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रविवार, 5 नवंबर 2017

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2017


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


श्रीनाथद्वारा स्थित
प्रभु श्रीनाथजी के मन्दिर का मुख्य द्वार
(छायाचित्र : उमेश महादोषी)




   ।।सामग्री।।
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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में नारायण सिंह निर्दाेष, रामसनेही लाल शर्मा, शिवानन्द सिंह सहयोगी, महावीर रंवाल्टा की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में मधुदीप, उषा अग्रवाल ‘पारस’, अशफाक अहमद,  सत्य शुचि, कमलेश चौरसिया की लघुकथाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में  विभा रश्मि एवं वंदना सहाय के हाइकु।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ}  एवं क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : 
अब से क्षणिकाओं एवं क्षणिका सम्बन्धी सामग्री के लिए ‘समकालीन क्षणिका’ ब्लॉग पर जायें।  इसके लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें-

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  इस अंक में ध्रुव तांती का व्यंग्यालेख- 'शौचालय और हमारा चिंतन'।

साक्षात्कार {अविराम वार्ता} :  इस अंक में चक्रधर शुक्लजी द्वारा लिया गया वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्यामसुन्दर निगमजी का साक्षात्कार

अविराम के अंक {अविराम के अंक} : इस अंक में अविराम साहित्यकी के जुलाई-सितम्बर 2017 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री की सूची।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में इस अंक में डॉ.शील कौशिक के कविता संग्रह ‘खिड़की से झांकते ही’ की डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा एवं डॉ. सुधा गुप्ता के हाइगा संग्रह ‘हाइगा आनन्दिका’ की उमेश महादोषी द्वारा समीक्षाएँ। 

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अन्य स्तम्भ, जिनमें इस बार नई पोस्ट नहीं लगाई गई है

सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  
कहानी {कथा कहानी} : 
जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} :  
माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  
बाल अविराम {बाल अविराम} :
संभावना {संभावना} :  
स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} : 
अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :
हमारे सरोकार {सरोकार} : 
लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : 
हमारे युवा {हमारे युवा} :  
अविराम की समीक्षा {अविराम की समीक्षा} : 
अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} : 

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  11-12,  जुलाई-अगस्त  2017




।।कविता अनवरत।।



नारायण सिंह निर्दाेष




ग़ज़लें


01. 
ज़िन्दगी ने जितना सँवारा काफ़ी है।
हम कर सके जितना गवारा काफ़ी है।

होता नहीं है जब कोई भी रूबरू
लफ़्ज़ों का एक पल सहारा काफ़ी है।

जब खुद किनारे टूट जाते हैं नदी में
तब नाव का टूटा किनारा काफ़ी है।

ज़िन्दगी! फिर लौट आने के लिये
जिस जगह पर तूने मारा काफ़ी है।

किधर चलें, के मंज़िलें पा सकें
हवा का कुछ कुछ इशारा काफ़ी है।

टूट कर मंज़र सभी बिखरे पड़े हैं
जो आँख ने देखा नज़ारा काफ़ी है।

इस बहाने कुछ गुबार निकला है
सर पे मेरे उड़ता गुब्बारा काफ़ी है।

02. 
सब कुछ तुम पर  छोड़ देते हैं। 
अपनी... आँखें निचोड़ देते हैं।

रेत के, अपने सब घरौंदे हम 
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी 
बना लो महल... तोड़ देते हैं। 

सुना है... उदास चेहरे छीन के
आप... चेहरे हँसोड़ देते हैं।

मँहगी  ...पतलूनें ...पहनते हैं
हमें, ...कब करने होड़ देते हैं।

दईया ...बहुत  दर्द होवे जब
आप ...बईयाँ मरोड़ देते हैं।
  • सी-21, लैह (LEIAH) अपार्टमेन्ट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096/मो. 09810131230 

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।।कविता अनवरत।।


रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’




नवगीत

01. परिपाटी

कुरुक्षेत्र हो
पानीपत या
हो हल्दीघाटी
सिर्फ हमारे ही
शहीद होने की
परिपाटी।

खेतों में मौसम
से मरते,
रण में वाणों से
राजाजी को मिले
अमरता
अपने प्राणों से।
सिंहासन के पाये हों
या सिंहपौर की सीढ़ी
अपनी ही अस्थियाँ
सदा
बनती हैं सक्की माटी।

बंजारे सपने लेकर
हम/आजीवन भटके,
छायाचित्र  : उमेश महादोषी 

सागर, शिखर फलाँगे
फिर भी
कभी नहीं अटके
चले सतत हम
लेकिन मंजिल मिली सदा उनको
छाया जिनकी
बहुत बड़ी है
काया है छोटी

वहाँ हथेली पर सरसों
प्रतिपल उगती देखी
यहाँ भूख की सुरसा
आंगन में जगती देखी
राजमहल का शील
हिमालय से भी ऊँचा है
गुजराती ताला है
लेकिन
अरहर की टाटी

चक्कर पर चक्कर
चक्कर पर
नये-नये चक्कर
राजमहल की ईंट-ईंट में
है तिलिस्म का घर
बनकर कुम्भज ऋषि
सोखें हैं
सब सुविधा-सागर
तेरे-मेरे हिस्से में
है सिर्फ मही घाटी।

02. अम्मा सी

यज्ञधूम सी पावन घर में
बैठी है चुपचाप उदासी।

ज्ञान पीटने गया सवेरे
लदा-फँदा बस्ते से बचपन
हबड़-तबड़ में घनी व्यस्तता
लाद पीठ पर भागा यौवन
पीछे छूट गयी है
घर में
शुभकामना बाँटती खासी

साँझ ढले
छायाचित्र  : आकाश अग्रवाल 
लौटी है हलचल
घर में आयीं थकीं थकानें
अस्त-व्यस्त बस्ता
सूखा मुँह
थकन, पसीना औ मुस्कानें
चाय-चूय, किस्से-गप्पें धुन
हँसी-कहानी और उबासी

रोज-रोज की यही कहानी

कहती हैं
छत से दीवारें
थोड़े से सुख ज्यादा दुःख हैं
पर/ये महानगर की मारें
पाँव दबाता घूँघट गायब
पर आशीष वही अम्मा सी
  • 86, तिलक नगर, बाईपास रोड, फ़िरोज़ाबाद-283203 (उ.प्र.)/मो. 09412316779

अविराम विस्तारित

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।।कविता अनवरत।।


शिवानन्द सिंह सहयोगी



नवगीत


01. सुनो बुलावा!

