आपका परिचय

गुरुवार, 24 मई 2012

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 08-09,  अप्रैल-मई 2012  

।।कविता अनवरत।।

सामग्री :  डॉ. नलिन,  डॉ. सुरेश उजाला, अमरेन्द्र सुमन, अंजु दुआ जैमिनी, वेद व्यथित, कुन्दन सिंह सजल, राजेश आनन्द असीर, मनोहर मनु एवं  कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ की काव्य रचनाएँ।


डॉ. नलिन




{वर्ष 2010 में प्रकाशित वरिष्ठ कवि आद. डॉ. नलिन जी की छोटी-छोटी प्रभावशाली गीत रचनाओं का संग्रह ‘गीतांकुर’ हमें हाल ही में पढ़ने को मिला। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो रचनाएँ।}






पवन दुधारी.....


पवन दुधारी उर पर मत धर,
मेह चला मत तीर बदन पर,
थोड़ी देर ठहर जाओ बस,
साजन होंगे बीच डगर पर।


कुंकम रोली थाल सजाकर,
दीप द्वार पर धर बैठी हूँ,
पल पल छिन छिन राह निहारूँ,
आस नयन में ले बैठी हूँ।


वो आ जाएं कर लेना फिर
बूँदों से अभिषेक मेह तू,
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
पवन छेड़ना शहनाई धुन
बैठ झरोखे ऊपर से तू।


इकतारा टूट गया...


इकतारा टूट गया,
साथ चला था, बीच डगर बंजारा रूठ गया।


राहों का उजियारा  था  वो चाहों का रखवाला था,
रातों का चंदा था तो दिन का दिनकर मतवाला था,
    मन मेरा भोला-भाला था,
राहु-केतु ऐसे झपटे हाथों से छूट गया,
दुःखों ने लूट लिया।


इतना प्यार दिया था तुमने जग को सारा लुटा सके,
कोई बैर रखे तो उसके भ्रम को आकर मिटा सके,
पर जग था इस पर घात रखे,
बिल्ली का ही भाग तेज था, छींका टूट गया,
यह दरपन फूट गया।



  • 4-ई-6, तलवंडी, कोटा-324005 (राजस्थान)





डॉ. सुरेश उजाला






ग़ज़ल


शूल की माला पिरोकर क्या करोगे
आदमियत को डुबोकर क्या करोगे


वैर के बागान फैले हर तरफ हैं
नफ़रतों के बीज बोकर क्या करोगे


आदमी पर बात का होता असर है
रेखांकन : पारस दासोत 
व्यंग्य-वाणों को चुभोकर क्या करोगे


आँसुओं का हर तरफ सैलाब फैला
रोने वालो और रोकर क्या करोगे


प्रेरकों के मूल्य जीवन में उतारो
व्यर्थ की छवियाँ संजोकर क्या करोगे


आचरण की है नदी निर्मल न जब तक
उसमें मैले हाथ धोकर क्या करोगे


भोर में पंक्षी-  प्रभाती गा रहे हैं
जागरण के वक्त सोकर क्या करोगे

  • 108-तकरोही, पं. दीनदयालपुरम मार्ग, इन्दिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.)



अमरेन्द्र सुमन




कितना महत्वपूर्ण है मर्दों के लिये.........


बहुत हद तक मर्द होते हैं लापरवाह
नियमित की दिनचर्या से
सुकुमार मुस्कुराहटों में छिपी मनोदशा से
एक पक्षीय कार्यों के लगन से
पत्नि के रुप में किसी औरत के घर आने के पूर्व तक


तमाम विकल्पों के शीर्ष तक की योग्यता के बावजूद
खर्च करता है वह अपनी उम्र का अधिकांश वक्त
अपने आधिपत्य की एक स्थिर दुनिया बसाने में


चाहता है दोस्तों के बहकावे में भटकने की खुली आजादी
दीवारों पर टंगे पारदर्शी तस्वीरों की नग्नता के साथ
लगातार संभोग


रेखांकन : बी.मोहन नेगी 
कितना महत्वपूर्ण है मर्दों के लिये
उनकी पूरी उम्र की किताब में
बोलती तस्वीर की तरह एक औरत की स्थायी उपस्थिति


बिस्तर की ओट में
जहाँ पूरी की पूरी रात
पति के आने के इन्तजार में
मोमबत्ती की तरह पिघलना
उसकी आदतों में शुमार एक हिस्सा है
अगली सुबह के लिये राशन पानी का जुगाड़
फटेहाल में पूरे घर को बहलाए रखने की गैरतकनीक पढ़ाई


पूरे घर की प्रचुर प्रतिष्ठा में छिपी होती है
सामान्य सी दिखने वाली एक औरत
वार्षिक आय सी उसकी हँसी

  • ‘‘मणि बिला’’, केवट पाड़ा (मोरटंगा रोड), दुमका (झारखण्ड)  



अंजु दुआ जैमिनी


{चर्चित कथाकार-कवयित्री अंजु दुआ जैमिनी का दोहा सतसई ‘अंजुरी भर-भर’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनके कुछ प्रतिनिधि दोहे।}
दस दोहे


