आपका परिचय

सोमवार, 19 सितंबर 2011

अविराम विस्तारित

मूलतः साहित्यिक चर्चा एवं आलेखों को अविराम विस्तारित लेवल के अर्न्तगत ही रखना था, परन्तु अब हमें लगता है कि विमर्श का एक अलग लेवल रखना ही उचित होगा। अतः आलेख ‘अविराम विमर्श’ के अन्तर्गत ही देखें। अगला अंक २० अक्टूबर २०११ तक प्रकाशित होगा| आपकी प्रतिक्रियाएं दर्ज करके चर्चा में सहभागी बनें| इससे हमारा उत्साहवर्धन होगा| कृपया रचनाएँ सम्पादकीय पते-  डॉ.उमेश महादोषी, ऍफ़-४८८/२, गली-११, राजेंद्र नगर,रुड़की-२४७६६७, जिला- हरिद्वार (उत्तराखंड )  पर भेजें. 

।।सामग्री।।

 अनवरत :  डा. गोपाल बाबू शर्मा, जितेन्द्र जौहर, नूर मोहम्मद ‘नूर’,  देवी नागरानी, निर्देश, गणेश भारद्वाज ‘गनी’,डॉ. रामशंकर चंचल, कृष्ण कुमार यादव, राधेश्याम, डा. राजकुमार निजात एवं अनुराग मिश्र ‘गैर’ की काव्य रचनाएँ।
कथा प्रवाह : सुरेश शर्मा,  सिद्धेश्वर,   महावीर रवांल्टा, मनोज सेवलकर, आकांक्षा यादव, उमेश मोहन धवन, आशीष कुमार व राजीव नामदेव राना लिधौरी की लघुकथाएँ।
क्षणिकाएँ :  रचना श्रीवास्तव
नक छन्द :  पं. गिरिमोहन गुरु ‘नगरश्री’
हाइकु :  रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
व्यंग्य वाण :  बृजमोहन श्रीवास्तव

||अनवरत|| 
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डा. गोपाल बाबू शर्मा








दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
तीन मुक्तक
एक
सच छुपाने की हमें आदत नहीं है,
    पास दिल के आइए, सब कुछ कहेंगे।
चाँदनी सी आपकी निर्मल निगाहें,
           राम जाने हम उठेंगे या गिरेंगे।
प्यार की गठरी हमारी खूब भारी,
            किन्तु व्यापारी नहीं, इन्सान हैं
है आपने जो भी दिया, जितना दिया,
          ठीक उससे और ज़्यादा सौंप देंगे।

दो
हम हमेशा नारियल जैसे रहे हैं,
    किन्तु अन्दर से न वैसे दिख सके हैं।
भाव जो मन में पले मकरन्द बनकर,
    उन्हें कब-कब कह सके या लिख सके हैं।
आजकल छल से भरे बाज़ार में तो,
    ज़िन्दगी व्यापार बनकर रह गई है;
मूल्य आँका हो किसी ने कुछ भले ही,
    प्यार के बिन क्या कभी हम बिक सके हैं?

तीन
गागरें खाली पड़ी हैं पनघटों पर,
    चल रही हैं तेज़ ज़हरीली हवाएँ।
जो सुखों के सिन्धु में डूबे हुए हों,
    वे किसी को डूबने से क्या बचाएँ?
ज़िन्दगी तो एक माटी का दिया है,
    कौन जाने प्रज्वलित होकर बुझे कब;
जो प्रणय के मर्म को पहचानते हैं,
    पीर भी लगती उन्हें सुख की ऋचाएँ।
  • 82, सर्वोदय नगर, सासनी गेट, अलीगढ़-202001(उ.प्र.)
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जितेन्द्र ‘जौहर’




ग़ज़ल

ख़ुशामद का मिरे होठों पे, अफ़साना नहीं आया।
मुझे सच को कभी भी झूठ बतलाना नहीं आया।

हुनर अपना कभी मैंने, कहीं गिरवी नहीं रक्खा,
इसी कारण मेरी झोली में नज़राना नहीं आया।

भले ही मुफ़लिसी के दौर में फ़ाक़े किये मैंने,
मगर मुझको कभी भी हाथ फैलाना नहीं आया।

रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
किसी अवरोध के आगे, कभी घुटने नहीं टेके,
मैं दरिया हूँ मुझे राहों में रुक जाना नहीं आया।

सियासत की घटाएँ तो बरसती हैं समुन्दर में,
उन्हें प्यासी ज़मीं पे प्यार बरसाना नहीं आया।

परिन्दे चार दाने भी, ख़ुशी से बाँट लेते हैं,
मगर इंसान को मिल-बाँट के खाना नहीं आया।

अनेकों राहतें बरसीं, हज़ारों बार धरती पर,
ग़रीबी की हथेली पर कोई दाना नहीं आया।

सरे-बाज़ार उसकी आबरू लु्टती रही ‘जौहर’
मदद के वास्ते लेकिन कभी थाना नहीं आया।

  • आई आर-१३/६, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) २३१२१८.
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नूर मुहम्मद ‘नूर’
ग़ज़ल
शहर से गांव, तो गांवो से शहर ग़ायब है
कहने वाले तो ये कहते हैं कि घर ग़ायब है

दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
चंद किस्से हैं जो उलझन का पता देते हैं
पर जो सचमुच में खबर है वो खबर ग़ायब है

सारे मंज़र हैं सरेचश्म मगर क्या कहिए
आंख वाले तो हैं, आंखों से नज़र ग़ायब है

इसलिए भी हुए हालात सभी बेक़ाबू 
क्योंकि हालात पे हाथों का असर ग़ायब है

एक जंगल में ये तहज़ीब फंसी हो जैसे
और हर सम्त अंधेरा है, डगर ग़ायब है

घोर अचरज से भरे गांव ने देखा अबकी
बस उजाला है, उजाले से नगर ग़ायब है

ये जो चुप्पी है या फिर शोर है इसकी वजहें
या तो बेहद डरी चीजें हैं, या डर ग़ायब है

जो यहां है वो वहां फूल हुआ गूलर का
नूर जो चीज़ इधर है, वो उधर ग़ायब है

  • सी.सी.एम. क्लेम्स लॉ, दक्षिण पूर्व रेलवे, 3, कोयला घाट स्टीªट, कोलकाता-700001
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देवी नागरानी
ग़ज़ल

मेरा दिल कलश है मेरा दिल मिनारा
मेरे दिल को बाँटे न कोई खु़दारा

क़लम की ज़ुबानी कहूँ हाले-दिल मैं
कभी तो वो समझे ग़ज़ल का इशारा

ये माना कि मैं टिमटिमाता दिया हूँ
दिया है मुझे आँधियों ने सहारा

फ़रेबी ज़माने में किसको पुकारूँ
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर
किया सुनके भी उसने मुझ से किनारा

चुभे तन्ज़ के तीर कुछ इतने ’देवी’
कि छलनी हुआ है ये दिल प्यारा प्यारा

  • 9-डी कार्नर, व्यू सोसायटी, 15/33 रोड बान्द्रा, मुम्बई-400050
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निर्देश


भीड़
अक्सर भीड़ के,
अपने दुःख दर्द नहीं होते
वो किसी और के आंसू रोती है।
बेमाने क्रोध के उबालों पर,
अस्थाई झाग सी
निश्चेष्ट पड़ी सड़कों पर सरकती,
शांत-मंथर देवदासी की सोच अक्सर
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
किसी और की दत्तक होती है।
अनेकों बार सुहृद धर्म सहिष्णु बन,
इठलाती फिरती सहधर्मिणी सड़कों पर,
जिसकी स्मृति की आयु,
जमीन पर गिरे ओले के जितनी होती है।
उनींदी सी पड़ी रहती है तितर-बितर,
सड़क पर छितरे कूड़े सी
किसी के स्वार्थों की आंधी
सकेर कर साथ उसे
नींद भर सोने नहीं देती।
भीड़ों की उन्मादित नदियां/अक्सर
रजनीति के समन्दरों की
आज्ञाकारिणी नगरवधुएं होती हैं।
जिन्हें ये आंखों वाली
अंधी गान्धारी राजनीति ही जन्म देती है
अक्सर भीड़ के अपने दुःख-दर्द नहीं होते
वो किसी और के आंसू रोती है।

  • द्वारा डॉ. प्रमोद निधि, विद्याभवन, कचहरी रोड, बुलन्दशहर-203084 (उ.प्र.)
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गणेश भारद्वाज ‘गनी’



जब भेजता था चिट्ठियां
खत्म होती जब हर वर्ष परीक्षा
और शुरू होती
गर्मियों की छुट्टियें की प्रतीक्षा
अब मां हर सांझ निहारती
उस पगडंडी को
जो पहाड़ी से उतरती
खेतों से गुजरती
अैर आंगन तक पहुंचती।
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
गांव पहुंचने की जिज्ञासा में
और भी लम्बी लगती रात
निद्रा टूटती कई बार
पौ फटने के भ्रम में

यूं एक बरस नहीं
बीते कई बरस
धीरे-धीरे समय की रेत
फिसलती रही जीवन मुट्ठी से।

एक दिन दादी के जाने से
हुई थी मेरी मां अकेली
पर मां के जाने से
पड़ गया पूरा घर अकेला।

जब भी बाबा जाते गांव
आंगन बुहारते और सूखे पत्ते यादों के
स्मृतियों से जाले हटाते
होकर उदास लौट आते
जब सांकल और जंदरे के सहारे
छोड़ आते धुंधली यादों का सामान।
कई बार देखा है बाबा को
मां तुम्हारी फोटो चुपके से निहारते हुए
एक पुरानी चिट्ठी बरसों पहले की
नन्हें हाथों की लिखी
जो बाबा ने पढ़कर थी तुम्हें सुनाई
गांव से लौटने के बाद
न जाने क्यों मुझे थमाई।
मैं जानता हूं
जब भेजता था चिट्ठियां
और बाबा पढ़कर सुनाते
तुम यूं सुनती
जैसे मंदिर की आरती
मस्ज़िद की अजान
या चर्च की प्रेयर हो  जैसे।
  • एम.सी.भारद्वाज हाउस, भुट्ठी कॉलोनी,शमशी-175126, जि. कुल्लू (हि.प्र.)
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डॉ. रामशंकर चंचल

अकेला होना

सचमुच
बहुत अच्छा लगता है
कभी-कभी/अकेला होना
खुद से ही बातें करना
मुस्काना और खो जाना
खुद में ही
दुनियां की भीड़ से अलग
छल-कपट/हिंसा-आतंक
सबसे बेखबर/सुदूर
अपनी मस्ती में/मस्त हो
गुनगुनाना
बहुत अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
अकेले चलते रहना
प्रकृति की रम्य
खूबसूरती को निहारते
मीलों दूर-सुदूर
नदी-नाले
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर
पेड़-पक्षी सबसे
बातें करते
उनके संग जीते/मुस्काते

बल्कि सोचता हूँ
कभी-कभी क्यों
अक्सर अच्छा लगता है
इस अमानवीय/दुष्ट
छलभरी दुनियां से
अलग/अकेला होना
अकेला रहना!