सुनो बुलावा!
क्या खाओगे!
घर में एक नहीं है दाना

सहनशीलता
घर से बाहर
गई हुई है
किसी काम से
राजनीति को
डर लगता है
किसी ‘अयोध्या’
‘राम-नाम’ से
चढ़ा चढ़ावा!
धरा पुजारी!
असफल हुआ वहाँ का जाना

आजादी के
उड़े परखचे
तड़प रही है
सड़क किनारे
लोकतंत्र का
फटा पजामा
टाँका के है
पड़ा सहारे
रेखाचित्र :
डॉ. सुरेंद्र वर्मा 
लगा भुलावा!
वोटतंत्र यह!
मनमुटाव का सगा घराना

मिला पलायन
माला लेकर
राजतन्त्र के
चित्रकूट पर
भुखमरी का
पेट छ्छ्नता
राजभवन के
घने रूट पर
बँधा कलावा!
जनसेवा का!
जाना है बस क्षितिज उठाना

02.  लिफाफा भूल आया

आज खिड़की पर किसी का 
एक फेंका फूल आया 
लगा धरती के लिये है 
कान का कनफूल आया 

बादलों का झुंड अभिनव 
बूँद की बारात में है 
इन्द्रधनुषी एक गजरा 
सज रहा सौगात में है 
धूप को डोली चढ़ाने
झींसियों का झूल आया

कुछ गुलाबों सी टहनियाँ 
हैं अहमदाबाद में भी 
यह खबर अमरावती की 
रेखाचित्र : बी. मोहन  नेगी 
है इलाहाबाद में भी 
बिन बुलावा बिन बताये  
जेठ में बैतूल आया 

नये किसलय से चिपटकर
बहुत खुश आकाश-जल है  
मौन है बेसुध पड़ा है 
सोच में कुछ द्रवित पल है 
चाहता कुछ नेग देना 
है लिफाफा भूल आया

  • ‘शिवाभा’, ए-233, गंगानगर, मवाना नगर, मेरठ-250001, उ.प्र./मो. 09412212255

अविराम विस्तारित

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।।कविता अनवरत।।


महावीर रंवाल्टा




दिल्ली

सारी की सारी दिल्ली
लगा रही होती है दौड़ 
और वह
उस दौड़ में अकेला होता है।
गाँव के लोग
गाँव के संस्कार
समाए होते हैं उसके भीतर
और वह
दिल्ली में होता है।
दिल्ली उसकी नहीं सुनती
देखती भर है उसे
टटोलती है जैसे जेब
और वह 
उदासी में घिरा होता है।
पहली बार
भागम-भाग में होती है
उसके लिए दिल्ली
और दिल्ली के लोग
और वह
उन्हें समझने की कोशिश में
रेखाचित्र :
कमलेश चौरसिया
 
मुँह ताकता है
बगलें झाँकता है
पर दिल्ली मुँह मोड़ती है।

भले ही उसकी
अनदेखी करती हो दिल्ली
लेकिन घर लौटने पर भी
उसके साथ होती है दिल्ली
दिल्ली की सड़कें
दिल्ली के लोग
यानि पूरी की पूरी दिल्ली।

मेरी कविता
तमाम अर्थों में
मेरी कविता
दिनभर पसीना बहाते
खेतिहर मजदूरों की
कमजोर कविता है
जिसमें सुगन्धित ‘परफ्यूम’ की जगह
पसीने की दुर्गन्ध है
जो
आधुनिक सभ्य कहलाने वाले
इंसान के लिए
असह्य भी है और इम्तेहान लेवा भी।
मेरी कविता
अस्पताल की खुली दिनचर्या में
मरीजों को लगाये जाने वाले
तमाम इन्जेक्शनों का असर है
मरीजों की कतार की आपाधापी के बीच
मेरे प्रति
कडुवाहट उगलते शब्द है।
मेरी कविता
मरीजों को बाँटी जाने वाली 
छायाचित्र : शशिभूषण बडोनी 
तमाम गोलियों की कडुवाहट है
जिनसे
किसी को आराम मिलता है
किसी को तसल्ली
और किसी को सिवा भ्रम के
कुछ नहीं मिलता।

  • संभावना, महरगाँव, पत्रा. मोल्टाड़ी, पुरोला, जनपद उत्तरकाशी-249185,उ.खंड/मो. 09411834007

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।। कथा प्रवाह ।।

मधुदीप

 



विकल्प 
      कल रात को गाँव से आए मेरे मित्र के फोन ने मुझे दुविधा में डाल दिया है। पूरा किस्सा बयान करने से पहले मुझे आपको अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में थोड़ा-बहुत अवश्य बताना पड़ेगा अन्यथा मैं अपनी बात आपको पूरी तरह समझा नहीं पाऊँगा ।
     मेरे परिवार में इस समय चार पीढ़ियाँ हैं। मेरी दादी (दादाजी नहीं हैं), पिताजी-माताजी, मैं-मेरी पत्नी और मेरा चौबीस वर्षीय शादीशुदा पुत्र। मैं अपने माता-पिता तथा पुत्र-पुत्रवधू के साथ शहर के इस तीन-मंजिले मकान में रहता हूँ।
     मेरे लाख प्रयास करने पर भी मेरी नब्बे वर्षीय दादी कभी शहर में आकर हमारे साथ इस मकान में रहने को तैयार नहीं हुईं। झगड़ा वही शाश्वत है। गाँववाले घर को दादीजी अपना मानती हैं और इस शहरवाले घर को माताजी अपना मानती हैं। मेरी पत्नी का मानना है कि उसका तो अब तक अपना कोई घर है ही नहीं। पुत्र और पुत्रवधू का तो वे जानें या आप समझें।
     हाँ तो पाठको! रात को गाँव से आए मेरे दोस्त के फोन ने मुझे विचलित तो किया ही है, दुविधा में भी डाल दिया है। गाँव में दादीजी सख्त बीमार हैं और वहाँ पर उनकी तीमारदारी को जो महिला मैंने रखी हुई है वह उन्हें सँभालने में अब असमर्थ है।
     पूरी रात मैंने कसमकस में जागते हुए व्यतीत की है लेकिन अभी तक किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सका हूँ।
     पाठको! पूरी रात की जद्दोजहद के बाद मेरे सामने चार विकल्प उभरकर आए हैं। पहला- मैं कार्यालय से एक महीने का अवकाश लेकर पत्नी सहित दादीजी की सेवा-देखभाल के लिए गाँव में चला जाऊँ। शायद मैं पत्नी की मनुहार करके किसी तरह इसके लिए उसे तैयार कर लूँ! दूसरा- मैं माताजी के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करूँ कि वे इस समय किसी तरह दादीजी के साथ एडजस्ट कर लें, हालाँकि यह बहुत दूर की कौड़ी लगता है। तीसरा- मैं दादीजी को गाँव से लाकर सीधा हस्पताल में भरती करा दूँ और भुगतान पर पूर्णकालिक नर्सों को उनकी सेवा में लगा दूँ। हालाँकि इससे मुझपर जो आर्थिक दबाव पड़ेगा वह मेरी कमर तोड़ देगा मगर किसी-न-किसी तरह मुझे उस खर्च को  वहन करना ही होगा। चौथा विकल्प है कि मैं भी अपने पिता और पुत्र की तरह इस स्थिति से आँखें मूँदकर कुढ़ता रहूँ।
     तो पाठको! आप मुझे कौनसे विकल्प की सलाह देते हैं? शायद आपकी सलाह ही मुझे इस उलझन से बाहर निकाल सके!

