आपका परिचय

गुरुवार, 31 जनवरी 2013

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : जनवरी 2013

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 5,  जनवरी 2013 

संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09412842467)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 

शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के "अविराम का प्रकाशन" लेवल/खंड में दी गयी है।


।।सामग्री।।


छाया चित्र : रोहित कम्बोज 



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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत:    इस अंक में डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’, माणिक घोषाल, प्रबोध कुमार गोविल, मन्टू कुमार, रेखा अग्रवाल  एवं  (डॉ.) मीरा भारद्वाज की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ   {कथा प्रवाह} :   इस अंक में प्रतापसिंह सोढ़ी, पारस दासोत, डॉ. कमल चोपड़ा, सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा एवं गोवेर्धन यादव की लघुकथाएं।

कहानी {कथा कहानी पिछले अंक तक अद्यतन।

क्षणिकाएँ  {क्षणिकाएँ:   महावीर रवांल्टा व  डॉ. सम्राट सुधा की क्षणिकाएँ।
हाइकु व सम्बंधित विधाएँ  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक में महावीर उत्तरांचली के पाँच हाइकु।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:  डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया 'अरज' के पाँच जनक छंद।

बाल अविराम {बाल अविराम: प्रभुदयाल श्रीवास्तव, मधुकान्त  की कवितायेँ।  साथ में बाल चित्रकारों आरुषी ऐरन व  मिली भाटिया के चित्र / पेंटिंग्स।

हमारे सरोकार  (सरोकार) :   पिछले अंक तक अद्यतन।

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:    पिछले अंक तक अद्यतन।

संभावना  {सम्भावना:  पिछले अंक तक अद्यतन।

स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण:  पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

किताबें   {किताबें} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

लघु पत्रिकाएँ   {लघु पत्रिकाएँ} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

हमारे युवा  {हमारे युवा} :   पिछले अंक तक अद्यतन।

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 31 दिसम्बर 2012 तक बने आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूचना।

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 5,  जनवरी 2013

।।कविता अनवरत।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’, माणिक घोषाल, प्रबोध कुमार गोविल, मन्टू कुमार, रेखा अग्रवाल  एवं  (डॉ.) मीरा भारद्वाज की काव्य रचनाएँ।


डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’






दो मुक्तक




1.
कल कभी आता नहीं, सच है यही जीवन का प्यारे!
कल करूँगा काम बढ़िया, भ्रम यही मन का है प्यारे!!
कर्म जिसको भा गया हो, वह नहीं रुकता कभी भी,

छायाचित्र :
उमेश महादोषी 
कर्मशीलों के लिए तो, ‘आज’ जीवन-सच है प्यारे!!

2.
गम सभी के लें स्वयं हम, बाँट दें हम सुख सभी !
ज़िन्दगी का क्या भरोसा, काम यह  कर  लें अभी!!
फिर निराशा और चिंता, क्या डरा सकती हैं हमको,
सच्ची ख़ुशी तब ही मिलेगी, प्रण अगर कर लें सभी!!

  • 74/3, न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला-हरिद्वार (उत्तराखण्ड)


माणिक घोषाल






{वरिष्ठ  कवि माणिक घोषाल जी का कविता संग्रह ‘संवेदना के स्वर’ हमें हाल ही में पढ़ने को मिला। संग्रह की  भावपूर्ण कविताओं में से प्रस्तुत हैं दो कविताएँ।}

दो कविताएँ

किन्नर-बाला

चैत्र के शुक्ल पक्ष का आगमन।
ऋतु करती नववर्ष अभिनन्दन।
सांगला की बर्फ़ीली टोपी पहने,
रेखाचित्र : बी मोहन नेगी 
सिर पर रखे हुए-
झरनों के झर-झर करते घड़े।
बुरांस के लाल बूटों वाला,
सेब के सफेद फूलों वाला,
महकता हुआ सलवार कुर्ता
धानी रंग च्यूली का दुपट्टा।

