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रविवार, 5 नवंबर 2017

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  11-12,  जुलाई-अगस्त  2017






डॉ. बलराम अग्रवाल




खिड़कियों से झाँकते जीवन और प्रकृति के उपादान




डॉ.शील कौशिक हरियाणा की सम्मानित साहित्यकार हैं। उन्होंने गद्य और काव्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है और अपनी पहचान बनाई है। ‘खिड़कियों से झांकते ही’ में कुल 153 कविताएँ संग्रहीत हैं। इन समस्त कविताओं को कवयित्री ने दस वर्गों में विभाजित करके संग्रह का रूप दिया है। संग्रह की कविताएँ इसलिए भी ध्यान आकर्षित करती हैं कि इन सभी में अभिव्यक्ति को शाब्दिक विस्तार देने से बचा गया है। यह तो निर्विवाद है कि अनुभूति जितनी सघन होगी, अभिव्यक्ति उतनी सुगठित, सटीक और प्रभावपूर्ण होगी। कवयित्री की अनुभूतिजन्य पीड़ा को उनके द्वारा लिखित संग्रह की भूमिका ‘मन की बात’ में भी जगह-जगह पर महसूस किया जा सकता है। यथा, ‘‘पहाड़ की साँसें बेदम हैं, जंगल सिमट रहे हैं, नदियाँ मर रही हैं, झीलों की गोद सूखी और बंजर है। ऐसे में प्रकृति की लय बिगड़ना तय है और प्रकृति की लय बिगड़ना ही प्रलय की भूमिका बनाता है।’’ कवयित्री के इन शब्दों में मात्र मानवता के प्रति नहीं, चर-अचर समूचे परिदृश्य के प्रति चिंता का भाव परिलक्षित है। जो व्यक्ति इस भाव के साथ जीता है, वस्तुतः वही कवि है, वही मनुष्य है। ‘पहाड़ की साँसें
बेदम हैं’ में वह लिखती हैं- ‘‘फुरसत में कभी/पत्थरों की कहानी/उनकी जुबानी सुनना/बहुत छोटा लगेगा/अपना दुःख तुम्हें।’’
      निःसंदेह, पत्थरों की कहानी उनकी जुबानी सुनने की जितनी और जैसी फुरसत मनुष्य को चाहिए, वैसी वह कभी निकाल नहीं पाता है और इसीलिए पहाड़ के दुःख को भी समझ नहीं पाता है। ‘‘मेरे दादा और पहाड़/कभी-कभी मुझे/एक-जैसे लगते हैं/जो मौन हैं/अनगिनत चोटों के बावजूद।’’ तथा ‘‘एक दिन निराश/हताश, दुखी पहाड़/अपनी प्रियतमा/नदी से/बतिया रहा था/नदी, रोते हुए/बही जा रही थी।’’ जैसी अभिव्यक्ति के लिए गहन संवेदनशील हृदय चाहिए। कवयित्री के पास सपाट शब्द ही नहीं हैं, अधिकतर कविताओं में उनकी अभिव्यक्ति आलंकारिक ही है। ‘भीगी मुस्कानें लिए बादल’ की यह कविता देखिए- ‘‘बादल भी दुःख में/धुआं-धुआं होते नजर आते/बेचैनी में इधर-उधर दौड़ते हैं/सुखी होते हैं/तो खूब बरसते हैं।’’ इन पंक्तियों  में कवयित्री ने विरोधालंकार का प्रयोग किया है। इसी तरह- ‘‘कितनी अजीब बात है/बदली के बिखरने से ही/बरखा का जन्म होता है/वह फिर-फिर बनती-सँवरती है/फिर से बिखरने के लिए।’’ कवयित्री का मानना है कि व्यक्ति के जीवन में सुर और लय का बिगड़ना ही सारे संताप की जड़ है। इसीलिए बादलों के सुर-ताल का बिगड़ना उसे भयभीत करता है- ‘‘सुर की लय की तरह/बिगड़े हैं आज ये बादल/डर है ये कहीं सितम न ढहाएँ/ओले और बर्फीले तूफान के रूप में।’’
      कविता को अति सूक्ष्म दृष्टि से परखने में सिद्धहस्त डॉ. उमेश महादोषी का मानना है कि ‘‘कविता का सीधा सम्बन्ध जीवन और उसे जीने योग्य बनाने वाले मूल्यों के प्रति समझ विकसित और आत्मसात् करने से होता है। जीवन की इकाई होता है- क्षण; यानी एक ऐसा प्रतिनिधि बिन्दु, जिसमें जीवन का विराट अस्तित्व समाया हुआ होता है। जीवन में होने वाले तमाम परिवर्तन उसके प्रतिनिधि बिन्दुओं यानी क्षण-क्षण में होने वाले परिवर्तनों का समेकित (इन्टीग्रेटिड) अथवा/और प्रभावी (इफैक्टिव) परिणाम होते हैं।’’ (देखें- ‘समकालीन क्षणिका’ अप्रैल 2017) इस परख के मद्देनजर प्रस्तुत संग्रह में डॉ. शील कौशिक की कुछ कविताओं की बानगी देखिए- 
01. ‘‘तूफान में/अपनी माँ से बिछुड़े/शिशु को देखकर/नवांकुर पत्ते चिपक गये हैं/डाल के सीने से/अनजानी आशंका लिए’’। 
02. ‘‘जादूगर बना चाँद/नचाता है लहरों को/अपने इशारों पर/और लहरें कठपुतली बनी/उठती-बैठती हैं/समुद्री आसन पर’’। 
03. ‘‘वृक्ष की खोखल में छुपी चिड़िया/देती है विश्वास-/फिर से दिन बहुरेंगे/लौटेगी फिर चहल-पहल/थम जाएँगे सब/वाद तूफानी’’। 
      सूक्ष्म भावों और विचारों की ऐसी तीव्र अनुभूतियों को, जो रचनाकार के हृदय में स्थित समस्तरीय ऊर्जा के प्रभाव में त्वरित गति से अभिव्यक्त और सम्प्रेषित होती हैं, डॉ. उमेश महादोषी ने ‘क्षणिका’ माना है (पुनः देखें- ‘समकालीन क्षणिका’ अप्रैल 2017)। इस दृष्टि से आकलन करें तो ‘खिड़की से झाँकते हुए’ महत्वपूर्ण क्षणिका संग्रह सिद्ध होता है, जिसके लिए डॉ. शील कौशिक को भरपूर बधाई दी जा सकती है। तथापि यह अवश्य महसूस होता है कि संग्रह की कुछ कविताएँ और चुस्ती और गठन की माँग करती हैं।
खिड़की से झांकते ही : कविता संग्रह : डॉ. शील कौशिक। प्रकाशक : सुकीर्ति प्रकाशन, करनाल रोड, कैथल-136027, हरि.। मूल्य : रु॰ 250/- मात्र। सं. : 2016। 
  •  एम-70, निकट जैन मन्दिर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032/मो. 08826499115

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