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मंगलवार, 29 मई 2018

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

 अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  : 09-10 ,  मई-जून 2018 



प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


छायाचित्र : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु 





 ।।सामग्री।।
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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में पंकज परिमल, शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ एवं रमेश कटारिया ‘पारस’ की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में आभा सिंह, सन्ध्या तिवारी, कान्ता राय एवं माणक तुलसीराम गौड़की लघुकथाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में उमेश महादोषी के हाइकु।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ एवं क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : 
अब से क्षणिकाओं एवं क्षणिका सम्बन्धी सामग्री के लिए ‘समकालीन क्षणिका’ ब्लॉग पर जायें।  इसके लिए इस लिंक पर क्लिक करें-      समकालीन क्षणिका

कहानी {कथा कहानी} :  इस अंक में डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा अरुण की कहानी- ‘मुस्कुराती जिंदगी’ 

श्रीकृष्ण ‘सरल’ जन्म शताब्दी वर्ष {जन्म शताब्दी वर्ष में श्रीकृष्ण ‘सरल’ का स्मरणइस अंक में सरल जी के स्मरण क्रम में उनकी कुछ सृजन संस्मृतियाँ 

हमारे सरोकार {सरोकार} : इस अंक में डॉ. उमेश महादोषी का संस्मरणात्मक आलेख- ‘महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा को पुनर्जीवित करता संग्रहालय

अविराम के अंक {अविराम के अंक} :  अविराम साहित्यिकी के अप्रैल-जून 2018 मुद्रित अंकों की सामग्री की जानकारी।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में श्री प्रतापसिंह सोढ़ी के कहानी संग्रह ‘हम सब गुनहगार हैं’ की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा एवं श्री हरिशंकर शर्मा की पुस्तक ‘लघुकथा एक कोलाज’ की डॉ. संध्या तिवारी द्वारा समीक्षा।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} : विगत अवधि में सम्पन्न कुछ साहित्यिक गतिविधियों के समाचार। 

अन्य स्तम्भ, जिनमें इस बार नई पोस्ट नहीं लगाई गई है इन पर पुरानी पोस्ट पढ़ी जा सकती हैं। 

सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  
जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} : 
व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  
लघुकथा : अगली पीढ़ी  {लघुकथा : अगली पीढ़ी} :
माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  
बाल अविराम {बाल अविराम} :
संभावना {संभावना} :  
स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} : 
साक्षात्कार {अविराम वार्ता} :  
अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :
लघुकथा विमर्श {लघुकथा विमर्श} :  
लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : 
हमारे युवा {हमारे युवा} :  
अविराम के अंक {अविराम के अंक} : 

अविराम की समीक्षा {अविराम की समीक्षा} : 
अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} :

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 


।।कविता अनवरत।।




पंकज परिमल



दो नवगीत

01. आज लिखने दो मुझे कविता 

ठूँठ पर कुछ फुनगियाँ हैं नई 
आज लिखने दो मुझे कविता 

कुछ नमी में 
कुछ अँधेरे में 
कुकुरमुत्ता सर उठाता है 
नष्ट भाषा-/व्याकरण वाला 
गीत अब आँखें दिखाता है 
शाम रँगने लग रही सुरमई 
आज गाने दो मुझे कविता 

इक टिटहरी 
बोल जाने क्या 
किस दिशा में भाग जाती है
धौंकनी-सी/हाँफती है वो 
जो निराले स्वर उठाती है 
लोग तो पढ़-पढ़ मरे सतसई 
आज पढ़ने दो मुझे कविता 

भाव स्वर्णिम 
राग भी अरुणिम 
किन्तु कागज़ हो गए काले 
ये दुमहले/हैं रुपहले भी 
पर सधे इनमें मकड़जाले 
अश्व कल तक ढूँढ लेगा जई 
आज जीने दो मुझे कविता 

गीत हाँफा है
ग़ज़ल सोई 
जागती है रात-दिन क्षणिका 
माल मुक्तक के/पिरो लाया 
खो गई अनुराग की मणिका 
पान की ही पीक से कत्थई 
आज होने दो मुझे कविता 

कौन जाने 
किस घड़ी बोलें
ठाठ की भी हाट में उल्लू 
श्राद्ध-तर्पण/मैं करूँ किसका 
हाथ ले जल, बाँधकर चुल्लू 
हो न काँधे पर कभी मिरजई 
आज तनने दो मुझे कविता 

