अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 11, जुलाई 2012
{अविराम के ब्लाग के इस अंक में दो पुस्तकों की समीक्षा रख रहे हैं। कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।}
उमेश महादोषी
‘बूँद
से समुद्र तक’ डॉ॰ सतीश दुबे की
वर्ष 2011 में प्रकाशित नवीनतम लघुकथा-पुस्तक
है। चार खण्डों में विभक्त इस पुस्तक के पहले खण्ड में उनकी विगत तीन वर्षों में लिखी गई 104 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। दूसरे खण्ड में 1974 में प्रकाशित उनके पहले और चर्चित
लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’ की 18 प्रतिनिधि लघुकथाएँ और उक्त पुस्तक पर वरिष्ठ साहित्यकार
सूर्यकान्त नागर द्वारा लिखित समीक्षात्मक टिप्पणी शामिल है। ‘सिसकता उजास’
आठवें दशक का बेहद
महत्वपूर्ण संग्रह माना जाता है क्योंकि इसमें संग्रहीत लघुकथाएँ कथ्य, शिल्प, भाषा, सम्प्रेषणशीलता
आदि की दृष्टि से बेहद सशक्त एवं प्रभावशाली तो हैं ही, आधुनिक लघुकथा के रूप-स्वरूप के निर्धारण की दृष्टि से भी
अग्रणी रही हैं।
इस संग्रह में कथ्य की विविधिता की दृष्टि से लघुकथा के फलक को नए आयाम भी मिलते दिखाई देते
हैं। शायद इसीलिए ‘बूँद से समुद्र तक’
में इस संग्रह की प्रतिनिधि लघुकथाओं की पुनर्प्रस्तुति
की गई है। तीसरे खण्ड में 1965-66 में
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित बारह लघुकथाओं को शामिल किया गया है। यह वह समय था
जब आधुनिक लघुकथा अपना रूप-स्वरूप तलाश कर रही थी और समकालीन समाज के चेहरे, उसकी विसंगतियों और परिस्थितियों का
प्रतिबिम्ब साहित्य के
दर्पण में उभारने के लिए प्रयासरत थी। इस अर्थ में दुबे जी की ये लघुकथाएँ आधुनिक
लघुकथा की पृष्ठभूमि की तरह हैं क्योंकि आधुनिक लघुकथा आज जिस मुकाम पर है,
उसका आभास उन्होंने 1965-66 में लिखी इन लघुकथाओं के माध्यम से दे दिया था।
पुस्तक के चौथे और आखिरी खण्ड में डॉ॰ सतीश दुबे के व्यक्तित्व एवं हिन्दी लघुकथा में उनके
योगदान को
रेखांकित करते दस समकालीन साहित्यकारों कमलकिशोर गोयनका, डॉ॰ श्रीराम परिहार, डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे,
बसंत निरगुणे, जितेन्द्र जीतू, श्याम
सुन्दर अग्रवाल, प्रतापसिंह सोढ़ी, मधुदीप, रामयतन यादव, खुदेजा
खान एवं श्याम गोविन्द के आलेख (जिनमें एक साक्षात्कार है) शामिल हैं। लघुकथा के सन्दर्भ में इन
लेखकों ने उनके व्यक्तित्व एवं रचनात्मकता के विभिन्न पक्षों को सामने रखा है। नए रचनाकारों एवं
शोधकर्ताओं को उनके बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराने की दृष्टि से ये सभी आलेख
महत्वपूर्ण हैं। इस तरह पुस्तक के बाद वाले तीनों खण्डों की सामग्री डाक्टर साहब की
लघुकथा यात्रा को सूत्रबद्ध करती है, जबकि
प्रथम खण्ड की लघुकथाएँ उनके वर्तमान लघुकथा लेखन की प्रस्तुति को।
पहले खण्ड में शामिल 104 लघुकथाएँ 2008-2010
