आपका परिचय

मंगलवार, 26 मार्च 2013

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : मार्च 2013

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 7,  मार्च  2013

संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09412842467)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 

शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के "अविराम का प्रकाशन" लेवल/खंड में दी गयी है।

।।सामग्री।।

छाया चित्र : रोहित काम्बोज 


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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत:    इस अंक मेंसर्व श्री राजकुमार कुम्भज, शिवानन्द सिंह सहयोगी, डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’, राजमणि राय ‘मणि’, विजय कुमार पटीर, उदय करण ‘सुमन’, मु. मुजीब ‘आलम’, राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’ व विवेक चतुर्वेदी की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ   {कथा प्रवाह} :  इस अंक में डॉ.सतीश दुबे, पारस दासोत, श्यामसुन्दर अग्रवाल, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ व रतन चन्द्र रत्नेश की लघुकथाएं।

कहानी {कथा कहानी  पिछले अंक तक अद्यतन।

क्षणिकाएँ  {क्षणिकाएँ:   डॉ. मिथिलेश दीक्षित व रामस्वरूप मूँदड़ा की क्षणिकाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक में डॉ. उर्मिला अग्रवाल के दस तांका ।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:  पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’ के पाँच जनक छंद।

बाल अविराम {बाल अविराम: डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ की बाल-कहानी एवं ‘फैज’ रतलामी की कविता। नए बाल चित्रकार- स्तुति शर्मा, राधिका शर्मा, मेहुल कैंथोला व वैभव कैंथोला।
हमारे सरोकार  (सरोकार) :   पिछले अंक तक अद्यतन।

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:    पिछले अंक तक अद्यतन।

संभावना  {सम्भावना:   इस अंक में विष्णु कुमार शर्मा 'कुमार' अपनी एक कविता के साथ

स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण:  पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

किताबें   {किताबें} :  इस अंक में रामेश्वर काम्बोज’हिमांशु’, डॉ भावना कुँअर, डॉ हरदीप सन्धु सम्पादित चर्चित हाइकु संकलन "यादों के पाखी" की  डॉ अर्पिता अग्रवाल द्वारा लिखित तथा वरिष्ठ कवयित्री डॉ सुधा गुप्ता के पर्यावरण विषयक हाइकु संग्रह "खोई हरी टेकरी" की डॉ ज्योत्सना शर्मा द्वारा लिखित समीक्षायें

लघु पत्रिकाएँ   {लघु पत्रिकाएँ} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

हमारे युवा  {हमारे युवा} :   पिछले अंक तक अद्यतन।

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।
अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) : पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} :  अविराम साहित्यकी के जनवरी-मार्च 2013 मुद्रित अंक  में प्रकाशित सामग्री की सूची तक अद्यतन।

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 26 मार्च  2013  तक बने आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : पिछले अंक तक अद्यतन।

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मेरा पन्ना 
  • मित्रो, होली की हार्दिक शुभकामनायें! 
  • आगामी कुछ महीनों में मेरी व्यक्तिगत व्यस्तताएं कुछ अधिक रहने के कारण ब्लॉग के अंकों में कुछ स्तंभों में सामग्री नहीं जा सकेगी; पर जैसे भी बन पड़ेगा, अंक नियमित रखने का प्रयास रहेगा।
  • क्षणिका विशेषांक के लिए सामग्री भेजने का आग्रह एक बार पुन: दोहरा रहा हूँ। जिन मित्रों न्र सूचना न पढ़ी हो, वे निम्न लिंक पर क्लिक करके पिछले माह के सम्पादकीय पृष्ठ पर जाकर जानकारी ले सकते हैं-http://aviramsahitya.blogspot.in/2013/02/2013.html
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अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 7,  मार्च  2013

।।कविता अनवरत।।

सामग्री : इस अंक मेंसर्व श्री राजकुमार कुम्भज, शिवानन्द सिंह सहयोगी, डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’, राजमणि राय ‘मणि’, विजय कुमार पटीर, उदय करण ‘सुमन’, मु. मुजीब ‘आलम’, राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’ व विवेक चतुर्वेदी की काव्य रचनाएँ।



राजकुमार कुम्भज





और यदि यक़ीन करो तो....

एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
दूरियां बहुत थीं, दूरियां बहुत हैं, देखते जाइए
मैंने मेरा कहा, जिस भी पक्ष में था मैं
उसने उसका कहा, जिस भी पक्ष में था वह
किंतु, वह क्या, कहां, जो सबका?
किंतु, वह क्या, जो कहे दुःख सबका?
किंतु, वह क्या, कहां, जो कहे यातना सबकी?
यातना सबकी कह नहीं पाया है कोई
यातना सबकी कह नहीं पाया है कभी कोई
यातना सबकी कह पाया है कब कोई
मैं प्रश्न-पुंगव नहीं हूं
लेकिन, मुझे प्रश्न करने दो
रेखा चित्र  : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 

मैं प्रश्न करने की आजादी चाहता हूं
मैं प्रश्न करने की आजादी का समर्थक
कहिए, कहिए चाहे जितना
ज़ोर देकर कहिए कि एक अकेली आवाज़
बहुमत का लोकमत बड़ा है
जो अपना गंडासा लिए लोक-समक्ष खड़ा है
और अनायास-अनायास ही जाते हुए
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
छोड़ते हुए संकल्प
कहते हैं कि बहुत कहा फिर भी कम कहा
अंडा-मुर्गी का विवाद व्यर्थ है
मुर्गी से ही निकलते हैं चूजे
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
मान-सम्मान खुद का ही घटता है
और यदि यकीन करो तो....


सिर्फ एक ज़रूरी धुन है

एक धुन है, एक मैं हूँ
और कि अपनी ही धुन में
मैं जा रहा हूँ
और कि अपनी ही धुन में
मैं आ रहा हूँ
पता नहीं मैं आ रहा हूँ
कि जा रहा हूँ
पता नहीं मैं जा रहा हूँ
कि गा रहा हूँ
माना कि धुन अपनी ही है
माना कि मैं आ रहा हूँ, जा रहा हूँ
और गा रहा हूँ
क्योंकि मैं, मैं हूँ
एक धुन है, एक मैं हूँ
एक पत्थर है और मैं राग हूँ
एक बर्फ है और मैं आग हूँ
पता नहीं मैं जा रहा हूँ कि आ रहा हूँ
रेखा चित्र  : राजेन्द्र परदेशी 

सिर्फ़ एक ज़रूरी धुन है
मेरे पास


किसी कोने में पड़ा रहा

वही रातें, वही बातें
छुपी हुई थीं जिनमें किसिम-किसिम की घातें
घातें बड़ी पुरानी, प्राचीनकाल की
और मैं अकेला निर्मल, निर्बल
जानता ही नहीं ज़रा भी षड़यंत्र
सब्जी-भाजी में डूबा
नून, तेल, नमक, ईंधन में डूबा
दूध-दूध, पानी-पानी करते डूबा
मेरा क्या है एक ख़ाली बोरा मुड़ा-तुड़ा
किसी कोने में पड़ा रहा

  • 331, जवाहर मार्ग, इन्दौर-452002, म.प्र.


शिवानन्द सिंह सहयोगी




{सहयोगी जी का गीत संग्रह ‘घर-मुँडेर की सोनचिरैया’ वर्ष 2011 में प्रकाशित हुआ था। अर्न्तमन की घनीभूत पीड़ा को समेटे कई मार्मिक गीत इस संग्रह में संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से दो गीत।}


मैं गीत लिखता रह गया

टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
छूट सब अपने गये मैं गीत लिखता रह गया

आँधी उठी उस वक्त की कितनी भयानक थी
जो मौन व्रत धारण किये आई अचानक थी
एक झटके में हिमालय सा सहारा ढह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
छाया चित्र : रोहित कम्बोज 


