आपका परिचय

शनिवार, 31 मार्च 2012

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : मार्च २०१२

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : १, अंक : ०7, मार्च २०१२ 


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक : डॉ. उमेश महादोषी 
संपादन परामर्श : डॉ. सुरेश सपन  
फोन : ०९४१२८४२४६७ एवं ०९०४५४३७१४२ 
ई मेल : aviramsahityaki@gmail.com 

रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
।।सामग्री।।
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अविराम विस्तारित :  

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत} :  रेखा चमोलीविजय कुमार सत्पथी, अवनीश सिंह चौहान, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, अंकिता पंवार  एवं  सुधीर मौर्या ‘सुधीर’ की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएं   {कथा प्रवाह} :  डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति,  युगल,  सुरेश शर्मा, महावीर रवांल्टा,  राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’ एवं शोभा रस्तोगी शोभा  की लघुकथाएं।  

क्षणिकाएं  {क्षणिकाएँ डॉ. मिथिलेश दीक्षित, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा व  ज्योत्सना शर्मा की क्षणिकाएं

हाइकु व सम्बंधित विधाएं  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु' व डॉ हरदीप कौर सन्धु के तांका

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द: डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया 'अराज' व पं. गिरिमोहन गिरि 'नगर-श्री' के जनक छंद।   

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} : शैलेन्द्र चाँदना का लघु आलेख ''सत्यमेव जयते! : कारगिल-स्मारक’’ 


किताबें   {किताबें} : संजय वर्मा ‘दृष्टि’ द्वारा लिखित श्री हरिशंकर वट की कृति ‘क्या लिखूँ’ (काव्य  संग्रह)  की समीक्षा।





।।जरुरी सूचना।।

  • मुद्रित रूप में 'अविराम साहित्यिकी' का वार्षिक शुल्क  रुपये ६०/- तथा आजीवन सदस्यता शुल्क रुपये ७५०/- रखा गया है। वार्षिक शुल्क धनादेश द्वारा 'प्रधान संपादिका, अविराम साहित्यिकी, ऍफ़-४८८/२, गली संख्या ११, राजेंद्र नगर, रुड़की, जिला-हरिद्वार, उत्तराखंड' के पते पर भेजा जाना हैआजीवन शुल्क रुड़की पर देय 'अविराम साहित्यिकी' के नाम में जारी  रेखांकित  'मांग ड्राफ्ट' द्वारा उक्त पते पर ही भेजा जाये। कृपया किसी भी व्यकिगत नाम में कोई राशि न भेजें
  • जो मित्र 'अविराम साहित्यिकी' के 'ओरियंटल बैंक आफ कामर्स' में स्थित खाते में राशी जमा करना चाहें, वे हमसे फोन ०९४१२८४२४६७ एवं ०९०४५४३७१४२ पर आवश्यक जानकारी ले सकते हैं

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १,  अंक : ०७,  मार्च २०१२ 
।।कविता अनवरत।।

सामग्री : रेखा चमोलीविजय कुमार सत्पथी, अवनीश सिंह चौहान, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, अंकिता पंवार  एवं  सुधीर मौर्या ‘सुधीर’ की काव्य रचनाएँ।




रेखा चमोली 




बचाव                               


बेहद ठंड है
धूप चली जाती है
मध्यान्तर में ही 
फिर छुटटी होने तक 
ठिठुरते रहते हैं बच्चे 
फटे-पुराने, आधे अधूरे कपडों में 
घर से ले जाती हूँ 
अपने, अपने बच्चों, भाई-बहनों के गर्म कपडे
कुछ को तो राहत मिले 


‘‘चलो इधर ध्यान दो!
तुम्हें ठंड तो नहीं लग रही ?
बच्चों को ठंड नहीं लगती 
बच्चों की ठंड तो पत्थर के नीचे 
छिपी रहती है ’’
अपनी आवाज के ठंडेपन से 
खुद ही सिहर उठती हूँ  
हाथ, मुहँ, पैर सब बुरी तरह 
फट गये हैं 
पर मुस्कान बाकी है चेहरों पर 
और उत्साह बेहिसाब 
एक को पुकारो तो 
दस जबाब देते हैं
आते ही घेर लेते हैं
मन करता है 
रेखांकन : बी.मोहन नेगी 
अपनी स्वेटर, शाल, टोपी 
सब ओढ़ा दूँ इन्हें 
पर इन्हें तैयार होना है
कल के लिए 
तो ठंड सहन करनी आनी ही चाहिए
सोचकर 
खुद को बहला लेती हूँ।
साफ बचा लाती हूँ,
खुद को जिम्मेदारियों से।



