अविराम (ब्लॉग संकलन) : वर्ष : 3, अंक : 03- 04, नवम्बर-दिसम्बर 2013
विगत 16 नवंबर को माँ इस दुनियां से चली गईं। विगत मार्च के महीने से वह दिल्ली में मुझसे बड़े भाई श्री गिरीश चन्द्र गुप्ता के पास थीं, तब से वह ही उनकी सेवा-टहल कर रहे थे। करीब एक वर्ष पूर्व अचानक मांस-पेशियों और नशों में आई कमजोरी उनके लिए गम्भीर समस्या बनती चली गयी और वह एक ऐसी स्थिति में पहुंच गईं थी, जहां जीवन उनके लिए पीड़ादायी बन गया था। 92-93 वर्ष की अपनी जिन्दगी में इससे पूर्व इतनी पीड़ा उन्होंने कभी नहीं देखी थी। इस बार की बीमारी से पूर्व वह हमेशा अपनी दिनचर्या के सभी कार्य स्वयं करने में सक्षम रहीं। उन्होंने कभी किसी से अपेक्षा नहीं की कि कोई उनकी सेवा-टहल करे। किसी ने उनके लिए कुछ किया तो ठीक, नहीं किया तो कोई अपेक्षा नहीं। शिकायत करना तो उन्हें आता ही नहीं था। भरे-पूरे परिवार के होते हुए, तमाम मोह-माया के बावजूद स्वयं के लिए अपेक्षाओं से रहित जीवन किस तरह जिया जाता है, इसकी एक मिसाल रही माँ! अपने सभी भाई-बहनों में मुझे माँ के नजदीक रहने का सबसे अधिक अवसर मिला- बचपन में भी और उसके बाद भी। इसलिए चीजों को थोड़ा सा समझने लाइक होने के बाद से उनके जीवन के बड़े हिस्से को मैंने नजदीक से देखा था। परिवार के किसी सामूहिक मसले पर सलाह-मशविरे के तौर पर कभी कोई छोटी-मोटी बात हुई हो तो बात अलग है, अन्यथा परिवार के किसी व्यक्ति या किसी रिश्तेदार के प्रति उन्होंने कभी कोई नाराजगी या आक्रोश जाहिर किया हो, मुझे याद नहीं। अपनी पारिवारिक
जिम्मेवारियों को पूरा करने के लिए उनके लिए जो कुछ भी करना जरूरी था, उन्होंने पूरी तरह शान्त, शालीन और मर्यादित रहकर किया। अपने-आपके लिए जैसे उनकी कभी कोई अपेक्षा ही नहीं थी। जो मिल गया, उसे अपना लिया; जो नहीं मिला, उसके लिए लालसा नहीं। न पिताजी के रहते हुए, न उनके जाने के बाद। आज के युग में जीवन को जीते हुए इस तरह की चीज को अख्तियार करना बड़ी बात है। यह जीवन की ऐसी सहजता है, जिसे अपनाना आसान नहीं होता। भले माँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं, उनकी कोई उल्लेखनीय सार्वजनिक-सामाजिक सक्रियता भी नहीं रही, फिर भी
उनके शान्त जीवन के इस सच को गांव-रिश्तेदारों के साथ तमाम परिचित परिवारों में हमेशा सम्मान की दृष्टि से देखा गया। आर्थिक और ताकत के मोर्चे पर अत्यंत साधारण होने के बावजूद पिताजी के समय में अपने गांव के साथ आस-पास के कई गांवों में भी हमारे परिवार का पर्याप्त मान-सम्मान रहा, तो इसका कारण उनका अच्छा और कुशल व्यवहार ही था। इस व्यवहार को माँ ने अपने विनम्र स्वभाव और निस्वार्थ भावनाओं से काफी सम्बल दिया। कभी भूल से भी किसी के साथ उनका कोई विवाद या मनमुटाव हुआ हो, इसका कोई उदाहरण नहीं मिल सकता।
