अविराम का ब्लॉग : वर्ष :04, अंक : 03-04, नवम्बर-दिसम्बर 2014
।।संभावना।।
सामग्री : इस अंक में श्रद्धा पाण्डेय अपनी दो कविताओं के साथ।
श्रद्धा पाण्डेय
डिजीटल कम्युनीकेशन में एम.टेक. श्रद्धा पाण्डेय पिछले एक वर्ष से अधिक समय से कविताएं लिख रही है। उनके व्यक्तित्व में जीवनानुभवों से जुड़ी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की अच्छी संभावना निहित है। यहां प्रस्तुत हैं श्रद्धा की दो कविताएं।
दो कविताएं
उस मुकाम पर
जिंदगी उस मुकाम पर है
जहाँ ना अब मंजिलों की दरकार है
ना ही इच्छाओं का अम्बार है
ना चलने का मन रहा बाकी
ना ही किसी का इंतजार है
ना रैन बसेरा नीदों का
ना आँखांे को सपनों की दरकार है
ना अरमानों की डोली सजती
ना ही कहारों का इंतजार है
मेरे सपनों की उड़ान थम गई
पंख ना अब फैलने को तैयार हैं
छूट गई है कमान मेरी
अब ना निशाने पर निगाहंे यार है
मेरी नाव पर अब ना कोई सवार है
बढ़ रही दिशाहीन वो
शायद कहीं कुछ भिंदा आर-पार है
कहीं श्रंगार, कहीं सूनापन
कहीं धरती, कहीं आकाश
कुछ ध्ंास गया, कुछ फंस गया मुझमें
जिंदगी उस मुकाम पर है
जंहा अब वो तन्हा है, बेजार है
ये कैसा इंसान है!
ये कैसा युग है, ये कैसी चाल है
इंसान की खाल में
घूमता जानवर खुलेआम है
रोटी के लिए भटकता था
आज/भूख बढ़ाये
पिंजरे बनाता
ये कैसा बना इंसान है!
।।संभावना।।
सामग्री : इस अंक में श्रद्धा पाण्डेय अपनी दो कविताओं के साथ।
श्रद्धा पाण्डेय
डिजीटल कम्युनीकेशन में एम.टेक. श्रद्धा पाण्डेय पिछले एक वर्ष से अधिक समय से कविताएं लिख रही है। उनके व्यक्तित्व में जीवनानुभवों से जुड़ी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की अच्छी संभावना निहित है। यहां प्रस्तुत हैं श्रद्धा की दो कविताएं।
दो कविताएं
उस मुकाम पर
जिंदगी उस मुकाम पर है
जहाँ ना अब मंजिलों की दरकार है
ना ही इच्छाओं का अम्बार है
ना चलने का मन रहा बाकी
रेखा चित्र : अनुप्रिया |
ना ही किसी का इंतजार है
ना रैन बसेरा नीदों का
ना आँखांे को सपनों की दरकार है
ना अरमानों की डोली सजती
ना ही कहारों का इंतजार है
मेरे सपनों की उड़ान थम गई
पंख ना अब फैलने को तैयार हैं
छूट गई है कमान मेरी
अब ना निशाने पर निगाहंे यार है
मेरी नाव पर अब ना कोई सवार है
बढ़ रही दिशाहीन वो
शायद कहीं कुछ भिंदा आर-पार है
कहीं श्रंगार, कहीं सूनापन
कहीं धरती, कहीं आकाश
कुछ ध्ंास गया, कुछ फंस गया मुझमें
जिंदगी उस मुकाम पर है
जंहा अब वो तन्हा है, बेजार है
ये कैसा इंसान है!
ये कैसा युग है, ये कैसी चाल है
इंसान की खाल में
घूमता जानवर खुलेआम है
रोटी के लिए भटकता था
आज/भूख बढ़ाये
पिंजरे बनाता
ये कैसा बना इंसान है!
- द्वारा डॉ. सुरेश चन्द्र पाण्डेय, प्र.वैज्ञा., विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड।
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