मूलतः साहित्यिक चर्चा एवं आलेखों को अविराम विस्तारित लेवल के अर्न्तगत ही रखना था, परन्तु अब हमें लगता है कि विमर्श का एक अलग लेवल रखना ही उचित होगा। अतः आलेख ‘अविराम विमर्श’ के अन्तर्गत ही देखें। अगला अंक २० अक्टूबर २०११ तक प्रकाशित होगा| आपकी प्रतिक्रियाएं दर्ज करके चर्चा में सहभागी बनें| इससे हमारा उत्साहवर्धन होगा| कृपया रचनाएँ सम्पादकीय पते- डॉ.उमेश महादोषी, ऍफ़-४८८/२, गली-११, राजेंद्र नगर,रुड़की-२४७६६७, जिला- हरिद्वार (उत्तराखंड ) पर भेजें.
।।सामग्री।।
अनवरत : डा. गोपाल बाबू शर्मा, जितेन्द्र जौहर, नूर मोहम्मद ‘नूर’, देवी नागरानी, निर्देश, गणेश भारद्वाज ‘गनी’,डॉ. रामशंकर चंचल, कृष्ण कुमार यादव, राधेश्याम, डा. राजकुमार निजात एवं अनुराग मिश्र ‘गैर’ की काव्य रचनाएँ।
कथा प्रवाह : सुरेश शर्मा, सिद्धेश्वर, महावीर रवांल्टा, मनोज सेवलकर, आकांक्षा यादव, उमेश मोहन धवन, आशीष कुमार व राजीव नामदेव राना लिधौरी की लघुकथाएँ।
क्षणिकाएँ : रचना श्रीवास्तव
जनक छन्द : पं. गिरिमोहन गुरु ‘नगरश्री’
हाइकु : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
व्यंग्य वाण : बृजमोहन श्रीवास्तव
||अनवरत||
=======================================================डा. गोपाल बाबू शर्मा
एक
सच छुपाने की हमें आदत नहीं है,
पास दिल के आइए, सब कुछ कहेंगे।
चाँदनी सी आपकी निर्मल निगाहें,
राम जाने हम उठेंगे या गिरेंगे।
प्यार की गठरी हमारी खूब भारी,
किन्तु व्यापारी नहीं, इन्सान हैं
है आपने जो भी दिया, जितना दिया,
ठीक उससे और ज़्यादा सौंप देंगे।
दो
हम हमेशा नारियल जैसे रहे हैं,
किन्तु अन्दर से न वैसे दिख सके हैं।
भाव जो मन में पले मकरन्द बनकर,
उन्हें कब-कब कह सके या लिख सके हैं।
आजकल छल से भरे बाज़ार में तो,
ज़िन्दगी व्यापार बनकर रह गई है;
मूल्य आँका हो किसी ने कुछ भले ही,
प्यार के बिन क्या कभी हम बिक सके हैं?
तीन
गागरें खाली पड़ी हैं पनघटों पर,
चल रही हैं तेज़ ज़हरीली हवाएँ।
जो सुखों के सिन्धु में डूबे हुए हों,
वे किसी को डूबने से क्या बचाएँ?
ज़िन्दगी तो एक माटी का दिया है,
कौन जाने प्रज्वलित होकर बुझे कब;
जो प्रणय के मर्म को पहचानते हैं,
पीर भी लगती उन्हें सुख की ऋचाएँ।
- 82, सर्वोदय नगर, सासनी गेट, अलीगढ़-202001(उ.प्र.)
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जितेन्द्र ‘जौहर’
ग़ज़ल
ख़ुशामद का मिरे होठों पे, अफ़साना नहीं आया।
मुझे सच को कभी भी झूठ बतलाना नहीं आया।
हुनर अपना कभी मैंने, कहीं गिरवी नहीं रक्खा,
इसी कारण मेरी झोली में नज़राना नहीं आया।
भले ही मुफ़लिसी के दौर में फ़ाक़े किये मैंने,
मगर मुझको कभी भी हाथ फैलाना नहीं आया।
किसी अवरोध के आगे, कभी घुटने नहीं टेके,
मैं दरिया हूँ मुझे राहों में रुक जाना नहीं आया।
सियासत की घटाएँ तो बरसती हैं समुन्दर में,
उन्हें प्यासी ज़मीं पे प्यार बरसाना नहीं आया।
परिन्दे चार दाने भी, ख़ुशी से बाँट लेते हैं,
मगर इंसान को मिल-बाँट के खाना नहीं आया।
अनेकों राहतें बरसीं, हज़ारों बार धरती पर,
ग़रीबी की हथेली पर कोई दाना नहीं आया।
सरे-बाज़ार उसकी आबरू लु्टती रही ‘जौहर’
मदद के वास्ते लेकिन कभी थाना नहीं आया।
नूर मुहम्मद ‘नूर’
कहने वाले तो ये कहते हैं कि घर ग़ायब है
चंद किस्से हैं जो उलझन का पता देते हैं
पर जो सचमुच में खबर है वो खबर ग़ायब है
सारे मंज़र हैं सरेचश्म मगर क्या कहिए
आंख वाले तो हैं, आंखों से नज़र ग़ायब है
इसलिए भी हुए हालात सभी बेक़ाबू
क्योंकि हालात पे हाथों का असर ग़ायब है
एक जंगल में ये तहज़ीब फंसी हो जैसे
और हर सम्त अंधेरा है, डगर ग़ायब है
घोर अचरज से भरे गांव ने देखा अबकी
बस उजाला है, उजाले से नगर ग़ायब है
ये जो चुप्पी है या फिर शोर है इसकी वजहें
या तो बेहद डरी चीजें हैं, या डर ग़ायब है
जो यहां है वो वहां फूल हुआ गूलर का
नूर जो चीज़ इधर है, वो उधर ग़ायब है
देवी नागरानी
गणेश भारद्वाज ‘गनी’
खत्म होती जब हर वर्ष परीक्षा
और शुरू होती
गर्मियों की छुट्टियें की प्रतीक्षा
अब मां हर सांझ निहारती
उस पगडंडी को
जो पहाड़ी से उतरती
खेतों से गुजरती
अैर आंगन तक पहुंचती।
गांव पहुंचने की जिज्ञासा में
और भी लम्बी लगती रात
निद्रा टूटती कई बार
पौ फटने के भ्रम में
यूं एक बरस नहीं
बीते कई बरस
धीरे-धीरे समय की रेत
फिसलती रही जीवन मुट्ठी से।
एक दिन दादी के जाने से
हुई थी मेरी मां अकेली
पर मां के जाने से
पड़ गया पूरा घर अकेला।
जब भी बाबा जाते गांव
आंगन बुहारते और सूखे पत्ते यादों के
स्मृतियों से जाले हटाते
होकर उदास लौट आते
जब सांकल और जंदरे के सहारे
छोड़ आते धुंधली यादों का सामान।
कई बार देखा है बाबा को
मां तुम्हारी फोटो चुपके से निहारते हुए
एक पुरानी चिट्ठी बरसों पहले की
नन्हें हाथों की लिखी
जो बाबा ने पढ़कर थी तुम्हें सुनाई
गांव से लौटने के बाद
न जाने क्यों मुझे थमाई।
मैं जानता हूं
जब भेजता था चिट्ठियां
और बाबा पढ़कर सुनाते
तुम यूं सुनती
जैसे मंदिर की आरती
मस्ज़िद की अजान
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डॉ. रामशंकर चंचल
सचमुच
बहुत अच्छा लगता है
कभी-कभी/अकेला होना
खुद से ही बातें करना
मुस्काना और खो जाना
खुद में ही
दुनियां की भीड़ से अलग
छल-कपट/हिंसा-आतंक
सबसे बेखबर/सुदूर
अपनी मस्ती में/मस्त हो
गुनगुनाना
बहुत अच्छा लगता है
अच्छा लगता है
अकेले चलते रहना
प्रकृति की रम्य
खूबसूरती को निहारते
मीलों दूर-सुदूर
नदी-नाले
पेड़-पक्षी सबसे
बातें करते
उनके संग जीते/मुस्काते
बल्कि सोचता हूँ
कभी-कभी क्यों
अक्सर अच्छा लगता है
इस अमानवीय/दुष्ट
छलभरी दुनियां से
अलग/अकेला होना
अकेला रहना!
