अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 4, अंक : 03-04, नवम्बर-दिसम्बर 2014
सामग्री : इस अंक में स्व. सुरेश यादव, संदीप राशिनकर, अनुप्रिया, जगन्नाथ ‘विश्व’, आकांक्षा यादव , मोहन भारतीय, श्याम झँवर ‘श्याम’ व कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ की काव्य रचानाएं।
सुरेश यादव
{02 दिसम्बर 2014 की सुबह आगरा एक्सप्रैस वे पर मथुरा के निकट एक भयंकर दुर्घटना में प्रतिष्ठित कवि श्री सुरेश यादव असमय ही अनन्त यात्रा पर चले गए। उनके परिवार के साथ तमाम मित्रों और साहित्य जगत के लिए यह एक असहनीय दुःख की घड़ी थी। इस दुर्घटना में उनके परिवार के एक अबोध बच्चे का भी निधन हो गया। उनकी पत्नी और भतीजी घायल हो गए। संभवतः दिसंबर की आखिरी तारीख को उन्हें दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के उपायुक्त पद से सेवानिवृत होना था। सुरेश जी बेहद संवेदनशील और सरल व्यक्ति थे। सभी मित्रों से बेहद स्नेह भाव रखते थे। जरूरतमंदों की मदद में वह हमेशा आगे रहते थे। एक बड़े कवि और बड़े पद का अहम् कभी उन्हें छू भी नहीं पाया। उनके संभवतः तीन कविता संग्रह ‘उगते अंकुर’, ‘दिन अभी डूबा नहीं’ एवं ‘चिमनी पर टंगा चांद’ प्रकाशित हुए हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने समाज के यर्थाथ को संवेदना के आइने के सामने खड़ा करने का प्रयास किया। बिडम्बना और उनकी चिन्ताओं का यह कैसा विचित्र योग रहा कि जैसे हादसे का वह शिकार हुए, उनके ब्लॉग ‘सुरेश यादव सृजन’ पर 16 दिसंबर 2013 की उनकी जो आखिरी पोस्ट लगी दिखाई दे रही है, उसकी पहली कविता में ऐसे ही हादसों के प्रति उनकी चिंता और संवेदना भी मुखरित है। उनकी इसी और कुछ अन्य रचनाओं की प्रस्तुति के साथ हम सुरेश जी को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।}
चार कविताएँ
अख़बार की सुबह
अखबारों में
हर सुबह, लिपट कर आते हैं
हादसे
खुल जाते हैं
|
रेखा चित्र : अनुप्रिया |
चाय की मेज़ पर
फ़ैल जाते डरावनी तस्वीरों में
घर के कोने-कोने
हर सुबह !
अक्षर-अक्षर
नाखून से उभरते हैं
सुबह की आँखों में
ख़ींच देते हैं
खून की लकीरें
आँखों में बहुत गहरी
हर सुबह!
यह शहर किसका है
नंगे पाँव
भटकने को मजबूर
ये बच्चे भी
इसी शहर के हैं
और
जलती सिगरेटें
रास्तों पर फेंकने के आदी
|
रेखा चित्र : संदीप राशिनकर |
ये लोग भी
इसी शहर के हैं
ये शहर किसका है?
जब-जब मेरा मन पूछता है
जलती सिगरेट पर पड़ता है
किसी का नन्हा पांव
और
एक बच्चा चीखता है!