  • 138/16 त्रिनगर, दिल्ली-110 035/मो. 9312400709

अविराम विस्तारित

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।। कथा प्रवाह ।।


उषा अग्रवाल ‘पारस’




कंधे का सहारा
      खबर मिली, पड़ोस की दादीजी का देहावसान हो गया। लगभग आठ दशक लाँघ चुकी दादीजी बेटे-बहू, पोते-पोती सब सुख देख चुकी थीं।
      जल्दी-जल्दी काम निपटा मैं भी अंतिम विदाई में शामिल होने जा पहुँची। सारा परिवार, रिश्तेदार, अपने-अपने तरीके से व्यस्त दिखाई पड़ रहे थे। सांत्वना के दो बोल किससे बोलूँ, मैं नजर दौड़ा रही थी। तभी दीवार के सहारे चुपचाप उदास खड़ी कमलाबाई दिखाई दी। कहने को तो अनेकों बहुयें, पोताबहुयें थीं, लेकिन जबसे दादीजी ने बिस्तर पकड़ा, कमलाबाई ही उनका सब काम किया करती थी। मैंने उसके करीब जाकर जैसे ही कहा- ‘‘चलीं गईं दादीजी’’, कमला मेरे कंधे पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका रुदन सुनकर कई लोग हमारी ओर आकर एकत्र हो गये। उन सबकी आँखों में भी आँसू आने लगे।
      मैं कमला को चुप कराने लगी। कमला के आँसू पल भर को रुकते और वह सामान्य होने के प्रयास में धीरे-धीरे मेरे कंधे से सिर हटाकर आँसू पोंछती। तभी उसका सिर पुनः मेरे कंधे पर चला जाता और फिर से उसकी रुलाई फूट पड़ती।
      मैं सोच रही थी, रोने के लिए कंधे का सहारा कितना जरूरी हो जाता है।

  • 201, सांई रिजेन्सी, रविनगर चौक, अमरावती रोड, नागपुर-440033, महा./मो. 09028978535

अविराम विस्तारित

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।। कथा प्रवाह ।।


अशफाक अहमद




एक ज़ख्म और सही
      तुम यहाँ क्यों आती हो?
      तुमसे मिलने....।
      परन्तु रोजाना आने का कारण?
      मैं नहीं जानती। लेकिन यह सच है कि आपसे मिलने के बाद मेरे मन को शान्ति मिलती है और मैं सुकून महसूस करती हूँ।
      सुनो, यह पागलों की तरह बातें न करो। मैंने प्रेम से तौबा कर ली है। यूँ भी मेरे दिल में कई दर्द पल रहे हैं। मेरा दिल जख़्मों से चूर है।
      मैं जानती हूँ, इसीलिए उन जख़्मों को भरने के लिए कह रही हूँ एक जख़्म और सही।

  • 41-ए, टीचर्स कॉलोनी, मर्कज-ए-इस्लामी के सामने, जफर नगर, नागपुर-440013, महा./मो. 09422810574

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।। कथा प्रवाह ।।


सत्य शुचि

आगंतुक का इन्तज़ार
      मोबाइल पर बेटे का मैसेज था और वह किंचित कहीं खो-सा गया। पर तुरन्त ही उसने काम में व्यस्त पत्नी का ध्यान भंग किया- ’’....अरे जल्दी करो!’’
      ‘‘क्यों क्या हो गया?’’ पत्नी ने चिंता जताई।
      ‘‘बेटा आ रहा है...!’’ उसने अवगत कराया।
      ‘‘तो आने दो।’’ पत्नी ने सहज में लिया।
      ‘‘बेटे के संग नई बहू भी है...’’ प्रफुल्लित-सा दिखते हुए वह बोला।
      ‘‘क्या...!’’ विस्मय से वह ठगी-सी रह गई।
      ‘‘हाँ, मैं कह रहा हूँ, फुर्ती से नीचे चलना है।’’ वह कमरे में इधर-उधर टहलने लगा।
      ‘‘नीचे जाकर क्या करेंगे हम...?’’ पत्नी ने जिज्ञासा प्रकट की।
      ‘‘बिल्डिंग के मेन गेट तक हमें पहुँचना है।’’
      ‘‘क्या...! बेटा-बहू घर में नहीं आयेंगे...?’’
      ‘‘उनके पास वक्त नहीं है। मेने गेट से ही हमारा आशीर्वाद लेकर वापस...’’
      ‘‘आखिर मैं आपसे पूछती हूँ, इस ज़माने को क्या होता जा रहा है?’’
      ‘‘तुम फिजूल की बकवास छोड़ो, यार!... जमाने के साथ-साथ तुम भी कदम मिलाती जाओ तो कभी दुःख महसूस नहीं करोगी मेरी तरह, समझीं...!’’
      ‘‘हाँ...! हमें क्या? जिसमें औलाद की राजी-खुशी, उसी में हमारी...’’
      ‘‘अब लेट क्यों हो रही हो...?’’
      ‘‘लेट कहाँ....चल तो रही हूँ।’’
     और वे मेन गेट पर पलक-फावड़े बिछाए आगन्तुक के इन्तजार की घड़ियाँ गिनने लगे।

  • साकेत नगर, ब्यावर-305901, राज.

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।। कथा प्रवाह ।।


कमलेश चौरसिया




गुलाब की सुगंध
       आज डॉ. उर्मिला का वर्थ-डे है। रात बारह बजे से ही बधाइयों के एसएमएस आने लगे थे। कई अपनों के मोबाइल कॉल भी आये। फेसबुक पर भी बधाइयों और धन्यवाद ज्ञापन का सिलसिला पूरे दिन चलता रहा। लेकिन इस समय उसे सब कुछ अधूरा-सा लग रहा था। मन बेचैन-सा था। आँखों में सूनेपन की जकड़न उसके उत्साह और ऊर्जा को सोखे जा रही थी। सोफे से उठने की इच्छा नहीं हो रही थी।
      आज जल्दी-जल्दी पेसेन्ट्स को अटेंड करके बड़े उत्साह के साथ वह समय से पहले ही घर आ गई थी। उम्मीद थी कि कम से कम आज तो पतिदेव भी हॉस्पीटल से फ्री होकर वादे के मुताबिक जल्दी घर आ जायेंगे। लेकिन...।
      वह क्लीनिक से आकर सोफे पर बैठी ही थी कि मधुर संगीत के साथ मोबाइल स्क्रीन पर पतिदेव की फोटो चमक उठी थी। ऑन करते ही आवाज आई- ‘‘सॉरी डार्लिंग, आज भी मैं जल्दी नहीं आ पाऊँगा। एक मेडीकल कंपनी के एम. डी. को समय देना पड़ गया। तुम्हें थोड़ा इन्तजार करना होगा। लेकिन तुम तैयार रहना। आज हम तुम्हारे पसंदीदा रेस्तरां में डिनर के साथ तुम्हारा वर्थ-डे सेलीब्रेट करेंगे।’’ और बिना उसकी प्रतिक्रिया जाने फोन काट दिया गया था। वह सोचती ही रह गई... क्या पेशे के आगे रिश्ते की इतनी ही अहमियत...!
      अचानक डोरबेल की ट्रिंग-ट्रांग से उसकी तन्द्रा भंग हुई। जैसे-तैसे जाकर दरवाजा खोला तो भौचक्की रह गई। ‘‘हैप्पी वर्थ-डे, डियर भाभी!’’ कहते हुए सामने ननद-ननदोई खड़े थे। ननद उसे बाहों में भरकर गले लग गई। अचानक मिले इस अपनेपन और ननदोई के हाथों में केक और गुलाबों के गुलदस्ते से आती सुगंध ने उसकी आँखों के सूनेपन की जकड़न को उखाड़कर फेंक दिया था। ऊर्जा आौर उत्साह की तरंगें उसके तन-मन में संचरित होने लगी थीं।