1.
पाप-गठरिया धोवती, गंगा नीर बहाय,
थाती भयली राष्ट्र की, धवल वस्त्र पहराय।
2.
फेंक-फेंक पासा हँसे, शकुनी करे धमाल,
काल चाल टेढ़ी बड़ी, छाड़े कई सवाल।
3.
भरती दान-दहेज घर, दुलहिन सासर आय,
बेचे देह गरीबनी, रेल तले कट जाय।
4.
नखरीली भाजी भयी, पटु पानी-परकास,
महँगाई उछली फिरे, हाथ बढ़ा आकाश।
5.
ऊँची-ऊँची डिगरियाँ, पर फैलावें खाब,
ढँूढ़े रोजी ना मिले, नवजुग फीकी आब।
6.
रेखांकन :  डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
नदी पेड़ परबत जलधि, देते जे अभिशाप,
मानस न दोहता भरै, भरी गगरिया पाप।
7.
दिया कीटनाशक छिड़क, मार गिरायो कीट,
मारे दुर्गुण का दवा, कौन उठायो ईंट।
8.
वजनी बस्ता पीठ पे, तन-मन भारी बोझ,
अवसादित बचपन सड़ा, सुमन-सुरभिया ओझ।
9.
ठंड खाय निर्धन मरा, जियरा सोग मनाय,
खा-पीकर झूमे धनी, उत्सव शीत मनाय।
10.
जे बनराज दहाड़ता, मन कंपित भयभीत,
दुबक गया खरगोश-सा, बिसराया बन-गीत।।12।।

  • 839, सेक्टर-21 सी, फरीदाबाद-121001 (हरियाणा)







वेद व्यथित


आकर्षण


काजल की रेख कहीं
अंदर तक पैठ  गई
तमस की आकृतियाँ
अंतर की सुरत हुईं


मन को झकझोर दिया
रेखांकन :  नरेश उदास 
गहरी सी सांसों ने...


दूर कहाँ रह पाया
आकर्षण विद्युत सा
अंग अंग संग रहा
तमस बहु रंग हुआ


गहरे तक डूब गया
अपनी ही साँसों में...


चाहा तो दूर रहूँ
शक्त नही मन था
कोमल थे तार बहुत
टूटन का डर था


सोचा संगीत बजे
उच्छल इन साँसों में...


जो भी जिया था
उस क्षण का सच था
किस ने सोचा ये
आगे का सच क्या


फिर भी वो शेष रहा
जीवन की सांसों में...



  • अनुकम्पा -1577  सेक्टर -3 ,फरीदाबाद -121004





कुन्दन सिंह सजल






ग़ज़ल


अभी तो जिन्द्रगी, बाकी बहुत है।
खुदी है, बेखुदी बाकी बहुत है।।


दिखावट को कभी भी ओढ़ लेना
अभी तो सादगी, बाकी बहुत है


दोस्तों का जरा अन्तर टटोलो
अभी भी दुश्मनी बाकी बहुत है


अभी तो साथ रहने को संभालो
अभी तो दोस्ती बाकी बहुत है


सभी वन्दों से हम इत्तफाक रखें
अभी तो वंदगी, बाकी बहुत है


रेखांकन : महावीर रंवाल्टा 
उजाला तो मिलेगा, तब मिलेगा
अभी तो तीरगी बाकी बहुत है


पता देगी तुम्हारी गुमशुदी का
याद की रौशनी बाकी बहुत है


चलो हलचल भरी महफिल टटोलें
यहां वीरानगी बाकी बहुत है


बनाकर हमको दीवाना न छोड़ो
अभी दीवानगी बाकी बहुत है


विदा होने की जिद को छोड़ भी दो
अभी तो चांदनी बाकी बहुत है

  • उदय निवास, रायपुर (पाटन), सीकर-332718 (राज.)





राजेश आनन्द असीर






ग़ज़ल


झूठी अना को ओढ़ के ख़ुद्दार बन गए
हम खुद ही अपनी राह की दीवार बन गए


रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
दहशत तो सर बुलंद किए घूमती रही
कुर्सी थी जिनके पास वो लाचार बन गए


बच्चों को दी गई ये भला कैसी तरबियत
औज़ार बनने आए थे हथियार बन गए


उलझे रहे अवाम तो रोटी की फ़िक्र में
रहबर हमारे देश के ज़रदार बन गए


सामें  की हैसियत भी नहीं जिनकी ऐ ‘असीर’
वो लोग गीतकार, ग़ज़लकार बन गए

  • 150, पार्क रोड, गांधी ग्राम, देहरादून-248001 (उ.खंड)





मनोहर मनु


गजल


गया था फर्ज से दामन छुड़ा के
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
परेशां है वो माँ का दिल दुखा के


किनारों से सफीनों को लड़ा के
समंदर हंस रहा है दूर जा के


सफ़र के इन ग़मों की उम्र कितनी
सिकुडते साये हैं बढ़ती कजा के


कभी इक पल जुदा होता नहीं है
बहुत देखा उसे हमने भुला के


यही मिटटी बिखेरेगी उजाले
कभी देखो इसे दीपक बना के



  •  माँ हॉस्पिटल, गुना (म.प्र.)





कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’


हौले-हौले नभ से उतरी


हौले-हौले नभ से उतरी, फिर बतियाती भोर
प्रेमपाश में सब जग बांधा, फेंक रेशमी डोर


जीवन की बगिया महकेगी
दशों दिशा उल्लासित
नई-नई परिभाषा होगी
जन-जन में परिभाषित
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
तोड़ मौन हरियाली झूमे, मधुकर  गुंजित शोर
प्रेमपाश में सब जग बांधा, फेंक रेशमी डोर,


भावों की मलयानिल बुनती
गीत मधुर मन भावन
प्रेम रंग में गोरी फिरती
अलसाया सा तन-मन
मधुरस से गगरी भर जाए, बाकी रहे न कोर
प्रेमपाश में सब जग बांधा, फेंक रेशमी डोर,


चाल ‘अचूक’ समय नित चलता
करता साथ शरारत
दुविधा की गठरी का बोझा
लेकर घूमे इत-उत
पूर्ण विराम हो गई पीड़ा, सुख अनन्त की ओर
प्रेमपाश में सब जग बांधा, फेंक रेशमी डोर,



  • 38-ए, विजयनगर, करतारपुरा, जयपुर-302006 (राज.)


अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  संयुक्तांक : 08-09,  अप्रैल-मई 2012  

।।कथा प्रवाह।।  

सामग्री : सुकेश साहनी, डॉ. कमल चोपड़ा, डॉ. सतीश राज पुष्करणा, जितेन्द्र सूद, सीताराम गुप्ता, मोहन लोधिया एवं दिलीप भटिया की लघुकथाएं। 



सुकेश साहनी






विजेता


   “बाबा, खेलो न!”
   “दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।”
   “माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ। वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म-पकड़ाई ही खेल लो न !”
   “बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है।”
   “मुझे नहीं खेलना उनके साथ। वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते। ”अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है, तुम्हारी माँ कहाँ है?”
   “मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
   “बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया, ”अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
   “दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए.....और फिर......अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ......है न !”
   “और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
   “तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
   कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये। बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पट्टी बाँधने लगा ।
रेखांकन : बी.मोहन नेगी 
   पट्टी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
   “बाबा,पकड़ो......पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था,
   उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा- जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा......तब?......तब?......वह......क्या करेगा?......किसके पास रहेगा?......बेटों के पास? नहीं......नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया......हर बार अपमानित होकर लौटा है......तो फिर?......
   “मैं यहाँ ह......मुझे पकड़ो!”
   उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए......हाथ से टटोलकर देखा......मेज......उस पर रखा गिलास......पानी का जग......यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई......और...और......यह रहा बिजली का स्विच......लेकिन......तब......मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?......होगी......तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी......अपने लिए नही......दूसरों के लिए......मैंने कर लिया......मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
   “बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए......तुम हार गए......तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
    बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।



  • 193/21, सिविल लाइन्स, बरेली-243001 (उत्तर प्रदेश)



डॉ. कमल चोपड़ा






बहुत बड़ी लड़ाई


    बच्चा अपनी दुनियाँ में खुश था। सीढ़ियों के नीचे बैठा कपड़े की रंग-बिरंगी लीरों से बनी गुड़िया से खेल रहा था। कोठी की सफाई करती हुई उसकी माँ उसे खेलता देखकर निहाल हुई जा रही थी।
    उनकी खुशी पर पत्थर गिराती हुई मालकिन आकर चिल्लाने लगी- दुलारी कितनी बार कहा है तुझे, अपने बच्चे को काम पर अपने साथ मत लाया कर! तेरा बच्चा जिस गुड़िया से खेल रहा है न उस पर मेरे बेटे टीनू की नज़र पड़ गई है। जिद कर रहा है ये गुड़िया लूँगा। धेले की सही पर मन आ गया तो आ गया....देख तो इसने कैसी रोनी सी सूरत बना ली है....।
    एकदम चुप थी दुलारी। नज़र पड़ गई है तो हम क्या करें? जो चीज इन्हें अच्छी लगे, इन्हें मिल जाये जरूरी है? मालकिन आग-बबूला होने लगी- दुलारी सुनती नहीं? तेरा बच्चा तो मजे से खेल रहा है और टीनू इसे देख-देखकर परेशान हो रहा है। ऐसा कर ये गुड़िया इस बच्चे से लेकर टीनू को दे दे....।
    किलसकर रह गई दुलारी। दोनों बच्चों की उम्र लगभग बराबर सी थी। तीन साढ़े-तीन के बीच। न चाहते हुए भी दुलारी ने अपने बच्चे से गुड़िया टीनू को दे देने के लिए कहा। गुड़िया पर पकड़ मजबूत कर...उसे छाती से चिपकाते हुए बच्चे ने कहा- मैं नईं....मैं कों दू? गुलिया मेली है।
    उसने अपने बच्चे को बहलाने की बहुत कोशिश की पर नहीं माना। उसने उसे डांटा और गुड़िया उससे छीनकर टीनू को देनी चाही पर बच्चा बुरी तरह चीखने-चिल्लाने लगा। गुड़िया वापिस अपने बच्चे के हाथ में देनी पड़ी उसे।
    मालकिन ने अन्दर से महंगे खिलौने लाकर टीनू को दिये- ये गुड़िया तो गंदी-सी है। दफा कर इसे ये सुन्दर-सुन्दर खिलौने ले ले छोड़ इसे। देख तो कितने बढ़िया खिलौने हैं?
    टीनू टस से मस नहीं हुआ- यही गुड़िया लूंगा।
    मालकिन ने वे महंगे खिलौने नौकरानी के बच्चे को देकर उससे वो गुड़िया लेनी चाही पर उस बच्चे ने भी वे महंगे खिलौने ठुकरा दिये।
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
    टीनू फर्श पर लेटकर पैर पटकने लगा। उसे रोता हुआ देखकर मालकिन बल खाकर रह गई। एकाएक अमीर और मालकिन होने का घमण्ड मालकिन की आवाज में उतर आया- दुलारी ये ले पचास का नोट और गुड़िया अपने बच्चे से छीनकर दे।
    कुछ समझ नहीं आ रहा था दुलारी को। उसने फर्श पर पड़े पचास के नोट की ओर देखा और समझाने लगी अपने बच्चे को- देख बेटे, अपने भैया को ये गुड़िया दे दे! मैं तेरे को और बना दूंगी। पर बच्चा नहीं माना। टीनू के लिए भैया संबोधन सुनकर मौके की नजाकत को देखते हुए ताव खा कर रह गई मालकिन। दुलारी ने टीनू को समझाया- मैं कल आपके लिए इससे भी बढ़िया बनाकर ला दूंगी।
    टीनू लगातार रोये जा रहा था। मालकिन खीझ गई- तुझे जरा सी शर्म या लिहाज है या नहीं? मैं तुझे कह रही हूँ, अपने बच्चे से गुड़िया छीनकर दे दे। तुझे और पैसा चाहिये तो ले ले। सुना कि नहीं?
   जवाब में दुलारी को ज्यों का त्यों देखकर मालकिन भड़क गई- तू इसी वक्त अपने बच्चे को लेकर कोठी से बाहर हो जा!
    दुलारी मुस्कुराती हुई अपने बच्चे को लेकर बाहर आ गई। तिलमिलाती रह गई मालकिन।
    रास्ते में अपने बच्चे पर गर्व हो आया था कि वह उन लोगों के लालच या धौंस में नहीं आया। अपनी गुड़िया के लिये अड़ा रहा। हमेशा तो हम लोग मन मारकर रह जाते हैं। इनको भी तो पता चले मन मारकर रह जाना कितना कष्टप्रद होता है!

