताओं को पढने से ऐसा लगता है कि इनकी कविताओं में मानव मूल्यों की सतत तलाश है-
मेरे अपने ही फूलों ने झुका दिया इस डाली को
वरना मेरी गर्दन ने कभी झुकना नहीं सीखा!
आज विसंगतियों के टक्कर में मानव फंसा हुआ है,एक कविता में टी. एस. इलियट ने लिखा है कि सूर्य की किरण हमारे ऊपर आघात कर रही हैं, कल्पनाएँ छिन्न भिन्न हो गई हैं, मृत वृक्ष छाया नहीं देते, कहीं आराम नहीं है, हर तरफ़ सूखे पत्थर हैं पानी की कल-कल ध्वनी सुनाई नहीं देती। इलियट के ये विचार वस्तुतः आज के आम आदमी की मनः स्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आज का आम आदमी जिस तरह की छटपटाहट में जी रहा है उसका वर्णन करना कठिन है उसकी विवशताएँ असीम हैं। कवयित्री राजेशकुमारी की कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
खुद को जलाकर जग को देते हो उजाला
फिर भी एक नज़र तुझे कोई देखना नहीं चाहता
कोई तुझसा बेचारा नहीं देखा।
कवयित्री राजेशकुमारी की कविता संग्रह ‘काव्य कलश’ का समग्र रूप का यदि मूल्यांकन किया जाए तो इनकी विरहानुभूति सर्वथा निश्छल एवं नैसर्गिक प्रेम की पवित्र सरिता है जो अपने पुनीत प्रवाह से पाठकों को प्रेम विगलित बना देती हैं। करुणाई भर देती है इसमें अत्यधिक स्वाभाविकता, सरलता, सरसता के दर्शन होते हैं क्यूंकि इसमें वेदना का हाहाकार नहीं है अपितु एकाकीपन की नीरवता भरी हुई है। यह मूक वेदना कविता के सहज एवं स्वाभाविक आवरण को धारण करके नैसर्गिक रूप में यहाँ अभिव्यक्त हुई है। पूर्ण विश्वास है साहित्य जगत इस कविता संग्रह का हृदय से स्वागत करेगा तथा राजेशकुमारी की लेखनी को बल प्रदान करेगा।
काव्य कलश : कविता संग्रह : राजेशकुमारी। प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद-211003। संस्करण : 2014। मूल्य : रु. 140/-।
- 44, शिव विहार, फरीदी नगर, लखनऊ-226015, उ.प्र./ मोबाइल : 09415045584
डॉ. अनीता देवी
ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित करती व्यंग्य रचनाएँ
हिन्दी साहित्य की विधाओं में व्यंग्य विधा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हैं। इसके द्वारा जीवन के विविध आयामों का प्रस्तुतिकरण अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। व्यंग्यात्मकता के माध्यम से मानव जीवन में विघटित विसंगतियों व बिडम्बनाओं की सफल अभिव्यक्ति मन को स्पर्श कर जाती है। ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ मधुकांत की व्यंग्यात्मक रचनाओं का पहला संग्रह है। लेखक ने समाज में बिगड़ते लिंग अनुपात, नेताओं के काले चेहरों पर आदर्श के मुखौटे, कन्या भ्रूण हत्या, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, नेतागीरी में वंश परम्परा, रेल व्यवसाय में घाटा, लीडरशिप, मिड-डे-मील घोटाला, स्कूल व्यवस्था में भ्रष्टाचार व आधुनिक शिक्षा पद्धति के दोषपूर्ण होने के कारण होनहार विद्यार्थियों के भी डगमगाते आत्मविश्वास का अत्यन्त मार्मिक, हृदयग्राही एवं सफल चित्रण किया है।
इस संग्रह की प्रथम रचना ‘नेता ख्यालीराम भीड़ में’ एक नेता के उस चरित्र का वर्णन करती है, जो आदर्श जीवन जीना तो नहीं चाहता लेकिन आदर्शमयी दिखना अवश्य चाहता है। यह रचना आदर्श का मुखौटा पहनने वाले नेताओं पर करारा व्यंग्य है।