उस रात की हर बात में कितनी सचाई है
जो साँस गिनती आस ने रो-रो बताई है
छोड़ देगी सन्निधि सच सितारा कह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया

कलम अब उद्गीत होकर गा रही बातें सभी
उस नयन की धार की जो सह गईं रातें कभी
हाल अपने कागजों से रो इशारा कह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया

साठ से पहले गई सठिया सुहानी जिन्दगी
ढूँढ़ने कोई लगी मठिया सुहानी जिन्दगी
जोड़ना क्या, क्या जुटाना, है यहाँ क्या रह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया


इक इकलौता सपन सलोना

इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
काले कुछ घनघोर घनों की छाया छोड़ गया

आई कई लकीरें हैं वय की दीवारों में
कीलें कई नुकीली हैं मन के उद्गारों में
गुमसुम हैं सारे प्रयास के जो भी हैं अवसर
दो साँसों की माला को हकलाता तोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया

रिश्तों को भी जंग लग गई ताने देते हैं
कागों की करकस बोली में बाने देते हैं
कुछ भी कहना नहीं जानती बेजबान बोली
छल असमय में असह कुटिलतम नाता जोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 


आँखों में आँसू की केवल सरिता बहती है
हृदय द्रवित होता है जब-जब कविता बहती है
दर्द भरे गीतों में केवल अपनी यादों का
झरना कोई दुखदाई नित गाता छोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया

कहनों का कुछ असर नहीं है दूरभाष रोये
घंटी कुढ़ती रह जाती है कान कहीं सोये
अंतहीन इस अड़चन की सीमाएँ कुछ होंगी
मधुर मिलन की आशा की अभिलाषा तोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया

  • ‘शिवाभा’, ए-233, गंगानगर, मवाना मार्ग, मेरठ-250001 (उ.प्र.)



डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’

सभ्यता धन से प्रभावित है

आदमी कब आह्लादित है
रेखा चित्र  : मनीषा सक्सेना 

वासनाओं से पराजित है

एकता के नाम की क्षमता
जाति-वादों में विभाजित है

नीतियाँ केवल नहीं दोषी
यज्ञशाला तक विवादित है

आस्था अब धर्म में है कम
सभ्यता धन से प्रभावित है

देश हित में जो मरे उनका
हर हृदय में नाम अंकित है

यदि हवाओं पर चलेंगे आप
आपका गिरना सुनिश्चित है

तुम अकेले ही नहीं ‘सागर’
आज सारा विश्व भ्रमित है

  • बकाई मंजिल, रामपुरा, जालौन (उ.प्र.)



राजमणि राय ‘मणि’




गीत

बादल तो गरजता है
बारिश ही नहीं होती।
सब लोग कहा करते बादल में भी है मोती।

बादल है वही अब भी
जो पहले भी दिखते थे
वह बात न लिखते अब
हम पहले जो लिखते थे
धरती माँ है! माँ से बढ़कर वह क्या होती?

बिन चांद के सूरज के
माटी बस माटी है
ले दे कर जीना ही
जीवित परिपाटी है
लगती अब साड़ी-सी यह कोरदार धोती!
रेखा चित्र  : बी मोहन नेगी 


जो हम थे वह न रहे
हम खुद ही बदल गए
कुछ पश्चिम से लाकर
पूरब में फिसल गए
आँखों में अब ना रही जो थी पहले जोती।

कुछ बात करें ऐसी
जिस बात से बात बने
इस रिमझिम में क्या है
झमझम बरसात तने
आबाद रहेंगे तब सबके पोता-पोती।

  • ग्राम-पोस्ट: उत्तरी धमौन पट्टी, वाया महनार, जिला: समस्तीपुर (बिहार)


विजय कुमार पटीर






आओ खेलें रंग





रंग  बिरंगी  होली  आई,  आओ  खेले  रंग।
छोड़ सखी! आज लाज शर्म सब, मिल जा साजन संग।।