02. जड़ का मान बढ़ा 

काले पत्थर पर सेंदुर का 
जितना लेप चढ़ा 
रेखाचित्र :
(स्व.) बी. मोहन नेगी
 

चेतनता के हाथों जड़ का 
उतना मान बढ़ा 

चाँदी की आँखें चुप-चुप हैं 
गरिमामयी हुई 
बिना पसीजे ही उनकी छब 
करुणामयी हुई 
उनके पैरों झुकी प्रार्थना 
गंधिल फूल सड़ा

मेरी अरज सुनें,
पहले ही 
घंटे घनकारे 
अपना तिमिर भुला उनके दर 
दीपक उजियारे 
पूजा-परसादी लाए बिन 
क्यूँ मैं रहा खड़ा 

  • ‘प्रवाल’, ए-129, शालीमार गार्डन एक्स.-।।, साहिबाबाद, गाजियाबाद (उ.प्र.)/मो.09810838832

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 


।।कविता अनवरत।।



शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’




दो नवगीत

01. हे! जनपथ के राजा 

हम रोज कुआँ खोदे
हम रोज पिये पानी
हे! जनपथ के राजा
हे! जनपथ की रानी

बीजों का ताजमहल
धरती में हम बोये
सावन-अगहन-फागुन
धरती पर हम सोये
आकाश जलावन का
ढोई टूटी छानी
हे! जनपथ के राजा
हे! जनपथ की रानी
  
पलिहर की बोआई
है डूबी करजा में
खटनी की शिक्षा है
पहले ही दरजा में
उलझन के घर गिरवी
पशुओं की है सानी
हे! जनपथ के राजा
हे! जनपथ की रानी

साँसों के झुरमुट में
आशा के फूल नहीं
अनुभव की चोटी पर
साहस के जूल नहीं
असहज पथ पर लेटे
अबतक दाना-पानी
हे! जनपथ के राजा
हे! जनपथ की रानी

02. पवन-डाकिया

पवन-डाकिया/लेकर आया  
खुले गाँव की मधुरिम गंध
मिलने पहुँचे/नदी किनारे
तोड़-ताड़ तरलित तटबंध

तितली फिसली
भँवरे भटके
बिछुड़ चुके पुलकित मकरंद
धोखा खायीं  
विचलित लहरें
करके चिपचिप फाटक बंद
हटा चुकी है/धूप धुआँसी
पहरा का विकिरक प्रतिबन्ध

नल पर पाँवों
को धोया है 
भिगा पसीना तन का पानी
चूनर धानी
उठा रही है
पहुँच शाम घर ढही पलानी
रेखाचित्र :
राजेंद्र परदेसी 

धूल उड़ी है/छिड़क रहा जल  
अतिथि अमी मृदुता-संबंध

सडकें पहुँचीं
काँवड़ लेने
सँवरी-सँवरी शिव की काशी
मानसून भी
परचा भरने
पहुँच चुका केरल से काशी
मौसम भी कुछ/रंग बदलता
तोड़ सभी पिछले अनुबंध

  • ‘शिवाभा’ ए-233, गंगानगर, मेरठ-250001 (उ.प्र.)/मो. 09412212255

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 



।।कविता अनवरत।।


रमेश कटारिया ‘पारस’





ग़ज़ल

खाली है मेरा कासा इक सिक्का डाल दे 
किस्मत को मेरी तू भी थोड़ा उछाल दे

यदि घर में नहीं हैं दाने मेहमान आ गए है 
चावल के साथ थोड़े कंकड़ उबाल दे


रेखाचित्र :
कमलेश चौरसिया 
डरना नहीं किसी से कोई तीसमारखाँ नहीं 
जो भी है तेरे दिल में वो बाहर निकाल दे

