आपका परिचय

रविवार, 30 सितंबर 2012

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : सितम्बर 2012

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 1, सितम्बर  2012 


प्रधान संपादिका :  मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09412842467)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


 ।।सामग्री।।

रेखांकन : के. रविन्द्र 





     कृपया सम्बंधित सामग्री के पृष्ठ पर जाने के लिए स्तम्भ के साथ कोष्ठक में दिए लिंक पर क्लिक करें ।


अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत:   इस अंक में डॉ. हरि जोशी, राम मेश्राम, प्रशान्त उपध्याय, शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’, डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’, सुरेन्द दीप, मीना गुप्ता, निर्मला अनिल सिंह  एवं अशोक भारती ‘देहलवी’ की काव्य  रचनाएं।

लघुकथाएं   {कथा प्रवाह} :   इस अंक में ‘भ्रूण हत्या’ पर डा. रामकुमार घोटड़ सम्पादित  लघुकथा संकलन ‘किसको पुकारूँ’ से सर्व श्री  माधव नागदा, रतन चन्द्र रत्नेश, डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’ व  डॉ. रामकुमार घोटड़  की तथा  सर्व श्री संतोष सुपेकर, डॉ. पूरन सिंह, डॉ0 रामशंकर चंचल एवं गोवर्धन यादव की अन्य  लघुकथाएं।

कहानी {कथा कहानी पिछले अंक तक अद्यतन

क्षणिकाएं  {क्षणिकाएँ  इस अंक में महावीर रंवाल्टा  की क्षणिकाएं। 


हाइकु व सम्बंधित विधाएं  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक  में  डॉ मिथिलेश दीक्षित’ के दो हाइकु नवगीत एवं हरिश्चंद्र के दस  हाइकु।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:   इस बार डॉ. ब्रह्मजीत गौतम  के जंक छंद। 

हमारे सरोकार  (सरोकार) :   पिछले अंक तक अद्यतन

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:   इस अंक में  विजय कुमार सत्पथी की व्यंग्य कथा- 'अटेंशन जिंदाबाद !!'

स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण पिछले अंक तक अद्यतन

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :   समकालीन लघुकथा  के सन्दर्भ में  प्रेमचंद की लघु कथा रचनाओं पर दो आलेख- 'प्रेमचंद बनाम समकालीन लघुकथा' / डॉ. अशोक भाटिया एवं 'कुछ रचनाएँ अच्छी लघुकथाएँ' / डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ
किताबें   {किताबें} :  इस अंक में डॉ अशोक पांडे 'गुलशन' द्वारा संतोष सुपेकर के काव्य संग्रह 'चेहरों के आर पार' की समीक्षा- 'चेहरों के आर पार : सामाजिक विसंगतियों का आइना'

लघु पत्रिकाएं   {लघु पत्रिकाएँ} :  इस  अंक में तीन  पत्रिकाओं  ‘अभिनव प्रयास’, 'शब्द प्रवाह'एवं 'कथा सागर'  पर उमेश महादोषी की  परिचयात्मक टिप्पणियां

हमारे युवा  {हमारे युवा} :   पिछले अंक तक अद्यतन

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} :  मुद्रित सस्करण के जुलाई-सितम्बर 2012 अंक तक अद्यतन

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के  सितम्बर 2012 के अंत तक बने आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूचना।

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : अविराम के चौवन  और रचनाकारों का परिचय।  



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  उमेश महादोषी
।।मेरा पन्ना।।

  • रचनाओं की प्रस्तुति की दृष्टि से अविराम के ब्लाग प्रारूप का पहला वर्ष पूरा हुआ, और हम इस अंक के साथ दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। अन्तर्जाल पर अविराम के ब्लॉग को यूं तो जुलाई 2012 माह में ही तैयार कर लिया गया था तथा मुद्रित अंको में प्रकाशित सामग्री की सूची भी ‘अविराम के अंक’ लेवल के अन्तर्गत पोस्ट कर दी गयी थी, परन्तु एक पूर्ण ब्लॉग पत्रिका के रूप में इसका पहला अंक सितम्बर 2011 माह में ही प्रकाशित किया जा सका था। दरअसल आरम्भ में इसके प्रकाशन के पीछे सीमित उद्देश्य था, जिसे अन्तर्जाल पर बढ़ रही साहित्यिक गतिविधियों  के परिप्रेक्ष्य, मुद्रित प्रारूप में स्थान की सीमित उपलब्धता व सीमित कवरेज एवं अधिकाधिक रचनाकार मित्रों से जुड़ने की भावना आदि कई कारण रहे, जिनके रहते इसे एक पूर्ण ब्लॉग पत्रिका के रूप में आगे बढ़ाने का निश्चय किया गया। मित्रों का सहयोग उत्साहबर्द्धक रहा। उम्मीद है आने वाले समय में यह प्रतिष्टित ब्लॉग पत्रिकाओं में शुमार हो सकेगी और हम अपने रचनाकार मित्रों की  रचनाओं को विश्व भर के हिन्दी भाषा के पाठकों से जोड़ पायेंगे। हम सभी मित्रों का, जिनके रचनात्मक सहयोग से ही हम आगे बढ़ पा रहे हैं, हृदय से आभार प्रकट करते हैं।
  •  इस अवसर पर वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चिंतक आदरणीय बलराम अग्रवाल जी का आभार प्रकट करना चाहूंगा, जिन्होंने समय-समय पर मार्गदर्शन तो किया ही, ब्लॉग बनाना एवं उसे विकसित करना भी मुझे सिखाया। इसके साथ ही वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का भी समान भावना से आभार प्रकट करता हूं, जिनका सहयोग एवं मार्गदर्शन भी समान रूप से उपयागी रहा है। इन दोनों अग्रजों के सहयोग के बिना अन्तर्जाल पर अविराम की ही नहीं, मेरी भी उपस्थिति शायद सम्भव नहीं हो पाती। 
  • अविराम का यह ब्लॉग अधूरा और अनाकर्षक ही रहता, यदि हमें वरिष्ठ चित्रकार सर्वश्री विज्ञान व्रत, पारस दासोत, बी. मोहन नेगी, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, सिद्धेश्वर आदि का सहयोग नहीं मिला होता। इस अंक तक आते-आते हमें वरिष्ठ चित्रकार श्री के. रविन्द्र जी का सानिध्य भी आद. बलराम अग्रवाल जी के माध्यम से मिला है। सर्वश्री नरेश उदास, शशिभूषण बड़ोनी, राजेन्द्र परदेशी, महावीर रंवाल्टा, किशोर श्रीवास्तव, अनिल सिंह, श्रीगंगानगर के नवोदित चित्रकार राजेन्द्र सिंह एवं हिना फिरदोस (वरिष्ठ साहित्यकार श्री अनवर सुहैल जी की बिटिया) आदि के भी रेखांकनों का योगदान रहा है। इसी के साथ इसकी साज-सज्जा में सर्वश्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, डॉ. बलराम अग्रवाल, रोहित काम्बोज, आदित्य अग्रवाल, पूनम गुप्ता, डॉ. ज्योत्शना शर्मा, चेतन, रितेश गुप्ता, अभिशक्ति, सुरभि ऐरन आदि के छायाचित्र भी इसे सजाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। इन सबका आभार प्रकट करते हुए मैं यह बात जोर देकर कहना चाहूंगा कि किसी भी पत्रिका की साज-सज्जा में चित्रकारों एवं छायाकारों की भूमिका हमें सदैव याद रखनी चाहिए।
  • उम्मीद है सभी रचनाकारों, चित्रकारों एवं मार्गदशकों का सहयोग हमें सतत रूप से मिलता रहेगा। दर्ज होने वाली पाठकीय प्रतिक्रियाओं के रूप में हमें अब तक उतना सहयोग नहीं मिल पाया है, जितना पाठकों की संख्या की तुलना में मिलना चाहिए था। निःसंदेह इसके कुछ तकनीकी कारण हैं तो कुछ मेरे संपर्कों एवं अन्य ब्लॉगों पर सक्रियता में कमी से संबन्धित कारण भी हैं। पाठक मित्रों से अनुरोध है, साहित्यिक रचनाओं पर स्वस्थ चर्चा अवश्य करें। भविष्य में हम भी प्रयास करेंगे कि ब्लॉग पर चर्चा में पाठकीय साझेदारी हेतु हमारे स्टार पर जो भी किया जाना जरूरी है, हम कर सकें।
  • जिन मित्रों के पास जलाई-सितम्बर 2012 का मुद्रित अंक पहुंचा होगा, उन्हें मुद्रित प्रारूप में पाठको की साझेदारी के उद्देश्य से शुरू किए जा रहे ‘बहस’ स्तम्भ की जानकारी मिली होगी। हमारा ब्लॉग प्रारूप के पाठक मित्रों से भी अनुरोध है कि आप भी इस बहस में शामिल होइए। बहस की संपूर्ण सामग्री मुद्रत अंक के बाद वाले ब्लॉग के अंक में भी शामिल की जाएगी। ‘बहस’ के पहले बिषय की जानकारी इसी पृष्ठ पर आगे दी जा रही है।