मार-मार पिचकारी सबको, कर दे तू बेहाल।
चाहने वाले के गाल पर, मल दे लाल गुलाल।।

तू  है  राधा  सोने जैसी,  मैं बदन घनश्याम।
दोनों मिलकर आओ खेलें, हो ना जाये शाम।।
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 


देखकर होली में अकेला, करो नयन से वार।
रूठा यार मना ले जानी, दिल पर कर बौछार।।

भीगकर  रसिये  के रंग में,  हुई  दिवानी  आज।
इस अलबेली ने देकर दिल, खोल दिये सब राज।।

फागुन में झंकार उठे हैं,  ढोल मजीरे चंग।
खेल-खेल में भीगी साड़ी, कुर्ती हो गई तंग।।

  • राजकीय छात्रावास के सामने, वार्ड नं.11, रावतसर-335524, जिला हनुमानगढ़ (राज.)



उदय करण ‘सुमन’




ग़ज़ल

इक छोटा सा है सवाल बाबा
घर-घर में है क्यों वबाल बाबा

भोला सा नजर आता है, क्यों है
वो भी गुरुघंटाल बाबा

नेता तो कुबेर हो गये किंतु
जनता क्यों है फटेहाल बाबा

सज्जन लोग भी चलने लगे क्यों
छाया चित्र : अभिशक्ति 

अब हिंसक भेड़िया चाल बाबा

देवी पूजक भी कन्याओं के
बन गये क्यों क्रूर काल बाबा

क्यों संसद में घुस गये गुण्डे
चोर, डाकू और दलाल बाबा

क्यों सरकार भी चलने लगी अब
शिखन्डी शकुनियों की चाल बाबा

देश के रहबरों ने भी ओढ़ ली
क्यों गिरगिटों की खाल बाबा

  • सुमन सेवा सदन, रायसिंह नगर, जिला: श्री गंगानगर (राज.)



मु. मुजीब ‘आलम’

......आचमन की बात करते हैं

हमारे रहनुमा क्या बाँकपन की बात करते हैं
बढ़ाकर देश में नफरत अमन की बात करते हैं

वतन की आबरू के वो हमें लगते हैं अब दुश्मन

सुरा पीकर जो लीडर गुल बदन की बात करते हैं

उसूलों की हुआ करती है अपनी एक मर्यादा
समुन्दर कब नदी से आचमन की बात करते हैं

न खाली कर सके अमृत कलश वो एकता रूपी
सदा से देश में जो विष-वमन की बात करते हैं
रेखा चित्र  : महावीर रंवाल्टा 

किसी दुश्मन से दुश्मन की नहीं है दोस्ती मुमकिन
अँधेरे रौशनी से कब मिलन की बात करते हैं

हँसी आती है ‘आलम’ को मुखौटे देखकर उनके
लगाकर आग घर में जो शमन की बात करते हैं

  • छोटी मस्जिद, रामपुरा-285127, जालौन (उ.प्र.)



राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’

मौसम

बिन मौसम मुस्काए मौसम
हमें तभी तो भाए मौसम

अरमानों की सेज सजी है
दुल्हन सा शरमाए मौसम
छाया चित्र : उमेश महादोषी 


आए जब सजनी के घर से
शुभ संदेशा लाए मौसम

तरस गया है तन पानी को
मन-धरती पर छाए मौसम

बरस रहा है कतरा-कतरा
खुद से ही कतराए मौसम

देह दहकती जब शोले-सी
‘राज’ हवा बन जाए मौसम

  • भारतीय खान ब्यूरो, सेक्टर-9, हिरण मगरी, उदयपुर-313002(राज.)



