अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 11, जुलाई 2012
।।कथा प्रवाह।।
सामग्री : स्व. जगदीश कश्यप, सीताराम गुप्ता, मदन मोहन उपेन्द्र, दिलीप भटिया, शोभा रस्तोगी शोभा एवं मोहन लोधिया की लघुकथाएँ।
मूसलाधार बारिश में रामदीन की कोठरी लगातार टपक रही थी। सुन्न कर देने वाली ठण्ड में रामदीन की पत्नी झुनिया भगवान को कोस रही थी और उसके दोनों बच्चे बापू-बापू की आवाज में ठिठुरते हुए डकरा रहे थे।
रामदीन साहब का विश्वसनीय नौकर था, उनके बाप के जमाने का। ‘‘आज के नौकर बड़े हरामजादे होते हैं। न काम-न-धाम, बस तनख्वाह बढ़ा दो!’’ साहब ने यह बात उस वक्त कही जब रामदीन अंग्रेजी शराब की बोतल ले आया और बोरी का छाता सिर पर रखे, ठिठुरता हुआ आगामी हुक्म का मुंतजिर था।
‘‘भई नौकर है तो कमाल का,’’ मेहमान ने कहा- ‘‘देखो, कहीं से भी लाया पर इतनी रात में इस ब्राण्ड की दूसरी बोतल मिलनी मुश्किल थी। पहली बोतल में तो मजा आया नही!’’ यह कहते उन्होंने जेब में हाथ डालकर नोट निकालकर और बोले- ‘‘ये लो बाबा दस रुपए। बाल-बच्चों के लिए कुछ ले जाना। बड़ी ठण्ड पड़ रही है और देखो, तुम भीग गए हो, कहीं बीमार न पड़ जाओ।’’
छाया चित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल |
इस पर कोठी के मालिक ने गर्वपूर्वक कहा, ‘‘ये हमारा बफादार नौकर है, एक पैसा बख्शीश का न लेगा।’’
मालिक ने कहा, ‘‘अच्छा रामदीन रात हो गई है, तुम अब जाओ। आज हम तुमसे बहुत खुश हैं!’’ ऐसा कहते ही उन्होंने एक पैग चढ़ा लिया और बुरा-मुँह बनाकर काजू की प्लेट की तरफ हाथ बढ़ाया।
यद्यपि रामदीन ठण्ड से बुरी तरह कांप रहा था तथापि वह खुशीदृखुशी अपनी कोठरी की तरफ बढ़ रहा था यह बताने की आज मालिक उससे बहुत खुश है। (‘लघुकथा डाट काम’ से साभार)
इज़्ज़तदार
भाई साहब आते ही शुरू हो गए। उनकी ख़ुशी दबाए नहीं दब रही थी। बात ही कुछ ऐसी थी। अलका का रिश्ता जो तै हो गया था। कहने लगे कि बहुत पैसे वाले और इज़्ज़तदार लोग हैं। मैं तो उनके मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरता। बड़ा-सा ए.सी. ऑफिस और कई फैक्ट्रियाँ हैं। गोदाम तो इतने बड़े-बडे़ हैं कि ट्रक सीधे अंदर चले जाते हैं। बाहर ताले लगा देते हैं और अंदर काम होता रहता है। आने-जाने के ऐसे ख़ुफिया रास्ते बना रखे हैं कि बाहर का आदमी पर नहीं मार सकता। ऐसे ख़ुफिया कैमरे फिट कर रखे हैं कि अंदर बैठे बाहर का सारा हाल पता लगता रहता है। अनजान आदमी के गली में घुसने से पहले ही पता लग जाता है।
रेखांकन : सिद्धेश्वर |
इतना सब कहकर भाई साहब चुप हो गए और मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए प्रश्नसूचक दृष्टि से मेरी ओर देखा। मेरे मुँह से बस इतना ही निकला कि बच्ची सुखी रहे इससे ज़्यादा और क्या महत्वपूर्ण हो सकता है? भाई साहब ने पता नहीं मेरी बात सुनी या नहीं पर बेटी को बड़ी गाड़ी देने के दर्प से उनकी आँखें रोल्स रॉयस की हैडलाइट्स की तरह जगमगा रही थीं।
- ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा, दिल्ली-110034
(उपेन्द्र जी का लघुकथा संगह ‘जब मूर्ति बोली’ अभी हाल ही में हमें पढ़ने का अवसर मिला। उनके संग्रह से प्रस्तुत हैं दो लघुकथाएँ।)
पैसा माई-बाप
अन्धे के कटोरे में सिक्कों को खनकते देख, उसने अपने अन्दर का सभ्य मनुष्य कत्ल कर दिया और मान-अपमान का भाव हलक के नीचे उतार लिया। फिर बहुत ही धीमे और दबे शब्दों में बोला, ‘‘भाईजी मैं तुम्हें कुछ देने नहीं, मैं...मैं तो तुमसे कुछ पैसे माँगने आया हूँ’’। उसने बड़े झिझकते हुए, मन के उद्गार उड़ेल दिये।
‘‘अरे बाबू, तुम तो भिखारी नहीं लगते।’’ अन्धा बोला।
‘‘नहीं भाई, इस समय तो मैं भी मजबूरी में भिखारी ही हूँ।’’
‘‘झूठ, अन्धे का मजाक बना रहे हो’’ और वह अपने सिक्कों को झोली में छिपाता हुआ, घबरा सा गया। ‘‘झूठ नहीं भाई, सच है। मैं मजाक बिल्कुल नहीं कर रहा हूँ। मैं मन्दिर में मत्था टेकने आया हूँ। घर से खाली जेब ही चलता हूँ पर आज अचानक साइकिज पंचर हो गयी। पन्चर जोड़ने वाला मिस्त्री पचास पैसे माँग रह है। उधार इसलिए नहीं कर रहा, क्योंकि उसकी बोहनी नहीं हुई है। मैं भगवान से रोज भीख में दुआ ही माँगने आता हूँ। आज तुमसे पचास पैसे मांग लूँगा तो क्या बिगड़ जायेगा। मजबूरी में आदमी क्या नहीं करता। घर दो मील दूर है।’’
बूढ़े ने सिलवर की टूटी कटोरी उसके आगे बढ़ा दी और कहने लगा, ‘‘बाबू ले लो, जितने पैसे चाहिए इसमें से ही निकाल लो।’’
‘‘नहीं, मैं ऐसे नहीं निकालूँगा, तुम अपने हाथ से दे दो।’’
तब उस अन्धे ने उँगलियों से टटोल कर दस-दस के पाँच सिक्के उसकी हथेली पर रख दिये और वह उसके एहसान को दूसरे दिन लौटाने का वायदा कर गया। चलते हुए उसे एहसास हुआ कि सचमुच पैसा ही माई-बाप होता है।
पाँच साल बाद
नेताजी चुनाव प्रचार में नंगे पाँव ही पहुँचे थे। वृद्धों ने उनका गद्गद होकर स्वागत किया था। पलक पाँवड़े बिछाये थे।
वे तुनक कर बोले थे, ‘‘क्या इस गाँव में कोई मेहतर नहीं है, गाँव के गलियारों में कैसी गंदगी रहती है?’’
