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रविवार, 12 नवंबर 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




।। कथा प्रवाह ।।


हरनाम शर्मा



अब नाहीं
      ‘‘भगवान् कसम, मनैं नेम है साहब, इब मैं यो काम कतई नीं करता। कुछ नीं करता। बस कपड़ों पै प्रैस करके गुजारा करूँ।’’
      ‘‘....’’ नए दरोगा की आँखें संवादहीन न थीं।
      ‘‘माई-बाप, कदी वर्दी प्रैस करवानी हो तो लेता आऊँगा, बस यो ही काम आ सकूँ इब तो मैं।’’
      ‘‘हरामजादे, झूठ तुम्हारे खून में समाया रहेगा जन्मभर। तेरा रिकार्ड बोल रहा है, साले तू अफीम, चरस, गाँजा सारी चीजें बेचता है। मुझे आज इस थाने में पन्दरवाँ दिन हो गया, एक बार भी नहीं आया।
      ‘‘साहब, धन्धा छोड़ दिया तो के करूँ आ कै? जब कमाई थी तो थाने की चौथ न्यारी सबसे पहले जावै थी, आपैई। थाने नै मेरे से कोई शिकायत नीं थी। इब बताओ...’’
      ‘‘हाँ, हाँ, बताऊँगा। भूतनी के, अपना धन्धा छोड़कर हमारा धन्धा चौपट करवा दो। जरा बताइयो, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है? तेरा धन्धा तब ही बन्द हुआ, जब मैं इस थाने में आया। साले, तुम लातों के भूत बातों से नहीं मानते। एकाध बार कचैहरी के चक्कर कटवा दूँगा तो सारा धन्धा खूब चल पड़ेगा? बोल ससुरे...।’’
      ‘‘के करूँ साहब बात यो नहीं है।’’
      ‘‘और क्या है? कल से कोई बात नहीं सुनूँगा। चौथ थाने पहुँच जानी चाहिए हफ्ते बाद, समझे, धन्धा चालू करो या मरो।’’
      ‘‘साहब साठ से ऊपर हो गया, पोरस थक गे, अब नहीं होगा।’’
      ‘‘अरे ससुरे बूढ़े, भोतई कर्मठोक है तू तो। अरे भई, तेरी कोई औलाद तो होगी?’’
      ‘‘जी, छोरी थी, ब्याह दी।’’
      ‘‘और घरवाली?’’ बुढ़िया को इंगित कर नए साहब ने पूछा।
      ‘‘ना जी, यो तो निरी गऊ है जी। इसने कदी भी मेरे धन्धे में साथ नहीं दिया।’’
      ‘‘बस, देख लो, मैं और ‘ना’ नहीं सुनना चाहता, हमें भी आखिर कुछ चाहिए पिछले कागजातों का पेटा भरने के लिए। कुछ धन्धा करो, म्हारा भी कुछ हो। समझे!’’ आँखें तरेरकर नया दरोगा गुर्राया। बूढ़े के इनकार करने से पूर्व डण्डा तन चुका था, मगर जर्जर हाथों ने उस डण्डे को हवा में ही थाम लिया।

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