माँ के स्वभाव से जुड़ी एक और बड़ी बात, उनका धैर्य और सहज-सरल किन्तु दृढ़ इच्छा शक्ति थी। एक ऐसी इच्छा शक्ति, जो हर किसी में नहीं हो सकती। परेशानियों के समय में उनका एक ही रवैया रहता था कि परेशानी आई है तो चली भी जायेगी। उनकी इच्छा शक्ति का एक महत्वपूर्ण प्रमाण है करीब पिचासी वर्ष की आयु में 65 वर्ष से भी अधिक पुरानी आदत को छोड़ देना। और उसे छोड़ देने के बाद पूरी सहजता के साथ, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, जीवन को जीते चले जाना।
कई चीजे हैं, जिन्हें माँ के अन्दर देखता था, तो लगता था कि सकारात्मक ढंग से सोचना कितना आसान है! हालांकि कई मसलों पर उनकी वह आसान सी सकारात्मकता मैं अपना नहीं पाता। बहुत मुश्किल होता है। शायद उनकी तरह अपनी बहुत सारी अपेक्षाओं को नियन्त्रित कर पाना संभव नहीं बना पाता मैं। फिर भी माँ की बातों से प्रेरणा मिलती रही और कई परेशानियों के वक्त निर्णय लेने में आसानी होती है। अपने लिए कुछ खोने-पाने की
लालसा को नियन्त्रित करने से कभी-कभी सामाजिक दायरा कुछ
सीमित भले हो जाता है, पर जीवन निश्चय ही सहज हो जाता है।
प्रमुख अवसरों के कुछ और छाया चित्र
अब न कोई हिचकी आयेगी
न स्वप्न आयेगा
बस धूप ही धूप होगी सिर पर
और
एक आंचल याद आयेगा!
-उमेश महादोषी
{विगत 16 नवंबर को हमारी माताजी श्रीमती शान्ती देवी गुप्ता का देहावसान हो गया। इस संसार में आये हर प्राणी का जाना होता है। यह अमिट सत्य है। किन्तु जिन अपनों के साथ हम जीवन को जीते हैं, उनके प्रति मोह-पाश में बँध जाते हैं, उनके साथ जीवन विषयक अभिन्नताओं के आदी हो जाते हैं। माता-पिता और बच्चों का पारस्परिक रिश्ता तो वैसे भी कुछ ज्यादा ही अभिन्नताओं से रचा-बसा होता है, भले बदलते समय और परिवेश के साथ हम कितने ही स्वार्थी हो गए हों। मोह-पाश और अभिन्नताओं के कारण हमेशा-हमेशा की विदाई पीड़ादायी भी होती है और अविश्वसनीय जैसी भी। बहुत दिनों तक इस सत्य को स्वीकारना मुश्किल होता है और हम स्मृतियों को कुरेदते रहते हैं। पर सत्य तो सत्य है। स्मृतियां शायद पीड़ा को कम कर देती हैं और सांसारिक सत्य को समझना सरल हो जाता है। माँ की स्मृतियों के कुछ छाया चित्रों और एक-दो प्रतीकात्मक संस्मरणों को आप मित्रों के साथ साझा करने के लिए ब्लॉग के इस छोटे से हिस्से के उपयोग की अनुमति चाहता हूँ।}
उमेश महादोषी
माँ : अपेक्षा-रहित जीवन का उदाहरण
जिम्मेवारियों को पूरा करने के लिए उनके लिए जो कुछ भी करना जरूरी था, उन्होंने पूरी तरह शान्त, शालीन और मर्यादित रहकर किया। अपने-आपके लिए जैसे उनकी कभी कोई अपेक्षा ही नहीं थी। जो मिल गया, उसे अपना लिया; जो नहीं मिला, उसके लिए लालसा नहीं। न पिताजी के रहते हुए, न उनके जाने के बाद। आज के युग में जीवन को जीते हुए इस तरह की चीज को अख्तियार करना बड़ी बात है। यह जीवन की ऐसी सहजता है, जिसे अपनाना आसान नहीं होता। भले माँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं, उनकी कोई उल्लेखनीय सार्वजनिक-सामाजिक सक्रियता भी नहीं रही, फिर भी
ऋषिकेष के पास लक्ष्मण झूला पर |
पौत्र अभिशक्ति के बालपन को दुलारती हुई |
