आपका परिचय

सोमवार, 30 अप्रैल 2018

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

 अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08 ,  मार्च-अप्रैल 2018 



प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


छायाचित्र :  बलराम  अग्रवाल 





 ।।सामग्री।।
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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में माधव नागदा, शील कौशिक एवं ऋषिवंश की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में डॉ.(स्व.) सतीश दुबे, शोभा रस्तोगी, पूरन सिंह एवं उमेश मोहन धवन की लघुकथाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में डॉ.सुरेश उजाला के हाइकु।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} :  इस अंक में डॉ. उमेश महादोषी के जनक छंद

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ एवं क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : 
अब से क्षणिकाओं एवं क्षणिका सम्बन्धी सामग्री के लिए ‘समकालीन क्षणिका’ ब्लॉग पर जायें।  इसके लिए इस लिंक पर क्लिक करें-      समकालीन क्षणिका

कहानी {कथा कहानी} :  इस अंक में डॉ. लक्ष्मी रानी लाल की कहानी- ‘कोई और रास्ता न था’। 

श्रीकृष्ण ‘सरल’ जन्म शताब्दी वर्ष {जन्म शताब्दी वर्ष में श्रीकृष्ण ‘सरल’ का स्मरण} इस अंक में सरल जी के व्यक्तित्व व कृतित्व  कई पक्षों को उजागर करता डॉ. भगीरथ बड़ोले का आलेख- ‘श्री सरल की सुभाष-शोध-यात्रा’। 

हमारे सरोकार {सरोकार} : इस अंक में डॉ. उमेश महादोषी का आलेख- ‘वैचारिक भँवर में राष्ट्रीयता का प्रश्न’।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} :  अविराम साहित्यिकी के अक्टूबर-दिसम्बर 2017 एवं जनवरी-मार्च 2018 मुद्रित अंकों की सामग्री की जानकारी।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में श्री श्रीराम दवे के कविता संग्रह ‘आग तुम रहस्य तो नहीं’ की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा तथा डॉ.अशोक भाटिया की समालोचना पुस्तक ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा’ की राधेश्याम ‘भारतीय’ द्वारा समीक्षाएँ।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} : विगत अवधि में सम्पन्न कुछ साहित्यिक गतिविधियों के समाचार। 

अन्य स्तम्भ, जिनमें इस बार नई पोस्ट नहीं लगाई गई है। इन पर पुरानी पोस्ट पढ़ी जा सकती हैं। 

सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  
व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  
माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  
बाल अविराम {बाल अविराम} :
संभावना {संभावना} :  
स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} : 
साक्षात्कार {अविराम वार्ता} :  
अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :
लघुकथा विमर्श {लघुकथा विमर्श} :  
लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : 
हमारे युवा {हमारे युवा} :  
अविराम के अंक {अविराम के अंक} : 

अविराम की समीक्षा {अविराम की समीक्षा} : 
अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} : 

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 


।।कविता अनवरत।।


माधव नागदा




कविताएँ
01. वारिस

जब बढ़ता है बच्चा 
अपने व्यक्तित्व को 
पुनः-पुनः गढ़ता है पिता
बच्चे का किलकना कूदना
लगता है उसे
अपना किलकना कूदना
खतरों से खेलता देख बच्चे को
वह हो उठता है रोमांचित 
भर जाता है
उसके अन्तस का खालीपन।

नन्हा बच्चा 
चढ़ता है जब पेड़ पर
भयभीत माँ
पुकारती है अपने पति को
रोको/गिर जायेगा वह
नुकीले पत्थर हैं नीचे।
देखता है पिता
उसकी आँखों में
दौड़ जाती है चमक
पत्नी के कंधे पर हाथ रख
कहता है हौले से
प्रिय, उसे चढ़ने दो
जो काम हम नहीं कर पाये
करने दो उसे
जो गिरने से डरेगा
वह/आगे कैसे बढ़ेगा?

02. अनुगूँज

समय की रेत के नीचे
बह रही है कहीं गहरे
तुम्हारी यादों की अन्तर्धारा
रेगिस्तान में सरस्वती की तरह

अन्तस की उपत्यकाओं में
बहुत दूर/तैर रही है
मधुर अनुगूँज
जैसे/लौट-लौट आता है
पहाड़ों से टकराकर
तुम्हारे नाम का अनहद नाद

उम्र के इस पड़ाव पर
हैरान हूँ;
नहीं हुए हैं पहाड़ वीरान
शाख से बिछुड़े फूलों में
शेष है सुगंध
कबाड़ी की नज़रों से बच गये
‘शेखर: एक जीवनी’ में
दुबकी हुई है दम साधे
एक प्यारी सी चिट्ठी

वक़्त की बेरहम आँधी
सब कुछ उड़ा सकती है
मगर/प्रेम नहीं।

03. आना मेरे गाँव

धूप में न छाँव में
आना साँझ को 
मेरे गाँव में।
बीचोबीच है नेता की हवेली
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी 

