आपका परिचय

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : जुलाई 2012

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 1,   अंक  :  11, जुलाई  2012 


प्रधान संपादिका :  मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09412842467)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


।।सामग्री।।


रेखांकन : राजेन्द्र सिंह 
     कृपया सम्बंधित सामग्री के पृष्ठ पर जाने के लिए स्तम्भ के साथ कोष्ठक में दिए लिंक पर क्लिक करें ।







अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत} :  इस अंक  में कपिलेश भोज, कन्हैयालाल  अग्रवाल ‘आदाब’, कृष्ण सुकुमार, अजय चन्द्रवंशी, अनिमेष, कुँवर विक्रमादित्य सिंह, चन्द्रा लखनवी, रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इंदु' की  काव्य-रचनाएँ।

लघुकथाएं   {कथा प्रवाह} :  इस अंक में स्व. जगदीश कश्यप, सीताराम गुप्ता, मदन मोहन उपेन्द्र, दिलीप भटिया, शोभा रस्तोगी शोभा एवं मोहन लोधिया की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी पिछले अंक तक अद्यतन

क्षणिकाएं  {क्षणिकाएँ इस अंक में डॉ. मिथिलेश दीक्षित एवं अनवर सुहैल की क्षणिकाएं।

हाइकु व सम्बंधित विधाएं  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक  में केशव शरण एवं शिव कुमार पाण्डेय ‘विराट’के हाइकु ।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:  इस अंक में पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’  के जनक छंद। 


हमारे सरोकार  (सरोकार) :  रचना रस्तोगी का आलेख "प्राइवेट डेंटल एवं सरकारी डेंटल कोलिजों में इलाज के नाम पर जिन्दा मनुष्यों पर अत्याचार क्यों?" 

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:  इस अंक में डॉ गोपाल बाबू शर्मा का व्यंग्यालेख 'बिकने में ही सार'।

स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण पिछले अंक तक अद्यतन

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :  इस अंक में विधागत विमर्श पर तीन आलेख- 1. हाइकु : क्षण की अनुभूति का काव्य / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’; 2- क्षणिका का रचना-विधान / डॉ बलराम अग्रवाल एवं 3- क्षणिका की सामर्थ्य / डा. उमेश महादोषी।

किताबें   {किताबें} : इस अंक में उमेश महादोषी द्वारा दो समीक्षाएं- 'बूँद से समुद्र तक : समय-सापेक्ष लघुकथाएँ' (बूँद से समुद्र तक : डॉ सतीश दुबे ) एवं 'हिंदी लघुकथा : समकालीन लघुकथा की पड़ताल' (हिंदी लघुकथा : डॉ शकुंतला किरण)।

लघु पत्रिकाएं   {लघु पत्रिकाएँ} : पिछले अंक तक अद्यतन

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} : अप्रैल-जून 2012 अंक तक अद्यतन

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : अविराम के ग्यारह और रचनाकारों का परिचय।



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  उमेश महादोषी
।।मेरा पन्ना।।

