अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 1, सितम्बर 2012
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. हरि जोशी, राम मेश्राम, प्रशान्त उपध्याय, शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’, डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’, सुरेन्द दीप, मीना गुप्ता, निर्मला अनिल सिंह एवं अशोक भारती ‘देहलवी’ की काव्य रचनाएं।
डॉ. हरि जोशी
(प्रतिष्ठित कवि-व्यंग्यकार डॉ. हरि जोशी जी का द्विभाषी काव्य संग्रह ‘हरि जोशी-67’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ है। इसमें उनकी 67 हिन्दी कविताएं और साथ ही उनके स्वयं द्वारा किए अंग्रेजी अनुवाद संग्रहीत हैं। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं।)
मैं तुम्हें आमंत्रित करता हूँ बार-बार,
किंतु तुम देखते तक नहीं मेरी ओर
आदमी से दूरियों की
फिक्र मैं नहीं करता
स्वार्थ केन्द्रों से निभा पाता नहीं
शाश्वत नाते।
काश! तुम आते
तनिक लेकर सहारा हम गाते
दोस्ती का हाथ थामो
अनछुए नूतन विचार।
दुनिया को विस्मृत कर,
खुशी-खुशी छांह में,
तुम्हारी, रह सकता हूँ।
मिशिगन झील राजनीतिज्ञ तो नहीं?
इतना जल कोष लिए रंग क्यों बदलती ये,
सुबह सुबह सूरज जब उदय हो रहा होता,
जल होता चमकीला, सिंदूरी सोना पीला,
धुंध घटा देखते ही पड़ता व्याकुल नीला।
रात के अंधेरे में दैत्य-सा काला स्वरूप
किनारे पहुँचते ही खो देता रंग रूप
सूर्य के अवसान समय, पानी होता रक्तिम,
रंग बदलते जाना क्या आस्था बदलना नहीं?
गिरगिट या राजनीति किसकी पिछलग्गू
अक्सर बन जाती हैं बड़ी-बड़ी झीलें।
घूमती हुई कुर्सी
किसी एक की नहीं रही कभी
बार-बार बदलती रही ग्राहक
जितनी चमकीली, उतनी प्रतिद्वंद्विता
उतनी ही मूल्यवान।
ग्राहक को भ्रम रहता, यह उसकी है।
मुस्कान बिखेरकर झुककर बुलाती है
ग्राहक का स्वागत कर।
उदासीन हो जाती है उसके चले जाने पर।
जिस कुर्सी को पाकर ग्राहक खुश होता
किंतु छिन जाने पर दूना दुख होता।
जितनी देर साथ-साथ,
उठा रहता आदमी थोड़ा ऊपर प्रमुदित
ऊपर से आकर्षक, सुंदर तन, मुद्रा में आमंत्रण
कुर्सी भी घूमती गणिका तो नहीं?
राम मेश्राम
ग़ज़ल
सच को सच की तरह बोलना है
दिल कि बुज़दिल हुआ जा रहा है
हम लड़कपन से मजमे के शैदा
हमसे पूछो कि मजमे में क्या है
लॉर्ड अमिताभ बच्चन तेरी जय
तूने लाखों में प्रभु ले लिया है1
कौन चिन्तन है मौलिक हमारा
हमने पश्चिम का सब कुछ लिया है
गोलीबारी किसानों पे करके
आप कहते हैं जनहित किया है
तेरी अय्याश साँसों ने दिल्ली
हंस2 का हुस्न काला किया है
औरतों से ग़ज़ल कहने वाले
तेरी ग़ज़लों की औरत कहाँ है?
लाख यारों ने मातम मनाया
छन्द मरघट में नग़मासरा है
नीम ग़ाफ़िल मेरा दिल घड़ी से
पूछता है अभी क्या बजा है
{1 फरवरी 2007 में अमिताभ बच्चन का तिरुपति बालाजी
को भेंट-पूजा का प्रसंग।
2 काला हंस - श्रीमती चित्रा मुद्गल का वक्तव्य,
दुष्यन्त अलंकरण 2007 के अवसर पर
भोपाल में 1 अप्रैल 2007 को।}
प्रशान्त उपध्याय
जंगल का दर्द
आदमी विवश करता है
जंगल को
खुद का भार ढोने के लिए
और जिस्म के रौंगटों की तरह
पल में उखाड़ फेंकता है
हरियाले वृक्ष
जंगल कुछ नहीं कहता
रहता है मौन
सोचता है-
अत्याचारी आखिर है यह कौन?