  • जोशियाडा, उत्तरकाशी



विजय कुमार सत्पथी






दो कविताएं


परायों के घर


कल रात दिल के दरवाजे पर दस्तक हुई;
सपनो की आंखो से देखा तो, 
तुम थी .....!!!


मुझसे मेरी नज्में मांग रही थी,
उन नज्मों को, जिन्हें संभाल रखा था, 
मैंने तुम्हारे लिये ;
एक उम्र भर के लिये ...!


रेखांकन : नरेश उदास 
आज कही खो गई थी,
वक्त के धूल भरे रास्तों में;
शायद उन्ही रास्तों में;
जिन पर चल कर तुम यहाँ आई हो .......!!


लेकिन; 
क्या किसी ने तुम्हे बताया नहीं; 
कि,
परायों के घर भीगी आंखों से नहीं जाते........!!! 


सलीब


कंधो से अब खून बहना बंद हो गया है ...
आँखों से अब सूखे आंसू गिर रहे है..
मुंह से अब आहे-कराहे नही निकलती है..!


बहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
इस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!


हँसता हूँ मैं,
कि..
ये सारी सलीबें;
सिर्फ़ सुबह से शाम और
फिर शाम से सुबह तक के
सफर के लिए है ...


रेखांकन : महावीर रंवाल्टा
सुना है, सदियों पहले किसी
देवता ने भी सलीब लटकाया था..
दुनियावालों को उस देवता की सलीब,
आज भी दिखती है ...


मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
पर ;
कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....



  • फ्लैट नं. 402, पांचवां तल, प्रमिला रेजीडेंसी, मकान नं. 36-110/402, डिफेन्स कॉलोनी, सैनिकपुरी, पोस्ट-सिकन्दराबाद-500094, आं.प्र. 



अवनीश सिंह चौहान


पिता हमाए 


मैं रोया 
तो मुझे चुपाया
बिल्ली आई
कह बहलाया 


मुश्किल में 
जीवन जीने की-
कला सिखाए
पिता हमाए


नदिया में मुझको 
नहलाया
झूले में मुझको 
झुलवाया


मेरी जिद पर 
गोद उठाकर 
मुझे मनाए 
पिता हमाए


जब भी फसली
चीजें लाते
सब से पहले 
मुझे खिलाते


कभी-कभी खुद 
भूखे रह कर
मुझे खिलाए 
पिता हमाए


रेखांकन : शशि भूषण बडोनी 
शब्द सुना 
पापा का जब से 
मैं भी पिता
बन गया तब से 


मधुर-मधुर-सी
संस्मृयों में 
अब तक छाए 
पिता हमाए



  • सहायक प्राध्यापक (अंग्रेजी), सी ओ ई, तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.)  



प्रभुदयाल श्रीवास्तव










ग़ज़ल


जो अपनी राह चलते हैं लकीरों पर नहीं चलते।
जिन्हें विश्वास श्रम का है नज़ीरों पर नहीं चलते।


चलाने के लिये समझाइश और धक्के जरूरी हैं
जिन्हें हो आत्मा का बल शरीरों पर नहीं चलते।


रेखांकन : पारस दासोत 
जहाँ भी बाढ़ आती है किनारे टूट जाते हैं
नदी के आजकल आदेश तीरों पर नहीं चलते।


जो थककर हार जाते हैं फकत डरपोंक होते हैं
परंतु व्यर्थ के संदेश वीरों पर नहीं चलते।


तरक्की और सुधारों के लिये कानून हैं लेकिन
नियम ये हुक्मरानों और वजीरों पर नहीं चलते।


नहीं है लोभ कुर्सी, पदवियों, महलों, दुमहलों का
सियासत के हथकंडे फकीरों पर नहीं चलते।

  • 12 शिवम सुंदरम नगर छिंदवाड़ा म. प्र. 