दोनों बगल में - संभाले हुए
नदी-नालों के घट।
भर देह में यौवन की ज्वाला
सतलज में छप-छप करती
चली आ रही है-
प्रकृति की किन्नर-बाला।

(सांगला, किन्नौर, हिमाचल प्रदेश में रची कविता)

बसंत आगमन

लो-फिर प्रकृति के द्वार-
दस्तक दे गया वसंत।
रस वर्षा दिक्-दिगंत।
परन्तु तुमको क्या?
कहाँ समय है कि तुम सोचो-
क्यों प्रकृति ने ओढ़ी तरुणाई
रेखाचित्र : मनीषा सक्सेना 
कहाँ समय है कि तुम सुनो-
क्यों बागों में कोयल ने कूक मचाई।
कहाँ समय है कि तुम सूंघो-
क्यों उपवन ने दिक्-दिगन्त सुगन्ध फैलाई।
कहाँ समय है कि तुम झूमो-
भोर होते बरसा महुआ, चहुँ ओर मादकता छाई।
कहाँ समय है कि तुम देखो-
क्यों आम बौराया, पत्ती शरमाई।
कहाँ समय है कि तुम बोलो-
‘आओ करे आलिंगन, यह वसंत ऋतु आई’
यह फूलों का फूलना
यह पलाश की लाली
यह सुगंधित मधुकलश
यह फ़िजा मतवाली।
यह वासंती बयार में लचकती हुई डाली-
यह धरा के हाथों में सजी फूलों की थाली।

निश्चय ही वर्ष में एक बार-
सजाती है प्रकृति-नटी
स्वागत के तोरण-द्वार।
मानव मन को झकझोर जाती है।
नस-नस में मधुरस हिलोर जाती है।

परन्तु इस मशीनी युग में-
पर्यावरण के छेड़छाड़ में
जन मानस की रेलमपेल में-
और....
धरा की भीड़-भाड़ में-
तुम्हारे मन में वह मादक अणु कहाँ?
जहाँ मादकता का विस्फोट हो।
तुम मानव नहीं-
केवल एक रोबोट हो।
रोबोट कर्मनिष्ठ तो होता है-
पर उसके पास मन नहीं होता।
छायाचित्र : उमेश महादोषी 
गुदगुदी नहीं होती- क्योंकि
तन नहीं होता।

वसंत का क्या-
आदिकाल से अनन्त काल तक
आता-जाता रहेगा और
वासंती पवन आंचल फैलायेगी।
संदेह है तो बस इतना-
कि इस मशीन युगीन मानव को-
प्रकृति की यह मादक रचना-
क्या गुदगुदायेगी?

  • सी-78, शिवालिक नगर, हरिद्वार-249403 (उत्तराखंड)




प्रबोध कुमार गोविल



{वरिष्ठ साहित्यकार प्रबोध कुमार गोविल जी एवं संभावनाशील युवा कवि मन्टूकुमार का संयुक्त कविता संग्रह ‘उगती प्यास दिवंगत पानी’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दोनों कवियों की दो-दो कविताएँ।}

दो कविताएँ

अब भी उगाते हैं अन्न

कौन कहता है कि
अब नहीं उगाते पौष्टिक अन्न
जिसे खाकर पैदा हों
वास्तविक आदमी
खेत अब भी उगाते हैं अन्न
रेखाचित्र : महावीर रंवाल्टा 
हां, वह अब पौष्टिक न निकले
तो तहकीकात की जानी चाहिये
उन इल्लियों व कीटों की 
नहीं, जो पनप जाते हैं
खेतों में भुरभुरी मिट्टी में
बल्कि उनकी
जो पनप जाते हैं
चमचमाते शहरों की 
जगमगाती कोठियों में!
खेत अब भी उगाते हैं अन्न...!

दुखद है पानी का दिवंगत होना...