जैसे दुल्हन नई-नवेली
बहुत मीठा बोलते हैं ये
फँस न जाना
किसी दाँव में

उस छोर पर है बस्ती हमारी
पाओगे झोंपड़ियों में मस्ती हमारी
सँभलकर चलना पगडंडी कच्ची
चुभ न जाए 
काँटा पाँव में

गोधूलि करेगी तुम्हारा स्वागत
होने न देंगे मान तुम्हारा आहत
साथ खाएँगे रोटी मक्का की
भूल गए प्याज
चढ़ते भाव में

नोन, तेल, लकड़ी का झगड़ा
है यहाँ हमेशा का रगड़ा
बर्दाश्त कर लेना 
ज़रा-सी चिल्ल-पों
न उलझना इनकी
काँव-काँव में

उधर है मंदिर बीच तालाब में
हम जा भी न सकते कभी ख्वाब में
रोक नहीं तुम्हारे लिए कोई
बैठकर जाना जर्जर नाव में।
आना साँझ को
मेरे गाँव में।

04. दिखाते हैं ख्वाब

वे आते हैं
होठों पर
आत्मीय मुस्कान लपेटे
दिखाते हैं
सुनहरे जंगल के ख्वाब

हाथ पकड़कर/ले जाते हैं
शब्दों को सिक्कों में ढालते हुए
छोड़ देते हैं
ऊँची कँटीली झाड़ियों के बीच

छटपटाते हैं हम,
निकलने के प्रयास में
तार-तार हो जाते हैं वस्त्र
कुंठित सब शस्त्र
लहूलुहान चेहरे हमारे

लौटते हैं जब हम
अपनों के बीच
पहचानने से सभी 
कर देते हैं इनकार।

05. किसे बचाएँ

पिता ने कहा
या तो छोड़ दो कविता
या घर
मैंने छोड़ दिया घर

नेता ने कहा
या तो छोड़ दो पार्टी
या ईमानदारी
मैंने छोड़ दी पार्टी

संपादक ने कहा
या तो छोड़ दो मीन-मेख
या नौकरी
मैंने छोड़ दी नौकरी


रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी
महन्त ने कहा
या तो छोड़ दो पंथ
या सर्वधर्म समभाव
मैंने छोड़ दिया पंथ

खाप ने कहा
या तो छोड़ दो प्रेम
या जिंदगी
मैं दोनों को 
बचाये रखने के लिए
फिर रहा हूँ लुकता-छिपता
यहाँ-वहाँ
न जाने/कहाँ-कहाँ।

  • लाल मादड़ी, नाथद्वारा-313301, राज./मो. 09829588494

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 


।।कविता अनवरत।।


शील कौशिक




काव्य रचनाएँ

01. बादल से रिश्ता

बादल से रिश्ता है
पहाड़ का
नहलाते हैं बादल पहाड़ को
प्रेम रस की फुहार से
हरा-भरा करके
सँवारते हैं उसका रूप
और समा जाते हैं
उसी की गोद में।

02. व्यापार का हिस्सा

कमाल की 
शातिर नज़रें हैं आदमी की
ख़ुदा की नियामत
पहाड़ को भी नहीं बख़्शा
बना लिया है उसे भी
अपने व्यापार का हिस्सा।

03. पहाड़ी चुनौतियाँ

पहाड़ पर चढ़ते-उतरते
रेखाचित्र : रमेश गौतम 

मिल जाते हैं कहीं भी
किसी भी छोटी 
पहाड़ी की ओट में
जगह-जगह बने/देवों के घर
अक्षत, चन्दन-रोली न सही
पर झट से चढ़ाते हैं 
पहाड़ी वाशिंदे
फूल-पत्ते उन पर
पग-पग पर चुनौतियों
और डर से पार पाने के लिए
माँगते हैं कुशलता की मनौती।

04. सजीव हो उठती है

जब बारिश की बूँदें
छूती हैं धरती को
सजीव हो उठती है धरती
छमाछम बरसती बूँदें
नाचती हैं
और धरती हर्षाकर 
समो लेती है उन्हें
अपने आगोश में।

05. पेड़ का दर्द

मैं विज्ञापन की पीठ पर
लिखती हूँ कविता
पेड़ का जीवन/उकेरती हूँ,
बादल, वर्षा, पानी के चित्र
निरखती हूँ
ताल-तलैया और वन-सघन
पेड़ से काग़ज बनने का सफ़र
लहराता है मेरी आँखों में
इसलिए लिखती हूँ उनके
दुःख-दर्द और डर
बसी है पेड़ों की आत्मा
इन कागज़ों में 
इसलिए कागज़ के छूने मात्र से
करती हूँ महसूस छटपटाहट
पेड़ कटने की
कागज़ बचाने की ख़ातिर
लिखती हूँ/विज्ञापन की पीठ पर
दिल का हाल/और पेड़ के हालात