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              ‘बहस’ हेतु आमंत्रण 
मुद्रित प्रारूप में हम एक नये स्तम्भ ‘बहस’ का आरम्भ कर रहे हैं। इसमें एक दिये गये विषय पर अपने विचारों के साथ पाठकों की सीधी सहभागिता होगी। जनवरी-मार्च 2013 अंक के लिए विषय है- ‘‘साहित्य और भाषा की शुद्धता व संस्कार’’। पाठकों से उनके यथासंक्षिप्त विचार निम्न प्रश्नों के परिप्रेक्ष में 15 दिसम्बर 2012 तक आमन्त्रित हैं। पाठक अपने विचार संक्षिप्त आलेख के रूप में भी भेज सकते हैं। मुद्रित अंक में स्थान की उपलब्धता के अनुसार चुने हुए विचार प्रकाशित होंगे। ब्लॉग प्रारूप में प्राप्त सभी विचार प्रकाशित किये जायेंगे।
1. साहित्य में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है, भाषा की शुद्धता और संस्कार या सम्प्रेषण?
2. क्या एक लेखक के लिए भाषाई स्तर पर समृद्ध एवं चैतन्य होना जरूरी है?
3. क्या संस्कारित भाषा साहित्य की जरूरी शर्त है? यदि हाँ तो किस स्तर तक? 
4. हिन्दी में जानबूझकर अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करना क्या उचित है? इसी सन्दर्भ में रचनाकारों के द्वारा कई शब्दों को अपनी सुविधा या रचना की मांग के नाम पर परिवर्तित करके उपयोग करने की प्रवृत्ति पर आप क्या कहना चाहेंगे?
5. सामान्यतः बोलचाल की हिन्दी भाषा में दूसरी भाषाओं, यथा उर्दू, अंग्रेजी आदि के शब्दों का मिश्रण होता है। क्या साहित्य लेखन में इसे जस का तस उपयोग करना ठीक है? 
6. भाषाई उत्तरदायित्व को आप कैसे परिभाषित करेंगे? क्या लेखक को भाषाई उत्तरदायित्वों की समझ अनिवार्यतः होनी चाहिए?
7.भाषा के परिष्कार को लेखक का अनिवार्य उत्तरदायित्व मानने एवं उसके निर्वाह से साहित्य और आम-जन के रिश्तों पर क्या प्रभाव पड़ता है? 
8. भाषाई स्तर पर यदि कोई रचनाकार कमजोर है तथा जैसी  भाषा वह लिखना-पढ़ना जानता है, उसी में सृजन करता है। इसे किस दृष्टि से देखा जाए?
9. यदि लेखक की बात पाठक की समझ में आ रही है/सम्प्रेषित हो रही है लेकिन उसकी भाषा व्याकरण की दृष्टि से दोषपूर्ण है और अपनी भाषाई अक्षमताओं के कारण अपनी रचनाओं में भाषा सम्बन्धी दोषों को चाहते हुए भी दूर न कर पाए तो क्या उसके लेखन को हतोत्साहित किया जाना चाहिए? और क्या ऐसा करने पर बहुत से अच्छे विचारों और उसकी अभिव्यक्ति से साहित्य व पाठकों को वंचित करना उचित होगा?
10. एक सामान्य पाठक के रूप में आपको कैसा साहित्य प्रभावित करता है- आम बोलचाल की भाषा में लिखा गया या व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध और संस्कारित भाषा में लिखा गया?
11. यदि आप एक रचनाकार भी हैं तो साहित्य और भाषा के सन्दर्भ में एक पाठक के रूप में आप अपने को आम व्यक्ति के करीब पाते हैं या उससे कुछ अलग? 


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अविराम के दोनों प्रारूपों से सम्बंधित सूचना 