विवेक चतुर्वेदी




ग़ज़ल

क्या बात हो गयी है कोई पूँछता नहीं।
इन उलझनों में कुछ भी नया सूझता नहीं।

दोहराऊँ बार-बार फसाने को किस लिए
जो याद कर लिया मैं उसे भूलता नहीं।

बेदम पड़ी हुयी हैं गिगाहों के सामने
रेखा चित्र  : हिना फिरदोस 
इन हसरतों में जान कोई फूँकता नहीं।

लगता है तुमको और वफादार मिल गये
वर्ना ये ऐतबार यूँ ही टूटता नहीं।

वैसे हैं ज़माने में पराये भी अपने से
इज्ज़त उतारने में कोई चूकता नहीं।

  • 164/10-2, मौ.बाजार कला, उझानी-243639, जिला बदायूँ (उ.प्र.)

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2,  अंक : 7,  मार्च  2013 

।।कथा प्रवाह।। 

सामग्री : इस अंक में डॉ.सतीश दुबे, पारस दासोत, श्यामसुन्दर अग्रवाल, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ व रतन चन्द्र रत्नेश की लघुकथाएं।


डॉ. सतीश दुबे 





विनियोग
     मार्केटिंग करते हुए मैं पूरे रुपए खर्च कर चुका था, किंतु आठ वर्षीय बंटी ने अपने पचास पैसे सुरक्षित रख छोड़े थे। प्लास्टिक के खिलौने लेने से उसने इन्कार कर दिया कि कोई भी पैर रख देगा तो टूटकर चूरदृचूर हो जाएंगे। कागज के फूलों से सजे हुए छोटे गमलों पर उसका मन रीझा, किंतु एक क्षण बाद यह कहकर टाल दिया कि धूल लगने से फूल जल्दी गंदे हो जाएंगे। फुटपाथ पर सीप से बनी हुई बत्तखों की दुकान लगी थी, ‘‘बीस पैसे की एक....।’’
     मैंने कहा, ‘‘चालीस पैसे का जोड़ा ले लो.....।’’
     उसने उसकी बनावट को देखा तथा फैसला दिया, ‘‘एराल्डाइट की एक शीशी यदि आप ला देंगे तो मैं ही बना लूँगा, सीपी तो मेरे पास रखी है।’’ पत्रिका-विक्रेता की दुकान पर बच्चों की पत्रिकाएं सहज रूप में मैंने उठाई ही थीं कि वह बोल पड़ा, ‘‘कॉलोनी के वाचनालय में सभी पत्रिकाएं आती हैं, खरीदने से क्या फायदा?’’
     पैसों के प्रति बच्चे के इस मोह से मुझे झुंझालहट हो रही थी। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह शिक्षा उसे अपनी पाठशाला में मिल रही है। उसकी मम्मी भी जोड़-तोड़ के साथ पैसा खर्च करती है। सोचा, घर पहुँचते ही सबसे पहले इसी विषय पर चर्चा हो। मैंने शीघ्र पहुँचने के लिए पैर बढ़ाने चाहे, बंटी से भी कहा, ‘‘जल्दी चलो, हम लेट हो रहे हैं।’’ किंतु बंटी मेरी बगल वाली साइड में नहीं था।
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 


     मैं हक्का-बक्का रह गया, पसीने से तर-बतर। घर पहुँचने पर कोहराम, हाथ थामकर नहीं चलने के लिए स्वयं को प्रताड़ना, पुलिस थाने में रिपोर्ट करने से लेकर पेपर में सूचना देने तक की तमाम योजनाएँ एक के बाद एक उठने लगीं। मस्तिष्क जोरों से चकराने लगा। तभी खयाल आया कि क्यों न पीछे चलकर उसे खोज लिया जाए। मुड़ा ही था कि देखा, बंटी दौड़ता हुआ चला आ रहा है। मेरे निकट कुछ सहमकर वह खड़ा हो गया। मैंने डांटते हुए कहा, ‘‘कहाँ खड़े रह गए थे, जल्दी नहीं चलते, कहीं गुम हो जाते तो?’’
     मेरी झल्लाहट को समझते हुए नीचा मुँह करके वह धीरे से बोला, ‘‘पापा जी, वह जो लड़का था न, काला-कलूटा, गंदे कपड़े पहने, उसे भूख लगी थी, पचास का सिक्का मैं उसे दे आया।’’
     ‘‘पागल हो, ये लोग इसी प्रकार बहाने बनाकर झूठ बोलते हैं और राहगीरों को ठगते हैं।’’
     ‘‘लेकिन उसका पेट भरा नहीं था, मुझसे उसने कहा कि कल से उसे खाने को कुछ नहीं मिला है।’’
      दया की आर्द्रता से वह भीगता जा रहा था, उपदेश देने के लिए मेरे पास शब्द चुक रहे थे। हलका होकर मैं चुपचाप उसका हाथ थामे आगे बढ़ गया। मुझे लगा, ‘‘बच्चे को शाबाशी देकर उसके काम की प्रशंसा करनी चाहिए, किंतु शब्द मेरे गले में अटककर रह गए। 