  • गिरीश-201, डब्ल्यू.एच.सी. रोड, धरमपेठ, नागपुर-440010 (महाराष्ट्र)/मो. 08796077001 

अविराम विस्तारित

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।।हाइकु।।


विभा रश्मि







01.

घटा छा गई,
तिनकों के घोंसले
झेलेंगे मार।

02.

रिक्त आसमाँ
जलद फेरा लगा 
चला तरसा।
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी 


03.

बूँदों के ख़त 
लेता आ मेघदूत 
अँखियाँ झरीं।

  • एस-1/303, लाइफस्टाइल होम्स, होम्स एवेन्यू, वाटिका इण्डिया नेक्स्ट, सेक्टर 83, गुड़गाँव -122004, हरि./मोबा. 09414296536

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।।हाइकु।।



वंदना सहाय







01.

तेरी ये आँखें
याद दिला जाती हैं
खिले मोगरे

02.


छायाचित्र : उमेश महादोषी 
सूख रहा है 
नदियों के साथ ही 
पानी आँखों का

03.

अम्माँ पोंछती
आज चश्मे की धूल
बच्चे आएँगे

  • फ्लैट नं-613, सुन्दरम-2, विंग-सी, मलाड ईस्ट, निकट टाइम्स ऑफ इण्डिया बिल्डिंग, मुम्बई-400097, महा. /मो. 09325887111 

अविराम विस्तारित

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।। व्यंग्य वाण ।।


ध्रुव तांती




शौचालय और हमारा चिंतन 


      देश में बने बहुत से ‘आलय’, जैसे- विद्यालय, देवालय, चित्रालय, चिकित्सालय की तरह ‘शौचालय’ का भी अपना महत्व है। विद्यालय, जहाँ शिक्षा दी जाती है, वहाँ ज्ञान का अर्जन किया जाता है। देवालय में जहाँ आत्मा का शुद्धीकरण होता है, वहीं देवता सहायता के लिए तत्पर भी रहते हैं। शौचालय में शारीरिक शुचिता लाने की क्रिया अपनायी जाती है। हम स्वस्थ रहते हैं। विद्यालय या देवालय जाने में चूक हो सकती है, कोई बात नहीं। मगर, शौचालय की उपस्थिति शत-प्रतिशत होनी चाहिए। इसमें गड़बड़ी होने से चिकित्सालय की शरण लेनी पड़ती है। शरीर से मलत्याग करना आवश्यक है और इससे शौच क्रिया द्वारा ही निवृत हुआ जा सकता है।
      इस तरह से हम इस निष्कर्ष पर आ टपकते हैं कि मानव-जीवन में शौचालय का महत्व चिकित्सालय से जरा भी कम नहीं। सम्प्रति अपने देश में शौचालय दो रूपों में पाया जाता है- एक, ओपन मैदान, जहाँ ‘आलय’ नाम की कोई चीज नहीं दिखती और दूसरा तो हम-आप जानते ही हैं- दीवारों से घिरा कमरानुमा। इन शौचालयों का महत्व केवल ‘शौच’ की दृष्टि से ही नहीं होता है अपितु ‘शौच’ के साथ ‘सोचने’ की महान प्रक्रिया भी इन दोनों स्थलों पर अपनायी जाती है।
      कहा जाता है कि जितना ज्ञान हमें विद्यालय में अध्ययन करने से नहीं होता है, उतना ज्ञान का अर्जन शौचालय में बैठकर सोचने से होता है। इसीलिए, बड़े-बड़े राजनेता, उत्तम प्रकृति के लोग शौचालय में अधिक से अधिक समय बिताना चाहते हैं। वे उक्त अवधि में पूरा का पूरा दैनिक पत्र पढ़कर अपने चिंतन को परिपक्व बनाते हैं। इस बीच चाहे जितनी कॉल आ जायें, ‘‘साहब ट्वालेट यानी शौचालय में हैं’’ यह मंत्र वाक्य प्रचारित होते रहता है। भले ही वे शौचालय के इर्द-गिर्द के कमरे में ही क्यों न हों। आपको आश्चर्य होगा कि बड़े-बड़े ओहदे वाले लोग भी यह सूचना पाकर कि साहब शौचालय में करीब दो घंटे से विराजमान हैं, स्वतः इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि सम्प्रति वे (साहब) देश की किसी गंभीर समस्या का हल ढूँढ़ने में तल्लीन हैं। क्योंकि शौचालय जैसा शांत, निरापद स्थल चिंतन के लिए मिलना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में उन्हें डिस्टर्ब करना उचित नहीं। 
      हमने अनुभव किया है कि हिन्दी साहित्य में शौचालय की महत्ता पर कम ही लिखा-पढ़ा गया है। ऐसा नहीं होना चाहिए। जिस देश के नागरिक विद्यालय, चिकित्सालय या फिर देवालय के लिए धरना, प्रदर्शन, अनशन आदि चौक-चौराहे पर करते हैं; वहीं से शौचालय के लिए भी बुलंद आवाज उठनी चाहिए। हमारा तो नारा है- ‘‘अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है;/रोगी है वह देश, जहाँ शौचालय नहीं है।’’
      सरकार को हमारी सलाह पर कुछ पहल करनी चाहिए। वह निर्देश तो जारी कर ही सकती है कि इस देश के सभी नागरिक इस बात की गै्रन्टी दें कि शारीािक शुचिता के लिए हरेक घर में एक अदद शौचालय का प्रबंध कर लिया गया है। चाहे उनके रहने के लिए घर हो या न हो अथवा वे खुले आकाश या गाछ-वृक्ष के नीचे ही क्यों न सोते हों। यह कोई शर्मिन्दगी की बात नहीं है। जरूरत है कि जनता शौचालय में कुछ पल बैठकर देश हित की बात सोचे।
      हम अन्दाजा लगाते हैं कि प्रत्येक परिवार में शौचालय बन जाने से देश में भयंकर से भयंकर बीमारी का नामोनिशान मिट जायेगा। चिकित्सक अपना धंधा छोड़ साहित्य में ‘कविकर्म’ को अपनायेंगे। शरीर स्वस्थ होगा और हम जानते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग का वास होता है। इसलिए, हमें शौचालय में बैठकर सोचने का अभ्यास करना चाहिए। क्या पता, कब और किसे बुद्ध, महावीर या कबीर की तरह कोई चमत्कारिक सोच हाथ लग जाये और मानव कल्याण हो जाये। हम जानते हैं कि हमारी सारी समस्याओं का एक मात्र हल ‘शौचालय’ है। शायद यही कारण है कि जनता द्वारा अपने प्रतिनिधि की खोज करने पर प्रायः पता चलता है कि ‘‘वे अभी शौचालय में हैं।’’