  • माँ, 145, गोपाल कालोनी, झाबुआ-457661(म.प्र.)
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कृष्ण कुमार यादव

गौरैया
चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अखबार पढ़ रहा था
अचानक
नजरें ठिठक गईं
‘गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में।’

वही गौरैया,
जो हर आंगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुये।

क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जायेंगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमांग में उमड़ने लगे।

बाहर देखा
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
कंक्रीटों का शहर नजर आया
पेड़ों का नामोनिशां तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवा पाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुंसे पड़े हैं।

बच्चे प्रकृति को
निहारना तो दूर
सब कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालते हैं

आखिर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी?
  •  निदेशक, डाक सेवा, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101
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राधेश्याम


कविता
वसंत ने
मुखरित किया
मधुरतम राग
कोकिल कंठ से

रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
धरा ने
पुष्पित किया
सुरभित राग
हरित कंठ से

अन्तर ने
गुंजित किया
अलौकिक स्वर
गहनतम से

  • 184/2, शील कुंज, आई.आई.टी. कैम्पस, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड
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डा. राजकुमार निजात


ग़ज़ल
बनते बनते जब बनती है एक ग़ज़ल
एक नयी कविता कहती है एक ग़ज़ल

मैं रहता हूं मिसरों के इक सांचे में
रेखा चित्र : हिना 
सीने में ढलती रहती है एक ग़ज़ल

एक समन्दर शब्दों का जब रचता हूं
नदिया सी बनकर बहती है एक ग़ज़ल

अपनों के ही रिश्ते-नातों में रहकर
जाने कितने ग़म सहती है एक ग़ज़ल

नई मंज़िलों नये रास्तों की खातिर
साथ मेरे पग-पग चलती है एक ग़ज़ल

  • कंगनपुर रोड, कीर्ति नगर, सिरसा-125055, हरियाणा
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अनुराग मिश्र ‘गैर’
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी

पत्र

पहली बार जब
मेरे हाथ में आया था मोबाइल
तब मैं बहुत खुश हुआ था
लगा था जैसे विश्व गाँव
सिमट आया है मेरी मुट्ठी में,
पहली बार जब पढ़ा था
किसी प्रिय का संदेश
तो लगा था
अब निरर्थक हो गये हैं पत्र,
परन्तु एक दिन जब भर गया ‘इनबॉक्स’
तो ‘डिलिट’ करने पड़े कुछ संदेश,
धीरे-धीरे बहुत प्रिय लोगों के
अच्छे-अच्छे संदेश मिटाने पड़ गये।

काश! सन्देश की जगह
आये होते पत्र
तो रखा जा सकता था संभालकर
वर्षों, दशकों या सदियों तक
जब मन करता पढ़ते
बार-बार पढ़ लेते
चूमते, सीने से लगाते।

मन करता है कि
इस युग में भी
कुछ लोग लिखते रहें पत्र
तांकि हृदय में जिन्दा रहे प्रेम
आँखों में बचा रहे आँसू
आइये! मैं लिखूँ पत्र
आप लिखिए पत्र
सब लिखें पत्र
ताकि जिन्दा रहें पत्र!

  • आबकारी निरीक्षक, कलेक्ट्रेट परिसर, बिजनौर-246701 (उ.प्र.)
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||कथा प्रवाह||

सुरेश शर्मा

अंधकूप
   रात का अंधियारा फैल चुका था। रिम-झिम बारिश शुरू हो चुकी थी। सुनसान सड़क पर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए वह अपने घर की तरफ चली जा रही थी। तभी पीछे से किसी के पदचाप की आवाज सुनकर वह बुरी तरह से डर गई।
   ‘सुनिए... सुनिए।’ पीछे से आवाज आई। अनिष्ट की कल्पना मात्र से वह बारिश और पसीने से भीगते हुए लगभग भागने सी लगी।
   ‘सुनिए... मैं पुलिस...।’ सुनकर तो वह भय से सिहर उठी। कदमों में और तेजी आ गई। थोड़ी दूर पर एक बंगला देखकर उसने ईश्वर को मन ही मन धन्यवाद दिया। आव देखा न ताव, सुरक्षा की आशा से फुर्ति से वह बंगले में प्रवेश कर गई।
   पीछा कर रहे पुलिस वाले की नजर भीतर जा रही युवती और बंगले के बाहर लगी मंत्री जी की ‘नेम प्लेट’ पर एक साथ पड़ी तो व्यथित स्वर में बोला- ‘बेटी, ये क्या कर दिया तूने? अब तो ईश्वर भी तेरी मदद नहीं कर पाएगा।’
  • 235, क्लर्क कालोनी, इन्दौर-452011 (म.प्र.)
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सिद्धेश्वर

बोहनी
   उस गरीब मछुआरे के घर में एक लड़का था। बहुत लाड़-प्यार से पाला था उसने अपने इकलौते बेटे को। लेकिन भगवान की भी अजीब माया होती है, उसने कितनी निर्दयता से उसके इकलौते बेटे को भी छीन लिया। कल शाम कोठे पर पतंग उड़ाते-उड़ाते अचानक पैर फिसल गया और सीधे जमीन पर आ गिरा। उसका पिता अपने घायल बेटे को लेकर सीधा अस्पताल जा पहुँचा, मगर डॉक्टरों ने उसके बेटे को मृत घोषित कर दिया।
   भारी मन लिए अपने बेटे की अर्थी सजाई उसने। उसके कदम शमशान घाट की तरफ बढ़ते जा रहे थे। उसने अपने पीछे दो पुलिस कर्मचारियों को बतियाते हुए सुना- ‘‘स्याला, किसका मुँह देखा था यार! सुबह से शाम तक एक पैसे की बोहनी नहीं हुई।’’
   दोनों पुलिसकर्मी शमशान घाट तक उसके पीछे-पीछे चलते रहे। उसने अपने बेटे की अर्थी को कंधे पर से उतारा ही था कि एक पुलिसमैन ने अपनी मूँछ को ऐंठते हुए रौबदार स्वर में कहा, ‘‘अबे! ये लाश किसकी है रे?’’
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर
   ‘‘मेरे जवान बेटे की, हुजूर!’’
   ‘‘कैसे मारा गया ये?’’
   ‘‘पतंग लड़ाते समय पैर के फिसल जाने से गिर गया मेरा बेटा।’’ और मछुआरा सुबकने लगा।
   ‘‘चोप्प स्याला! आँसू बहाने का नाटक छोड़! मुझसे भी झूठ बोलता है बे! तूने जानकर अपने बेटे को कोठे पर से धक्का दिया है, मैंने देखा है। पहले चल बेटा थाने, वहाँ तेरे बेटे का पोस्टमार्टम किया जायेगा।’’
   मछुआरा हतप्रभ होकर उसे देखता रहा। मामला उलझ न जाए, इस भय से उसने पचास का नोट उसकी तरफ बढ़ा दिया। पुलिसकर्मी अब चुपचाप चले गए, क्योंकि उनकी बोहनी हो चुकी थी।
  • अवसर प्रकाशन, पो.बा. नं. 205, करबिगहिया, पटना-800001 (बिहार)

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महावीर रवांल्टा

चप्पलें
   वे दोनों सरकारी सेवा में एक साथ आए थे। एक ही विभाग में और पद भी बराबर का, इसलिए जल्दी ही वे एक दूसरे के आत्मीय बन गए। आपसी आत्मीयता के चलते उनकी पत्नियां भी आपस में घनिष्ठ सहेलियां हो गयी। एक ही शहर के एक ही विभाग में नौकरी थी, इसलिए किराए के घर भी दोनों ने एक ही मकान में लिए।
   वे पड़ोसी कम, एक दूसरे के शुभचिन्तक अधिक थे। एक घर की बनी दाल दूसरे घर का और दूसरे घर की सब्जी से पहले घर के खाने का स्वाद और बढ़ जाता। काफी कुछ था जो उनका एक-दूसरे पर निर्भर था।
   एक बार स्थानान्तरण के कारण दोनों को शहर छोड़कर अलग-अलग कस्बों में जाना पड़ा। अब उनका मिलना कई-कई दिनों बाद होने लगा, फिर महीनों और अब कुछ वर्ष निकल जाते, तब कहीं एक-दूसरे के घर आना-जाना, उठना-बैठना हो पाता। आपसी दुःख-सुख बंटते और उनके बोझिल मन का भार जैसे हल्का हो जाता।
दृश्य छाया चित्र : महावीर रवांल्टा
   वर्षों बाद एक दिन दोनों परिवार मिले। छुट्टी का दिन था। बड़े इत्मीनान से आपस में बातें करने लगे और बच्चे मौज-मस्ती। छत पर बैठकर सर्दी की चटख धूप शरीर को जैसे तरोताजा कर रही थी। भीतर काफी ठंड थी।
   मेहमान मित्र मेजबान मित्र की हवाई चप्पलें पहनकर इत्मीनान से अपने जरूरी काम निबटाने लगा। कुछ देर बाद एकाएक उसे ध्यान आया, वह चप्पलें पहनकर घूम रहा है और मेजबान मित्र नंगे पैर इधर-उधर टहल रहा है। ठंड उसे सता रही है। उसे लगा उसके पैर में भी इस समय चप्पलें होनी चाहिए, पर नहीं थी। वह टहलता हुआ उनके ‘शू रैक’ तक गया, उसका बारीकी से निरीक्षण किया। वहां बच्चों के कई जोड़ी जूते-चप्पलों के साथ एक जोड़ी जूता व चमड़े की चप्पलें उसकी थीं। हवाई चप्पलें कहीं नजर नहीं आयीं।
   उसका मन पसीजा। तीन बेटियों और दो बेटों की जिम्मेदारी ने उसके मित्र के हालात बहुत बदल दिए हैं, उसे समझते देर न लगी; और फिर चप्पलें उतारकर उसने एक ओर रख दी ताकि मित्र पहन सके।
   अब वह कर्सी पर बैठा टी वी कार्यक्रम देख रहा था और मित्र चप्पलें पहनकर अपने जरूरी काम निबटाने लगा था।
  • ‘सम्भावना’ महरगॉव, पत्रा.- मोल्टाड़ी, पुरोला, उत्तरकाशी-249185, उत्तराखण्ड
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मनोज सेवलकर

मेहमान
   घरेलू काम करने वाली रूपा के साथ अक्सर उसका बेटा अनिल बड़े साहब के बंगले पर आया करता। बड़े साहब का बेटा सुमित उसका अच्छा दोस्त बन चुका था।
   आज जब अनिल और सुमित खेल रहे थे तो बंगले की छत पर बैठा काग ‘‘काँव-काँव’’ की चीत्कार करने लगा। आंगन में बैठी धूप सेंक रही दादी ने सुमित से कहा- ‘‘लगता है आज कोई मेहमान आने वाला है।’’ यह सुन सुमित नाचने लगा और खुशी से अनिल से बोला- ‘‘तब तो बड़ा मजा आयेगा। मम्मी रोज अच्छे-अच्छे पकवान बनायेगी। आज यदि मुम्बई वाले मामा आ जायें तो बहुत अच्छा।’’ कहते-कहते खुशी में उसने अनिल के कंधे पर हाथ रख उसे चक्कर-घिन्नी कर दिया।
   उसकी इस प्रकार खुशी को देख अनिल सोच में डूब गया और बोला- ‘‘तो मैं कल से नहीं आऊँगा....।’’
   ‘‘क्यों?’’
   ‘‘तुम्हारे यहाँ मेहमान आ जायेंगे तो तुम तो उनके साथ खेलोगे, मेरे साथ थोड़े ही.....’’ कहते हुए उसकी आँखों में आँसू आ गये।
   ‘‘नहीं रे, तू तो मेरा दोस्त है। अपन तो खेलेंगे ही। तू तो रोज आना तेरी माँ के साथ, आयेगा ना......?’’
   काम पूरा होते ही अनिल की माँ ने उसे अपने साथ चलने के लिए बुला लिया। गुमसुम सा अनिल माँ के साथ अपने झोंपड़ी की ओर निकल पड़ा।
   झोंपड़ी के निकट पहुँचते ही उसने देखा- एक काग उसकी भी झोंपड़ी पर बैठा ‘‘काँव-काँंव’’ कर रहा है। वह सुमित के समान खुशी जाहिर करने के लिए नाचने ही वाला था कि झोंपड़ी में प्रविष्ट हो चुकी माँ ने उसे आवाज लगाते हुए कहा- ‘‘अनिल, इस कव्वे को भगा, आज का ही आटा है कहीं मेहमान आ गये तो उसे क्या खिलायेंगे?’’
   अनिल खुशी में नाचने के बजाय अब माँ के आदेश का पालन करते हुए कव्वे को अपने झोंपड़े से दूर भगाने लगा।

  •  2892, ‘ई’ सेक्टर, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
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आकांक्षा यादव

