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रविवार, 12 नवंबर 2017

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

 अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  : 01-04,  सितम्बर-दिसंबर 2017


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


छायाचित्र : उमेश महादोषी 




   ।।सामग्री।।
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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में डॉ. रघुनन्दन चिले, सर्वश्री प्रकाश श्रीवास्तव, रामस्वरूप मूँदड़ा, कन्हैया लाल अग्रवाल ‘आदाब’ एवं केशव चन्द्र सकलानी ‘सुमन’  की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में सर्वश्री प्रतापसिंह सोढ़ी, हरनाम शर्मा, राजेन्द्र परदेसी एवं सुश्री विभा रश्मि व सुश्री मनीषा सक्सेना की लघुकथाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में सुश्री उषा अग्रवाल ‘पारस’  के हाइकु।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ एवं क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : 
अब से क्षणिकाओं एवं क्षणिका सम्बन्धी सामग्री के लिए ‘समकालीन क्षणिका’ ब्लॉग पर जायें।  इसके लिए इस लिंक पर क्लिक करें-      समकालीन क्षणिका

लघुकथा विमर्श {लघुकथा विमर्श} :  इस अंक में डॉ. बलराम अग्रवाल का आलेख 'लघुकथा में नेपथ्य' एवं डॉ. पुरूषोत्तम दुबे का आलेख 'महाराष्ट्र : लघुकथा का आसमान साफ है'

किताबें {किताबें} :  इस अंक में इस अंक में श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के काव्य-संग्रह ‘मैं घर लौटा’ एवं  श्री एस.एम. रस्तोगी ‘शान्त’ के काव्योपन्यास ‘सृष्टि जनक’
 की उमेश महादोषी द्वारा समीक्षाएँ। 


अन्य स्तम्भ, जिनमें इस बार नई पोस्ट नहीं लगाई गई है

सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  
कहानी {कथा कहानी} : 
जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} :  
व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  
माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  
बाल अविराम {बाल अविराम} :
संभावना {संभावना} :  
स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} : 
साक्षात्कार {अविराम वार्ता} :  
अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :
हमारे सरोकार {सरोकार} : 
लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : 
हमारे युवा {हमारे युवा} :  
अविराम के अंक {अविराम के अंक} : 

अविराम की समीक्षा {अविराम की समीक्षा} : 
अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} : 
गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




।।कविता अनवरत।।


डॉ. रघुनन्दन चिले




क्या आदमी भी देखता है सपने पेड़ और चिड़ियों की तरह 

चिड़ियाँ चहचहा रही हैं
मानो सूरज की विदाई से हर्षित
साँझ के गीत गा रही हैं
ढल जायेगी जब साँझ रात में
चिड़ियाँ सो जायेंगी
खो जायेगा दिन का यथार्थ
चिड़ियाँ देखेंगी हरे-हरे सपने
कद्दावर पेड़ों की तरह
पेड़ चिड़िया बनकर
दुबक जायेंगे नीड़ में
फिर चिड़िया और पेड़
पेड़ और चिड़िया
प्रकृति के केनवास पर
छायाचित्र :
उमेश महादोषी 
एक रंग हो जायेंगे
सिन्दूरी सुबह में
सिन्दूर से आपाद-मस्तक
रंग जायेंगे, करेंगे नृत्य, झूमेंगे
हवा के झकोरों के साथ गायेंगे
पुलकित होंगे
करेंगे सूरज का अभिषेक
खो चुके होंगे रात के सपने
दिन के खुरदरे यथार्थ पर
चलने का होगा उपक्रम 
क्या आदमी भी देखता है सपने 
पेड़ और चिड़ियों की तरह 
  • 232, मागंज वार्ड नं. 1, दमोह-470661, म.प्र./मो. 09425096088