ताण्डव होता है
विभीषिका का
पड़ जाता है
भीषण अकाल
जब पानी
सूख जाता है
बादलों में
रेखाचित्र :  सिद्धेश्वर 
नदियों में
नालों में 
नलों में
लेकिन इससे भी
भयावह
ताण्डव,
इससे भी वीभत्स
विभीषिका 
खड़ी हो जाती है
द्वार पर
जब
पानी मर जाता है
आंखों में
खून में
रिश्तों में....।

  • बी-301, मंगलम जाग्रति रेजीडेन्सी, 447, कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर-302004 (राज.)


मन्टू कुमार






दो कविताएँ



अम्मा

नजर में रहती हो, पर नजर नहीं आतीं
अम्मा......
कहने को सब साथ हैं अपने पर,
वो अपनापन नहीं झलकता अम्मा...
पहले एक-एक पल में थे कई जीवन
रेखाचित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
अब जीवन में ढूँढ़ते हैं एक पल, तुम्हारे बिना
अम्मा....
हम खुश रहकर मुस्कराते थे और
तुम हमें खुश देखकर मुस्कराती थीं,
बस अंतर यही था अम्मा....
ख्वाइश भी नहीं है कुछ इस जहाँ से पाने की
तुम्हारा अहसास ही काफी है,
अकेले में रोने के लिए अम्मा...
जहाँ तुम चली गईं, उस जहाँ में
हमं कब बुलाओगी अम्मा....
तुमने दिखाए थे जो सपने
उन सपनों की खातिर, 
बस जी रहे हैं, अम्मा...।

चेहरे

चेहरे मिले हैं, हजारों
यूं सफ़र करते-करते, जिंदगी की राहों में
कि
किसी ने ऊपर वाले का दर्जा पा लिया
तो कोई
सामने से गुजर गया और नज़र भी न आया...।

  • द्वारा श्री प्रबोध कुमार गोविल, बी-301, मंगलम जाग्रति रेजीडेन्सी, 447, कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर-302004 (राज.)


 रेखा अग्रवाल



{कवयित्री रेखा अग्रवाल का काव्य संग्रह ‘यादों का सफ़र’ हमें हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो ग़ज़लें।}

दो ग़ज़लें

1.
वो शख़्स मेरे खून का प्यासा भी है बहुत।
जिसको के मैंने टूट के चाहा भी है बहुत।

सिमटा तो बूँद-बूँद में दरया बना रहा,
बनकर फिर आस्मान वो फैला भी है बहुत।
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 

हर इक क़दम पे माँ की दुआ साथ-साथ थी,
और उसपे मेरी जान का सद्क़ा भी है बहुत।

काँटे निकाल देता है काँटा ही पाँव का,
काँटों पे चलके हमने ये देखा भी है बहुत।

अक्सर तो दर्द सीने में जमकर ही रह गया,
लेकिन कभी ये आँख से पिघला भी है बहुत।

तहज़ीब की हदों में जो बँधकर रहा सदा,
उसके लिए तो मामूली ‘रेखा’ भी है बहुत।

2.
रेखाचित्र : नरेश उदास 
ज़मीन अपनी नहीं और न आस्माँ अपना।
मगर मैं छोड़ ही जाऊँगी कुछ निशाँ अपना

करूँ मैं किस तरह शिकवा भला अज़ीजों से,
मैं जिसके साथ रही वो भी था कहाँ अपना।

ख़ुदाया मेरी मुसाफ़त को मंज़िलें देना,
बहुत दिनों से है गुमराह कारवाँ अपना।

मैं अपने आप से करती हूँ इन दिनों बातें,
न हम कलाम न कोई है हमज़ुबाँ अपना।

झुका जहाँ भी अक़ीदत से सर कहीं मेरा,
बना लिया है उसी दर को आस्ताँ अपना।

अजीब फैला है कुहरा सा इन दिनों ‘रेखा’
है आइने में भी चेहरा धुआँ-धुआँ अपना।

  • 25/12, मधुबन, 25, रिथर्डन रोड, वेपरे, चैन्नई-600007 (तमिलनाडु)