  • जो चित्रकार एवं फोटोग्राफी करने वाले मित्र अविराम में प्रकाशनार्थ अपने रेखांकन एवं छाया चित्र भेजना चाहते हैं, उनका स्वागत है। साथ में अपना परिचय एवं फोटो भी भेजें।
  • जिन रचनाकार मित्रों की कोई रचना अविराम के मुद्रित या ब्लॉग संस्करण में प्रकाशित हुई है और उन्होंने अपना फोटो व परिचय अभी तक हमें उपलब्ध नहीं कराया है, उनसे अनुरोध हैं की शीघ्रातिशीघ्र अपना  फोटो व परिचय  भेजने का कष्ट करें। भविष्य में पहली बार रचना भेजते समय फोटो  व अद्यतन परिचय अवश्य भेजें। 
  • प्रत्येक रचना के साथ अपना नाम एवं पता अवश्य लिखें। ऐसी रचनाएं, जिनके साथ रचनाकार का नाम व पता नहीं लिखा होगा, हम भविष्य में उपयोग नहीं कर पायेंगे। 
  • किसी भी प्रकाशित सामग्री पर हम किसी भी रूप में पारिश्रमिक देने की स्थिति में नहीं हैं। अत: पारिश्रमिक के इच्छुक मित्र क्षमा करें।
  •  अविराम साहित्यिकी के  दिसम्बर 2012 मुद्रित अंक (लघुकथा विशेषांक), हेतु सामग्री का चयन लगभग पूरा हो चुका है। अतः जिन मित्रों से किसी विशेष समग्री का अनुरोध किया गया है, को छोड़कर शेष मित्र अतिथि संपादक डॉ. बलराम अग्रवाल जी को और सामग्री न भेजें। सामान्य अंकों हेतु लघुकथा विषयक सामग्री हमें सीधे रुड़की के पते पर भेजना कृपया जारी रखें।
  •     अविराम के नियमित स्तम्भों के लिए क्षणिकाएं एवं जनक छंद की स्तरीय रचनाएं बहुत कम मिल पा रही हैं। क्षणिका पर हमारी एक और योजना भी विचाराघीन है। रचनाकारों से अपील है कि स्तरीय क्षणिकाएं अधिकाधिक संख्या में भेजकर सहयोग करें। 
  • प्राप्त पुस्तकों के प्रकाशन सम्बन्धी सूचना सहयोग की भावना से मुद्रित अंक में प्रकाशित की जाती है। कुछ प्राप्त पुस्तकों की चर्चा हम ब्लॉग प्रारूप पर पुस्तक से कुछ रचनाएं पाठकों के समक्ष रखकर भी करने का प्रयास करते हैं। ब्लॉग एवं मुद्रित प्रारूप में यद्यपि हम अधिकाधिक पुस्तकों की समीक्षा/संक्षिप्त समीक्षा/पुस्तक परिचय भी देने का प्रयास करते हैं, तदापि यह कार्य पूरी तरह स्थान की उपलब्धता एवं हमारी सुविधा पर निर्भर करता है। इस संबन्ध में किसी मित्र से हमारा कोई आश्वासन नहीं है।
  • कृपया  अविराम साहित्यिकी का शुल्क ‘अविराम साहित्यिकी’ के नाम ही धनादेश, चेक  या मांग ड्राफ्ट द्वारा भेजें, व्यक्तिगत नाम में नहीं। हमारे बार-बार अनुरोध के बावजूद कुछ मित्र अविराम साहित्यिकी का शुल्क ‘अविराम साहित्यिकी’ के नाम भेजने की बजाय उमेश महादोषी या प्रधान सम्पादिका के पक्ष में इस तरह से चैक बनाकर भेज देते हैं, कि उन चैकों का भुगतान हमारे लिए प्राप्त करना सम्भव नहीं होता है। इस तरह के चैकों को वापस करना भी हमारे लिए बेहद खर्चीला होता है, अतः हम ऐसे चैक वापस कर पाने में असमर्थ हैं।  उन्हें अपने स्तर पर नष्ट कर देने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। 
  • अविराम साहित्यिकी  के सामान्य मुद्रित अंकों में जुलाई-सितम्बर 2012 अंक से पृष्ठों की संख्या बढ़ाकर 72+04=76 कर दी गयी है। बढ़े हुए पृष्ठों के दृष्टिगत वार्षिक एवं आजीवन सदस्यता शुल्क में कुछ माह बाद बृद्धि की जायेगी, अत: जो मित्र आजीवन सदस्य बनना चाहते हैं, फ़िलहाल पुराना शुल्क (रुपये 750/-) ही भेजकर आजीवन  सदस्य बन सकते हैं। 
  •     यदि वास्तव में आप इस लघु पत्रिका की आर्थिक सहायता करना चाहते हैं तो किसी भी माध्यम से राशि केवल ‘अविराम साहित्यिकी’ के ही पक्ष में एफ-488/2, गली संख्या-11, राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार, उत्तराखंड के पते पर भेजें और जहां तक सम्भव हो एकमुश्त रु.750/- की राशि भेजकर आजीवन सदस्यता लेने को प्राथमिकता दें। आपकी आजीवन सदस्यता से प्राप्त राशि पत्रिका के दीर्घकालीन प्रकाशन एवं भविष्य में पृष्ठ संख्या बढ़ाने की दृष्टि से एक स्थाई निधि की स्थापना हेतु निवेश की जायेगी। कम से कम अगले दो-तीन वर्ष तक इस निधि से कोई भी राशि पत्रिका के प्रकाशन-व्यय सहित किसी भी मद पर व्यय न करने का प्रयास किया जायेगा।  

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 1,  सितम्बर  2012


।।कविता अनवरत।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. हरि जोशी, राम मेश्राम, प्रशान्त उपध्याय, शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’, डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’, सुरेन्द दीप, मीना गुप्ता, निर्मला अनिल सिंह  एवं अशोक भारती ‘देहलवी’ की काव्य  रचनाएं।



डॉ. हरि जोशी



(प्रतिष्ठित कवि-व्यंग्यकार डॉ. हरि जोशी जी का द्विभाषी काव्य संग्रह ‘हरि जोशी-67’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ है। इसमें उनकी 67 हिन्दी कविताएं और साथ ही उनके स्वयं द्वारा किए अंग्रेजी अनुवाद संग्रहीत हैं। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं।)



रेखांकन : के. रविन्द्र  
अनछुए विचार

मैं तुम्हें आमंत्रित करता हूँ बार-बार,
किंतु तुम देखते तक नहीं मेरी ओर

आदमी से दूरियों की
फिक्र मैं नहीं करता
स्वार्थ केन्द्रों से निभा पाता नहीं
शाश्वत नाते।

काश! तुम आते
तनिक लेकर सहारा हम गाते
दोस्ती का हाथ थामो
अनछुए नूतन विचार।

दुनिया को विस्मृत कर,
खुशी-खुशी छांह में,
तुम्हारी, रह सकता हूँ।


मिशिगन झील राजनीतिज्ञ तो नहीं?

इतना जल कोष लिए रंग क्यों बदलती ये,
सुबह सुबह सूरज जब उदय हो रहा होता,
जल होता चमकीला, सिंदूरी सोना पीला,
धुंध घटा देखते ही पड़ता व्याकुल नीला।

रात के अंधेरे में दैत्य-सा काला स्वरूप
किनारे पहुँचते ही खो देता रंग रूप
सूर्य के अवसान समय, पानी होता रक्तिम,
रंग बदलते जाना क्या आस्था बदलना नहीं?

गिरगिट या राजनीति किसकी पिछलग्गू
अक्सर बन जाती हैं बड़ी-बड़ी झीलें।

घूमती हुई कुर्सी
रेखांकन : पारस  दासोत 

किसी एक की नहीं रही कभी
बार-बार बदलती रही ग्राहक
जितनी चमकीली, उतनी प्रतिद्वंद्विता
उतनी ही मूल्यवान।

ग्राहक को भ्रम रहता, यह उसकी है।
मुस्कान बिखेरकर झुककर बुलाती है
ग्राहक का स्वागत कर।
उदासीन हो जाती है उसके चले जाने पर।

जिस कुर्सी को पाकर ग्राहक खुश होता
किंतु छिन जाने पर दूना दुख होता।

जितनी देर साथ-साथ,
उठा रहता आदमी थोड़ा ऊपर प्रमुदित
ऊपर से आकर्षक, सुंदर तन, मुद्रा में आमंत्रण
कुर्सी भी घूमती गणिका तो नहीं?

  • 3/32, छत्रसाल नगर, फेस-2, जे के रोड, भोपाल-462022 (म.प्र.)




राम मेश्राम

ग़ज़ल

सच को सच की तरह बोलना है
दिल कि बुज़दिल हुआ जा रहा है

हम लड़कपन से मजमे के शैदा
हमसे पूछो कि मजमे में क्या है

लॉर्ड अमिताभ बच्चन तेरी जय
तूने लाखों में प्रभु ले लिया है1

कौन चिन्तन है मौलिक हमारा
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 
हमने पश्चिम का सब कुछ लिया है

गोलीबारी किसानों पे करके
आप कहते हैं जनहित किया है

तेरी अय्याश साँसों ने दिल्ली
हंस2 का हुस्न काला किया है

औरतों से ग़ज़ल कहने वाले
तेरी ग़ज़लों की औरत कहाँ है?