की अवधि में लिखी गई हैं और इस बात का पूरा अहसास कराती हैं कि ये इसी कालखण्ड की रचनाएँ
हैं। रचनात्मक ऊर्जा की दृष्टि से अड़सठ से सत्तर वर्ष की आयु के दुबे जी इन लघुकथाओं
में अठारह से तीस वर्ष के युवाओं के साथ चलते दिखाई देते हैं, लेकिन प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से अपने अनुभवों के पूरे वजन के साथ। वह
अपनी रचनात्मक यात्रा में सदैव गतिशील रहना पसन्द करते हैं। यही वह बात है जो उनके रचनाकार को
महान बनाती है।
एक महान रचनाकार अपनी उम्र के साथ नहीं, अपने
‘समय’ के साथ चलता है।
इनमें वर्तमान समय का यथार्थ तो है ही,
समय और परिस्थितियों के अनुरूप नए आदर्शों/मूल्यों को
स्थापित करने एवं तदनुरूप समाज, विशेषतः
नई पीढ़ी के
मार्गदर्शन की भावना भी ध्वनित हो रही है। ‘खुशनुमा सुबह’ में
प्रो. शुक्ला के शलाका को आत्महत्या के विचार से उबारने में की घटना में प्रो. शुक्ला के व्यक्तित्व
का एक सामान्य आदर्श निहित तो है ही, शलाका
को ऐसे प्रेमी,
जो उसकी चिन्ता किए बिना किसी और से
शादी करने जा रहा है, से अपने को मानसिक रूप से अलग कर
लेने की अप्रत्यक्ष प्रेरणा भी एक परिस्थितिजन्य आदर्श की ओर ले जाती है। एक और
उदाहरण—सामान्यतः एक नौ वर्ष
के बच्चे का अपने माता-पिता के विरुद्ध शिकायत लेकर थाने पहुँच जाना और उसकी शिकायत पर
पुलिस द्वारा कार्यवाही करना अच्छा नहीं माना जायेगा, परन्तु यदि बच्चे के प्रति माता-पिता अपने उत्तरदायित्वों का
निर्वाह न करें, उसके साथ मार-पीट करें, खाना देने में कोताही करें, ऐसे
में बच्चा समाज में घटती घटनाओं की देखा-देखी अपनी समझ या कहीं से पुलिस मदद उपलब्ध होने
की (आजकल छोटे बच्चों की स्कूली किताबों में बच्चों के अधिकारों एवं उपलब्ध सुरक्षा-संरक्षण की
जानकारी उपलब्ध
है) जानकारी पाकर माता-पिता के विरूद्ध शिकायत लेकर पुलिस थाने में पहुँच जाये और पुलिस बच्चे
की शिकायत को गम्भीरता से लेकर समुचित कार्यवाही करे, तो साहित्यिक दृष्टि (और सामाजिक भी) से यह एक परिस्थितिजन्य
आदर्श स्थिति होगी, क्योंकि इससे बच्चों
के प्रति माता-पिता एवं दूसरे संरक्षकों की जानबूझकर अवहेलना एवं शोषण तो रुकेगा ही, बच्चों में सकारात्मक जागरूकता और बच्चों के संरक्षकों
में अपने उत्तरदायित्वों के प्रति सतर्कता बढ़ेगी। बच्चे, बूढ़े, महिला
और किसी भी दृष्टि से कमजोर व्यक्ति के मानवीय अधिकारों के संरक्षण की बात को व्यावहारिक स्तर पर
उठाना आज की जरूरत है। ‘जिन्दा
है....नचिकेता’ लघुकथा में समाज के
मार्गदर्शन के लिए यही परिस्थितिजन्य आदर्श है।
‘पेशे की जात’ में
बेरोजगारी से निजात पाने के लिए जाति विशेष से जोड़कर देखी जाने वाली नौकरी को स्वीकार करने के
पक्ष में चक्रधर ने जातिबन्धन तोड़कर सामाजिक रूपान्तरण का जो तर्क सामने रखा है, वह भी परिस्थितिजन्य नए आदर्श की स्थापना ही है। ‘भ्रम’ में सूर्यांश के पापा के शब्द ‘...हम भी इतने कूप-मण्डूक नहीं कि तुम लोगों की भावना को समझकर काम्प्रोमाइज