डॉ. मीरा भारद्वाज




{कवयित्री डॉ. मीरा भारद्वाज का कविता संग्रह ‘बुलबुला’ हमें हाल ही में पढ़ने को मिला। इन भावपूर्ण कविताओं में से प्रस्तुत हैं दो कविताएँ।}

बेटी

आज अच्छा लगा
बिना आहट
उसका यूँ आना
आकर बाँहे फैलाना
जैसे प्यासे को सागर का मिल जाना।
सिमट गई उसकी बाँहों में
मुझे भी तलाश थी
सशक्त कंधों की।
रेखाचित्र : नरेश उदास 
गहरे भंवर की उलझन
मस्तिष्क की असह्य थकन
घबराता अवसादित मन
टिका दिया उसके कंधों पर।
स्नेहिल बाहुपाश की दृढ़ता
कम्पित हथेलियों का स्पर्श
यकायक परिपक्व हो गया
हो गया नई ऊर्जा का संचरण
बिना कुछ कहे
समझ मेरी उलझन
निःशब्द तसल्ली शान्ति देती
मेरी युवा बेटी
आज माँ के इतना करीब थी।
कितने नासमझ निर्मम हैं वे लोग
जो कर देते भ्रूण-हत्या।

अनकही

सड़क के इस पार
शीत का प्रकोप
कोहरा घना छा गया
बीती रात का दुःख
शिलाखण्ड बना गया।
टकराते थे संवेग
लहरों की भाँति 
वक्त बेमौके बाँच गया
भाग्य की पाती।
निर्जीव सुत देह पास पड़ी थी
मन में उद्वेग प्रश्नों की झड़ी थी।

सड़क के उस पार 
दो मंजिला अस्पताल
नमूना बेमिसाल।
मेहनत, लगन की हर ईंट गवाह थी
छायाचित्र : उमेश महादोषी 
बनी आज पीड़ा अव्यक्त व्यथा थी।
कोने-कोने से परिचित
उद्विग्न था चित्त
मस्तिष्क था भरमाया
जड़ सीढ़ियों से आँख मूँद
कई बार उतर आया।

बिंध गया हृदय, पहुँची ठेस
बनाया अपने हाथों, निषिद्ध प्रवेश।
मौन विडम्बना
जिन्दगी पराजित खड़ी थी,
पिता की पथराई आँखें
शून्य में गड़ी थी।

  • ए-10, राजलोक विहार, निकट गीत-गोविन्द बैंकट हॉल, ज्वालापुर, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)।

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2,  अंक : 5,   जनवरी 2013 

।।कथा प्रवाह।। 

सामग्री : इस अंक में प्रतापसिंह सोढ़ी, पारस दासोत, डॉ. कमल चोपड़ा' सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा एवं गोवेर्धन यादव की लघुकथाएं।


प्रतापसिंह सोढ़ी



(वरिष्ठ लघुकथाकार श्री प्रतापसिंह सोढ़ी का 2008 में प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘शब्द संवाद’ हमें हाल ही में पढ़ने को मिला। प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से सोढ़ी साहब की दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।)