लाख यारों ने मातम मनाया 
छन्द मरघट में नग़मासरा है

नीम ग़ाफ़िल मेरा दिल घड़ी से
पूछता है अभी क्या बजा है

{1 फरवरी 2007 में अमिताभ बच्चन का तिरुपति बालाजी 
को भेंट-पूजा का प्रसंग। 
काला हंस - श्रीमती चित्रा मुद्गल का वक्तव्य, 
दुष्यन्त अलंकरण 2007 के अवसर पर 
भोपाल में 1 अप्रैल  2007 को।}

  • एफ-115/29, शिवाजी नगर, भोपाल-462016, म.प्र.




प्रशान्त उपध्याय




जंगल का दर्द

आदमी विवश करता है
जंगल को 
खुद का भार ढोने के लिए
और जिस्म के रौंगटों की तरह 
पल में उखाड़ फेंकता है
हरियाले वृक्ष
जंगल कुछ नहीं कहता
रहता है मौन
सोचता है-
अत्याचारी आखिर है यह कौन?
बचे हुए वृक्षों की शाखों पर 
रेखांकन : बी मोहन नेगी 
पंक्षियों का झुन्ड अठखेलियां करता है
चहचहाता है
किन्तु जंगल को कुछ नहीं सुहाता है
जिसे सब कहते हैं नदी
जंगल चुपचाप आंसू बहाता है

आओ जंगल के
घाव सहलायें
जंगल
वाण लगे हिरण सा
कातर खड़ा है
जंगल का दर्द
जंगल से बड़ा है!

  • 364, शम्भू नगर, शिकोहाबाद-205135, जिला-फिरोजाबाद (उ.प्र.)



शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’



(चर्चित कवि-गीतकार सहयोगी जी ने दुमदार दोहा लेखन में भी अच्छा कार्य किया है। हाल ही में उनके दुमदार दोहों का संग्रह ‘दुम दार दोहे’ प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से कुछ दुमदार दोहे।)



दुमदार दोहे


01.
बूँद-बूँद बन टपकता, अंतस का  अहसास
मोती बन-बन विहँसता, ठिगना सा विश्वास
                                  भाव पर पीड़ा भारी।

02.
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
गंगा सागर से मिली, जहाँ रेत ही रेत
मिलन नहीं है देखता, पर्वत खाई खेत
                        मिलन है एक पहेली।

03.
कंधे पर जिस बाप के, चढ़ी पुत्र की लाश
उसके मानस में कभी, खिलता नहीं पलाश
                               चुगे ही फूल धधकते।

04.
आम कटा महुआ कटा, कटी नीम की छाँव
बरगद पीपल कट गये, नहीं रहा अब गाँव
                         गाँव को निगला बगुला।

05.
उड़-उड़ चुनरी कह रही, दिल की मस्त उमंग
चलो  पवन  मैं  भी  चलूँ, आज  तुम्हारे  संग
                                  बनी मैं उड़नखटोला।

06.
फूलों के मकरंद पर, जब तक रहती भीड़
जब तक उसके गंध की, गंध न होती क्षीण
                                  यही है दुनियादारी।

07.
जहाँ पली इच्छा प्रबल, सीढ़ी चढ़ा प्रयास
साहस के उस गाँव में, उगी सफलता घास
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
                           पसीना जब रंग लाया।

08.
पंडुक सी यह जिन्दगी, ठीहा रही तलाश
पंख पुराने हो गये,  फिर भी नहीं हताश
                          स्वप्न हैं अभी अधूरे।

09.
नागफनी सा हो गया, आँगन का फैलाव
सूनापन है ढूँढ़ता, कलियों का दरियाव
                          नहाये मन बहलाये।

10.
दरिया में पानी नहीं, खाली पड़ा इनार
गायब है अब घेर से, पहले वाला प्यार
                         चली हैं कौन हवायें।

  • ‘शिवाभा’, ए-233, गंगानगर, मवाना मार्ग, मेरठ-250001 (उ.प्र.)



डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’


गोस्वामी तुलसीदास

एक स्वप्न है तू जीवन का, एक सत्य है तू सपनों का।

तुलसी तेरा जीवन लेकर
पावस की हैं सरस दिशाएँ,
पावस की ऋतु कुऋतु नहीं अब
रहीं अमावस अब न निशाएँ,
अश्रु बने आँखों के तारे, ज्योतिचंद्र तू सब नयनों का।

रामचरित मानस, गीतावलि,
विनयपत्रिका की डाली पर,
सत्यं शिवं सुंदरम के सब
फूल फूलते नव लाली भर,
छाया चित्र : रोहित कम्बोज 
नवरस से सिंचित उपवन में, एक विटप तू सब सुमनों का।

विषयों के मृगजल के प्यासे
भटक रहे मन-मृग बेचारे,
भूल गये जो मंजिल उनको
पहुँचाता तू प्रभु के द्वारे
भवसागर में यान एक तू, भार लिए है कोटि मनों का।

मृत्यु स्वयं जीवन दे जिनको
वे मरकर भी नित्य अजर हैं
पर तुलसी हैं अमर राम से
या तुलसी से राम अमर हैं
करे हृदय पर राज सभी के, बन तू दास राम चरनों का।


  • 1436/बी, सरस्वती कॉलोनी, चेरीताल वार्ड, जबलपुर-482002 (म.प्र.)


सुरेन्द दीप


ग़ज़ल

चाहे वह जहाँ घटता है।
जुर्म, जुर्म ही होता है।
             
खोजते हो इंसा को क्यों?
वह यहाँ कहाँ रहता है?

तोड़ दो ये घेरा अब तो
मजहबों में दम घुटता है।

कौन ध्यान देगा तुझ पर
बहरों से क्यों कहता है।

‘दीप’ दर्द अपना मत कह,  
दिल तेरा सब सुनता है।


  • 89/293,बांगुड़ पार्क, रिसड़ा -712248 (प.बंगाल) 




मीना गुप्ता




तेरा साथ

तेरे साथ मुस्कराता है जीवन -
तेरे साथ गुनगुनाता है मन -
तेरे साथ महकती है फिजा -
तेरे साथ महक उठता है जीवन कानन,

तुम साथ होते हो, तो
सर्वत्र फैल जाता है संगीत -
लगता है -
हर तरफ बिखरे हों रंग -
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
तुम्हारे साथ तितली सा चंचल
हो उठता है ये मन -
पंख फैलाकर -
उड़ने को हो उठता है आतुर -
न जाने क्यों तुम्हारे साथ
रिमझिम बूँदों में घुल जाती है मादकता!

बूँद की टप-टप में 
भर जाता है एक राग -
तुम्हारे साथ हवा भी हो उठती है चंचल -
उड़ाती है मेरा आँचल -
तुम्हारे साथ
बज उठती है मन-वीणा -
झंकृत हो उठते हैं
कितने ही मधुर राग?

तुम चुपचाप -
चले आते हो मेरे मन के द्वारे -
और दे जाते हो
अपना मधुर अहसास! 

  • द्वारा विनोद गुप्ता, निराला साहित्य परिषद, कटरा बजार,महमूदाबाद, सीतापुर-261203 (उ.प्र.)