  • 1600/114, त्रिनगर, दिल्ली-110035





डॉ. सतीश राज पुष्करणा








दिया और तूफान


    प्रताड़ना सहने की जब सीमा पार कर गई, तो मेघना ने घर छोड़ दिया। मायके में केवल माँ थी। माँ दुखी हुयी कि बेटी घर से बेघर हो गयी लेकिन उसे खुशी भी थी कि चलो जिन्दा तो है......नहीं तो जाने अभी इसके आगे और क्या होता! मेघना का स्वास्थय बुरी तरह गिरा हुआ था। माँ ने अपने फेमिली डॉक्टर को फोन कर दिया।
    डॉक्टर ने मेघना का चेक-अप आरंभ कर दिया। चेक-अप करने के बाद मेघना से पूछा, ‘‘क्या तुम नशे के इंजेक्शन भी लेती रही हो?’’
    ‘‘वे लोग मुझे नशे के इंजेक्शन दे-देकर.... मुझे पागल सिद्ध करना चाहते थे....उनकी इन्हीं बातों से तंग आकर तो मैं यहाँ.... मैं ठीक तो हो जाऊँगी न अंकल?’’
    ‘‘हाँ! थोड़ा टाइम लगेगा, किन्तु एकदम ठीक हो जाओगी। नशीली चीज का प्रभाव तुम्हारे खून में शामिल हो गया है....दवाओं से उस प्रभाव को समाप्त करना है, बस!’’ प्रेसक्रिप्शन लिखकर उसकी माँ के हाथ में देते हुए डॉक्टर लौट गए।
    डॉक्टर के जाते ही मेघना उदास हो गयी। उसकी खामोशी देखकर माँ ने पूछा, ‘‘बेटी क्या बात है?’’
    ‘‘माँ! मेरे बच्चे! वे दोनो वहीं हैं, उनके बिना मैं कैसे रह पाऊँगी?’’
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
    ‘अरे हाँ! तुम्हारी यह हालत देखकर तो मैं बच्चों के बारे में पूछना तक भूल गयी थी...तुम चिन्ता मत करो। पहले तुम अपने को स्वस्थ कर लो....फिर सोचना....यों भी चिन्ता की क्या बात है, वे हैं तो अपने बाप एवं दादा-दादी के साथ....।’’
    ‘‘फिर भी...।’’ मेघना ने अभी इतनी ही बात कही थी कि बिजली गुल हो गई।
    ‘ये एकाएक बिजली गुल हो गयी....’’ इतना कहने के साथ माँ मोमबत्ती या दीया आदि कुछ ढूँढ़ने लगी....बिजली की स्थिति काफी समय से ठीक थी, किन्तु आज एकाएक....।’’
   ‘‘माँ! अभी चार दिन पहले दीपावली थी...दीये पड़े होंगे।’’ मेघना की बात सुनकर माँ ने जला हुआ दीया ढूँढ़ निकाला और उसमें सरसों का तेल डालकर जली बत्ती को ठीक करके दीया जला दिया और माँ दरवाजे के खटखटाने की आवाज़ पर दरवाजे़े की ओर बढ़ गयी।
    दीया जलाया ही था कि जोर से हवा चलने लगी...मेघना की दृष्टि दीये पर जाकर केन्द्रित हो गयी....वह देखने लगी कि इतनी तेज़ हवा में दीया अपने अस्तित्व को बचाने हेतु किस तरह से संघर्ष कर रहा है....उसे मानो संघर्ष का गुरु-मंत्र मिल गया हो। बच्चे उसकी स्मृति में आकर उससे बातें करने लगे....उसे पता ही न चला कि कब उसके मुँह से निकल गया, ‘‘चिंता मत करो मेरे बच्चो! एक दिन मैं तुम दोनों को प्राप्त करके ही दम लूँगी।’’



  • लघुकथानगर, महेन्द्रू, पटना-800006 (बिहार)