अंकिता पंवार


आज का सच


किसी भी शब्द के 
सबके लिये भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं
मैं तुमसे पूछना चाहती हूँ- प्रेम क्या है?
शब्दों को दो-तीन बार दोहरा देना ही
यही सोचते हो तुम
सुनने व समझने का 
वक्त ही कहां है तुम्हारे पास
तुम हो चुके हो शामिल उन लोगों में
रेखांकन : हिना 
जिन्हें सिर्फ भौतिकता ने जकड़ रखा है
जीवन का एक संवेदनात्मक पक्ष भी है
जो कि मेरे भीतर अब भी जिन्दा है
तुम तो हो गये हो आदी बाजार के
परन्तु मैं अब भी वहीं हूँ
प्रकृति की छांव में, गांव की मांटी में
हमारा तो अब कोई मेल भी नहीं
सिर्फ एक नाम का रिश्ता है
जो कि आज हर शख्स का एक कड़वा सच है! 


  • द्वारा श्री उदय पंवार, भरत विहार, निकट ऋषि गैस एजेन्सी, हरिद्वार रोड, ऋषिकेश-249201(उ.खंड)





 सुधीर मौर्या ‘सुधीर’






बारिश


बारिश को देखती 
वो कमसिन लड़की
हाथ बड़ा कर
पानी की बूंदों को
कोमल हथेलियों में
इकट्ठा करती
फिर ज़मीं की जानिब 
उड़ेल देती
मैं उसके पास जाकर खड़ा हुआ
तो एक अंजुली पानी
मेरे चेहरे पर फेंक  कर

रेखांकन : नरेश उदास 
खिलखिलाती हुई
अंदर भाग गई


लाल जोड़े में
वो जब डोली में बैठी
आँखों से उसके अश्क बरस रहे थे


आज उसने
अंजुली में इस बारिश 
को इकटठा नहीं किया
आज मुझसे कोई शरारत नहीं की
आज न जाने क्यों, मुझे
ये बारिश अच्छी नहीं लगी.



  • ग्राम व पोस्ट- गंज जलालाबाद, जिला- उन्नाव, पिन- २४१५०२


अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०७, मार्च २०१२ 

।।कथा प्रवाह।।  

सामग्री :  डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति,  युगल,  सुरेश शर्मा, महावीर रवांल्टा,  राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’ एवं शोभा रस्तोगी शोभा  की लघुकथाएं। 



डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति




दीवारें   
                    
    “ससरी ’काल बापू जी! और क्या हाल है?” कश्मीरे ने घर के दरवाजे के सामने गली में चारपाई पर बैठे बापू को कहा और साथ ही पूछा, “जस्सी घर पर ही है?”
   “हाँ बेटा! और तू सुना, राजी हैं सब?”
   “हाँ बापू जी! मेहर है वाहेगुरू की! आपको शहर की गली में पेड़ के नीचे बैठा देख, गाँव की याद आ गई। शहरी तो बस घरों में ही घुसे रहते हैं३अच्छा बापू, मैं आता हूँ जस्सी से मिलके।” कहकर वह अंदर चला गया।
   जस्सी ने कश्मीरे के आने की आवाज़ सुन ली थी। वह कमरे से बाहर आ गया और कश्मीरे को गले मिलता अंदर ले गया।
अपनी बातें खत्म कर कश्मीरे ने पूछा, “और बापू जी कब आए?”
रेखांकन : बी. मोहन नेगी 
   “तबीयत कुछ खराब थी, मैं ले आया कि चलो शहर किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा देंगे। पर इन बुजुर्गों का हिसाब अलग ही होता है। कार में बिठाकर ले जा सकते हो, टैस्ट करवा सकते हो, पर दवाई-बूटी इन्होंने अपनी मर्जी से ही लेनी होती है।” जस्सी ने अपनी बात बताई।
   “चलो! तूने दिखा दिया न। अपना फर्ज तो यही है बस।”
   “वह तो ठीक है। अब तूने देख ही लिया न, घर के अंदर कमरों में ए.सी. लगे हैं, कूलर-पंखे सब हैं। पर नहीं, बाहर ही बैठना है, वहीं लेटना है। बुरा लगता है न। पर समझते ही नहीं।”
   “तूने समझाया?”  कश्मीरे ने बात का रुख बदलते हुए कहा।
   “बहुत माथा-पच्ची की।”
   “चल। सभी को पता है, इन बुजुर्गों की आदतों का।” कहकर वह उठ खड़ा हुआ।
   वह बाहर आ एक मिनट बापू के पास बैठ गया और उसी अंदाज़ में बोला, “बापू, तूने तो शहर का दृश्य ही बदल दिया।”
   “हाँ बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता-जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो बातें सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही देखते रहते हैं।”
   “यह तो ठीक है बापू! जस्सी कह रहा था, सभी कमरों में टी.वी. लगा है। वहाँ भी दिल बहल जाता है।” कश्मीरे ने अपनी राय रखी।
“ले ये भी सुन ले। मैं तो उसे दीवार ही कहता हूँ३अब पूछ क्यों?....बेटा, कोई उसके साथ अपने दिल की बात तो नहीं बाँट सकता न।”
  • 97, गुरु नानक एवन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर (पंजाब)-143004 

