अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 09-10, मई-जून 2018
।।कविता अनवरत।।
पंकज परिमल
दो नवगीत
01. आज लिखने दो मुझे कविता
ठूँठ पर कुछ फुनगियाँ हैं नई
आज लिखने दो मुझे कविता
कुछ नमी में
कुछ अँधेरे में
कुकुरमुत्ता सर उठाता है
नष्ट भाषा-/व्याकरण वाला
गीत अब आँखें दिखाता है
शाम रँगने लग रही सुरमई
आज गाने दो मुझे कविता
इक टिटहरी
बोल जाने क्या
किस दिशा में भाग जाती है
धौंकनी-सी/हाँफती है वो
जो निराले स्वर उठाती है
लोग तो पढ़-पढ़ मरे सतसई
आज पढ़ने दो मुझे कविता
भाव स्वर्णिम
राग भी अरुणिम
किन्तु कागज़ हो गए काले
ये दुमहले/हैं रुपहले भी
पर सधे इनमें मकड़जाले
अश्व कल तक ढूँढ लेगा जई
आज जीने दो मुझे कविता
गीत हाँफा है
ग़ज़ल सोई
जागती है रात-दिन क्षणिका
माल मुक्तक के/पिरो लाया
खो गई अनुराग की मणिका
पान की ही पीक से कत्थई
आज होने दो मुझे कविता
कौन जाने
किस घड़ी बोलें
ठाठ की भी हाट में उल्लू
श्राद्ध-तर्पण/मैं करूँ किसका
हाथ ले जल, बाँधकर चुल्लू
हो न काँधे पर कभी मिरजई
आज तनने दो मुझे कविता
02. जड़ का मान बढ़ा
काले पत्थर पर सेंदुर का
जितना लेप चढ़ा
रेखाचित्र : (स्व.) बी. मोहन नेगी |
चेतनता के हाथों जड़ का
उतना मान बढ़ा
चाँदी की आँखें चुप-चुप हैं
गरिमामयी हुई
बिना पसीजे ही उनकी छब
करुणामयी हुई
उनके पैरों झुकी प्रार्थना
गंधिल फूल सड़ा
मेरी अरज सुनें,
पहले ही
घंटे घनकारे
अपना तिमिर भुला उनके दर
दीपक उजियारे
पूजा-परसादी लाए बिन
क्यूँ मैं रहा खड़ा
- ‘प्रवाल’, ए-129, शालीमार गार्डन एक्स.-।।, साहिबाबाद, गाजियाबाद (उ.प्र.)/मो.09810838832
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