जितेन्द्र सूद


अपराध


    उधर सूर्यदेव अस्त हुए और इधर किरण ने घर में कदम रखा। किराए के एक कमरे के उस घर में एक कोने में माँ दुबकी बैठी थी और बदरंग चादर से ढकी चारपाई पर उसके पिता तने बैठे थे। किरण को देखते ही उन्होंने गम्भीर-भारी स्वर में पूछा, ‘अब तक कहाँ थी तू?’ सहमी माँ को देखकर, सिर झुकाकर किरण ने कहा, ‘पिताजी, आज सोहन ने अपने जन्म-दिन की पार्टी दी थी, उसी कारण देरी हो गई।’
    पिता एक भरपूर नज़र बेटी को देखकर कठोरता से बोला, मैंने तुम्हें अनेक बार समझाया कि धनवानों द्वारा दी जातीं पार्टियाँ, मनाए जाते जश्न ग़रीबों की सन्तानों को बहकाने-भटकाने के खूबसूरत साधन हैं। तुम्हें इनसे दूर रहना है।’
    ‘मन को कैसे समझाऊँ, अपने दिल को कैसे बहलाऊँ?’ आँखों में छलछला आए आँसुओं को टपकने से रोकते हुए किरण ने कहा।
   ‘क्या मतलब?‘ पहले से भी अधिक सख्त स्वर में पिता ने पूछा।
    माँ पर एक दृष्टि डालकर और सिर झुकाकर धीमी आवाज में किरण बोली, ‘जब लड़कियाँ हर रोज़ बदल-बदलकर सुन्दर-सुन्दर कपड़े पहनकर आती हैं तो मेरा दिल भी उनकी तरह सजने-सँवरने को करता है। जब लड़कियाँ अपने मित्रों के संग खिलखिलाती हुई कॉफी की चुस्कियाँ लेती हैं, उनसे बतियाती हुई ‘नूडल्ज’ और ‘डोसा’ खाती हैं तो मेरा मन बुरी तरह ललचा जाता है, मेरी भूख अधिक तेज हो जाती है और मेरी नज़रें उन पर ही मँडराती रहती हैं। महीनों से मैं अपनी इस क्षुधा-अग्नि को दबाए रही परन्तु एक दिन जब सोहन ने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया तो मेरी इच्छाएँ बेकाबू हो गयीं और मैंने चुपचाप उसका थाम लिया। मैं हर रोज़ के हालात का सामना करते-करते थक-हार गई माँ। यही मेरा अपराध है पिताजी, आप इसके लिए मुझे कड़ी से कड़ी सजा दें।’ इतना कहकर किरण फफक-फफककर रो पड़ी। अब माँ भी अपनी रुलाई को रोक नहीं पाई। उसने किरण को अपनी बाँहों में समेट लिया। पिता ने एक बार भरी-भरी आँखों से माँ-बेटी को देखा और फिर सिर झुका दिया ताकि उसके आँसू फ़र्श में पड़ी दरारों में गिरकर छिप जाएँ।

  • 31, बैंक कॉलोनी, अम्बाला शहर (हरियाणा)





सीताराम गुप्ता






गिरेबान


    एचओडी राउण्ड पर थे। राउण्ड पर जाना ज़्ारूरी भी था क्योंकि कमरे के अंदर बहुत सर्दी थी। बाहर धूप खिली हुई थी। कई दिनों के बाद आज सूर्यदेव के दर्शन हुए थे इसलिए बाहर खुले में बहुत अच्छा लग रहा था। एचओडी बीस-पच्चीस मिनट तक लॉन में फूल-पत्तियों का निरीक्षण करते हुए माली को आवश्यक निर्देश देते रहे। उसके बाद कमल किशोर वहाँ आ उपस्थित हुए और गुनगुनी धूप में एचओडी उनसे संस्थान की समस्याओं पर चर्चा करने में व्यस्त हो गए।
     चर्चा की समाप्ति के बाद परिसर का राउण्ड शुरु हुआ। जैसे ही एचओडी लैब में पहुँचे वहाँ देखा काम के साथ-साथ चाय की चुस्कियाँ भी ली जा रही हैं। एचओडी ने इसे बड़ी गंभीरता से लेते हुए कहा, ‘‘जब देखो तब चाय। अरे कोई समय भी होता है कि नहीं किसी काम का? अपने गिरेबान में झाँककर देखो क्या तुम्हें यहाँ आकर चाय पीने के लिए ही मोटी-मोटी तनख़्वाहें दी जाती हैं? डिसिप्लिन का ध्यान रखिए। आगे से किसी भी तरह का इंडिसिप्लिन टॉलरेट नहीं किया जाएगा। एंड एक्सन मस्ट बी टेकन अगेंस्ट डिफॉल्टर्स।’’  एचओडी एक्शन को एक्सन बोलना ही पसंद करते हैं।
     एचओडी एक्सन की बात कर ही रहे थे कि इतने में चपरासी वहाँ आया और बेहद अदब से उनसे बोला, ‘‘सर चाय तैयार है। कमल किशोर सर आपका इंतज़्ाार कर रहे हैं। कह रहे हैं साहब को ज़्ारा जल्दी बुला लाओ। बहुत सर्दी है चाय ठंडी हो जाएगी।’’ एचओडी ने बस इतना ही कहा कि इस के के को चाय के सिवा कुछ और काम है कि नहीं और फिर राउण्ड बीच में ही छोड़ कर लंबे-लंबे डग भरते हुए अपने कमरे की तरफ़ हो लिए जहाँ चाय उनका इंतज़्ाार कर रही थी।

  • ए.डी.‘106-सी, पीतमपुरा, दिल्ली-110034



मोहन लोधिया










माँ की बेबसी


   दीनदयाल को स्वर्गवासी हुए आज एक वर्ष हो गया। दीनदयाल के तीन पुत्र हैं। बड़ा बेटा 40 वर्ष पार कर चुका अपाहिज और बेरोजगार है। दोनों बेटे शामिल परिवार में रहकर नौकरी करते हैं। दीनदयाल ने एक गाय पाली थी, जो अब बूढ़ी हो चली थी, परन्तु कभी बछिया या बछड़े को जन्म नहीं दिया था। इससे गाय पर व्यर्थ ही खर्च हो रहा है, सोचकर दोनों नौकरी पेशा बेटों ने उसे कसाई को बेच दिया। दोनों बेटे पैसे गिन रहे थे। कसाई गाय को घसीटकर ले जा रहा था। गाय मुड़-मुड़कर देखती जा रही थी, इसी बीच मां (दीनदयाल की पत्नी) आ गयी। एक बेबस मां कभी दूसरी ओर बैठे बेरोजगार अपाहिज बेटे को, कभी जाती हुई गाय को टुकुर-टुकुर देख रही थी।



  • 135/136, ‘मोहन निकेत’, अवधपुरी, नर्मदा रोड, जबलपुर-482008 (म.प्र.)