भूख में लगती है रोटी भी चाँद जैसी 
चाहे तो तू भी कोई ऐसी मिसाल दे

कैसे नहीं सुनेंगे मजलूमों की फरियादें 
सबके हाथ में तू इक जलती मशाल दे

रफ़्ता रफ़्ता सब ही पहुँच जाएँगे मंज़िल पे 
गिरते हुओं को तू गर थोड़ा सम्भाल दे

पारस भी आ गया है दरवाजे पे तुम्हारे 
हिम्मत है तो उसको घर से निकाल दे

  • 30, कटारिया कुंज गँगा विहार महल गाँव ग्वालियर-474002, म.प्र./मो. 09329478477

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 


।। कथा प्रवाह ।।


आभा सिंह



भुलाये गये लोग

      मकर संक्रांति का दिन आ गया। सभी दान-पुण्य में व्यस्त थे। सुहास भी दान का सामान लेकर शहर के वृद्धाश्रम पहुँच गये। भीतर आते ही उन्हें और दिनों के मुकाबले बड़ी शांति महसूस हुई। कोई आवाजाही नहीं थी... अरे सब कहाँ चले गये।
      आफिस में पता करना ठीक लगा।
      भैया सब कहीं चले गये क्या?
      कर्मचारी मुस्कुराये। हैं न, वे रहे पेड़ों के नीचे, अपनी-अपनी कुर्सियाँ लिए अपने में व्यस्त हैं।
      ऐसा क्यों?
      उनका झगड़ा हो जाता है, तो फिर अलग-अलग समय बिताने लगते हैं।
      अरे, झगड़ा क्यों...? सारी जरूरतें तो संस्था पूरी करती होगी।
      कर्मचारी ने गहरी साँस भरी।
      वह तो है डाक्टर साहब, पर मन भी तो है, उसे लगाने के लिए वे आपस में बातें करते हैं। आज भी सब अपने-अपने बच्चों को अच्छा बता रहे थे। एक बुजुर्ग ने टोक दिया कि बच्चे इतने ही अच्छे थे तो तुम लोग वृद्धाश्रम में क्यों हो? कोई जवाब देते न बना तो बस रूठे-से अलग-अलग हो अतीत की जुगाली कर रहे हैं।
      तो क्या अब ये ऐसे ही रूठे रहेंगे?
      नहीं जी, चाय के वक्त सब अपने आप मन जायेंगे। फिर भी अगर कोई रूठा रहा तो छेड़कर मना लेंगे। बस फिर वही हँसी-मज़ाक... बच्चों की तरफदारी...।
      और बच्चे...।
      अब इनकी तो यही दुनिया है साब। 
  • 80-173, मध्यम मार्ग, मानसरोवर, जयपुर-302020, राज./मो. 08829059234

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 


।। कथा प्रवाह ।।


सन्ध्या तिवारी



मर्मज्ञ सद्इच्छा
       कथा पटल पर आई कि कई एक ‘किताबी चेहरे’ लाइक और कमेन्ट के रुप में चमक उठे। वह खुश था, बहुत खुश। आज तक एक के ऊपर एक लदी सवारियों से ठसाठस भरी बस में बजने वाले गानों की तरह ही उसे सुना गया। लेकिन सोशल मीड़िया पर सक्रिय होने के कुछ ही दिनों में लोग उसे पढ़ने का इन्तज़ार करने लगे थे। यहाँ तक कि कुछ दिन यदि उसकी पोस्ट न लगे तो इनबाक्स में पूछते, ‘‘आपकी नयी पोस्ट कब आयेगी?’’ सोशल मीडिया उसके लिये किसी तिलिस्म से कम न थी लेकिन उसके ‘मंत्रकीलित मस्तिष्क’ उससे सधते न थे। 
      अपनी नयी कथा पर अन्य ‘किताबी चेहरों’ के साथ ‘विशिष्ट किताबी चेहरा’ का लाइक पा अभिभूत हो गया। विशिष्ट जी ने सोशल मीडिया पर लेखक-लेखिकाओं को सुधारने-सँवारने का बीड़ा उठा रखा था। इस नेक काज के पीछे उनका बड़ा दिल और उनकी सद्इच्छा ही काम कर रही थी, नहीं तो आज के व्यस्ततम् समय में किसके पास इतना समय रखा कि कोई किसी को सुधारे-सँवारे।
       उसके मन पर श्रद्धा पारे सी चढ़ ही रही थी कि किसी ने उसकी कथा पर लिखा, ‘‘वाह! क्या कथा लिखी है, दुःख का क्या मानवीकरण किया है। मैं तो दंग रह गया। बधाई हो।’’ उसने फौरन ‘लाइक’ बटन दबा कर उसका आभार व्यक्त किया।
       दूसरे किताबी चेहरे ने भी कथा पसन्द करते हुये लिखा, ‘‘बेहतरीन कथा, आप ऐसे ही लिखते रहें। साधुवाद!’’  
      गदगद चित्त लेखक पुनः ‘लाइक’ बटन दबाकर उसके कमेन्ट के नीचे शुक्रिया लिख ही रहा था कि विशिष्टजी की गुरुगम्भीर टिप्पणी आयी, ‘‘कथा में कमियाँ ही कमियाँ हैं, इसका ट्रीटमेन्ट सही नहीं है। यूँ तो आज के समाज में ऐसे दुःख होते नहीं और यदि आपने देखे भी हैं तो इन्हें कथा का विषय नहीं बनाना चाहिये। इसका लेखन फिर से किया जाना चाहिये।’’
      कथा लेखक अवाक्! उसने तो कथा को जिया था।
      फिर भी उसने विशिष्टजी का सम्मान करते हुये उनका आभार जताया और कथा पुनः लिखने का आश्वासन दिया, लेकिन यह बात, उस लेखक के पाठक पचा नहीं पाये और ग्रुप की वाल पर ही विशिष्टजी को लेखक से अच्छी कथा लिखने की चुनौती दे डाली। उस प्रशंसक का साथ और भी दो तीन पाठकों ने दिया। तिलमिलाये विशिष्टजी ने लेखक के इनबाक्स में लिखा, ‘‘या तो आप मुझे अपनी मित्र सूची में रख लीजिये या उन पाठकों को।’’
      लेखक फिर असमंजस में... उसने लिखा, ‘‘नहीं सर, कहाँ आप कहाँ वे! वे सब तो मात्र सामान्य पाठक हैं, मर्मज्ञ तो आप हैं, कथा पर आपकी टिप्पणी मूल्य...’’
     प्रसन्न अधीश्वरजी बोले; ‘‘फिर अभी ही आप उन पाठकों की टिप्पणी को ‘अनलाइक’ करके उनको ब्लॉक कीजिये।’’
      ‘‘ज्..ज्..जी...’’ लेखक महोदयजी की ‘मर्मज्ञ सद्इच्छा’ सुन सन्न रह गया।
      इनबॉक्स में से सर्र से निकलकर विशिष्टजी ने साहित्यिक दरिद्रता से जूझते ग्रुप को पुनः अपने मणियुक्त बलिष्ठ मस्तक पर धारण कर लिया।
  • 41, बेनी चौधरी, पीलीभीत-262001, उ0प्र0/मोबा. 09410464495