कृष्ण कुमार यादव
एक नयी कविता कहती है एक ग़ज़ल
मैं रहता हूं मिसरों के इक सांचे में
सीने में ढलती रहती है एक ग़ज़ल
एक समन्दर शब्दों का जब रचता हूं
नदिया सी बनकर बहती है एक ग़ज़ल
अपनों के ही रिश्ते-नातों में रहकर
जाने कितने ग़म सहती है एक ग़ज़ल
नई मंज़िलों नये रास्तों की खातिर
साथ मेरे पग-पग चलती है एक ग़ज़ल
अनुराग मिश्र ‘गैर’
पहली बार जब
मेरे हाथ में आया था मोबाइल
तब मैं बहुत खुश हुआ था
लगा था जैसे विश्व गाँव
सिमट आया है मेरी मुट्ठी में,
पहली बार जब पढ़ा था
किसी प्रिय का संदेश
तो लगा था
अब निरर्थक हो गये हैं पत्र,
परन्तु एक दिन जब भर गया ‘इनबॉक्स’
तो ‘डिलिट’ करने पड़े कुछ संदेश,
धीरे-धीरे बहुत प्रिय लोगों के
अच्छे-अच्छे संदेश मिटाने पड़ गये।
काश! सन्देश की जगह
आये होते पत्र
तो रखा जा सकता था संभालकर
वर्षों, दशकों या सदियों तक
जब मन करता पढ़ते
बार-बार पढ़ लेते
चूमते, सीने से लगाते।
मन करता है कि
इस युग में भी
कुछ लोग लिखते रहें पत्र
तांकि हृदय में जिन्दा रहे प्रेम
आँखों में बचा रहे आँसू
आइये! मैं लिखूँ पत्र
आप लिखिए पत्र
सब लिखें पत्र
ताकि जिन्दा रहें पत्र!
सुरेश शर्मा
रात का अंधियारा फैल चुका था। रिम-झिम बारिश शुरू हो चुकी थी। सुनसान सड़क पर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए वह अपने घर की तरफ चली जा रही थी। तभी पीछे से किसी के पदचाप की आवाज सुनकर वह बुरी तरह से डर गई।
सिद्धेश्वर
बोहनी
उस गरीब मछुआरे के घर में एक लड़का था। बहुत लाड़-प्यार से पाला था उसने अपने इकलौते बेटे को। लेकिन भगवान की भी अजीब माया होती है, उसने कितनी निर्दयता से उसके इकलौते बेटे को भी छीन लिया। कल शाम कोठे पर पतंग उड़ाते-उड़ाते अचानक पैर फिसल गया और सीधे जमीन पर आ गिरा। उसका पिता अपने घायल बेटे को लेकर सीधा अस्पताल जा पहुँचा, मगर डॉक्टरों ने उसके बेटे को मृत घोषित कर दिया।
भारी मन लिए अपने बेटे की अर्थी सजाई उसने। उसके कदम शमशान घाट की तरफ बढ़ते जा रहे थे। उसने अपने पीछे दो पुलिस कर्मचारियों को बतियाते हुए सुना- ‘‘स्याला, किसका मुँह देखा था यार! सुबह से शाम तक एक पैसे की बोहनी नहीं हुई।’’
दोनों पुलिसकर्मी शमशान घाट तक उसके पीछे-पीछे चलते रहे। उसने अपने बेटे की अर्थी को कंधे पर से उतारा ही था कि एक पुलिसमैन ने अपनी मूँछ को ऐंठते हुए रौबदार स्वर में कहा, ‘‘अबे! ये लाश किसकी है रे?’’
‘‘मेरे जवान बेटे की, हुजूर!’’
‘‘कैसे मारा गया ये?’’
