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रविवार, 5 नवंबर 2017

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  11-12,  जुलाई-अगस्त  2017




डॉ. उमेश महादोषी



हाइगा को लोकप्रियता की ओर ले जाता संग्रह


‘‘चाँद है भला/कुटिया को नहला/दूध में, हँसा’’ आसमान के एक कोने से घास-फूस की बनी कुटिया की ओर झाँकते चाँद के दृश्य-चित्र पर अंकित ये पंक्तियाँ एक प्राकृतिक दृश्य का सुन्दर-सा चित्रण प्रतीत होती हैं, लेकिन मुझे लगता है इस हाइगा में सुधा दीदी आज के समय को अपने बचपन और युवावस्था के समय की बगिया में खींचकर ले जाना चाहती हैं। चाँद का भला होना, इतना कि कुटिया को दूध से नहलाकर खुशी प्रकट करे, उस समय में जीवन-व्यवहार का एक सामान्य विषय हो सकता था लेकिन आज रेखांकित करने योग्य विशेष विषय है। समय इतना तो बदल ही चुका है। उस समय और आज के समय में अन्तर करेंगे तो हम बहुत सी ऐसी खूबसूरत चीजों से रू-ब-रू होंगे, जो
आज या तो किताबों में उपलब्ध हो सकती हैं या विशेष स्थानों व संरक्षण गृहों में।
      सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. सुधा गुप्ता जी के हाइगा संग्रह ‘हाइगा आनन्दिका’ में ऐसे दृश्य-चित्रों और उन पर अंकित हाइकुओं के भाव-चित्रों की भरमार है जिनका अहसास हमारी आँखों और अन्तर्मन- दोनों में गहरी और कभी न बुझने वाली प्यास जगा देता है। कुछ उदाहरण देखें और विचार करें- ‘‘चिड़िया रानी/चार कनी बाजरा/दो घूँट पानी’’। ‘‘उमंग-भरी/शाखों पे गिलहरी/उड़न परी’’। ‘‘धूप-जल में/आँखें मूँद नहाते/ठिठुरे पंक्षी’’। मन को अन्दर तक लुभा जाने वाले ऐसे दृश्यों का एक बड़ा परिदृश्य सुधा दीदी अपने काव्य में लगातार प्रस्तुत करती हैं तो उनका प्रकृति-प्रेमी मन कहीं न कहीं आज के यथार्थ परिदृश्य से जनित छुब्धता को छुपाकर हमें यह अहसास कराता ही है कि हम कहाँ पर आकर खड़े हो गये हैं! प्रकृति से हमने स्वयं को कितना दूर कर लिया है? ‘‘कभी मैंने भी/पिरोई थी उम्मीद/पीले फूलों से’’ कहकर वह फिर प्रकृति माँ से मिले उपहारों को स्मृतियों में उतारने लग जाती है। बड़े खूबसूरत उदाहरण हैं- ‘‘धूप के छन्द/रचें नई कविता/धान के फूल’’। ‘‘मेघ-मुट्ठी में/कैद चाँद फिसला/निकल भागा’’। ‘‘कुशल शिल्पी/पेड़ पर लटकी/बयाँ की बस्ती’’। ‘‘नीले घाघरे/घटाओं की छोरियाँ/इतरा रहीं’’। ‘घटाओं की छोरियाँ’ जैसी प्रकृति-प्रेम की ताज़गी लिए कुछ आकर्षक उपमाओं की उपस्थिति सुधा दीदी की कविता को ऊँचाइयों पर ले जाने का वाहक हमेशा से रही है- ‘‘दूज का चाँद/कटे नाखून जैसा/साफ-सफेद’’,  ‘‘दिखा, लो छिपा/दुधमुँहा दाँत वो/दूज का चाँद’’, ‘‘मुखड़े धुले/धूप-चाय माँगते/ये फूल बच्चे’’। 
      एक रचना बिना चित्र-सानिध्य के (हाइकु) और चित्र-सानिध्य के साथ (हाइगा) भावार्थ एक जैसा ही देती है, लेकिन उसके प्रभाव एवं संप्रेषण में अन्तर जरूर आ जाता है। इस दृष्टि से हाइगा निसन्देह रचनाशीलता की बड़े कैनवास वाली कड़ी है। लेकिन, जैसाकि डॉ. सुधा गुप्ता जी ने संग्रह की भूमिका में स्वयं भी प्रश्न उठाया है, हाइगा में काव्य रचना (हाइकु), चित्र और हस्तलिपि- तीनों एक ही व्यक्ति द्वारा सृजित हों तो ही श्रेष्ठतर होगा। अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा सृजित चीजों के मिलने से बनी रचना में भावान्तर की गुंजाइश भी रहती है और सृजक के रूप में केवल हाइकुकार का नाम देना (जैसा कि सामान्यतः हो रहा है) भी न्यायसंगत नहीं लगता। इस तथ्य पर तमाम रचनाकारों को निर्णयात्मक विचार करना चाहिए। इस प्रक्रिया में चित्रकारों द्वारा आजकल किए जा रहे ‘कविता पोस्टर’, ‘क्षणिका-पोस्टर’, ‘लघुकथा पोस्टर’ जैसे प्रयोगों, जहाँ कविता के साथ कवि का नाम और पोस्टर-सृजक रूप में चित्रकार का नाम ही जाता है, को भी ध्यान में रखा जा सकता है।
       हाइकु और उससे संबन्धित अन्य विधाओं के सृजन और प्रसार में डॉ. सुधा गुप्ता का योगदान अप्रतिम है। इन विधाओं के अध्ययन-मनन और उनसे जुड़ी स्थापनाओं पर भी उन्होंने पर्याप्त और सार्थक कार्य किया है। ‘‘हाइगा आनन्दिका’’ के माध्यम से हाइगा पर उनका व्यापक दृष्टिकोंण और इसे समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान हमारे सामने है। संग्रह में चित्रांकन, रचना-सृजन और हस्तलिपि- तीनों आकर्षक और प्रशंसनीय हैं। यह संग्रह निसंदेह हाइगा की लोकप्रियता में वृद्वि करेगा।
हाइगा आनन्दिका : हाइगा संग्रह : डॉ. सुधा गुप्ता। प्रकाशक : निरुपमा प्रकाशन, 506/13, शास्त्री नगर, मेरठ-254004, उ.प्र.। मूल्य : रु. 240/- मात्र। संस्करण : 2016।

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