  • ग्राम व पोस्ट : मैना ग्राम वाया महिषी, जिला: सहरसा-852216 (बिहार)/मो. 09431463466

अविराम वार्ता

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  11-12,  जुलाई-अगस्त  2017




।।कविता वार्ता ।।


{मित्रो, इस ब्लॉग पर ‘अविराम वार्ता’ शीर्षक इस नये स्तम्भ में विभिन्न विषयों पर साक्षात्कारों को शामिल/प्रकाशित किया जायेगा। अब तक साक्षात्कारों को ‘अविराम विमर्श’ स्तम्भ में दिया जाता रहा है, जिसके कारण कभी-कभी किसी विशेष साक्षात्कार को ढूँढ़ने में काफी श्रम करना पड़ता है। ‘अविराम वार्ता’ के रूप में ऐसे तमाम साक्षात्कार एक स्थान पर संकलित हो सकेंगे। चूँकि प्रत्येक साक्षात्कार का अलग लिंक भी होगा, अतः उसे ढूँढ़ना आसान हो जायेगा। पूर्व में प्रकाशित साक्षात्कारों को भी इस स्तम्भ के साथ जोड़ने का प्रयास किया जायेगा। इस आर प्रस्तुत है भाई चक्रधर शुक्लजी द्वारा लिया गया वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्यामसुन्दर निगमजी का साक्षात्कार। यह सात्क्षााकार मूल रूप से अविराम साहित्यिकी के मुद्रित प्रारूप के अक्टूबर-दिसम्बर 2016 अंक में प्रकाशित हुआ था। 
      श्री श्यामसुन्दर निगम जी ने विगत तीन दशकों में कविता-कहानी में सृजन के सापेक्ष दूसरों के सृजन में से अपनी दृष्टि से महत्वपूर्ण चीजों को पकड़कर उन्हें स्थापित करने का कार्य कहीं अधिक और समर्पित भाव से किया है। यह चीज उन्हें अलग तरह का सृजक बनाती है। इस सन्दर्भ में चक्रधर जी से इस बातचीत में कुछ बिन्दुओं पर उनके अनुभव और विचार जानना दिलचस्प है। 




श्री श्यामसुंदर निगम 



न गाँव को मैं छोड़ पाया न गाँव मुझे 
श्यामसुन्दर निगम

चक्रधर शुक्ल : सबसे पहले आपने क्या लिखा, कविता या कहानी और कब? प्रेरणा कहाँ से मिली और आपके साहित्यिक गुरु कौन थे?

श्यासुन्दर निगम : मन संवेदनशील था ही और संवेदना के नाते ही इस तरह जितनी भी पीड़ा तक के संदर्भ स्वयं के जीवन में सामने आये या परिवेश में फैले देखे, वो भीतर-भीतर चलते-पुसते रहे। पके नहीं, मेरा अकेले का उनसे जूझना होता रहा। भोगता रहा, कुढ़ता रहा। जी फड़फड़ाता जरूर रहा
श्री चक्रधर शुक्ल 
कि इनका करूँ क्या? कैसे इनसे निजात मिले। वैसे तो जो अपने हैं, चाहे वो सुख हों, दुःख हों, व्यक्ति, स्थान, वस्तु हों, छोड़ने का मन नहीं करता; यह मनुष्य का स्वभाव है। पर, मेरी स्थितियाँ इससे थोड़ी भिन्न थीं, मुझे लगता था कि मुझसे जुड़े लोग भी इसके साझीदार बनें। यह अवसर आया साहित्यिक परिवेश मिलने पर, जो लगभग 1985 के आसपास शुरू होता है। फिर भी लेखन की कोई क्रमबद्धता या नियमबद्धता नहीं थी। अपने आप फोड़े को फोड़ लेना साफ कर लेना टीसन से निज़ात पाने जैसा डायरी में लिख लेने से होता रहा। विधिवत् लेखन और जिसे मैं ज्यादा चुनौती भरा मानता रहा- वह शुरू हुआ साहित्यिक संवाद की पत्रिका ‘निमित्त’ के शुरू करने के साथ। और तभी, कभी कविता ने ठक-ठक करना शुरू किया तो कभी कहानी ने। कथ्य ने भाषा अपने आप ग्रहण की। मैं आज तक यह नहीं तय कर पाया कि कहानी बन रही है या कविता। बस अपनी बात पूरी कर लेने की ललक-सी ही रहती है। तो आप यह समझिये कि लेखन 1990 के आसपास ऐसा आकार पा सका, जिसे साहित्यिक मित्रों ने सराहा और उत्साह बढ़ाया।

     साहित्यिक गुरु जैसी परम्परा पर मेरी आस्था नहीं है। हाँ, ऐसे मित्र हैं जिन्होंने साहित्यिक क्षेत्र के ऊँच-नीच के बारे में, तिकड़मबाजी के बारे में आगाह किया। उन्हें मैं उस स्तर पर गुरु ही कह करके सम्बोधित करता हूँ। जहाँ तक रचना में कुछ सुधार, सुझाव, विसंगतियों की ओर जो संकेत पाठक से मिलते हैं, वे किसी भी गुरु से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।

चक्रधर शुक्ल :   आपकी ज्यादातर कहानी गाँव की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं, ऐसा क्यों? क्या शहर के परिवेश ने आपको प्रभावित नहीं किया?