‘‘पतंग लड़ाते समय पैर के फिसल जाने से गिर गया मेरा बेटा।’’ और मछुआरा सुबकने लगा।
‘‘चोप्प स्याला! आँसू बहाने का नाटक छोड़! मुझसे भी झूठ बोलता है बे! तूने जानकर अपने बेटे को कोठे पर से धक्का दिया है, मैंने देखा है। पहले चल बेटा थाने, वहाँ तेरे बेटे का पोस्टमार्टम किया जायेगा।’’
मछुआरा हतप्रभ होकर उसे देखता रहा। मामला उलझ न जाए, इस भय से उसने पचास का नोट उसकी तरफ बढ़ा दिया। पुलिसकर्मी अब चुपचाप चले गए, क्योंकि उनकी बोहनी हो चुकी थी।
महावीर रवांल्टा
वे दोनों सरकारी सेवा में एक साथ आए थे। एक ही विभाग में और पद भी बराबर का, इसलिए जल्दी ही वे एक दूसरे के आत्मीय बन गए। आपसी आत्मीयता के चलते उनकी पत्नियां भी आपस में घनिष्ठ सहेलियां हो गयी। एक ही शहर के एक ही विभाग में नौकरी थी, इसलिए किराए के घर भी दोनों ने एक ही मकान में लिए।
वे पड़ोसी कम, एक दूसरे के शुभचिन्तक अधिक थे। एक घर की बनी दाल दूसरे घर का और दूसरे घर की सब्जी से पहले घर के खाने का स्वाद और बढ़ जाता। काफी कुछ था जो उनका एक-दूसरे पर निर्भर था।
एक बार स्थानान्तरण के कारण दोनों को शहर छोड़कर अलग-अलग कस्बों में जाना पड़ा। अब उनका मिलना कई-कई दिनों बाद होने लगा, फिर महीनों और अब कुछ वर्ष निकल जाते, तब कहीं एक-दूसरे के घर आना-जाना, उठना-बैठना हो पाता। आपसी दुःख-सुख बंटते और उनके बोझिल मन का भार जैसे हल्का हो जाता।
वर्षों बाद एक दिन दोनों परिवार मिले। छुट्टी का दिन था। बड़े इत्मीनान से आपस में बातें करने लगे और बच्चे मौज-मस्ती। छत पर बैठकर सर्दी की चटख धूप शरीर को जैसे तरोताजा कर रही थी। भीतर काफी ठंड थी।
मेहमान मित्र मेजबान मित्र की हवाई चप्पलें पहनकर इत्मीनान से अपने जरूरी काम निबटाने लगा। कुछ देर बाद एकाएक उसे ध्यान आया, वह चप्पलें पहनकर घूम रहा है और मेजबान मित्र नंगे पैर इधर-उधर टहल रहा है। ठंड उसे सता रही है। उसे लगा उसके पैर में भी इस समय चप्पलें होनी चाहिए, पर नहीं थी। वह टहलता हुआ उनके ‘शू रैक’ तक गया, उसका बारीकी से निरीक्षण किया। वहां बच्चों के कई जोड़ी जूते-चप्पलों के साथ एक जोड़ी जूता व चमड़े की चप्पलें उसकी थीं। हवाई चप्पलें कहीं नजर नहीं आयीं।
उसका मन पसीजा। तीन बेटियों और दो बेटों की जिम्मेदारी ने उसके मित्र के हालात बहुत बदल दिए हैं, उसे समझते देर न लगी; और फिर चप्पलें उतारकर उसने एक ओर रख दी ताकि मित्र पहन सके।
अब वह कर्सी पर बैठा टी वी कार्यक्रम देख रहा था और मित्र चप्पलें पहनकर अपने जरूरी काम निबटाने लगा था।
मनोज सेवलकर
घरेलू काम करने वाली रूपा के साथ अक्सर उसका बेटा अनिल बड़े साहब के बंगले पर आया करता। बड़े साहब का बेटा सुमित उसका अच्छा दोस्त बन चुका था।
आकांक्षा यादव
दशहरे का त्यौहार आते ही रामू बहुत खुश हुआ। नए कपड़े, खिलौने और मिठाइयाँ। वह बार-बार माँ की साड़ी पकड़कर खींचता कि जल्दी चलो न मेले में। उधर माँ रामू के बाप का इन्तजार कर रही थी कि वह आए तो उसके साथ चले, पर वह तो अपनी ही दुनियाँ में मस्त था।
दोस्तों के साथ पैग पर पैग चढ़ाते उसका नशा बढ़ता ही जा रहा था। लड़खड़ाते कदमों से वह घर पहुँचा तो खाने की फरमाइश का डाली। खाना न मिलने पर रामू की माँ को ताबड़तोड़ थप्पड़ जड़ दिए। उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। रामू खड़ा होकर ये सब देखता और कभी बीच में आने की कोशिश करता तो उसे भी दो-चार थप्पड़ नसीब हो जाते।
...इतने सबके बावजूद आखिरकार माँ जो माँ ठहरी। शाम को राजू को लेकर मेले पहुँच गई। मेले में उस समय ‘रावण दहन’ की तैयारियाँ चल रही थीं।
...‘माँ! रावण को इस तरह क्यों जलाते हैं?’ रामू ने उत्सुकतावश पूछा।
बेटा, रावण बहुत बुरा आदमी था। वह सबसे लड़ाई करता और आतंक फैलाता। उसने तो कइयों को मारा भी।
‘...पर माँ, पापा भी तो....’
इसके पहले कि वह बात पूरी कर पाता, माँ ने उसके मुँह पर अपना हाथ रख दिया और अपने आँसुओं को पोंछते राजू के लिए मिठाइयाँ खरीदने चल पड़ी।
उमेश मोहन धवन
आशीष कुमार
केदार बाबू निःसंन्तान थे। बढ़ापा ठीक सक कट सके इसके लिये उन्होने इन्तजाम कर लिया था। जीवन भर में कंजूसी से जोड़ा गया धन एक लोकप्रिय प्राइवेट वित्तीय संस्था में जमा कर दिया था। इस लोकप्रिय वित्तीय संस्था ने केदार बाबू को बुढ़ापे में देखभाल करने का आश्वासन दे रखा था। केदार बाबू खुश थे।
एक सुहानी सुबह केदार बाबू लॉन में बैठकर चाय पी रहे थे। टेबल पर रखे समाचार-पत्र के मुखपृष्ठ के एक शीर्षक को देखकर केदार बाबू को दिल का दौरा पड़ा। कुर्सी पर बैठे ही केदार बाबू चिरनिद्रा में सो गये। समाचार का शीर्षक था- ‘‘देश की लोकप्रिय संस्था रातोंरात फरार!’’
राजीव नामदेव राना लिधौरी
आज बाजार से लौटने में नेहा को देर हो गयी थी, इसलिए वह तेज कदमों से अपने घर की तरफ जा रही थी। अचानक उसने यह महसूस किया कि कुछ लोग उसका पीछा कर रहे हैं। जब नेहा को पूरा यकीन हो गया कि वे लोग उसी का पीछा कर रहे हैं, तो वह अपने बचाव का उपाय सोचने लगी। इतने में तीन लड़कों ने सामने आकर उसको घेर लिया। एक पल को तो नेहा घबरा गयी, लेकिन फिर भी उसने अपनी हिम्मत नहीं छोड़ी। लड़कों की नीयत खराब थी, वे उसकी इज्जत लूटना चाहते थे। नेहा ने उनका इरादा भांप लिया और बड़ी निडरता के साथ बोली कि देखिए, मैं पहले एक हाई सोसाइटी कालगर्ल थी, लेकिन जबसे मुझे एड्स हुआ है तब से मैंने यह सब छोड़ दिया है। फिर भी आप लोग यदि चाहते हैं तो......!
नेहा के इतना कहते ही तीनों लड़के डर गये और वे तीनों वहाँ से भाग खड़े हुए।
उनके भागने पर इधर नेहा सोच रही थी कि मेरा यह झूठ मेरी इज्जत बचाने में सफल रहा। उधर वे तीनों सोच रहे थे कि आज हमारी जान बच गयी, नहीं तो हम मौत के मुँह में चले जाते।
||क्षणिकाएं||
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पं. गिरिमोहन गुरु ‘नगरश्री’
1.
बचपन बीता गाँव में
रहने का मन आज भी
आम नीम की छांव में
2.
दिखता नहीं उपाय है
निबटें इस आतंक से
जन समूह निरुपाय है
3.