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




।।कविता अनवरत।।



प्रकाश श्रीवास्तव




ग़ज़लें

01.
ज़िन्दगी को आज़मा कर देखिए
मौत से नज़रें मिलाकर देखिए

ढूँढ़ते रह जायेंगे सम्वेदना
इस शहर में घर बनाकर देखिए

ख़ूबसूरत आप दिखते हैं मगर
आइना नज़दीक लाकर देखिए

सिर झुकाने से नहीं मिलता ख़ुदा
आप अपना मन झुकाकर देखिए

ज़िन्दगी को छीनना आसान है
रेखाचित्र : बी.  मोहन नेगी 
ज़िन्दगी को तो बचाकर देखिए

सामने आ जायेंगी सच्चाइयाँ
आँख से पर्दा हटाकर देखिए

02.
पत्थरों को गुमान है
आदमी बेज़ुबान है

ज़िन्दगी के खिलाफ अब
रोशनी का बयान है

आग की नदी के पास ही
मोम का इक मकान है

रोज़ लंकादहन यहाँ
रोज दुर्गा भसान है

सुबह बूढ़ी है जाने क्यों
दोपहर ही जवान है

  • ए-36/26 क-3, कोनिया शट्टी रोड, भदऊँ, वाराणसी-221001(उ.प्र.)/मो. 08009790463

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




।।कविता अनवरत।।


रामस्वरूप मूँदड़ा




आकाश की परिधि के बाहर

आकाश सिर पर उठा
घूमता रहा कई दिन
तुमने कहा था मुझे चुनने हैं
सितारे अनगिन।

मैंने कहा आकाश लाया हूँ
भरलो झोलियाँ
पहले तुमने भरी मुट्ठियाँ
और पाँव से झोलियों को फैला दिया
धरती की सतह पर।
कोई आये/सितारे तोड़े
इन्हें भर दे
बाँधकर चला जाए
कोई अनजान चेहरा
तुम्हारे स्वप्निल भविष्य के लिए
बड़ी-बड़ी गठरियाँ।

बोझ महसूसा है कभी तुमने!
रेखाचित्र : विज्ञान व्रत 
कहीं किसी का?
कभी नहीं
और प्रतीक्षा करो
मेरे जाने के बाद
शायद कोई आ जाये
जो भर दे इन्हें फिर
जान सको तुम
आदमी का वजन।

उम्र के दिन शेष नहीं हैं इतने
थकन भरे पाँवों से
रुक गया था पड़ाव पर
आकाश गिरे मेरे सिर से नीचे
इससे पहले खिसक जाना है तुम्हें
आकाश की परिधि के बाहर
यदि जीना है।

मुझे, जहाँ तक चल सकूँगा आगे
चलना है
कर रहा हो शायद कोई और भी इंतजार
और फिर दब जाना है
इसी आकाश के नीचे।
जो घूमता रहा उठाकर सिर पर
सितारों का आकाश
तुम्हारे लिए
वह मैं ही हूँ
सिर्फ मैं ही।


  • पथ 6, द-489, रजत कॉलोनी, बूँदी-323001, राज./मो. 09414926428

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




।।कविता अनवरत।।


कन्हैया लाल अग्रवाल ‘आदाब’




ग़ज़लें 

01.
याद है हमको सताना आपका
ख्वाब में आकर जगाना आपका

मिल गई उसको पसंदीदा जगह
मेरा दिल है अब ठिकाना आपका

देखकर, फिर देखकर, ना देखना
जुल्म है नज़रें झुकाना आपका

मेरी ग़ज़लों की चुराकर डायरी
शेर उसके गुनगुनाना आपका

छत पे आकर जेठ की दोपहर में
सूखे कपड़ों को सुखाना आपका

घर की खिड़की खोलकर के झाँकना
झाँककर परदे गिराना आपका

कर न दे पैदा किसी में कुछ भरम
रेखाचित्र : बी. मोहन नेगी 
इस अदा से आजमाना आपका

02.
गिला कैसा कोई गर बेखबर है
मुझे ही कौन सी अपनी खबर है

किनारे पर खड़े को भी भिगोती
बड़ी गुस्ताख सागर की लहर है

पटाखों की तरह बम फूटते हैं
जिधर देखो उधर पसरा कहर है

भला कैसे हो खेती में बरक्कत
मेरे गाँव में एक सूखी नहर है

हुआ दुश्वार है अब सांस लेना
फ़िजा में इस कदर फैला ज़हर है

सभी अब सिर्फ अपनी सोचते हैं
किसी को क्या किसी की अब फिकर है

यहाँ कोई नहीं है दोस्त-दुश्मन
यह चाहे संगमरमर का शहर है

  • 89, ग्वालियर रोड, नौलक्खा, आगरा-282001, उ.प्र./मो. 09411652530

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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




।।कविता अनवरत।।


केशव चन्द्र सकलानी ‘सुमन’




उदास होना

उदास होना
मेरी फितरत
मेरी आदत में नहीं
मेरे दुःख...
मुझे कभी दुखी नहीं कर पाते
पर जब टहनियों पर
फूल नहीं खिलते
आज के इस दौर में
दोस्त....
दिल खोलकर नहीं मिलते
वसंत समय पर नहीं आते
सावन में मेघ नहीं मड़राते
मैं उदास हो जाता हूँ
जब बागों में
तितलियों
रेखाचित्र : विज्ञान व्रत 
जुगनुओं
बीरबहुटियों को
(प्रदूषण से विनष्ट प्रजातियाँ)
नहीं ढूँढ़ पाता हूँ
मैं उदास हो जाता हूँ
जब मुनियाँ की आँखों में
एक अच्छी सी फ्रॉक के लिए
देखता हूँ मोतियों के कतरे
मैं उदास हो जाता हूँ
जब धरती माँ दे नहीं पाती
सबके पेट के लिए दाने
जब औरों के दुःख
दौड़ कर आते हैं मुझे काट खाने
मैं उदास हो जाता हूँ
याद आते हैं
उसके साथ बिताए चंद उदास लम्हे पुराने
मैं उदास हो जाता हूँ।