श्यासुन्दर निगम :  ग्रामीण परिवेश ऐसा है, 17 वर्ष की उम्र तक बेहद सघन अनुभव हुए, जिसमें प्यार, दुलार, दुत्कार, अपनों से ज्यादा औरों की मिली। गरीबी को बुराइयों की जड़ कहते सुना है किन्तु मेरे गाँव {मेरी रचनाओं में प्यारे पुरबा (बहरौली)} के लोग इतने सहृदय रहे कि मेरी गरीबी का सम्मान करते थे, अपवाद छोड़ दें तो जो भी मिलता था मेरे स्वास्थ्य, मेरी पढ़ाई के बारे में प्रश्न करता और कभी किसी परीक्षा में किसी सहपाठी से एक नम्बर कम होना उन्हें पता चलता तो मेरे माता-पिता से ज्यादा चिंतित होते थे। त्यौहारों में सबसे ज़्यादा दूध, दही या अन्य सामान मेरे घर में इकट्ठा हो जाता था। यह सब मेरे उन घावों को छिपा तो देते थे किन्तु उनका टीसना भीतर-भीतर होता ही रहता था, सहता था मैं और मेरी माँ। उन स्थितियों में गाँव के जितने दुःख-दर्द थे, मुझे अपने जैसे ही लगते थे। पीछा नहीं छोड़ा उन्होंने! शहर आ जाने के बाद भी मन गाँव-गाँव ही करता रहा। कथा के पात्र अधिकांश मुझसे सीधे जुड़े हुये लोग हैं- जीवित लोग यानी कि मेरे सामने भी एक भी शब्द झूठ न कह पाने की चुनौती। हाँ, कथा का रूप देते समय परिवेश गढ़ते समय मैं अपने को उससे अलग नहीं कर पाया; न गाँव को मैं छोड़ पाया, न गाँव मुझे। कह सकते हैं दुःख लम्बा साथी होता है, सुख की यात्रा बहुत ज्यादा स्मरण में नहीं बसती। उसका दर्द हो सकता है किन्तु दुःख साथ निभाता है। जहाँ तक स्त्री पात्रों की बात है, शायद हर किसी में माँ के कष्ट देखता रहा। घर में चार-चार दिन तक खाना न बनना, चोकर-चूनी या उसमें थोड़ा आटा मिलाकर रोटी बनाना, नहाते समय आधी धोती लपेटकर नहाना आधी सुखाना, पहला हिस्सा सूखने के बाद दूसरा आधा हिस्सा धोकर सुखाना। शायद यही सब दूसरी स्त्रियों में भी दिखने लगा। उनके दुःख माँ के दुःख जैसे दिखने लगे और जाने-अनजाने मेरी रचनाओं में स्त्री विमर्श के रूप में स्थान पाने लगे।

चक्रधर शुक्ल :   लघुकथा भी आपने लिखी कि नहीं...?

श्यासुन्दर निगम :  हमारे कथ्य ज्यादातर लम्बे और खिचते चले जाते से दर्द के हैं। मुझे लगता है कि मैं उसको आधे-अधूरे में छोड़कर सन्दर्भित पात्र के साथ न्याय नहीं कर पाऊँगा। जहाँ तक न्याय की बात है- मैं कौन...! पात्र स्वयं ही मुझको अपने ढँग से मोड़ता है, मुझसे बतियाता है, जिरह करता है, मैं जिद करूँ अपने जैसा करने की तो बदजुबानी पर उतर आता है। पात्र स्वयं अपनी भाषा मेरे हाथ में पकड़ा देता है, अपने परिवेश में मुझे घसीट ले जाता है। शायद लघुकथा में ऐसा निर्मित मैं न कर पाऊँ। बस...!

चक्रधर शुक्ल :   ‘खदबदाहट’ में कथाकार शैली का प्रभाव देखने-पढ़ने को मिला, कविता पर कहानी का प्रभाव निश्चित रूप से दिखाई देता है?

श्यासुन्दर निगम :  दरअसल मुख्यरूप से मेरी कविताएँ कथा तत्व पर ही आधारित हैं। भाषा उनको कविता की मिल पायी। यह कथ्य का सौभाग्य है, सौभाग्य इसलिए कहना पड़ रहा है कि कविता अधिकांश पाठकों के पास खड़ी मिलती है, कहानी के पास पाठक को चलकर जाना पड़ता है। कविता सहज ही अपने पाठक को आगोश में लेती है, कहानी पाठक को परखती है और तब जुड़ती है। और अगर जुड़ी तो पाठक को अपने साथ रहने को मजबूर करती है। काफी दिनों से कविता में कहानी और कहानी में कविता जैसी भाषा की ओर मेरे तमाम मित्र संकेतित करते हैं, इसको मैं स्वीकार करता हूँ और एक स्तर पर इसे अपनी शैली की विशेषता भी मानता हूँ। इसके पीछे केवल एक ही बात देखता हूँ, यह कि मेरे पाठक को जैसे भी हो, जिस भी रूप में हो- कहानी या कविता, पकड़ती तो है। 

चक्रधर शुक्ल :   ‘निमित्त’ पत्रिका के संपादन में आपको किन-किन स्थितियों से गुजरना पड़ा?

श्यासुन्दर निगम :  पहले तो ये कि ‘निमित्त’ निकालने की बात मेरे दिमाग में क्यों आई। तो, बहुत पीछे चलकर कथाकारों का सम्मेलन प्रथम संगमन कानपुर में मर्चेण्ट चैम्बर हाल में आयोजित हुआ। देश के शीर्ष कथाकार सम्मेलन में थे। मैं सबसे अनजान अपरिचित किसी के भी पास खड़ा होकर किसी भी तरह बातें सुन सकता था। यानी कि जो बातें मंच पर बैठकर नहीं कहते लोग, वह भी। इसी में शामिल था बहुतेरों का यह रोना कि आज हमें पढ़ता कौन है! बस इस बात की पड़ताल हो और वह सामने लायी जाये, जिसमें पाठक भी हों, लेखक भी हों और सम्पादक भी हों। इसी का प्रतिफलन था ‘निमित्त’ का प्रवेशांक, कहानी लेखक से पाठक तक। जिससे यह बात सामान्य पाठकों ने बहुत जोर देकर कही भी कि हमें कुछ पढ़ने लायक मिले तो हम पढ़ें। जहाँ तक मेरे सामने पत्रिका के प्रकाशन में कोई दिक्कत या कठिनाई आने का प्रश्न है, वह मैंने अर्थ के रूप में बिल्कुल महसूस नहीं किया। कारण मित्रों का सहयोग, दूसरा कारण बड़े पुण्य स्मरण के साथ कहना चाहता हूँ कि मैं ऐसे पिता का पुत्र हूँ जो जमींदार थे और उससे जुड़े सारे दुर्गुण जैसे कोई नशा न छूटना या सारे नशे करना, जुआँ खेलना और भी... यानी कि सब कुछ बर्बादी की ओर ले जाता हुआ, यह सब बातें माँ की पीड़ा के रूप में आकार लेकर मेरे सामने खड़ी हो जाती थीं। पत्रिका के संदर्भ में मैंने यहीं से एक हल निकाला कि मैं भी यह सब क्यों नहीं कर सकता और करूँ तो रोज कितना पैसा खर्च होगा? और छोड़ दूँ तो उतना बचेगा। फिर यह गणित कि एक दिन में इतना तो महीने भर में इतना और साल में इतना और बच जायेगा...। समस्या अपने आप हल हो गयी..। दूसरा संकट रचनाओं का रहा, साहित्यिक संवाद की पत्रिका थी, हर अंक में किसी न किसी साहित्यिक विषय पर बात होनी होती थी, जिसके लिए किसी भी रचनाकार को बैठकर अलग से लिखना होता था जो प्रायः बड़े रचनाकार नहीं करते थे। तो उतना उपादेय नहीं होता था किन्तु इसका ये मतलब नहीं कि किसी ने सहयोग नहीं किया। सहयोग न किया होता तो तेरह अंकों की यात्रा पूरी कैसे होती!