बचे हुए वृक्षों की शाखों पर
पंक्षियों का झुन्ड अठखेलियां करता है
चहचहाता है
किन्तु जंगल को कुछ नहीं सुहाता है
जिसे सब कहते हैं नदी
जंगल चुपचाप आंसू बहाता है
आओ जंगल के
घाव सहलायें
जंगल
वाण लगे हिरण सा
कातर खड़ा है
जंगल का दर्द
जंगल से बड़ा है!
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
(चर्चित कवि-गीतकार सहयोगी जी ने दुमदार दोहा लेखन में भी अच्छा कार्य किया है। हाल ही में उनके दुमदार दोहों का संग्रह ‘दुम दार दोहे’ प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से कुछ दुमदार दोहे।)
दुमदार दोहे
मोती बन-बन विहँसता, ठिगना सा विश्वास
भाव पर पीड़ा भारी।
02.
गंगा सागर से मिली, जहाँ रेत ही रेत
मिलन नहीं है देखता, पर्वत खाई खेत
मिलन है एक पहेली।
03.
कंधे पर जिस बाप के, चढ़ी पुत्र की लाश
उसके मानस में कभी, खिलता नहीं पलाश
चुगे ही फूल धधकते।
04.
आम कटा महुआ कटा, कटी नीम की छाँव
बरगद पीपल कट गये, नहीं रहा अब गाँव
गाँव को निगला बगुला।
05.
उड़-उड़ चुनरी कह रही, दिल की मस्त उमंग
चलो पवन मैं भी चलूँ, आज तुम्हारे संग
बनी मैं उड़नखटोला।
06.
फूलों के मकरंद पर, जब तक रहती भीड़
जब तक उसके गंध की, गंध न होती क्षीण
यही है दुनियादारी।
07.
जहाँ पली इच्छा प्रबल, सीढ़ी चढ़ा प्रयास
साहस के उस गाँव में, उगी सफलता घास
पसीना जब रंग लाया।
08.
पंडुक सी यह जिन्दगी, ठीहा रही तलाश
पंख पुराने हो गये, फिर भी नहीं हताश
स्वप्न हैं अभी अधूरे।
09.
नागफनी सा हो गया, आँगन का फैलाव
सूनापन है ढूँढ़ता, कलियों का दरियाव
नहाये मन बहलाये।
10.
दरिया में पानी नहीं, खाली पड़ा इनार
गायब है अब घेर से, पहले वाला प्यार
चली हैं कौन हवायें।
डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’
गोस्वामी तुलसीदास
एक स्वप्न है तू जीवन का, एक सत्य है तू सपनों का।
तुलसी तेरा जीवन लेकर
पावस की हैं सरस दिशाएँ,
पावस की ऋतु कुऋतु नहीं अब
रहीं अमावस अब न निशाएँ,
अश्रु बने आँखों के तारे, ज्योतिचंद्र तू सब नयनों का।
रामचरित मानस, गीतावलि,
विनयपत्रिका की डाली पर,
सत्यं शिवं सुंदरम के सब
फूल फूलते नव लाली भर,
नवरस से सिंचित उपवन में, एक विटप तू सब सुमनों का।
विषयों के मृगजल के प्यासे
भटक रहे मन-मृग बेचारे,
भूल गये जो मंजिल उनको
पहुँचाता तू प्रभु के द्वारे
भवसागर में यान एक तू, भार लिए है कोटि मनों का।
मृत्यु स्वयं जीवन दे जिनको
वे मरकर भी नित्य अजर हैं
पर तुलसी हैं अमर राम से
या तुलसी से राम अमर हैं
करे हृदय पर राज सभी के, बन तू दास राम चरनों का।
सुरेन्द दीप
ग़ज़ल
चाहे वह जहाँ घटता है।
जुर्म, जुर्म ही होता है।
खोजते हो इंसा को क्यों?
वह यहाँ कहाँ रहता है?