माँ कभी नहीं मरती
माँ उठती है- मुंह अंधेरे
इस घर की तब-
‘सुबह’ उठती है
माँ जब कभी थकती है
इस घर की
शाम ढलती है
पीस कर खुद को
हाथ की चक्की में
आटा बटोरती
हँस-हँस कर- माँ
हमने देखा है
जोर जोर से चलाती है मथानी
खुद को मथती है- माँ
और
माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
सवालों को सुलझा लेती है
माखन की तरह
उतार लेती है- घर भर के लिए
माँ- मरने के बाद भी
कभी नहीं मरती है
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
पूजा की थाली का घी
कभी वह
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
घर के आँगन में
हर सुबह
हरसिंगार के फूलों-सी झरती है
माँ कभी नहीं मरती है।
महायुद्ध
खाकर कोई केला
|
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
फेंकता है छिलका
और
कोई निरपराध
बीच सड़क पर गिरता है
दूर खड़ा कोई जब
जोर-जोर से हँसता है
महायुद्ध
धीरे-धीरे इसी तरह रचता है
फिर कोई
बरसों तक नहीं हँसता है।
____________________________________
संदीप राशिनकर
{सुप्रसिद्ध चित्रकार और कवि श्री संदीप राशिनकर जी का वर्ष 2013 में प्रकाशित रेखांकनबद्ध कविता संग्रह ‘केनवास पर शब्द’ हमें हाल ही में पढ़ने का अवसर मिला। राशिनकर जी ने इस संग्रह में रेखाओं और शब्दों दोनों के माध्यम से एक साथ भावचित्रों को उकेरा है केनवास पर। इस तरह उन्होंने चित्रांकन/रेखांकन कला और कविता के बीच अन्तर्सम्बंधों का एक खूबसूरत उदाहरण प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत हैं यहां उनके संग्रह से कुछ कविताएं सम्बन्धित रेखांकनों के साथ।}
कुछ कविताएँ
धरती और बादल
सच है
धरती से बिछुड़कर
बादल
रोया था, बहुत रोया था!
और
|
रेखांकन : संदीप राशिनकर |
अब भी
जब-जब
अतीत
आत्मीय संबंधों का
ले आता है
बादल की आँखों में आँसू
और कर जाता है भारी
मन के बादल के!
बादल,
झुक जाता है
दूर तक, बड़ी दूर तक
नीचे
धरती की ओर!
धरती
चाहे, अनचाहे
उठ नहीं पाती
बांधे पैरों में
नियति की बेड़ियाँ
और फिर
आज भी
रो पड़ता है
बादल, विवश बादल
भिगोते हुए
आँचल को
धरती के!!
कैसे मान लूं
ना
चिड़िया ने
छोड़ा है चहकना
ना बंद किया है
अपने नन्हें परों से
|
रेखांकन : संदीप राशिनकर |
नापना आकाश
प्रकाश भी
तमाम घटाटोपों
घुप्प अंधेरों में भी
चमक ही पड़ता है
बनकर जुगुनू!
नदी भी
तमाम बंदिशों
तमाम बाँधों के बावजूद
ढूंढ़ ही लेती है राह
और गति को अपने
देती है प्रवाह!
विध्वंस के
इस विपरीत और भयावह
समय में भी
नहीं रुका है
सुष्टि का
प्रकृति का सृजन
तो बंधु
तुम ही कहो
मैं,
कैसे; कैसे कर दूं
आत्म समर्पण
औ
कैसे; कैसे मान लूं मैं हार?
आबोहवा
पहले
मिलते थे/रुकते थे
अभिवादन करते थे
घंटों बतियाते थे
आबोहवा
|
रेखांकन : संदीप राशिनकर |
के बारे में
अब मिलते हैं
पर रुकते नहीं
सोचते हैं
रुकेंगे, मिलेंगे
क्या बात करेंगे?
पता नहीं
इन दिनों क्या हुआ है
न बची है
आब
न बह रही हवा है।
ग़ज़ल
यारो अब कुछ ऐसा कर दो
चेहरों को खुश्बू से भर दो।
सिलसिला कब तक खामोशी का
अब अपने साजों को स्वर दो।
चाँद से कब तक बात करें हम
|
रेखांकन : संदीप राशिनकर |
अब तो सुनहरी एक सहर दो
कैसे हैं उस देश के वासी
ठंडी हवाओं को कुछ तो खबर दो।
हँसते गाते जिसपे चलें हम
उन्मुक्त ऐसी रहगुज़र दो।
- 11-बी, राजेन्द्रनगर, इन्दौर-452012, म.प्र. / मोबाइल : 09425314422
____________________________________
अनुप्रिया
दो कविताएँ
हम-तुम
तुम्हारे गुस्से और मेरी जिदों
के बीच
फंसे थे हम-तुम
....
नाराजगी और शिकायतों में
उलझ कर रह गए थे
हम-तुम
....
भूल गए थे
बेमतलब बेवजह
मुस्कुराना
हम-तुम
....
अपनी-अपनी डायरी में
|
रेखांकन : अनुप्रिया |
लिखे हमने
शिकवे और अफ़सोस भी
....
समय के पन्नों पर
हर रोज नए झगडे लिखे हमने
अपने हस्ताक्षरों के संग
....
शब्दों के बर्फ गिरते रहे
हमारे रिश्ते पर
लगातार
....
अपनी-अपनी
किताबों के बीच
छुपा कर रख लिए हमने
पुरानी यादों के पीले पत्ते
....
बालों में खोंसा हुआ एक उदास सपना
समय से पहले ही
झुकने लगी है तुम्हारी पीठ
उग आई है उम्र
तुम्हारे चेहरे पर
मकड़ियों के जाले सी
तुम्हारे बालों में
खोंसा हुआ है
एक उदास सा सपना
मुँह लटकाए
तुम्हारे थके हुए कन्धों पर
|
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
लिख दिया है किसी बच्चे ने
अपनी पेंसिल से कुछ
यूँ ही
तुम्हारी आँखों में जो कुछ पढ़ा था मैंने
बरसों पहले
वो यह तो कतई नहीं था
कतई नहीं था यह .....
- श्री चैतन्य योग, गली नंबर-27, फ्लैट नंबर-817, चौथी मंजिल, डी डी ए फ्लैट्स, मदनगीर, नयी दिल्ली-110062 / मोबाइल : 09871973888
____________________________________
जगन्नाथ ‘विश्व’
डोली खड़ी तोरे द्वार
प्रिय साजन संग लाया सुख का संसार।
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।
बचपन की सारी सहेलियां मुंहबोली,
जिनके संग खेली तू हिरनी सी भोली,
सुध बुध भूली सब कर सोलह सिंगार
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।
माँ की ममता ने सहलाई घुंघराली अलकें,
आशीष लिये भीग गई बाबुल की पलकें,
मत बिसराना नैहर का लाड़ दुलार,
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।
गोरी बहियाँ से बरजोरी कंगन करेगा,
नयन इन्द्रधनुष निहारते दर्पण हँसेगा,
पूर्ण होगी अभिलाषा मनचाही अपार,
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।
अल्पना सजी मेंहदी हाथों में राती,
|
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी |
कल्पना ने गीत रचे गा उठे बराती,
सेहरा बाँध सैयां लगे शोभित सवार,
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।
विदा आँसू का रुकता न पगला आवेश,
जा लाड़ली सुखी रहना साजन के देश
मात-पिता, सास ससुर, पति ईश्वर स्वीकार
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।
दीपक मर्यादामय मन संजोना लजवंती,
घर की शोभा सूरज सी रखना कुलवंती,
रहे आजीवन गुंजित चिर मंगलाचार
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।
- मनोबल, 25, एम.आई.जी., हनुमान नगर, नागदा जं-456335 (म.प्र.) / मोबाइल : 09425986386
____________________________________
आकांक्षा यादव
हमारी बेटियॉँ
हमारी बेटियॉँ
घर को सहेजती-समेटती
एक-एक चीज का हिसाब रखतीं
मम्मी की दवा तो
पापा का ऑफिस
भैया का स्कूल
और न जाने क्या-क्या।
इन सबके बीच तलाशती
हैं अपना भी वजूद
बिखेरती हैं अपनी खुशबू
चाहरदीवारियों से पार भी
|
छाया चित्र : अभिशक्ति |
पराये घर जाकर