चक्रधर शुक्ल :   ‘निमित्त’ का प्रेमगीत अंक संयोजन, संपादन के दौरान गीत के विषय में कुछ कहते भाव आये- किसने आपको प्रभावित किया, क्या ‘अनुकथन’ गीतों की देन है?

श्यासुन्दर निगम :  गीत पढ़ने की लालसा ने ‘निमित्त का आत्मगंध प्रेमगीत’ निकालने को प्रेरित किया था। उस समय मुझे लगा कि मेरा अध्ययन गीत को पढ़े बिना अपूर्ण है; गीत की ताकत, गीत की गढ़न, गीत की कहन- अगर ईमानदारी से लिखे गये हैं- करिश्माई होते हैं; गीत हमारे संस्कारों में पूरी जीवन यात्रा में प्रविष्ट हैं। इसीलिए गीत का पाठ शुरू किया और जब शुरू किया तो स्वाभाविक रूप से कुछ प्रतिक्रियायें भी उठने लगीं तो गीत की समीक्षा का शऊर तो नहीं है फिर भी अपने मन की बात कहने को रोक भी न पाया, इसी को रूप दिया ‘अनुकथन’ में ‘कवि की कहन और मेरा पाठक मन’ के रूप में।
     अब, आज लगता है जीवन में रिक्तियों ने इतनी तिक्तता भर दी है, आस्थाओं में इतने प्रश्नों की गुंजाइश बना दी है, श्रद्धा ने एक वर्ग को इतना बददिमाग बना दिया है कि रचनाकारों का एक वर्ग इस पर अपने हाथ आजमा रहा है, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है व्यंग्यकार। वह, जो बात हम कई पृष्ठ रंगने के बाद कह पाते हैं, वह एक तीर छोड़कर तिलमिलाने को मजबूर कर देता है- मन करता है और प्रश्न भी उठता है कि इन्हें विधिवत पढ़कर अपने को क्यों न जोड़ूँ.... इसलिए मैंने कानपुर के व्यंग्यकारों को अपने से जोड़ लिया। उन पर काम किया। ‘पहरुए: व्यंग्य एक, प्रतिध्वनियाँ अनेक’ आपके सामने है। हाँ, पहरुए पर मैंने एक बात को ध्यान रखा कि उन व्यंग्यकारों, जिनकी एक भी पुस्तक न आयी हो, को ही इसमें शामिल करूँ... मेरा प्रयास सफल रहा।

चक्रधर शुक्ल :   इस समय आपकी समालोचना की चर्चा शहर में हो रही है- कुछ कहना चाहेंगे?

श्यासुन्दर निगम :  वास्तव में समीक्षा की समझ मुझे बिल्कुल नहीं है, बात को एक वाकया से शुरू करता हूँ- मधुपराग के रचनाकार श्री अम्बिकेश शुक्ल जी पर विमर्श गोष्ठी थी। विद्वान अपने विचार व्यक्त कर चुके थे, पुस्तक मुझे वहीं पर मिली थी, पहले नहीं। मैंने संचालक से निवेदन कर एक मिनट का समय माँगा और केवल वहीं पर पलटकर देखे गये दो-तीन छंदों के आधार पर एक अप्रत्याशित-सा पत्थर जैसा फेंककर मार दिया कि... ‘‘क्षमा करें, जितने विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं, उन्होंने रचनाकार को  पढ़ा ही नहीं, केवल मात्रायें गिना रहे हैं, वर्ण गिना रहे हैं, छंद की किस्म बता रहे हैं। बस! रचनाकार की भावभूमि से, वैचारिकता से जुड़े ही नहीं, जो मेरी दृष्टि से विमर्श के लिए बहुत आवश्यक है और इसके बाद एक छंद की अपने तयीं छोटी सी व्याख्या की, जिसको वहाँ उपस्थित लोगों ने सराहा। सराहा इसलिए कहना पड़ रहा है कि उसमें अधिकांश मुझे जानते नहीं थे। वहीं मुझे लगा कि गीतों या अन्य रचनाएँ, जो अपनी पकड़ में आयें, उन पर ईमानदारीपूर्ण पाठकीय प्रतिक्रियायें सामने आना चाहिये। इसके बाद यह सिलसिला चल निकला।

चक्रधर शुक्ल :  आपने कहानी, कविताएँ, समालोचना, व्यंग्यकारों पर भी काम किया। आपकी अगली योजना क्या है- उपन्यास पर काम कर रहे हैं मालूम हुआ है, उस पर कुछ बताएँ..।

श्यासुन्दर निगम :  मेरे लेखन में योजना का दबाव नहीं है। हाँ, दबाव है अनुभवों का, अनुभूतियों का। कुछ भी सोचकर लिखना नहीं होता। जो परेशान करता है, वह लेखन में आता है। मेरे अन्दर बसे पात्र प्रायः मुझसे ही प्रश्न करने लगते हैं और मैं उनके उत्तर ढूँढ़ने की छटपटाहट में गुँथता जाता हूँ। जब यह गुँथन सुलझने जैसी होती है तो रचना का रूप ग्रहण करने की स्थिति में आती है, भूमिका वही दे जाता है। फिर अपनी रचनाओं में मैं कुछ न कुछ आज के अधिकांश लेखकों की रीति-नीति के विपरीत कुछ निष्कर्ष देने की मनःस्थिति बनाता हूँ। जहाँ तक आपका किसी बड़े काम का संकेत है, शायद वह कोई औपन्यासिक रचना के सम्बंध में है। हाँ, तो प्लॉट भी है, स्थितियाँ भी हैं पर जब पकड़ में आये और सध सके।
      हाँ, एक मेरी दौहित्रा ने अपनी माँ से प्रश्न किया कि मेरे आर्थिक विपन्नता के दौर में ऐसा क्या था... जो मेरे पास सबसे ज्यादा था। इस प्रश्न ने मुझे भी आत्मविश्लेषण का मौका दिया। जहाँ उसके प्रश्न और बड़े और कटीले और दुःखदायी लगे पर उनका निकालना ही एक हल सूझा- मैंने एक लम्बा पत्र- मेरे असत्यापित सत्य- करके लिखा और सभी परिवारीजनों के बीच पहुँचाया। अपेक्षा थी कि और भी इससे ज्यादा क्रूर प्रश्न आने चाहिए, मुझसे जवाब माँगे ही जाने चाहिए पर निराश ही हाथ आयी। क्या कहें, या तो मेरे जवाब उन्हें झूठे लगे, अविश्वसनीय लगे या -कैसे कहूँ- कि वे सबके सब संवेदनहीन निकले। बहरहाल, मैं खुद से परेशान था और फिर कई प्रश्न मेरे अन्दर ही उगने लगे। उलझन वही कि इनसे राह कैसे मिले, मैंने ही उनको आगे बढ़कर अंगीकार किया और एक बड़ी कृति का ‘पुलिन्दा’ (मेरे असत्यापित सत्य) बन पायी। जो साहित्यिक भी हो, सामाजिक ग्राहता भी हो और पाठक के रूप में मेरे जैसी स्थितियों वाले लोग उसमें अपने को ‘लिखत’ में पाते हैं।
      मेरा मानना है कि लिखने के लिए न लिखा जाए। जो अन्तर्भुक्त चीजें हैं, हम उन्ही के साथ ईमानदार रह सकते हैं। अभिव्यक्ति के तरह-तरह के खतरे होने के बावजूद अनुभूतियाँ भी तो फुफकारती ही रहती हैं, जहाँ तक नये रचनाकारों का प्रश्न है, जब भी कोई कथ्य आता है किसी रचनाकार के सामने- वह कितना भी पुराना क्यों न हो, उस कथ्य को लेकर नया ही होता है, भाषा शिल्प तथ्य अपने आप हाथ गहा देता है। हमें कुछ बनने-बनाने की जरूरत नहीं पड़ती। जब वह रचना व्यापक पाठक वर्ग के सामने आती है तो नया से नया रचनाकार परिपक्व दिखता और कई पुराने रचनाकार पिलपिले से। मतलब रचनाकार नया हो या पुराना हो, अपनी रचनाधर्मिता से ईमानदारी, पारदर्शिता बनाये रखता है, यही हमें साहित्य में लगे रह पाने में मदद करता है।