निर्मला अनिल सिंह




मौत
काली स्याह मौत
सार्वभौमिक कठोर सत्य है।
जो जन्मा है, उसे नष्ट अवश्य होना है
यह निर्ममता, क्रूरता, ईश्वर का अभिशाप है।
मौत में समता है, समानता है
शक्तिमान हो, धनवान हो, योग्य हो, अयोग्य हो
विद्वान हो, मूर्ख हो
सभी को अंगूठा दिखाती है मौत।
जिसे जब चाहती है, उठा ले जाती है
मौत अनिश्चित है,
कब? कहाँ? कारण, अकारण
रेखांकन : के. रविन्द्र 
सुविधा में आयेगी या दुविधा में
सभी अनिश्चित
मौत क्रूर है
न उम्र का ध्यान, न पद का ध्यान
न रूप रस के पंजे में बाँधती है
न जात-पाँत, ऊँच-नीच का भेद करती है
आती है निस्पन्द, निशंक
जाती है अश्रु और व्यथा देकर
कभी आती है वरदान बनकर
कभी अभिशाप बनकर
मारती है चाँटा,
तिलमिलाकर गाल भी
सहला नहीं पाते
सर्वदा के लिये शान्त हो सो जाते हैं।
न गिला कर पाते, न शिकवा
न प्रार्थना, न निवेदन
बस चले जाते है
उसके आगोश में
मौत, कब मेरे निकट आओगी?
लोरी सुना, अपने साथ ले जाओगी?

  • रीना एकेडमी जूनियर हाईस्कूल, हाइडिल कॉलोनी,, रानीखेत (उत्तराखण्ड) 




अशोक भारती ‘देहलवी’


खार इतराने लगे 

माँझियों की तिनकों को है परवाह कब,
लहरों के सीने पर मुस्काने लगे।
काट आये थे जहाँ भर के शजर,
कोपलों में पौधे नये आने लगे।
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

दक्षिणा में माँग लेगा अँगूठा कोई
हाथ के करतब जो दिखाने लगे।
दे गये जीने के तरीके नये
बस भभूतों में ही बहलाने लगे।

सीख गये हैं जीने का हम भी हुनर,
अब थपकियों में कहाँ हम आने लगे।
एक ही थाली के बेंगन थे सभी,
सबके सब नये नजर आने लगे।

सच तो सच है आँच आती नहीं
परखने के नमूने बतलाने लगे।
भर दिये थे जख्म जो हालात ने
वो तेजाब के फोहों से सहलाने लगे।

कुछ कली के कान में कह गई हवा
और टहनियों पर खार इतराने लगे।

  • 562, पॉकेट-2, सेक्टर-4, निकट बालकराम अस्पताल, तिमारपुर, दिल्ली-110054

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 1,  सितम्बर  2012  

।।कथा प्रवाह।।  


सामग्री :  इस अंक में ‘भ्रूण हत्या’ पर डा. रामकुमार घोटड़ सम्पादित  लघुकथा संकलन ‘किसको पुकारूँ’ से सर्व श्री  माधव नागदा, रतन चन्द्र रत्नेश, डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’ व  डॉ. रामकुमार घोटड़  की तथा  सर्व श्री संतोष सुपेकर, डॉ. पूरन सिंह, डॉ0 रामशंकर चंचल एवं गोवर्धन यादव की अन्य  लघुकथाएं।


‘भ्रूण हत्या’ पर कुछ लघुकथाएं 

(‘किसको पुकारूँ’: सुप्रसिद्ध लघुकथाकार एवं वरिष्ठ चिकित्सक डा. रामकुमार घोटड़ जी सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर साहित्यिक कार्यों में अग्रणी रहे हैं। हाल ही उन्होंने ‘भ्रूण हत्या’ जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण विषय पर ‘किसको पुकारूँ’ नाम से एक लघुकथा संकलन संपादित करके प्रकाशित करवाया है। इस संकलन में ‘भ्रूण के लिंग निर्धारण’, लिंग जाँच, कन्या भ्रूण हत्या, गर्भपात आदि पर वैज्ञानिक पक्ष के साथ कानूनी पक्ष पर अपने विस्तृत आलेख के साथ देश भर के 71 लघुकथाकारों की 81 लघुकथाएँ संकलित की हैं। इस महत्वपूर्ण संकलन से प्रस्तुत हैं चार लघुकथाकारों- सर्व श्री माधव नागदा, रतन चन्द्र रत्नेश, डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’ एवं डा. रामकुमार घोटड़ की लघुकथाएं।)


माधव नागदा




हम हैं न 

     वह शहर का अपेक्षाकृत सुनसान इलाका था। शहर में होते हुए भी शहर से दूर, उदास लेम्प-पोस्ट पीली मरियल सी रोशनी उगल रहे थे। सड़क के दोनों ओर जंगली झाड़ियाँ थीं, किसी की प्रतीक्षा में लीन। एक झाड़ी में कोई भ्रूण पड़ा था। उसने इधर-उधर चोर निगाहों से देखा और सफेद कपड़े में लिपटी एक पोटली पास की झाड़ी में सरका दी।
    ‘‘तू भी आ गई बहन?’’ पीले वस्त्र वाले भ्रूण ने दुःख भरे स्वर में पूछा।
    ‘‘क्या करती! वे लोग हाथ धोकर मेरी जान के पीछे पड़े थे।’’
    ‘‘कौन था तुम्हारा कातिल? डाक्टर या डाक्टरनी?’’
    ‘‘डाक्टर था, भयानक चेहरे वाला।’’ याद आते ही भ्रूण का चेहरा फक हो गया।
रेखांकन : के. रविन्द्र 
    ‘‘मेरी हत्या तो डाक्टरनी ने की, मासूम चेहरे वाली। और बताऊँ? उसके एक छोटी बेटी भी है।’’ रेशमी वस्त्रों में लिपटा भ्रूण बोला। उसकी आवाज से दर्द टपक रहा था।’’
    ‘‘अरे, तुम्हे कैसे पता?’’
    ‘‘कह रही थी आज बड़ी देर हो गयी। केस पर केस आ रहे हैं। घर पर बेटी भूखी होगी। तो पास खड़ा कम्पाउन्डर बोला, आया है न! बोतल पिला देगी।’’ 
    ‘‘फिर? डाक्टरनी क्या बोली?’’ दूसरे भ्रूण ने उत्सुकता से पूछा। उससे लिपटा सफेद वस्त्र धीरे-धीरे रक्तिम होने लगा था।
    ‘‘डाक्टरनी बोली, मेरी बेटी माँ का दूध पियेगी, बोतल का नहीं।’’
    कुछ देर तक दोनों भ्रूण अबोले ही रहे। अपने आप में खोये से। फिर पहला बोला- ‘‘जन्म ले पातीं तो हम भी माँ कर दूध पीतीं।’’ उसका स्वर दयनीय था।
    ‘‘माँ का दूध तो क्या, हमारी किस्मत में माँ भी नहीं है।’’ दूसरे ने आक्रोश से कहा। इतने में हवा का झोंका आया। झाड़ियों की शाखें झुकीं और भ्रूणों के मस्तक सहलाने लगीं, मानो कह रही हों, ‘हम हैं न!’
  •  गाँव- लाल मादड़ी (नाथद्वारा) पिन-313301, जिला उदयपुर (राजस्थान)