नहीं करें...।’ भी पीढ़ी-अन्तराल को लाँघकर नए मूल्यों का
स्वीकार ही है। और भी
अनेक रचनाएँ हैं। दरअसल, डाक्टर दुबे सामान्य आदर्शों/मूल्यों के साथ सकारण आधुनिकता को
स्वीकार करते हैं, इसलिए उनके आदर्श समय
और परिवर्तन के प्रवाह
को वाधित नहीं करते, अपितु उसके साथ
बहने-तैरने का आनन्द लेते हैं। ‘फाइनल
आन्सर’ और ‘इच्छाओं का प्रतिबिम्ब’ जैसी लघुकथाओं में इसे और-अच्छे से समझा
जा सकता है। दरअसल यह परिस्थितिजन्य आदर्श समय सापेक्ष गतिशीलता को ही ध्वनित करता है।
अभी कुछ माह पूर्व ही डॉ॰ तारिक को दिए एक साक्षात्कार में
डाक्टर साहब ने
कहा था—‘आज अपने समय के समाज
से जितना कहानीकार जुड़ा है, उतना
लघुकथाकार नहीं।’ शायद अपनी ही शिकायत को दूर करने की पहल
उन्होंने स्वयं आगे
आकर ‘बूँद से समुद्र तक’ की इन लघुकथाओं में की है। वर्तमान समाज कई कोणों से इन
लघुकथाओं में प्रतिबिम्बित हुआ है। मानव-मन की कुण्ठाग्रस्त मनोवैज्ञानिक गुत्थियों को
‘प्रपोज’ में बखूबी चित्रित किया है।
छोटी और निकृष्ट सोच के सहारे व्यक्ति किस तरह अपनी प्रतिष्ठा
के ताने-बाने बुनता है,
इसे ‘भीड़ में भेंट’ में
देखा जा सकता है। इस तरह के कथ्य कम मौकों पर ही रचनात्मकता की धार पर शान बनकर
चमकते हैं। ‘शहर के बीच मौत’,
‘मूर्ति’,
‘अपहरण’, ‘पाबन्दी’, ‘हरि इच्छा बलवान...!!’,
‘मुद्दा-ए-बहस’, ‘तप्त सूरज की ठंडी ऊष्मा’, ‘पेशी’ आदि कई लघुकथाओं में समाज का नकारात्मक
चेहरा उभरकर सामने आया
है। लेकिन यह नकारात्मकता ही समाज का पूरा प्रतिबिम्ब नहीं है, समाज में सकारात्मक चीजें भी हैं। ‘प्रमुख अतिथि’, ‘नदी, नदी
है...!’, ‘गंगाजल’, ‘प्रतिभागी’ आदि लघुकथाएँ भी हमारे अपने समय और उसके सरोकारों को ही प्रतिबिम्बित करती हैं। ये
कथ्य कहीं से
आयातित नहीं किए गये हैं, इसी
समाज के मानस-पटल से लिए गए हैं।
इन लघुकथाओं में समाज का एक और पक्ष भी है, जो उसकी गतिशीलता को प्रतिबिम्बित करता
है। किसी भी समाज की गतिशीलता प्रतिबिम्बित होती है उसमें विद्यमान नवीन जीवनमूल्यों के प्रति
आकर्षण, मानवीय
महत्वाकांक्षाओं के प्रवाह,
सामाजिक संचेतना के संचार तथा शोषण,
अन्याय व दूसरी नकारात्मकताओं के प्रति आक्रोश एवं
संघर्षशीलता और इन सबसे गुजरते मनुष्य के अन्तर्मन में प्रेम और अपनत्व की अविरलता में। पेशे
की जात, भ्रम, फाइनल आन्सर जैसी लघुकथाओं में बदलते
जीवनमूल्यों के प्रति स्वीकार की भावना है। ‘अर्जुन ने कहा...!!’ में
मानवीय महत्वाकांक्षा का प्रवाह भी है और सामाजिक संचेतना का संचार भी। ‘सुहाग के निशान’ में
प्रेमा के शब्द अपनी
परिस्थितियों के अनुरूप नए मूल्यों का सृजन भी करते हैं, इनमें सामाजिक संचेतना भी ध्वनित होती है
और इनमें थोपी गई परिस्थितियों के प्रति
आक्रोश भी है। ‘दस्तूर’, ‘मां का धर्म’, ‘गुरु दक्षिणा...!!’, ‘महंगा