  • कई बार हमें सामाजिक समस्याओं पर आलेख प्राप्त होते है।  साहित्यिक पत्रिका होने के नाते अभी तक इस तरह के आलेखों को हमने अविराम में स्थान नहीं दिया है। सामान्यत: भविष्य में भी इस ओर ध्यान देना हमारे लिए संभव नहीं होगा। परन्तु कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं कि उन पर प्राप्त आलेखों पर ध्यान न देना अपने सामाजिक सरोकारों की उपेक्षा करने जैसा होगा। पिछले दिनों मेरठ की एक जागरूक लेखिका रचना रस्तोगी जी का एक ऐसा ही लम्बा आलेख "प्राइवेट डेंटल एवं सरकारी डेंटल कोलिजों में इलाज के नाम पर जिन्दा मनुष्यों पर अत्याचार क्यों?" शीर्षक से हमें प्राप्त हुआ है। इस आलेख में उन्होंने मेडिकल शिक्षा एवं चिकित्सा संबंधी कई ज्वलंत प्रश्न उठाये हैं। हमने  उनके आलेख के परिप्रेक्ष्य में एक नया लेवल (खंड) "हमारे सरोकार" शीर्षक से आरम्भ करके उनका उक्त आलेख रखा है। पाठकों से अपील है की इस आलेख को अवश्य पढ़ें और अपनी राय रक्खें। इस तरह की समस्याओं पर भविष्य में महत्वपूर्ण आलेख ई मेल से कृतिदेव 010 या यूनिकोड फॉण्ट में प्राप्त होने पर हम शामिल करने का प्रयास करेंगे। अंग्रेजी में प्राप्त सामग्री का उपयोग संभव नहीं होगा।
  •         अविराम साहित्यिकी का दिसम्बर 2012 मुद्रित अंक ‘लघुकथा विशेषांक’ होगा, जिसके अतिथि सम्पादक हैं वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चिन्तक-समालोचक आदरणीय डॉ. बलराम अग्रवाल जी। लघुकथाकार मित्र अपनी प्रतिनिधि/श्रेष्ठ लघुकथाएं डॉ. बलराम अग्रवाल जी (मोबाइल न. 09968094431) को उनके पते ‘ एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के सामने, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 पर भेजकर सहयोग करें। रचनाएं उनके ई मेल 2611ableram@gmail.com पर भी कृतिदेव 010 या यूनीकोड फोन्ट में वर्ड की फाइल बनाकर भेजी जा सकती हैं। कृपया स्केन रूप में रचनाएं न भेजें। अगस्त 2012 के बाद प्राप्त सामग्री को शामिल करना मुश्किल होगा, अत: अपनी रचनाएँ सीधे डॉ बलराम अग्रवाल जी को शीघ्रातिशीघ्र भेजने का कष्ट करे।
  • सामान्य अंकों एवं ब्लॉग हेतु लघुकथाएं हमें रुड़की के पते पर भेजते रहिये।  
  •     अविराम के नियमित स्तम्भों के लिए क्षणिकाएं एवं जनक छंद की स्तरीय रचनाएं बहुत कम मिल पा रही हैं। क्षणिका पर हमारी एक और योजना भी विचाराघीन है। रचनाकारों से अपील है कि स्तरीय क्षणिकाएं अधिकाधिक संख्या में भेजकर सहयोग करें। 
  • इस बार विमर्श में हमने अविराम मुद्रित संस्करण में पूर्व प्रकाशित क्षणिका पर दो एवं हाइकु पर एक आलेख रक्खा है। इन आलेखों से  रचनाकार मित्रों को इन दोनों काव्य विधाओं पर हमारे दृष्टिकोण  को समझने में सुविधा होगी।
  •     शीघ्र ही अविराम ब्लाग पर ‘प्रवासी भारतीय रचनाकारों’ के सृजन का एक अलग खण्ड आरम्भ करना चाहते हैं। अतः प्रवासी रचनाकारों से उनकी प्रतिनिधि रचनाएं ई मेल से सादर आमन्त्रित हैं। कृपया रचनाओं के साथ अपना फोटो, पता व साहित्यिक उपलब्धियों एवं योगदान सहित अद्यतन परिचय भी भेजें। यदि भारत में आपका कोई स्थाई पता है, तो सूचित करने पर अविराम के सम्बंधित मुद्रित अंक की प्रति उस पते पर भेजी जा सकेगी।
  •         हमारे बार-बार अनुरोध के बावजूद कुछ मित्र अविराम साहित्यिकी का शुल्क ‘अविराम साहित्यिकी’ के नाम भेजने की बजाय मेरे या प्रधान सम्पादिका के पक्ष में इस तरह से चैक बनाकर भेज देते हैं, कि उन चैकों का भुगतान हमारे लिए प्राप्त करना सम्भव नहीं होता है। इस तरह के चैकों को वापस करना भी हमारे लिए बेहद खर्चीला होता है, अतः हम ऐसे चैक वापस कर पाने में असमर्थ हैं।  उन्हें अपने स्तर पर नष्ट कर देने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। 
  • अविराम के मुद्रित अंकों में जुलाई-सितम्बर 2012 अंक से पृष्ठों की संख्या बढ़ाकर 72+04=76 की जा रही है। बढ़े हुए पृष्ठों के दृष्टिगत वार्षिक एवं आजीवन सदस्यता शुल्क में कुछ माह बाद बृद्धि की जायेगी, अत: जो मित्र आजीवन सदस्य बनना चाहते हैं, फ़िलहाल पुराना शुल्क (रुपये 750/-) ही भेजकर आजीवन  सदस्य बन सकते हैं।
  •     यदि वास्तव में आप इस लघु पत्रिका की आर्थिक सहायता करना चाहते हैं तो किसी भी माध्यम से राशि केवल ‘अविराम साहित्यिकी’ के ही पक्ष में एफ-488/2, गली संख्या-11, राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार, उत्तराखंड के पते पर भेजें और जहां तक सम्भव हो एकमुश्त रु.750/- की राशि भेजकर आजीवन सदस्यता लेने को प्राथमिकता दें। आपकी आजीवन सदस्यता से प्राप्त राशि पत्रिका के दीर्घकालीन प्रकाशन एवं भविष्य में पृष्ठ संख्या बढ़ाने की दृष्टि से एक स्थाई निधि की स्थापना हेतु निवेश की जायेगी। कम से कम अगले दो-तीन वर्ष तक इस निधि से कोई भी राशि पत्रिका के प्रकाशन-व्यय सहित किसी भी मद पर व्यय न करने का प्रयास किया जायेगा।
  •  विगत 25 मई को वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुरेन्द्र मंथन जी का कैंसर से जूझते हुए तथा 15 जुलाई को कवि साहिल सहरी जी का निधन हो गया। दोनों ही विभूतियों को हम हार्दिक श्रृद्धांजलि अर्पित करते हैं।


अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 11,  जुलाई   2012  


।।कविता अनवरत।।



सामग्री :  कपिलेश भोज,  कन्हैयालल अग्रवाल ‘आदाब’, कृष्ण सुकुमार, अजय चन्द्रवंशी, अनिमेष, कुँवर विक्रमादित्य सिंह, चन्द्रा लखनवी, रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इन्द’ की काव्य-रचनाएँ।





कपिलेश भोज 






विदीर्ण करो यह कुहासा

शिक्षा पर
जितने बढ़ रहे हैं प्रवचन और प्रशिक्षण
उतने ही
शिक्षकों और जरूरी साजोसामान से
खाली होते जा रहे हैं स्कूल और कॉलेज...
स्वास्थ्य पर
जितनी ही बढ़ रही हैं संगोष्ठियाँ और कार्यशालाएँ
डॉक्टरों और दवाओं से
उतने ही 
वंचित होते जा रहे हैं अस्पताल...
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव 
जनतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी पर
जितनी बढ़ रही हैं घोषणाएँ
लिखने-पढ़ने और सोचने-विचारने के नैसर्गिक अधिकार पर
उतने ही 
सख्त होते जा रहे हैं पहरे...
हे बन्धु!
कथनी और करनी के इस मायाजाल के उद्गम का
करो सन्धान
और 
विदीर्ण करो यह कुहासा
ताकि
देख सको इसके पार....

उम्मीदों के हरकारे

बदहाली 
और नाउम्मीदी की 
स्याह कठोर चट्टानों से घिरे
दुर्गम पथ से गुजरते
देखो
उम्मीदों के इन हरकारों को...
छिल गए हों
भले ही पैर
हिंस्र पशुओं के हमलों से
छायाचित्र  : डॉ बलराम अग्रवाल 
हो गए हों क्षत-विक्षत
मगर
नष्ट नहीं कर सका कभी
कोई भी झंझावात इन्हें 
पहचानो
हाँ, ठीक-ठीक पहचानो इन्हें
ये ही तो हैं
हर अँधेरे को चीर देने के लिए सन्नद्ध
तुम्हारे धनुर्धर 
जिनके शरों को चाहिए
केवल तुम्हारा संबल....

  • स्थान एवं पो0 सोमेश्वर, जिला-अल्मोड़ा (उत्तराखण्ड)-263637


कन्हैयालल अग्रवाल ‘आदाब’






ग़ज़ल


एक, दो, दस नहीं, सौ बात से डर लगता है
इस खुली धूप में, बरसात से डर लगता है


रेखांकन : पारस दासोत 
यह तो ख्वाहिश है कि उनसे हो मुलाकात मगर
मिल के बिछड़ेंगे वो, इस बात से डर लगता है


ठहरे हैं घर में वो अंजान की मानिंद आकर
अपने ही घर, दरो-दीवार से डर लगता है


फिर से लायेगा ख़बर ये किसी खूंरेजी की
इसलिए सुबह के अखबार से डर लगता है


इसमें अब पहले सी अपनात न है ‘आदाब’
अब तो इस शहर में रहने से डर लगता है



  • बंगला नं. 89, गवालियर रोड, नौलक्खा, आगरा-282001



कृष्ण सुकुमार






ग़ज़ल
       
मुझे  ज़ख़्मों भरे दिल को  दिखाना  भी नहीं आता
मुझे  जलते हुए  ख़ुद को बुझाना भी  नहीं आता


