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बुधवार, 24 मई 2017

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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2016


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।




छायाचित्र : उमेश महादोषी 

।।सामग्री।।
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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} : इस अंक में श्रीकृष्ण ‘सरल’, आचार्य देवेन्द्र ‘देव’, नवल जायसवाल व शिवशंकर यजुर्वेदी  की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में   स्व. (डॉ.) सतीश दुबे  की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी} : इस अंक में लक्ष्मी रानी लाल की कहानी ‘शिउली’।

लघुकथा : अगली पीढ़ी  {लघुकथा : अगली पीढ़ी} : इस अंक में  कृष्णचन्द्र महादेविया की लघुकथाओं पर उमेश महादोषी की प्रस्तुति 

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} : अब से क्षणिकाओं एवं क्षणिका सम्बन्धी सामग्री के लिए ‘समकालीन क्षणिका’ ब्लॉग  जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें-

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में डॉ. पुरुषोत्तम दुबे के हाइकु।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में डॉ. मीरा गौतम के काव्य-संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ की डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा, मधुकांत की व्यंग्यात्मक रचनाओं के संग्रह ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ की डॉ. अनीता देवी द्वारारामस्वरूप मूंदड़ा के हाइकु संग्रह ‘ध्वनि’ की ग्यारसी लाल सेन द्वारा तथा नरेश कुमार ‘उदास’ के क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’ की कमलेश सूद द्वारा समीक्षाएँ।

अविराम विस्तारित

               अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2016




।।कविता अनवरत।।



अमर महाकवि
श्रीकृष्ण ‘सरल’



{मित्र संतोष सुपेकर जी ने अमर शहीदों की गाथाओं के गायक महाकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ जी की कृति ‘क्रान्ति-गंगा’ उपलब्ध करवाकर हमें उपकृत किया। सरल जी ने ‘क्रान्ति-गंगा’ की प्रेरणादायी भूमिका में प्रसंगवश अपने कुछ चर्चित गीत भी दिए हैं, जिनमें अखिल भारतीय क्रान्तिकारी सम्मेलन, देहरादून की तीनों दिनों की कार्यवाही के शुभारम्भ में क्रमशः पढ़े गए तीनों गीत भी शामिल हैं। उनमें से तीसरे दिन पढ़ा गया गीत यहाँ हमारे पाठकों के लिए। सभी चित्र ‘क्रान्ति-गंगा’ से साभार।}


काँटे अनियारे निखता हूँ

अपने गीतों से गंध बिखेरूँ कैसे
मैं फूल नहीं, काँटे अनियारे लिखता हूँ।
मैं लिखता हूँ मझधार, भँवर, तूफान प्रबल
मैं नहीं कभी निश्चेष्ट किनारे लिखता हूँ।

महान क्रान्तिकारी
दुर्गा भाभी के साथ सरल जी 
मैं लिखता हूँ उनकी बात, रहे जो औघड़ ही
जो जीवन-पथ पर लीक छोड़ कर चले सदा,
जो हाथ जोड़कर, झुक कर, डर कर नहीं चले
जो चले, शत्रु के दाँत तोड़कर चले सदा। 

मैं गायक हूँ उन गर्म लहू वालों का ही
जो भड़क उठें, ऐसे अंगारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं, काँटे अनियारे लिखता हूँ।




हाँ वे थे, जिनके मेरु-दण्ड लोहे के थे
शहीद भगत सिंह की माता जी
विद्यावती जी के साथ सरल जी



जो नहीं लचकते, नहीं बल खाते थे,
उनकी आँखों में स्वप्न प्यार के पले नहीं
जब भी आते, बलिदानी सपने आते थे।

मैं लिखता, उनकी शौर्य-कथाएँ लिखता हूँ
उनके तेवर के तेज दुधारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं, काँटे अनियारे लिखता हूँ।

  



अमर शहीद
अशफाक उल्ला खाँ का स्केच

जो देश धरा के लिए बहे, वह शोणित है
अन्यथा रगों में बहने वाला पानी है,
इतिहास पढ़े या लिखे, जवानी वह कैसे
इतिहास स्वयं बन जाए, वही जवानी है।

मैं बात न लिखता पानी के फव्वारों की
जब लिखता, शोणित के फव्वारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं, काँटे अनियारे लिखता हूँ।




  • सरल जी के पुत्र का पता : श्री प्रदीप शर्मा ‘सरल’, 27, क्रान्ति-कुँज, दशहरा मैदान, उज्जैन, म.प्र.

अविराम विस्तारित

      अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2016



 
आचार्य देवेन्द्र ‘देव’




तीन गीत
हृदय को यह स्वीकार नहीं

प्रणय निवेदन करे,
हृदय को यह स्वीकार नहीं।
फिर भी कैसे कह दे-
‘हमको तुमसे प्यार नहीं’।।

पुरवाई जब-जब चलती है
घन घिर आते हैं।
प्यासे सरिता और सरों की,
तपन बुझाते हैं।
अधर चाहते अधरों का 
कोई उपकार नहीं।।

प्रीति पगे तो अनायास ही
सुधा-कलश छलके।
रेखाचित्र : सिद्धेश्वर
अन्तस् की कामना सयानी
आँखों से झलके।
प्राण सहेंगे आभारों का
किंचित् भार नहीं।।

चाहों के गीतों में
आहों का संगीत रहे।
भावुकता कहती है
‘मेरे प्रिय की जीत रहे’।
किन्तु, चाहता मानी मन
अपनी भी हार नहीं।।

कोई भला बताए
कोई भला बताए
क्यों मैं रहूँ उदास नहीं?
अपना दिल रह रहा आजकल,
अपने पास नहीं।

पगलाया-पगलाया फिरता,
जाने कहाँ-कहाँ?
खोज रहा मुमताज
मिलाने को यह शाहजहाँ।
शाहजहाँ को जबकि,
मिलन की कोई आस नहीं।

अवसर दिया समय ने,
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया 
हिल-मिलकर झूला झूलें।
अपने ढँग से अपना-अपना, 
आसमान छू लें।
वह तो रत्ना बनी,
किन्तु, मैं तुलसीदास नहीं।

किस्मत के उन पृष्ठों का,
कैसा कटना-फटना?
जिन पर विधि ने स्वयं लिखा हो,
‘पिऊ-पिऊ’ रटना।
बुझा सकी कोई बारिश,
चातक की प्यास नहीं।

यादों की गन्ध नहीं जाती
उलटे-पुलटे, धोये-पोंछे,
कर लाखों जतन लिये, लेकिन,
दिल की किताब के पन्नों से
यादों की गन्ध नहीं जाती।

जब कभी अकेले में होता,
मन सुधियों की गठरी ढोता।
स्वप्नों की पलकें खुल जातीं,
तो, चेहरा आँसू से धोता।

सो गया नियति का हरकारा,
चिट्ठी न अभी तक लाया है,
दिन-रात भेजती रहती हैं
ये आहें लिख-लिखकर पाती।

मेरे प्रिय की बातें करती
मैना तोते के कानों में।
जिनको सुनने नभ से बादल
रेखाचित्र : डॉ. सुरेंद्र वर्मा 
उतरा करते मैदानों में।

मेरे भी कान लगे रहते
हर एक घड़ी, हर एक निमिष,
पूरे दिन चैन नहीं मिलता,
रातों को नींद नहीं आती।

‘अच्छी होती है कभी-कभी
क़िस्मत की आँख-मिचौली भी।
पक कर मीठी हो जाती है
कड़वे नीम की निबौली भी।’

जब कभी झुलसने लगता है
मन खुद के अन्तर्दाहों से,
तब कोई गौरैया आकर 
यह कहकर मुझको समझाती।
  • ‘माल-द्वीप’, 44, उमंग, भाग-2, महानगर, बरेली-243006 (उ.प्र.)/मोबा. 09412870495

अविराम विस्तारित

                    अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2016



नवल जायसवाल 


प्रयागराज का सत्य

आटा बोलता नहीं तो क्या हुआ
सहता बहुत है
दबाव और आँच, दोनों



प्रकाश कहता रहा
अपनी आत्मकथा
मैंने अपने
झुर्रियों वाले हाथ देखे
और नाखूनों की धार
तुरन्त तेज कर दी



मेरी नज़रें कष्ट देती हैं
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया 
मेरे हाथों की तरह
लम्बी और सीधी हैं
वे किसी की भी
आँख से टकराकर
पहचान लेती हैं
जो मैं जानना चाहता हूँ



मैंने अपने लहू को
खौलने के लिए
भट्टी के ऊपर रखी
कढ़ाई में डाल दिया है
मैं उससे चिपकना नहीं चाहता
पास रहकर भी



तन-तन, मन-मन
काया मेरी छरहरी-सी
दौड़ना चाहती है
रेल की पटरियों पर
बरसात के बिना भी
हरे घास के बगल से
निःसंकोच



मैं अन्त की परिभाषा नहीं जानता
आदि अतीत को दे आया हूँ
वह सम्हाल लेगा
किनारों की तलाश में है वह
अपने प्रलोभन को कह भी दें तो
शायद, सम्भव, स्यात
घुटनों तक पानी में खड़े होकर



मेरा दुश्मन
जो कभी दोस्त भी था
कह रहा है वह सब
जो एक निहायत ही
एकान्त वाले कमरे में
तय करके गया था
आजादी की गोपनीयता के बारे में