  • 125-बी, टैगोर कॉलोनी, देहरादून-248001, उ.खण्ड/मोबा. 09410619205

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।। कथा प्रवाह ।।



प्रतापसिंह सोढ़ी




मुराद

    मेरे पुराने रिजेक्टेड सोफे को देखने के बाद कबाड़े वाले ने पूछा- ‘‘साहब, कितने तक देंगे?’’
    ‘‘पाँच सौ रुपये तो लग गये हैं इसके।’’
    चेहरे पर फैली पसीने की बूँदों को अपनी मैली कमीज की आस्तीन से पोंछते हुए वह बोला- ‘‘पाँच सौ रुपये देने की मेरी हैसियत नहीं है, साहब।’’
    मैंने पूछा- ‘‘तुम लोग तो कबाड़े का सामान अपने सेठ को ले जाकर देते हो?’’
    ‘‘हाँ साहब, लेकिन यह सोफा मैं अपने लिए खरीदना चाहता हूँ।’’
    ‘‘तुम्हारे घर में इसे रखने की जगह है?’’
    ‘‘नहीं साहब, एक खोली में रहता हूँ। इसे ठीक करवा के अपनी लड़की की शादी में दूँगा।’’
    उसने दो सौ रुपये मेरी ओर बढ़ाये।
    मैं कभी उन रुपयों को, कभी अपने पुराने सोफे को और कभी कबाड़वाले की आँखों में झलक आई दीनता को देख रहा था। मेरे संवेदन तंतुओं में दया और सहानुभूति की प्रबल ध्वनियाँ झंकृत हो रही थीं। मैंने अपना निर्णय सुनाया- ‘‘मेरी तरफ से इस सोफे को अपनी बिटिया के विवाह में उपहार दे देना।’’
    उसकी आँखें नम हो आईं। दो सौ रुपये मेरी हथेली पर रखते हुए रुँधे कंठ से उसने निवेदन किया- ‘‘साहब, अपनी कमाई से ही अपनी बिटिया को यह सोफा दूँगा। आपने इस गरीब की मुराद पूरी कर दी। आपके इस उपकार को मैं जीवन भर याद रखूँगा।’’
    उसके कदम मेरी ओर बढ़े। उसने मेरे पाँव छुए और ठेले पर सोफा रख खुशी-खुशी चल दिया।

  • 5, सुखशांति नगर, बिचौली-हप्सी रोड, इन्दौर (म0प्र0)/मोबाइल: 09039409969

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।। कथा प्रवाह ।।


हरनाम शर्मा



अब नाहीं
      ‘‘भगवान् कसम, मनैं नेम है साहब, इब मैं यो काम कतई नीं करता। कुछ नीं करता। बस कपड़ों पै प्रैस करके गुजारा करूँ।’’
      ‘‘....’’ नए दरोगा की आँखें संवादहीन न थीं।
      ‘‘माई-बाप, कदी वर्दी प्रैस करवानी हो तो लेता आऊँगा, बस यो ही काम आ सकूँ इब तो मैं।’’
      ‘‘हरामजादे, झूठ तुम्हारे खून में समाया रहेगा जन्मभर। तेरा रिकार्ड बोल रहा है, साले तू अफीम, चरस, गाँजा सारी चीजें बेचता है। मुझे आज इस थाने में पन्दरवाँ दिन हो गया, एक बार भी नहीं आया।
      ‘‘साहब, धन्धा छोड़ दिया तो के करूँ आ कै? जब कमाई थी तो थाने की चौथ न्यारी सबसे पहले जावै थी, आपैई। थाने नै मेरे से कोई शिकायत नीं थी। इब बताओ...’’
      ‘‘हाँ, हाँ, बताऊँगा। भूतनी के, अपना धन्धा छोड़कर हमारा धन्धा चौपट करवा दो। जरा बताइयो, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है? तेरा धन्धा तब ही बन्द हुआ, जब मैं इस थाने में आया। साले, तुम लातों के भूत बातों से नहीं मानते। एकाध बार कचैहरी के चक्कर कटवा दूँगा तो सारा धन्धा खूब चल पड़ेगा? बोल ससुरे...।’’
      ‘‘के करूँ साहब बात यो नहीं है।’’
      ‘‘और क्या है? कल से कोई बात नहीं सुनूँगा। चौथ थाने पहुँच जानी चाहिए हफ्ते बाद, समझे, धन्धा चालू करो या मरो।’’
      ‘‘साहब साठ से ऊपर हो गया, पोरस थक गे, अब नहीं होगा।’’
      ‘‘अरे ससुरे बूढ़े, भोतई कर्मठोक है तू तो। अरे भई, तेरी कोई औलाद तो होगी?’’
      ‘‘जी, छोरी थी, ब्याह दी।’’
      ‘‘और घरवाली?’’ बुढ़िया को इंगित कर नए साहब ने पूछा।
      ‘‘ना जी, यो तो निरी गऊ है जी। इसने कदी भी मेरे धन्धे में साथ नहीं दिया।’’
      ‘‘बस, देख लो, मैं और ‘ना’ नहीं सुनना चाहता, हमें भी आखिर कुछ चाहिए पिछले कागजातों का पेटा भरने के लिए। कुछ धन्धा करो, म्हारा भी कुछ हो। समझे!’’ आँखें तरेरकर नया दरोगा गुर्राया। बूढ़े के इनकार करने से पूर्व डण्डा तन चुका था, मगर जर्जर हाथों ने उस डण्डे को हवा में ही थाम लिया।