मैं  ख़ुश्बू  का चहेता हूँ  वो तेरी हो  या फूलों की
मगर काँटों से  दामन को  बचाना  भी नहीं आता


मुझे आता है  पलकों पर बैठाना  दोस्त को बेशक
छायाचित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
मगर  दुश्मन को नज़रों से गिराना भी नहीं आता


सफ़र  ऐसा कि चाहूँ भी तो रूकने का कहीं कोई
बहाना  भी नहीं मिलता,  ठिकाना  भी नहीं आता


फ़क़त इतनी गुज़ारिश है,  मेरी भूलों पे मत जाना
मुझे  रूठे हुए  रब  को  मनाना  भी  नहीं आता


अगर  ख़ुद्दार  है तो अपनी  ख़ुद्दारी पे क़ाइम रह
मुझे  झुकना  नहीं आता,  झुकाना भी नहीं आता

  • 153-ए/8, सोलानी कुंज,  भा. पौ. सं., रूड़की-247667(उत्तराखण्ड)



अजय चन्द्रवंशी 








ग़ज़ल




इस बेजान मोहब्बत का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।
दो दिन की दीवानगी का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।


न मैं ही अपनी जड़ को छोड़ पाया, न तुम दुनियाँ को,
इस कश-म-कश का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।


रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
हम एक-दूसरे पर बन्दूक तानकर खड़े हैं, मगर
जानता हूँ ऐसे हालात का गिला मुझे भी है तुम्हें भी है।


न तुम अपने कमरे से निकलते हो, न मैं
बीच के इस दीवार का गिला मुझे भी है, तुम्हे भी है।


बदनसीबी आज तू भी पूरी सिद्दत के साथ आ,
ऐसे मर-मर के जीने का गिला मुझे भी है तुम्हे भी है। 



  • राजमहल चौक, फूलवारी के सामने, कवर्धा, जिला- कबीरधाम-491995 (छ.गढ़)





(दो युवा कवियों अनिमेष एवं कुंवर विक्रिमादित्य सिंह के कविता संग्रह क्रमश: 'मायके लोटती नदी' व 'कुछ तो बाकी रह  गया' हाल  ही में प्रकाशित हुए हैं। दोनों संभावनाशील कवियों के संग्रहों से प्रस्तुत हैं दो-दो कवितायेँ।)




अनिमेष 






मनुष्यता से प्यार की पाती


आज चाहता हूँ लिखना
प्यार की कोई एक पाती
जिसमें निर्बंध अस्मिता
मनुष्यता की, हो गीत गाती
शब्द- साजों पर अन्तरात्मा से
उल्लास रंजित धुन बजाती
जिसमें न हो प्रिया के मिलन की
कोई वैयक्तिक राग की आकुलता
और न हो विरह की सुधियों का
जिसमें कोई दंश घुलता
छाया चित्र : रोहित काम्बोज 
जहाँ आँतें करोड़ों आदमी की
भूख से हों बुलबुलातीं
और पलक पर शिशुओं की
हों निरन्तर अश्रुओं की छंद सजातीं
वहाँ अपनी वेदना का व्यर्थ है बीन-वादन
मैं चाहता हूँ लिखना
जो प्यार की पाती
उसमें मनुष्यता की मुक्ति की हो बात
जो निःशेष कर दे
बन्धनों की युग लम्बी रात


प्रेम की गंगा बहे


कामना है इस धरा पर
प्रेम की गंगा बहे
ले सुधा का कोष सारा 
अपनी दिव्यता की दीप्ति में
रंजित करे संसार को देवत्व आकर
ऋषियों की आर्ष-वाणी
रावणों-दुःशासनों के
रेखांकन : बी मोहन नेगी 
रक्तपायी मन को बदल दे
वर्जन न हो सत्य का
अर्चन न हो असत्य का
सृजन हो तो सद्भाव का
सुन्दरं का विश्व रचे कोई बुद्ध आकर
हिंसा की जो चिरनीद्रित निशा है
बर्बरता की जो बज्र बधिर दिशा है
करुणा के निर्मल नीर नहा
जागे और खुल जाए, धुल जाए
मन विमल हो जाए
महावीर की सम्यक् ज्ञान-गंगा में धुलकर
प्रेम के रंग में गाँधी की अहिंसा रंग जाए
ईसा कर दे शमित युद्ध के उन्माद को