युगल


सिरफिरा

   मस्जिद की तरफ से लौटते हुए मौलाना को डाकपिउन ने टोंका- ‘‘मौलाना, आप तो यहाँ के सारे मुसलमानों को जानते हैं। जरा यह चिट्ठी देखिए तो किसकी है?’
   मौलाना ने उस अन्तर्देशीय को उलट-पुलट कर देखा। पता तो यहीं का था। नाम था बदूरी खाँ सदूरी खाँ। मौलाना ने कहा- ‘यहाँ तो इस नाम का कोई आदमी नहीं है। तुमने पीपल वाले बदरुद्दीन को पूछा था?’
   पिउन बोला- ‘जी हाँ, मैंने यह चिट्ठी बदुरुद्दीन को भी दिखलाई थी और दरगाह वाले सदरुद्दीन को भी। आप चिट्ठी खोलकर ज़रा पढ़ देखिए, शायद कोई सुराग मिले।‘ मौलाना ने चिट्ठी खोली-
   चाचाजान को सलामअलैकुम वो रमजानी को आदाब!
   खुदा के फज़ल से हम लोग राजी खुशी से हैं, आप लोग भी अच्छी तरह होंगे। आगे हाल यह है कि आप लोगों के गये पाँच साल से ज्यादा हो रहे हैं। मैंने इस बीच कई खत भेजे हैं, लेकिन आप लोगों की तरफ से कोई जवाब नहीं आया। आप लोग तो यही समझते होंगे कि हिन्दुओं ने फकीरू को काटकर फेंक दिया होगा। आप लोगों के जाने के बाद पूरी बस्ती में हम लोग सिर्फ तीन घर मुसलमानों के रह गये हैं। पिछले पाँच सालों में यहाँ हम लोगों के साथ कोई वारदात नहीं हुई। पहले जो ग्वाले हम लोगों की फसल चुराकर काट ले जाते थे या रात में अपनी भैंसें हमारे खेतों में छोड़ देते थे या हमारे जानवर खोल ले जाकर बाहर बेच आते थे, इधर इनकी ये हरकतें बन्द हैं।
रेखांकन : महावीर रंवाल्टा
   आपने तो कहा था कि हम भी सब बेचकर आप लोगों के साथ ही चल चलें। लेकिन जिस मिट्टी में हमारी मिट्टी खड़ी हुई, उसे छोड़कर कहीं जाने का मन नहीं हुआ। चूँकि यहाँ तीन घर मुसलमान हैं और स्कूल जाने वाले कुल जमा पाँच बच्चे ही हैं, सो यहाँ मदरसा नहीं है। बच्चे हिन्दुओं के स्कूल में जाते हैं। बच्चों को मैं खुद कुरान पढ़ा देता हूँ। लेकिन उसका मायने मैं जब खुद नहीं समझता, तो उन्हें क्या समझाऊँ? बच्चे चाहे हिन्दी पढ़ें या उर्दू, अल्लाह से दुआ करता हूँ कि ये मज़हबी फितूर में न पड़ें और नेक इन्सान बने रहें।
   चाचाजान, हमारे खेत हिन्दू जोतते हैं, खलिहान उन्हीं के ईमान पर हैं। दद्दन बुआ वो फजले नहीं रहे। उनकी कब्रें हिन्दू नोनियों ने खोदी थीं। धोबी, हज्जाम सब तो हिन्दू ही हैं। हमें इन्हीं के बीच रहना है। रामनौमी के जुलूस अब भी निकलते हैं। लोग तलवार बाना भाँजते हमारे घरों के आगे से निकलते हैं। पहले डर लगता था, अब नहीं लगता। पल्टू साह के ज़ोर पर पिछले साल से हम लोग भी ताज़िए का जुलूस निकाल रहे हैं। अब सब कुछ पहले जैसा हो गया है। 
  उस दिन बब्बन पंडित कह रहे थे- ‘फकीरू! तुम्हारी बाबर वाली मस्ज़िद तो हिन्दुओं ने गिरा दी, अब तुम्हारे खुदा मियाँ कहाँ रहेंगे? मैंने हँसते हुए जवाब दिया- फिर तो वह आपके मन्दिरों में घुस जाएंगे। इस पर बब्बन पंडित खूब हँसे और मेरे हाथ में मली जा रही खैनी की एक चुटकी अपने होंठ के नीचे दबाते हुए बोले- न जाने आदमी की अक्ल पर कैसा पत्थर पड़ गया है। ईंट-पत्थर के लिए आदमी का खून करते हैं।
  मौलाना ने आगे बिना पढ़े ही वह अन्तर्देशीय पिउन को लौटा दिया- ‘पता नहीं, किस सिरफिरे ने यह लिखा है।’ और वह आगे बढ़ गये।
  • मोहीउद्दीन नगर, समस्तीपुर-848501 (बिहार) 