  • ए.जी. 1/54-सी, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018/मो. 09910518657

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।। कथा प्रवाह ।।


राजेन्द्र परदेसी






वाउचर
      लॉन में बैठे अपने साहब को देखकर रतनलाल ने सोचा, ‘‘मिलता चलूँ, नहीं तो सोचेंगे मुझे देखकर मुँह घुमा लिया।’’ और थैला
लिए ही वह बँगले के अन्दर चले गये।
      देखते ही साहब ने पूछा- ‘‘कहो रतनलाल, कैसे आना हुआ?’’
      ‘‘बाजार जा रहा था, सोचा आपसे मिलता चलूँ।’’
      ‘‘अच्छा किया, पप्पू को भी साथ लेते जाओ। जो कहे, दिला देना।’’
      ‘‘ठीक है सर..’’ इतना ही रतनलाल कह पाये थे कि साहब ने बेटे को आवाज दी- ‘‘पप्पू ऽ ओ पप्पू ऽऽ’’
      ‘‘क्या है डैडी?’’ बेटे ने आकर पूछा।
      ‘‘देखो, अंकल बाजार जा रहे हैं। तुम्हें भी तो बाजार जाकर कुछ लेना है न?’’ फिर सलाह के लहजे में बोले- ‘‘इन्हीं के साथ चले जाओ। ये सामान तुम्हें दिलवा देंगे।’’
      ‘‘तो क्या आप नहीं चलेंगे?’’ पप्पू ने पूछा।
      ‘‘मुझे बहुत काम हैं।’’ 
      ‘‘ठीक है’’ कहकर पप्पू रतनलाल के साथ बाजार चला गया। 
      बाजार में वह फरमाइश करता जाता और रतनलाल भुगतान करके हाथ में उठाते जाते। खरीद समाप्त हुई तो बंगले की ओर लौट पड़े।
      सामान रखकर रतनलाल जब वापस जाने लगे तो साहब ने टोका, ‘‘क्यों रतनलाल! तुमने बताया नहीं, कितने पैसे हुए?’’
      ‘‘बता दूँगा, सर!’’
      ‘‘यह ठीक नहीं, तुम्हारे भी तो बाल-बच्चे हैं, रतनलाल।’’ फिर सोचकर बोले- ‘‘ऐसा करो, हजार का वाउचर बना लो और मुझसे कल पास कराकर पेमेंट ले लो।’’
      ‘‘ठीक है, सर!’’
      ‘‘भूलना मत। कल जरूर पास करा लेना। और सुनो- जब भी बाजार जाया करो, इधर भी हो लिया करो।’’