आत्म विश्वास

    आग लगने से निरंजनसिंह के लकड़ी के पीठे की सारी इमारती लकड़ी कोयला बन गई। इस दर्दनाक हादसे की वजह से मास्टरजी उनके लड़के पप्पू को कई दिनों तक पढ़ाने नहीं आए। निरंजनसिंह ने अपने नौकर को भेज उन्हें घर से बुलाया। सहमे-सहमे नज़रें झुकाये मास्टरजी खड़े रहे। निरंजनसिंह ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, ‘‘मास्टरजी आप इतने उदास क्यों हैं? कई दिनों से आप पप्पू को पढ़ाने भी नहीं आए।’’ दबी-दबी सी आवाज़ में मास्टरजी ने उत्तर दिया, ‘‘पापाजी आपका इतना भारी नुकसान हो गया और ऐसे में मैं.....’’ आगे वह कुछ कह नहीं पाया।
रेखांकन : के रविन्द्र 
    निरंजनसिंह समझ गये कि मास्टरजी ने यह सोचा होगा कि अब उन्हें ट्युशन से हटा दिया जायेगा। बड़े प्यार से उन्होंने कहा, ‘‘पुत्तर पढ़ाने आया करो। हर माह तुम्हें ट्यूशन के पैसे दिये जायेंगे। धंधे में नफा-नुकसान तो होता ही रहता है। पाँच हजार रुपये में मैंने जलाऊ लकड़ी की टाल लगा धंधा शुरू किया था। वाहे गुरुजी की कृपा और अपनी मेहनत के बल पर धीरे-धीरे मैंने इमारती लकड़ी का पीठा खड़ा किया। इमारती लकड़ी जलने से जो कोयला बना है, उसकी कीमत भी एक लाख रुपये से कम नहीं है। उस कोयले को बेचकर मैं फिर से धंधा शुरु करूँगा।’’ आत्मविश्वास से भरे निरंजनसिंह के विचारों को सुन मास्टरजी सोचने लगे असली गुरु मैं नहीं यह निरंजनसिंह है।

आत्मीयता

    बस में मेरी सीट के पास बैठी पच्चीस-छब्बीस वर्षीय युवती से कंडक्टर ने पूछा, ‘‘कहाँ का टिकिट बना दूँ?’’
    वह चुप रही और खिड़की से बाहर झाँकने लगी।
    कंडक्टर ने फिर दोहराया, ‘‘मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि कहाँ जाना है?’’ आँखें झुकाये वह खामोश बैठी रही।
    झुंझलाते हुए कंडक्टर बोला, ‘‘आप सोचकर रखिये तब तक मैं दूसरे यात्रियों को टिकिट देकर आता हूँ।’’
    पास बैठी मैं सब सुन रही थी। मैंने उससे पूछा, ‘‘कहाँ जाना है बिटिया तुम्हें। मैं तुम्हारी माँ के समान हूँ, मुझसे संकोच न करो।’’ उसका सिर मेरे कंधे से टिक गया और उसकी आँखों से बहते आँसुओं ने मेरे ब्लाउज की बाहों को गीला कर दिया। मेरा मन भी संवेदना से भीग गया। 
    ‘‘बिटिया अपनी वेदना को शब्दों द्वारा बाहर निकाल दो, मन हल्का हो जायेगा।’’ मैंने उसे समझाया।
    इस बार अपना मौन तोड़ते हुए वह बोली, ‘‘कहाँ जाना है इसका तो मुझे भी पता नहीं। मेरे पति ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया।’’ साड़ी के पल्लू से अपना चेहरा ढाँकते हुए वह सिसक पड़ी। उसे अपने पास खींचते हुए मैंने पूछा, ‘‘क्या कसूर था तुम्हारा?’’
    ‘‘कसूर सिर्फ इतना सा था कि हर बार की तरह इस बार जब मैंने अपने पिताजी से रुपये लाकर उसे नहीं दिये तो उसने मुझे पीटा और घर के बाहर निकाल दिया।’’
    इतने में परिचालक आ गया और उस युवती से बोला, ‘‘अब तक आपने सोच लिया होगा कि कहाँ जाना है।’’
    वह फिर गुमसुम रही।
    परिचालक भड़क उठा, ‘‘लगता है आपकी दिमागी हालत ठीक नहीं है। मजबूर होकर मुझे तुम्हें बस से उतारना होगा।’’ दर्द में लिपटी उसकी खामोशी ने मेरे संवेदन तंतुओं को गहरे तक झंकृत कर दिया। मेरे हृदय का कलश ममता और दया से भर गया। दृढ़तापूर्वक मैंने परिचालक से कहा, ‘‘इसे मेरे साथ इन्दौर जाना है।’’

  • 5, सुख-शान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इन्दौर-452016 (म.प्र.)