घर की छत
कभी टपकती नहीं थी
मैंने अपने ही बिस्तर से
देखा एक बूंद
टपकना चाहती है
आकार तो बड़ा कर रही है
न जाने कब टपक पड़े
नींद को दे दूँगा
बाढ़ की श्रृंखलाएँ और म्यूरल्स



मैं इतना सब
अपनी देह के बिना
नहीं कर सकता
माध्यम है
अनेक प्रकार की
आत्माओं की सभा करने का
मृत्यु शैय्या पर जाने से पूर्व



मैंने विधवाओं का
जीवन भी देखा है
मरने वाला दे जाता है
अपनी शेष आयु भी
वह आत्मसात् कैसे करे
सहती है सब
रेखाचित्र :  रमेश गौतम 
या/थोप देती है अपना आतंक



निरन्तर शब्द
कोष से निकलकर
मेरे सामने आ गया है
मैं उसकी हत्या कर देना चाहता हूँ
अनगिनत मित्रों के साथ
रिश्तेदारों के साथ/चीख लूँ
प्रयागराज जाने से पूर्व।

  • प्रेमन, बी-201, सर्वधर्म कोलार रोड, भोपाल-462042 (म.प्र.)/फोन : 0755-2493840

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               अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2016




शिवशंकर यजुर्वेदी




झिलमिल सपनों के राजहंस

अधरों की मधुरिम छुअन क्षणिक
युग-युग की प्यास जगा बैठी।
मुरझाये उपवन के मन में
मधुमासी आस जगा बैठी।

बस गये स्नेह संवाद सहज
यूँ श्वाँस सरित की कलकल में
जैसे सुगंध हो रची-बसी
पाँखुरी-पाँखुरी शतदल में
अल्हड़ पुरवा की अठखेली
स्वर्गिक अभिलाष जगा बैठी।

अधरों की मधुरिम छुअन क्षणिक
युग-युग की प्यास जगा बैठी।


रेखाचित्र : रमेश गौतम 
झिलमिल सपनों के राजहंस
उतरे दृग मानसरोवर में
हो गई समाहित समल सृष्टि
लगता है ढाई आखर में
परिचय विहीन पावन श्रद्धा
अद्भुत विश्वास जगा बैठी।

अधरों की मधुरिम छुअन क्षणिक
युग-युग की प्यास जगा बैठी।

यामिनी-दिवस, प्रातः-संध्या
ज्यों बंधे प्रतीक्षा बंधन में
करबद्ध खड़ीं त्यों आशायें
मधुमिलन पर्व अभिनन्दन में
चाँदनी झाँकती मेघों से
कण-कण उद्भाष जगा बैठी।

अधरों की मधुरिम छुअन क्षणिक
युग-युग की प्यास जगा बैठी।

  • 517, कटरा चाँद खाँ, बरेली-243005 (उ.प्र.)/मोबा. 09319467998

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2016





।। कथा प्रवाह ।।


डॉ.सतीश दुबे साहब को स्मरण करते हुए

{लघुकथा के आधार स्तम्भ और महान सृजक  डॉ. सतीश दुबे साहब विगत 25 दिसम्बर 2016 को  इस दुनिया  विदा हो गए।  श्रद्धेय दुबे साहब भौतिक शरीर के साथ भले हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन लघुकथा के बीच से उठकर वह कभी नहीं जा सकते। लघुकथाकारों में वह वरिष्ठतम थे। सातवें दशक से आरम्भ करके अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने लघुकथा के लिए काम किया। सृजन से लेकर लघुकथा के रूप-स्वरूप के निर्धारण, विवादों के समाधान, लघुकथा समीक्षा-समालोचना और नई पीढ़ी को तैयार करना, उनका योगदान हर क्षेत्र में उल्लेखनीय रहा। लघुकथा को विधा के रूप में स्वीकार्यता के लिए जिस समग्र दृष्टि और व्यापक आधार की आवश्यकता थी, उसके लिए की गई हर पहल में दुबे साहब शामिल थे। सच बात तो यह है कि लघुकथा का वर्तमान मुकाम दुबे साहब के बिना संभव नहीं था।
      अविराम के प्रति उनका स्नेह अपरिमित था। उनकी हीरक जयंती के अवसर पर कुछ पत्रिकाओं ने विशेषांक प्रकाशित किए थे, जिन्हें पढ़ने के बाद मैंने उन अंकों को आधार बनाकर उनके व्यक्तित्व और रचनात्मकता पर एक सर्वेक्षणात्मक आलेख लिखने का अपना मंतव्य उनके समक्ष रखा था, उन्होंने उस आलेख की प्रतीक्षा भी की, किन्तु दुर्भाग्य से उसके पूरा होने पर ईश्वर ने इतना समय नहीं दिया कि हम वह आलेख उन्हें पढ़वा पाते। दुबे साहब को स्मरण करते हुए उनकी कुछ लघुकथाओं के साथ उस आलेख को भी हम यहाँ प्रस्तुत कर रहेे हैं। }

डॉ. दुबे साहब की कुछ लघुकथाएँ

उत्स
      लम्बे-चौड़े पाटवाली नदी की ओर गहन-गम्भीर विचार में खोकर उन्होंने इशारा किया- ‘‘नदी की ओर देख रही हो ना? पानी सूख जाने के कारण, देखो प्रवाह, गहराई, इसके जल से अठखेलियां करती हुई तरंगे सब गायब हो गई। इसके जीवन से लुप्त हो गईं। यहाँ तक कि इस शिवालय की मूर्ति-पूजा और घंटियाँ बजना भी बंद हो गईं। न आदमी, न जानवर! पशु-पक्षी सब कन्नी काट गये। समझी ना! जीवन भी यही है। पर इससे सबक लेने की बजाय हम मोहपाश में बँधते जाते हैं। यह जानते हुए भी, पाट कितना भी चौड़ा हो, पानी सूख जाने पर अर्थ ही बदल जाता है.....।’’
      ‘‘अब मैं अपनी बात भी कहूँ....। आपकी निगाह किनारे पर खड़े हुए वृक्षों की ओर है कि नहीं? बताइये! ये हरे-भरे वृक्ष, हवा में लहराते हुए किसका गुण गा रहे हैं? नदी की ये रेत, बड़ी-बड़ी चट्टानें, नदी के उस पानी का अस्तित्व नहीं है क्या? इनका उत्स कहाँ से है? वृक्षों के पत्तों की जड़ों में पानी कौन सा कायम है? श्रीमान जी! पानी सूख जाने से अस्तित्व नष्ट नहीं हो जाता। एक बात और, किसी बढ़ई से पूछ देखिये कि, वृक्ष का डूंड या जड़ काटना आसान है कि टहनियाँ।’’ पत्नी ने गहरे चुभकर चुटकी ली।
      वे फिर अपनी पराजय अनुभव कर रहे थे। उसने उनके चेहरे को पढ़ा तथा मुस्कुराई- ‘‘यहाँ भी क्या यह खटराग लेकर बैठ गये, लीजिये मैं आपको एक गाना सुनाती हूँ....।’’
      गाना सुनकर उन्हें लगा, नदी तरल है, सूख जाने पर भी ठंडी लहरों के झोंके देने की क्षमता उसमें है।
      उनका मूड एकदम बदल गया।

आकाशी छत के लोग
      बालकनी में बैठे-बैठे आसपास की लंबी सैर करने के बाद दृष्टि सामने के जिस मैदान पर स्थिर हो जाया करती है, आज वह वहीं खड़ा था।
      निपट अँधेरे के बीच आग से निकलने वाले स्वर्णिम प्रकाश में दमकते हुए अनेक चेहरे। हथेलियों से रोटियाँ थेप रही औरतें, उनके आसपास बैठे आदमी, बच्चे-खच्चे। ‘आए की खिलाव मोटी-छोटी रोटी, पिलाव प्यासे को पानी’ आदर्श के सामने मत्था टेक वह उनकी हँसी-खुशी के वातावरण में खो गया।
      ‘‘आप लोग कहाँ के रहने वाले हैं?’’
      ‘‘रेणे वाले तो राजस्थान मेवाड़ में हैं जी, पर ये पूरी धरती माता हमारा घर और आसमान हमारी छत है जी, और साबजी आप...?
     ‘‘वो सामने वाली बिल्डिंग की तीसरी मंजिल के बीच वाले फ्लैट में....।’’
     इशारे की अंगुली वह नीची भी नहीं कर पाया था कि, बातचीत में हस्तक्षेप कर मुखर हो रही एक युवती हाथ हिलाते हुए बोली- ‘‘ऐसा कैसा घर जी आपका, जां से न धरती छी सको, न आसमान देख सको....।’’
     टिप्पणी सुन हतप्रभ सा निरुत्तर-मुद्रा में वह युवती की ओर देखने लगा। वह समझ नहीं पा रहा था, संवाद का अगला सिलसिला कहाँ से शुरू करे।

अगला पड़ाव
    अपने बच्चों की अब तक की जीवन-यात्रा से सम्बन्धित विभिन्न अनुभवों, प्रसंगों, उम्रानुकूल चर्चा-चुहुल, बलात खोखले हंसी-ठट्ठों के बावजूद दिल-दिमांग के खालीपन की यथावत ऊब से निजात पाने के लिए कुर्सियाँ लगाकर दोनों आँगन में बैठ गए।
    इधर-उधर निगाह घुमाते हुए अचानक बापू की निगाह बाउन्ड्री-वॉल के समतल भाग पर बीच में पड़े दानों को एक-दूसरे की चोंच में खिलाते हुए चिड़ा-चिड़िया की गतिविधियों पर जाकर ठहर गई। उन्होंने बा को हरकत में लाने के लिए इशारा करते हुए पूछा- ‘‘इन परिंदों को पहचाना, नहीं ना...? मैं बताता हूँ, यह वही युगल-जोड़ी है, जिन्होंने दरवाजे के साइड में लगे वुडन-बोर्ड की खाली जगह पर तिनका-तिनका चुनकर घोंसला बनाने से चूजों के पंखों में फुर्र होने की शक्ति आने तक की प्रक्रिया को अंजाम दिया था। ये वे ही तो हैं जो आज भी यदाकदा दरवाजे की चौखट पर मौन बैठे रहते हैं और तुम कमेन्ट्स करती हुई कहती हो- ‘‘देखो बेचारों की सूनी आँखें बच्चों का इंतजार कर रही हैं....।’’
    ‘‘आप भी ना, कुछ तो भी बातें करते हो। अच्छा ये बताओ, आपने इन्हें कैसे पहचाना?’’
    ‘‘अरे, जो हमारे आसपास प्रायः दिखते हैं, उन्हें कौन नहीं पहचान लेगा? वैसे भी परिन्दों के संसार का यह नियम है कि वे बसेरा बनाने के लिए चुना गया वृक्ष और घर, विशेष परिस्थितियों तक छोड़ते नहीं हैं...।’’
    बापू ने महसूस किया बा का ध्यान उनकी बातों की ओर कम, चिड़ा-चिड़िया की गतिविधियों पर अधिक केन्द्रित था। अपने ध्यान से उपजी सोच को बापू के साथ बाँटते हुए वह बोली, ‘‘लगता है अपने फर्ज से निपटकर इन्होंने अपनी नई जिन्दगी शुरू कर दी है।’’
    बापू ने महसूस किया यह कहते हुए बा के चेहरे पर उत्साह और प्रसन्नता के भाव तरल बदलियों की तरह घुमड़ रहे हैं।

  •  परिवार संपर्क :  श्रीमती मीना दुबे, 766, सुदामा नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.)/मो. 09617597211

आलेख
डॉ. सतीश दुबे का रचनात्मक व्यक्तित्व :  पिचहत्तर वर्षीय यात्रा का सर्वेक्षण

इस आलेख को निम्न लिंक (डॉ. बलराम अग्रवाल संचालित ब्लॉग 'जनगाथा') पर पढ़ा जा सकता है-

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04 , सितम्बर-दिसम्बर 2016 



।।हाइकु ।।


डॉ. पुरुषोत्तम दुबे




हाइकु

01.
नदिया बहे
भँवर में न जाना
किनारा कहे।

02.
ओक से पीना
स्वाद खूब पानी का
पीकर जीना।

03.
पानी का रेला
बह निकला फिर
रेलम पेला।
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 

04.
पानी माँगेगा
न खेल प्रकृति से
सूली टाँगेगा।

05.
पानी का रंग
मिला दो जिस रंग
उसके संग।

  • ‘शशीपुष्प’, 74 जे/ए, स्कीम नं.71, इन्दौर-452009 (म.प्र.)/मोबा. 09407186940 

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर -दिसम्बर 2016



लघुकथा : अगली पीढ़ी

कृष्णचन्द्र महादेविया

{लघुकथा की दूसरी व तीसरी पीढ़ी के लघुकथा लेखन पर केन्द्रित इस स्तम्भ का आरम्भ अविराम साहित्यिकी के मुद्रित प्रारूप में जनवरी-मार्च 2015 अंक से किया गया था। उसी सामग्री को इंटरनेट पर अपने पाठकों के लिए भी हम क्रमश: उपलब्ध करवाना आरम्भ कर रहे हैं। 
इस स्तम्भ का उद्देश्य लघुकथा की दूसरी व तीसरी पीढ़ी के लघुकथा लेखन में अच्छी चीजों को तलाशना और रेखांकित करना है। अपेक्षा यही है कि ये लघुकथाकार अपने समय और सामर्थ्य को पहचानें, कमजोरियों से निजात पायें और लघुकथा को आगे लेकर जायें। यह काम दो तरह से करने का प्रयास है। सामान्यतः नई पीढ़ी के रचनाकार विशेष के उपलब्ध लघुकथा लेखन के आधार पर प्रभावित करने वाले प्रमुख बिन्दुओं व उसकी कमजोरियों को आलेखबद्ध करते हुए समालोचनात्मक टिप्पणी के साथ उसकी कुछ अच्छी लघुकथाएँ दी जाती हैं। दूसरे प्रारूप में किसी विशिष्ट बिषय/बिन्दुओं (जो रेखांकित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो) पर केन्द्रित नई पीढ़ी के लघुकथाकारों की लघुकथाओं में उन लघुकथाकारों की रचनात्मकता के बिन्दुओं की प्रस्तुति कुछ महत्वपूर्ण लघुकथाओं के साथ देने पर विचार किया जा सकता है। प्रस्तुत लघुकथाकारों से अनुरोध है कि समालोचना को अन्यथा न लें। उद्देश्य लघुकथा सृजन में आपके/आपकी पीढ़ी के रचनाकारों की भूमिका को रेखांकित करना मात्र है। इस अंक में हम कृष्णचन्द्र महादेविया पर प्रस्तुति दे रहे हैं। -अंक संपादक}

संभावनाओं की तलाश ही भावी रास्ता है : डॉ. उमेश महादोषी 
      बहुत बार ऐसा लगता है कि लघुकथा की वरिष्ठ पीढ़ी ने लघुकथा को जो आयाम प्रदान किए, नई पीढ़ी वहां से आगे ले जाना तो दूर, उस मुकाम पर भी लघुकथा का सम्मान बनाए रख पाने में सक्षम नहीं है। यद्यपि यह पूरा सच नहीं है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नई पीढ़ी का लघुकथा सृजन बहुत सारी कमजोरियों और अग्रगामी योगदान के अभाव से भरा पड़ा है। लेखन की निरन्तरता के बावजूद प्रगति की अवधारणा, क्रमागत हो या जैनेटिक, के अनुरूप उनका लघुकथा सृजन उस रूप में नहीं आ पा रहा है, जैसे एक प्रतिष्ठित विधा की जिम्मेवार पीढ़ी से अपेक्षा की जाती है। इन लघुकथाकारों में से अधिकांश के पूरे संग्रह को पढ़ने के बाद भी आठ-दस प्रभावशाली लघुकथाएं छांट पाना मुश्किल होता है। कमजोरियों की एक लम्बी सूची बनाई जा सकती है। विषयों और कथ्यों का अंधाधुंध दोहराव, कुछ विशेष विषयों की सतत परिक्रमा, किसी रचना में कोई कथ्य निकल रहा है या नहीं, इसकी परवाह किए बिना लघुकथा के नाम पर लिखते चले जाना, एक बार लिखने के बाद स्वसमीक्षा की दृष्टि से उस पर पुनर्विचार के दरवाजे को बन्द कर लेना, अध्ययन का अर्थ सिर्फ दूसरों की लघुकथा को मात्र कथ्य की दृष्टि से पढ़ना, तकनीक समझने की जरूरत न समझना, लघुकथा में अपने लेखक को प्रकट करने का मोह संवरण न करना, रचना के प्रकाशन को स्तर की गारंटी मान लेना, संग्रह प्रकाशित कराने की जल्दी में परिपक्वता की प्रक्रिया को नजरअन्दाज कर देना, दूसरे अच्छे लघुकथाकारों की रचनाओं में किसी कारणवश मान्य तकनीक से इतर किसी प्रयोग को समझे बिना अनुसरण करना, अपनी रचना में मौलिकता या दूसरों की रचनाओं से भिन्नता के बारे में विचार न करना, रिपोर्टिंग और रचनात्मकता की प्रस्तुति के अन्तर को न समझना, सामयिक घटनाओं में छुपे बुनियादी संकेतों/परिवर्तनों को पकड़ने और उनमें रचनात्मकता की तलाश में अक्षमता, मूल्यों की तार्किकता के प्रति उपेक्षा आदि अनेक चीजें हैं। एक रचनाकार की प्रतिक्रिया में साधारण व्यक्ति से अलग और आगे जाने की अपेक्षा निहित होती है। दोनों में रचनात्मकता के स्तर पर बुनियादी अन्तर होना चाहिए, जो दुर्भाग्य से बाद की पीढ़ियों की अनेकानेक लघुकथाओं में नहीं दिख रहा है। इसके पीछे अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन नियोजित अध्ययन व चिंतन की प्रक्रिया का अभाव हर हाल में है। पठन-नोटिंग-चिन्तन और परिवर्द्धन-प्रयोग की श्रंखला गायब है। यद्यपि यह निराशाजनक परिदृश्य है, तदापि अपेक्षित चीजों के अभाव के बावजूद सृजन की निरंतरता को आशा की किरण मानकर मैं बाद की पीढ़ी के लघुकथा लेखकों में लघुकथा के भविष्य की संभावनाओं की तलाश जरूरी समझता हूँ।
      मैं जानता हूँ कि परिदृश्य में बहुत सारी छुपी और बिखरी हुई चीजें होती हैं। इनमें काफी सारी अच्छी चीजें होती हैं। बात उन अच्छी चीजों को उभारकर लाने की है। कसूरवार सिर्फ लेखक नहीं हैं, समीक्षकों-समालोचकों के साथ संपादकगण और रचनात्मकता को रेखांकित करने के प्रयासों से सम्बद्ध पूरी बिरादरी कहीं न कहीं जिम्मेवार है, जिसने नई पीढ़ी के लघुकथा सृजन को यत्र-तत्र बिखरी हुई अच्छी चीजों के सन्दर्भ में समेकित नहीं किया। मुझे लगता है, मधुदीप जी द्वारा आरम्भ की गई ‘पड़ाव और पड़ताल’ श्रंखला जैसे कुछ प्रयास, पूरी तरह नई पीढ़ी के लघुकथा लेखन पर केन्द्रित, किये गये होते तो परिदृश्य कुछ अलग होता। 
     यहां यह भी स्पष्ट करना है कि निराशा के कुछ कारणों के बावजूद लेखन को हतोत्साहित नहीं किया जा सकता। लेखन जैसे भी, जैसा भी हो, होते रहना चाहिए। लेखन में सुधार और निखार के सारे प्रयास लेखन के साथ चल सकते हैं, उन्हें चलना चाहिए। और इस तरह से चलना चाहिए कि वे किसी को लेखन से विमुख करने का कारण न बनें, लेखन की ओर लोगों को आकर्षित करने और आकर्षण बनाए रखने की भूमिका निभायें। कारण- लेखन कहीं न कहीं मनुष्य को जीवन मूल्यों की ओर आकर्षित करता है। लेखन से जुड़ा व्यक्ति कहीं न कही, कभी न कभी जीवन मूल्यों की समझ से जरूर जुड़ेगा। लेखन होगा तो उसमें अच्छी चीजें भी जरूर आयेंगी। दोहराव को भी किसी मुद्दे (विषय, कथ्य आदि के रूप में) को समर्थन की व्यापकता और उसके महत्व को रेखांकित करने वाले तत्व की तरह देखा जा सकता है। हमें लेखकीय परिमार्जन के दायरे में लाना इस बात को है कि दोहराव किसी तरह की ऊब पैदा करने का कारण न बन जाये और लेखक का योगदान उसमें दिखाई दे। स्वभावतः दोहराव में रचनात्मकता की शक्ति का संचार ही लेखक का योगदान हो सकता है। विद्यमान की सूक्ष्मताओं को गृहण करने और उनकी प्रभावी प्रस्तुति की योग्यता एक रचनाकार की क्षमताओं में शामिल होनी चाहिए। बाद की पीढ़ी के लघुकथाकारों से यह एक बड़ी अपेक्षा है। मौलिकता के अर्थ का बड़ा हिस्सा भी इन्हीं क्षमताओं में निहित होता है। 
      जीवन के विभिन्न पृष्ठों पर फोकस और अपनी मारक क्षमता के चलते लघुकथा साहित्य को आगे ले जाने की शक्ति अर्जित कर चुकी है। इस शक्ति को जीवन मूल्यों के संरक्षण और परिवर्तन की दिशा का नियन्ता बनाने का काम नए रचनाकारों के ही हाथों में है, वे इस जिम्मेदारी को समझें और पूरी सिद्दत से निभायें, इस सम्भावना की तलाश का कुछ दायित्व, एक लघु-पत्रिका के नाते हमारा भी है।

कृष्णचन्द्र महादेविया की लघुकथा में रचनात्मकता के बिन्दु
लगभग पचपन वर्षीय महादेविया जी हिमाचल प्रदेश के रहने वाले हैं। उन्होंने लघुकथा लेखन पिछली सदी के नवें दशक के आरम्भ में शुरू किया था और उनका पहला लघुकथा संग्रह ‘उग्रवादी’ 1992 में तथा दूसरा ‘बेटी का दर्द’ 2013 में आया। स्वाभाविक है कि लघुकथा में उनके पदार्पण से पूर्व बहुत कुछ हो चुका था और उन्हें लघुकथा आन्दोलन वाली पहली पीढ़ी के बाद के लघुकथाकारों में शुमार किया जा सकता है; यद्यपि आज वह हिमाचल के चर्चित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। ‘बेटी का दर्द’ से पूर्व मैंने उनकी कुछ ही लघुकथाएं पढ़ीं थी। इस संग्रह को पढ़ने के बाद उनके लघुकथा लेखन को समझने का अवसर मिला। परिदृश्य से निरपेक्ष होकर देखा जाये तो उनकी सक्रिय उपस्थिति और सामाजिक सरोकारो के साथ चलना सर्वदा प्रशंसनीय है। लेकिन परिदृश्य से जोड़कर बात की जाये तो लघुकथा में व्याप्त बहुत सारी कमजोरियों से वह अछूते नहीं हैं। समस्याओं को लघुकथा में उठाते हुए वह आम आदमी के चिंतन से इतर लेखकीय दृष्टि की अपेक्षाओं तक कम पहुंच पा रहे हैं। उदाहरण के लिए ‘रोज की सवारी’ में डेली पैसेन्जर्स को किराए में दिए जाने वाले कन्सेसन पर तंज कसा गया है। ‘डेली पैसेन्जरी’ स्वयं एक समस्या है और वहाँ कन्सेसन की जरूरत के एकाधिक पहलू हैं। उस पर तंज उचित नहीं लगता। इस तरह की एकांगी और उथली चीजें लघुकथा को सवालों के घेरे में ही खड़ा करेंगी। इस लघुकथा में डेली पैसेन्जर्स को कन्सेसन के साथ कमजोरों, असहायों, वृद्धों की सहायता का समांतर मुद्दा उठाया जा सकता है। यह रचनाकार की क्षमताओं पर निर्भर करेगा कि वह कितने प्रभावी या कलात्मक तरीके से इसे उठा पाता है। एक लेखक से चिन्तन में गहराई और प्रभावगत व्यापकता की अपेक्षा की जाती है। जीवन व्यापार के सिद्धान्तों को चुनौती देते हुए तार्किकता जरूरी होती है। बिना किसी नवीनता या कलात्मकता के विषयों व कथ्यों का अनुसरण भी महादेविया जी की लघुकथाओं में बड़ी संख्या में है। एक ही विषय पर एकांगी दृष्टिकोंण का दोहराव भी काफी है। मसलन यौन संबन्धी विषयों पर वह बहुत सारी रचनाओं में मुखरित हुए हैं और अधिकांश में उनकी उँगली महिलाओं के चरित्र पर अधिक उठी है, वह भी बिना किसी विशेष रचनात्मक अन्दाज के। काफी सारी रचनाओं में लघुकथा कहते-कहते उनका लेखक स्वयं मैदान में कूदकर रचना के अन्त को लचर बना देता है। लघुकथा के दैहिक गठन में कलात्मकता का प्रायः अभाव है। कमजोरियां  हैं, लेकिन लघुकथा में महादेविया जी की सक्रिय उपस्थिति और निरन्तरता उनके अन्दर की ऊर्जा और सम्भावनाओं की ओर भी संकेत करती है। उनके साथ कई अच्छी चीजें भी हैं। उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि वह हिमाचल की जमीन पर बैठकर लघुकथा लिख रहे हैं। वहां के पात्र, वहां के परिवेश की छाप उनकी लघुकथाओं में दिखती है। पहाड़ की कई रूढ़ियों से वह सीना तानकर टकराते दिखाई देते हैं। वहां के सामाजिक भेदभाव पर कटाक्ष करते हैं। सामाजिक सरोकारों के प्रति उनका लगाव और मानवीय संवेदना के उभार का स्तर संतोष प्रदान करता है। ये ऐसे बिन्दु हैं, जो उनकी लघुकथा की ताकत हैं। इस दृष्टि से नानी और धार, भ्रष्टाचार, प्रसव की पीड़ा, भीड़ का हिस्सा, विष बीज, बदहाल मानसिकता, प्यार और इज्जत, बेटी का दर्द, कीड़े, बेशर्म, क्षय रोग आदि उनकी श्रेष्ठ लघुकथाएँ। इनमें से नानी और धार, प्रसव की पीड़ा, क्षय रोग, बेटी का दर्द और बेशर्म को हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
     ‘प्रसव की पीड़ा’ में अंधविश्वासों पर आधारित पहाड की एक विशेष समस्या को़ (संभवतः यह किसी क्षेत्र विशेष की समस्या है) उठाया गया है, जिसमें पत्नी को प्रसव पीड़ा आरम्भ होने के बाद पुरुष उस पीड़ा को महसूस करने का ढोंग रचता है और इस बहाने काम छोड़कर आराम करने लगता है। पोष्टिक आहार आदि जो देखभाल महिला की होनी चाहिए, उसे पुरुष लूट लेता है। महिला बेचारी को न पौष्टिक आहार मिलता है, न आराम। इस समस्या में महिलाओं के प्रति अन्याय और उनकी बदहाली की स्थिति तो निहित है ही, पुरुषों की अकर्मण्यता के साथ उनके आर्थिक हालातों के बिगड़ने का कारण भी निहित है। इसी सामाजिक-आर्थिक समस्या को ‘प्रसव की पीड़ा’ में अभिव्यक्ति दी गई है। इस समस्या को एक और लघुकथा ‘उदास आंखें’ में भी महादेविया जी ने उठाया है। दरअसल पहाड़ों पर आज भी अंधविश्वासों पर आधारित अनेक दुरूह समस्यायें मौजूद हैं, जिन पर पहाड़ की आबोहवा से जुड़े लेखक ही बेहतर लिख सकते हैं।   
      ‘बेटी का दर्द’ में एक और अंधविश्वास पर हमला किया गया है। ‘‘हाँ, तुम्हारा नाम रख दिया होता तो भैया नहीं आना था। देवता के गुर ने यही कहा था और पूरे घर-गाँव में यह पक्का विश्वास है।’’ भोले-भाले लोगों को कैसे-कैसे अंधविश्वासों की घुट्टी पिला दी जाती है और यह घुट्टी कैसे विश्वास में बदल जाती है! सामाजिक रीति-रिवाजों के साथ ‘बेटा’ आज भी जिस तरह एक बड़ा इनवेस्टमेंट बना हुआ है, वह बेटे की उम्मीद में बच्चों की लाइन लगा देने का अपराध पढ़े-लिखों से भी करवा लेता है। अशिक्षा के अंधेरे में तो यह काम और भी आसान हो जाता है। लेकिन बेनाम बच्ची का भोला-सा सवाल ‘‘माँ ऽऽ! यदि आपके पेट में भैया नहीं दीदी ही होगी तो क्या उसका भी नाम नहीं रखोगी?’’ मां को आक्रोशित तो करता है, पर झकझोरता भी है। शायद इसीलिए थप्पड़ मारने को हाथ उठाने के बाद वह काँपती बेटी की कातर आँखों में झाँक पाती है और उसका हाथ उठा ही रह जाता है। रत्नी कनैतण के काँपने में उसकी बेवशी को भी देखा जा सकता है। यह बेवशी ही उसे रास्ता दिखायेगी। लघुकथा में इसे रचनात्मकता का बिन्दु और उसकी ताकत माना जा सकता है।
     ‘नानी और धार’ पहाड़ों के प्रति वहां के लोगों के लगाव और अपनेपन को तो अभिव्यक्ति मिली ही है, पहाड़ों पर मानवीय हस्तक्षेप के कारण पैदा हो रही समस्याओं की ओर भी संकेत किया गया है। इन समस्याओं से निजात के लिए पहाड़ के लोगों को स्वयं ही पहल करनी होगी, लघुकथा इस रचनात्मक संदेश को सफलतापूर्वक संप्रेषित करती है। पहाड़ों पर जीवन वैसे ही अत्यंत दुरूह है, ऊपर से ऐसे मानवीय हस्तक्षेप, जिन्हें टाला जा सकता है, उसे और भी दुरूह बना देते हैं। पहाड़ पर औद्योगिकीकरण का बोझ भयंकर दुष्परिणाम ही देगा। एक नवयुवक के द्वारा नब्बे साल की नानी को समझाना, और नानी का जोश के साथ इसके खिलाफ खड़ा होना युवा एवं बुजुर्ग के गठजोड़ को भी प्रतिबिम्बित करता है। आसान रोजगार और लाभ की आकांक्षा के वशीभूत पहाड़ों की समस्या के प्रति प्रसुप्त प्रायः प्रौढ़ पीढ़ी इसे समझे।
     ‘क्षय रोग’ यूं तो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सामान्य लघुकथा प्रतीत होती है, लेकिन नई प्रधान की सोच में पहाड़ की महिला के संघर्ष और संकल्प का जो रूप प्रतिबिम्बित हुआ है, वह इसे खास बना देता है। प्रधान श्रेष्ठा पर्स खोलकर एक बारगी रिश्वत देने की बात सोचती है, लेकिन पहाड़ की औरत की संघर्षशीलता का चरित्र उसे रोक देता है। वह आगे की सोचती है और निडरतापूर्वक अपनी बात अकाउंटेंट के सामने पूरी दृढ़ता के साथ रखती है। ‘तुम देखते जाना’ शब्द महत्वपूर्ण हैं। ये शब्द ही बाद में अकाउंटेंट सिपहिया को बेचैन कर देते हैं। लेखक रचना का अन्त ‘गूंगा नाचता नहीं, जब नाचता है तो आंगन उखाड़ देता है’ मुहावरे से करके लघुकथा को और भी प्रभावशाली बना देता है। 
     ‘बेशर्म’ इस मायने में एक ताकतवर लघुकथा है कि यह रचना उन परित्यक्ता माँओं के बारे में अलग तरह से सोचने को प्रेरित करती है, जिनको बच्चों सहित घर से निकाल दिया जाता है। बच्चों के संरक्षण की विवशता में पुनर्विवाह या किसी पुरुष के साथ जीवन बिताने को गलत दृष्टि से देखा जाता है। इस परिदृश्य में यद्यपि परिवर्तन आया है लेकिन सोच के स्तर पर अभी भी काफी गुंजाइश है। चिड़िया के बार-बार भगाने के बाद भी उसी जगह घोंसला बनाने और पत्नी के साथ संवाद की प्रतीकात्मकता के माध्यम से कथ्य को संप्रेषित करना लघुकथा को प्रभावशाली बनाता है। नई पीढ़ी का बेटा माँ के लोहार के साथ जीवन बिताने की विवशता को अन्ततः उसकी संतान यानी अपने आप से जोड़कर देखने लगता है और अपनी गलती का अहसास करता है। बूढ़ी माँ को जिस कारण से चरित्रहीन मानकर घर से निकाल दिया था, उसी कारण से श्रद्धा से भर उठता है और उसे वापस अपने पास लाने का निर्णय करता है। यही तो है रचनात्मकता! लघ्वाकार में तार्किकता का समावेश प्रभावित करता है।
     ये लघुकथाएँ गठन और प्रस्तुति के स्तर भी संतोष प्रदान करती हैं। महादेविया जी में इन लघुकथाओं से भी आगे जाने की क्षमता है। जरूरत है कुछ चीजों के बारे में मुड़कर देखने की। जहाँ जरूरी है, एक जिम्मेवार लेखक के तौर पर रचनाओं के पुनर्लेखन का हौसला भी दिखाना चाहिए। दूसरे पहचान और योगदान- दोनों की दृष्टि से आज वह जिस मुकाम पर आकर वह खड़े हो चुके हैं, वहाँ अब संख्या बढ़ाने की बजाय  लघुकथा में चिन्तन की गहराई के साथ तकनीक और कलात्मकता के स्तर पर ध्यान दे सकते हैं। लघुकथा को सृजनात्मक स्तर पर जहां ले जाने की जरूरत है, उस रचनात्मक बिन्दु पर उनकी दृष्टि होने की अपेक्षा हम कर सकते हैं। प्रस्तुत हैं उनकी सन्दर्भित लघुकथाएँ।

कृष्णचन्द्र महादेविया की पाँच लघुकथाएँ 

प्रसव की पीड़ा
     ‘‘ओ थल्लू ओ थल्लू ठाकर....! भई तेेरे घर बच्चा आने वाला है, तेरी बीवी प्रसव पीड़ा में है।’’ तेल का कनस्तर सड़क पर रखते हुए कांसी तेली ने दस-बारह मजदूरों में काम करते हुए मजदूर को आवाज दी।
     देवदार वृक्षों से लदे पहाड़ की ढलान पर सड़क बनाने का कार्य चला हुआ था। कांसी तेली की आवाज सभी मजदूरों ने सुनी। थल्लू ठाकर तो काम करना छोड़कर वहीं बैठ गया और प्रसव होती महिला की तरह कराहने लग पड़ा। मजदूरों ने अपना काम रोक दिया और आनन-फानन में लकड़ी के मजबूत दो आठ-दस फुट डंडों में कम्बल से पालकी जैसी बना ली। फिर कराहते थल्लू ठाकर को पालकी में बिठाया और चार जन पालकी उठा उसे पहाड़ी की दूसरी तरफ उसके घर ले चले। बाकी मजदूर भी साथ हो लिए।
     अभी पाँच बजने को आधा घंटा शेष था। मौके पर मेट तो चुप रहा जबकि ओवरसियर तिल्ली पांडा उन्हें रोकता ही रह गया। जब मजदूरों ने उसके बोलने पर कान नहीं दिए तो उसने मेट से पूछा-
     ‘‘मिस्टर चावला, व्हाट इज दिस? ठीक-ठाक आदमी को उठाकर ले गए। बच्चा इसकी बीवी को होना है, और कराहता थल्लू ठाकर है!’’
     पांडा हैरानी के सागर में गोते लगाने लगा तो मेट ने गंभीर और उदास स्वर में कहा-
     ‘‘सर, अभी आप नए आये हैं देखते जाइए... सर, बढ़िया मेवे और दूध-घी पति खाएगा और प्रसवा पत्नी को मेवों की जूठन और कम सन्तुलित आहार...सर, कहाँ तो आज चाँद--मंगल पर बसने की बातें हो रही हैं तो कहाँ ये पहाड़ों की घाटी में बसे गाँव!... आज भी गुरु-चेला, झाड़-फूंक, अंधविश्वासों को मनाते, जात-पांत, छूत-छात में लिपटे, बकरों-भैंसों की बलि में कल्याण ढूंढ़ते और सड़े रीति-रिवाजों में लिपटे लोग! कहने को प्रगतिशील कहाते हैं। आँख के अन्धे नाम नयन सुख!’’
     ओवरसियर तिल्ली पांडा सिर पकड़कर वहीं बैठ गया।

नानी और धार
     ‘‘नानी, कल रैली में चल रही हो न?’’   
     ‘‘नब्बे वर्ष की उम्र में बेटा कहाँ जाऊँगी?.... पर ये तो बता, ये रैली कैसी है?’’
     ‘‘ताम्रधार बचाने के लिए, सीमेंट कारखाने के खिलाफ नानीजी।’’
     ‘‘अरे बेटा, सारी उम्र तो इस धार और जंगल के आँचल में काटा। इससे प्यार-दुलार रखवाल रहा। इसी से तो बिछावन-घास और लकड़ियाँ ढोई हैं।’’
     ‘‘जी नानी, इसी पहाड़ को बचाना है।’’
     ‘‘बेटा तब तो यहाँ भी दो पहाड़ी पार, उन कारखानों वाली धारों की तरह बम्ब फटेंगे, लोग-बाग, पंछी-पशु सब बेघर हो जाएँगे।’’
     ‘‘हाँ नानीजी, ऐसा ही होगा। बीमारी फैलेगी, पानी सूखेगा। कई तरह की गंदगी फैलेगी नानी।’’
     ‘‘तब तो रैली में हरगिज आऊँगी पुत्तर। आग लगे इस नासपीटे सीमेंट के कारखाने को। नरक में जाएँ लगाने वाले।’’ नानी ने गुस्से में कहा।
     अब नानी गाँव भर की औरतों के साथ लोक-गीत, हँसी-मजाक करते हुए ताम्रधार जाने के किस्सों में खो सी गईं। बेसिर चौहान नानी के जज्बे के आगे नतमस्तक हुआ, धार के प्रति उनके प्रेम के किस्से सुनने लग गया था।
क्षय रोग
    राज सिपहिया ठणदारी के पास जा-जा कर रजड़ी पंचायत की नई प्रधान श्रेष्ठा राणे दुःखी हो गई थी। वह जान चुकी थी कि विकासखण्ड कार्यालय का यह अकाउंटेंट उसे टरका रहा है, पर क्यों टरका रहा है वह समझ नहीं पाई थी। आज प्रधान राज सिपहिया के पास जाकर बैठ गई और मधुर स्वर में बोली-
     ‘‘अकाउंटेंटजी, मेरा चेक बना दें, कई दिन हो गए हैं मुझे आते-आते। अब तो लेबर भी मारने को तैयार खड़ी है।’’
     ‘‘हं...हं....ऽऽऽ वजन रखो न ऊपर से, तभी तो चेक कटेगा।’’
     ‘‘मैं समझी नहीं सिपहिया जी।’’
     ‘‘चेक काटने के लिए चढ़ती लगती है।’’ सिपहिया ने दाँत निकाले, जैसे मरी कुतिया के दाँत निकल जाते हैं।
     ‘‘श्रेष्ठा राणे का माथा ठनका, वह सब समझ गई। यह आदमी रिश्वतखोर है। वह नकली मुस्कान के साथ बोली- ‘‘कितना वजन रखूँ जी?’’।
     ‘‘मात्र एक हजार।’’ इधर-उधर देखते सिपहिया ने धीरे से कहा। फिर सीट पर पीठ टिका कर दोनों हाथ अंगड़ाई के अंदाज में ऊपर उठाकर दसों उंगलियों को खुली कर एक हजार का संकेत भी कर दिया।
     ‘‘एक हजार।’’ रजड़ी की प्रधान हैरान होती बोली।
     ‘‘मात्र एक हजार, वैसे तो दो हजार बनते हैं।’’ सिपहिया ने कपड़ा व्यापारी की तरह कहा। उसकी आँखों में चमक आ गई थी।
     प्रधान ने अपना पर्स देखा, उसमें ग्यारह सौ रुपए थे। उसने सोचा बार-बार के दौड़ने और चक्कर काटने से बेहतर है कि एक हजार सिपहिया के फसके में डाल दे। किंतु अचानक उसे ख्याल आया कि ऐसे तो इस आदमी का पेट बढ़ता जाएगा। हर बार फाइल पर वजन रखने को कहेगा। इसकी आदत को पोषित करना ठीक नहीं। रिश्वत के क्षयरोग से इस दफ्तर को मुक्ति दिलानी ही होगी। श्रेष्ठा राणे ने तेज और गंभीर स्वर में कहा- ‘‘सिपहिया, चेक तो आपको काटना ही पड़ेगा। मैं देखती हूँ आप और कितने चक्कर कटवाओगे। आपको एक हजार तो क्या मैं पच्चीस पैसे भी नहीं दूँगी। क्षयरोग फैलाने वाले आप जैसे कर्मचारियों के लिए मुझ जैसे प्रधानों को दवाई पिलानी ही होगी, तुम देखते जाना।’’
     सिपहिया ने घाघ प्रधानों तक को न छोड़ा था तो राणे किस खेत की मूली थी। एक बार तो वह उपेक्षा और अकड़ से हँस दिया। फिर एक अन्य महिला से श्रेष्ठा राणे की जिलाधीश से मिलने की बात सुनकर वह चौंक गया था। श्रेष्ठा राणे के तेवर और दृढ़ता भरे शब्दों से अब वह बेचैन हो गया था। गूंगा नाचता नहीं, जब नाचता है तो आंगन उखाड़ देता है।

बेटी का दर्द
     रत्नी कनैतण की बेटी स्कूल से लौटकर उसकी टाँगों से लिपटी रोती ही जाती थी। माँ के प्यार करने और पुचकारने का भी कोई असर न दिखता था बस एक ही रट लगाए थी- ‘‘बता न माँ, मेरा नाम क्यों नहीं रखा?... बिना नाम के क्यों रखा मुझे।... बिना नाम की क्यों रही मैं.... बता न माँ।’’
     रत्नी कनैतण का दिल भर आया। बेटी का जान-बूझकर कोई नाम न रखने का अपराधबोध उसे भीतर ही भीतर कचोटने लगा था। फिर भी वह तरह-तरह का प्रलोभन देकर एक बार बेटी को चुप कराने का प्रयत्न करने लगी, पर बच्ची रोती ही जाती थी। आखिर थक-हारकर रत्नी कनैतण उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोली- ‘‘बेटी, तुम्हारा नाम इसलिए नहीं रखा कि तुम्हारे बाद फिर बेटी पैदा न हो, बेटा ही हो। देख अब मेरे पेट में तेरा भैया है। नाम का क्या है तुम भी तो हमारी प्यारी बेटी हो न!’’
      ‘‘नहीं हूँ प्यारी बेटी, मेरा नाम रख दिया होता तो भैया नहीं आना था क्या?’’ रोने से चुप होकर बच्ची बाल सुलभ गुस्से में बोली।
     ‘‘हाँ, तुम्हारा नाम रख दिया होता तो भैया नहीं आना था। देवता के गुर ने यही कहा था और पूरे घर-गाँव में यह पक्का विश्वास है।’’
     ‘‘माँ ऽऽ! यदि आपके पेट में भैया नहीं दीदी ही होगी तो क्या उसका भी नाम नहीं रखोगी?’’ अपनी माँ की आँखों में झांकते बच्ची ने कहा।
     ‘‘चुप कर चुड़ैल, तेरा मुँह जले, अशुभ बोलती है रांड़।’’ रत्नी कनैतण लाल-पीली होकर एकाएक चिल्लाई। थप्पड़ मारने को उठा हाथ काँपती बेटी की कातर आँखों को देखकर उठा ही रह गया। बेटे की आशा में फिर पाँचवीं बेटी हुई तो उसका नाम? सोचकर रत्नी कनैतण अब काँपने लगी थी।

बेशर्म
     पिता द्वारा छोड़ी गई अपनी माँ का लोहार के साथ रहने का इतिहास जान लेने पर नौकरी लगे इकलौते बेटे ने अपनी वृद्ध माँ को घर से निकाल दिया था। स्वयं पत्नी के साथ किराए के बढ़िया मकान में मौज से रहता था।
     उसकी कपड़े की अलमारी के ऊपर चिड़िया के बनाए घोंसले को वह दो बार उखाड़ कर फेंक चुका था। किंतु चिड़िया तीसरी बार फिर तिनके लेकर वहाँ घोंसला बनाने में जुट गई थी।
     ‘‘देखो न रीतु, कितनी ढीठ और बेशर्म है ये चिड़िया, अब तीसरी बार फिर तिनके लेकर वहीं घोंसला बनाने में जुट गई है।’’
     ‘‘हाँ...! माँ बच्चों को पालने के लिए बेशर्म और ढीठ हो जाती है। ममता की मारी है न बेचारी माँ। रहने दो न इसे, बनाने दो घोंसला।’’ पत्नी ने अपने उभरे पेट को देखकर धीरे से कहा।
     पत्नी की बात सुनकर उसे करंट सा लगा और वह चिड़िया को घोंसला बनाते देखता रह गया। ढीठ और बेशर्म शब्द उसके भीतर तक तीर की भांति चुभ गए। उसने अब अपनी वृद्ध माँ को अपने पास लाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था।
  • कृष्णचन्द्र महादेविया, पत्रालय- महादेव, सुन्दरनगर, जिला मण्डी-175018(हि.प्र.)/मो.08988152163
  • डॉ. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम्, निकट बी.डी.ए.कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली, उ.प्र./मो.09458929004

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2016



।। कथा कहानी ।। 


लक्ष्मी रानी लाल



शिउली  
      शीतल मंद समीर चलने लगी थी। रोम-रोम इस अहसास से पुलकित होने लगा कि दुर्गा पूजा अब समीप है। बच्चे अपनी खरीदारी की सूची माता-पिता को थमा रहे थे तो युवाओं में अजीब गर्मजोशी थी। वे सब कुछ नवीन ढंग से मनाना चाहते थे। पुरानी प्रत्येक चीज से उन्हें बासीपन की गंध लगती। लेकिन अपनी संस्कृति एवं परम्परा से उन्हें बेहद लगाव होने की वजह से वे भी उसी रंग में डूब जाते।
      दूर्वा तालाब के किनारे बैठी जल में बिम्बित नीले आकाश को देख रही थी। तभी एक प्यारी-सी नन्हीं-सी चिड़िया का बिम्ब जल पर उभरा, जो मानो भ्रमित होकर इधर -उधर उड़ रही थी। शायद वह निर्णय लेने में अवश हो उठी थी कि किस दिशा में जाए। अचानक चिड़िया ने निर्णय ले लिया और इच्छित दिशा में बढ़ गई।
      जैसे शांत झील में कंकड़ आ गिरा हो, वैसे ही दूर्वा का मन भी उद्विग्न हो उठा। क्या प्रकृति और पशु-पक्षी से सीख लेना सार्थक हो सकता है। मैं अपने भविष्य को सँवारने का निर्णय ले लूँ। अब आत्मकेन्द्रित होकर अपने हित को सोचना भी आवश्यक है। कर्त्तव्यनिष्ठ होकर क्या प्राप्त हुआ?
      आज वह नितांत अकेली रह गई। पूजा की तैयारी वह किसके लिए करे? जिस निमाई की माँगों को पूरी करने में उसकी जिन्दगी खप गई, वह तो आज पत्नी के साथ दुर्गापुर में है। उसे कभी बांकुड़ा की याद भला क्योंकर आएगी, बांकुड़ा को याद करेगा तो बड़ी बहन को याद करने को विवश हो उठेगा, जिसने अपनी खुशियों को त्याग करके उसे अपने पाँव पर खड़ा होने लायक बना दिया था। उसके जीवन को बनाने के लिए जिस दीदी ने जतिन को निराश लौटा दिया था अब उसे याद करके लाभ ही क्या? जो कुछ अपनी दीदी से प्राप्त होने योग्य था सब कुछ तो उसने पा लिया। अब शेष क्या रह गया?
      निमाई शायद इस सत्य को नहीं जानता था कि बहनों के हृदय में भाइयों के लिए सदैव असीम स्नेह रहता है। उसे क्या पता कि जिस बहन को भाग्य के सहारे अकेली छोड़ वह पत्नी के साथ पूजा की तैयारी में निमग्न है, वही बहन स्मृति-पिटारा खोल उसे याद कर रही है। दूर्वा के सामने अतीत के वो सुखद पल जीवंत हो उठे, जो दोनों भाई-बहन ने एक साथ बिताए थे, ‘‘सुकू दीदी, पूजा में मेरे लिए कैसे कपड़े खरीद रही हो?’’ अपनी दीदी का आँचल थाम वह मनुहार कर बैठता। वह जानता था कि दीदी उसकी पसंद का सब कुछ खरीद कर देगी।
      माँ की याद इन्हें नहीं थी, क्योंकि इनके बचपन में ही उनकी मृत्यु हो गई थी। पिता ने दोनों भाई-बहन को बहुत ही यत्न से पाला। दूर्वा के ग्रेजुएशन करते ही लंबी बीमारी के बाद उनकी मृत्यु हो गई। दूर्वा के दुर्भाग्य का सूत्रपात उसी दिन हो चुका था जब उसके पिता बिस्तर पर गिरे थे। परिवार की सम्पूर्ण जिम्मेदारियाँ उसके निर्बल कंधों पर आ गिरीं। उसने ट्यूशन करके सारी जिम्मेदारियाँ निभाईं।
      अतीत के गलियारे में दूर्वा चक्कर लगा रही थी कि स्मृति-अर्गला को खोल जतिन झाँकता दिखाई दिया। उसकी याद एक सुवासित समीर-सी चारों ओर अपनी सुगंध फैलाने लगी।
      उस दिन वह शिउली के पेड़ के नीचे बैठ फूलों को चुनकर आँचल में भर रही थी, तभी एक बड़ी-बड़ी आँखों वाला अत्याकर्षक युवक उसके सामने होठों पर मुस्कराहट लिए आ खड़ा हुआ। उसने घबराकर अपनी पलकें झुका लीं। ‘‘कितना सुंदर शिउली का फूल।’’ युवक अक्समात कह उठा।
      ‘‘इसे देखूँ कि उसे।’’ अस्फुट स्वर उसके कानों से फिर टकराए।
      दूर्वा बेहद घबरा उठी। एकांत का लाभ उठाकर युवक कहीं कोई बदतमीजी न कर दे, यह सोचकर वह आँचल संभालती तेज कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ी। अपने ही कदमों की आहट से उसे भ्रम होने लगा कि कहीं वह युवक उसका पीछा तो नहीं कर रहा। उसकी साँस धौंकनी-सी चलने लगी।
      शिउली के फूलों की सुगंध से ही माँ दुर्गा के आगमन का संकेत लोगों को मिल जाता है। दूर्वा भी शिउली के रूप और खुश्बू से भाव विभोर हो उठती। शिउली के फूलों को चुनना उसकी दिनचर्या में शामिल था। चुने हुए फूलों में से कुछ को प्रतिदिन वह पूजा में चढ़ाती तो कुछ से अपनी मेज को सजाती। एक से एक कलात्मक अल्पना वह इन फूलों से बना देती। दिन भर शिउली की खुश्बू से मादकता छाई रहती। लेकिन आज की घटना ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया कि वह फूल चुनने जाए अथवा नहीं? शिउली से अत्यधिक प्रेम के आगे सारे तर्क चित्त हो गए।
      बहुत ही सतर्कता से वह चारों ओर देखती शिउली के वृक्ष के नीचे पहुँची। उसने अपने को आश्वस्त किया कि वह कोई राहगीर रहा होगा। वह अपने मुहल्ले के प्रत्येक व्यक्ति को पहचानती थी। अवश्य कोई बाहर से आया हुआ व्यक्ति होगा। आगंतुक चाहे जो हो पर उसने दूर्वा के मन में उथल-पुथल मचा दी थी।
      आहट होते ही वह अपनी सुराहीदार गर्दन को उठाकर चारों ओर एक बार अवश्य देख लेती। उसकी सुन्दर बड़ी-बड़ी आँखों में एक कौतूहल-सा जाग उठा। उस युवक ने जो कुछ फूल को लक्ष्य करके कहा था उसे वह भूलने में सर्वथा असमर्थ हो उठी। उस युवक की आँखें बेहद आकर्षक थीं। उसकी काली घनी बरौनियों को वह भी तो देखकर मुग्ध हो उठी थी। उसने अपने मन के चोर को पकड़ा। कल से वह तो उसी के बिषय में सोच रही है।
      फूलों से आँचल भरकर वह बड़े इत्मीनान से खड़ी हुई। चेहरे पर लटक आए बालों को सुंदर ढंग से लपेट लिया और घर की ओर चल पड़ी। अचानक उसकी दृष्टि सामने वाले सघन वृ़क्ष की ओर गयी, जिसकी छाया में वह युवक बैठा अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से अपलक उसे निहार रहा था। दूर्वा अनजान बनने का नाटक करते हुए तेजी से चल पड़ी। 
      घर पहुँचकर वह धम्म से सोफे पर जा आँखें बंद करके बैठ गई। वह बहुत देर तक उस नवयुवक के विषय में सोचती रही। उसे कोई अदृश्य डोर उसकी ओर खींचे लिए जा रही थी। उसे वह क्षणभर को ही तो देख पाई थी। पर ऐसा लगता मानों पहले भी कहीं देखा है। कब, कहाँ? वह सोचती रही। तभी उसके पिताजी हाथ में थैला लिए बाजार से लौटे।
      ‘‘सुकी, बोस बाबू का भांजा जतिन आज आएगा। अभी-अभी उससे मुलाकात हुई है।’’ सब्जियों से भरा थैला दूर्वा को थमाते हुए उसके पिता सरकार बाबू ने कहा। ‘‘...कौन...? जौतिन भैया...?’’ आश्चर्य मिश्रित हर्ष से दूर्वा ने कहा। दूर्वा ने हर्षातिरेक में घर की सफाई शुरु कर दी। उसके बचपन की यादें उसे आज अपनी ओर खींच रही थीं। बोस बाबू, जो कि उसके पड़ोसी थे, का भांजा जतिन गर्मी की छुट्टियों में सात साल पहले आया था। सभी लड़के-लड़कियाँ एक साथ खेलते थे पर जतिन और दूर्वा में खूब पटती थी। आज उसी बाल सखा के आगमन की बात सुन दूर्वा बेहद प्रफुल्लित व उत्साहित हो उठी।
      निमाई बी. ए. आनर्स की अपनी फाइनल परीक्षा की तैयारी में लगा हुआ था। पिताजी बरामदे में बैठे समाचार पत्र पढ़ रहे थे। तभी दूर्वा ने सुना पिताजी किसी से बातें कर रहे हैं। उन दोनों के वार्तालाप से उसने अनुमान लगा लिया कि जतिन दा आ चुके हैं। भीगे हाथों को अपने आँचल से पोंछती बहुत व्यग्रता से वह बैठक में पहुँची। सामने नज़र पड़ी तो वह प्रस्तर-सी खड़ी रह गई। उसके पिता जिस युवक को जतिन कहकर गले लगा रहे थे वह कोई और नहीं, वही युवक था जिसने दूर्वा की रातों की नींद उड़ा दी थी। उसकी आँखों में संकोच, हर्ष व आश्चर्य के भाव आने-जाने लगे। बहुत मुश्किल से वह अपनी पलकें झुका सकी।
      जतिन के होठों पर मंद-मंद मुस्कुराहट खेल रही थी। उसने दूर्वा के पिता को बताया कि उसने दूर्वा को पहले ही पहचान लिया था, जबकि दूर्वा ने उसे नहीं पहचाना था। संकोच ने दूर्वा के होंठ जकड़ लिए। उसे सहज होने में समय लगा। जतिन पहले की तरह ही दूर्वा के घर आने-जाने लगा। उसने दूर्वा के जतिन ‘भैया’ कहने पर आपत्ति जताई। सप्ताह भर में ही दोनों के बीच औपचारिकता की दीवार ढह गई।
      उस दिन लॉन पर ओस की बूँदें जमा थीं। भोर की पहली किरण फूलों पर बिखर रही थी। दूर्वा के पिता समाचार पत्र पढ़ने में लीन थे। तभी जतिन आया। अभिवादन करने के बाद बिना किसी भूमिका के उसने दूर्वा का हाथ उनसे माँगा।
     सरकार बाबू अचानक बुझ से गए। उनके ललाट पर क्षणभर को चिन्ता की रेखाएँ उभर आईं। मानो कह रही हों कि पालनहार को ही ब्याह दोगे तो खाना कौन खिलाएगा? बेटे की फाइनल परीक्षा की फीस कौन भरेगा? गृहस्थी की नैया के खेवनहार को दूसरे के हाथों सौंपकर क्या मंझधार में अपने डूबने का इंतजाम तो नहीं कर रहे? दूर्वा पर्दे के पीछ से खड़ी सब कुछ देख रही थी। उसे वास्तविक स्थिति का भान जैसे ही हुआ, उसका कर्तव्यबोध जाग उठा। उसके मन में झंझावात-सा उठा। वह स्वार्थ के वशीभूत कैसे हो गई? उसमें जीवन से जूझने का जज्बा कायम था। सत्य और यथार्थपरकता से वह मुँह कैसे मोड़ सकती है? हृदयगत पीड़ा को वह छिपाना जानती है। पिता का निरानंद भाव देख उसका सारा उत्साह ही निचुड़ गया।
      उमड़ते आँसुओं के सैलाब पर नियंत्रण रख उसने खुद ही ब्याह के प्रति अपनी विवशता प्रकट कर दी। पिता समझ गए कि आत्मजा ने उन्हें अपदस्थ होने से बचा लिया है। इन सब बातों के बावजूद उन्होंने दोनों को ब्याह करने की अनुमति दे दी। हताश व अवाक्-सा जतिन दूर्वा को देखने लगा। वह दूर्वा के पास आकर उसकी शून्य आँखों में इस समस्या का समाधान ढूँढ़ने लगा। तभी दूर्वा ने गुरुदेव की पंक्तियाँ धीरे से कहीं- ‘‘जिसकी चाहत होती है, उसकी प्राप्ति नहीं होती।’’ पिता ने कुछ सोच दूर्वा को पुनः समझाना चाहा पर वह अपने निर्णय पर दृढ़ चट्टान-सी अटल रही। जतिन की इच्छा हुई कि गुरुदेव की अधूरी पंक्तियों को वह पूरी कर दे- ‘‘जिसकी प्राप्ति होती है, उसकी चाहत नहीं होती।’’ लेकिन मौके की नज़ाकत को देख वह खामोश रह गया।
      कोलकता वापस जाने के वक्त जतिन विदा लेने पहुँचा था। अश्रुसिक्त आँखों से आशीर्वाद देकर सरकार बाबू ने उसे दूर्वा को मना लेने का आग्रह किया था। जतिन ने उन्हें आँखों ही आँखों में आश्वासन दिया था। नियति के आक्रोश को दोनों चुपचाप सह गए।
      संघर्ष के मार्ग पर दूर्वा पूर्व निष्ठा से चलने का निश्चय ले बैठी थी। दूर्वा और जतिन के बीच संवादहीनता की स्थिति बन गई थी। दिल की आवाज आँखों के माध्यम से मुखर हो उठी। समय के पाँव कभी रुकते नहीं। निमाई की नियुक्ति होते ही उसका ब्याह हो गया। उसकी नवविवाहिता पत्नी ने अलग रहने का निर्णय तुरंत ही सुना दिया। वृद्ध पिता एवं असहाय बहन को छोड़ दोनों अलग रहने चले गए। जब तक वह श्वसुर-गृह में रही, पिता-पुत्री ने कठोर यंत्रणा को भी नतमस्तक होकर निःशब्द झेल लिया। अपने शोक विह्वल हृदय की एक भी आशंका को चेहरे पर नहीं आने दिया। विषण्ण चित्त से पिता-पुत्री सब कुछ हँसकर झेल लेते। निमाई अपनी पत्नी से बेहद घबराता था। तर्जनी के आदेश से ही वह निमाई से सारे काम अपने मन के अनुरूप करा लेती। उन दोनों के गृह-त्याग के बाद परिवार में शमशान-सी शांति छा गई। दूर्वा के मस्तिष्क में यह विचार चक्कर लगाता कि अपनी हठधर्मिता की वजह से ही वह जीवन के इस मोड़ पर आ खड़ी हुई है।
      निमाई के गृह-त्याग के बाद सरकार बाबू बिस्तर पर जा गिरे। दूर्वा को देख उनका मन अपराध बोध से ग्रस्त हो उठता। दुर्वह स्मृतियों का बोझ उन्हें अवसादग्रस्त कर देता। अपने मन की व्यथा वह किसी से कह भी नहीं सकते थे। दूर्वा की निरीह मूर्ति को देख उनका मन करुणा से भर उठता। एक रात वे जो सोये तो फिर ना उठे। उनकी मृत्यु के बाद निमाई आया था। बहन से वह आँखें चुराता रहा। एक बार अपने साथ चलने को कहकर सिर्फ औपचारिकता निभाई। दूर्वा ने साथ चलने से इनकार कर दिया। 
      स्मृति-गह्वर में डूबी दूर्वा को समय का ध्यान नहीं रहा। उड़ते हुए पक्षियों के कलरव ने उसका ध्यान खींचा। सूर्यास्त हो रहा था पर अरुणिमा का का प्रकाश अब भी तेज था। अतीत की पगडंडी से लौटने के बाद उसका मन घर लौटने को नहीं हो रहा था। फिर भी थके-हारे कदमों से वह घर की ओर चल पड़ी।        
      एकांत के क्षणों में उसे जतिन की याद बेहद सताती। लेकिन उसने जतिन को तो अपमान की आरी से चीर दिया था। जतिन ने प्रत्यक्ष रूप से उस पर कभी रोष प्रकट नहीं किया, फिर भी अव्यक्त ग़म की छाया उसके चेहरे पर परिलक्षित होती रही थी। उसे कितना आहत कर दिया था उसने अपने एक निर्णय से। अपने हृदय में चाहतों की खुश्बू समेटे जतिन उसके पास विवाह का प्रस्ताव ही तो लेकर आया था। दूर्वा की माँ ने उसके विवाह में देने के लिए गहने रखे थे। वह विवाह में खूब सजेगी क्योंकि यह रुत श्रृंगार की होगी। उसका रूप श्रृंगार करने से दमक उठेगा। जीवन में एकबार रुत आती है श्रृंगार की। जतिन के मन के अनुरूप ही वह सजेगी। लेकिन उसने तो जतिन पर तुषारापात कर दिया। पिता तथा भाई को आर्थिक सहारा देने के लिए उसने प्यार, सर्वस्व त्याग दिया। शाम की उदासी बढ़ती ही जा रही थी। मन यादों के दायरे में चक्कर काटने लगा। जतिन के साथ बिताए सुखद पल उसे याद आने लगे। उसने तो कोई संपर्क सूत्र भी नहीं रखा है कि उससे बातें करे, क्या करे वह? कैसे इन यादों की चुभन को कम करे?
      मंदिर के ढ़ाक बजने की आवाज निरंतर आ रही थी। पड़ोस से शंख-ध्वनि सुनकर वह भी पूजा-गृह में चली गई। आज उसने सम्पूर्ण निष्ठा से ओत-प्रोत होकर शंख-ध्वनि की। अचानक द्वार पर दस्तक हुई। शंख को रखकर सधे कदमों से चलकर उसने द्वार खोला।
      आगंतुक को देख उसे लगा कि पुनः शंख-ध्वनि जोरों से हो रही है। कहीं उसे भ्रम तो नहीं? या कोई दिवा-स्वप्न तो नहीं? उसने मानों झकझोर कर स्वयं से प्रश्न किया। उसे भौंचक खड़ी देख जतिन उसके हाथ थामकर कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूँ।’’ दूर्वा को अपनी आँखों-कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। अचानक इतना सारा प्यार पाकर उसकी सिसकियाँ फूट पड़ीं। जतिन ने उसे अपने सीने से लगा लिया। मंदिर से ढ़ाक की आवाज तीव्रतर होती चली गई। उसे महसूस हुआ जैसे उन दोनों के ऊपर शिउली के फूलों की बारिश हो रही हो। अब रुत श्रृंगार की आ पहुँची थी।  
(शिउली - हरसिंगार)
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