  • 44, शिव विहार, फरीदीनगर, लखनऊ-226015, उ.प्र./मो. 09415045584

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।। कथा प्रवाह ।।


विभा रश्मि






पड़ोसी धर्म  
      ‘‘गुड मॉर्निंग’’, अंतरा ने भार्गव साहब को देख छूटते ही कहा।
      अभिवादन का प्रत्युत्तर देकर भार्गव साहब रुके नहीं। अपने टहलने की स्पीड बढ़ा कर उससे आगे निकल गये। अंतरा जो पूछना चाह रही थी वो नहीं पूछ पाई।
      भ्रमण से लौटते वक्त भी उसे युगल किराएदारों के बारे में जानकारी देने वाला कोई न मिला। तभी तेजी से एक मोटर साइकिल गुज़री जिस पर वे दोनों ही बैठे थे। उनका यूँ पास-पास बैठना अंतरा को अजीब लगा, ‘‘ऐसी कैसी मित्रता?’’
      पड़ोसी होने के नाते दिन में कई बार दिख जाते। उनके प्रति अंतरा की उत्सुकता चरम पर थी। वो दोनों के बारे में तरह-तरह के कयास लगा कर मन ही मन कहानी गढ़ती रहती। कभी सोचती भाग के आए होंगे। प्रेमी जोड़ी लगती है। कभी सोचती ‘लिव इन रिलेशन’ में होंगे।
      अंतरा को दूसरे के फटे में टाँग न अड़ाने की हिदायत पहले भी पति और बेटी ने दी थी। इसलिए आज हँसते हुए बोल ही दिया। ’’पापा! लगता है मॉम को कुछ पेट संबंधी परेशानी फिर हो गई है।’’
      सब्ज़ी काटते हुए अंतरा चिढ़ गई, ‘‘क्यों क्या हुआ मुझे?’’ 
      ‘‘भार्गव के घर नये किराएदार की बड़ी ताँक-झाँक करतीं रहतीं हैं आप।’’ अंतरा हड़बड़ा गई।
      ‘‘बैठो यहाँ मेरी माँ।’’ बेटी ने माँ को पास बैठा लिया।
      ‘‘वो मेरे कॉलेज में ही पढ़ने आए हैं। उत्तराखंड की बाढ़ में पेरेंटस को खो बैठे थे। हादसे से अब तक उबरे नहीं हैं। देहरादून के हैं। बहन बड़ी है। कॉलेज में भी चर्चित हैं दोनों। अब तुम शान्ति रखना।’’ कहती हुई बेटी लेपटॉप लेकर बैठ गई, पति ऑफ़िस  की किसी मीटिंग की चर्चा में गुप्ता को निर्देश देते हुए फ़ाइल उलटने लगे।
      अंतरा की आँखों से प्याज़ काटते हुए आँसुओं की जलधार बह निकली थी...। भार्गव के किराएदार बहन-भाई की दर्द भरी दास्तान सुनकर या उनके बारे में अपनी ओछी सोच रखने पर। 


  • एस-1/303, लाइफस्टाइल होम्स, होम्स एवेन्यू, वाटिका इण्डिया नेक्स्ट, सेक्टर 83, गुड़गाँव -122004, हरि./मोबा. 09414296536

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।। कथा प्रवाह ।।


मनीषा सक्सेना







वंचित
      नानी माँ की तेरहवीं पर आखिरकार मैं पहुँच ही गई। आँगन में सफ़ेद पंडाल लगा है, कुर्सियों पर सफ़ेद कवर चढ़े हैं। बड़े मामा साजसज्जा का पूरा ध्यान रख रहे हैं।
      ‘‘सफ़ेद गुलदाउदी की मालाएँ, फोटो के पीछे परदे पर लगाओ!’’
      ‘‘लोबान की धूपबत्ती पूजा में रखो और फोटो के सामने चन्दन की अगरबत्तियाँ लगेंगी।’’
      ‘‘बड़े भैया, अम्माँ की पसंद का सारा खाना बनवाया है, तीन तरह के अचार, मीठी सौंठ, मीठे में हलुए के साथ-साथ आमरस भी बनवाया है। फिर भी लगता है जैसे अभी अम्माँ बोल पड़ेंगी, छोटे ये और कर लेता। ...अम्माँ बहुत कायदे से सारा काम करती थीं।’’ 
      ‘‘हाँ छोटे, तू तो पूरा अम्माँ के ऊपर गया है; तभी तो तेरा नाम अम्माँ ने इंतजामअली रखा था।’’ मेरे ऊपर मामा की दृष्टि पड़ी तो लपक कर मेरे पास आये- ‘‘अरी बिट्टो, अच्छा हुआ तू आ गयी। आखिरी साँस तक तेरे ही नाम की माला जप रहीं थीं, मालती जीजी तो रहीं नहीं, बस तुझे ही बुलाने की जिद कर रहीं थीं। बार-बार कहती थीं कि एक वही तो मुझे समझे है। अब इतनी जल्दी भी तुम आ नहीं सकती थीं, पिछले हफ्ते ही तो मिलकर गयी थीं।’’ 
      ‘‘हाँ, मामाजी!’’ मैंने निःश्वास छोड़ी।
      अन्दर पहुँची तो छोटे-बड़े सफ़ेद मोतियों की माला मामियाँ व मौसियाँ मिलकर बना रहीं थीं, साथ में बातचीत भी जारी थी। ‘‘अम्माँ को मोती इतने पसंद थे कि हर रंग की साडी के साथ वे मोती का सेट पहनती थीं। जीजी, इसीलिए हमने सोचा है कि अम्मा की फोटो पर चन्दन की बजाय मोती की माला पहनाएंगे।’’ 
      अम्मा इतनी सफाईपसंद थी कि हर काम के लिए अलग तौलिया अथवा झाड़न रखती थी, हाथ के लिए अलग, पैर पोंछने के अलग, मुँह पोंछने के लिए अलग टॉवल होता था। कुछ झक्की भी हो गयी थीं।’’ 
      ‘‘जीजी आप झूठ मानेगी पर जब नर्स नहला कर जाती थी तो एक बार में वाशिंग मशीन में सिर्फ उनके ही कपड़े धुलते थे।’’ ‘‘कुछ भी कहो अम्माँ ने अपना बुढापा बेटे-बहुओं, नाती-पोतों की सेवा लेते हुए चैन से काट लिया।’’
      हमेशा खुश रहने वाली नानी के मुख पर उदासी क्यों रहती थी? पिछली बार जब मैं यहाँ आई थी तब मैंने उनसे पूछा भी था। नानी बोली थीं, ‘‘बिट्टो काम तो मेरे सब हो रहे हैं, खाना, पीना, ओढना, बिछाना सब घड़ी की मुताबिक़ चल रहा है पर मेरे पास बैठने के लिए किसी के पास समय नहीं है। अपने मन की बात मैं किसी से नहीं कर सकती। कभी-कभी मन इतना उदास हो जाता है कि फोन पर भी बात करने की इच्छा नहीं होती। लगता है मैं सबके लिए बोझ हो गई हूँ। काम सब हो रहे हैं और समय पर हो रहे हैं पर रोबोट की तरह सब आते हैं, जाते हैं। इतने भरे-पूरे परिवार के होते हुए भी लगता है मैं अकेली हूँ, बिट्टा,े इन सबको मैं कैसे समझाऊँ कि शरीर की टूटन से आदमी इतना नहीं टूटता है जितना उपेक्षित रहकर टूटने लगता है।’’
      मुझे लगा अभी नानी फोटो में से बोल उठेंगी, ‘‘मेरी जितनी भी अपेक्षाएँ हैं खाने-पीने की, सलीके से जीवन व्यतीत करने की, ढँग से रहने की, ये सब इसलिये हैं ताकि मैं तुम सबसे बातचीत कर सकूँ, अपने मन की बात कह सकूँ।’’
  • जी-17, बेल्वेडीयर प्रेस कम्पाउंड, मोतीलाल नेहरु रोड, इलाहाबाद-211002, उ.प्र.