तोड़ दो ये घेरा अब तो
मजहबों में दम घुटता है।
कौन ध्यान देगा तुझ पर
बहरों से क्यों कहता है।
‘दीप’ दर्द अपना मत कह,
दिल तेरा सब सुनता है।
मीना गुप्ता
तेरा साथ
तेरे साथ मुस्कराता है जीवन -
तेरे साथ गुनगुनाता है मन -
तेरे साथ महकती है फिजा -
तेरे साथ महक उठता है जीवन कानन,
तुम साथ होते हो, तो
सर्वत्र फैल जाता है संगीत -
लगता है -
हर तरफ बिखरे हों रंग -
तुम्हारे साथ तितली सा चंचल
हो उठता है ये मन -
पंख फैलाकर -
उड़ने को हो उठता है आतुर -
न जाने क्यों तुम्हारे साथ
रिमझिम बूँदों में घुल जाती है मादकता!
बूँद की टप-टप में
भर जाता है एक राग -
तुम्हारे साथ हवा भी हो उठती है चंचल -
उड़ाती है मेरा आँचल -
तुम्हारे साथ
बज उठती है मन-वीणा -
झंकृत हो उठते हैं
कितने ही मधुर राग?
तुम चुपचाप -
चले आते हो मेरे मन के द्वारे -
और दे जाते हो
अपना मधुर अहसास!
निर्मला अनिल सिंह
मौत
काली स्याह मौत
सार्वभौमिक कठोर सत्य है।
जो जन्मा है, उसे नष्ट अवश्य होना है
यह निर्ममता, क्रूरता, ईश्वर का अभिशाप है।
मौत में समता है, समानता है
शक्तिमान हो, धनवान हो, योग्य हो, अयोग्य हो
विद्वान हो, मूर्ख हो
सभी को अंगूठा दिखाती है मौत।
जिसे जब चाहती है, उठा ले जाती है
मौत अनिश्चित है,
कब? कहाँ? कारण, अकारण
सुविधा में आयेगी या दुविधा में
सभी अनिश्चित
मौत क्रूर है
न उम्र का ध्यान, न पद का ध्यान
न रूप रस के पंजे में बाँधती है
न जात-पाँत, ऊँच-नीच का भेद करती है
आती है निस्पन्द, निशंक
जाती है अश्रु और व्यथा देकर
कभी आती है वरदान बनकर
कभी अभिशाप बनकर
मारती है चाँटा,
तिलमिलाकर गाल भी
सहला नहीं पाते
सर्वदा के लिये शान्त हो सो जाते हैं।
न गिला कर पाते, न शिकवा
न प्रार्थना, न निवेदन
बस चले जाते है
उसके आगोश में
मौत, कब मेरे निकट आओगी?
लोरी सुना, अपने साथ ले जाओगी?
अशोक भारती ‘देहलवी’
खार इतराने लगे
माँझियों की तिनकों को है परवाह कब,
लहरों के सीने पर मुस्काने लगे।
काट आये थे जहाँ भर के शजर,
कोपलों में पौधे नये आने लगे।
दक्षिणा में माँग लेगा अँगूठा कोई
हाथ के करतब जो दिखाने लगे।
दे गये जीने के तरीके नये
बस भभूतों में ही बहलाने लगे।
सीख गये हैं जीने का हम भी हुनर,
अब थपकियों में कहाँ हम आने लगे।
एक ही थाली के बेंगन थे सभी,
सबके सब नये नजर आने लगे।
सच तो सच है आँच आती नहीं
परखने के नमूने बतलाने लगे।
भर दिये थे जख्म जो हालात ने
वो तेजाब के फोहों से सहलाने लगे।
कुछ कली के कान में कह गई हवा
और टहनियों पर खार इतराने लगे।
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. हरि जोशी, राम मेश्राम, प्रशान्त उपध्याय, शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’, डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’, सुरेन्द दीप, मीना गुप्ता, निर्मला अनिल सिंह एवं अशोक भारती ‘देहलवी’ की काव्य रचनाएं।
डॉ. हरि जोशी
(प्रतिष्ठित कवि-व्यंग्यकार डॉ. हरि जोशी जी का द्विभाषी काव्य संग्रह ‘हरि जोशी-67’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ है। इसमें उनकी 67 हिन्दी कविताएं और साथ ही उनके स्वयं द्वारा किए अंग्रेजी अनुवाद संग्रहीत हैं। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं।)
मैं तुम्हें आमंत्रित करता हूँ बार-बार,
किंतु तुम देखते तक नहीं मेरी ओर
आदमी से दूरियों की
फिक्र मैं नहीं करता
स्वार्थ केन्द्रों से निभा पाता नहीं
शाश्वत नाते।
काश! तुम आते
तनिक लेकर सहारा हम गाते
दोस्ती का हाथ थामो
अनछुए नूतन विचार।
दुनिया को विस्मृत कर,
खुशी-खुशी छांह में,
तुम्हारी, रह सकता हूँ।
मिशिगन झील राजनीतिज्ञ तो नहीं?