सुरेश शर्मा


बदला

   आदिवासी परिवार के पांच-छः सदस्य गांव के पास जंगल में लकड़ी बीनने गए। लकड़ी बीनते हुए सभी एक-दूसरे से कुछ दूर हो गए। तभी चौदह-पन्द्रह वर्ष की लड़की मंगली की चीख सुनकर सभी चौंक गए। घबराते हुए उन्होंने देखा कि शेर मंगली की ओर भागा चला आ रहा है। मंगली ‘बचाओ-बचाओ’ की चीख के साथ अपने को बचाने का प्रयास कर रही थी। परिवार वाले देखकर होश-हवास खो बैठे। गांव वालों को पुकारते हुए वे गांव की ओर दौड़ पड़े। तभी शेर ने झपट्टा मारकर मंगली की कमर पकड़ ली। मंगली को पल-भर के लिए मौत मड़राते हुए नज़र आई। मरता क्या न करता! उसने साहस किया। दोनों हाथों से शेर के कान पकड़कर पूरी ताकत के साथ उमेठ दिए। शेर इस अचानक वार के लिए तैयार नहीं था। उसने लड़की को छोड़ दिया।
रेखांकन : नरेश उदास 
   उस समय उपस्थित जानवरों ने एक मामूली-सी लड़की से इस प्रकार शर्मनाक पराजय का कारण अपने राजा से पूछा। शेर ने बड़े धीरज के साथ उनकी बात सुनी, फिर जवाब दिया- ‘यह सही है कि मैं पल-भर में ही इस लड़की को खत्म कर देता। मैंने तो उसे छोड़ दिया। मगर जब भी आदमी को मौका मिलेगा वो नहीं छोड़ेंगे इसे। हर बार वह ईश्वर से प्रार्थना करेगी कि इससे तो अच्छा होता कि उस दिन शेर ही उसे खा जाता।
  • 235, क्लर्क कालोनी, इन्दौर-452011 (म.प्र.)