सभी चुप थे, क्या जवाब दें। सोच नहीं पा रहे थे कि क्या उत्तर हो सकता है?
एक युवक पीछे से बोला, ‘‘हाँ साहब, मेहतर तो है लेकिन पाँच साल बाद आता है।’’ यह सुनकर सभी हँस गये और नेताजी हाथ जोड़ कर सहमे हुए से आगे बढ़ गये।
- संयोजक, सम्यक संस्थान, ए-10, शान्ति नगर (संजय नगर), मथुरा-281001 (उ.प्र.)
सम्मान
मित्र राज कमल,
नमस्ते। फलते-फूलते, बच्चों के माता पिताओं से मोटी फीस व गुप्त रूप से डोनेशन लेने वाले शहर के नामी पब्लिक स्कूल में आपके द्वारा कमरों का निर्माण हुआ, मंत्रीजी से लोकार्पण हुआ, स्कूल प्रबधन ने आपका सम्मान किया, बधाई!
रेखांकन : नरेश कुमार उदास |
तुम्हारा सम्मान निश्चय ही सफल है, पर मुझे अपने पत्रं पुष्पं से मिले प्यार-स्नेह वाले निर्मल सात्विक सम्मान की भी सार्थकता तो महसूस हो ही रही है। सम्पर्क बनाए रखना।
मित्र - अरूण प्रसाद
- 372 / 201, न्यूमार्केट, रावतभाटा-323307, राजस्थान
खातिर
जरूरी काम से मै स्टोर रूम में गया। वहाँ सफाई कर्मचारी इमरती खाना खा रही थी। चार खाने का टिफिन सजा था....पकवान, फल इत्यादि।
‘वाह ! इमरती बड़ी खातिर हो रही है आजकल।’
ख़ुशी के अतिरेक में वह बोली- ‘हाँ बाबूजी! बेटे-बहू दे गए हैं।’
‘बहुत बढ़िया। नसीब वाली हो जो ऐसे बहू-बेटे मिले हैं।’
कह तो दिया मैंने। मेरे कहने का भाव आँसू बनकर इमारती की आँखों में छलक आया। अधिक देर ठहरना उचित न समझ मैं निकल लिया।
‘रामदीन स्टोर का काम बाद में देखेंगे। इमरती खाना खा रही है।’
‘हाँ बाबूजी आजकल खातिर जो हो रही है इमरती की।’
‘मतलब?’
‘महीने का आखिर....बाबूजी। तनख्वाह मिलने वाली है....फिर.....बाकी के पच्चीस दिन वही सूखी रोटी और हरी मिर्च।.... राम भजो।’
मैं भौंचक। इमारती की आँखों में छलके आँसू अब मुझे समझ आ रहे थे।
- आर जेड डी-20 बी,डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर- 2 पालम कालोनी, नई दिल्ली - 110077
माँ की बेबसी
छायाचित्र : अभिशक्ति |
दीनदयाल को स्वर्गवासी हुए आज एक वर्ष हो गया। दीनदयाल के तीन पुत्र हैं। बड़ा बेटा 40 वर्ष पार कर चुका अपाहिज और बेरोजगार है। दोनों बेटे शामिल परिवार में रहकर नौकरी करते हैं। दीनदयाल ने एक गाय पाली थी, जो अब बूढ़ी हो चली थी, परन्तु कभी बछिया या बछड़े को जन्म नहीं दिया था। इससे गाय पर व्यर्थ ही खर्च हो रहा है, सोचकर दोनों नौकरी पेशा बेटों ने उसे कसाई को बेच दिया। दोनों बेटे पैसे गिन रहे थे। कसाई गाय को घसीटकर ले जा रहा था। गाय मुड़-मुड़कर देखती जा रही थी, इसी बीच मां (दीनदयाल की पत्नी) आ गयी। एक बेबस मां कभी दूसरी ओर बैठे बेरोजगार अपाहिज बेटे को, कभी जाती हुई गाय को टुकुर-टुकुर देख रही थी।
- 135/136, ‘मोहन निकेत’, अवधपुरी, नर्मदा रोड, जबलपुर-482008 (म.प्र.)
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