पारस दासोत




{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार श्री पारस दासोत की प्रतीकात्मक लघुकथाओं का संग्रह ‘मेरी मानवेतर लघुकथाएँ’ वर्ष 2011 में प्रकाशित एवं बेहद चर्चित हुआ। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दासोत जी की दो लघुकथाएँ।}

पेट की रोटी

    पेट खाली था और काम अत्यधिक, परिणाम यह हुआ, पेट अचानक बेहोश हो गया।
    तोंद अपने बंगले पर पेट को बेहोश देख पहले घबराई, फिर आरामकुर्सी पर लेट उसके होश में आने का इंतजार करने लगी।
    थोड़ी देर में पेट को होश आ गया।
    तोंद अपने साथ पेट को लेकर उसके झोंपड़े पर खड़ी थी।
    ‘‘हमारे धन्य भाग्य! आप हमारे झोंपड़े पर पधारे! भोजन का समय हो रहा है, आप भोजन ग्रहण करावें!’’
    पेट ने, जब अपने रोटी के डिब्बे में झाँका, देखा- ‘‘केवल तीन रोटियाँ ही अपना धर्म निभाने हेतु उपस्थित है।’’ यह देख, उसने शीघ्र ही नमक-मिर्च में थोड़ा पानी मिलाकर चटनी बनाई और तोंद को, आदर भाव के साथ एक कागज पर चटनी के साथ तीनों रोटियाँ परोस दीं।
    अब
    तोंद, भोजन निवृत्ति के बाद अपने हाथ धोते हुए बोली- ‘‘किसी ने सच ही कहा है-‘हमें, दूसरे के यहाँ पर भोजन अधिक लगता है।’ देखो न, अपने बँगले पर तो मैं एक फुलका ही खा पाती हूँ, पर यहाँ मैं नमक-मिर्च के पानी से तेरी मोटी-मोटी तीन रोटियाँ चट कर गई!’’

कुर्सी और कौआ
रेखाचित्र : पारस दासोत 

    एक दिन कौआ, कुर्सी पर आ जमा।
    कुर्सी घबराई, यह सोच घबराई-
    ‘‘कौआ जिस पर बैठ जाता है, वह जल्द मर जाता है।’’
    उसने अगर टोटका नहीं किया तो वह जल्द ईश्वर को प्यारी हो जाएगी।
    कुर्सी ने टोटका करने के लिए अपने सभी साथी-सम्बन्धियों को शोक पत्र लिख भेजे- ‘‘कुर्सी मर गई।’’
    बेचारे सभी गला फाड़-फाड़ कर रोये-
    ‘‘कुर्सीऽऽ! हाय री कुर्सी! कितनी प्यारी थी, कुर्सी!’’
    इस घटना को हुए आज पन्द्रह वर्ष हो गये हैं।
    कुर्सी, जिन्दा है और कौआ उस पर जमा है। 

  • प्लाट नं. 129, गली नं 9 बी, मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-302021 (राज.)