दिलीप भटिया












नाटक


    कविता बेटी, स्नेह। परेशान क्यों होती हो ? तुम्हारी मम्मी के इस संसार छोड़ने के पश्चात नाते-रिश्ते बदल गए हैं, नहीं पूछ रहे हैं, तो कोई बात नहीं। समझ लो, तुम्हारे मेरे जीवन की कहानी में उनका रोल इतना ही था। कुछ नए भैया-भाभी भी तो जुड़ गए हैं ना। जीवन के नाटक में जिन पात्रों का रोल समाप्त हो जाता है, वे रंगमंच से नीचे उतर जाते हैं। कुछ नए पात्र स्टेज पर आ जाते हैं, इसे स्वीकारो। मैं तो हूँ ना। चिन्ता मत करो, बेटी। प्यार।
पापा - संजय



  • 372/201, न्यूमार्केट, रावतभाटा-323307 (राजस्थान)






अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1, अंक : 08-09,  अप्रैल-मई 2012  


।।कथा कहानी।।

सामग्री :
 डॉ0 सुरेश प्रकाश शुक्ल की कहानी-धूप-छांव


डॉ0 सुरेश प्रकाश शुक्ल

धूप-छांव


    रात के बारह बजे का समय था। जून के महीने में रात के समय पुरवाई के हल्के झोंके लोगों को गहरी नींद में सुला रहे थे। मैं भी सपरिवार आंगन में सो रहा था। अचानक वस्तुओं को फेंकने की आवाज और जोर-जोर से लड़ने के शोर को सुनकर सभी लोग उठ बैठे । इधर-उधर देखने लगे कि रात में ये क्या होने लगा ? झगड़ने की आवाजें और तेज हो गई तो सभी जान गये कि ये पड़ोस के मकान में ऊपरी मंजिल पर रहने वाले पाठक जी और उसकी पत्नी के बीच में लड़ाई हो रही है। उनकी इकलौती लड़की रानी हमारी ओर निकले हुए छज्जे पर भाग कर ऐसी खड़ी हो गयी थी मानो हम लोगों से सहायता के लिए प्रार्थना कर रही हो। थोड़ी देर आस पड़ोस के सब लोग सुनते रहे रात अधिक होने के कारण अपनी-अपनी चादर खींचकर सो गये क्योंकि यह तो उनके घर का रोज़ का ही तमाश था।
    पाठक जी जानवरों के डाक्टर थे और लखनऊ से दूर सुल्तानपुर के पास किसी देहात के अस्पताल में कार्य कर रहे थे। उनकी पत्नी आरती एक जूनयर हाईस्कूल में अध्यापिका थी और अपनी लड़की रानी के साथ रहकर उसे बड़ी लगन और मेहनत से पढ़ा रही थी। रानी पढ़ने में बड़ी तेज और होनहार थी। अपनी माँ की देख-रेख में उसने हमेशा अच्छी बातें सीखी थीं और कभी भी गन्दे या बुरे बच्चों के साथ नहीं खेलती थी। वह हमेशा अपनी कक्षा में विशेष स्थान प्राप्त करके उत्तीर्ण होती थी। लेकिन हमेशा एक ही उदासी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई पड़ती थी जो उसके पिता के कारण थी। वैसे तो उसके पिताजी उसे प्यार करते थे किन्तु उनकी हरकतें हमेशा उसे और उसकी माँ को परेशान किये रहती थीं। उन दोनों के पास उस समय रोने के अलावा कोई और रास्ता नहीं रहता था। आर्थिक दृष्टि से आरती अपने पति पर निर्भर नहीं थीं और इसीलिये वह कभी-कभी पाठक जी से लड़ भी पड़ती थीं। लेकिन औरत चाहे कितनी भी आत्मनिर्भर क्यों न हो हमारी सामाजिक व्यवस्था में पुरूष को प्रधानता प्राप्त है और इसी का अनुचित लाभ लेकर लोग औरतों को प्रताड़ित करते रहते हैं। चाहे वो कितनी ही समर्थ क्यों न हो ?
    पाठक जी एक बुरे आदमी थे। उनमें सब प्रकार की खराब आदतें और व्यसन थे। वे जब भी लखनऊ आते तो रात के समय ही आते और और उस समय वे अपने होश में कभी नहीं होते थे। परिवार से मिलने पर लोग प्यार से दो बातें करते हैं किन्तु उनके परिवार में आते ही शान्ति, अशान्ति में बदल जाती थी। वास्तव में उनके परिवार में यही तो एक दुख था अन्यथा वे तीन ही प्राणी थे। दोनों ही कमाते थे और मनपसंद खर्च भी करते थे। लेकिन पाठक जी के खर्चे इतने बढ़े हुए थे कि उनकी खुद की आमदनी कम पड़ जाती थी और तभी उन्हें पत्नी की याद आती थी। आते ही वे पहले यही पूंछते कि तुम्हें तो वेतन मिल गया होगा? कुछ मुझे भी दे दो। और इसी पर दोनों में झगड़ा शुरू हो जाता था।