मन रेतीले हो गये
पतझर का संकेत है
पत्ते पीले हो गये
4.
सड़कों पर बैनर मिले
राजनीति के नगर में
नारों डूबे नर मिले
(जनक छंद मणि मालिका से साभार)
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
सात हाइकु
1.
काशी या काबा
आँसुओं की जग में
एक ही भाषा
2.
आहट मिली
आया कोई पाहुन
कलियां खिलीं
3.
घायल पेड़
सिसकती घाटियाँ
बिगड़ा रूप
4.
घुमड़ आए
रूठे बच्चे-से घन
मुँह फुलाए
5.
अस्थि पंजर
हैं भूख से व्याकुल
प्रभु के घर
6.
आल्हा न गाए
गुम है सुर-ताल
सूनी चौपाल
7.
सात सुरों सी
छम-छम करती
घूमे बिटिया
('मेरे सात जनम' से साभार)
बृजमोहन श्रीवास्तव
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ग़ज़ल
ख़ुशामद का मिरे होठों पे, अफ़साना नहीं आया।
मुझे सच को कभी भी झूठ बतलाना नहीं आया।
हुनर अपना कभी मैंने, कहीं गिरवी नहीं रक्खा,
इसी कारण मेरी झोली में नज़राना नहीं आया।
भले ही मुफ़लिसी के दौर में फ़ाक़े किये मैंने,
मगर मुझको कभी भी हाथ फैलाना नहीं आया।
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
मैं दरिया हूँ मुझे राहों में रुक जाना नहीं आया।
सियासत की घटाएँ तो बरसती हैं समुन्दर में,
उन्हें प्यासी ज़मीं पे प्यार बरसाना नहीं आया।
परिन्दे चार दाने भी, ख़ुशी से बाँट लेते हैं,
मगर इंसान को मिल-बाँट के खाना नहीं आया।
अनेकों राहतें बरसीं, हज़ारों बार धरती पर,
ग़रीबी की हथेली पर कोई दाना नहीं आया।
सरे-बाज़ार उसकी आबरू लु्टती रही ‘जौहर’
मदद के वास्ते लेकिन कभी थाना नहीं आया।
- आई आर-१३/६, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) २३१२१८.
नूर मुहम्मद ‘नूर’
ग़ज़ल
शहर से गांव, तो गांवो से शहर ग़ायब हैकहने वाले तो ये कहते हैं कि घर ग़ायब है
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
पर जो सचमुच में खबर है वो खबर ग़ायब है
सारे मंज़र हैं सरेचश्म मगर क्या कहिए
आंख वाले तो हैं, आंखों से नज़र ग़ायब है
इसलिए भी हुए हालात सभी बेक़ाबू
क्योंकि हालात पे हाथों का असर ग़ायब है
एक जंगल में ये तहज़ीब फंसी हो जैसे
और हर सम्त अंधेरा है, डगर ग़ायब है
घोर अचरज से भरे गांव ने देखा अबकी
बस उजाला है, उजाले से नगर ग़ायब है
ये जो चुप्पी है या फिर शोर है इसकी वजहें
या तो बेहद डरी चीजें हैं, या डर ग़ायब है
जो यहां है वो वहां फूल हुआ गूलर का
नूर जो चीज़ इधर है, वो उधर ग़ायब है
- सी.सी.एम. क्लेम्स लॉ, दक्षिण पूर्व रेलवे, 3, कोयला घाट स्टीªट, कोलकाता-700001
देवी नागरानी
ग़ज़ल
मेरा दिल कलश है मेरा दिल मिनारा
मेरे दिल को बाँटे न कोई खु़दारा
क़लम की ज़ुबानी कहूँ हाले-दिल मैं
कभी तो वो समझे ग़ज़ल का इशारा
ये माना कि मैं टिमटिमाता दिया हूँ
दिया है मुझे आँधियों ने सहारा
फ़रेबी ज़माने में किसको पुकारूँ
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
किया सुनके भी उसने मुझ से किनारा
चुभे तन्ज़ के तीर कुछ इतने ’देवी’
कि छलनी हुआ है ये दिल प्यारा प्यारा
- 9-डी कार्नर, व्यू सोसायटी, 15/33 रोड बान्द्रा, मुम्बई-400050
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निर्देश
अक्सर भीड़ के,
अपने दुःख दर्द नहीं होते
वो किसी और के आंसू रोती है।
बेमाने क्रोध के उबालों पर,
अस्थाई झाग सी
निश्चेष्ट पड़ी सड़कों पर सरकती,
शांत-मंथर देवदासी की सोच अक्सर
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
किसी और की दत्तक होती है।
अनेकों बार सुहृद धर्म सहिष्णु बन,
इठलाती फिरती सहधर्मिणी सड़कों पर,
जिसकी स्मृति की आयु,
जमीन पर गिरे ओले के जितनी होती है।
उनींदी सी पड़ी रहती है तितर-बितर,
सड़क पर छितरे कूड़े सी
किसी के स्वार्थों की आंधी
सकेर कर साथ उसे
नींद भर सोने नहीं देती।
भीड़ों की उन्मादित नदियां/अक्सर
रजनीति के समन्दरों की
आज्ञाकारिणी नगरवधुएं होती हैं।
जिन्हें ये आंखों वाली
अंधी गान्धारी राजनीति ही जन्म देती है
अक्सर भीड़ के अपने दुःख-दर्द नहीं होते
वो किसी और के आंसू रोती है।
- द्वारा डॉ. प्रमोद निधि, विद्याभवन, कचहरी रोड, बुलन्दशहर-203084 (उ.प्र.)
गणेश भारद्वाज ‘गनी’
खत्म होती जब हर वर्ष परीक्षा
और शुरू होती
गर्मियों की छुट्टियें की प्रतीक्षा
अब मां हर सांझ निहारती
उस पगडंडी को
जो पहाड़ी से उतरती
खेतों से गुजरती
अैर आंगन तक पहुंचती।
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
और भी लम्बी लगती रात
निद्रा टूटती कई बार
पौ फटने के भ्रम में
यूं एक बरस नहीं
बीते कई बरस
धीरे-धीरे समय की रेत
फिसलती रही जीवन मुट्ठी से।
एक दिन दादी के जाने से
हुई थी मेरी मां अकेली
पर मां के जाने से
पड़ गया पूरा घर अकेला।
जब भी बाबा जाते गांव
आंगन बुहारते और सूखे पत्ते यादों के
स्मृतियों से जाले हटाते
होकर उदास लौट आते
जब सांकल और जंदरे के सहारे
छोड़ आते धुंधली यादों का सामान।
कई बार देखा है बाबा को
मां तुम्हारी फोटो चुपके से निहारते हुए
एक पुरानी चिट्ठी बरसों पहले की
नन्हें हाथों की लिखी
जो बाबा ने पढ़कर थी तुम्हें सुनाई
गांव से लौटने के बाद
न जाने क्यों मुझे थमाई।
मैं जानता हूं
जब भेजता था चिट्ठियां
और बाबा पढ़कर सुनाते
तुम यूं सुनती
जैसे मंदिर की आरती
मस्ज़िद की अजान
या चर्च की प्रेयर हो जैसे।
- एम.सी.भारद्वाज हाउस, भुट्ठी कॉलोनी,शमशी-175126, जि. कुल्लू (हि.प्र.)