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)



पारस दासोत




{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार श्री पारस दासोत की प्रतीकात्मक लघुकथाओं का संग्रह ‘यथास्थितिवाद के खिलाफ मेरी लघुकथाएँ’ वर्ष 2012 में प्रकाशित हुआ है। यथास्थिति की पपड़ी को तोड़ते हुए संघर्ष एवं सकारात्मक दिशा बोध देतीं इन्हीं लघुकथाओं में से प्रस्तुत हैं दासोत जी की दो लघुकथाएँ।}


अन्तरदेशिया बाई

     नवगई गाँव में,....
रेखा चित्र : नरेश उदास 
     अभी अन्तरदेशिया बाई ने, ‘हल को छूने की सजा’ भोगने के लिए हल में बैल के साथ जुतकर, हल को दो कदम भी न चलाया होगा, गाँव वालों को, जमीन में से एक तलवार निकलती हुई दिखाई दी।
    इससे पहले,
    गाँव वाले तलवार को उठाने हेतु, बढ़ते, वह हल के जुए  को अपने कन्धे पर से हटाती हुई दहाड़ी-
    ‘‘ठहरो! ठहरो ऽ ऽ! लो मैंने छू ली तलवार! सुनाओ ऽ ऽ! मुझको सजा सुनाओ! मैं तलवार भी चलाने को तैयार हूँ।’’



सामूहिक नृत्य

    एक कमरे में,....
    कुछ चूहे उछल-कूद कर रहे थे, बिल्ली आ गयी।
    चूहों ने, बिल्ली को देखते ही, अपने कृत्य को शीघ्र ही सामूहिक नृत्य में बदल दिया। यह देखकर, बिल्ली की आँखें लाल हो गईं।
     कुछ ही क्षणों बाद,
     बिल्ली ने, जैसे ही एक चूहे को अपने पंजे में दबोचा, साथी चूहे बिल्ली पर उछलने-कूदने लगे।
     कोई चूहा, बिल्ली पर पेशाब, तो कोई पोटी कर रहा था।
     ऐसा माजरा, बिल्ली ने कभी सपने में भी नहीं देखा था और न ही कभी सोचा था, सो उसकी पकड़ चूहे पर ढीली क्या, छूट गई।
     अगले क्षण,
     बिल्ली, कमरे के बाहर निकलकर भाग रही थी और सभी चूहे उसके पीछे दौड़ रहे थे।

  • प्लाट नं.129, गली नं.9 (बी), मोती नगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-21




श्यामसुन्दर अग्रवाल





बीच के लोग 

      कन्या के पिता ने कमरे में फैली खामोशी को भंग किया, “आजकल तो जी लड़की की शादी करना सबसे कठिन काम है। अब देखो न, हमारी सुरेखा में कोई कमी नहींदृ एम.ए. किया है, सुंदर है, सभी गुण हैं। कभी किसी ने ंदेखकर नापसंद नहीं किया। लेकिन बात हर बार दहेज को लेकर ही टूट जाती है। हम गरीब आदमी भला मुँह-मांगा दहेज कहाँ से दे सकते हैं!३आप जैसे दहेज की इच्छा न रखने वाले तो बहुत सौभाग्य से ही मिलते हैं।”
रेखा चित्र : डॉ  सुरेन्द्र वर्मा 