रावण
   दशहरे  का त्यौहार आते ही रामू बहुत खुश हुआ। नए कपड़े, खिलौने और मिठाइयाँ। वह बार-बार माँ की साड़ी पकड़कर खींचता कि जल्दी चलो न मेले में। उधर माँ रामू के बाप का इन्तजार कर रही थी कि वह आए तो उसके साथ चले, पर वह तो अपनी ही दुनियाँ में मस्त था।
   दोस्तों के साथ पैग पर पैग चढ़ाते उसका नशा बढ़ता ही जा रहा था। लड़खड़ाते कदमों से वह घर पहुँचा तो खाने की फरमाइश का डाली। खाना न मिलने पर रामू की माँ को ताबड़तोड़ थप्पड़ जड़ दिए। उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। रामू खड़ा होकर ये सब देखता और कभी बीच में आने की कोशिश करता तो उसे भी दो-चार थप्पड़ नसीब हो जाते।
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर
   ...इतने सबके बावजूद आखिरकार माँ जो माँ ठहरी। शाम को राजू को लेकर मेले पहुँच गई। मेले में उस समय ‘रावण दहन’ की तैयारियाँ चल रही थीं।
   ...‘माँ! रावण को इस तरह क्यों जलाते हैं?’ रामू ने उत्सुकतावश पूछा। 
   बेटा, रावण बहुत बुरा आदमी था। वह सबसे लड़ाई करता और आतंक फैलाता। उसने तो कइयों को मारा भी।
   ‘...पर माँ, पापा भी तो....’
   इसके पहले कि वह बात पूरी कर पाता, माँ ने उसके मुँह पर अपना हाथ रख दिया और अपने आँसुओं को पोंछते राजू के लिए मिठाइयाँ खरीदने चल पड़ी।

  •  टाइप 5, ऑफिसर्स बंगला, हैडो, पोर्टब्लेयर-744102 (अंड.-निको. द्वीप समूह)
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उमेश मोहन धवन
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति 

जाकी रही.......
शाम का समय था। सैकड़ों सैलानी सागर की लहरों का आनन्द ले रहे थे। ऊँची लहरें तेज़ी से आतीं से आतीं और ढेरों सफ़ेद झाग तट पर उड़ेल जातीं। ‘‘पापा देखो सागर देवता टूथपेस्ट कर रहे हैं। यह सारा झाग उसी का है।’’ बच्चा चहकते हुए बोला। ‘‘तूम्हें कैसे पता?’’ पिता ने पूछा। ‘‘मैंने किताब में पढ़ा था, रामचन्द्रजी ने क्रोध किया तो वे प्रकट हुए थे। ’’ बच्चे ने पढ़ा हुआ बोल दिया।
    ‘‘ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने कपड़े खंगालकर वाशिंग मशीन खाली कर दी हो।’’ बच्चे की माँ मन में सोच रही थी। ‘‘वापस जाकर मुझे भी दो अटैची भरके कपड़े धोने पड़ेंगे, तब भी ऐसा ही झाग निकलेगा जो सारी जिंदगी खत्म नहीं होगा। भला चार दिन बीतते पता चलते हैं!’’
   पास ही दो जवान लड़के बैठे थे। उनमें से एक बोला- ‘‘यार, ऐसा नहीं लग रहा है जैसे किसी ने सारे संसार की बीयर सागर में उड़ेल दी हो! काश ये झाग उसी का होता और मैं उसमें गोते लगा रहा होता।’’
   एक तरफ बैठा नारायणन सूनी आँखों से लहरों में कुछ ढूँड़ते हुए बड़बड़ा रहा था- ‘‘ये सागर नहीं, अजगर है। और ये झाग नहीं उसकी लपलपाती जीभ है।‘‘ दस दिन पहले इसीेे ने उसके जवान बेटे को निगल लिया था। लाश भी नहीं मिली। अब वह रोज यहाँ आता है और घंटों दानवाकार लहरों को इस उम्मीद में ताकता रहता है कि शायद किसी दिन यह अजगर उसके बेटे को उगल ही दे। पर लगता है आज भी वह निराश ही वापस लौट जायेगा।  
  • 13/34, परमट, कानपुर-204001 (उ0 प्र0)
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आशीष कुमार

बुढ़ापे की लाठी
 केदार बाबू निःसंन्तान थे। बढ़ापा ठीक सक कट सके इसके लिये उन्होने इन्तजाम कर लिया था। जीवन भर में कंजूसी से जोड़ा गया धन एक लोकप्रिय प्राइवेट वित्तीय संस्था में जमा कर दिया था। इस लोकप्रिय वित्तीय संस्था ने केदार बाबू को बुढ़ापे में देखभाल करने का आश्वासन दे रखा था। केदार बाबू खुश थे।
    एक सुहानी सुबह केदार बाबू लॉन में बैठकर चाय पी रहे थे। टेबल पर रखे समाचार-पत्र के मुखपृष्ठ के एक शीर्षक को देखकर केदार बाबू को दिल का दौरा पड़ा। कुर्सी पर बैठे ही केदार बाबू चिरनिद्रा में सो गये। समाचार का शीर्षक था- ‘‘देश की लोकप्रिय संस्था रातोंरात फरार!’’   
  • 69, ईशापुर चमियानी, उन्नाव-209827 (उ.प्र.)
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राजीव नामदेव राना लिधौरी

एड्स
   आज बाजार से लौटने में नेहा को देर हो गयी थी, इसलिए वह तेज कदमों से अपने घर की तरफ जा रही थी। अचानक उसने यह महसूस किया कि कुछ लोग उसका पीछा कर रहे हैं। जब नेहा को पूरा यकीन हो गया कि वे लोग उसी का पीछा कर रहे हैं, तो वह अपने बचाव का उपाय सोचने लगी। इतने में तीन लड़कों ने सामने आकर उसको घेर लिया। एक पल को तो नेहा घबरा गयी, लेकिन फिर भी उसने अपनी हिम्मत नहीं छोड़ी। लड़कों की नीयत खराब थी, वे उसकी इज्जत लूटना चाहते थे। नेहा ने उनका इरादा भांप लिया और बड़ी निडरता के साथ बोली कि देखिए, मैं पहले एक हाई सोसाइटी कालगर्ल थी, लेकिन जबसे मुझे एड्स हुआ है तब से मैंने यह सब छोड़ दिया है। फिर भी आप लोग यदि चाहते हैं तो......!
  नेहा के इतना कहते ही तीनों लड़के डर गये और वे तीनों वहाँ से भाग खड़े हुए।
  उनके भागने पर इधर नेहा सोच रही थी कि मेरा यह झूठ मेरी इज्जत बचाने में सफल रहा। उधर वे तीनों सोच रहे थे कि आज हमारी जान बच गयी, नहीं तो हम मौत के मुँह में चले जाते।

  • नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालौनी, कुँवरपुरा रोड, टीकमगढ़-472001(म.प्र.)

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||क्षणिकाएं||

रचना श्रीवास्तव


पाँच  क्षणिकायें


1.
साँवली  रात
की सिलवटों में
खोये रहते थे हम
और पहरे पर होता चाँद
खुल चुकी हैं
सिलवटें
अब तो ,
और घायल है चाँद
2.
ठंढा सफ़ेद हवा का झोका
मेरी हड्डियों को
गुदगुदा गया
सुनाई दी एक आवाज तभी
बेटा स्वेटर पहन लो
लग जाएगी ठण्ड
और मैने जैकेट उठा ली
3.
सर्द कोहरे को ओढ
ठिठुरता  गुलाब
ढूंढ़ रहा था
अपनी महक ,
अलसाई पंखुड़ियों में शबनम 
और अपना वजूद
तभी क्रूर हाथों ने
उसे डाली से अलग कर
खोज को विराम देदिया
4.
धुन्ध को ओढ़ मै
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी
कई दिनों से
ढूंढ़ रही थी सूरज को
आकाश  के किनारे
एक कराह सुनी
देखा तो सूरज घायल पड़ा था
पूछने पर बोला
तानो और गालियों से ज़ख़्मी  हूँ
जो लोगों ने
गर्म मौसम मे दिए थे मुझे
 5.
हमारे रिश्ते  की म्रत्यु पर
भिजवाये थे तुमने
कुछ बर्फ के फूल
उन्ही फूलो की कब्र पर
आज धुन्ध ने पैहरे बैठाएं हैं

वर्तमान निवास : अमेरिका (भारत में सम्पर्क : द्वारा श्री रमाकान्त पाण्डेय, 36, सर्वोदय नगर, लखनऊ, उ.प्र.)


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||जनक छन्द||

पं. गिरिमोहन गुरु ‘नगरश्री’



चार  जनक छन्द
1.
बचपन बीता गाँव में
रहने का मन आज भी
आम नीम की छांव में
2.
दिखता नहीं उपाय है

निबटें इस आतंक से
दृश्य छाया चित्र : रामेश्वर कम्बोज हिमांशु 
जन समूह निरुपाय है
3.
मन रेतीले हो गये
पतझर का संकेत है
पत्ते पीले हो गये
4.
सड़कों पर बैनर मिले
राजनीति के नगर में
नारों डूबे नर मिले
(जनक छंद मणि मालिका से साभार)
  •  गोस्वामी सेवाश्रम, हाउसिं बोर्ड कालोनी, होशंगाबाद-461001(म.प्र.)
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||हाइकु||

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

 


सात हाइकु 

1.
काशी या काबा
आँसुओं की जग में
एक ही भाषा
2.
आहट मिली
आया कोई पाहुन
कलियां खिलीं
3.
दृश्य छाया चित्र : रामेश्वर कम्बोज हिमांशु
घायल पेड़
सिसकती घाटियाँ
बिगड़ा रूप
4.
घुमड़ आए
रूठे बच्चे-से घन
मुँह फुलाए
5.
अस्थि पंजर
हैं भूख से व्याकुल
प्रभु के घर
6.
आल्हा न गाए
गुम है सुर-ताल
सूनी चौपाल
7.
सात सुरों सी
छम-छम करती
घूमे बिटिया
('मेरे सात  जनम'  से साभार)
  •  37-बी/02, रोहिणी, सैक्टर-17, नई दिल्ली-110089
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||व्यंग्य वाण||

बृजमोहन श्रीवास्तव

ब्लाग पर टिप्पणियां
   ब्लॉग पर टिप्पणी करने वाले कुछ त्वरित टिप्पणी करते हैं, वे रचना पढ़ते जाते हैं और उनका मस्तिष्क स्वचालित यंत्र की तरह साहित्य सृजन करने लगता है। कुछ टिप्पणीकार सोच कर टिप्पणी करते हैं, वे रचना पढ़ते हैं फिर सोचते हैं, इतना सोचते हैं कि उनको देखकर ऐसा लगता है, जैसे सोच स्वयं शरीर धारण कर सोच रहा हो। कुछ चौबीसों घंटे टिप्पणी करते रहते हैं। उनके ब्लाग पर जाओ तो कुछ न मिले और कुछ सिर्फ ब्लाग ही लिखते रहते हैं, चार-पाँच दिन बाद जीरो कमेन्ट, फिर एक लेख लिख दिया, जीरो टिप्पणी- लिखना ही बन्द कर दिया।
    एक मास्साब थे, हर किसी से पूछते- आपने ताजमहल देखा है? नहीं, कभी घर से बाहर भी निकला करो।
    हर किसी से- आपने यह देखा है, वह देखा है, कभी घर से बाहर भी निकला करो। बड़ी परेशानी। एक दिन एक युवक ने उन्हें आवाज दी- मास्साब!
   क्या है?
   रामलाल को जानते हैं?
   कौन रामलाल?
   कभी घर पर भी रहा कीजिये।
   अर्थात ब्लागर को हर ब्लाग पर जाकर उसकी तारीफ करने आना चाहिये तब लोग ब्लागर को पढ़ने आयेंगे। अन्यथा जीरो टिप्पणी वाला कब तक लिखेगा और किसके लिये लिखेगा!
   मैं एक विद्वान साहित्यकार का ब्लाग पढ़ रहा था, सैकड़ों उत्कृष्ट रचनायें उनके ब्लाग पर, नियमित लेखक। सहसा एक बहुत ही छोटी सी टिप्पणी पर मेरी नजर गई- ‘‘अच्छा लिखा है, लिखते रहिये आप’’। मैंने जानना चाहा ये टिप्पणीकार कौन हैं, तो मैं उनके घर गया (मतलब ब्लॉग पर), दो माह पहले ही इन्होंने ब्लाग बनाया है। सच मानिए मुझे उनकी टिप्पणी ऐसे लगी, जैसे कोई बच्चा बाबा रामदेव से कह रहा हो- अच्छा अनुलोम विलाम करते हैं, आप करते रहिये।
   जब मैं विभिन्न ब्लॉग पर बहुत टिप्पणियाँ देख रहा था तो मुझे सहसा एक नवाब साहब का किस्सा याद आ गया। एक थे नवाब, दिन भर शेर शायरी लिखते, कमी की कोई चिंता न थी, रईसजादे थे, अपार पुश्तेनी संपत्ति के एकमात्र बारिस, बारिस माने बरसात नहीं, स्वामी, वो क्या है कि कुछ लोग ‘स’ को ‘श’ उच्चारित करते हैं।
   उन्होंने कहा- हैप्पी न्यू इयर।
   इन्होंने जवाब दिया- शेम टू यू।
   खैर, तो उनकी हवेली की बैठक (दरीखाने) में रात्रि 8 बजे से ही महफिल शुरू हो जाती। एकमात्र शायर नवाब साहिब, वाकी 15-20 श्रोता, साहित्यकार, गज़लों और शायरी के शौकीन। वाह-वाह, क्या बात है, की आवाज से हवेली गूंजने लगती, रसिक श्रोता भाव-विभोर, भावभीने अंदर से आई पकौड़ियों-समोसों पर हाथ साफ करते रहते।
   एक दिन नवाब साहिब सोकर उठे तो पेट में भयंकर दर्द। दोपहर तक और ज्यादा, शाम होते-होते दर्द से बेचैन होने लगे। इधर दरीखाना लोगों से भरने लगा। बेगम ने कहा नौकर से मना करवा दो कि आज तबियत ठीक नहीं है। नवाब बोले- नहीं बेअदवी होगी, बदसलूकी होगी, मुझे ही जाकर इत्तला देना होगा। खैर साहिब, कुरते के अन्दर एक हाथ से पेट दबाये नवाब साहिब पंहुचे, मनसद पर बैठे और कहा- ‘आज सुबह से मेरे पेट में बहुत ज्यादा दर्द है’।
   वाह!वाह!! क्या बात है, क्या तसब्बुर है, क्या जज्बात है, हुजूर ने तो आज कमाल कर दिया (हवेली गूंजने लगी), वाह हुजूर क्या बात कही है, हुजूर ने ग़ज़ल के लिए क्या ज़मीन चुनी है, क्या मुखड़ा फरमाया है, साहिब मुकर्रर - इरशाद! हुजूर तरन्नुम में हो जाये .........।
रेखा  चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
  •  एफ-63, आफीसर्स कालौनी, रतलाम (म.प्र.) 