डॉ. रामशंकर चंचल
सचमुच
बहुत अच्छा लगता है
कभी-कभी/अकेला होना
खुद से ही बातें करना
मुस्काना और खो जाना
खुद में ही
दुनियां की भीड़ से अलग
छल-कपट/हिंसा-आतंक
सबसे बेखबर/सुदूर
अपनी मस्ती में/मस्त हो
गुनगुनाना
बहुत अच्छा लगता है
अच्छा लगता है
अकेले चलते रहना
प्रकृति की रम्य
खूबसूरती को निहारते
मीलों दूर-सुदूर
नदी-नाले
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
बातें करते
उनके संग जीते/मुस्काते
बल्कि सोचता हूँ
कभी-कभी क्यों
अक्सर अच्छा लगता है
इस अमानवीय/दुष्ट
छलभरी दुनियां से
अलग/अकेला होना
अकेला रहना!
- माँ, 145, गोपाल कालोनी, झाबुआ-457661(म.प्र.)
कृष्ण कुमार यादव
चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अखबार पढ़ रहा था
अचानक
नजरें ठिठक गईं
‘गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में।’
वही गौरैया,
जो हर आंगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुये।
क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जायेंगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमांग में उमड़ने लगे।
बाहर देखा
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
कंक्रीटों का शहर नजर आया
पेड़ों का नामोनिशां तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवा पाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुंसे पड़े हैं।
बच्चे प्रकृति को
निहारना तो दूर
सब कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालते हैं
आखिर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी?
- निदेशक, डाक सेवा, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101
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राधेश्याम
वसंत ने
मुखरित किया
मधुरतम राग
कोकिल कंठ से
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
धरा ने
पुष्पित किया
सुरभित राग
हरित कंठ से
अन्तर ने
गुंजित किया
अलौकिक स्वर
गहनतम से
- 184/2, शील कुंज, आई.आई.टी. कैम्पस, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड
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डा. राजकुमार निजात
बनते बनते जब बनती है एक ग़ज़लएक नयी कविता कहती है एक ग़ज़ल
मैं रहता हूं मिसरों के इक सांचे में
रेखा चित्र : हिना |
एक समन्दर शब्दों का जब रचता हूं
नदिया सी बनकर बहती है एक ग़ज़ल
अपनों के ही रिश्ते-नातों में रहकर
जाने कितने ग़म सहती है एक ग़ज़ल
नई मंज़िलों नये रास्तों की खातिर
साथ मेरे पग-पग चलती है एक ग़ज़ल
- कंगनपुर रोड, कीर्ति नगर, सिरसा-125055, हरियाणा
अनुराग मिश्र ‘गैर’
पहली बार जब
मेरे हाथ में आया था मोबाइल
तब मैं बहुत खुश हुआ था
लगा था जैसे विश्व गाँव
सिमट आया है मेरी मुट्ठी में,
पहली बार जब पढ़ा था
किसी प्रिय का संदेश
तो लगा था
अब निरर्थक हो गये हैं पत्र,
परन्तु एक दिन जब भर गया ‘इनबॉक्स’
तो ‘डिलिट’ करने पड़े कुछ संदेश,
धीरे-धीरे बहुत प्रिय लोगों के
अच्छे-अच्छे संदेश मिटाने पड़ गये।
काश! सन्देश की जगह
आये होते पत्र
तो रखा जा सकता था संभालकर
वर्षों, दशकों या सदियों तक
जब मन करता पढ़ते
बार-बार पढ़ लेते
चूमते, सीने से लगाते।
मन करता है कि
इस युग में भी
कुछ लोग लिखते रहें पत्र
तांकि हृदय में जिन्दा रहे प्रेम
आँखों में बचा रहे आँसू
आइये! मैं लिखूँ पत्र
आप लिखिए पत्र
सब लिखें पत्र
ताकि जिन्दा रहें पत्र!
- आबकारी निरीक्षक, कलेक्ट्रेट परिसर, बिजनौर-246701 (उ.प्र.)
||कथा प्रवाह||
सुरेश शर्मा
रात का अंधियारा फैल चुका था। रिम-झिम बारिश शुरू हो चुकी थी। सुनसान सड़क पर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए वह अपने घर की तरफ चली जा रही थी। तभी पीछे से किसी के पदचाप की आवाज सुनकर वह बुरी तरह से डर गई।
‘सुनिए... सुनिए।’ पीछे से आवाज आई। अनिष्ट की कल्पना मात्र से वह बारिश और पसीने से भीगते हुए लगभग भागने सी लगी।
‘सुनिए... मैं पुलिस...।’ सुनकर तो वह भय से सिहर उठी। कदमों में और तेजी आ गई। थोड़ी दूर पर एक बंगला देखकर उसने ईश्वर को मन ही मन धन्यवाद दिया। आव देखा न ताव, सुरक्षा की आशा से फुर्ति से वह बंगले में प्रवेश कर गई।
पीछा कर रहे पुलिस वाले की नजर भीतर जा रही युवती और बंगले के बाहर लगी मंत्री जी की ‘नेम प्लेट’ पर एक साथ पड़ी तो व्यथित स्वर में बोला- ‘बेटी, ये क्या कर दिया तूने? अब तो ईश्वर भी तेरी मदद नहीं कर पाएगा।’
- 235, क्लर्क कालोनी, इन्दौर-452011 (म.प्र.)
सिद्धेश्वर
बोहनी
उस गरीब मछुआरे के घर में एक लड़का था। बहुत लाड़-प्यार से पाला था उसने अपने इकलौते बेटे को। लेकिन भगवान की भी अजीब माया होती है, उसने कितनी निर्दयता से उसके इकलौते बेटे को भी छीन लिया। कल शाम कोठे पर पतंग उड़ाते-उड़ाते अचानक पैर फिसल गया और सीधे जमीन पर आ गिरा। उसका पिता अपने घायल बेटे को लेकर सीधा अस्पताल जा पहुँचा, मगर डॉक्टरों ने उसके बेटे को मृत घोषित कर दिया।
भारी मन लिए अपने बेटे की अर्थी सजाई उसने। उसके कदम शमशान घाट की तरफ बढ़ते जा रहे थे। उसने अपने पीछे दो पुलिस कर्मचारियों को बतियाते हुए सुना- ‘‘स्याला, किसका मुँह देखा था यार! सुबह से शाम तक एक पैसे की बोहनी नहीं हुई।’’
दोनों पुलिसकर्मी शमशान घाट तक उसके पीछे-पीछे चलते रहे। उसने अपने बेटे की अर्थी को कंधे पर से उतारा ही था कि एक पुलिसमैन ने अपनी मूँछ को ऐंठते हुए रौबदार स्वर में कहा, ‘‘अबे! ये लाश किसकी है रे?’’