आज देश में मिलावट का कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है। दूसरा व्यंग्य ‘असली नकली ख्यालीराम’ इसी मिलावटी कारोबार पर करारा व्यंग्य है। ख्यालीराम जैसे व्यक्ति मिलावट की चर्चा तो करते हैं परन्तु कुछ ठोस कार्य नहीं करते।
संग्रह की तीसरी रचना समाज में बिगड़ते लिंग अनुपात अर्थात लड़कियों की घटती संख्या के फलस्वरूप कुँआरे लड़कों की मानसिक वेदना का चित्रण है। कन्या भ्रूण की हत्याओं से घटती लड़कियों की जनसंख्या के फलस्वरूप गली-मौहल्ले में कुँआरे घूमते लड़कों और माँ-बाप की यही वेदना एक दिन कन्याओं की आवश्यकता का महत्व जता देगी।
‘मार्किंग मास्टर ख्यालीराम’ में मूल्यांकन पद्धति का चित्र प्रस्तुत किया गया है। रचनाकार का मानना है कि शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय छात्रों की उत्तर-पुस्तिकाओं का पुनः मूल्यांकन करा ले तो बड़े भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। देश के होने वाले कर्णधारों के साथ ऐसा भद्दा मजाक किया जाएगा तो कैसे उनकी आस्था शिक्षा के साथ जुड़ पाएगी!
सरकार जनता से टैक्स के रूप में या अन्य साधनों से जो धन जुटाती है, उसकी किस प्रकार बंदर-बांट करके मौज मस्ती की जाती है। इस विषय पर ‘तम्बाकू मंत्री ख्यालीराम’ में दर्शाया गया है।
देश में रीढ़ की हड्डी समझी जाने वाली रेलवे सदैव घाटे का व्यवसाय कर रही है, क्योंकि इसमें अनेक स्थानों पर भ्रष्टाचार के छिद्र हैं। हाल ही की घटना है 10 करोड़ का रेलवे प्रमोशन घोटाला। जिसमें नियमों को ताक पर रखकर भाई-भतीजावाद की परम्परा को अपनाकर प्रमोशन सीनियॉरिटी के आधार पर नहीं होता। यात्री बेटिकट क्यों चलता है? रेल मन्त्रालय ने न तो इसकी विवशता को समझा और न ही इसको रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाया।
नेता बनाने की ‘लीडरशिप एकेडमी’ खुलते ही जो भीड़ इकट्ठी हुई, उससे पता लगता है कि देश में नेतागीरी करने का कितना बड़ा मोह लोगों ने पाल रखा है। अयोग्य से अयोग्य और चरित्रहीन व्यक्ति भी नेता बनने का सपना देखने लगा है। आजादी के 64 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज योग्य और प्रशासनिक अधिकारी नेताजी की गुलामी करने के लिए विवश है। ‘विद्याव्रत की अन्त्येष्टि’ पूर्णतया व्यंग्य रचना नहीं है, बल्कि एक रचनाकार की आत्मपीड़ा है।
कमोवेश प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों में किसी न किसी मास्टर का भूत घूमता रहता है, जो कहीं कुछ भी ठीक नहीं होने देगा। कभी मिड-डे-मील में घोटाला तो कभी सामान खरीद में, कभी फंड्स में तो कभी अबोध बालिका पर बुरी नजर... न जाने क्या-क्या।
यदि सरकार केवल काम के दिनों का वेतन देने लगे तो कर्मचारियों को छुट्टी का दिन सबसे खराब लगेगा। व्यंग्य ‘छुट्टी मास्टर ख्यालीराम’ में छुट्टी के प्रति कर्मचारियों के दृष्टिकोंण को चित्रित करने के साथ उस मजदूर की बात भी कही है जो अचानक छुट्टी हो जाने पर अपने घर खाली हाथ लौटता है।
‘स्कूल की मुँडेर पर उल्लू’ स्कूल व्यवस्था के भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य है। एक ओर अध्यापक को राष्ट्र निर्माता का सम्माननीय पद दिया गया है। जब समाज में अध्यापक ही भ्रष्टाचारी व लालची हो जाएगा तो देश का निर्माण कौन करेगा!