अविराम विस्तारित

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।।हाइकु।।


उषा अग्रवाल ‘पारस’

हाइकु



01.
बात जरा सी
पानी-पानी हुआ है
आँख में जो था।

02.
पिया बसंती
रुत पतझर की
हरी है प्रीति।

03.
प्यारी सूरत
उससे भी सुंदर
तेरी सीरत।

04.
हाथ जो टूटा
परखे रिश्ते नाते
छायाचित्र : उमेश महादोषी 

मोह ही छूटा।

05.
बिटिया मेरी
है बिल्कुल मुझसी
और मैं माँ सी।

06.
टूटते हुये
फौलादी बन गये
पिघले जो थे।


  • 201, सांई रिजेन्सी, रविनगर चौक, अमरावती रोड, नागपुर-440033, महा./मो. 09028978535

लघुकथा विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




।।लघुकथा विमर्श।।

{इस ब्लॉग के जुलाई-अगस्त 2017 अंक तक लघुकथा सम्बंधी आलेख एवं साक्षात्कार ‘अविराम विमर्श’ स्तम्भ में प्रकाशित किए जाते रहे हैं। इस अंक से लघुकथा विमर्श सम्बंधी समस्त सामग्री इस नए स्तम्भ ‘लघुकथा विमर्श’ स्तम्भ में ही जाएगी। कृपया पूर्व में प्रकाशित लघुकथा विमर्श की खोज ‘अविराम विमर्श’ स्तम्भ में ही करें।} 



डॉ. बलराम अग्रवाल




लघुकथा में नेपथ्य
{‘लघुकथा में नेपथ्य’ के मुद्दे को उठाने वाला यह लघु आलेख बलराम अग्रवाल जी ने 1991 में लिखा था और ‘पड़ाव और पड़ताल खण्ड-17’ में संकलित है। ‘नेपथ्य’ की भूमिका लघुकथा सृजन में बेहद महत्वपूर्ण होती है, लेकिन लघुकथा समालोचना में इसे अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया। हमें लगता है इस पर कई कोंणों से चर्चा हो सकती है और लघुकथा समालोचना का एक विशिष्ट आधार बन सकता है ‘नेपथ्य’। नए लघुकथाकार ‘नेपथ्य’ को सही सन्दर्भ में समझकर उसके उपयोग के बारे में जागरूक बनें, इसी उद्देश्य से यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है।}