अविराम विमर्श

प्रेमचंद और लघुकथा विमर्श 

  • भगीरथ परिहार 

प्रेमचंद के लघुकथा साहित्य के संदर्भ में समकालीन लघुकथाओं की पड़ताल करना समीचीन होगा ! प्रेमचंद ने मुश्किल से बीस लघुकथाएं लिखी हैं । जो विभिन्न कहानी संग्रहों में प्रकाशित हुई है । इन कथाओं का कलेवर कहानी से छोटा है ,इस छोटे कलेवर में मामूली लेकिन महत्वपूर्ण कथ्यों को अभिव्यक्त किया गया है ।
      आधुनिक हिंदी लघुकथा के जिस आदर्श रूप की परिकल्पना हम करते हैं,  प्रेमचंद की लघुकथाएं कमोवेश उसमें फिट बैठती है । 'राष्ट्र सेवक ' चरित्र के विरोधाभास को खोलती है,  कथनी - करनी के भेद को लक्ष्य कर राष्ट्र सेवक पर व्यंग्य करती है,  इस तकनीक में लिखी सैकड़ो लघुकथाएं आज के लघुकथा साहित्य में मिल जायेगी !
      'बाबाजी का भोग'एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें परजीवी साधुओं के पाखंड को बेनकाब किया गया है । धर्म भीरू मेहनतकश गरीब लोग उनके शिकार हो जाते हैं । गरीब लोगों के मुहँ का निवाला छीनकर स्वयं छ्क कर भोग लगाते हैं । प्रेमचंद धैर्य पूर्वक कथा कहते हैं । इनकी कथाएं तीव्रता से क्लाइमेक्स की ओर नहीं बढ़ती बल्कि धीरे - धीरे शिखर का आरोहण करती हैं जबकि आधुनिक लघुकथाएं तीव्रता से शिखर की ओर बढ़ती हैं , जिससे उनमें कथारस की कमी आ जाती है ।
      'देवी' लघुकथा में गरीब अनाथ विधवा के उदात्त चरित्र को उकेरा गया है और यह एक मुकम्मिल लघुकथा बन गयी है । 'बंद दरवाजा ' बाल मनोविज्ञान अथवा उनकी स्वाभाविक मनोवृत्तियॉ को व्यक्त करती है । बच्चा कभी चिड़िया की ओर आकर्षित होता है ,तो कभी गरम हलवे की महक की ओर ,तो कभी खोंचे वाली की तरफ , लेकिन इनसे भी ऊपर उसे अपनी स्वतंत्रता प्यारी है । वह जगत की ओर उन्मुख है, उसे टटोलता है लेकिन बंद दरवाजा उसकी इस स्वाभाविक वृति पर रोक लगाता है उसने फ़ाऊंटेन पेन फेंक दिया और रोता हुआ दरवाजे की ओर चला क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था ।
      ''यह भी नशा वह भी नशा '' में दो स्थितियों में तुलनात्मक दृष्टि से विरोधाभास को उकेरा है भांग का नशा हो या शराब का , नशे का परिणाम एक ही है लेकिन एक को पवित्र और दूसरे को अपवित्र मानना पांखड पूर्ण है आज का कथाकार इस कथा को लिखता तो उसका कलेवर और भी छोटा होता है लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि प्रेमचंद कहानीकार हैं उस समय लघुकथा विस्तार पूर्वक लिखने से इसमें लघुकथा की दृष्टि से कसाव की कमी है आधुनिक हिन्दी लघुकथा में इस तरह की तुलनात्मक स्थितियां बहुत सी कथाओं मिल जायेगी ।
     प्रेमचंद की कई कथाएं कहानी का आभास देती है क्योंकि वे धीरे-धीरे विकसित होती है! वें प्रासंगिक प्रसंग भी जोड लेती है कुछ विस्तार भी पा लेती है और लघुकथा के कलेवर को लांघ भी जाती है! इससे उसमें कसाव की कमी आती है वे एक आयामी रहते हुए भी अन्य प्रसंग जुडने से बहुआयामी हो जाती है तब वे लघुकथा की सीमा ही लांघ जाती है!
     "ठाकुर का कुँआ " मूल रुप से लघुकथा है लेकिन कुएँ पर खडी दो स्त्रियों की बातचीत ,ठाकुर के दरवाजे पर जमा बेफिक्र लोगो के जमघट जैसे प्रसंग उसे कहानी का ही आभास देते हैं ये कथा से प्रासंगिक होते हुए भी लघुकथा की दृष्टि से अनावश्यक है । स्त्रियों की बातचीत के प्रसंग को अलग लघुकथा में भी व्यक्त किया जा सकता था । इस तरह यह रचना बहुआयामी हो गयी है लेकिन जोर मूल कथ्य पर ही है और पाठक उसी कथ्य को ही पकड़ता है इसलिए इसे लघुकथा कहना अनुचित नहीं होगा । वैसे इन दो प्रसंगो को हटा दे तो एक बेहतरीन सुगठित लघुकथा प्रकट हो जायेगी ।
       प्रेमचंद कहानी की तरह लघुकथा लिखते हैं उनकी बहुत सी कथाओं में उत्सुकता बनी रहती है जो पाठक को अंत तक बांधे रखती है, कथा के आरम्भ से आप कथ्य का अनुमान नहीं कर सकते , जबकि आज की लघुकथाओं में आरंभ या शीर्षक से ही कथ्य का अनुमान लगाया जा सकता है , जिससे उत्सुकता का तत्व ही समाप्त हो जाता है । कथा एक रहस्य को बुनती है जो अंत मे जाकर खुलता है । इस संदर्भ में ''गमी'' कथा विशेष तौर पर दृष्टव्य है लेकिन इसकी भाषा शैली और तेवर हास्य- व्यंग्य का है जो हास्य- व्यंग्य कालम के लिए फिट है । 'शादी की वजह ' खालिस व्यंग्य है इसे कथा की श्रेणी में रखना मुश्किल है क्योंकि इसमें कोई मुकम्मिल कथा उभरकर नहीं आती । बहुत से बहुत व्यंग्यात्मक टिप्पणी कहा जा सकता है ।
      'दूसरी शादी' निश्चित ही कथा है जो प्रचलित विषय को लेकर लिखी गयी है । इस कथा को इसके क्लाइमेक्स पर ही समाप्त हो जाना चाहिए , क्योंकि कथा यहीं पर अपना मंतव्य अभिव्यक्त कर देती है । लेकिन अन्तिम तीन पैरा "दूसरी शादी" के दूसरे आयाम को अभिव्यक्त करते हैं इस तरह यह रचना कहानी की ओर अग्रसर हो जाती है लेकिन कहानी बनती नहीं है । आधुनिक लघुकथाएं अकसर क्लाइमेक्स पर ही समाप्त हो जाती है ।लघुकथा में एक ही कथ्य व एक ही क्लाइमेक्स सम्भव है। कई क्लाइमेक्स कहानी / उपन्यास मे हो सकते हैं । अत: एक आयामी कथ्य लघुकथा की आत्यंतिक विशेषता है ।
      'कश्मीरी सेव' का पहला पेराग्राफ प्रस्तावना के रुप में है जो निरर्थक न होते हुए भी लघुकथा के लिए आवश्यक नहीं है । ऐसे ही विवरणों से लघुकथा एक कहानी होने का अहसास देती है । कथा को पहले पेराग्राफ के बाद से पढ़े और 'दुकानदार ने जानबुझकर मेरे साथ धोखेबाजी का व्यवहार किया । इसके बाद इस घटना पर लेखक की टिप्पणी है इस तरह कश्मीरी सेव भी विस्तार का शिकार हुई है ।
      ललकारने वाली वाणी और मुद्रा से भिक्षावृति करने वाले साधुओं का चित्रण 'गुरुमंत्र' मे है । धर्म भीरू लोग उन्हें डर के मारे कुछ न कुछ दे देते हैं । वे भिक्षा को भी अधिकार रूप मे मांगते हैं । वे ऐसे मांगते हैं जैसे हफ्ता नहीं देने पर गुंडा अनिष्ट करने की धमकी देता है प्रेमचंद पाखंड को उधाड़ने में माहिर हैं । आध्यात्मिक ज्ञान से शून्य ये साधु केवल गांजे की चिलम खींचने मे उस्ताद है यह कथा एक आयामी होने से लघुकथा ही है । दो - चार अनावश्यक पंक्तियों के अलावा विस्तार नहीं है ।
      "दरवाजा" मनुष्य जीवन का साक्षी है वह अपने अनुभव ऐसे व्यक्त करता है ।जैसे सजीव पात्र हो ! दरवाजा मनुष्य की प्रवृत्तियों पर टिप्पणी करता है इस टिप्पणी का अंत आध्यात्मिक तेवर लिए हुए है। 'सीमित और असीमित के मिलन का माध्यम हूँ कतरे को बहर से मिलाना मेरा काम है मैं एक किश्ती हूँ मृत्यु से जीवन को ले जाने के लिए '! इस तरह की लघुकथाएँ आधुनिक लघुकथा साहित्य में बहुत कम उपलब्ध है। सौन्दर्य शास्त्र की दृष्टि से यह अच्छी लघुकथा है जो पाठकों को सुकून देती है !
       दो बहनों के बीच हुए सम्वाद के माध्यम से कथा 'जादू' विकसित होती है पहले तकरार फ़िर तनुक मिजाजी फ़िर द्वेषता और अंत में दोनों के बीच रिश्ता बनता है!सम्वाद तकनीक में रचित सैकडों रचनाएँ आधुनिक लघुकथा में उपलब्ध हो जायगी ! भले ही उनमें नाटकीयता की कमी हो यह नाटकीयता सम्वाद पर आधारित कथाओं की जान है प्रेमचंद की इस कथा मे नाटकीयता खूब है !
      'बीमार बहन' बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी निश्चित ही बच्चों को ध्यान में रख कर लिखी रचना है! पर इसे किसी भी दृष्टि से लघुकथा नहीं माना जा सकता वस्तुत: यह कथा है ही नहीं ! इसमें कोई द्वन्द्व नहीं कोई शिखर या अंत नहीं ! सीधे - सीधे बीमार बहन के प्रति भाई की चिंता ,बहन की सेवा के माध्यम से व्यक्त है !
      वैसे तो प्रेमचंद की कहानियो/लघुकथाओं में काव्य का अभाव ही रहता है लेकिन 'बांसुरी' में केवल काव्य तत्व का सौंदर्य ही है ! रात के सन्नाटें में 'बासुरी ' की स्वरलहरी को काव्यात्मक अंदाज में अभिव्यक्त किया गया है; लगता है जैसे कहानी के किसी भाग का टुकडा भर हो! यह लघुकथा नहीं है! (आदरणीय भगीरथ जी के ब्लॉग 'अतिरिक्त' से साभार)
  • 228, नयाबाजार कालोनी, रावतभाटा-323307 (राजस्थान)।