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
‘‘कैसे मारा गया ये?’’
‘‘पतंग लड़ाते समय पैर के फिसल जाने से गिर गया मेरा बेटा।’’ और मछुआरा सुबकने लगा।
‘‘चोप्प स्याला! आँसू बहाने का नाटक छोड़! मुझसे भी झूठ बोलता है बे! तूने जानकर अपने बेटे को कोठे पर से धक्का दिया है, मैंने देखा है। पहले चल बेटा थाने, वहाँ तेरे बेटे का पोस्टमार्टम किया जायेगा।’’
मछुआरा हतप्रभ होकर उसे देखता रहा। मामला उलझ न जाए, इस भय से उसने पचास का नोट उसकी तरफ बढ़ा दिया। पुलिसकर्मी अब चुपचाप चले गए, क्योंकि उनकी बोहनी हो चुकी थी।
- अवसर प्रकाशन, पो.बा. नं. 205, करबिगहिया, पटना-800001 (बिहार)
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महावीर रवांल्टा
वे दोनों सरकारी सेवा में एक साथ आए थे। एक ही विभाग में और पद भी बराबर का, इसलिए जल्दी ही वे एक दूसरे के आत्मीय बन गए। आपसी आत्मीयता के चलते उनकी पत्नियां भी आपस में घनिष्ठ सहेलियां हो गयी। एक ही शहर के एक ही विभाग में नौकरी थी, इसलिए किराए के घर भी दोनों ने एक ही मकान में लिए।
वे पड़ोसी कम, एक दूसरे के शुभचिन्तक अधिक थे। एक घर की बनी दाल दूसरे घर का और दूसरे घर की सब्जी से पहले घर के खाने का स्वाद और बढ़ जाता। काफी कुछ था जो उनका एक-दूसरे पर निर्भर था।
एक बार स्थानान्तरण के कारण दोनों को शहर छोड़कर अलग-अलग कस्बों में जाना पड़ा। अब उनका मिलना कई-कई दिनों बाद होने लगा, फिर महीनों और अब कुछ वर्ष निकल जाते, तब कहीं एक-दूसरे के घर आना-जाना, उठना-बैठना हो पाता। आपसी दुःख-सुख बंटते और उनके बोझिल मन का भार जैसे हल्का हो जाता।
दृश्य छाया चित्र : महावीर रवांल्टा |
मेहमान मित्र मेजबान मित्र की हवाई चप्पलें पहनकर इत्मीनान से अपने जरूरी काम निबटाने लगा। कुछ देर बाद एकाएक उसे ध्यान आया, वह चप्पलें पहनकर घूम रहा है और मेजबान मित्र नंगे पैर इधर-उधर टहल रहा है। ठंड उसे सता रही है। उसे लगा उसके पैर में भी इस समय चप्पलें होनी चाहिए, पर नहीं थी। वह टहलता हुआ उनके ‘शू रैक’ तक गया, उसका बारीकी से निरीक्षण किया। वहां बच्चों के कई जोड़ी जूते-चप्पलों के साथ एक जोड़ी जूता व चमड़े की चप्पलें उसकी थीं। हवाई चप्पलें कहीं नजर नहीं आयीं।
उसका मन पसीजा। तीन बेटियों और दो बेटों की जिम्मेदारी ने उसके मित्र के हालात बहुत बदल दिए हैं, उसे समझते देर न लगी; और फिर चप्पलें उतारकर उसने एक ओर रख दी ताकि मित्र पहन सके।
अब वह कर्सी पर बैठा टी वी कार्यक्रम देख रहा था और मित्र चप्पलें पहनकर अपने जरूरी काम निबटाने लगा था।
- ‘सम्भावना’ महरगॉव, पत्रा.- मोल्टाड़ी, पुरोला, उत्तरकाशी-249185, उत्तराखण्ड
मनोज सेवलकर
घरेलू काम करने वाली रूपा के साथ अक्सर उसका बेटा अनिल बड़े साहब के बंगले पर आया करता। बड़े साहब का बेटा सुमित उसका अच्छा दोस्त बन चुका था।
आज जब अनिल और सुमित खेल रहे थे तो बंगले की छत पर बैठा काग ‘‘काँव-काँव’’ की चीत्कार करने लगा। आंगन में बैठी धूप सेंक रही दादी ने सुमित से कहा- ‘‘लगता है आज कोई मेहमान आने वाला है।’’ यह सुन सुमित नाचने लगा और खुशी से अनिल से बोला- ‘‘तब तो बड़ा मजा आयेगा। मम्मी रोज अच्छे-अच्छे पकवान बनायेगी। आज यदि मुम्बई वाले मामा आ जायें तो बहुत अच्छा।’’ कहते-कहते खुशी में उसने अनिल के कंधे पर हाथ रख उसे चक्कर-घिन्नी कर दिया।
उसकी इस प्रकार खुशी को देख अनिल सोच में डूब गया और बोला- ‘‘तो मैं कल से नहीं आऊँगा....।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘तुम्हारे यहाँ मेहमान आ जायेंगे तो तुम तो उनके साथ खेलोगे, मेरे साथ थोड़े ही.....’’ कहते हुए उसकी आँखों में आँसू आ गये।
‘‘नहीं रे, तू तो मेरा दोस्त है। अपन तो खेलेंगे ही। तू तो रोज आना तेरी माँ के साथ, आयेगा ना......?’’
काम पूरा होते ही अनिल की माँ ने उसे अपने साथ चलने के लिए बुला लिया। गुमसुम सा अनिल माँ के साथ अपने झोंपड़ी की ओर निकल पड़ा।
झोंपड़ी के निकट पहुँचते ही उसने देखा- एक काग उसकी भी झोंपड़ी पर बैठा ‘‘काँव-काँंव’’ कर रहा है। वह सुमित के समान खुशी जाहिर करने के लिए नाचने ही वाला था कि झोंपड़ी में प्रविष्ट हो चुकी माँ ने उसे आवाज लगाते हुए कहा- ‘‘अनिल, इस कव्वे को भगा, आज का ही आटा है कहीं मेहमान आ गये तो उसे क्या खिलायेंगे?’’