     देखने-परखने के बाद जब लड़के तथा उसके परिवार वालों ने सुरेखा को पसंद कर लिया तो सुरेखा के पिता ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “डॉक्टर साहब, मैं एक बार फिर निवेदन कर रहा हूँ कि मैं अमीर आदमी नहीं हूँ। अधिक दहेज देना मेरे वश में नहीं है। दहेज के विषय में आपकी कोई विशेष शर्त हो अभी बता दीजिए।”
     लड़के के पिता ने कहा कुछ गंभीर होते हुए कहा, “हमारी तो बस एक ही शर्त है कि हम दहेज में एक पैसे की वस्तु भी नहीं लेंगे और शादी भी साधारण ही करेंगे।”
     सुरेखा के पिता को जैसे झटका लगा, “यह आप क्या कह रहे हैं, डॉक्टर साहब! हम इतने गरीब तो नहीं कि अपनी बेटी को बिना दहेज के ही विदा कर देंगे। इससे तो हमारी इज्जत ही मिट्टी में मिल जायेगी।”
     और बात एक बार फिर दहेज के विषय पर ही टूट गई।

  • 575, गली नं.5, प्रतापनगर, पो.बा. नं. 44, कोटकपूरा-151204, पंजाब         




राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’





{कवि-कथाकार राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ जी का लघुकथा संग्रह ‘बात करना बेकार है’ वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ था। मानव जीवन की विसंगतियों और संवेदनाओं को लक्ष्य करती कई अच्छी लघुकथाएं इस संग्रह में शामिल हैं। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो लघुकथाएँ।}


देश का भविष्य

     समाचार पत्र के मुख पृष्ठ पर एक चित्र छपा था। एक अबोध और मासूम बालक हाथ में मशीनगन लिये निशाना साध रहा है, और नीचे लिखा था- ‘‘मैं आतंकवादी हूँ।’’
    चित्र देखकर मेरे आठ वर्षीय पुत्र ने अपनी कलर की डिबिया खोली, और अपने निर्दोष हाथों से मशीनगन को पार्श्व के रंग से ढककर बोला- ‘‘पापा, मैंने बच्चे के हाथ से मशीनगन छीन ली है।’’
    ‘‘बहुत अच्छा किया, बेटा। अब नीचे लिखे शब्द भी मिटा दो।’’
छाया चित्र : उमेश महादोषी  
    बेटे ने ब्रश उठाया और नीचे लिखे शब्द मिटा दिये। कुछ सोचकर मैंने बेटे के हाथ से ब्रश लिया और चित्र के नीचे लिखा- ‘‘मैं देश का भविष्य हूँ।’’


 भूख और मनुष्य

     वैद्यजी ने सलाह दी- ‘‘ठीक होना है तो भूख से एक रोटी कम खाओ।’’
     ‘‘एक रोटी कम खाने से मैं ठीक हो जाऊँगा?’’
     ‘‘सौ प्रतिशत। भूख जिन्दा रहेगी तो तुम भी जिंदा रहोगे।’’
     ‘‘समझ गया वैद्यजी। भूख और मनुष्य एक दूसरे के पूरक हैं।’’

  • एलआईजी-2-14, सांदीपनी नगर, उज्जैन-456006 (म.प्र.) 