सावधान! लघुकथा कहीं हमारे अपने हाथों ही न खो जाए!
  •  पारस दासोत

{म.प्र. लघुकथा परिषद, जबलपुर (म.प्र.) के २६वें वार्षिक सम्मेलन, दिनांक २०-२-११ को  वरिष्ठ लघुकथाकार श्री पारस दासोत जी ने अपना एक लेख पढ़ा था, जिसमें उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर लघुकथाकारों का ध्यान आकर्षित किया । हम इस पूरे आलेख को अपने पाठको के लिए यहां रख रहे हैं। यह आलेख यद्यपि दासोत जी ने सीधे भी भेजा है, आद. भगीरथ परिहार जी के ब्लाग ‘ज्ञानसिन्धु’ पर भी उपलब्ध है।}
   मैं यहॉं ‘सावधान’ शब्द का उपयोग, इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि मैं, अपने हाथों ही अहम को ओढ़ लूँ। मैं आपका साथी हूँ आपके कन्धे से अपना कन्धा मिलाकर चलने वाला प्यारा साथी।
   साथियों ! मैं आज, जो लघुकथा यात्रा में देख रहा हूँ, वो शायद आप भी देख रहे होगें। मुझे विश्वास है- आप मेरी इस दृष्टि से, थोडी देर बाद ही सही, पर सहमत अवश्य होंगे। हमारी लघुकथा, आज अपना धर्म, अपना लक्षण/विशेषताएं छोडती नजर आ रही है। कई लघुकथाकारों की लघुकथाएं (उन लघुकथाकारों में मैं भी शामिल हूँ) पढ़ने से ऐसा ज्ञात होता है कि हमें शायद इसका आभास नहीं है कि हम, जाने-अनजाने अपना लघुकथा सृजन, उसकी तासीर अनुसार नहीं कर रहे हैं। हम बोधकथा,
दृष्टांत, नीतिकथा, प्रेरक प्रसंग की ओर मुड़ रहे हैं। साथ ही हमने, कहीं-कहीं वर्णात्मक तत्व को भी स्थान देना प्रारम्भ कर दिया है।
   हमने, लघुकथा की यात्रा का समय-समय पर काल-विभाजन करते समय उसकी यात्रा को कई काल खण्डों में विभाजित किया है, पर ऐसा लगता है, क्षमा करें! मुझे ऐसा लगता है कि लघुकथा ने अभी अपने कदम शिशु अवस्था से बाल अवस्था की ओर बढ़ाएं हैं। दो कदम ही बढ़ाएं है। हम सब साथी लघुकथाकार उसकी इसी अवस्था के ही साथी है। हम इसे स्वीकारें, न स्वीकारें, पर यह सत्य है कि अभी सामान्य पाठक ही नहीं, स्वयं लघुकथाकार भी ’लघुकथा’ की परिभाषा से पूर्ण परिचित नहीं हो पाया है। यहाँ मैं इसके साथ यह भी कहना चाहूँगा कि अभी लघुकथा के साथ ‘आधुनिक’ शब्द को जोडना या ‘आधुनिक लघुकथा’ कहना गलत है। लघुकथा को आधुनिक लघुकथा बोलकर, हम ‘प्राचीन लघुकथा’ की ओर भी इशारा कर देते हैं। मुझे क्षमा करे! यह चूक हमसे, इस कारण हो रही है कि हम, लघुकथा की यात्रा का काल विभाजन करते समय (जैसे हम, जब ‘मानव की यात्रा का वर्णन करते समय, प्रजाति, जाति, आदिमानव ही नहीं कोशिका तक पहुँच जाते हैं, तब हम जाने-अनजाने मानव की यात्रा का नहीं, कोशिका की यात्रा का अध्ययन करने लगते हैं) एक दृष्टि से इतनी दूरी तक का अध्ययन या कि काल विभाजन अवांछनीय कहा जा सकता है। क्या, लघुकथा की विकास यात्रा में दन्त कथा तक पहुंचना सही कहा जा सकता है? इस अवांछनीय काल-विभाजन ने कई मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाले हैं। हम भारतीय हैं। इस प्रतीक रूपी आदम को, बन्दर को, अपने पूर्वजों को आदर देते हैं। उन्हें पूज्य मानते हैं। यही कारण है कि हम, हमेशा पीछे मुड़कर देखते रहते हैं।
    मैं कहना चाहूँगा कि लघुकथा की यात्रा या उसका काल विभाजन करते समय, हमें केवल ‘कथा-आकार’ को ही अपना आधार नहीं बनाना चाहिए, हमें कथा रूप की यात्रा या कि उसका काल विभाजन नहीं करना चाहिए, पर हम करते यही आ रहे हैं । इसके कई मनोवैज्ञानिक प्रभाव हमारी यात्रा पर पडें हैं। हम हर क्षण पीछे मुड़कर देखते रहते हैं। अपनेपन के तहत हम पीछे मुड़कर केवल देखते ही नहीं, अपने कदम उस ओर बढ़ा भी देते हैं। हम यदि लघुकथा विधा पर किये गये शोधों का अध्ययन करें तो, पाऐंगे कि शोधार्थियों ने लघुकथा यात्रा की दृष्टि से काल विभाजन में एक पूरा का पूरा बढ़ा सा अध्याय प्राचीन विधाओं को सौंपा हैं। हम लघुकथा की यात्रा का वर्णन करते समय क्यों इन पूज्य प्राचीन कथाओं को अनुचित स्थान पर रखते रहे हैं? क्षमा करे, क्या बोधकथा अपनी यात्रा करते-करते लघुकथा के रूप में हमारे सामने पहुंची है? हम बोधकथा या अन्य विधा की यात्रा का काल विभाजन करते रहते हैं। यदि ऐसा है तो,  गलत है। यदि मेरा यह मानना गलत है तो फिर क्यों हम पहली और पहली लघुकथा को ढूँढते फिर रहे हैं? कथा के बीज, बोधकथा, दृष्टांतो, नीतिकथा, जातककथा, प्रेरक-प्रसंगों में मिलते हैं। यह कहानी ने भी स्वीकारा है, हम भी स्वीकरते हैं, पर लघुकथा की यात्रा का अध्ययन करते समय, लघुकथा की दृष्टि से कथा बीज पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना, हमें एक गलत सोच की ओर धकेल रहा है। हमने कथाबीज की दृष्टि से, लघुकथा का आकार तो उन कथाओं से लिया है पर लघुकथा का रूप-चरित्र हमने, उसकी तासीर, उसके लक्षण, उसका धर्म, उसका समाज के संघर्ष और समय की मांग को ध्यान में रखकर अंगीकार किये हैं। हमको बीज एवं आधार भूमि का अर्थ व उनके अन्तर को भी ध्यान में रखना होगा। लघुकथा की यात्रा, ‘लघुकथा-बीज’ से नहीं, लघुकथा की आधार भूमि से स्वीकारना होगी। (‘लघुकथा-बीज’ लघुकथा-यात्रा की दृष्टि से यह शब्द अर्थहीन कहा जा सकता है, कारण, बीज की जो विशेषताएं होगी, वहाँ पेड़ की होगी, उसके अतिरिक्त नहीं, पर भूमि, जिस पर भवन खढ़ा है हम उसे भवन का बीज नहीं कह सकते)। जिन छोटी कथाओं में लघुकथा के अधिक लक्षण (पूर्ण लक्षण नहीं) उपस्थित हैं, जैसे ........ सम्मानीय कहानीकारों की पूज्य छोटी कथाओं को ‘लघुकथा’ मान्य करना भ्रम पैदा कर रहा है। इसका मनौवैज्ञानिक प्रभाव हमें उस चरित्र अनुशासन में अपनी रचनाएं सृजन करने की छूट देता है। अतः ऐसी रचनाओं को ‘लघुक्था की आधार भूमि की कथाएं’ कहना ही न्यायोचित होगा, लघुकथा नहीं। पहली लघुकथा को ढूंढते समय शायद, हम कहानी, शॉर्ट स्टोरी व बोधकथा की परिभाषा को, उसके अन्तर को, उसकी तासीर को ध्यान में रख पा रहे हैं। हम, जब भी पहली लघुकथा को खोजने निकलते है, शार्ट-स्टोरी/कहानी को पकड़ लेते है और जाने-अनजाने कथाकार के सृजन की ओर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। मेरी दृष्टि से यह गलत ही नहीं, एक अपराध है। हम लघुकथा के समीप जो भी शॉर्ट स्टोरी या कि कथाएं पाते है, उन्हें हम ‘लघुकथा परम्परा के कथा आधार’ कह सकते है। लघुकथा नहीं। (शॉर्ट स्टोरी को शॉर्ट स्टोरी, कहानी को कहानी विधा में ही शोभित रखते हुए) साथ ही एक कथा रचना ‘कहानी’ के साथ-साथ ‘लघुकथा’ कैसे हो सकती है? क्षमा करें हमें अभी पहली लघुकथा को खाजने के लिए/प्राप्त करने के लिए और ....और प्रयास करने होगें।
    कोई कथा यदि आकार की दृष्टि से लघु आकार की है तो क्या उसको लघुकथा कहा जा सकता है। नहीं, कभी नहीं कहा जा सकता! लघुकथा का यह आकार अन्य कुछ विधाओं के पास भी मिलता है, पर लघुकथा का धर्म, उसकी तासीर, उसका लक्षण ,जिसे आम पाठक ने मान्यता दी है/उसको प्यार से स्वीकारा है/उसको अपनापन दिया है/उसे हइसा-हइसा बोलकर प्रोत्साहित किया है, वही उसका धर्म है। हमें लघुकथा के धर्म को नहीं भूलना चाहिए। यह सच है कि हर रचना में बोध, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपस्थित रहता है। लघुकथा में उसकी अप्रत्यक्ष होने की है और वह भी भोथरी !
    लघुकथा के जन्म की कथा, ‘मुर्गी और अण्डा’ वाली कथा नहीं है, न ही इसे किसी राजनैतिकवाद ने जन्म दिया है। उसे जन्म दिया है तो, क्षण की संवेदना ने, जीवन के दुख-दर्दाे ने, संघर्ष ने, प्रतिक्रिया ने, आक्रमकता ने, सशक्तिकरण ने। यही कारण रहा कि लघुकथा में, यथार्थ, लघुकथा की पहचान, व्यंग्य उसकी धड़कन, संवेदना उसका सौंदर्य, सकारात्मकता उसके कदम और समाज के संघर्ष के प्रति उसकी सही दृष्टि, उसका धर्म है। मैं कहना चाहूँगा कि सकारात्मक सोच को हम एक अलग दृष्टि से क्यों देखते हैं, क्या यथार्थ या कि व्यंग्य में सवेंदना की, जीवन मूल्य की दृष्टि नहीं होती ? क्या इसके लिए बदलते युग में उपदेश , बोध, नीति की ओर कदम बढाना आवश्यक है? क्या हमने अपने लघुकथा सृजन-धर्म को इसलिए चुना है ? क्या विश्व के राजनैतिक फलक पर किसी वाद का कमजोर पड़ जाना या कि किसी वाद का अधिक शक्तिशाली हो जाना, हमारी विधा के धर्म को या कि उसकी यात्रा की दिशा को मोड़ देगा? हम यदि, यहाँ सावधान नहीं हुए तो, हम अपनी पहचान, पाठकों का प्यार, उनका अपनापन, धीरे-धीरे खो देंगे। इसका परिणाम ये होगा कि हम हमारे- अपने समाज की वाणी को मौन दे देंगे, उसके रक्त को शिथिल कर देंगे। मुझे क्षमा करें! यहाँ भी मैं, इस अशोभनीय कार्य में सम्मिलित हूँ। साथियों, हमें मालूम ही न हो पायेगा कि कब हमने अपने ही हाथों लघुकथा की हत्या कर दी। उसे खो दिया। हमने समयानुसार अपने समाज के प्रति अपने दायित्व की हत्या कर दी और हम कब बोधक के साथ खड़े हो गये!
    अब हमारे संतुलित कदम, लघुकथा-धर्म के साथ-साथ कलात्मकता की ओर तीव्र गति से बढें। हमारी लघुककथा एक कृति नहीं, एक कलाकृति हो। हमें हमारे पाठकों ने समय, की पत्र-पत्रिकाओं ने, यहाँ तक कि अन्य विधाओं के सृजनधर्मियों ने, अपना पूर्ण सहयोग/प्रोत्साहन दिया है। यही कारण है कि आज अकादमिक स्तर पर लघुकथा विधा पर ही नहीं, लघुकथाकारों को सम्मान प्रदान करते हुए उनके साहित्य पर शोध कार्य हो रहे हैं। हमारा प्रयास होना चाहिए कि लघुकथा, स्कूल व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में ससम्मान शामिल हो, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ लघुकथा को समझ सके, उसे अपना प्यार दे सके, समय-समय पर उसको सम्भाल सके। पत्र-पत्रिकाओं के सम्मानीय सम्पादकगण, लघुकथा की दिशा की दृष्टि से सम्पादन करते ‘क्यू.सी.’(क्वालिटि कन्ट्रोलर) की भूमिका कठोरता से निभाकर लघुकथा को उसकी सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित कर, उसे अनुशासित बनाए रखें विश्वास है, जब समय आएगा/मंच पर समीक्षकों की भूमिका आवश्यक होगी, समीक्षक अपना धर्म बखूबी निभाएंगे। हमें अभी आवश्यकता है- ‘लघुकथा वर्कशापों’ के आयोजनों की, अपने स्तर पर अपने साथियों को सम्भालने की, उनकी रचनाओं पर उन्हें एक पोस्टकार्ड पर अपनी प्रतिक्रिया सौंपने की, पत्र-व्यवहार बनाए रखने की, अपने कदमों को समर्पण के साथ सम्भालने की। सही दिशा में बढने की।
    अंत में मैं कहना चाहूँगा कि लघुकथा, सृजनधर्मी के नाखून से समाज की दीवार पर खरोंचकर रखी गई लघुआकारीय कथा है, जिसमें हम लघुकथाकार के ही नहीं, समय के, समाज के रक्तकणों को, उसके संघर्ष को एक झलक मात्र में ही पा जाते हैं।
 