रतन चन्द्र रत्नेश 

एक फैसला

  गाँव से रवि अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आया। तकरीबन एक वर्ष पूर्व उसका विवाह हुआ था। गाँव में ही। हम भी उसके विवाह में शामिल हुए थे। पत्नी के साथ वह पहली बार शहर आया था।
    मैंने कहा, ‘‘क्यों रवि, आखिर भाभी जी को शहर दिखाने ले ही आए?’’ वह मुस्कराया।
    ‘‘हाँ, शहर भी देख लेंगे और जिस काम के लिए आये हैं, वह भी हो जायेगा। एक पंथ दो काज।’’
    ‘‘क्या काम है भाई, कोई खास? मुझे नहीं बताओगे?’’
    उसकी पत्नी उठकर रसोई में चली गई, जहाँ मेरी पत्नी हमारे लिए चाय बना रही थी।
    रवि ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘यार, तुम्हारी सहायता के बिना तो वह खास काम होने से रहा। मुझे तो शहर और डाक्टरों के बारे में अधिक पता नहीं है। तू तो जानता है कि अपनी जिंदगी गाँव और अपने पुश्तैनी दुकान के आस-पास तक ही सीमित रही है।’’
    मैंने कहा, ‘‘खुलकर कहो भई। तुम तो पहेलियाँ बुझाने लगे।’’
     वह कहने लगा, ‘‘यार, तुम्हारी भाभी का पाँव भारी है। आजकल ‘टेस्ट’ की बड़ी चर्चा सुनी है, पर साथ ही यह भी पता चला है कि प्राइवेट क्लीनिकों में यह काम अब चोरी-छुपे हो रहा है क्योंकि सरकार ने गर्भस्थ शिशु के लिंग जाँच को अवैध घोषित कर रखा है। हम भी जानने के इच्छुक हैं कि गर्भ में लड़का है या लड़की?’’
     मैं सुनकर दंग रह गया। इसका अर्थ यह है कि यह ‘बीमारी’ सुदूर गाँव तक को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है।
रेखांकन : बी मोहन नेगी 
     मैंने सहज भाव से कहा, ‘‘परिणाम जानने की इतनी उत्सुकता क्यों? सब्र से काम लो।’’ भ्रूण-जाँच करवाकर अपनी स्वाभाविक प्रशन्नता का गला क्यों घोंट रहे हो?’’
    ‘‘दरअसल हम चाहते हैं कि लड़की हो तो गर्भ गिरा दें।’’ उसने कुछ झेंपते हुए कहा।
    मेरी आवाज थोड़ी तल्ख हो गई, ‘‘तुम गंवार के गंवार ही रहे। अब क्या लड़का-लड़की में भेद रह गया है बल्कि लड़कियाँ लड़कों से कहीं अधिक सुख दे रही हैं....।’’
    ‘‘सो तो ठीक है पर.....’’ वह सिर खुजाने लगा।
    अंत में निराश होकर मैंने कहा, ‘‘जैसी तेरी इच्छा, पर मैं तुझे किसी भी क्लीनिक का पता देने वाला नहीं। मुझे क्यों पाप का भागी बना रहे हो? जितने दिन चाहो, आराम से रहो, पर क्लीनिक की तलाश तुझे स्वयं करनी पड़ेगी। हाँ, मेरी बात याद रखना। कुदरत के खिलाफ कोई कदम उठाया तो तेरी आत्मा सदा तुझे दुत्कारती रहेगी।’’
    दूसरे दिन प्रातः रवि अपनी पत्नी से कहने लगा, ‘‘प्रतिमा, चलो गाँव लौटने की तैयारी करते हैं।’’
    मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
    ‘‘क्यों मेरी बात का बुरा मान गए?’’
    उसने कहा, ‘‘नहीं यार, तूने तो मेरी आँख खोल दी। हमें जाँच नहीं करवानी। जो संतान हमें ईश्वर प्रदान करेगा, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।’’
    ‘‘रात भर में यह परिवर्तन....?’’ मैंने उत्सुकता से पूछा।
    ‘‘बस समझो, हमसे भयंकर भूल होते-होते रह गई। साथ ही उन प्रश्नों से भी बच गए जो आने वाली पीढ़ी हमसे कुरेद-कुरेद कर पूछेगी और हमारे पास जिनका कोई उत्तर नहीं होगा।’’   
  • 1859, सैक्टर 7-सी, चण्डीगढ़-160019


डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’



खामियाजा

     मिसेज सान्याल के दरवाजे की कॉलबेल की घंटी बजी। उनके दरवाजा खोलते ही नौकरानी कम्मो पर नज़र पड़ी। वह गर्म होने लगी- ‘‘अरे! यह क्या तमाशा लगा रखा है कि एक सप्ताह से काम पर ही नहीं आ रही हो! अगर काम करने का मन न हो तो वह भी कह दो। मैं किसी और को रख लूँगी। ऐसी भी क्या आफत आ गयी है कॉलोनी में नौकरानियों की जो न मिले.....।’’ यह कहते हुए मेम साहब ने आँखें तरेरीं।
    कम्मो ने बिना किसी नाखुशी को प्रकट करते हुए मेम साब से इतना भर कहा, ‘‘मेम साब उस दिन यहाँ से घर गई तो बेटी-दामाद आये हुए थे। वह पेट से थी और उसे कुछ तक़लीफें हो रही थीं, जिसे दिखाने डाक्टरनी के पास गये तो उसने भर्ती कर लिया। आपको मैं क्या बताऊँ कि बेटी ने अपनी जैसी ही एक नन्ही सी परी को जन्म दिया है.... वह इतनी सुन्दर है कि मैं आपको बता नहीं सकती....।’’
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
    उसके चेहरे पर छलकती खुशी को मेम साब सहन नहीं कर पा रही थीं सो बोली, ‘‘अरे! इसमें इतराने की कौन सी बात है? लड़की ही हुई न, लड़का तो नहीं हुआ न? हमारे यहाँ तो खुशी लड़कों के जन्म पर मनायी जाती है..... या फिर जब वह ब्याहकर बहू घर में लाता है। समझी तू?’’ मेम साब ने उसकी खुशी पर पानी फेरने की कोशिश की।
    लेकिन कम्मों के चेहरे की रंगत में तनिक भी अंतर नहीं आया। उनके चेहरे का रंग फीका पड़ने लगा। क्योंकि मेम साब की बातें सुनकर उसने कहा- ‘‘मेम साब, हर कोई परिवार में लड़के ही चाहेगा और हरेक स्त्री बेटा ही जनेगी, तो वह ब्याहकर किसे लाएगा? गाय-भैंसों को? यह आप क्यों नहीं सोचतीं कि समाज में यदि मर्दों की आवश्यकता है तो औरतों की तादाद भी उसी अनुपात में होनी चाहिए। मुझसे डाक्टरनी जी तो यही कह रही थीं और वह गरीब जानकर भी मेरे मेहमान को बधाई दे रही थी। उन्होंने हमें सरकार की ओर से मिलने वाली सुविधाओं की जानकारी भी दी। जिससे हमें उनकी परवरिश में मदद ही मिलेगी, फिर चिंता किस बात की....।’’
   कम्मो के मुँह से यह सब सुनकर उनका मन भारी हो गया। वह अन्दर से हिल गयीं। उसने मेम साहब को झिंझोड़ दिया था। उनके पास तो किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। यदि कमी थी तो एक बेटी की, जिसे उन्होंने पति की घोर आपत्ति के बावजूद जन्म नहीं लेने दिया था और गर्भ में कन्या भ्रूण का पता लगने पर दो बार सफाई करवा ली थी। क्योंकि उन्हें लगता था कि उसके जन्म के बाद उन्हें ढेर सारा अनावश्यक व्यय करना पड़ेगा....जबकि वह स्वयं एक स्त्री थी।
  • 6/2, हारुन नगर, फुलवारी शरीफ, पटना-801505 (बिहार) 