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 


।। कथा प्रवाह ।।


कान्ता राय 



मेड इन इण्डिया
     ‘‘बाई सा, आज हिसाब कर ही दो! अब दूसरी जगह काम करेगी!’’
     ‘‘अरे, ऐसे कैसे! काम क्यों छोड़ेगी?’’
      ‘‘तुम्हारे यहाँ बहुत चिकचिक है!’’
      ‘‘क्या चिकचिक है? तुम्हारे हिसाब से ही कपड़े निकालती हूँ धोने को, तुमने कहा कि एक बाल्टी से अधिक नहीं होना, तो याद से एक बाल्टी ही डालती हूँ। तुम्हारा कपड़ा अधिक ना हो इस कारण रात में नहाना छोड़ दिया है!’’
      ‘‘वो ठीक है रे! दूसरी बात में चिकचिक है!’’
      ‘‘दूसरी बात कौन सी? झाड़ू-पोंछा..? तूने कहा था कि गलीचा सिर्फ रविवार को झाडे़गी, सोफा और डायनिंग टेबल के नीचे एक दिन छोड़ कर पोंछा लगायेगी, गैलरी को सप्ताह में एक बार धोयेगी। सब तो तुम्हारे हिसाब से ही.....!’’
      ‘‘अरे, झाड़ू-पोछाँ के लिए कुछ कहा मैंने, वो नहीं रे!’’
      ‘‘तो क्या बर्तन?’’
      ‘‘हाँ रे, बर्तन!’’
      ‘‘लेकिन खाना तो दोनों वक्त चाहिये, वो तो कम नहीं कर सकती हूँ!’’
      ‘‘तुमको खाना बनाने का शौक है और खिलाने का भी, बस यहीं पर सारी चिकचिक रे बाबा!’’
      ‘‘तुझे भी तो प्यार से खिलाती हूँ, सो?’’
      ‘‘सो क्या? ठगती है प्यार से खिलाकर, बदले में इतना बर्तन माँजने को देती!’’
      ‘‘ओह, तू एक्स्ट्रा रूपये ले लेना बर्तन के! ऊपर की कमाई हो जायेगी!’’
      ‘‘देबा रे, देबा रे, ऊपरी कमाई काली कमाई होती रे! कल ही हमारी चाल में सबने कसम खाई है कि ऊपरी कमाई कोई नहीं खाएगा।’’
      ‘‘अरे, वो ऊपरी कमाई कैसे हुआ भला?’’
      ‘‘वो सब नहीं जानती, मुझे तो मेरी बँधी पगार चाहिये, तू देख ले क्या कर सकती है इस चिकचिक को कम करने के लिए!’’
      ‘‘ठीक है, मैं आधी बर्तन माँज लूँगी और आधी तुम आकर माँज लेना।’’
      ‘‘तुम क्यों माँजेगी बर्तन? मेरे होते माँजेगी तो क्या मुझे अच्छा लगेगा?’’
      ‘‘तो फिर मैं क्या करूँ?’’
      ‘‘हूँ, सोचने दे!.......सुन! एक काम कर सकती है तू!’’
      ‘‘क्या?’’
      ‘‘वो जो तू ऊपरी कमाई का कह रही थी....!’’
      ‘‘हाँ, हाँ, दे दूँगी, जैसा कहेगी, बस काम मत छोड़ना।’’
      ‘‘नहीं रे, ऊपरी कमाई तो ले नहीं सकती, कसम खाई है; लेकिन तू मेरा उतना पगार बढ़ा दे!’’
      ‘‘पगार तो दो महीने पहले ही बढ़ाया था!’’
      ‘‘देख, फिर सोच ले, मैं नहीं रहती इस चिकचिक में!’’
      ‘‘नहीं, नहीं, नाराज मत हो! ठीक है, जैसा तू कहे, बढ़ा दूँगी।’’
      ‘‘अब मैं घर जाती है, शाम को आयेगी। तू आज बड़ा साम्बर बनाना साहिब के लिए। बहुत दिनों से मैंने भी नहीं खाया है!’’
  • 21, सेक्टर-सी, सुभाष कॉलोनी, निकट हाई टेंशन लाइन, गोविंदपुरा, भोपाल, म.प्र./मो. 09575465147