माल’ आदि कई लघुकथाएँ आक्रोश एवं संघर्ष की
दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं।
डॉ॰ दुबे साहब ने प्रेम की गहराई को कविता जैसी अभिव्यक्ति दी
है लघुकथा ‘प्रेम-ब्लॉग’ में। शैलीगत प्रयोग की दृष्टि से भी यह
एक महत्वपूर्ण लघुकथा
है। प्रेम और अपनेपन की डोर आदमी और जानवर के बीच भी एक अटूट और निश्छल रिश्ता बना सकती है। ‘रिश्ताई नेहबंध’ में एक बन्दर और मदारी के ऐसे ही रिश्ते में जीवन की झंकार
सुनाई देती है। मनुष्यों के बीच तो ऐसे रिश्तों का बनना और भी स्वाभाविक है।
तभी तो ‘अंजलि’ में एक गैस ऐजेन्सी की रिसेप्सनिस्ट
गीतांजलि एक दिन अनायास एक बुजुर्ग गैस-ग्राहक के घर पहुँच जाती है और उनकी बेटी बन जाती
है। रिश्तों में बसे प्यार और अपनेपन से झरती जीवन की धड़कनों की यही झंकार ‘ऊर्जा की सौगात’ में पोते पार्थ के उत्साह और निश्छल प्यार से पगी फोन-वार्ता के रूप
में दादाजी की नशों की रगों में उतरकर उन्हें ताजगी से भर देती है। शायद इसी कारण ‘हक’ लघुकथा में पिता द्वारा अपनी सम्पत्ति में बेटी को उसका हक देने
की इच्छा पर बेटी मृणाल सम्पत्ति की बजाय हक के रूप में घर का प्यार मांगती है।
रिश्तों में व्याप्त प्यार और अपनापन पीढ़ी अन्तराल को पाटकर बड़ों (विशेषतः
माता-पिता) को बच्चों की भावनाएं समझने में भी मददगार सिद्ध होता है, और कई बार तो नए जीवन-मूल्यों की स्थापना में भी। इच्छाओं का प्रतिबिम्ब,
फाइनल आन्सर, सानिध्य सुख-सुकून, भ्रम
आदि इस तथ्य को रेखांकित करती प्रभावशाली लघुकथाएं हैं। प्यार और अपनेपन की यह झंकार
कई बार एकान्त क्षणों की साथी स्मृतियों में घोंसला बनाकर अकेलेपन का सहारा बन जाती है।
अगला पड़ाव, सहारा, क्षितिज-अस्ताचल की एक शाम आदि जैसी भावनात्मक लघुकथाओं
में इसकी तीव्र अनुभूति होती है। लेकिन उपेक्षा के क्षणों में इस झंकार को सुनने की
चाहत बहुत बड़ी
पीड़ा का कारण बन जाती है। ‘थके
पाँवों का सफर’ लघुकथा के चाचाजी ऐसी ही पीड़ा
के कारण बूँदें टपकाने का प्रयास कर रही छोटी-छोटी आँखें को जोरों से भींचने को विवश हैं।
कथ्य,
भाषा, शिल्प और सम्प्रेषणीयता सभी स्तरों पर ये लघुकथाएं उदाहरण हैं। पर इनका भाव
पक्ष बेहद प्रभावशाली है। कई लघुकथाएं तो लघुकथा के साथ कविता का अहसास कराती हैं।
विविधिता की दृष्टि से ये लघुकथाएँ जीवन के बहुत से पक्षों पर रोशनी डालती हैं।
निश्चित रूप से श्याम गोविन्द जी के शब्दों में वह (डॉ॰ दुबे) ‘लघुकथा में जीवन की समग्रता जैसी चीज
पैदा कर रहे
हैं।’
समीक्षित कृति :
बूँद से समुद्र तक। कृतिकार : डॉ॰ सतीश दुबे। प्रकाशक: साहित्य संस्थान, ई-10/663, उत्तरांचल कालोनी, निकट
संगम सिनेमा, लोनी बार्डर, गाजियाबाद-201102। संस्करण: 2011। मूल्य: 495/- मात्र ।
हिंदी लघुकथा : समकालीन लघुकथा की पड़ताल
लघुकथा
लेखन के साथ लघुकथा शोध एवं विमर्श के क्षेत्र में डॉ॰ शकुन्तला किरण ने
महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्हें समकालीन लघुकथा पर पीएच.डी. उपाधि हेतु शोध के
लिए पंजीकृत प्रथम शोधार्थी के रूप में तो जाना ही जाता है, तत्संबंधी अध्ययन एवं चिन्तन और परिणामस्वरूप लघुकथा के उन्नयन में
योगदान हेतु उन्हें गिने-चुने लघुकथाकारों में शुमार किया जाता है। उनके वृहद् अध्ययन एवं
शोधकार्य का ही एक सार्थक परिणाम है उनकी पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’।
इस पुस्तक में उन्होंने आठवें दशक तक की लघुकथा की सम्पूर्ण रचनागत,
विकास और संघर्ष यात्रा का शोधपरक एवं
समालोचनात्मक लेखा-जोखा विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है। साथ ही उन्होंने
इसमें लघुकथा के उद्भव एवं इतिहास सम्बन्धी सूत्रों को भी सावधानी और सूक्ष्मता के साथ रखने का
प्रयास किया है।
यद्यपि आठवें दशक के बाद लघुकथा पर काफी काम हुआ है, तथापि इस पुस्तक को इस दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि लघुकथा की
आज तक की सम्पूर्ण
यात्रा में आठवें दशक का कालखण्ड प्रतिनिधि कालखण्ड की तरह स्थित है और समकालीन लघुकथा
की अधिकांश प्रवृत्तियों के दर्शन इस कालखण्ड में हो जाते हैं। इतना ही नहीं, लघुकथा को जिन
विरोधों-अवरोधों के साथ बहुत सारी ऊल-जलूल उक्तियों, धारणाओं और थोपे गये वैचारिक विरोधाभासों का सामना करना पड़ा है,
उनमें से भी अधिकांश आठवें दशक में सिर उठा चुके
थे। डॉ॰ शकुन्तला किरण ने संयमित और तर्कसंगत ढंग से अपनी इस पुस्तक में तमाम बातों
का नोटिस भी लिया है
और तमाम नकारात्मक धारणाओं का खण्डन तथा भ्रमों व रूढि़यों का समाधान भी प्रस्तुत
किया है।
पूरी पुस्तक को योजनाबद्ध पाँच वृहद् अध्यायों में वर्गीकृत
किया गया है—हिन्दी लघुकथा: युगीन
प्रभावों की भूमिका; आधुनिक
हिन्दी लघुकथा: उद्भव और विकास; आठवें दशक के हिन्दी लघुकथा संग्रह, संकलन, विशेषांक:
विश्लेषण एवं मूल्यांकन; हिन्दी लघुकथा: विशेषताएँ, व्याप्ति एवं निरन्तरता तथा हिन्दी लघुकथा: वर्गीकरण, पात्रगत विशेषताएं एवं जीवन मूल्य।
प्रत्येक अध्याय में विषय से संबद्ध तथ्यों को उपयुक्त उद्धरणों के द्वारा तार्किक ढंग से
प्रस्तुत किया गया है तथा उनकी प्रामाणिकता को पुष्ट करने के लिए प्रत्येक अध्याय
के अन्त में सन्दर्भ
सूची भी दी गई है।
पहले
अध्याय ‘हिन्दी लघुकथा: युगीन
प्रभावों की भूमिका’ के आरम्भ में वर्तमान युग की
तमाम स्थितियों-परिस्थितियों का जायजा लेते हुए मानव जीवन पर उनके प्रभावों की पड़ताल की गई है।
यह पड़ताल समकालीन लघुकथा की आधार-भूमि को तलाशने जैसी है। इसके बाद लघुकथा के व्यापक अर्थ
को विभिन्न
विद्वानों की परिभाषाओं/मतों के समालोचनात्मक विवेचन के माध्यम से स्पष्ट करने का
प्रयास किया गया है। कहानी और लघुकथा के समरूपों के सन्दर्भ में लघुकथा सम्बन्धी भ्रमात्मक