चक्रधर शुक्ल :   जो आपके अनुभव का हिस्सा नहीं है, विशेषकर प्रेम, उसमें कुछ कहें।

श्यासुन्दर निगम :  इसमें मैं एक कविता ‘सिलसिला’ और वृद्धावस्था के प्रेम को लिखी गयी ‘कुबेरी बिरिया’ का जिक्र करना चाहता हूँ। कुछ हद तक ‘साथी लम्बी रात का’ भी प्रेम में बींधता है। पहले की दोनों रचनाएँ नितांत अनुभूतियों में जाकर थी, यूँ कहिये कि परकाया प्रवेश करके लिखी गई हैं। जिनको मैंने कई-कई बार पढ़ा और आज तक एक भी शब्द बदलने की स्थिति में नहीं हूँ। यह सच है कि मेरा प्रेम का पक्ष जिन स्थूल अर्थों में लिया जाता है, अधूरा रहा। प्रेम के बिना क्या जीवन की स्थिति कुछ बनती है, प्रेम तो ईशतत्व की झांई है।

चक्रधर शुक्ल :   साहित्यकार कोश का जो आपने संकल्प लिया है, इसे कितने सालों में पूरा होने की उम्मीद है। आपके मन में इसका विचार कैसे आया और आपकी दृष्टि में इसकी उपयोगिता क्या है?

श्यासुन्दर निगम :  आपका यह प्रश्न मुझे, मुझको घेरे में लेता-सा लग रहा है? फिर भी... ‘साहित्य और साहित्यकार’ के पूरा होने की बात बाद में। पहले ये कि यह मेरा संकल्प नहीं, साधना है। कभी-कभी मैं महसूस करता हूँ कि मैं रचनात्मक लेखन में स्वयं को दोहराने लगा हूँ, संवेदनाएँ कुछ भौंथरी हैं। तो साहित्यिक सृजन बाधित हो रहा है या मेरे अनुसार ईमानदारी भरा नहीं रह रहा। और कुछ गढ़ लेने की ‘कला’ मुझमें है नहीं। तो साहित्यिक अनुष्ठान में सार्थक रूप से लगे रहने का यह एक माध्यम मन से चुना। यही प्रकारान्तर से मेरी साधना बन गया, मेरे निजी साहित्यिक हित साधन भी कह सकते हैं पर नितान्त अव्यवसायिक, आजकल मैं अधिकांश समय इसी में व्यस्त रहता हूँ। इसकी उपयोगिता थोड़े शब्दों में कहूँ तो यह है कि छोटे-बड़े हिन्दी के हजारों-हजार रचनाकारों की लेखकीय जन्मकुण्डली सी बनकर तैयार होगी। सभी आवश्यक विवरण/आंकड़े एक जगह पर ही किसी भी जिज्ञासु पाठक, शोधकर्ता को उपलब्ध हो सकेंगे। छोटे-बड़े सभी रचनाकार वर्णक्रम में अंकित होंगे। तथाकथित कुछ बड़ों को भले ही इसमें शामिल होना अटपटा लगे पर अपेक्षाकृत छोटे या कम महत्व के माने-जाने वाले सुधी रचनाकार अवश्य खुश होंगे। शायद गौरान्वित भी। विशेषतः वह लोग, जो चंदा लेकर (धंधा की तरह) संकलित किये जाने वाले कोशों में और या व्यापारिक प्रकाशकों द्वारा शुद्ध व्यापार की दृष्टि से तैयार किये जाने वाले कोशों में सम्मिलित नहीं हो पाते। उनके मन की खुशी भले ही ‘कुछ उपमेय: कुछ उपमान’ में सम्मिलित किये गये वरिष्ठ साहित्यकारों की आँखों में उगी अद्भुत चमक जैसी न हो पर जब यह संकलन प्रकाशित होकर आ जायेगा तो, मुझे विश्वास है कि कोश में लगी पूरी टीम को बड़ों का आशीर्वाद और छोटों से सम्मान अवश्य मिलेगा। इससे ज्यादा और क्या चाहिए, इस काम में लगे ‘अदने’ से लोगों को?
      जहाँ तक इसके पूरा होने का आपका प्रश्न है तो, मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस अनुष्ठान में जो टीम लगी है (श्रीमती पूर्णिमा निगम, डॉ. संदीप त्रिपाठी, पंकज दीक्षित और चक्रधर शुक्ल) उसका उत्साह, तत्परता, वेकली इंगित करती है कि जैसा मैंने सोचा है, तीन वर्ष में यानि कि 2018-19 में आ ही जायेगा। शर्त यह है कि हम सब ठीक रहें। कार्य के प्रति अपनी क्षमताभर ईमानदार बने रहें, जो रहेगी...।

  • श्यामसुन्दर निगम, 1415, ’पूर्णिमा’. रतनलाल नगर, कानपुर-208022, उ.प्र./मोबा. 09415517469
  • चक्रधर शुक्ल, एस.आई.जीत्र-01, सिंगल स्टोरी, बर्रा-06, कानपुर-208027, उ.प्र./मोबा. 09455511337