संपर्क : प्लाट नं. 129, गली नं 9 बी, मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-302021 (राज.)



तीन किताबें

{अविराम के ब्लाग के इस अंक में फिलहाल तीन पुस्तकों की समीक्षा ही रख पा रहे हैं। जैसे-जैसे सम्भव होगा, अन्य प्राप्त पुस्ताकों पर समीक्षा/परिचयात्मक टिप्पणियाँ हम ब्लाग के आगामी अंकों में रखेंगे। कृपया समीक्षा भेजने के साथ समीक्षित पुस्तक की एक प्रति हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।}

डॉ. उमेश महादोषी
डॉ. भावना के भावपूर्ण हाइकु

   भारत से बाहर रहकर हिन्दी में साहित्य सृजन करने वाले समकालीन रचनाकारों में कई ऊर्जावान रचनाकार हैं। इनमें डॉ. भावना कुँअर ने हाइकु में काफी अच्छी रचनाएं दी हैं। हिन्दी हाइकु की विकास-यात्रा में उनका योगदान आश्वस्त करने वाला है। ‘तारों की चूनर’ उनकी दूसरी किन्तु हाइकू में पहली पुस्तक है। इसमें 146 हाइकू संग्रहीत हैं। विशेष बात यह है कि सुप्रसिद्ध चित्रकार श्री बी. लाल ने प्रत्येक हाइकु का चित्रांकन किया है, जो सम्बन्धित हाइकु के साथ प्रकाशित है। इन चित्रों में चित्रकार ने हाइकु के कथ्य और भाव को पूरी तरह आत्मसात करने की कोशिश की है। कई हाइकु और उसके चित्रांकन को देखकर यह कहना मुश्किल हो जाता है कि हाइकु में चित्र की भावाख्या की गई है या चित्र में हाइकु की!
   सामान्यतः हाइकु में भाव प्रधान होता है, और डॉ. भावना भी मूलतः भावुक कवयित्री हैं, अतः इस संग्रह के भाव पक्ष पर ही बात को केन्द्रित रखना मुझे उचित लग रहा है। डॉ. भावना की भावात्मक ऊर्जा से स्फूर्त उनका प्रकृति-प्रेम इस संग्रह के अधिसंख्यक हाइकुओं में सामने आया है। संग्रह का शीर्षक ही एक प्राकृतिक दृश्य आँखों के सामने उकेर देता है। जिस हाइकु से इस शीर्षक को लिया गया है, उसमें झील का एक मनोहारी चित्र है- ‘दुल्हन झील/तारों की चूनर से/घूँघट काढ़े’। गुलमोहर बेहद खूबसूरत वृक्ष होता है, किसी भी प्रकृति-प्रेमी की तरह भावना जी का उसकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है। पर उनके लिए यह आकर्षण कुछ विशेष है, तभी वह गुलमोहर को कई हाइकू के केन्द्र में ले आईं हैं। यह लगाव उन्हें भावुकता के चरम पर ले जाता है, जब वह एक खूबसूरत चीज (गुलमोहर) की तुलना दूसरी खूबसूरत चीज (मोर पंख) से करने लग जाती हैं- ‘चारों तरफ/फैले गुलमोहर/मोर पंख से’। भावुकता का एक दूसरा रूप होती है मस्ती, दिशा और दशा की तमाम चिन्ताओं से मुक्त कल्पनालोक में ले जाती है यह, जहाँ हम नई-नई अनुभूतियों के झरनों में नहाकर तरोताजा महसूस करते हैं। यह मस्ती प्रकृति के अनेकों दृश्यों में पूरे अल्हड़पन के साथ समायी मिलेगी। एक ऐसा ही दृश्य देखिए इस हाइकु में- ‘झूमती जाये/मदमस्त सी हवा/किस दिशा में?’
   खेतों में फूली सरसों के बिम्ब कविता की हर विधा में लोकप्रिय हैं। डॉ. भावना ने हाइकु में इसे कुछ इस तरह बाँधा है- ‘खेत है बधू /सरसों है गहने/स्वर्ण के जैसे’। डॉ. भावना के प्रकृति-कोष में चिड़ियों, भंवरों, तितलियों, गिलहरी, मृगछौने से लेकर रात की रानी, चम्पा-चमेली, कमल और बादल, घटा, चांद, सूरज व उसकी किरनों तक के अनेकों पारम्परिक बिम्ब पूरी भाव-ऊर्जा से युक्त होकर भरे पड़े हैं, पर उनकी दृष्टि कुछ नई ज़मीन और ताज़गी को तलाशती भी नजर आती है। अपने ही ताप में तचती धूप के इस बिम्ब के भाव की ताजगी देखिए- ‘सोच रही थी/चिलचिलाती धूप/कहाँ जाऊँ मैं?’। हम मनुष्य अरामतलबी की स्थिति में लेटे-लेटे चाय, कॉफी या कोई अन्य ड्रिंक्स पी सकते हैं, तो अपनी प्यास बुझाने के लिए ऐसी ही आरामतलबी का उपयोग धूप क्यों नहीं कर सकती? एकदम ताजा-आकर्षक बिम्ब है यह- ‘लेटी थी धूप/सागर तट पर/प्यास बुझाने’
   भारत रिश्तों का देश है, परम्पराओं का देश है, तीज-त्योहारों का देश है, अहसासों का देश है....। सो इस देश में जन्मी, पली-बढ़ी, इस देश की मिट्टी से बनी, इस देश के तीज-त्यौहारों में रंगी डॉ. भावना जी दूर-देश युगाण्डा में रहने के लिए पहुँचती हैं, तो इस सबका अहसास यादों की स्वतः बनी पोटली में बंधकर साथ चला जाता है। वहाँ रिश्ते याद आते हैं, साथी-संगी भी याद आते हैं, परम्पराएँ और तीज-त्यौहार याद आते हैं। इन यादों के साथ रचनात्मकता की खुश्बू जुड़ती है तो सृजन के दरवाजे बिना खुले नहीं रहते। सृजन के दरवाजे के अन्दर झाँककर इस हाइकु पर दृष्टि डालिए कि परदेश में होली मनाते मन पर क्या गुजरती है- ‘परदेश में/जब होली मनाई/तू याद आई’। त्यौहारों में घुला होता है अपनापन, त्यौहार ऐसे अवसर लेकर आता है जब हम अपनों से मिलते हैं, अपनेपन में डूबते-उतराते हैं। अपनों से दूर होने पर मन की स्थिति ऐसी हो जाती है कि हल्की सी आहट में भी ऐसे अवसर की झलक दिखाई देने लगती है, जो हमें अपनों और अपनेपन के करीब ले जा सकता है। इस हाइकू में कवयित्री का भावुक मन ऐसी ही स्थिति गुजरता है- ‘हुई आहट/खोला था जब द्वार/मिला त्यौहार’। त्यौहारों की रचनात्मक कल्पना हमें उनकी मूल भावना के और करीब ले जाती है। कहीं न कहीं हम बाह्य दुनियाँ में झाँकते हुए अपने अन्तर में भी झाँक रहे होते हैं। इस साधारण से हाइकु में दीपावली की कल्पना का रचनात्मक भाव है- ‘जगमग है/दियों की कतार से/हरेक कोना’। परदेश में वहाँ की परम्पराएँ हैं, वहाँ का परिवेश है, वहाँ का संगीत है, परन्तु अपनी परम्पराएँ, अपना परिवेश, अपना संगीत याद आये बिना नहीं रहता! मन अपने की ओर भागता है- ‘है डिस्को यहां/छुये जो मन को, वो/भजन कहां?’ यादों के बीच अपनेपन की ओर बार-बार भागता मन कभी-कभी उदास जरूर होता है, पर निराश नहीं होता। शायद इसीलिए वह हवाओं के पँखों पर लिखे सन्देश को पढ़ता है- ‘हवा जो आई/परदेशी लौट आ/संदेशा लाई’ और कल्पनाओं के झुरमुट में उम्मीद लिए बैठे इस हाइकु की भाषा में जवाब देता है- ‘शाम के वक्त/लौटते हैं पंछी भी/आशियाने में’
   युवा मन के कुछ कोने हमेशा उस प्यार के लिए खाली रहते हैं, जिसे कोई हमसफर बनकर ही दे सकता है। प्रेम में पगे कुछेक हाइकु हैं इस संग्रह में। प्रेम की अनुभूति कभी तन-मन महका जाती है- ‘महका गया/मेरा तन-मन ये/तेरा मिलन'। तो कभी उदासी भी दे जाती है- ‘मन उदास/जब तू नहीं पास/है वनवास’
   प्रकृति, प्रवास, अपनापन, तीज-त्यौहार, प्रेम- ये सारी अनुभूतियां भावुक मन की रचात्मकता का पक्ष रखते हैं और कलाकार के मन की गहराई को मापते हैं। लेकिन अन्तस की चेतना को प्रमाणित करती है आसपास के वातावरण में घटने वाली घटनाओं और उनके मानवीय प्रभावों के प्रति संवेदन मन की रचनात्मकता, जिसे साहित्य में सामान्यतः विचार तत्व के रूप में स्वीकार किया जाता है। यद्यपि हाइकु जैसे लघुकाय छन्द में इस रचनात्मकता को गहन मनन और अभ्यास से ही लाना सम्भव है, तदापि भावना जी ने संवेदन मन की रचनात्मकता को ‘तारों की चूनर’ के कुछ हाइकुओं में अभिव्यक्त किया है। सुनामी के तांडव पर एक हाइकु देखें- ’नाचती मौत/बेबसों के घर में/रूप सुनामी’। रोज कमाने-खाने वालों की स्थिति कई बार विशेषतः सर्दियों में कई तरह से पीड़ादायी हो जाती है। धूप नहीं निकलती तो चूल्हा जलना मुश्किल हो जाता है- ‘न जला चूल्हा/धूप है नदारद/गीली लकड़ी’। दिन तो किसी तरह कट जाए, पर रात कैसे कटे? विवशता को अभिव्यक्त करता है यह बिम्ब- ‘फटी रजाई/ये मत पूछो कैसे/सर्दी बिताई’। औद्योगिकीकरण के दुष्परिणाम पूरी मानव जाति को झेलने हैं। कारखानों से निकलता धुँआ हमारे स्वास्थय को भी डसेगा और पर्यावरण-सन्तुलन को भी निगल जायेगा। हाइकु की कवयित्री इन शब्दों में चेतावनी देती है- ‘आसमान में/काले सर्प सा धुआं/फन फैलाए’। क्या देश और क्या परदेश, व्यवस्था का चरित्र कमोवेश एक जैसा होता है; लेकिन परदेश में यह कुछ ज्यादा पीड़ा देता है, क्योंकि वहाँ हमारी परिस्थितियाँ और अपेक्षाएँ दोनों अलग होती हैं। इस हाइकु में यही पीड़ा है- ‘देश बेगाना/लूटती पुलिस भी/कैसा जमाना’
   साहित्य की हर विधा में भाव, विचार और तकनीक का समन्वित संगम कहीं अधिक आकर्षित करता है। हाइकु काव्य में ऐसे आकर्षक कई उदाहरण देखने को मिल जाते हैं, इस संग्रह में भी हैं।
  ये कुछ पक्ष हैं, कई और पक्ष भी हो सकते हैं। दरअसल रचनाकार की दृष्टि से हाइकु की लघु काया में काफी विस्तार होता है, विस्तार पाठक की दृष्टि से भी होता है, पर पाठक की दृष्टि से कुछ सीमाएं भी होती हैं। उन सीमाओं के बावजूद पाठकों के पढ़ने के लिए एक अच्छा संग्रह है, अपनी-अपनी दृष्टि से पढ़ेंगे तो बहुत कुछ मिलेगा इसमें। मेरी लेखकीय सीमाओं के कारण कई बेहद अच्छे उदाहरण इस चर्चा में उद्धृत नहीं हो पाये हैं। हाँ, सृजन से सकारात्मक दिशाबोध की अपेक्षा होती है, शायद इसी अपेक्षा को ध्यान में रखकर डा. भावना ने यह हाइकु संग्रह में शामिल किया होगा- ‘चाहो अगर/छूना असमान को/फैलाओ पंख’
तारों की चूनर (हाइकु-संग्रह) :  डॉ भावना कुँअर। प्रकाशक : शोभना प्रकाशन, 123-ए, सुन्दर अपार्टमेन्ट, जी.एच.10, नई दिल्ली-87 , पृष्ठ: 160 (सज़िल्द), मूल्य: रू 150/- ; संस्करण: 2007।
  • एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड


डॉ. उमेश महादोषी
जनक छन्द की सही विवेचना
जनक छन्द अरा और जनक नागरी लिपियों के प्रणेता और आचार्य डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ द्वारा प्रणीत है और इसकी रचना एवं शिल्प आदि के बारे में नियम भी अराज जी द्वारा ही निर्धारित किये गए हैं। पिछले दस वर्ष में शताधिक कवियों ने जनक छन्द में पर्याप्त संख्या में रचनाएं दी हैं। जनक छन्द में कई तरह के प्रयोग भी हुए हैं। इस सबको ध्यान में रखकर जनक छन्द पर विश्लेषण, विवेचन, समीक्षा-समालोचना सम्बन्धी कार्य भी जरूरी हो जाता है। डॉ. ब्रह्मजीत गौतम जी ने वर्ष 2006 में अराज जी के तमाम कार्य को ध्यान में रखकर जनक छन्द का शोधपरक विवेचन किया, जो पुस्तक रूप में पाठकों के समक्ष आया है। इस विवेचन में उन्होंने जनक छन्द के उद्भव और विकास पर अराज जी के कार्य और प्रतिपादनाओं के सन्दर्भ में प्रकाश तो डाला ही है, जनक छन्द के नियमों और उसमें हुए कई प्रयोगों की समालोचनात्मक समीक्षा भी की है। डॉ. ब्रह्मजीत गौतम जी स्वयं जनक छन्द के उत्क्रष्ट कवि हैं, इसलिए उन्होंने इस विवेचन में कई जगह आदर्श स्थितियों को लेकर अपनी व्यवस्था भी दी है और उसके समर्थन में अपनी रचनाओं के अच्छे उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। पुस्तक को छः अध्यायों में विभक्त करके इस त्रिपदिक छन्द के अलग-अलग पक्ष पर रौशनी डाली गयी है।
   पहले अध्याय में त्रिपदिक छन्द परम्परा का उल्लेख गायत्री छन्द से लेकर उष्णिक, ककुप्, गंगी, माहिया (टप्पा), हायकू (लेखक ने हाइकु के लिए चार वर्तनियों के प्रचलन का उल्लेख करते हुए इसी वर्तनी का उपयोग किया है) और अन्त में जनक छन्द तक किया है। इस अध्याय से पाठक समझ सकते हैं कि वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के त्रिपदिक छन्द हमारी छन्द परम्परा में शामिल हैं और जनक छन्द इस परम्परा के अनुरूप एक स्वाभाविक छन्द है।
   दूसरा अध्याय जनक छन्द के उद्भव, उसकी संरचना तथा विकास पर केन्द्रित है। जनक छन्द कैसे और किस मनः स्थिति में 03 सितम्बर 2001 को अराज जी के मुख से प्रस्फुटित हुआ, किस तरह उसकी संरचना मात्राओं और लय के सन्दर्भ में दोहे के प्रथम चरण पर आधारित है तथा किस तरह के प्रयास इस छन्द के विकास और लोकप्रियता के लिए किए गये, इस सबकी चर्चा इस अध्याय में की गई है। जनक छन्द के विभिन्न संकलनों और उनमें शामिल जनक-छन्द कवियों की चर्चा भी इस अध्याय में है। ऐतिहासिक महत्व तो है ही इस अध्याय का, जनक छन्द से अपरिचित लोगों के लिए इस छन्द से परिचित होने की दृष्टि से भी यह अध्याय महत्वपूर्ण है।
   तीसरे अध्याय में जनक छन्द के विभिन्न भेदों की चर्चा की गई है। इसमें अराज जी के अनुप्रास और लय आधारित वर्गीकरणों के साथ डॉ. महेन्द्रदत्त शर्मा ‘दीप’ का जनक छन्द वर्गीकरण भी दिया गया है। इसी के साथ जनक छन्द के समरूप वर्तमान में प्रचलित कुछ अन्य छन्दों यथा- वृद्ध जनक छन्द, सुगति छन्द, पौन सोरठा छन्द आदि की परिचयात्मक चर्चा भी की गई है। जहां जरूरी समझा है, इस अध्याय में डॉ. गौतम ने अपनी समीक्षात्मक व्यवस्था भी दी है।
   चौथे अध्याय में काव्य की अन्य विधाओं, विशेष रूप से ग़ज़ल और गीत में जनक छन्द के प्रयोग पर चर्चा और उसकी समीक्षा शामिल है। इस चर्चा में डॉ. गौतम जी ने उक्त प्रयोगों से सम्बन्धित अराज जी के नियमों और व्यवस्थाओं में कुछ खामियों को भी दर्शाया है और उनके समाधान भी स्वरचित रचनाओं के उदाहरण देकर प्रस्तुत किए हैं। यह अध्याय पाठकों और जनक छन्द के कवियों को इस छन्द के विविधि प्रयोगों के सन्दर्भ में सावधान भी करता है और नई सम्भावनाओं की ओर इंगित भी।
   पांचवा अध्याय सबसे महत्वपूर्ण है। ‘जनक छन्द का अंतर्बाह्य’ शीर्षक इस अध्याय में जनक छन्द के कथ्य और रचना-शिल्प की विवेचना की गई है। कथ्य पर उदाहरणों सहित विस्त्रित नोट है, वहीं रचना शिल्प के अन्य अवयवों यथा- भाषा, लय, तुक विधान आदि का समालोचनात्मक विवेचन शामिल है। यह अध्याय जनक छन्द के रचनाकारों का ध्यान उनके लेखन में सम्भावित कमजोरियों की ओर आकर्षित करता है और उनके लिए मार्गदर्शन भी उपलब्ध करवाता है।
   अन्तिम अध्याय में जनक छन्द और उसके माध्यम से त्रिपदिक छन्दों की भाविष्यिक सम्भावनाओं का परीक्षण किया है। उन्होंने एक ओर जनक छन्द के रचनाकारों को ‘भरती के शब्दो’ के प्रयोग की ओर आगाह किया है, तो दूसरी ओर जनक छन्द के बहाने हिन्दी कवियों में छान्दस कविता के प्रति पुनः जाग्रत हुई चेतना का उल्लेख भी किया है।
   निश्चिय ही यह पुस्तक जनक छन्द की आरम्भिक किन्तु सही विवेचना करती है और हिन्दी कविता को पुनः छन्द परम्परा की ओर ले जाने की जनक छन्द की सम्भावनाओं को सामने रखती है। चूंकि यह विवेचन जनक छन्द के मात्र साढ़े पांच वर्ष के अल्पकाल पर ही आधारित है, इसलिए इसकी अपनी सीमाएं हो सकती हैं। पर इस प्रकार के विवेचन जनक छन्द को आगे बढ़ाने और उसकी समग्र सम्भावनाओं और सामर्थ्य को सामने रखने की दृष्टि से सदैव महत्वपूर्ण होते हैं।

जनक छन्द : एक शोधपरक विवेचन : डॉ ब्रह्मजीत गौतम, प्रकाशक :  अनुराधा प्रकाशन, 1193, पंखा रोड, नांगल राया,(डी2ए, जनकपुरी), नई दिल्ली-46। पृष्ठ : 64 , मूल्य: रू 30/- ; संस्करण : 2006।
  • एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार (उत्तराखण्ड)