अनिल खुशी में नाचने के बजाय अब माँ के आदेश का पालन करते हुए कव्वे को अपने झोंपड़े से दूर भगाने लगा।
- 2892, ‘ई’ सेक्टर, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
आकांक्षा यादव
दशहरे का त्यौहार आते ही रामू बहुत खुश हुआ। नए कपड़े, खिलौने और मिठाइयाँ। वह बार-बार माँ की साड़ी पकड़कर खींचता कि जल्दी चलो न मेले में। उधर माँ रामू के बाप का इन्तजार कर रही थी कि वह आए तो उसके साथ चले, पर वह तो अपनी ही दुनियाँ में मस्त था।
दोस्तों के साथ पैग पर पैग चढ़ाते उसका नशा बढ़ता ही जा रहा था। लड़खड़ाते कदमों से वह घर पहुँचा तो खाने की फरमाइश का डाली। खाना न मिलने पर रामू की माँ को ताबड़तोड़ थप्पड़ जड़ दिए। उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। रामू खड़ा होकर ये सब देखता और कभी बीच में आने की कोशिश करता तो उसे भी दो-चार थप्पड़ नसीब हो जाते।
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
...‘माँ! रावण को इस तरह क्यों जलाते हैं?’ रामू ने उत्सुकतावश पूछा।
बेटा, रावण बहुत बुरा आदमी था। वह सबसे लड़ाई करता और आतंक फैलाता। उसने तो कइयों को मारा भी।
‘...पर माँ, पापा भी तो....’
इसके पहले कि वह बात पूरी कर पाता, माँ ने उसके मुँह पर अपना हाथ रख दिया और अपने आँसुओं को पोंछते राजू के लिए मिठाइयाँ खरीदने चल पड़ी।
- टाइप 5, ऑफिसर्स बंगला, हैडो, पोर्टब्लेयर-744102 (अंड.-निको. द्वीप समूह)
उमेश मोहन धवन
शाम का समय था। सैकड़ों सैलानी सागर की लहरों का आनन्द ले रहे थे। ऊँची लहरें तेज़ी से आतीं से आतीं और ढेरों सफ़ेद झाग तट पर उड़ेल जातीं। ‘‘पापा देखो सागर देवता टूथपेस्ट कर रहे हैं। यह सारा झाग उसी का है।’’ बच्चा चहकते हुए बोला। ‘‘तूम्हें कैसे पता?’’ पिता ने पूछा। ‘‘मैंने किताब में पढ़ा था, रामचन्द्रजी ने क्रोध किया तो वे प्रकट हुए थे। ’’ बच्चे ने पढ़ा हुआ बोल दिया।
‘‘ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने कपड़े खंगालकर वाशिंग मशीन खाली कर दी हो।’’ बच्चे की माँ मन में सोच रही थी। ‘‘वापस जाकर मुझे भी दो अटैची भरके कपड़े धोने पड़ेंगे, तब भी ऐसा ही झाग निकलेगा जो सारी जिंदगी खत्म नहीं होगा। भला चार दिन बीतते पता चलते हैं!’’
पास ही दो जवान लड़के बैठे थे। उनमें से एक बोला- ‘‘यार, ऐसा नहीं लग रहा है जैसे किसी ने सारे संसार की बीयर सागर में उड़ेल दी हो! काश ये झाग उसी का होता और मैं उसमें गोते लगा रहा होता।’’
एक तरफ बैठा नारायणन सूनी आँखों से लहरों में कुछ ढूँड़ते हुए बड़बड़ा रहा था- ‘‘ये सागर नहीं, अजगर है। और ये झाग नहीं उसकी लपलपाती जीभ है।‘‘ दस दिन पहले इसीेे ने उसके जवान बेटे को निगल लिया था। लाश भी नहीं मिली। अब वह रोज यहाँ आता है और घंटों दानवाकार लहरों को इस उम्मीद में ताकता रहता है कि शायद किसी दिन यह अजगर उसके बेटे को उगल ही दे। पर लगता है आज भी वह निराश ही वापस लौट जायेगा।
- 13/34, परमट, कानपुर-204001 (उ0 प्र0)
आशीष कुमार
केदार बाबू निःसंन्तान थे। बढ़ापा ठीक सक कट सके इसके लिये उन्होने इन्तजाम कर लिया था। जीवन भर में कंजूसी से जोड़ा गया धन एक लोकप्रिय प्राइवेट वित्तीय संस्था में जमा कर दिया था। इस लोकप्रिय वित्तीय संस्था ने केदार बाबू को बुढ़ापे में देखभाल करने का आश्वासन दे रखा था। केदार बाबू खुश थे।
एक सुहानी सुबह केदार बाबू लॉन में बैठकर चाय पी रहे थे। टेबल पर रखे समाचार-पत्र के मुखपृष्ठ के एक शीर्षक को देखकर केदार बाबू को दिल का दौरा पड़ा। कुर्सी पर बैठे ही केदार बाबू चिरनिद्रा में सो गये। समाचार का शीर्षक था- ‘‘देश की लोकप्रिय संस्था रातोंरात फरार!’’
- 69, ईशापुर चमियानी, उन्नाव-209827 (उ.प्र.)
राजीव नामदेव राना लिधौरी
आज बाजार से लौटने में नेहा को देर हो गयी थी, इसलिए वह तेज कदमों से अपने घर की तरफ जा रही थी। अचानक उसने यह महसूस किया कि कुछ लोग उसका पीछा कर रहे हैं। जब नेहा को पूरा यकीन हो गया कि वे लोग उसी का पीछा कर रहे हैं, तो वह अपने बचाव का उपाय सोचने लगी। इतने में तीन लड़कों ने सामने आकर उसको घेर लिया। एक पल को तो नेहा घबरा गयी, लेकिन फिर भी उसने अपनी हिम्मत नहीं छोड़ी। लड़कों की नीयत खराब थी, वे उसकी इज्जत लूटना चाहते थे। नेहा ने उनका इरादा भांप लिया और बड़ी निडरता के साथ बोली कि देखिए, मैं पहले एक हाई सोसाइटी कालगर्ल थी, लेकिन जबसे मुझे एड्स हुआ है तब से मैंने यह सब छोड़ दिया है। फिर भी आप लोग यदि चाहते हैं तो......!
नेहा के इतना कहते ही तीनों लड़के डर गये और वे तीनों वहाँ से भाग खड़े हुए।
उनके भागने पर इधर नेहा सोच रही थी कि मेरा यह झूठ मेरी इज्जत बचाने में सफल रहा। उधर वे तीनों सोच रहे थे कि आज हमारी जान बच गयी, नहीं तो हम मौत के मुँह में चले जाते।
- नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालौनी, कुँवरपुरा रोड, टीकमगढ़-472001(म.प्र.)
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||क्षणिकाएं||
रचना श्रीवास्तव
1.
साँवली रात
की सिलवटों में
खोये रहते थे हम
और पहरे पर होता चाँद
खुल चुकी हैं
सिलवटें
अब तो ,
और घायल है चाँद
2.