डॉ. रामकुमार घोटड़



अपराध बोध

     उस दिन वो पति-पत्नी पूरे परिवार सहित खुशी में सराबोर थे। सोनोग्राफी से डॉक्टर ने गर्भ में पल रहे भ्रूण के लड़का होने की पुख्ता रिपोर्ट दे दी थी। लेकिन वे अफसोस इस बात का कर रहे थे कि साथ में पल रहा दूसरा भ्रूण कन्या भ्रूण है, जबकि उनके पहले से ही तीन लड़कियाँ हैं, जो भैया का दीदार करने माँ की ओर देखा करती हैं।
     अगले दिन वे अस्पताल गये। लड़का भ्रूण को सुरक्षित रखते हुए सिर्फ कन्या भ्रूण को ही गिरवाना चाहते थे। उस डॉक्टर से वो पहले भी कन्या भ्रूण होने के कारण तीन वार गर्भपात करवा चुके थे। इसी प्रकार गर्भपात करवाता-करवाता वह एक अनुभवी एवं धुरंधर डॉक्टर बन चुका था।
     डॉक्टर ने उसे थियेटर में ले जाकर गर्भ गिराने के लिए औजार कन्या भ्रूण की तरफ बढ़ाया। 
रेखांकन : नरेश उदास 
    ‘‘भैया मुझे बचाओ...।’’ कन्या भ्रूण चिल्लाई। ‘‘ये देखो डॉक्टर का राक्षसी औजार मेरी तरफ आ रहा है....।’’
    ‘‘नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा, तुम मेरी बहना हो, मैं अंतिम साँस तक तुम्हारी रक्षा करूँगा, नहीं तो डॉक्टर अंकल से निवेदन करता हूँ कि मुझे भी साथ ही खत्म कर दें....।’’ और वह अपने सहोदर भ्रूण से लिपट गया।
    डॉक्टर साहब सोनोग्राफी में यह सब देख रहे थे। दोनों भ्रूणों का स्नेह-अपनत्व देख
कर पसीज गये और अकारण ही भ्रूणहत्या करने पर अपने आपको अपराधी सा महसूस करते हुए अपने औजार गर्भ से बाहर खींच लिए।
     डॉक्टर साहब, थियेटर से बाहर आकर उसके पति को रुपये लौटाते हुए बताने लगे- ‘‘महोदय! माफ करना! मैं अब ऐसा नहीं कर पाऊँगा। मैंने जिन्दगी में कभी भी भ्रूणहत्या न करने का प्रण लिया है....।’’ 
  • सादुलपुर (राजगढ़), जिला चूरू-331023 (राजस्थान)


संतोष सुपेकर






वो देख सामने!

    ‘‘चवन्नी (पच्चीस पैसे का सिक्का) को पास में देखकर एक रूपये का सिक्का हंसा, व्यंग्यपूर्ण हंसी !
    ‘‘हंस मत’’ रिटायर कर दिये जाने से नाराज चवन्नी ने तमतमाकर कहा, ’’ वो देख सामने! तुझे देखकर भी कोई हंस रहा है, बल्कि हंस रहे है।’’
    ‘‘कौन... कौन?’’ एक रुपये के सिक्के ने हडबडाकर पूछा, ‘‘....कौन हंस रहा है मुझ पर, मुझे तो कोई दिखाई नही दे रहा ?’’
    ‘‘तुझे अभी दिखाई नहीं देगा, वो खड़ी हैं दोनों बहनें, मंहगाई और मुद्रास्फीति। और तेरे जीवन की भी उल्टी गिनती कर रही है।’
  • 31, सुदामा नगर, उज्जेन (म0प्र0)


डॉ. पूरन सिंह

धर्मग्रन्थ

     पिछले तीन विधान सभा चुनावों से जीतते आ रहे थे असलम भाई। करोड़ो रूपए की सम्पति है उनके पास। बंगले गाड़िया, बैंक बैलेंस लेकिन उनके क्षेत्र की जनता के पास न तो सड़कें हैं, न अस्पताल। और तो और, पीने का स्वच्छ पानी भी नहीं है। अब लोग समझ गए है उनकी बातें। इस बार, हिन्दू तो हिन्दू, मुसलमान भी उन्हें वोट देने वाले नहीं। यह बात असलम भाई भी अच्छी तरह जानते हैं। दो दिन बाद दिवाली है, उसके बाद ही भैया दौज के दिन वोट पड़ने हैं। क्या करें असलम भाई। बहुत परेशान हैं कुछ नहीं सूझता। थक हार कर, मुकद्दस कुरआन के सामने आकर खड़े हो गए असलम भाई। पवित्र कुरआन ही है जो डूबते को तिनके का सहारा है। असलम भाई आँखे बंद किए उसके सामने खड़े रहे कि अचानक ज्ञान प्राप्त हो गया उन्हें। पवित्र कुरआन को देखकर उनके मन में खुशी की लहर दौड़ गई, आँखे चमकने लगी। अचानक होठों से निकल गया, बन गया काम।
    दूसरे दिन ही- असलम भाई के गुर्गे भागते हुए उनके पास आए थे। भाई, भाई ये देखो, इन हिन्दुओं की नीचता। देखो भाई, देखो तो इन्होंने क्या किया। कैफी ने अपने हाथों में रखे पटाखों के ऊपर उपयोग किए गए कागज को दिखाते हुए असलम भाई से कहा था। दरअसल पटाखों के ऊपर उपयोग किया गया कागज कुरआन के पृष्ठ ही तो थे। 
रेखांकन : महावीर  रंवाल्टा
    असलम भाई की आँखों में आंसू छलकने लगे थे। बस फिर क्या था। सदर वाले चौराहे पर असलम भाई चीख रहे थे। शर्म आती है लोगों पर.... आदमी आदमी की लड़ाई है, इसमें पवित्र धर्मग्रन्थों का उपयोग किया जा रहा है।.... कभी हमारी मस्जिद्रे ढहाई जाती है तो कभी गोधरा कांड होते हैं। अरे हार जीत तो जिंदगी में लगी रहती है। फिर अचानक छाती पीटकर चीखने लगे थे असलम भाई, ईंट से ईंट बजा देंगे....हम अल्पसंख्यक जरूर हैं लेकिन इन बहुसंख्यकों पर भारी पड़ेगे। नाले तकबे....। पूरी भीड़ चिल्लाई थी, अल्लाह अकबर ।
    असलम भाई के भाषण से पूरे शहर में हाहाकर मच गया था। देखते ही देखते पूरी फिजां असलम भाई के पक्ष में थी। मुसलमानों की पवित्र भावनाओं को हिन्दूओं ने ठेस पहुँचाई थी तो वहीं हिन्दू सहिष्णुता, बन्धुत्व और विश्वमैत्री के भंवरजाल में डूबते हुए असलम भाई के साथ थे। और प्रशासन डी.एम., एस.डी.एम., एस.पी. साहब की तो रात की नींद चली गई थी। सभी पटाखों की फैक्ट्रियां सील कर दी गई थी। दीवाली मनायी गई थी लेकिन लग रहा था मानो मातम मनाया जा रहा हो।
    ठीक भैया दौज वाले दिन वोट पड़े थे। और दो दिन बाद ही वोटों की गिनती शुरू हो गई थी। असलम भाई ने रिकार्ड जीत दर्ज की थी। पिछले तीन विधान या चुनावों में वह जीते तो थे, लेकिन इस बार की जीत ने उन्हें आसमान पर बैठा दिया था। उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी श्री सत्यनारायण शर्मा जी की जमानत जब्त हो गयी थी।
    असलम भाई जिंदाबाद.... जिंदाबाद के नारों से दशो दिशाएं गूंज रही थी। असलम भाई ने जयकारों की तरफ ध्यान नहीं दिया था उन्होंने घर आकर पहले मुकद्दस कुरआन को चूम लिया था। पवित्र कुरआन के शुरू के पृष्ठ अब भी फटे हुए थे।