बना लेती हैं उसे भी अपना
बिखेरती है खुशियाँ
किलकारियों की गूँज की ।
हमारी बेटियॉँ
सिर्फ बेटियॉँ नहीं होतीं
वो घर की लक्ष्मी
और आँगन की तुलसी हैं
मायके में आँचल का फूल
तो ससुराल में वटवृक्ष होती हैं
हमारी बेटियॉँ।
- टाइप 5, निदेशक बंगला, जी.पी.ओ. कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद (उ.प्र.) - 211001
____________________________________
मोहन भारतीय
पहली किरण तुम्हें दे दूँगा
मैंने सारे अँधियारे को पीने का संकल्प लिया है
मुझको यदि मिल गई सुबह तो पहली किरण तुम्हें दे दूँगा
मैं उन सबके लिये लडूँगा
जिनको नहीं मिला उजियारा
तूफानों से जीत गये पर
तट ने जिन्हें नहीं स्वीकारा
मैंने जीवन भर पतझर से पग-पग पर विद्रोह किया है
मुझको यदि मिल गई बहारें, सारा चमन तुम्हें दे दूँगा
|
रेखा चित्र : बी. मोहन नेगी |
मेरे युग के लक्ष्मण को
अब बहकाना आसान नहीं है
मेरे अदर्शों के आगे
अब कोई बलवान नहीं है
मैंने जग के हर रावण से लड़ने का संकल्प लिया है
जीत गया तो, एक नई मैं तुझको रामायण दे दूँगा
मैंने कभी किसी से कुछ भी
अपने लिये नहीं मांगा है
मैंने अभिमन्यु बनकर के
दुखों का सागर लाँघा है
मैंने दुखों के कौरव से आजीवन संघर्ष किया है
मैं यदि सफल हुआ तो अपने बढ़ते चरण तुम्हें दे दूँगा
- प्लाट-17, सड़क-5ए, मैत्री नगर, रिसाली क्षेत्र, भिलाई-490006, छ.गढ / मोबाइल : 09685316191
____________________________________
श्याम झँवर ‘श्याम’
चप्पा-चप्पा, काग बहुत हैं....
निर्धन को संताप बहुत हैं
पर-निंदा को जाप बहुत हैं
सत्य यहाँ पर हारा क्यों है
झूठों की पदचाप बहुत है
झंझावात बहुत आये हैं
जीवन, जलती आग बहुत है
|
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी |
कहाँ गई हैं सारी खुशियाँ
मन पर दुःख की छाप बहुत हैं
पुण्यों की पदचाप खो गई
पापों के ‘षटराग’ बहुत हैं
सद्भावों के हंस नहीं अब
चप्पा-चप्पा, काग बहुत हैं
सदा लड़ाई जारी रखना
जीवन में अभिशाप बहुत हैं
- 581, सेक्टर 14/2 विकास नगर, नीमच-458441 (म.प्र.) / मोबाइल : 09407423981
____________________________________
कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’
ग़ज़ल
कभी बरबाद कर बैठे, कभी आबाद कर बैठे
ज़रा से होश में आए, तुम्हें फिर याद कर बैठे
हमें मारा कहाँ खंजर से, बस नज़रों से है मारा
सुनेगा कौन कहाँ अब मेरी, किसे फरियाद कर बैठे
जो दिन भर चाँद बनके, चाँदनी देते रहे मुझको
मुहब्बत तेरी खुशबू छोड़ खुद बरबाद कर बैठे
बना मेहमान रक्खा है, तुझे इस दिल के दर्पन में
|
रेखा चित्र : रजनी साहू |
मिली जब-जब भी फुर्सत, साथ तो संवाद कर बैठे
शुरू से अन्त तक कहते रहे, दुनियाँ में क्या रक्खा
इसी दुनियाँ में अपनी जिन्दगी आबाद कर बैठे
अभी तक जिसको मैंने अपनी आँखों से नहीं देखा
वो सूरत अजब और अचूक होगी याद कर बैठे
- 38-ए, विजयनगर, करतारपुरा, जयपुर-302006, राज. / मोबाइल : 09983811506