रतन चन्द्र रत्नेश 






एक फैसला

  गाँव से रवि अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आया। तकरीबन एक वर्ष पूर्व उसका विवाह हुआ था। गाँव में ही। हम भी उसके विवाह में शामिल हुए थे। पत्नी के साथ वह पहली बार शहर आया था।
    मैंने कहा, ‘‘क्यों रवि, आखिर भाभी जी को शहर दिखाने ले ही आए?’’ वह मुस्कराया।
    ‘‘हाँ, शहर भी देख लेंगे और जिस काम के लिए आये हैं, वह भी हो जायेगा। एक पंथ दो काज।’’
    ‘‘क्या काम है भाई, कोई खास? मुझे नहीं बताओगे?’’
    उसकी पत्नी उठकर रसोई में चली गई, जहाँ मेरी पत्नी हमारे लिए चाय बना रही थी।
    रवि ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘यार, तुम्हारी सहायता के बिना तो वह खास काम होने से रहा। मुझे तो शहर और डाक्टरों के बारे में अधिक पता नहीं है। तू तो जानता है कि अपनी जिंदगी गाँव और अपने पुश्तैनी दुकान के आस-पास तक ही सीमित रही है।’’
    मैंने कहा, ‘‘खुलकर कहो भई। तुम तो पहेलियाँ बुझाने लगे।’’
     वह कहने लगा, ‘‘यार, तुम्हारी भाभी का पाँव भारी है। आजकल ‘टेस्ट’ की बड़ी चर्चा सुनी है, पर साथ ही यह भी पता चला है कि प्राइवेट क्लीनिकों में यह काम अब चोरी-छुपे हो रहा है क्योंकि सरकार ने गर्भस्थ शिशु के लिंग जाँच को अवैध घोषित कर रखा है। हम भी जानने के इच्छुक हैं कि गर्भ में लड़का है या लड़की?’’
     मैं सुनकर दंग रह गया। इसका अर्थ यह है कि यह ‘बीमारी’ सुदूर गाँव तक को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है।
     मैंने सहज भाव से कहा, ‘‘परिणाम जानने की इतनी उत्सुकता क्यों? सब्र से काम लो।’’ भ्रूण-जाँच करवाकर अपनी स्वाभाविक प्रशन्नता का गला क्यों घोंट रहे हो?’’
    ‘‘दरअसल हम चाहते हैं कि लड़की हो तो गर्भ गिरा दें।’’ उसने कुछ झेंपते हुए कहा।
    मेरी आवाज थोड़ी तल्ख हो गई, ‘‘तुम गंवार के गंवार ही रहे। अब क्या लड़का-लड़की में भेद रह गया है बल्कि लड़कियाँ लड़कों से कहीं अधिक सुख दे रही हैं....।’’
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 

    ‘‘सो तो ठीक है पर.....’’ वह सिर खुजाने लगा।
    अंत में निराश होकर मैंने कहा, ‘‘जैसी तेरी इच्छा, पर मैं तुझे किसी भी क्लीनिक का पता देने वाला नहीं। मुझे क्यों पाप का भागी बना रहे हो? जितने दिन चाहो, आराम से रहो, पर क्लीनिक की तलाश तुझे स्वयं करनी पड़ेगी। हाँ, मेरी बात याद रखना। कुदरत के खिलाफ कोई कदम उठाया तो तेरी आत्मा सदा तुझे दुत्कारती रहेगी।’’
    दूसरे दिन प्रातः रवि अपनी पत्नी से कहने लगा, ‘‘प्रतिमा, चलो गाँव लौटने की तैयारी करते हैं।’’
    मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
    ‘‘क्यों मेरी बात का बुरा मान गए?’’
    उसने कहा, ‘‘नहीं यार, तूने तो मेरी आँख खोल दी। हमें जाँच नहीं करवानी। जो संतान हमें ईश्वर प्रदान करेगा, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।’’
    ‘‘रात भर में यह परिवर्तन....?’’ मैंने उत्सुकता से पूछा।
    ‘‘बस समझो, हमसे भयंकर भूल होते-होते रह गई। साथ ही उन प्रश्नों से भी बच गए जो आने वाली पीढ़ी हमसे कुरेद-कुरेद कर पूछेगी और हमारे पास जिनका कोई उत्तर नहीं होगा।’’   

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