दृष्टिकोणों का विस्तार से विवेचन किया गया है। इसी सन्दर्भ में लघुकथा का उसके
समरूपों (बोधकथा, भावकथा, चुटकुला, लतीफा आदि एवं कहानी) से अन्तर भी समुचित उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है। साथ ही
समकालीन हिन्दी लघुकथा की विशिष्ट पहचान और उसकी मारक क्षमता को भी रेखांकित किया गया
है। इस सन्दर्भ में समकालीन हिन्दी लघुकथा के सापेक्ष हिन्दीतर अन्य भारतीय भाषाओं
यथा—उर्दू, कन्नड़, राजस्थानी,
गुजराती, मराठी, बंगला,
पंजाबी, तमिल आदि तथा सीरियाई (लेबनान प्रान्त), रूसी, अमेरिकी,
चीनी, अंग्रेजी, चेक,
आयरलैण्ड आदि कई विदेशी भाषाओं की
लघुकथाओं का भी उपयुक्त उदाहरणों के साथ नोटिस लिया गया है। यह एक सामान्य सत्य है कि
किसी भी काल का साहित्य युगीन प्रभावों से अछूता नहीं रहता, किन्तु जब ये युगीन प्रभाव घनीभूत होकर रचनात्मक
वृत्तियों के साथ संश्लिष्ट होते हैं, तो
साहित्य में कुछ क्रान्तिकारी परिवर्तन लाते हैं। लघुकथा बीसवीं सदी के ऐसे ही
परिवर्तनों का परिणाम है, इसे
पुस्तक के
पहले अध्याय की तमाम विवेचना से समझा जा सकता है। हालाँकि शकुन्तला जी के कुछेक विचारों पर
पुनर्विचार की गुंजाइश महसूस की जा सकती है। उदाहरण के लिए उनका यह कथन कि—‘जैसा अन्तर जयशंकर प्रसाद और कबीर की भाषा में है, लगभग वैसा ही अन्तर कहानी और लघुकथा की भाषा
में है’। इसी पुस्तक में
कहीं अन्यत्र
भी उन्होंने लघुकथा की भाषा को कबीर की भाषा माना है। मुझे लगता है कि बहुत-सी
समकालीन लघुकथाओं के सन्दर्भ में यह कथन सत्य हो सकता है, पर इसे एक सामान्य तथ्य के रूप में स्वीकार करना उचित नहीं
होगा। अन्यथा
कई प्रभावशाली लघुकथाएँ समकालीन लघुकथा के दायरे से बाहर हो जायेंगी, जो उचित नहीं होगा।
लघुकथा के उद्भव की खोज-बीन में जुटे लोग लघुकथा के बीज प्राचीन और
मध्य-युगीन साहित्य में ढूँढ़ते रहे हैं। डॉ॰ शकुन्तला किरण ने इस सम्बन्ध में
व्यापक पड़ताल की है और तथ्यपरक विवेचन प्रस्तुत किया है पुस्तक के दूसरे अध्याय में। इस हेतु
उन्होंने आठवें दशक से पूर्व की लघुकथाओं के काल को दो प्रमुख कालखण्डों— प्राचीनकाल एवं मध्यकाल में विभाजित करके तथ्यों
को समझने हुए अपना विवेचन प्रस्तुत किया है। प्राचीनकाल की लघुकथाओं को पुनः तीन वर्गों- (अ)
वेद, संहिता, पुराण व उपनिषद् की लघुकथाएँ, (ब)
बौद्ध, जैन, महाभारत व रामायणकालीन लघुकथाएँ तथा
(स) पंचतन्त्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर
की लघुकथाएँ में विभाजित करके उनकी प्रवृत्तियों का अध्ययन करके अपना विवेचन प्रस्तुत करते हुए
माना है कि—‘अपवादों को छोड़कर दोनों
(प्राचीन और आधुनिक लघुकथा) में कथ्य, शिल्प,
उद्देश्य एवं प्रभाव के स्तर पर
पर्याप्त अन्तर है। इसलिए लघुकथा क्षेत्र में प्राचीन कथाओं की भूमिका को निष्क्रिय माना जा
सकता है।’ मध्यकाल (सन् 1000 से 1970 तक) की लघुकथाओं को उन्होंने पुनः तीन भागों—(अ) पद्यकाल (भक्तिकाल एवं रीतिकाल सहित) की लघुकथाएँ (ब) भारत
