अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 11, जुलाई 2012
सामग्री : डॉ. गोपाल बाबू शर्मा का व्यंग्यालेख 'बिकने में ही सार'।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
बिकने में ही सार
क्रिकेट के खिलाड़ी भेड़-बकरियों की तरह बिकते हैं। उनकी नीलामी
होती है। पहले भी आदमी बिकता था। उसकी बोली लगाई जाती थी।
लगता है, घूम-फिरकर गुलामी की पुरानी प्रथा का दौर फिर से शुरू
होने जा रहा है। यह हमारी प्रगतिशीलता का सूचक है। आदमी जब
ज्यादा सभ्य हो जाता है, तो उसमें पहले जैसी असभ्यता आने लगती है।
शुरू-शुरू में आदमी सभ्य नहीं था, तो नंगा रहता था। अब इतना अधिक
सभ्य हो गया है कि वह अर्द्ध-नग्नता और नग्नता की ओर दौड़ लगा रहा है।
बिकने वाले क्रिकेट खिलाड़ियों में देशी-विदेशी- दोनों प्रकार के धुरन्धर शामिल रहते हैं।
इन्हें धन-कुबेर फिल्मी स्टार और दारू-सारू आदि का कारोबार करने वाले लाखों-करोड़ों में
खरीदते हैं। ये खिलाड़ी अपने खेल से उन पैसे वाले मालिकों को मोटी कमाई कराते हैं। पैसे से
ही तो पैसा पैदा होता है। लक्ष्मी को लक्ष्मी-वाहन ही ढोता है।
खिलाड़ियों की भांति नेता भी बिकेंगे। अभी तक वे गुप-चुप तरीके से बिकते रहे हैं। अब
बाक़ायदा इनकी भी नीलामी होगी। राजनैतिक पार्टियाँ इन्हें ऊँचे दामों पर खरीदेंगी और अपने
मनचाहे कामों के लिए इनका इस्तेमाल करेंगी। नेता कम खिलाड़ी नहीं होते। वे बिकने के बाद
सियासत और सत्ता का खेल और ज्यादा जमकर खेलेंगे। मज़े में डण्ड पेलेंगे।
यह बाज़ारवाद का युग है। सब कुछ बिक रहा है। जो ‘नॉट फार सेल’ है, वह भी धड़ल्ले से
बिक रहा है। धर्म-ईमान बिक रहे हैं। प्यार बिक रहा है। सेवा-सत्कार और परोपकार बिक रहा
है। पुरस्कार-सम्मान बिक रहे हैं। आचार-विचार बिक रहे हैं। चुनाव के टिकट बिक रहे हैं।
वोट और वोटर बिक रहे हैं। कुरसी बिक रही है। औरत बिक रही है। असमत बिक रही है।
बच्चे बिक रहे हैं। कोख बिक रही है। शिक्षा-दीक्षा बिक रही है। बुद्धि और निष्ठा बिक रही है।
नौकरियाँ बिक रही हैं। पानी बिक रहा है। सैम्पिल की दवाएँ बिक रही हैं। बच्चों का मिड-डे
मील और सैनिकों का राशन बिक रहा है।
यह बताइए कि क्या नहीं बिक रहा है? बिकने में ही तो फायदा है। मौज है, मस्ती है। पद है,
पैसा है, प्रतिष्ठा है। इसीलिए हमारा मन भी बार-बार यह कहता है-
बिकने में ही सार है, बिना बिके बेकार।
दुनियां के बाजार में, तू भी बिक जा यार।।
।।व्यंग्य वाण।।
सामग्री : डॉ. गोपाल बाबू शर्मा का व्यंग्यालेख 'बिकने में ही सार'।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
बिकने में ही सार
क्रिकेट के खिलाड़ी भेड़-बकरियों की तरह बिकते हैं। उनकी नीलामी
होती है। पहले भी आदमी बिकता था। उसकी बोली लगाई जाती थी।
लगता है, घूम-फिरकर गुलामी की पुरानी प्रथा का दौर फिर से शुरू
होने जा रहा है। यह हमारी प्रगतिशीलता का सूचक है। आदमी जब
ज्यादा सभ्य हो जाता है, तो उसमें पहले जैसी असभ्यता आने लगती है।
शुरू-शुरू में आदमी सभ्य नहीं था, तो नंगा रहता था। अब इतना अधिक
सभ्य हो गया है कि वह अर्द्ध-नग्नता और नग्नता की ओर दौड़ लगा रहा है।
बिकने वाले क्रिकेट खिलाड़ियों में देशी-विदेशी- दोनों प्रकार के धुरन्धर शामिल रहते हैं।
इन्हें धन-कुबेर फिल्मी स्टार और दारू-सारू आदि का कारोबार करने वाले लाखों-करोड़ों में
खरीदते हैं। ये खिलाड़ी अपने खेल से उन पैसे वाले मालिकों को मोटी कमाई कराते हैं। पैसे से
ही तो पैसा पैदा होता है। लक्ष्मी को लक्ष्मी-वाहन ही ढोता है।
खिलाड़ियों की भांति नेता भी बिकेंगे। अभी तक वे गुप-चुप तरीके से बिकते रहे हैं। अब
बाक़ायदा इनकी भी नीलामी होगी। राजनैतिक पार्टियाँ इन्हें ऊँचे दामों पर खरीदेंगी और अपने
मनचाहे कामों के लिए इनका इस्तेमाल करेंगी। नेता कम खिलाड़ी नहीं होते। वे बिकने के बाद
सियासत और सत्ता का खेल और ज्यादा जमकर खेलेंगे। मज़े में डण्ड पेलेंगे।
यह बाज़ारवाद का युग है। सब कुछ बिक रहा है। जो ‘नॉट फार सेल’ है, वह भी धड़ल्ले से
बिक रहा है। धर्म-ईमान बिक रहे हैं। प्यार बिक रहा है। सेवा-सत्कार और परोपकार बिक रहा
है। पुरस्कार-सम्मान बिक रहे हैं। आचार-विचार बिक रहे हैं। चुनाव के टिकट बिक रहे हैं।
वोट और वोटर बिक रहे हैं। कुरसी बिक रही है। औरत बिक रही है। असमत बिक रही है।
बच्चे बिक रहे हैं। कोख बिक रही है। शिक्षा-दीक्षा बिक रही है। बुद्धि और निष्ठा बिक रही है।
नौकरियाँ बिक रही हैं। पानी बिक रहा है। सैम्पिल की दवाएँ बिक रही हैं। बच्चों का मिड-डे
मील और सैनिकों का राशन बिक रहा है।
यह बताइए कि क्या नहीं बिक रहा है? बिकने में ही तो फायदा है। मौज है, मस्ती है। पद है,
पैसा है, प्रतिष्ठा है। इसीलिए हमारा मन भी बार-बार यह कहता है-
बिकने में ही सार है, बिना बिके बेकार।
दुनियां के बाजार में, तू भी बिक जा यार।।
- 46, गोपाल विहार कॉलोनी, देवरी रोड, आगरा-282001 (उ.प्र.)
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