जैसा कि उस समय में होता था, माँ-पिताजी की शादी कुछ कम उम्र में ही हो गयी थी। तब की स्थितियों के अनुरूप घर में दिनचर्या सुबह होने से पहले ही शुरू हो जाती थी। उठते ही कुछ काम घर की महिलाओं के जिम्मे होते थे, माँ के जिम्मे भी थे। लेकिन हमारी माँ शायद नींद की कुछ कच्ची थीं। उन्हें काम करते-करते नींद सी आ जाती थी। घर में महिलाओं के जिम्मे रहने वाले कई काम उनके जिम्मे होते थे, कुछ दादी की सख्ती भी रही होगी कि उनकी नींद का समाधान खोजने की प्रक्रिया में दादी ने उन्हें एक गलत आदत का शिकार बना दिया। यह आदत थी- खाने वाली तम्बाकू
खाने की आदत। दादी का आदेश था कि सुबह के काम करते हुए थोड़ी सी तम्बाकू मुँह में डालकर चबाते रहने से नींद नहीं आयेगी। माँ को दादी का आदेश मानना पड़ा और धीरे-धीरे वह तम्बाकू की आदी हो गई। बाद में उन्होंने न छोड़ने की कोशिश की और न किसी ने उन्हें इस आदत को छोड़ने के लिए प्रेरित किया। जब मेरी नौकरी लगी, तो गांव से उन्हें मैं अपने साथ ले आया था। जिस तरह की तम्बाकू वह खातीं थी, मैं बाजार में कहीं न कहीं से लाकर उन्हें दे ही देता था। कभी-कभी मुझे लगता था कि माँ को यह आदत छोड़ देनी चाहिए, कहीं इसकी वजह से कोई बीमारी न हो जाये, फिर लगता था कि शायद माँ के लिए यह आदत छोड़ना असम्भव होगा, कहीं इसे छोड़ने के चक्कर में वह अन्दर ही अन्दर तकलीफ झेलती रहें और अपने स्वभाव के अनुरूप हमसे कह न पायें। अतः मैंने अपना सोचना अपने तक ही सीमित रखा, माँ पर कभी जाहिर नहीं किया। लेकिन पिछले कुछ वर्ष पूर्व जब वह हमारे बड़े भाई के पास थीं, तो वहां किसी ने उन्हें तम्बाकू छोड़ने के लिए प्रेरित किया और किसी तरह वह उन्हें समझाने में कामयाब हो गया। उन्होंने करीब पिचासी वर्ष की उम्र में अपनी उस 65 वर्षों से चली आ रही आदत को छोड़ दिया। बाद में जब मेरे पास आईं, तो मैंने पूछा- ‘‘माँ,
आपकी तम्बाकू है या बाजार से लेकर आऊँ?’’ उन्होंने जवाब दिया, ‘‘मैंने तो तम्बाकू खाना ही छोड़ दिया।’’ मुझे लगा, कहीं माँ ने मजबूरी में तो नहीं छोड़ा और मन ही मन उसकी वजह से परेशान होती हों। मैने काफी जिद करके कहा, माँ, यहां बाजार में तम्बाकू मिल जायेगी। आप निश्चिन्त रहो, मैं ले आता हूँ। परन्तु उनका जवाब यही था कि अब तो इच्छा भी नहीं होती। खा भी नहीं पाऊँगी। मैं आश्चर्यचकित था- क्या इतनी पुरानी आदत को इस उम्र में और इतनी आसानी से सिर्फ इच्छाशक्ति के बल पर छोड़ा जा सकता है! मेरे लिए विश्वास करना मुश्किल हो रहा था। पर उनके लिए यह सम्भव था। शायद अपनी अपेक्षाओं को नियन्त्रित कर पाने का एक और उदाहरण!
अन्य पारिवारिक जनों के साथ अभि को दुलारती हुई |
कुछ भावपूर्ण मुद्राएँ |
रुड़की में कुछ सहेलियों के साथ |
एक जन्म-दिन पर अभिशक्ति को आशीर्वाद |
पौत्र अभि व पुत्रबधु मध्यमा के साथ |
प्रमुख अवसरों के कुछ और छाया चित्र
पुत्र उमेश व पुत्रवधु मध्यमा को
शादी के अवसर पर आशीर्वाद
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पुत्र उमेश महादोषी के साथ
(1987 का चित्र) |
परिवार के अन्य सदस्यों के साथ और अंतिम दर्शन |
न स्वप्न आयेगा
बस धूप ही धूप होगी सिर पर
और
एक आंचल याद आयेगा!
-उमेश महादोषी