‘भूकम्प’ में एक कर्मठ अध्यापक छुट्टी लिए बिना, कोई शुल्क लिए बिना, पढ़ाने के लिए छात्रों को बुलाए। प्राकृतिक आपदा घटने पर उस अध्यापक पर यह अभियोग चलाया जाए कि उसने छुट्टी वाले दिन छात्रों को पढ़ाने के लिए क्यों बुलाया और इसी अपराध में उसे पदच्युत कर दिया जाए तो कौन अध्यापक छात्रों के लिए परिश्रम करेगा। गुरु पर जब इतने बंधन लग जाएंगे तो क्या अध्यापक अपने गुरुत्व की रक्षा कर पाएगा?
रचनाकार का व्यंग्य विधा में प्रथम प्रयास सफल व उच्चकोटि का है। जिसमें भारतीय समाज की ज्वलन्त समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए इन्हें सुलझााने के प्रयास किए हैं।
ख्यालीराम कुंआरा रह गया : व्यंग्य संग्रह : मधुकांत। प्रकाशक : निहाल पब्लिेकेशन्स एण्ड बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स, सी-70, गली नं. 3, उत्तरी छज्जूपुर, दिल्ली। मूल्य : रु.200/- मात्र। पृष्ठ : 96। संस्करण : 2013।
- हिन्दी विभाग, भक्तफूल सिंह महिला डिग्री कॉलेज, खानपुरकलाँ, सोनीपत (हरि.) / मो. 09992572003
ग्यारसी लाल सेन
देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध : ध्वनि
कवि रामस्वरूप मूंदड़ा की कृति ‘ध्वनि’ जापानी से हिन्दी में आई विधा ‘हाइकु’ रचनाओं का संग्रह है। मूंदड़ा जी जाने-माने गीत व ग़ज़लकार तथा कई सम्मानों से विभूषित कवि हैं। पुलिस महकमें में सेवारत रहकर इन्होंने दीर्घ समय से साहित्य सृजन से सम्बन्ध रखा, यह अद्भुत है।
भारतीय दृष्टिकोंण हमेशा से ही समन्वयात्मक रहा है। धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक हो या साहित्यिक, कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, जहाँ से जो भी उत्तम मिला, जिसमें मानव कल्याण की चिन्ता हो, लोक मंगलकारी हो, हमारे देश ने उसे ग्रहण किया है। इस प्रकार हमारी संस्कृति को अनेक संस्कृतियों का संगम होने का गौरव प्राप्त है। सभी के सम्मिलित प्रयास से ही यह महिमा हमें प्राप्त हो सकी है। और यही भारतीय संस्कृति कहाती है।
हाइकु जापानी विधा है, जिसमें 5,7,5 अक्षरों की तीन पंक्तियाँ हैं। मूंदड़ा जी के इस संग्रह के 114 पृष्ठों में कुल 755 हाइकु संग्रहीत हैं। जापानी मूल की होने के कारण इस विधा को भले आयातित विधा कहा जाये पर साहित्यकार के समक्ष सृजन के साथ ‘बहुजन हिताय’ और ‘बहुजन सुखाय’ का उद्देश्य ही प्रमुख होता है। ये गुण इस संग्रह की रचनाओं में हैं। इन रचनाओं में जन मानस की सत्ता के साथ-साथ आध्यात्म, प्रकृति, राजनीति, पशु-पक्षी, हमारे देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध की गहन अनुभूति भी है।
हमारे देश की संस्कृति आध्यात्म आधारित है, जहाँ आत्मा, परमात्मा, जन्म, मृत्यु व पुनर्जन्म, लोक-परलोक आदि सिद्धान्तों पर आये दिन चर्चा होती रहती है। ईश्वर तत्व, जीवात्मा तत्व, प्रकृति तत्व, बह्माण्डीय सृष्टि आदि पर हमारे धर्मग्रन्थों में विस्तार से चर्चा है। इस संग्रह में कविता का प्रारंभ भी ऐसी ही गूढ़ चर्चा से किया गया है- 1. ‘‘मरती नहीं/वेश बदलती है/सच में आत्मा’’। 2. ‘‘छोड़ जाएंगे/एक एक करके/साथ श्वासें भी’’।