इतना जल कोष लिए रंग क्यों बदलती ये,
सुबह सुबह सूरज जब उदय हो रहा होता,
जल होता चमकीला, सिंदूरी सोना पीला,
धुंध घटा देखते ही पड़ता व्याकुल नीला।
रात के अंधेरे में दैत्य-सा काला स्वरूप
किनारे पहुँचते ही खो देता रंग रूप
सूर्य के अवसान समय, पानी होता रक्तिम,
रंग बदलते जाना क्या आस्था बदलना नहीं?
गिरगिट या राजनीति किसकी पिछलग्गू
अक्सर बन जाती हैं बड़ी-बड़ी झीलें।
घूमती हुई कुर्सी
रेखांकन : पारस दासोत |
किसी एक की नहीं रही कभी
बार-बार बदलती रही ग्राहक
जितनी चमकीली, उतनी प्रतिद्वंद्विता
उतनी ही मूल्यवान।
ग्राहक को भ्रम रहता, यह उसकी है।
मुस्कान बिखेरकर झुककर बुलाती है
ग्राहक का स्वागत कर।
उदासीन हो जाती है उसके चले जाने पर।
जिस कुर्सी को पाकर ग्राहक खुश होता
किंतु छिन जाने पर दूना दुख होता।
जितनी देर साथ-साथ,
उठा रहता आदमी थोड़ा ऊपर प्रमुदित
ऊपर से आकर्षक, सुंदर तन, मुद्रा में आमंत्रण
कुर्सी भी घूमती गणिका तो नहीं?
- 3/32, छत्रसाल नगर, फेस-2, जे के रोड, भोपाल-462022 (म.प्र.)
राम मेश्राम
ग़ज़ल
सच को सच की तरह बोलना है
दिल कि बुज़दिल हुआ जा रहा है
हम लड़कपन से मजमे के शैदा
हमसे पूछो कि मजमे में क्या है
लॉर्ड अमिताभ बच्चन तेरी जय
तूने लाखों में प्रभु ले लिया है1
कौन चिन्तन है मौलिक हमारा
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल |
गोलीबारी किसानों पे करके
आप कहते हैं जनहित किया है
तेरी अय्याश साँसों ने दिल्ली
हंस2 का हुस्न काला किया है
औरतों से ग़ज़ल कहने वाले
तेरी ग़ज़लों की औरत कहाँ है?
लाख यारों ने मातम मनाया
छन्द मरघट में नग़मासरा है
नीम ग़ाफ़िल मेरा दिल घड़ी से
पूछता है अभी क्या बजा है
{1 फरवरी 2007 में अमिताभ बच्चन का तिरुपति बालाजी
को भेंट-पूजा का प्रसंग।
2 काला हंस - श्रीमती चित्रा मुद्गल का वक्तव्य,
दुष्यन्त अलंकरण 2007 के अवसर पर
भोपाल में 1 अप्रैल 2007 को।}
- एफ-115/29, शिवाजी नगर, भोपाल-462016, म.प्र.