में प्रैस आने के बाद मुद्रित ग्रन्थों (प्रमुखतः उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से उत्तरकाल
तक) की लघुकथाएँ तथा (ब) पत्र-पत्रिकाओं एवं संकलनों (जिसमें उन्नीसवीं सदी में
अंग्रेजी हुकूमत के प्रति
असन्तोष/विद्रोह से लेकर 1970
तक के कालखण्ड की लघुकथाएँ शामिल हैं) में बाँटकर उनका अध्ययन किया है और इन कालखण्डों की लघुकथा
की प्रवृत्तियों
का लेखा-जोखा सामने रखते हुए आधुनिक लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में उनकी भूमिका का
विवेचन किया है। पद्यकाल
की लघुकथाओं में से भक्तिकालीन लघुकथाओं के बारे में लेखिका का मत है कि ये सभी वैष्णव
सम्प्रदाय के प्रति अभिरुचि जगाने के उद्देश्य से लिखी गई हैं, जबकि रीतिकालीन लघुकथाओं को पद्यात्मक होने के कारण आधुनिक
लघुकथा के सन्दर्भ में उनकी भूमिका को महत्वहीन करार दिया है।
मुद्रणकाल में मुद्रित कई ग्रन्थों यथा—सिंहासन बत्तीसी, बेताल विंशतिका/बैताल पचीसी,
लताइफ-ए-हिन्दी/हिन्दवी में कथाएँ,
नकलिया-ए-हिन्दी, सदुपदेश की कथाएँ, हितोपदेश
का हिन्दी अनुवाद, वामा मनोरंजन, क्षेत्र-प्रकाश, पन्नन की बात, चैरासी
वैष्णवन की वार्ता आदि में शामिल लघुकथाओं को भी लेखिका ने आधुनिक हिन्दी लघुकथा
से कथ्य,
शिल्प, उद्देश्य, प्रभाव
आदि की दृष्टि से बहुत भिन्न माना है। इनमें से अधिकांश की प्रकृति को लेखिका ने
नीतिपरक, शिक्षाप्रद या
मनोरंजक पाया है, और स्पष्ट किया है कि उनका
चरित्र आधुनिक लघुकथा के समान नहीं हैं।
मध्यकाल की लघुकथाओं के तीसरे वर्ग में उन्नीसवीं सदी के
उत्तरार्द्ध से लेकर
1970 तक पत्र-पत्रिकाओं एवं संकलनों में
शामिल लघुकथाओं के अध्ययन के आधार पर उनकी प्रवृत्तियों को समझने की चेष्टा की गई है।
इनमें से 1950 तक की लघुकथाओं के
सम्बन्ध में लेखिका अपवादस्वरूप कुछ लघुकथाओं को छोड़कर शेष को कथ्य एवं शिल्प के
स्तर पर आधुनिक हिन्दी लघुकथा के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण नहीं माना है। 1950 से 1970 के मध्य की लघुकथाओं के बारे में उनका मत है कि—इनमें आधुनिक हिन्दी लघुकथा की भाव-भूमि को स्पर्श
करती लघुकथाएँ मिल जाती हैं, परन्तु
सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि
से इस कालखण्ड की लघुकथा भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं है।
1970 के बाद देश के राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक बदलावों से जनित प्रभावों का प्रभाव लोगों
की सोच पर पड़ा और वह साहित्य में प्रतिबिम्बित भी हुआ। इसने आधुनिक हिन्दी लघुकथा की
भावभूमि तैयार की। लघुकथा को चर्चा में लाने के प्रयासों में 1973-74 के कागज संकट का भी कुछ/फौरी योगदान रहा।
इस सबका विवरण देते हुए दूसरे अध्याय के दूसरे भाग में डॉ॰ शकुन्तला ने आठवें दशक में
