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रविवार, 30 सितंबर 2012

किताबें

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 1,  सितम्बर  2012 

{अविराम के ब्लाग के इस अंक में  संतोष सुपेकर  जी के काव्य  संग्रह  "चेहरों के आर पार" की डॉ. अशोक पाण्डेय ‘गुलशन’ द्वारा लिखित संक्षिप्त समीक्षा  रख  रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है  कृपया समीक्षा भेजने के साथ  पुस्तक की एक प्रति हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।}  



डॉ. अशोक पाण्डेय ‘गुलशन’

चेहरों के आर पार : सामाजिक विसंगतियों का आइना 
    




         कविता के पंख नहीं होते किन्तु उसकी उड़ान वायु से भी तेज होती है। कविता की जुबां नहीं होती किन्तु उसकी आवाज सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में गुँजायमान रहती हैं। कविता का कोई आश्रय नहीं होता किन्तु सभी स्थानों पर रहती है कविता। कविता निर्जीव होकर भी हमारे साथ चलती है, हमसे बात करती है, हमें हँसाती है, रुलाती है, अकेले में भी जीना सिखाती है और इस सबके साथ-साथ हमें परिवार, समाज तथा राष्ट्र से जोड़ती भी है कविता।
    मेरी दृष्टि में कविता की इन तमाम विशेषताओं की अनुभूति भाई संतोष सुपेकर ने पूरी गहराई से की है। तभी तो ‘‘आखिर आज़ाद हैं हम’’ शीर्षक रचना की कुछ पंक्तियों में उन्होंने कुछ ऐसा लिखा है- ‘‘क्या पड़ी है हमें जो बन्द करें/एक बहता हुआ नल/हम आज़ाद जो ठहरे’’ (पृष्ठ 61)।
    हिन्दी साहित्य के विविध आयामों से सुपरिचित कवि, लघुकथाकार एवं सच्चे मन से कृतिकार संतोष सुपेकर के मन का साहित्यकार जब कुछ लिखता है तो उसके द्वारा सत्य के सवा और कुछ भी नहीं लिखा जाता, क्योंकि वह प्रत्यक्षदर्शी होता है। जो वह देखता है वही लिखता है। तभी तो वह ऐसा ही लिखता है- ‘‘तभी एक फितरती आया/मुझे देख मुस्कुराया,/हवाओं पर लिखा ‘अफवाह’/ और एक ही घण्टे में शहर में दंगे फैल गए‘‘ (‘फितरती नेटवर्क’ पृष्ठ 117)।
    समीक्ष्य पुस्तक ‘चेहरों के आरपार’ में गद्य कविता के रूप में क्षणिकाओं की सार्थक प्रस्तुति भी देखने को मिलती है, जिसे बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से व्यंग्यात्मक शैली में रचा गया है। जैसे यह रचना- ‘‘लड्डुओं की ‘एक्सपायरी डेट’ हो सकती है/माँ के इन्तजार की नहीं’’ (‘माँ के लड्डू’ पृष्ठ 88)। 
    प्रकृति, रिश्ता, मजदूर, आज़ादी, सामाजिक पतन, राजनीति, देश प्रेम, साम्प्रदायिक सद्भाव, मानवीय सवेदना आदि पर इस पुस्तक कुल 57 रचनायें हैं, जिनमें आम आदमी की लाचारी, बेबसी के साथ-साथ आत्म-स्वाभिमान पर भी सार्थक लेखन किया गया है।
     श्री संताष सुपेकर मूलतः लघुकथाकार हैं किन्तु कवि, आलोचक और व्यंग्यकार भी हैं। वह आँखों से लघुकथा लिखते हैं और जुबान से कविता। तीन लघुकथा संग्रहों की सफल प्रस्तुति के बाद उनका यह पहला काव्य संग्रह है, जिसे उन्होंने पूर्ण मनोयोग से लिखा है।

चेहरों के आर पार :  काव्य संग्रह। कवि  :  संतोष सुपेकर। प्रकाशक :  सरल काव्यांजलि, 129, ‘प्रयास’, अभिषेक नगर, उज्जैन (म.प्र.)। मूल्य :  रु. 180/- मात्र। संस्करण :  2012। पृष्ठ 123।


  • चिकित्साधिकारी, कानूनगोपुरा (उत्तरी), बहराइच (उ.प्र.)

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