    उस रात बुरी तरह झगड़ने के बाद पाठक जी ने घर के तमाम सामान पटक कर तोड़ दिये थे और अपनी पत्नी आरती को भी बुरी तरह पीटा था जिससे उसकी सारी चूड़ियां टूट गयी थी। उनके मुँह से शराब की बदबू आ रही थी। जो पड़ोसियों के लिये भी पीड़ा का करण थी। उस सारी रात ये तमाशा होता रहा पर किसी ने भी उनके बीच में आने की कोशिश नहीं की। सभी लोग अब इस माहौल के आदी हो चुके थे। सवेरा होने से पहले ही पाठक जी पता नहीं कब चुपके से कहीं खिसक गये थे। सबेरे आरती ने रोते हुए सब से बताया कि उसकी सोने की चूड़ियां और बाली लेकर डाक्टर साहब चम्पत हो गये हैं। यही क्रम लगभग दो वर्ष तक चलता रहा और उसी बीच में हम लोगों ने अपना घर बदल लिया पर उस मोहल्ले में काफी समय रहने के कारण अब भी आरती और अन्य लोगों के यहां आना जाना था।
    एक दिन सवेरे जाड़े के मौसम में मैं धूप में चाय का आनन्द ले रहा थ कि आरती जी अपनी बेटी रानी के साथ कुछ परेशान सी आती हुई दिखाई पड़ीं। आने पर मैने पूछा, भाभी जी क्या बात है? सवेरे-सवेरे कुछ परेशान सी दिख रही हैं।
    उन्होंने रोते हुये सारी बात बताई जो वास्तव में चिंता की बात थी। हुआ यह था कि डाक्टर पाठक के अस्पताल से एक आदमी आया था जिसने बताया कि डाक्टर साहब को एक शर्मनाक काम के लिये वहाँ की पुलिस पकड़ कर ले गई है। तभी आरती जी ने यह भी बताया था कि उनकी माँ के मरने के बाद पिता जी ने दूसरी शादी कर ली थी और आरती की सौतेली माँ ने ही उनकी शादी एक शराबी और बदचलन आदमी से कर दी थी। आरती जी ने अपने पिताजी से जब पुलिस द्वारा अपने पति को पकड़े जाने की बात बताई तो उन्होंने दौड़-भाग करके किसी तरह उनको छुड़वाया था, नहीं तो उनकी नौकरी भी चली जाती।
    कुछ दिन बाद अचानक मालूम हुआ कि डाक्टर पाठक की कुछ अज्ञात लोगों ने हत्या कर दी है। सुनकर कुछ तो दुःख हुआ फिर सोचा कि चलो बेचारी आरती जी और उनकी बेटी को एक दुष्ट आदमी की ज्यादतियों से छुटकारा तो मिल गया। कई बार आरती जी ने भी कहा था कि ऐसे आदमी से तो अच्छा है कि बिना आदमी के ही बसर कर लें।
    होनी को कौन टाल सकता है? हम लोग उनके घर गये तो देखा आरती जी अपनी रानी को लिये हुए उदास बैठी थीं। पास मेें मोहल्ले की कुछ औरते खुसुर-फसुर कर रही थीं। लोग आते थे और दुःख प्रकट करके चले जाते थे। आरती जी ने बताया कि किसी बुरे काम करने के कारण गांव वालों ने उन्हें जान से मार डाला और उनके शरीर के कई टुकड़े भी कर डाले थे। पोस्टमार्टम में बाद उनकी लाश भिजवा दी गई थी।
    इस घटना के बाद आरती जी ने अपने स्कूल से एक महीने की छुट्टी ले ली थी और फिर स्कूल में गर्मी की छुट्टियाँ भी हो गई तो आरती अपनी बेटी को लेकर अपने पिता के यहाँ चली गई थीं। अब धीरे-धीरे आरती अपने दुख भूल चुकी हैं और उनके चेहरे पर एक प्रकार का संतोष सहज ही दिखाई पड़ता है। कुछ दिन पहले मेरे घर आयीं तो बताने लगीं कि ईश्वर ने एक सुख तो ले लिया पर अब हम लोग बड़े दुख सुख और संतोष के साथ जीवन बसर कर रहे हैं। उन्होंने हमारी कालोनी में ही एक छोटा सा मकान भी ले लिया है। उनकी बेटी रानी भी अब मायूस और सहमी हुई नहीं लगती। हमारे बच्चों के साथ खुब घुल मिल गयी है। हाईस्कूल परीक्षा में प्रथम पास हुई है। जाते समय बोली, अंकल जी हमारे नये घर में सबको लेकर अवश्य आइयेगा।
    और हम लोग उसके हाईस्कूल पास और नये घर होने की खुशी में उनके साथ थे।

  • 554/93, पवनपुरी लेन 9, आलमबाग, लखनऊ-05 (उ.प्र.)


अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 08-09,  अप्रैल-मई 2012  

।।क्षणिकाएँ।।

सामग्री :   केशव शरण  की क्षणिकाएं


केशव शरण




पांच क्षणिकाएं 

(1) एक साथ

कोंपलों का बचपन
हरे पत्तों का यौवन
पीले पत्तों की अधेड़ावस्था
और तने का बुढ़ापा
अद्भुत है, देख
जिन्हें एक साथ
जी रहा है पेड़

(2) मेरा यही स्वभाव है

रेखांकन : बी.मोहन नेगी 
अभी
घटाओं पर
फिदा था
उमड़ती, घुमड़ती, बरसती घटाओं पर
अब चटख धूप पर हूँ
जो बहुत सुन्दर दिख रही है
गीले कपड़ों को सुखाती हुई

मेरा यही स्वभाव है
मुझे हर हसीन चीज़ से लगाव है

(3) नदी में परछाइयां

बादलों के अक्स
स्याह और सफे़द
पेड़ों की परछाईं हरी है
भादों का महीना है यह
और नदी भरी है
जिसमें एक नाव उल्टी चल रही है
और एक सीधी
और उस पंक्षी की उड़ान बहुत गहरी है
जो बहुत ऊँचाई पर उड़ रहा है

(4) पत्ता

एक ही पत्ता है
पेड़ पर
जाने, वह-
पहला है
या आखिरी!

(5) प्रेम

उसने
मेरे फूल स्वीकार कर लिये
और तोहफे़
जो समय-समय पर मैंने उसे दिये

फिर क्यों
आज फाड़ दिया प्रेमपत्र
और वह भी
पहला!

  • एस 2/564, सिकरौल, वाराणसी कैन्ट-221002 (उ0प्र0)


अविराम विस्तारित


अस्तुत अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 08-09, अप्रैल-मई 2012  

।।हाइकु।।

सामग्री :  रचना श्रीवास्तव,  डॉ भावना कुँअर, कमला निखुर्पा एवं मंजु मिश्रा के हाइकु एवं त्रिलोक सिंह ठकुरैला का एक हाइकु गीत


(अविराम के जून २०११ अंक, जो कि हाइकु, जनक छंद एवं  क्षणिका पर केन्द्रित था, में अंक के अतिथि संपादक आदरणीय रामेश्वर कम्बोज हिमांशु जी द्वारा चयनित कई मित्रों के  कुछ हाइकु स्थानाभाव के कारण प्रकाशित होने से रह गए थे इस अंक में उन्हीं में से कुछ मित्रों के प्रकाशित होने से छूट गए हाइकु प्रस्तुत हैं। छूटे हुए शेष हाइकु भी यथासंभव प्रकाशित करने का प्रयास किया जायेगा। साथ ही त्रिलोक सिंह ठकुरैला का एक हाइकु गीत भी प्रस्तुत है।)
रचना श्रीवास्तव




चार हाइकु 


1.
बच्चे की पूँजी
खिलौनों की झबिया
माँ का आँचल
2.
घमंडी चाँद
रात में न  निकला
दिया मुस्काया  ।
3.
बच्चों के लिए
माँ हो गई बुढ़िया
पता न चला ।
4.
न कोई आस
बुढ़ापे का साथ तो
केवल  प्यार  ।


  • प्रवास : डैलस (यू  एस  ए )।  भारत का पता- रचना श्रीवास्तव द्वारा श्री रमाकान्त पाण्डेय ए-36, सर्वोदय नगर , लखनऊ (उ.प्र.)  ई मेल- rach_anvi@yahoo.com 



डॉ भावना कुँअर




चार हाइकु 

1.
चिड़ियाँ गातीं
घंटियाँ मन्दिर की
गीत सुनातीं।
2
चमकती थी
द्रश्य छायांकन :  डॉ. उमेश महादोषी 
दुल्हन की तरह
चाँदनी रात ।
3.
आसमान में
दूधिया -सा चन्द्रमा
चमक रहा।
4.
नहीं भाता है
पतझर किसी को
भाये बंसत ।



  • प्रवास :  सिडनी आस्ट्रेलिया (भारत में पता : 2, ऍफ़-51, नेहरूनगर, गाज़ियाबाद, उ.प्र.)



कमला निखुर्पा




पांच  हाइकु 


1.
भीगी पलकें
नयनों के प्याले में
सिन्धु छ्लके ।
2.
मन- बगिया
तन फूलों का हार
महका प्यार।
3.
रेखांकन : नरेश उदास 
मन का सीप
पुकारे बादल को
मोती बरसे।
4.
 नैनों की सीपी
 चम -चम चमके
 नेह के मोती।
5.
 तेरा चेहरा
 नभ में चमके ज्यों
 भोर का तारा।



  • हिन्दी -प्रवक्ता , केन्द्रीय विद्यालय वन अनुसंधान केन्द्र देहरादून (उत्तराखण्ड)

ई मेल :  kamlanikhurpa@gmail-com




मंजु मिश्रा


चार हाइकु 


1.
छाया वसंत
सज गई धरती
उमड़ी प्रीत
2.
तन झाँझर
माँदल हुई धरा
मन मयूर
3.
उम्र बहकी
बाँध लिया मन ने
संगी से नाता
4.
प्रेम का पंथ
है जग से निराला
विश का प्याला



  • प्रवास : कैलिफ़ोर्निया { भारत का पता: द्वारा श्री राजीवशंकर मिश्रा, 146,

पी.एल.शर्मा रोड, मेरठ-250001(उ.प्र.)} ई-मेल : manjumishra@gmail.com






हाइकु  गीत



त्रिलोक सिंह ठकुरेला








बगिया का मौसम 






बदल गया
बगिया का मौसम,
चुप रहना।


गया बसंत
आ गया पतझर,
दिन बदले।
द्रश्य छायांकन :  अभिशक्ति 


कोयल मौन
और सब सहमे,
पवन जले।


मुश्किल हुआ
दर्द उपवन का 
अब सहना।।


आकर गिद्ध 
बसे उपवन में
हुआ गज़ब।


जुटे सियार
रात भर करते,
नाटक सब।


अब किसको 
आसान रह गया
सच कहना।। 

  • बंगला संख्या-एल-99,रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबू रोड-307026 (राज.)