महावीर रवांल्टा












समझौता

   ‘अगर तुम्हें घर छोड़ना ही है तो छोड़ क्यों नहीं देती, कौन रोकता है तुम्हे!’ पत्नी को उलाहना देता हुआ पति आवेश में फट पड़ था। पति के शब्द सुनकर पत्नी का सारा गुस्सा हवा हो गया और वह पति के बारे में सोचने लगी थी।
   ‘यही पति था जो उससे एक दिन की जुदाई भी बर्दास्त नहीं कर सकता था, आज उससे घर छोड़ने की बात कर रहा था।’
   उसे लगा वह किसी चौराहे पर निर्वस्त्र खड़ी है और अनगिनत निगाहें उसका पीछा कर रही हैं।
   इसके बाद उसने फिर कभी पति के सामने घर छोड़ने की जिद नहीं की, बस उसकी सुनती रही।

  • ‘सम्भावना’ महरगॉव, पत्रा.- मोल्टाड़ी, पुरोला, उत्तरकाशी-249185, उत्तराखण्ड 



राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’

(लघुकथाकार श्री राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’ जी का लघुकथा संग्रह ‘खूंटी पर लटका सच’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं दो लघुकथाएं।)




बदलते समय की सोच

   डॉक्टरों ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि यदि छगनलालजी को बचाना है तो इन्हें पहाड़ी क्षेत्र में कुछ दिनों के लिये ले जाना होगा। रमेश ने जाने का तय भी कर लिया था।
   तभी एक दिन पत्नी ने गले में बाहें डालते हुए कहा- ‘‘डार्लिंग, मेरे भाई की शादी आ रही है। गले का हार बनवा दो न!’’
   ‘‘पिताजी को आबोहवा बदलवाने पहाड़ पर ले जाना है। हार अभी रहने दो।’’ रमेश ने समझाया।
   पत्नी ने समीप आते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम चाहे पिताजी को पहाड़ पर ले जाओ या स्विट्जरलेण्ड, वे ज्यादा दिन टिकने वाले नहीं हैं। पैसा मिट्टी में मिल जाएगा। अगर मेरा हार बनता है तो भविष्य में बच्चों के ही काम आयेगा।’’
   बात रमेश के गले उतर गई और उसने दवाई का पर्चे कचरे की टोकरी में डाल दिये।

धर्म और कर्तव्य

रेखांकन : महावीर रंवाल्टा
   ‘‘नहीं, हम किसी भी कीमत पर मंदिर नहीं बनने देंगे। कुर्बानी के लिए तैयार रहो।’’ एक आवाज.....और अनेकों तलवारें हवा में लहरा उठीं।
   ‘‘नहीं! वहां मस्जिद नहीं बनने दी जाएगी। बलिदान के लिए तैयार हो जाओ।’’ दूसरी आवाज.....और अनेकों फरसे हवा में ऊँचे हो गये।
   एक घण्टे बाद तलवार लहराने वाले शहर में बन रहे एक मंदिर में मिस्त्री-मजदूर बने तनमन से पेट की खातिर जुटे हुए थे; वहीं फरसे वाले भी एक अन्य निर्माणाधीन मस्जिद के बाहर काम की उम्मीद में भीड़ लगाए खड़े थे।
  • ए/91, विवेकानन्द कॉलोनी, उज्जैन-456010 (म.प्र.)

शोभा रस्तोगी शोभा




नवरात्रे

    चौधरी साहब बाजार से निकल रहे थे, अचानक सुखूबाई टकराई ......‘कैसे हो चौधरी ! अपने इधर नहीं आये कई दिनों से....’
   ‘हाँ... हाँ, सुखूबाई ! मै ठीक हूँ......’
   ‘....एक नई कन्या मतबल नया माल आया है कोठे पे ....आना चौधरी.....’
   ‘नहीं सुखूबाई! अभी तो नवरात्रे चल रहे है न... कन्या के हाथ लगाना मना है.....’
    चार दिन बाद चौधरी सुखूबाई के कोठे पर थे। 
    ‘अरे ला ...सुखूबाई, नया माल कित सै?’
    ‘चौधरी! अब क्या हाथ लगा लोगे कन्या के ?’
   ‘इब तो सब कुछ लगा लूँगा, नवरात्रे जो ख़त्म हो गए हैं.....!’