आज के रचनाकारों को प्रकृति से जुड़ाव नहीं रह गया है, उनके काव्य में राजनीति, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं की ही चिंताएं अधिक होने लगी हैं। यदि कुछ रचनाकार ऐसी रचनाएं करते भी हैं तो उनमें न तो प्रकृति प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है, न भव्य वर्णन, न ही पद्यों की रमणीयता, न स्वर सौष्ठव ही। आइए, मूंदड़ा जी के इन हाइकु की बानगी देखें- 1. ‘‘मन हरखा/भर गई बरखा/ताल-तलैया’’। 2. ‘‘हँस रही जो/बादलों की ओट में/सौदामिनि है’’। 3. ‘‘नीली ओढ़नी/पहनती है रात/सितारों वाली‘‘।
रूमानी स्मृतियों में रची बसी अनुभूतियों से भी बेखबर नहीं है कवि। देखिये इन हाइकु में उनके स्वर- 1. ‘‘प्यार में चोट/दर्द में डूबे गीत/यही सामान‘‘। 2. ‘‘तुम्हारी लगे/हर एक आहट/नयन थके‘‘।
कवि ने जीवन के विभिन्न पक्षों को सामने लाते हुए हमारे समाज पर कटाक्ष ही नहीं कठोर व्यंग्य भी किये हैं- 1. ‘‘लुच्चे लफंगे/सियासत में चंगे/आये थे नंगे’’। 2. ‘‘सुलगा रहे/नफरत की आग/जलेंगे हम’’। 3. ‘‘चाँद सूरज/गरीब को रोटी में/नजर आये‘‘।
संग्रह के एक-एक हाइकु की गहनता और व्यापकता में जाना संभव नहीं है पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मूंदड़ा जी की यह कृति ‘ध्वनि’ उनकी प्रतिभा से परिचय कराती है और जापानी एवं भारतीय काव्य साहित्य के मध्य सेतु का भी उद्देश्य पूर्ण करती है। ये कविताएँ देश-प्रान्त की सीमाओं को लाँघकर विश्व साहित्य का हिस्सा बनती हैं। संग्रह का आवरण सुन्दर व आकर्षक है। भूमिका हाइकु के विद्वान डॉ. भगवतशरण अग्रवाल जी ने लिखी है।
ध्वनि : हाइकु संग्रह : रामस्परूप मूँदड़ा। प्रकाशक : युगबोध प्रकाशन, 6/489, रजत कॉलोनी, बून्दी, राज.। मूल्य : रु.150/-मात्र। पृष्ठ : 115। संस्करण : 2012।
- मंगलपुरा, झालावाड़-326001, राज. / मोबाइल : 9166696587
कमलेश सूद
थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएं
नरेश कुमार ‘उदास’ मूलतः हिन्दी भाषा के लेखक व कवि हैं। इनकी 14 पुस्तकें आ चुकी हैं और हाल ही में क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में उदास जी ने जीवन के हर पहलू को उजागर किया है। यदि कहें कि इसमें उन्होंने ‘गागर में सागर भरने’ का काम किया है, तो अतिश्योक्ति न होगी। संग्रह की सभी 252 क्षणिकाओं का सृजन बड़े मनोयोग से किया गया है। उदास जी की सृजनात्मकता अनेक रचनाओं में देखने को मिलती है। ये पंक्तियाँ देखें- ‘‘मिटा
सको तो/आपस के फासले/मिटाओ/वर्ना दूरियाँ/बढ़ती चली जाएँगी/दिलों में नफरत/बढ़ती जाएगी‘‘।
आज की ज्वलंत समस्याओं पर कई सारगर्भित प्रभावशाली रचनाएँ हैं। एक क्षणिका देखें- ‘‘भूख से लड़ती मां/भूख से लड़ता है बाप/भूख से लड़ते हैं बच्चे/भूख से लड़ता है/सारा घर’’। जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाया है कवि ने इस रचना में- ‘‘जीवन नश्वर है/सब जानते भी हैं/लेकिन फिर भी/जीते-जी/इस बात को/स्वीकार नहीं करते’’।