डॉ. कमल चोपड़ा




बात इतनी सी

    मटन शॉप से निकला तो उसका चेहरा लटका हुआ था। जितने पैसे उसके पास थे दुकानदार ने उसे थोड़े से पीस कागज में लपेटकर दे दिये थे। डाक्टर ने उसे खुराक में मीट अण्डा लेने की सलाह दी थी। पर आज उसे लगा कि पेट भर खाना ही मिल जाये वही गनीमत! अच्छी खुराक तो उसकी पहुंच के बाहर की चीज हो गई है। बीमारी की वजह से छूटी हुई नौकरी। परदेस की ठोकरें और बदहाली।
रेखांकन : मनीषा सक्सेना 
    मीट के गीलेपन से मीट के ऊपर लिपटा कागज फटने लगा था और मीट नीचे गिरने को हो गया था। वह रुककर उसे संभालने लगा तो उसने देखा पीछे-पीछे एक कुत्ता उसके हाथ में पकड़े मीट वाले पैकेट पर नजर जमाये चला आ रहा है। बस उस पर झपट पड़ने को हो रहा था। उसने कुत्ते को दुरदुराया पर उसकी दुत्कार का कुत्ते पर कोई असर नहीं हुआ उल्टा वह उस पर भौंकने लगा। कुत्ते की ढीठ कुत्तई देख उसकी हड़बड़ाहट में वह सामने से आते हुए एक आदमी से जा टकराया और दोनों गिर पड़े। थोड़ा संभलने के बाद उसने देखा कि जिस आदमी से वह टकराया वह नजदीक ही के एक मंदिर के पंडित जी थे। मीट का पुलिंदा उन्हें छूता हुआ दूर जा गिरा था। पंडित जी के हाथ में पकड़ी हुई हवन सामग्री घूल में जा गिरी थी। उसकी रूह कांप उठी- हिन्दुओं का इलाका है, इतनी भयंकर भूल हो गई है। अब मेरी खैर नहीं। मेरी तो बोटी-बोटी नोंच ली जायेगी। बात का बतंगड़ और दंगा हो जायेगा।
    थरथराते हुए वह पंडित जी को उठाने के लिये आगे बढ़ा- मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया- अल्ला कसम।
    वहां जुट आये तीन चार लोगों के चेहरे तमतमा कर रह गये- मतलब ये मुसलमान है। जानबूझकर ही किया है उसने... इसके पीछे कोई साजिश है। उधर मेरठ में एक हिन्दू की साईकिल एक मुसलमान औरत से भिड़ गई, बस्स हो गया दंगा। इधर ये... इसमें भी कोई साजिश है! पंडित जी को अपवित्र कर दिया..... इन सालों को सबक सिखाना पड़ेगा। मारो साले को....
     उन्होंने उसे पकड़ लिया। पंडित जी आगे आ गये- छोड़ दो इसे... मैं तो गंगाजल से नहा लूंगा और हवन सामग्री भी और आ जायेगी पर तुम आगे से ऐसी चीजें ढक कर ले जाया करो.... इससे पहले कि बात आगे बढ़े तुम यहां से खिसक लो.... इतनी सी बात से हमारे महान धर्म पर कुछ भी आंच आने वाली नहीं है। 

  • 1600/114, त्रिनगर, दिल्ली-110035



सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा




पारखी  

    ‘‘कबीर साहब, लड़की तो कमाल की एक्ट्रेस है..... एक दिन जरुर टाप की अदाकार बनेगी।’’
    ‘‘स्क्रीन-टेस्ट लिया क्या?’’
    ‘‘ऐसे ही थोड़े कह रहा हूँ, फोटोजेनिक होने के साथ-साथ डायलाग डिलीवरी और एक्सप्रेशन भी परफेक्ट देती है, बिलकुल नेचूरल। लगता ही नहीं कि एक्टिंग कर रही है.... परफेक्ट हिरोइन है हमारे नए एड के लिए।’’
    ‘‘नसीम, तुम्हें पता है न कि नया एड देहात की बेकग्राऊन्ड पर बेस्ड है। क्या उसे देहात की कास्ट्यूम में टेस्ट किया है?’’
    ‘‘वह भी कर लेंगे, खालिस हिंदुस्तानी फिगर है। टंग और टोन दोनों ठेठ देहात की।’’
    ‘‘ठीक है, बुलाओ उसे। अभी चेक कर लेते हैं और तुम्हारी रीडिंग ठीक हुई तो फाइनल समझो’’
    ‘‘ओ. के. सर’’
    ‘‘मैडम, हमें ऐसी लड़की चाहिए जो गाँव की बैक-ग्राउंड को अपनी एक्टिंग और ड्रेस में उभार सके।’’
    ‘‘सर, आप चांस देकर देखिये, निराश नहीं करूंगी ।’’
रेखाचित्र : नरेश उदास 
    ‘‘ओ. के. आप यह देहाती कास्ट्यूम पहन लीजिये।’’
    ‘‘ठीक है, वाश-रूम किधर है?’’
    ‘‘इस चेम्बर को ही आप सब कुछ समझ सकती हैं, यहाँ हमारे अलावा और कोई नहीं है....आप यहीं चेंज कर सकती हैं।’’
    ‘‘वह देहात की अबोध बाला की तरह उन दोनों पारखिओं को पढ़ने का प्रयास करने लगी।’’
    ‘‘बेबी, कोई क्वेरी है क्या?’’
    ‘‘नो, सर। इट इज ईजी।’’
     जैसे-जैसे वह अपने नये लिबास में उतरती गई, दोनों पारखी उसकी एक्टिंग अप्रूव करते गये।
    ‘‘नसीम, लड़की वाकई टेलेंटेड है, एक दिन जरुर बड़ी अदाकार बनेगी।’’