प्रशान्त उपध्याय
जंगल का दर्द
आदमी विवश करता है
जंगल को
खुद का भार ढोने के लिए
और जिस्म के रौंगटों की तरह
पल में उखाड़ फेंकता है
हरियाले वृक्ष
जंगल कुछ नहीं कहता
रहता है मौन
सोचता है-
बचे हुए वृक्षों की शाखों पर
रेखांकन : बी मोहन नेगी |
चहचहाता है
किन्तु जंगल को कुछ नहीं सुहाता है
जिसे सब कहते हैं नदी
जंगल चुपचाप आंसू बहाता है
आओ जंगल के
घाव सहलायें
जंगल
वाण लगे हिरण सा
कातर खड़ा है
जंगल का दर्द
जंगल से बड़ा है!
- 364, शम्भू नगर, शिकोहाबाद-205135, जिला-फिरोजाबाद (उ.प्र.)
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
(चर्चित कवि-गीतकार सहयोगी जी ने दुमदार दोहा लेखन में भी अच्छा कार्य किया है। हाल ही में उनके दुमदार दोहों का संग्रह ‘दुम दार दोहे’ प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से कुछ दुमदार दोहे।)
दुमदार दोहे
01.
बूँद-बूँद बन टपकता, अंतस का अहसासमोती बन-बन विहँसता, ठिगना सा विश्वास
भाव पर पीड़ा भारी।
02.
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
मिलन नहीं है देखता, पर्वत खाई खेत
मिलन है एक पहेली।
03.
कंधे पर जिस बाप के, चढ़ी पुत्र की लाश
उसके मानस में कभी, खिलता नहीं पलाश
चुगे ही फूल धधकते।
04.
आम कटा महुआ कटा, कटी नीम की छाँव
बरगद पीपल कट गये, नहीं रहा अब गाँव
गाँव को निगला बगुला।
05.
उड़-उड़ चुनरी कह रही, दिल की मस्त उमंग
चलो पवन मैं भी चलूँ, आज तुम्हारे संग
बनी मैं उड़नखटोला।
06.
फूलों के मकरंद पर, जब तक रहती भीड़
जब तक उसके गंध की, गंध न होती क्षीण
यही है दुनियादारी।
07.
जहाँ पली इच्छा प्रबल, सीढ़ी चढ़ा प्रयास
साहस के उस गाँव में, उगी सफलता घास
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
08.
पंडुक सी यह जिन्दगी, ठीहा रही तलाश
पंख पुराने हो गये, फिर भी नहीं हताश
स्वप्न हैं अभी अधूरे।
09.
नागफनी सा हो गया, आँगन का फैलाव
सूनापन है ढूँढ़ता, कलियों का दरियाव
नहाये मन बहलाये।
10.
दरिया में पानी नहीं, खाली पड़ा इनार
गायब है अब घेर से, पहले वाला प्यार
चली हैं कौन हवायें।
- ‘शिवाभा’, ए-233, गंगानगर, मवाना मार्ग, मेरठ-250001 (उ.प्र.)
डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’
गोस्वामी तुलसीदास
एक स्वप्न है तू जीवन का, एक सत्य है तू सपनों का।
तुलसी तेरा जीवन लेकर
पावस की हैं सरस दिशाएँ,
पावस की ऋतु कुऋतु नहीं अब
रहीं अमावस अब न निशाएँ,
अश्रु बने आँखों के तारे, ज्योतिचंद्र तू सब नयनों का।
रामचरित मानस, गीतावलि,
विनयपत्रिका की डाली पर,
सत्यं शिवं सुंदरम के सब
फूल फूलते नव लाली भर,
छाया चित्र : रोहित कम्बोज |
विषयों के मृगजल के प्यासे
भटक रहे मन-मृग बेचारे,
भूल गये जो मंजिल उनको
पहुँचाता तू प्रभु के द्वारे
भवसागर में यान एक तू, भार लिए है कोटि मनों का।
मृत्यु स्वयं जीवन दे जिनको
वे मरकर भी नित्य अजर हैं
पर तुलसी हैं अमर राम से
या तुलसी से राम अमर हैं
करे हृदय पर राज सभी के, बन तू दास राम चरनों का।
- 1436/बी, सरस्वती कॉलोनी, चेरीताल वार्ड, जबलपुर-482002 (म.प्र.)
सुरेन्द दीप
ग़ज़ल
चाहे वह जहाँ घटता है।
जुर्म, जुर्म ही होता है।
खोजते हो इंसा को क्यों?
वह यहाँ कहाँ रहता है?