कवि को समाज में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयत्न करती, जूझती, बनती, मिटती औरत की भी चिंता है, जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- ‘‘औरत कहीं कहीं/जूझ रही है/लड़ रही है/फिर भी/पीछे धकेली जा रही है’’। समाज में भ्रूण हत्या जैसे कुकृत्य से सामाजिक मूल्यों का खंडित होना कवि को दुखी कर जाता है। लड़के-लड़कियों के अनुपात में अंतर मादा‘भ्रूणों को मिटाने से ही आया है। कवि की चिंता देखें- ‘‘मादा भ्रूणों को/आए दिन/नष्ट किया जा रहा है/लड़कियों को/पैदा होने से पूर्व ही/मिटाया जा रहा है’’।
आज भारत के प्रत्येक बड़े शहर में हर पल डरती, सहमती, आगे बढ़ती दामिनी को देखा जा सकता है; जो कदम तो फूँक-फूँक कर रखती है पर मन में अनजाना सा डर उसे हर पल दहला देता है। यह डर सोते हुए भी उसका पीछा नहीं छोड़ता- ‘‘लड़की के सपनों में/बार-बार क्यों चले आ रहे हैं/बलात्कारी चेहरे/लड़की सोये-सोये/चीख उठती है/हर बार’’।
संग्रह की हर क्षणिका दिल को झकझोरकर यथार्थ के धरातल पर हमें निर्णयात्मक भूमिका निभाने के लिए छोड़ देती है। इसी भूमिका के तहत उदास जी समाज में बढ़ती नफरत और दिलों के फासलों को पाटने के लिए कई जगह आग्रह करते दिखते हैं। सामाजिक कुरीतियों, सामाजिक चेतना व पर्यावरण आदि जैसे विषयों पर भी कवि अपनी चिंता भी बेहद सादगी से रखता है।
मन के भीतर की पीड़ा व अपनों से बिछुड़ने का दर्द कवि अच्छे से समझता है। दर्दीले गीतों में फूटती उदास मन की व्यथा को इस क्षणिका में सटीक अभिव्यक्ति मिली हैं- ‘‘उदास दिनों में/अनायास ही/फूट पड़ते हैं/कंठ से/कुछ दर्दीले गीत/और मन बोझिल सा हो जाता है‘‘।
क्षणिकाओं की इस माला में दुःख-सुख, राजनीति, ममता, वात्सल्य, अनुशासन आदि कितने ही मोती हैं, जिनकी चमक असाधारण है। थोड़े शब्दों में जीवन को कह जाना, क्षणिका का एक बड़ा गुण है और इस संग्रह का भी। इस संग्रह में आपको जीवन के हर पहलू पर कवि के विचार मिलेंगे। इन्हें पढ़ते हुए आपका मन गहरे तक स्पंदित हुए बिना नहीं रहेगा। संग्रह की शीर्षक रचना में माँ की गोद को आकाश से भी बड़ा बताया गया है, जिसमें बालक का सम्पूर्ण संसार समाया होता है- ‘‘गोदी में/लेटे-लेटे/नन्हे मुन्ने ने/मचलते हुए/माँ से अचानक पूछा था/माँऽऽऽऽ आकाश कितना बड़ा है?/माँ ने उसे/प्यार से थपथपाते/आँचल में ढकते हुए कहा था/मेरी गोद से/छोटाऽऽ हैऽऽ रे’’।
पुस्तक का मुखपृष्ठ आकर्षक व मुद्रण त्रुटिहीन है। विश्वास है कि यह संग्रह पाठकों की आशाओं पर खरा उतरेगा और साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनायेगा।
माँ आकाश कितना बड़ा है : क्षणिका संग्रह : नरेश कुमार ‘उदास’। प्रकाशक : प्रगतिशील प्रकाशन, एन-3/25, प्रथम तल, मोहन गार्डन, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59। मूल्य : रु. 150/- मात्र। पृष्ठ : 104। संस्करण : 2014।
- वार्ड नं. 3, घुघर रोड, पालमपुर-176061 (हि.प्र.) / मोबा. : 09418835456
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