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 


।। कथा प्रवाह ।।


माणक तुलसीराम गौड़ 




जन्मदिवस

       गाँव में थे तब तक किसी को जन्मदिवस मनाते नहीं देखा। जब से शहर में आए हैं महीने दो महीने के अन्तराल से बच्चे किसी न किसी सहपाठी के जन्मदिवस समारोह में जाकर आते हैं।
      आज बड़े बेटे का जन्मदिवस है। हमने कहा शाम को जब भगवान के दीप प्रज्वलित करेंगे उस वक्त कुमकुम का तिलक लगाकर नारियल हाथ मेें देकर जन्मदिवस मना लेंगे, मगर बच्चे माने नहीं। वे जिद करने लगे और उनके साथ उनकी माँ भी।
उनके आगे हारकर आधुनिक ढ़ंग से जन्मदिवस मनाने की तैयारियाँ प्रारम्भ की। बिजली के छोटे-छोटे बल्बों से घर को रोशन किया। गुब्बारे फुलाकर लगाए। केक मँगवाया गया। स्कूल के सहपाठी मित्रों एवं गली-मोहल्ले के बच्चों को आमंत्रित किया। वे सभी आए। सभी बच्चे प्रसन्न हैं। खुशियाँ उनके चेहरे पर साफ झलक रही हैं। बड़ा बेटा अत्यधिक प्रफुल्लित दिखाई दे रहा है। ऐसी खुशी उसके चेहरे पर मैंने पहले कभी नहीं देखी। इस अवसर पर मित्रों द्वारा लाए गए उपहार उसकी खुुशियाँ दुगुनी कर रहे हैं।
      भोजन शुरू हो गया है। इतने में मैंने खिड़की में से देखा कि कच्ची बस्ती के दो बच्चे जो फटे कपड़ों में हैं, कातर दृष्टि से लगातार हमें और हमारे इस समारोह को दूर से देख रहे हैं। मेरी नज़र उन पर पड़ी तो मैं घर से बाहर उनकी तरफ गया। वे मुझे देखते ही पाँव सिर पर रखकर भाग खड़े हुए। मैंने उन्हें पुकारा- ‘‘अरे बच्चो, भागो मत।’’
      मेरी आवाज़ सुनकर वे रुके और पूछा- ‘‘अंकल, आप मारोगे तो नहीं ना...?’’
       मैंने उन्हें आश्वस्त किया तब कहीं जाकर मैं उन्हें घर के भीतर ला पाया। वे अभी भी डर रहे थे। खाने की प्लेट उनके हाथ में दी। वे झट से खा गए। खाना खाकर वे रवाना होने लगे। तभी मैंने कुछ गुब्बारे और एक-एक गिफ्ट उनको दिए। वे अचम्भित हैं। उनके मुखमण्डल पर जो खुशियों के भाव हैं वे मेरे बेटे की खुशियों से भी बढ़कर हैं, जिसका आज जन्मदिवस मनाया जा रहा है।
      यह सब देखकर मेरे पिताजी बोले- ‘‘बेटा, जन्मदिवस मनाने का असली मकसद यही होता है कि हम इस अवसर पर उन्हें याद करें जिन्हें कोई याद नहीं करता।’’
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