ठंढा सफ़ेद हवा का झोका
मेरी हड्डियों को
गुदगुदा गया
सुनाई दी एक आवाज तभी
बेटा स्वेटर पहन लो
लग जाएगी ठण्ड
और मैने जैकेट उठा ली
3.
सर्द कोहरे को ओढ
ठिठुरता गुलाब
ढूंढ़ रहा था
अपनी महक ,
अलसाई पंखुड़ियों में शबनम
और अपना वजूद
तभी क्रूर हाथों ने
उसे डाली से अलग कर
खोज को विराम देदिया
4.
धुन्ध को ओढ़ मै
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
कई दिनों से
ढूंढ़ रही थी सूरज को
आकाश के किनारे
एक कराह सुनी
देखा तो सूरज घायल पड़ा था
पूछने पर बोला
तानो और गालियों से ज़ख़्मी हूँ
जो लोगों ने
गर्म मौसम मे दिए थे मुझे
5.
हमारे रिश्ते की म्रत्यु पर
भिजवाये थे तुमने
कुछ बर्फ के फूल
उन्ही फूलो की कब्र पर
आज धुन्ध ने पैहरे बैठाएं हैं
वर्तमान निवास : अमेरिका (भारत में सम्पर्क : द्वारा श्री रमाकान्त पाण्डेय, 36, सर्वोदय नगर, लखनऊ, उ.प्र.)
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||जनक छन्द||
पं. गिरिमोहन गुरु ‘नगरश्री’
1.
बचपन बीता गाँव में
रहने का मन आज भी
आम नीम की छांव में
2.
दिखता नहीं उपाय है
दृश्य छाया चित्र : रामेश्वर कम्बोज हिमांशु |
3.
मन रेतीले हो गये
पतझर का संकेत है
पत्ते पीले हो गये
4.
सड़कों पर बैनर मिले
राजनीति के नगर में
नारों डूबे नर मिले
(जनक छंद मणि मालिका से साभार)
- गोस्वामी सेवाश्रम, हाउसिं बोर्ड कालोनी, होशंगाबाद-461001(म.प्र.)
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||हाइकु||
सात हाइकु
1.
काशी या काबा
आँसुओं की जग में
एक ही भाषा
2.
आहट मिली
आया कोई पाहुन
कलियां खिलीं
3.
दृश्य छाया चित्र : रामेश्वर कम्बोज हिमांशु |
सिसकती घाटियाँ
बिगड़ा रूप
4.
घुमड़ आए
रूठे बच्चे-से घन
मुँह फुलाए
5.
अस्थि पंजर
हैं भूख से व्याकुल
प्रभु के घर
6.
आल्हा न गाए
गुम है सुर-ताल
सूनी चौपाल
7.
सात सुरों सी
छम-छम करती
घूमे बिटिया
('मेरे सात जनम' से साभार)
- 37-बी/02, रोहिणी, सैक्टर-17, नई दिल्ली-110089
||व्यंग्य वाण||
ब्लाग पर टिप्पणियां
एक मास्साब थे, हर किसी से पूछते- आपने ताजमहल देखा है? नहीं, कभी घर से बाहर भी निकला करो।
हर किसी से- आपने यह देखा है, वह देखा है, कभी घर से बाहर भी निकला करो। बड़ी परेशानी। एक दिन एक युवक ने उन्हें आवाज दी- मास्साब!
क्या है?
रामलाल को जानते हैं?
कौन रामलाल?
कभी घर पर भी रहा कीजिये।
अर्थात ब्लागर को हर ब्लाग पर जाकर उसकी तारीफ करने आना चाहिये तब लोग ब्लागर को पढ़ने आयेंगे। अन्यथा जीरो टिप्पणी वाला कब तक लिखेगा और किसके लिये लिखेगा!
मैं एक विद्वान साहित्यकार का ब्लाग पढ़ रहा था, सैकड़ों उत्कृष्ट रचनायें उनके ब्लाग पर, नियमित लेखक। सहसा एक बहुत ही छोटी सी टिप्पणी पर मेरी नजर गई- ‘‘अच्छा लिखा है, लिखते रहिये आप’’। मैंने जानना चाहा ये टिप्पणीकार कौन हैं, तो मैं उनके घर गया (मतलब ब्लॉग पर), दो माह पहले ही इन्होंने ब्लाग बनाया है। सच मानिए मुझे उनकी टिप्पणी ऐसे लगी, जैसे कोई बच्चा बाबा रामदेव से कह रहा हो- अच्छा अनुलोम विलाम करते हैं, आप करते रहिये।
जब मैं विभिन्न ब्लॉग पर बहुत टिप्पणियाँ देख रहा था तो मुझे सहसा एक नवाब साहब का किस्सा याद आ गया। एक थे नवाब, दिन भर शेर शायरी लिखते, कमी की कोई चिंता न थी, रईसजादे थे, अपार पुश्तेनी संपत्ति के एकमात्र बारिस, बारिस माने बरसात नहीं, स्वामी, वो क्या है कि कुछ लोग ‘स’ को ‘श’ उच्चारित करते हैं।
उन्होंने कहा- हैप्पी न्यू इयर।
इन्होंने जवाब दिया- शेम टू यू।
खैर, तो उनकी हवेली की बैठक (दरीखाने) में रात्रि 8 बजे से ही महफिल शुरू हो जाती। एकमात्र शायर नवाब साहिब, वाकी 15-20 श्रोता, साहित्यकार, गज़लों और शायरी के शौकीन। वाह-वाह, क्या बात है, की आवाज से हवेली गूंजने लगती, रसिक श्रोता भाव-विभोर, भावभीने अंदर से आई पकौड़ियों-समोसों पर हाथ साफ करते रहते।
एक दिन नवाब साहिब सोकर उठे तो पेट में भयंकर दर्द। दोपहर तक और ज्यादा, शाम होते-होते दर्द से बेचैन होने लगे। इधर दरीखाना लोगों से भरने लगा। बेगम ने कहा नौकर से मना करवा दो कि आज तबियत ठीक नहीं है। नवाब बोले- नहीं बेअदवी होगी, बदसलूकी होगी, मुझे ही जाकर इत्तला देना होगा। खैर साहिब, कुरते के अन्दर एक हाथ से पेट दबाये नवाब साहिब पंहुचे, मनसद पर बैठे और कहा- ‘आज सुबह से मेरे पेट में बहुत ज्यादा दर्द है’।
वाह!वाह!! क्या बात है, क्या तसब्बुर है, क्या जज्बात है, हुजूर ने तो आज कमाल कर दिया (हवेली गूंजने लगी), वाह हुजूर क्या बात कही है, हुजूर ने ग़ज़ल के लिए क्या ज़मीन चुनी है, क्या मुखड़ा फरमाया है, साहिब मुकर्रर - इरशाद! हुजूर तरन्नुम में हो जाये .........।
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
- एफ-63, आफीसर्स कालौनी, रतलाम (म.प्र.)