      लघुकथा, कहानी और उपन्यास की प्रकृति और चरित्र में इनके नेपथ्य के कारण भी आकारगत अन्तर आता है। उपन्यासकार स्थितियों-परिस्थितियों और घटनाओं को यथासम्भव विस्तार देता है तथा पाठक के समक्ष पात्रों की मनःस्थिति, चरित्र, परिस्थितियाँ, गतिविधियाँ एवं तज्जनित परिणाम तक का ब्यौरा देने को उत्सुक रहता है; इस तरह उपन्यास अत्यल्प या कहें कि नगण्य नेपथ्य वाली कथा-रचना है। कहानीकार जीवन के विस्तृत पक्ष को रचना का आधार नहीं बनाता। इसके अतिरिक्त, जीवनखण्ड से जुड़ी अनेक घटनाओं को विस्तार से लिखने की बजाय उनको वह आभासित करा देना ही यथेष्ट समझता है, क्योंकि गति की दृष्टि से उपन्यास की तुलना में कहानी को एक त्वरित रचना होना चाहिए। अतः उपन्यास की तुलना में कहानी का नेपथ्य कुछ अधिक गहरा और विस्तृत हो सकता है। बावजूद इसके, कहानी का नेपथ्य उपन्यास की प्रकृति और चरित्र से को-रिलेटेड और को-लिंक्ड रहता है, अतः कहानी ने सहज ही उपन्यास जैसी पूर्णता का आभास अपने पाठक को दिया और प्रतिष्ठित उपन्यासकारों व जड़-आलोचकों के घोर विरोध के बावजूद व्यापक जनसमूह के बीच अपनी जगह बना ली। लघुकथा आकार की दृष्टि से क्योंकि कहानी की तुलना में अपेक्षाकृत बहुत छोटी कथा-रचना है, अतः जाहिर है कि उसका नेपथ्य कहानी की तुलना में बहुत अधिक विस्तृत और गहरा होगा; लेकिन उसे कहानी के नेपथ्य से उसी प्रकार को-रिलेटेड और को-लिंक्ड रहना चाहिए जिस प्रकार कहानी का नेपथ्य उपन्यास के नेपथ्य के साथ रहता आया है। लघुकथा-लेखक इस तथ्य से अक्सर ही अनभिज्ञ और लापरवाह रहे हैं। उन्होंने अधिकांशतः ऐसी रचनाएँ लघुकथा के नाम पर लिखी हैं जिनमें प्रस्तुत रचना तथा उसके नेपथ्य में एक और सौ का अनुपात नजर आता है जो किसी भी रचना के लिए स्वस्थ स्थिति नहीं है। कोई भी पाठक किसी रचना के अन्धकूप सरीखे नेपथ्य में भला क्यों उतरना चाहेगा? इसी के समानान्तर एक सोच यह भी है कि लेखक पाठक-विशेष या रचना-विधा के सिद्धान्त-विशेष को ध्यान में रखकर रचना क्यों करे? अपने आप को अभिव्यक्ति के धरातल पर उन्मुक्त क्यों न रखे? वस्तुतः ‘अभिव्यक्ति के धरातल पर उन्मुक्त’ रहने का अर्थ उच्छृंखल अथवा अनुशासनहीन हो जाना नहीं माना जाना चाहिए। इंटरनेट के माध्यम से 5 शब्दों से लेकर 500 या ज्यादा शब्दों तक की ‘Flash Story’ लिखना सिखाने वाली व्यावसायिक साइटें कथा-विधा का भला कर रही हैं, कथा-लेखकों का भला कर रही हैं या स्वयं अपना- यह तो समय ही तय करेगा; फिलहाल यहाँ हिन्दी की कुछ कौंध-कथाएँ यानी 'Flash Story' साभार प्रस्तुत हैं-
एक
      राजपथ से गुजरती हुई सैनिक टुकड़ी क्विक मार्च करते हुए गा रही थी- हम सब एक हैं। फुटपाथ पर खड़े पुलिस के अफसर, सेठ रामलाल और प्रसिद्ध जुआरी गोवर्द्धन एक दूसरे की आँखों में हँसते हुए न जाने क्यों गाने लगे- हम सब एक हैं।
दो
      शेर गुर्राया, हिरण को खूँखार दृष्टि से देखा और फिर हिरण को कुछ किए बगैर गुफा के अँधेरे में चला गया। दोनों एक ही कश्ती के सवार थे।...
      बाहर आदमी घात लगाए बैठा था।
      इनके साथ ही मैं Wits अर्थात विलक्षण-वाक्यकथा की ओर भी लेखकों/पाठकों और संपादकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। इन्होंने भी लघुकथा में हो रहे गंभीर प्रयासों को काफी धक्का पहुँचाया है। हिन्दी में लघुकथा के नाम पर प्रचलित Wits के कुछ नमूने निम्न प्रकार हैं-
एक
      इंपाला’ की पिछली सीट पर बैठे अल्सेशियन को देखकर अंगभंग भिखारी बच्चों ने ठंडी साँस लेकर कहा, “काश! हम भी ऐसे होते!”