  • 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेलनगर, नई दिल्ली-110008


डॉ0 रामशंकर चंचल




झीतरा   




छाया चित्र : उमेश महादोषी 
 मौसम चाहे जैसा हो, झीतरा सदैव एक-सा रहता- अर्द्धनग्न। कूल्हे पर लंगोटी और वदन पर हाथ-भर कपड़ा बस। इसके अतिरिक्त उसे क्या चाहिए! बचपन से आज तक इसी तरह रहने वाला झीतरा पसीना बहा, खेत में खूब श्रम करता रहता था। खेत, झोंपड़ी और डागला, इन्हीं के बीच गुजार देता है वह जिन्दगी। कभी-कभी आंगन में आ धमकते हैं कोई शहरी बाबू- पटवारी, ग्राम सेवक, मोटर-सायकिल दौड़ाते। अशिक्षित, अज्ञानी झीतरा भयभीत-सा खड़ा हो जाता हाथ जोड़कर। अपनी खटिया उनके सम्मान में लगा बैठ जाता चरणों में और उनके आदेश पर दौड़ जाता मीलों दूर किसी भी काम के लिए। पता नहीं इन शहरी बाबुओं ने उसका किस-किस तरह से कितना शोषण किया, कितने झूठे आश्वासन दिए, पर उसने कभी शिकायत नहीं की, वह सदैव गूँगा बना रहा। हाँ, उसी झीतरा को पीपल के पेड़ के नीचे खामोश बैठे पत्थर के रामदेवजी के आगे मैंने चीखते-चिल्लाते और कभी-कभी रोते भी देखा है। वहां भी वह अपने लिए नहीं, मासूम बच्चों की भूख और अपने खेतों की प्यास के लिए भगवान से प्रार्थना करते ही देखा। पता नहीं, उसके पत्थर के भगवान उसकी सुनेंगे भी या सचमुच पत्थर के ही बने रहेंगे।  

  • माँ, 145, गोपाल कालौनी, झाबुआ-457661 (म0 प्र0)



गोवर्धन यादव 



जहरीला आदमी

    एक खूबसूरत युवती ने जहरीले साँपों के बीच रहकर विश्व रिकार्ड तोड़ने की ठानी।
    देश-विदेश से तरह-तरह के जहरीले साँप बुलवाये गये और एक कांच का कमरा तैयार करवाया गया। एक निश्चित दिन, उस काँच के कमरे मे उन सभी जहरीले साँपों को छोड दिया गया और उस सुन्दर युवती ने प्रवेश किया। खलबली-सी मच गई थी साँपों के परिवार में।
   जहरीले साँपों के बीच रहकर वह तरह के करतब दिखलाती, कभी किसी को उठा कर गले से लपेट लेती तो कभी अपनी कमर में। कभी एक साथ ढेरों सारे सर्पों को उठाकर अपने शरीर मे जगह-जगह लपेट लेती, तरह-तरह के करतब वह दिखलाती। उसके कारनामों को देखने के लिये पूरा गाँव उमड पडा था।
    स्थानीय समाचार पत्रों में उसके सचित्र समाचार प्रकाशित हो रहे थे। टीवी वाले भी भला पीछे कहाँ रहने वाले थे। वे अपने चौनलों के माध्यम से उसका लाइव प्रसारण कर रहे थे। अब पास-पड़ोस के लोगों के अलावा पड़ोसी जिले से भी लोग आने लगे थे। फ़लस्वरुप वहाँ  बेहद भीड जमा होने लगी थी। जिला कलेक्टर ने तथा पुलिस अधीक्षक ने उसकी पूरी सुरक्षा के व्यापक प्रबंध कर रखे थे। उस कांच के कक्ष के बाहर श्रध्दालु लोग पूजा-पाठ करने के लिये जुटने लगे थे। नारियल बेचने वाले तथा फ़ूल बेचने वालों ने दुकाने खोल लिये थे। दर्शनार्थीयों में कोई उसे असाधारण साहस की धनी, तो कोई काली माँ का अवतार, तो कोई दुर्गा का अवतार कह रहा था।
    आख्रिर अडतालिस घण्टे जहरीले सांपों के बीच रहकर उसने पुराना विश्व रिकार्ड तोडते हुये नया रिकार्ड बना ही डाला। कमरे से बाहर निकलते ही उस बला की  खूबसूरत युवती को भीड ने घेर लिया। हर कोई उसके गले मे फ़ूलमाला् डालने तो बेताब नजर आ रहा था, विशेषकर युवातुर्क।
रेखांकन : शशिभूषण बड़ोनी 
    यह पहले से तयकर  दिया गया था कि उसके बाहर आने के बाद उसका नागरिक अभिनन्दन किया जायेगा। एक बड़ा विशाल मंच तैयार कर लिया गया था। उसे ससम्मान जयकारे के साथ मंच पर लाया गया। मंच पर अनेक गणमान्य नागरिकों के अलावा एक अधिकार संपन्न नेताजी भी आमंत्रित थे।
    उसके मंच पर आते ही भाषणों का दौर शुरु हुआ। भाषण पर भाषण चलते रहे। भाषणों के बीच, उस नेता ने उसे अपने आवास पर भोजन के लिये आंमंत्रित किया। पोर-पोर में ऐंठन और दर्द के चलते उसका मन वहाँ जाने के लिये तैयार नही हो रहा था, बावजूद इसके वह मना नहीं कर पायी।
    देर रात तक भोजन का दौर चलता रहा। नींद के बोझ के चलते उसकी पलकें कब मूंद गई, उसे पता ही नहीं चल पाया। अब वह पूरी तरह से नींद के आगोश में चली गई थी।
    गहरी नींद के बावजूद उसने महसूस किया कि कोई उसके शरीर को कोई बुरी तरह से रौंद रहा है. चेतना में आते ही पूरी बात उसकी समझ में आ गई थी। वह उठकर भाग जाना चाहती थी, लेकिन शरीर पर वस्त्र न होने की वजह से वह चाहकर भी भाग नहीं पायी थी और वहीं बिस्तर पर पडी-पडी आँसू बहाती रही थी और दरिंदा अपना खेल, खेलता रहा था।
इस दुर्घटना के बाद से वह एकदम से गुमसुम-गुमसुम सी रहने लगी थी।  बात-बात में खिलखिलाकर हँसने वाली वह शोख चंचल हसीन अब मुस्कुराना भी भूल चुकी थी और वह अब आदमियों के बीच जाने से भी घबराने लगी थी। उसे पता चल चुका था कि वहाँ केवल सांपों के मुँह मे जहर होता है, जबकी, जबकी आदमी पूरा की पूरा जहरीला होता है।
  • 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा-480001 (म.प्र.)