('मायके लोटती नदी' में संग्रहीत )

  • एस.पी. कोठी के पीछे, एस.डी.ओ. रोड, हाजीपुर, वैशाली (बिहार)





कुँवर विक्रमादित्य सिंह






कुछ तो बाकी रह गया


कुछ तो बाकी रह गया है!
मौन यह तन हो गया है
अल्प ये उल्लास के स्वर
कहाँ वह जो राग थे प्रखर
काल भी अँगड़ाए कैसे
प्रश्न की परछाई क्या थी
मैं निरंतर सभी में हूँ
विजय का जो पर्व था ही
अब लगे ना सर्वथा भी
छायाचित्र : उमेश महादोषी 
परन्तु यह भाव अब है
आ खड़े है और अड़े हैं
कैसे थे अब मन अभिनंदन
नव तरंगों में जो हर मन
यह स्पर्श यों कह गया है,
कुछ तो बाकी रह गया है।
रात की भी नीड़ कैसी
किसलिए यह सब उत्पत्ति
अब जो सामने बन विपत्ति
मार्ग को ले किस दिशा में
कौन देखे क्या दशा है
कुछ तो बका रह गया है।
लेखनी के बल पे देखो
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र  वर्मा 
स्वार्थ ना भई! धैर्य रखो
अन्यथा जो समय है गया
मौन चितवन हो गया है,
कुछ तो बाकी रह गया!


ज्योत्सना


राग के अनुराग पथ पर
टूटे-फूटे प्रेरणा पग धर
कुटिया हो या महल बराबर
गति के संग चला मन सागर
मध्यकाल जब जाता है मर
बुद्धि की मृत्यु स्पष्ट गोचर
शर से छूट आत्मा अग्रसर
देखे मूर्खों को डर-डर
अंतिम हो, अंतिम अट्हास बस भर
अनेकों की विषाक्त कीचड़ भर
कहीं पथ है जहाँ तम भर
नीड़ में घन-घन की गर्जना
एक शांत स्थिर प्राण की ज्योत्सना


('कुछ तो बाकी रह गया ' में संग्रहीत )

  • 1, छिब्बर मार्ग, (आर्य नगर), देहरादून-248001(उ.खंड)



चन्द्रा लखनवी 


ग़ज़ल


कहाँ हैं वो कहाँ हूँ मैं मुकद्दर उनसे मिलवा दे।
मेरी बेताब नज़रों को झलक उनकी दिखला दे।


दिया दिल मैंने उनको था मगर अब जान दे दूँगा
छायाचित्र : उमेश महादोषी 
तमन्ना है कि मुझको वो दमे-गुस्ल आके नहला दे


क़यामत का सहारा है कि शायद वो मिलें आकर
ग़मे-हिज़्रां सुनाऊँगा ख़ुदा ख़िलवत में मिलवा दे


ख़ुदा इस रौशनी को तेज़ अब इतना तो कर दे जो
हरीसों को मेरी मय्यत के खाली हाथ दिख़ला दे


कहीं ये मुर्दे भी उठकर लगें न नाचनें ‘चन्द्रा’
तिलिस्म कुछ उनका ऐसा है जो मुर्दौ को भी बहका दे



  • 922, जनकपुरी, बरेली-243122 (उ.प्र.)



रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इन्द’






ग़ज़ल


रंग पै रंग कितने हुये
रंग बेरंग कितने हुये


जिन्दगी जी सके आदमी
इसलिए ढंग कितने हुये


रोज कानून बनता गया
रोज ही भंग कितने हुये


छाया चित्र : अभिशक्ति 
रेत मेरा मुकद्दर हुआ
रेत में गंग कितने हुये


दूर अपनों से होते गये
दूसरे संग कितने हुये


बेहया, बेवशी, बेरुखी
हर गली नंग कितने हुये


इन्दु रिश्ते बदलने लगे
आदमी तंग कितने हुये



  • इंदु साहित्य सदन, बड़ा गांव स्टैण्ड, झांसी-284121 (उ.प्र.)


अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 11,  जुलाई   2012  

।।कथा प्रवाह।।  

सामग्री : स्व. जगदीश कश्यप, सीताराम गुप्ता, मदन मोहन उपेन्द्र, दिलीप भटिया, शोभा रस्तोगी शोभा एवं मोहन लोधिया की लघुकथाएँ। 


स्व. जगदीश कश्यप




उपकृत

     मूसलाधार बारिश में रामदीन की कोठरी लगातार टपक रही थी। सुन्न कर देने वाली ठण्ड में रामदीन की पत्नी झुनिया भगवान को कोस रही थी और उसके दोनों बच्चे बापू-बापू की आवाज में ठिठुरते हुए डकरा रहे थे। 
     रामदीन साहब का विश्वसनीय नौकर था, उनके बाप के जमाने का। ‘‘आज के नौकर बड़े हरामजादे होते हैं। न काम-न-धाम, बस तनख्वाह बढ़ा दो!’’ साहब ने यह बात उस वक्त कही जब रामदीन अंग्रेजी शराब की बोतल ले आया और बोरी का छाता सिर पर रखे, ठिठुरता हुआ आगामी हुक्म का मुंतजिर था।
    ‘‘भई नौकर है तो कमाल का,’’ मेहमान ने कहा- ‘‘देखो, कहीं से भी लाया पर इतनी रात में इस ब्राण्ड की दूसरी बोतल मिलनी मुश्किल थी। पहली बोतल में तो मजा आया नही!’’ यह कहते उन्होंने जेब में हाथ डालकर नोट निकालकर और बोले- ‘‘ये लो बाबा दस रुपए। बाल-बच्चों के लिए कुछ ले जाना। बड़ी ठण्ड पड़ रही है और देखो, तुम भीग गए हो, कहीं बीमार न पड़ जाओ।’’
छाया चित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 
     बाबा शब्द से रामदीन चौंक गया। अभी तो वह अड़तालिस साल का है। दाढ़ी रखने का यह मतलब नहीं कि आदमी बूढ़ा हो गया। ‘‘रामदीन, ले लो रामदीन हम तुम्हें खुशी से दे रहे हैं।’’
    इस पर कोठी के मालिक ने गर्वपूर्वक कहा, ‘‘ये हमारा बफादार नौकर है, एक पैसा बख्शीश का न लेगा।’’
    मालिक ने कहा, ‘‘अच्छा रामदीन रात हो गई है, तुम अब जाओ। आज हम तुमसे बहुत खुश हैं!’’ ऐसा कहते ही उन्होंने एक पैग चढ़ा लिया और बुरा-मुँह बनाकर काजू की प्लेट की तरफ हाथ बढ़ाया।
    यद्यपि रामदीन ठण्ड से बुरी तरह कांप रहा था तथापि वह खुशीदृखुशी अपनी कोठरी की तरफ बढ़ रहा था यह बताने की आज मालिक उससे बहुत खुश है। (‘लघुकथा डाट काम’ से साभार)





सीताराम गुप्ता





इज़्ज़तदार

     भाई साहब आते ही शुरू हो गए। उनकी ख़ुशी दबाए नहीं दब रही थी। बात ही कुछ ऐसी थी। अलका का रिश्ता जो तै हो गया था। कहने लगे कि बहुत पैसे वाले और इज़्ज़तदार लोग हैं। मैं तो उनके मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरता। बड़ा-सा ए.सी. ऑफिस और कई फैक्ट्रियाँ हैं। गोदाम तो इतने बड़े-बडे़ हैं कि ट्रक सीधे अंदर चले जाते हैं। बाहर ताले लगा देते हैं और अंदर काम होता रहता है। आने-जाने के ऐसे ख़ुफिया रास्ते बना रखे हैं कि बाहर का आदमी पर नहीं मार सकता। ऐसे ख़ुफिया कैमरे फिट कर रखे हैं कि अंदर बैठे बाहर का सारा हाल पता लगता रहता है। अनजान आदमी के गली में घुसने से पहले ही पता लग जाता है।
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
    भाई साहब बोले कि भई रवि मैंने तो साफ कह दिया था कि मैं तो ‘‘एट हंड्रेड’’ से ज़्यादा बड़ी गाड़ी नहीं दे सकता। इस पर लालाजी कहने लगे कि हमने आपसे गाड़ी लेने के लिए थोड़े ही रिश्ता जेाड़ा है। आप इज़्ज़तदार और शरीफ़ आदमी हैं। हम तो बस आपकी शराफ़त के कायल हो गए और लड़की हमें पसंद है। रही गाड़ी की बात तो वो तो आपको लानी ही है। तिलक की रस्म वाले दिन गाड़ी सुबह-सुबह ही आपके दरवाज़े पर पहुँच जाएगी। आपको बस अपने साथ लानी है। कह रहे थे कि लड़के को कोई इंपोर्टेड गाड़ी पसंद है। मँगवाने का ऑर्डर भी दे दिया है।
    इतना सब कहकर भाई साहब चुप हो गए और मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए प्रश्नसूचक दृष्टि से मेरी ओर देखा। मेरे मुँह से बस इतना ही निकला कि बच्ची सुखी रहे इससे ज़्यादा और क्या महत्वपूर्ण हो सकता है? भाई साहब ने पता नहीं मेरी बात सुनी या नहीं पर बेटी को बड़ी गाड़ी देने के दर्प से उनकी आँखें रोल्स रॉयस की हैडलाइट्स की तरह जगमगा रही थीं। 

  • ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा, दिल्ली-110034


मदन मोहन उपेन्द्र



(उपेन्द्र जी का लघुकथा संगह ‘जब मूर्ति बोली’ अभी हाल ही में हमें पढ़ने का अवसर मिला। उनके संग्रह से प्रस्तुत हैं दो लघुकथाएँ।)

पैसा माई-बाप

    अन्धे के कटोरे में सिक्कों को खनकते देख, उसने अपने अन्दर का सभ्य मनुष्य कत्ल कर दिया और मान-अपमान का भाव हलक के नीचे उतार लिया। फिर बहुत ही धीमे और दबे शब्दों में बोला, ‘‘भाईजी मैं तुम्हें कुछ देने नहीं, मैं...मैं तो तुमसे कुछ पैसे माँगने आया हूँ’’। उसने बड़े झिझकते हुए, मन के उद्गार उड़ेल दिये।
    ‘‘अरे बाबू, तुम तो भिखारी नहीं लगते।’’ अन्धा बोला।
    ‘‘नहीं भाई, इस समय तो मैं भी मजबूरी में भिखारी ही हूँ।’’
    ‘‘झूठ, अन्धे का मजाक बना रहे हो’’ और वह अपने सिक्कों को झोली में छिपाता हुआ, घबरा सा गया। ‘‘झूठ नहीं भाई, सच है। मैं मजाक बिल्कुल नहीं कर रहा हूँ। मैं मन्दिर में मत्था टेकने आया हूँ। घर से खाली जेब ही चलता हूँ पर आज अचानक साइकिज पंचर हो गयी। पन्चर जोड़ने वाला मिस्त्री पचास पैसे माँग रह है। उधार इसलिए नहीं कर रहा, क्योंकि उसकी बोहनी नहीं हुई है। मैं भगवान से रोज भीख में दुआ ही माँगने आता हूँ। आज तुमसे पचास पैसे मांग लूँगा तो क्या बिगड़ जायेगा। मजबूरी में आदमी क्या नहीं करता। घर दो मील दूर है।’’
    बूढ़े ने सिलवर की टूटी कटोरी उसके आगे बढ़ा दी और कहने लगा, ‘‘बाबू ले लो, जितने पैसे चाहिए इसमें से ही निकाल लो।’’
    ‘‘नहीं, मैं ऐसे नहीं निकालूँगा, तुम अपने हाथ से दे दो।’’
    तब उस अन्धे ने उँगलियों से टटोल कर दस-दस के पाँच सिक्के उसकी हथेली पर रख दिये और वह उसके एहसान को दूसरे दिन लौटाने का वायदा कर गया। चलते हुए उसे एहसास हुआ कि सचमुच पैसा ही माई-बाप होता है।

पाँच साल बाद

    नेताजी चुनाव प्रचार में नंगे पाँव ही पहुँचे थे। वृद्धों ने उनका गद्गद होकर स्वागत किया था। पलक पाँवड़े बिछाये थे।
    वे तुनक कर बोले थे, ‘‘क्या इस गाँव में कोई मेहतर नहीं है, गाँव के गलियारों में कैसी गंदगी रहती है?’’
    सभी चुप थे, क्या जवाब दें। सोच नहीं पा रहे थे कि क्या उत्तर हो सकता है?
    एक युवक पीछे से बोला, ‘‘हाँ साहब, मेहतर तो है लेकिन पाँच साल बाद आता है।’’ यह सुनकर सभी हँस गये और नेताजी हाथ जोड़ कर सहमे हुए से आगे बढ़ गये।

  •  संयोजक, सम्यक संस्थान, ए-10, शान्ति नगर (संजय नगर), मथुरा-281001 (उ.प्र.)