दो
      डीयर ‘इतिहास’, तुम्हारे अध्याय अब कलमें नहीं, मैं लिखूँगी...
      मैं हूँ ‘बन्दूक’
तीन
      मैंने जब भी डुबकी लगानी चाही, सारा मानसरोवर चुल्लू हो गया!
चार
      सामान्य-ज्ञान की परीक्षा में एक परिक्षार्थी एक सरल से प्रश्न पर अटक गया। प्रश्न था-’भारत का प्रधानमन्त्री कौन है?’ उत्तर परीक्षार्थी को पता था, इस पर भी वह परेशान था। अन्ततः उसने लिख ही दिया, पर उसमें एक वाक्य और बढ़ा दिया। उसने लिखा- आज भारत के प्रधानमन्त्री श्री... हैं, परचा जाँचते समय कौन होगा, मालूम नहीं।
      इन विलक्षण-वाक्यकथाओं के लेखकों की हिन्दी-लघुकथा के क्षेत्र में लम्बी कतार है; और इन सब की प्रेरणा के मूल में सम्भवतः सुप्रसिद्ध कथाकार रमेश बतरा की बहुचर्चित लघुकथा ‘कहूँ कहानी’ रही है, जो निम्न प्रकार है-
      ए रफीक भाई! सुनो...उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात मैं घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही, ”एक लाजा है, वो बो......त गलीब है।’’
      यहाँ हमारा हेतु क्योंकि लघुकथा की रचनात्मक प्रकृति और चारित्रिक तीक्ष्णता तथा उसके सही स्वरूप एवं स्तर को रेखांकित करना भर है, अतः ‘कौंधकथा’ और विलक्षण-वाक्यकथा समझी जाने वाली ऊपर उद्धृत हिन्दी रचनाओं के साथ उनके लेखक और संदर्भित पत्र-पत्रिका, संग्रह-संकलन अथवा संपादक के नाम आदि का उल्लेख नहीं किया गया है। यह ठीक है कि कोई अकेला आदमी लघुकथा का नियन्ता नहीं हैं, और यह भी कि किसी भी दृष्टि से हमारे द्वारा हेय तथा त्याज्य समझी जाने वाली, लघुकथा शीर्ष तले छपने वाली Flash Story व Wits अन्य आलोचकों-समीक्षकों अथवा संपादकों को प्रभावशाली महसूस हो सकती हैं; तथा हमारे द्वारा स्वीकार्य रचनाएँ त्याज्य। इस बारे में विवाद की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी, परन्तु लघुकथा को ‘कौंधकथा’ और ‘विलक्षण-वाक्यकथा’ से अलग रखना ही होगा।
      मैं पुनः नेपथ्य बिंदु पर आना चाहूँगा। वस्तुतः नेपथ्य वह वातायन है जिसे लेखक अपनी रचना में तैयार करता है और पाठक को विवश करता है कि वह उसमें झाँके तथा रचना के भीतर के व्यापक और गहरे संसार को जाने। कई बार मुख्य-कथा के एक या अनेक पात्र भी लघुकथा के नेपथ्य में रहते हैं। लघुकथा में उनका सिर्फ आभास मिलता है, वे स्वयं उसमें साकार नहीं होते। दरअसल, घटनाओं और स्थितियों का यह प्रस्फुटन लघुकथा के नेपथ्य में उतरे उसके पाठक के मन-मस्तिष्क में होने वाली निरन्तर प्रक्रिया है। अगर कोई रचना, जो इस प्रक्रिया को जन्म देने में अक्षम है, वह निःसंदेह अच्छी रचना नहीं हो सकती। अपने इसी गुण के कारण लघुकथा गंभीर प्रकृति के पाठक को जिज्ञासु बनाए रखने में सफल रह सकी है। इसी बात को मैं यों भी कहना चाहूँगा कि अपने समापन के साथ ही जो लघुकथा पाठक के भीतर विचार की एक श्रृंखला जाग्रत कर देने की क्षमता रखती है, वह एक सफल लघुकथा है।
      लघुकथा में नेपथ्य की उपस्थिति को जानने के बाद यह अवधारणा पूर्णतः निर्मूल सिद्ध हो जाती है कि कोई कथाकार लघुकथा लिखता है क्योंकि वह कथा को कहानी जितना विस्तार दे पाने में अक्षम है। सही बात यह है कि लघुकथाकार कथा के मात्र संदर्भित बिंदुओं पर कलम चलाता है और शेष को नेपथ्य में बनाए रखता है। यही उसका कथा-कौशल है और यही लघुकथा की प्रभावकारी क्षमता।
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