लघुकथा की प्रगति का वर्षवार ब्योरा प्रस्तुत किया है। इस ब्योरे में आठवें दशक की लघुकथा
की विकास-यात्रा में
विभिन्न लघुकथाकारों एवं पत्र-पत्रिकाओं का योगदान भी प्रतिबिम्बित हुआ है, अतः इस दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है।
तीसरे अध्याय में आधुनिक हिन्दी लघुकथा के उन्नयन में आठवें
में प्रकाशित
लघुकथा-संग्रहों, संकलनों तथा
पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा-विशेषांकों की भूमिका का विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया
गया है। विभिन्न माध्यमों में प्रकाशित लघुकथाओं की प्रवृत्तियों को रेखांकित करते हुए तथा लघुकथा
विषयक आलेखों की चर्चा के माध्यम से आधुनिक सन्दर्भों में आठवें दशक की लघुकथा के
स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास इस अध्याय में है। इसके साथ ही शकुन्तला जी ने आधुनिक लघुकथा संबंधी
कई भ्रामक विचारों
का खण्डन तथा सम्यक समाधान भी प्रस्तुत किया है। तथ्यों के समर्थन में उन्होंने तर्क और
उदाहरण दोनों का ही उपयोग किया है।
चौथे अध्याय में आठवें दशक में उभरकर आई लघुकथा की सामान्य कथ्यगत, शिल्पगत एवं प्रभावगत विशेषताओं को
रेखांकित किया गया है और सूक्ष्मतम संवेदनाओं की वाहिका एवं सामाजिक बदलाव के सशक्त व
सार्थक माध्यम के रूप में लघुकथा की भूमिका को स्वीकार किया गया है। इस अध्याय में
लघुकथा की सभी
क्षेत्रों में व्याप्ति तथा उसकी निरन्तरता के प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं।
लघुकथा की दिशा और उसके सामाजिक सरोकारों एवं उस पर
परिस्थितियों के प्रभाव
को समझने की दृष्टि से लघुकथा को विभिन्न परिवेशों के आधार पर वर्गीकृत करके समझने
की कोशिश पुस्तक के अन्तिम अध्याय में परिलक्षित होती है। साथ ही, लघुकथा के पात्रों की
विशेषताओं एवं उभरते जीवनमूल्यों का उपयुक्त नोटिस भी लिया गया है, जो अन्ततः सामाजिक बदलाव में लघुकथा की
भूमिका को
भी स्पष्ट करता है। कुल मिलाकर लघुकथा का जो स्वरूप आठवें दशक में उभरकर सामने आया
है, वही आधुनिक मानवीय एवं सामाजिक
आवश्यकताओं के सन्दर्भ में उसकी प्रभावी भूमिका को तय करता है। इसे पूरी तरह से
समझने की दृष्टि से डॉ॰ शकुन्तला किरण की यह पुस्तक बेहद उपयोगी है। पुस्तक की भूमिकास्वरूप वरिष्ठ
लघुकथाकार एवं चिन्तक
डॉ॰ सतीश दुबे एवं बलराम अग्रवाल ने संक्षिप्तत: इस पुस्तक की जरूरत के सन्दर्भ को स्पष्ट किया है।
पुस्तक :
हिन्दी लघुकथा। लेखिका : डॉ॰ शकुन्तला किरण। प्रकाशक: साहित्य संस्थान, ई-10/660, उत्तरांचल कालोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बार्डर, गाजियाबाद-201102
(उ.प्र.) प्रथम संस्करण: 2009 मूल्य: रु.395/- मात्र।
समीक्षक संपर्क : एफ-488/2,
गली सं. 11, राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667,
हरिद्वार(उत्तराखण्ड)
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