दिलीप भटिया





सम्मान

मित्र राज कमल,
नमस्ते। फलते-फूलते, बच्चों के माता पिताओं से मोटी फीस व गुप्त रूप से डोनेशन लेने वाले शहर के नामी पब्लिक स्कूल में आपके द्वारा कमरों का निर्माण हुआ, मंत्रीजी से लोकार्पण हुआ, स्कूल प्रबधन ने आपका सम्मान किया, बधाई!
रेखांकन : नरेश कुमार उदास 
     अपनी क्या सुनाऊँ ? मां की पुण्य तिथि पर समीप के गांव के स्कूल में निर्धन छात्राओं हेतु चार सीलिंग फेन दिए, तो वहां के स्टाफ ने मुझे प्रशस्ति पत्र दिया, गांव के जंगली फूलों के बने हाथ से बनाए गए गुलदस्ते से मेरा सम्मान किया। मंत्री तो कोई नहीं आया, पर समारोह में स्कूल की मेडम ने जब धन्यवाद दिया तो उनका गला भर आया था एवं आंखें भीग गई थी। बस मुझे तो इतना सा ही सम्मान मिला।
     तुम्हारा सम्मान निश्चय ही सफल है, पर मुझे अपने पत्रं पुष्पं से मिले प्यार-स्नेह वाले निर्मल सात्विक सम्मान की भी सार्थकता तो महसूस हो ही रही है। सम्पर्क बनाए रखना।
मित्र - अरूण प्रसाद

  • 372 / 201, न्यूमार्केट, रावतभाटा-323307, राजस्थान 

    
शोभा रस्तोगी शोभा






खातिर 

      जरूरी काम से मै स्टोर रूम में गया। वहाँ सफाई कर्मचारी इमरती खाना खा रही थी। चार खाने का टिफिन सजा था....पकवान, फल इत्यादि।
     ‘वाह ! इमरती बड़ी खातिर हो रही है आजकल।’
     ख़ुशी के अतिरेक में वह बोली- ‘हाँ बाबूजी! बेटे-बहू दे गए हैं।’
     ‘बहुत बढ़िया। नसीब वाली हो जो ऐसे बहू-बेटे मिले हैं।’
     कह तो दिया मैंने। मेरे कहने का भाव आँसू बनकर इमारती की आँखों में छलक आया। अधिक देर ठहरना उचित न समझ मैं निकल लिया।
     ‘रामदीन स्टोर का काम बाद में देखेंगे। इमरती खाना खा रही है।’
     ‘हाँ बाबूजी आजकल खातिर जो हो रही है इमरती की।’
     ‘मतलब?’
    ‘महीने का आखिर....बाबूजी। तनख्वाह मिलने वाली है....फिर.....बाकी के पच्चीस दिन वही सूखी रोटी और हरी मिर्च।.... राम भजो।’
     मैं भौंचक। इमारती की आँखों में छलके आँसू अब मुझे समझ आ रहे थे।

  • आर जेड डी-20 बी,डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर- 2 पालम कालोनी, नई दिल्ली - 110077  

मोहन लोधिया 





माँ की बेबसी

छायाचित्र : अभिशक्ति 
   दीनदयाल को स्वर्गवासी हुए आज एक वर्ष हो गया। दीनदयाल के तीन पुत्र हैं। बड़ा बेटा 40 वर्ष पार कर चुका अपाहिज और बेरोजगार है। दोनों बेटे शामिल परिवार में रहकर नौकरी करते हैं। दीनदयाल ने एक गाय पाली थी, जो अब बूढ़ी हो चली थी, परन्तु कभी बछिया या बछड़े को जन्म नहीं दिया था। इससे गाय पर व्यर्थ ही खर्च हो रहा है, सोचकर दोनों नौकरी पेशा बेटों ने उसे कसाई को बेच दिया। दोनों बेटे पैसे गिन रहे थे। कसाई गाय को घसीटकर ले जा रहा था। गाय मुड़-मुड़कर देखती जा रही थी, इसी बीच मां (दीनदयाल की पत्नी) आ गयी। एक बेबस मां कभी दूसरी ओर बैठे बेरोजगार अपाहिज बेटे को, कभी जाती हुई गाय को टुकुर-टुकुर देख रही थी।


  • 135/136, ‘मोहन निकेत’, अवधपुरी, नर्मदा रोड, जबलपुर-482008 (म.प्र.)