  • आर जेड डी-20 बी,  डी.डी.ए. पार्क रोड,  राज नगर-2,  पालम कालोनी,  नई दिल्ली- 110077   

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०७, मार्च २०१२ 

।।क्षणिकाएँ।।

सामग्री :  डॉ. मिथिलेश दीक्षित, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा व  ज्योत्सना शर्मा की क्षणिकाएं


डॉ. मिथिलेश दीक्षित



(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी का क्षणिका में उल्लेखनीय योगदान है। उनके छः क्षणिका संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं, इन्हीं में से गत वर्ष प्रकाशित एक संग्रह ‘सिन्धु सीपी में’ हमें हाल ही में पढ़ने का अवसर मिला। उनके इसी क्षणिका संग्रह से प्रस्तुत हैं पांच क्षणिकाएं।) 

 पांच क्षणिकाएं

1.

प्रेम-करुणा की
बहाता धार,
ममता से भरा
यह हृदय उच्च, उदार
फिर क्यों 
मान जाता हार!

2.

उस समन्दर में
अगर हम 
झाँक पायेंगे,
तो निश्चित ही
किसी से कम
न खुद को
आँक पायेंगे!

3.

बोलबाला
कागों का
हो गया 
सफ़ाया आज
हरे-भरे बागों का।

4.

रेखांकन :  राजेंद्र परदेशी 
जन्म दे 
जीवन सजाती ,
घर से संसद तक
चलाती,
फिर भी ‘अबला’
आज के उत्कर्ष में भी,
क्यों भला!

5.

शब्द में
तुम बोलते थे,
आज तुम
नयनों से बोले,
होश में 
क्या आ गये हम,
ज़िन्दगी ने 
राज़ खोले! 

  • जी-91,सी, संजयपुरम्, लखनऊ-226016 (उ.प्र.)

डॉ. सुरेन्द्र वर्मा



(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेन्द्र वर्मा साहब का काव्य संग्रह ‘उसके लिए’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की अधिसंख्यक रचनाएं ‘क्षणिका’ की कसौटी पर खरी उतरती हैं। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से पांच क्षणिकाएं।) 



पांच क्षणिकाएं

1. नक्षत्र सी 

जब सोयी रहती है चेतना
उस निविड़ अंधकार में
तुम्हारी स्मृति की
एक बूंद
प्रकाश कण बनती है
नीले आकाश में
नक्षत्र सी

2. और भी अकेला

वह आती है
मेरे एकांत में चुपके से
सिरहाने बैठती है
कर जाती है मुझे
और भी अकेला

रेखांकन : अनिल सिंह 
3. खिल उठी

किसी अप्सरा ने जैसे
अपने नर्म और रक्ताभ
होंठ खोले हों
कली क्या चटकी
कि फूल की पाँखुरी
थोड़ी झिझकी
और खिल उठी

4. स्मृतियाँ मनचाही

एक बर्र
मेरी बाँह में डंक मारती 
उड़ जाती है
चाहा तो बहुत था
भुला दूँ  
लेकिन स्मृतियाँ अनचाही
मँडराती हैं आस-पास

5. तुम्हें संजोता रहा

पत्तियाँ हिलती रही पेड़ों पर
हिलोरें भटकती रहीं नदी में
कभी जुगुनुओं के प्रकाश कणों में
कभी स्वर की तरंगों में
मैं तुम्हें संजोता रहा 

  • 10, एच.आई.जी.; 1-सर्कुलर रोड, इलाहाबाद (उ.प्र.)


ज्योत्सना शर्मा



तीन क्षणिकायें 

1-मुक्ति

मिलन 
या विरक्ति 
तुमसे विलग 
तुमसे मिलूं 
पा जाऊं मुक्ति .....।

2-मुस्कान

धूप
रेखांकन : बी. मोहन नेगी 
आशाओं की
जगमगा कर खिले
जब वो
आकर मिले

3- कविता 

बूंद से बूंद 
सरिता हुई
आखर से आखर
राग से राग आ मिला
और 
कविता हुई .............।

  • मकान-604,  प्रमुख हिल्स,  छरवाड़ा रोड,  वापी, जिला : वलसाड़ (गुजरात)