सुरेश पंडित
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाजे बयाँ और
    सच है कि हर इन्सान, हर शायर, हर लेखक अपने आप में अलग होता है, लेकिन एक सचाई यह भी है कि वह अलग नहीं भी होता। जो सम्बन्ध, जो समाज, जो पारिवारिक दायरे एक कवि या लेखक के होते हैं, लगभग वैसे ही दूसरों के भी होते हैं। लगभग एक से परिवेष में रहते हुए जो अनुभव, अहसास या दृष्टिकोण  किसी एक लेखक के हो सकते हैं वे किसी दूसरे के भी हो सकते हैं। इन अनुभवों या अहसासों को कविता में उतारने के ढंग अवश्य जुदा-जुदा होंगे। इसीलिए ग़ालिब अपने अन्दाजे़ बयां को और ही तरह का ठहराते हैं। इसे उनका बड़बोलापन कहा जा सकता है। लेकिन सचाई यही है। ग़ालिब जानते थे कि दो लोगों के अहसास कभी कभार  एक जैसे हो सकते हैं। लेकिन दोनों के कहने का ढंग कदापि एक जैसा नहीं हो सकता। उदाहरण के लिये काव्य में इसकी अभिव्यक्ति सदा से होती आई है लेकिन हर कवि की कविता में इसकी प्रस्तुति अलग ही ढंग से हुई है। इसीलिये पाठक अलग-अलग तरह से आस्वाद ग्रहण करता है।
    उद्भ्रान्त की कविताओं की अपनी एक अलग दुनियां है। वे प्रचलित मिथकों को सिरे से खारिज नहीं करते बल्कि उन्हें समकालीन परिवेश में उनकी उपस्थिति किस रूप में हो सकती है इसकी खोज करते हैं। उनका इसी वर्ष में प्रकाशित बृहत्काय कविता संकलन ‘अस्ति’ अपने आप में कुल 476 पृष्ठ समेटे हुए है। यदि रचनावलियों और क्लासिक महाकाव्यों को छोड़ दें तो मुझे लगता है इतना बड़ा संकलन आज तक किसी कवि का नहीं आया होगा। ‘अस्ति’ के पहले खण्ड को कवि ने शीर्षक दिया है- ‘जैसे सपना एक चकमक पत्थर है।’ सपना देखना एक स्वाभाविक क्रिया है। लेकिन कभी-कभी मनुष्य कोई ऐसा सपना भी देखता है जो उसकी ज़िन्दगी को ही बदल देता है। इसीलिये माना जाता है कि हर परिवर्तन को भी व्यक्ति प्रथमावस्था में एक स्वप्न के रूप में देखता है। उसका सपना जब यथार्थ से टकराता है तो चिनगारी छोड़ता है। यह चिनगारी उसे तब तक चैन नहीं लेने देती जब तक वह स्थितियों में बदलाव लाने की लालसा पूरी नहीं कर लेता या यह भी हो सकता है कि वह अधूरी लालसा ही लिये दृश्य पटल से हट जाये। 140 कविताओं वाला यह खण्ड जहां माँ, दादाजी, पतंग, आज़ादी, पेपरवेट, पिता, टॉर्च, मोमबत्ती, कर्ज़, जेल, आत्महत्या और बचपन जैसे सामान्य विषयों पर कवितायें लिये हुए है वहीं प्रेम, मृत्यु, मुक्ति, उड़नतश्तरी, ब्रह्मांड, ब्लैकहोल, समय, बोधिवृक्ष, जीवन, प्रकृति आदि में कवि की दार्शनिक सोच की झलक मिलती है। मनुष्य जीवन के बाह्य और अन्तरंग को उन्होंने विस्तार और गहराई तक पैठ कर देखा है। इसलिये उनके वर्णन से सूक्ष्मातिसूक्ष्म डिटेल भी बच नहीं पाई है। इस खण्ड की शुरुआत ही इसके शीर्षक वाक्य से होती है। इसकी व्याख्या वे इस प्रकार करते हैं-‘जैसे सपना/एक चकमक पत्थर है/संघर्ष की तीली से रगड़ खा/भीतर की आग को/विकीर्णित करता/फैला देता/समस्त दिशाओं में/एक अद्भुत/और सर्वथा अछूता/प्रकाश लोक’। समय की यह व्याख्या भारतीय कालगणना को अलग रूप में प्रस्तुत करती है।
    आध्ुानिक उदार अर्थव्यवस्था ने जिस तरह मानव जाति का वर्तमान और भविष्य बाजार के हाथों गिरवी रख दिया है, उससे एक ऐसी प्रतियोगितात्मक संस्कृति का विकास हुआ है जो शक्तिमत्ता को ही जीवन की शर्त मानती है। प्रतियोगिता की यह एक अन्धी दौड़ है। इसमें निर्बल, निरीह को जीने का अधिकार  नहीं रहा है। ऐसे लोग या तो हाशिये की और धकेले जा रहे हैं या उन्हें आत्महत्या के लिये विवश किया जा रहा है। आश्चर्य है कि इस तरह की मौत को आत्महत्या की संज्ञा दी जा रही है जबकि वह सरासर बाजारवादी व्यवस्था द्वारा की जाने वाली हत्या है। कवि कहता है-‘उसने आत्महत्या की/सीलिंग फैन से लटककर/परीक्षा की तैयारी नहीं थी पूरी/और जीवन की परीक्षा में/असपफल होने का भय था उसे’।  बाजार की मांग के अनुरूप बदलती शिक्षा पद्धति में न केवल असपफल होना बल्कि कम नम्बरों से पास होना तक भयावह हो गया है कि उससे मुक्ति मौत को गले लगाने के अतिरिक्त कहीं नहीं मिल पाती। लोगों को क्रूर सच का ज्ञान करा दिया गया है कि शिक्षा व्यवस्था द्वारा निर्धारित परीक्षा में असपफल होना या अच्छे अंकों से पास न होना जीवन की परीक्षा में भी असपफल हो जाना है।
    इस बर्बर व्यवस्था ने व्यक्ति को जीवन के जिस संग्राम में भाग लेने के लिये मजबूर कर दिया है उसे उसी के हथियारों से जीता जा सकता है। इसमें न्याय-नैतिकता के लिये कोई स्थान नहीं है। इसमें जीत उसी की होती है जो क़ामयाब होता है। चाहे वह क़ामयाबी किसी भी तरह के छलकपट से क्यों न प्राप्त की गई हो। स्कूल जाते एक बच्चे ने-‘जीवन में संघर्ष का/पहला सबक़ पाया/और कड़ी धूप में आग बरसाते/सूर्य से बचने की सीमा से गुज़रते ही/किनारे खड़ी बबूल की/घनी झाड़ियों की ओट को ही/बनाया साया/फिर उसी/काँटे को तोड़ पाँव में/ अन्दर तक धंसे शूल को/बाहर निकाला’।  काँटे से काँटा निकालना ही आज के जीवन की समस्याओं का चरम समाधान है।
   दूसरे खण्ड को लेखक ने ‘उलट बाँसी’ का नाम दिया है और इसकी शुरुआत भी इसी शीर्षक की कविता से की गई है। लेकिन इस खण्ड में अयोध्या को लेकर दी गई सात कवितायें विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। दरअसल पिछली सदी के अन्तिम दशक में हुआ बाबरी मस्जिद का ध्वंस और राम जन्मभूमि की पुनः प्रतिष्ठा का प्रयास एक ऐसी दुखद घटना है जिसने हमारे धर्म निरपेक्ष राष्ट्रीय चरित्र और सह अस्तित्त्व को मानने वाली संस्कृति को इस तरह कलंकित किया है कि हम दुनियां के सामने अपनी गौरवपूर्ण थाती को गँवा कर शर्मसार होने के लिये विवश हो गये हैं। जो गरिमा हमने सदियों से सम्भाल कर रखी थी, जिससे सारी दुनियां के लोग ईर्ष्या करते थे, उसे हमने एक दिन के चन्द घण्टों में धूल-धूसरित करके  रख दिया है। और अब भी इसे अपने ही लोग अपने धर्म की असाधरण विजय के रूप में प्रशंसित करने में लगे हैं। इस क्रम की पहली ही कविता ‘बिंब’ की ये पक्तियां दृष्टव्य हैं- ‘शब्द अयोध्या/पड़ता कान में तो/मस्तिष्क का कम्प्यूटर/अपनी स्मृति में/तत्क्षण जो बिंब/उपस्थिति करता आजकल/क्या है वैसा ही/जो कि कौंध जाता था/एक डेढ़ दशक पूर्व/भारत के किसी भी/नागरिक के मन में’। इस बिंब को खंडित किया है उन लोगों ने जो सांप्रदायिकता की आग सुलगाकर अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने के लिये प्रयत्नरत हैं। राम के वन गमन को कवि प्रचलित अर्थों में नहीं देखता। इसे वह राम की एक ऐसी यात्रा मानता है जो वनवासी आदिम जातियों के साथ वहां विचरने वाले पशु पक्षियों और वनस्पतियों से संवाद स्थापित करने और उनके प्रति अपनी संवेदना विकसित करने के लिये की गयी थी। सीता की वह चिरन्तन छवि जो अब भी लोगों के मन में बसी है, और जिसमें उन्हें एक आदर्श स्त्री के रूप में दिखाया गया है, उसमें कवि की ऐसी नारी की झलक देखता है जो अपनी पहचान बनाने के लिये संघर्ष कर रही है-‘सीता का/कनक महल में उभरा हुआ रूप/आज की युवा कर्मठ/नारी में प्रतिबिंबत होकर/काल की तराजू पर/न्याय की कसौटी को कसता हुआ/एक नई क्रांति का/उद्घोष कर रहा है’।  अपनी ‘सीता रसोई’ कविता में कवि रसोई में प्रयुक्त सभी उपकरणों में सीता के जीवन की विभिन्न झांकियां देखता है। और अन्त में वह रामजन्म भूमि के आसपास तैनात सैन्य शक्ति को देखकर सोचता है कि क्या वे राम, जिन्होंने परम पराक्रमी राक्षसों को बिना विशेष तैयारी के मौत के घाट उतार दिया था, आज इतने निःशक्त हो गये हैं कि उन्हें इन बन्दूकधारी जवानों को अपना रक्षा कवच बनाना पड़ा है? आखिर उन्हें किस का डर है- ‘अयोध्या में/मैंने देखा/दोनों समुदायों में/वैमनस्य/प्रीति देखी सच्ची’।  वास्तविकता यही है कि अयोध्यावासियों में रामजन्मभूमि को लेकर किसी प्रकार का न तो पहले विवाद था न आज है। यह विवाद तो अयोध्या के बाहर रहने वाले धर्मान्ध लोगों ने पैदा किया है और उसे तब तक बनाये रखना चाहते हैं जब तक उनके स्वार्थ पूरे नहीं होते। आज भी यदि रामजन्मभूमि को अयोध्यावासियों के ही हवाले कर दिया जाय तो इस आरोपित समस्या का स्वतः समाधान हो सकता है।
    तीसरा खण्ड है ‘नींद में जीवन’। लेकिन इसकी शुरुआत इस तरह के शीर्षक वाली कविता से नहीं हुई है। इसमें कुल 148 कवितायें समाहित हैं। इनमें ‘वर्जित फल’, ‘किराये का मकान’, ‘तवायफ’, ‘नये घर का उपेक्षित कोना’, ‘नास्तिक’, ‘रक्त सम्बन्ध’, ‘बाबा मार्क्स: गान्धी बाबा’, ‘नींद में जीवन’, और ‘अर्थ का टिमटिमाता ब्राह्मांड’ आदि कई कवितायें पठनीय हैं। लेकिन यहां मैं ‘पहल’ में छपी कविता ‘बकरामण्डी’ पर कुछ चर्चा करना चाहूंगा। ईद का त्यौहार मनाने के लिये सैकड़ों बकरे सजा-धजा कर लाये गये हैं। इनके मालिक और खरीददार दोनों ही इनके मोल भाव में लगे हैं। मालिक चाहता है उसे अपने बकरे का अधिक से अधिक दाम मिले जबकि खरीददार की कोशिश है कि कम से कम दाम में उसे अधिक हृष्ट-पुष्ट बकरा मिल जाये। पहले व्यक्ति को अपना बकरा बेचकर अपनी रोटी का जुगाड़ करना है जबकि दूसरा इसका खुद स्वाद लेना चाहता है और अपने लोगों को भी दिलाना चाहता है। लेकिन मासूम बकरे नहीं जानते कि उनके साथ क्या होने वाला है। उन्हें अच्छा चारा खिलाया गया है, नहला धुलाकर सजाया गया है तो इसका मतलब है आज का दिन देखने को नहीं मिलेगा। उधर बेचने वाला सोच रहा है- ‘क्या अपने बकरे की क़ीमत/उसको इतनी मिल पायेगी/कि वह इसी मण्डी से/कम क़ीमत वाला बकरा एक/अपने बीबी-बच्चों के वास्ते/खरीद सकेगा और/यों कुर्बानी दे सकेगा/अपने हिस्से की’।  इस तरह यह कविता समाज की उन विषम स्थितियों से परदा उठाती है जिनमें कुछ लोग दूसरों की क़ुर्बानियों से अपनी मौज मस्ती करते हैं।
    संक्षेप में जो कुछ ऊपर लिखा गया है वह तो एक ट्रेलर मात्रा है, असली स्वाद तो आप तब पायेंगे जब पुस्तक की शेष कविताओं को भी पढ़ेंगे।
    ‘अस्ति’   (कविता संग्रह)  :  उद्भ्रांत। प्रकाशक  :  नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2/35, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, पृष्ठ: 700, मूल्य: 750 रुपये मात्र।
  •     383, स्कीम नं. 2, लाजपत नगर, अलवर-301001(राज.)