  • डी-184, श्याम पार्क एक्सटेंशन, साहिबाबाद-201005 (उ.प्र.)


गोवर्धन यादव





प्रतियोगिता


         चित्रकला प्रतियोगिता चल रही थी। कई चित्रों में से दस चित्रों को अलग छांटकर रख दिया गया था। इन्हीं दस में से किसी एक चित्र को पुरस्कृत किया जाना था। इन दस चित्रों में एक चित्र ऐसा था जो सभी का ध्यान आकर्षित कर रहा था। सबसे ज्यादा संभावना थी कि वही प्रथम घोषित किया जाएगा।
         जब परिणाम घोषित हुआ तो उस प्रतियोगी का नाम लिस्ट से ही गायब था।


  • 103, कावेरी नगर, छिन्दवाडा (म.प्र.) 480001



छायाचित्र : उमेश महादोषी 

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2,  अंक : 5,  जनवरी  2013  

।।क्षणिकाएँ।।

सामग्री : महावीर रवांल्टा व  डॉ. सम्राट सुधा की क्षणिकाएँ।


महावीर रवांल्टा




दो क्षणिकाएँ

1. मान पत्र

डूबती संध्या की स्याह
सिसकती साँसें 
ढह रही हैं वहाँ 
विरानता लिए और
रेखाचित्र : बी मोहन नेगी 
बहुत तीखे हो रहे हैं इन्तजार में
आशाओं के अंकुर
शायद आने वाले भविष्य का
अंधकारी मानपत्र
पढ़कर सुना रही हैं।

2. तरीका

उस प्रेत की तरह
भयानक लगती है
सच्चाई की
टहलती सूरत
भविष्य उससे
छुपा लेता है चेहरा
भय से और
जीकर भी
मरने का तरीका ढूँढ़ लिया।


  • ‘संभावना‘, महरगाँव, पत्रालय: मोल्टाड़ी, पुरोला, उत्तरकाशी-249185 (उत्तराखण्ड) 



डॉ. सम्राट सुधा




चार क्षणिकाएँ 

1. विवेकानन्द

नमन् तुम्हें
सुदूर बंगभू से
तुम आये दक्षिण प्रदेश
ले एकत्व का संदेश
सागर यूँ तुमने भी लाँघा
हे नवयुग के हनुमान!

2. संवेदनशीलता
अपने शब्द न खले
और चुभ गयी
हमारी चुप्पी भी!
रेखाचित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 

3. जीवनोपलब्धि
जीवितों में हुआ
मृत्यु का अहसास
और संजीवनी मिली
शमशान में!!

4. असर
उसके पास थी झूठी चीख
मेरे पास थी सच्ची चुप्पी
बेशक सच जीता चुपचाप
मगर पता सबको चला जनाब!

  • 94, पूर्वावली, गणेशपुर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड)