अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 01-04, सितम्बर-दिसम्बर 2016
आचार्य देवेन्द्र ‘देव’
तीन गीत
हृदय को यह स्वीकार नहीं
प्रणय निवेदन करे,
हृदय को यह स्वीकार नहीं।
फिर भी कैसे कह दे-
‘हमको तुमसे प्यार नहीं’।।
पुरवाई जब-जब चलती है
घन घिर आते हैं।
प्यासे सरिता और सरों की,
तपन बुझाते हैं।
अधर चाहते अधरों का
कोई उपकार नहीं।।
प्रीति पगे तो अनायास ही
सुधा-कलश छलके।
आँखों से झलके।
प्राण सहेंगे आभारों का
किंचित् भार नहीं।।
चाहों के गीतों में
आहों का संगीत रहे।
भावुकता कहती है
‘मेरे प्रिय की जीत रहे’।
किन्तु, चाहता मानी मन
अपनी भी हार नहीं।।
कोई भला बताए
कोई भला बताए
क्यों मैं रहूँ उदास नहीं?
अपना दिल रह रहा आजकल,
अपने पास नहीं।
पगलाया-पगलाया फिरता,
जाने कहाँ-कहाँ?
खोज रहा मुमताज
मिलाने को यह शाहजहाँ।
शाहजहाँ को जबकि,
मिलन की कोई आस नहीं।
हिल-मिलकर झूला झूलें।
अपने ढँग से अपना-अपना,
आसमान छू लें।
वह तो रत्ना बनी,
किन्तु, मैं तुलसीदास नहीं।
किस्मत के उन पृष्ठों का,
कैसा कटना-फटना?
जिन पर विधि ने स्वयं लिखा हो,
‘पिऊ-पिऊ’ रटना।
बुझा सकी कोई बारिश,
चातक की प्यास नहीं।
यादों की गन्ध नहीं जाती
उलटे-पुलटे, धोये-पोंछे,
कर लाखों जतन लिये, लेकिन,
दिल की किताब के पन्नों से
यादों की गन्ध नहीं जाती।
जब कभी अकेले में होता,
मन सुधियों की गठरी ढोता।
स्वप्नों की पलकें खुल जातीं,
तो, चेहरा आँसू से धोता।
सो गया नियति का हरकारा,
चिट्ठी न अभी तक लाया है,
दिन-रात भेजती रहती हैं
ये आहें लिख-लिखकर पाती।
मेरे प्रिय की बातें करती
मैना तोते के कानों में।
जिनको सुनने नभ से बादल
मेरे भी कान लगे रहते
हर एक घड़ी, हर एक निमिष,
पूरे दिन चैन नहीं मिलता,
रातों को नींद नहीं आती।
‘अच्छी होती है कभी-कभी
क़िस्मत की आँख-मिचौली भी।
पक कर मीठी हो जाती है
कड़वे नीम की निबौली भी।’
जब कभी झुलसने लगता है
मन खुद के अन्तर्दाहों से,
तब कोई गौरैया आकर
यह कहकर मुझको समझाती।
- ‘माल-द्वीप’, 44, उमंग, भाग-2, महानगर, बरेली-243006 (उ.प्र.)/मोबा. 09412870495
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