अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 09-10, मई-जून 2018
।। कथा प्रवाह ।।
आभा सिंह
भुलाये गये लोग
मकर संक्रांति का दिन आ गया। सभी दान-पुण्य में व्यस्त थे। सुहास भी दान का सामान लेकर शहर के वृद्धाश्रम पहुँच गये। भीतर आते ही उन्हें और दिनों के मुकाबले बड़ी शांति महसूस हुई। कोई आवाजाही नहीं थी... अरे सब कहाँ चले गये।
आफिस में पता करना ठीक लगा।
भैया सब कहीं चले गये क्या?
कर्मचारी मुस्कुराये। हैं न, वे रहे पेड़ों के नीचे, अपनी-अपनी कुर्सियाँ लिए अपने में व्यस्त हैं।
ऐसा क्यों?
उनका झगड़ा हो जाता है, तो फिर अलग-अलग समय बिताने लगते हैं।
अरे, झगड़ा क्यों...? सारी जरूरतें तो संस्था पूरी करती होगी।
कर्मचारी ने गहरी साँस भरी।
वह तो है डाक्टर साहब, पर मन भी तो है, उसे लगाने के लिए वे आपस में बातें करते हैं। आज भी सब अपने-अपने बच्चों को अच्छा बता रहे थे। एक बुजुर्ग ने टोक दिया कि बच्चे इतने ही अच्छे थे तो तुम लोग वृद्धाश्रम में क्यों हो? कोई जवाब देते न बना तो बस रूठे-से अलग-अलग हो अतीत की जुगाली कर रहे हैं।
तो क्या अब ये ऐसे ही रूठे रहेंगे?
नहीं जी, चाय के वक्त सब अपने आप मन जायेंगे। फिर भी अगर कोई रूठा रहा तो छेड़कर मना लेंगे। बस फिर वही हँसी-मज़ाक... बच्चों की तरफदारी...।
और बच्चे...।
अब इनकी तो यही दुनिया है साब।
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