तोड़ दो ये घेरा अब तो
मजहबों में दम घुटता है।
कौन ध्यान देगा तुझ पर
बहरों से क्यों कहता है।
‘दीप’ दर्द अपना मत कह,
दिल तेरा सब सुनता है।
- 89/293,बांगुड़ पार्क, रिसड़ा -712248 (प.बंगाल)
मीना गुप्ता
तेरा साथ
तेरे साथ मुस्कराता है जीवन -
तेरे साथ गुनगुनाता है मन -
तेरे साथ महकती है फिजा -
तेरे साथ महक उठता है जीवन कानन,
तुम साथ होते हो, तो
सर्वत्र फैल जाता है संगीत -
लगता है -
हर तरफ बिखरे हों रंग -
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
हो उठता है ये मन -
पंख फैलाकर -
उड़ने को हो उठता है आतुर -
न जाने क्यों तुम्हारे साथ
रिमझिम बूँदों में घुल जाती है मादकता!
बूँद की टप-टप में
भर जाता है एक राग -
तुम्हारे साथ हवा भी हो उठती है चंचल -
उड़ाती है मेरा आँचल -
तुम्हारे साथ
बज उठती है मन-वीणा -
झंकृत हो उठते हैं
कितने ही मधुर राग?
तुम चुपचाप -
चले आते हो मेरे मन के द्वारे -
और दे जाते हो
अपना मधुर अहसास!
- द्वारा विनोद गुप्ता, निराला साहित्य परिषद, कटरा बजार,महमूदाबाद, सीतापुर-261203 (उ.प्र.)
निर्मला अनिल सिंह
मौत
काली स्याह मौत
सार्वभौमिक कठोर सत्य है।
जो जन्मा है, उसे नष्ट अवश्य होना है
यह निर्ममता, क्रूरता, ईश्वर का अभिशाप है।
मौत में समता है, समानता है
शक्तिमान हो, धनवान हो, योग्य हो, अयोग्य हो
विद्वान हो, मूर्ख हो
सभी को अंगूठा दिखाती है मौत।
जिसे जब चाहती है, उठा ले जाती है
मौत अनिश्चित है,
कब? कहाँ? कारण, अकारण
रेखांकन : के. रविन्द्र |
सभी अनिश्चित
मौत क्रूर है
न उम्र का ध्यान, न पद का ध्यान
न रूप रस के पंजे में बाँधती है
न जात-पाँत, ऊँच-नीच का भेद करती है
आती है निस्पन्द, निशंक
जाती है अश्रु और व्यथा देकर
कभी आती है वरदान बनकर
कभी अभिशाप बनकर
मारती है चाँटा,
तिलमिलाकर गाल भी
सहला नहीं पाते
सर्वदा के लिये शान्त हो सो जाते हैं।
न गिला कर पाते, न शिकवा
न प्रार्थना, न निवेदन
बस चले जाते है
उसके आगोश में
मौत, कब मेरे निकट आओगी?
लोरी सुना, अपने साथ ले जाओगी?
- रीना एकेडमी जूनियर हाईस्कूल, हाइडिल कॉलोनी,, रानीखेत (उत्तराखण्ड)
अशोक भारती ‘देहलवी’
खार इतराने लगे
माँझियों की तिनकों को है परवाह कब,
लहरों के सीने पर मुस्काने लगे।
काट आये थे जहाँ भर के शजर,
कोपलों में पौधे नये आने लगे।
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
दक्षिणा में माँग लेगा अँगूठा कोई
हाथ के करतब जो दिखाने लगे।
दे गये जीने के तरीके नये
बस भभूतों में ही बहलाने लगे।
सीख गये हैं जीने का हम भी हुनर,
अब थपकियों में कहाँ हम आने लगे।
एक ही थाली के बेंगन थे सभी,
सबके सब नये नजर आने लगे।
सच तो सच है आँच आती नहीं
परखने के नमूने बतलाने लगे।
भर दिये थे जख्म जो हालात ने
वो तेजाब के फोहों से सहलाने लगे।
कुछ कली के कान में कह गई हवा
और टहनियों पर खार इतराने लगे।
- 562, पॉकेट-2, सेक्टर-4, निकट बालकराम अस्पताल, तिमारपुर, दिल्ली-110054
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