06. चित्रकार की तरह

प्रकृति ने थाम अपनी तूलिका
रचे हैं कितने ही मनोरम दृश्य
समुद्र की गोद से उगता सूरज
क्षितिज में छपाक से गुम होता सूरज
जगमगाते चाँद-सितारे
पारदर्शी झील-झरने
एक चित्रकार की तरह।

07. बहता झरना

बहते झरने का जल
इतराता है अपनी शान पर
भूल जाता है वह
पर्वतों और उसकी चोटियों को
जिन्होंने उसे देकर ऊँचाई
झरना बनने का रूप दिया। 

08. धूप की रंगोली
दिशाओं की खाली दीवारों पर
रोज नये चित्र टाँक
धरती के खाली सफ़े पर
उजले हस्ताक्षर कर
हिम शिखरों के होठों पर बैठ
मुस्कुराती है धूप
छायाचित्र : उमेश महादोषी 
गर्म-नरम अहसासों की तितलियाँ
दिलों में भर कर
सार्थकता की रंगोली
सजाती है धूप।

09. जादू बसंत का

जादू भरा खत 
लिखा है वसंत ने
गेहूँ, सरसों की फसलों को
तितलियों, भौरों को
वृक्ष की फुनगियों को
हर्षित होकर ये सब 
बिखेर रहे हैं सुवास
बाँट रहे हैं मुस्कुराहट।

  • मेजर हाउस नं. 17, हुडा सेक्टर-20, पार्ट-1, सिरसा-125055, हरि./मोबा. 09416847107  

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 


।।कविता अनवरत।।



ऋषिवंश


दो नवगीत
01. शहराती गाँव की हवाएँ

बँसवट की गौरैया मड़हे की मैना
देसी चिरैया के परदेसी नैना
ऐसा कुछ शहराती गाँव की हवाएँ।

बखरी के कलशों पर मर्यादा झूठी
सोहर के भाव मरे, जाँतों की खूँटी
डीह छोड़कर जाती गाँव की कथाएँ।

चिटकी चिलम, दरका दादा का हुक्का
शहरीली साध चढ़ा परती का रुक्का
सड़कों को मुड़ जातीं गाँव की दिशाएँ।

परदेसी भइया की बगुले सी धोती
चोला बदल निकला अब गँवई मोती
नगरों में छुछुआती गाँव की व्यथाएँ।

02. वसन्त तो नहीं

हुआ क्या? झरे पात
बाग बाग यही बात
पर्णहीन खड़े पेड़
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर 
अलसाया गात-गात
खंजन ने कोयल से बात कुछ कही है।
        वसंत तो नहीं है?

किरणों का आकर्षण 
टूट रहा क्रमशः क्षण
टेसू के वन छैले
मस्त मगन पंछी गण
ऐसे में चुप से पुरवइया बही है।
            वसंत तो नहीं है?

कल्ले नये फूटे 
कढ़ कढ़ गये बूटे
सपनों के साहचर्य
वादे निकले झूठे 
उहापोह आशावन में छहर रही है।
     वसंत तो नहीं है?
  • उत्तरायण मंदिर वाला घर, डायवर्सन रोड, सिविल लाइन्स, सतना, म. प्र./मो. 09425470840

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 



।। कथा प्रवाह ।।

(स्व.) सतीश दुबे




हमारे आगे हिन्दुस्तान

     शाम के उस चिपचिपे वातावरण में मित्र के साथ वह तफरीह करने के इरादे से सड़क नाप रहा था। उनके आगे एक दम्पति चले जा रहे थे। पुरुष ने मोटे कपड़े का कुरता-पायजामा तथा पैरों में चप्पल डाल रखे थे तथा स्त्री एक सामान्य भारतीय महिला की वेशभूषा में थी। उसकी निगाह जैसे ही दम्पति की ओर गई, उसने मित्र को बताया, ‘‘देखो! हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है।’’
     ‘‘क्या कहना चाहते हो? मुझे तो नहीं लगता है कि ये एम.एल.ए., भू.पू. मंत्री, पूँजीपति या नौकरशाह में से कोई हों।’’
     ‘‘ऊँ-हूँ, तुमने जिनके बारे में सोचा, उनमें से यदि कोई ऐसे चहलकदमी करें तो उनकी नाक नहीं कट जाएगी!’’
     ‘‘फिर तुम कैसे कह रहे हो कि हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है?’’ मित्र ने तर्क की मुद्रा में आँखें घुमाई।
     ‘‘यह तो वे ही बताएँगे, आओ मेरे साथ।’’
     ‘‘वे दोनों कुछ दूरी से उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने सुना, पत्नी पति से कह रही थी, ‘‘दोनों बच्चों को कपड़े तो सिलवा ही दो। बाहर जाते हैं तो अच्छा नहीं लगता। कुछ भी खाते हैं तो कोई नहीं देखता पर कुछ भी पहनते हैं तो सब देखते हैं। इज्जत बना के रहना तो जरूरी है ना!’’
     उन्होंने देखा, पत्नी मन्द-मन्द मुस्करा रहे पति की ओर ताकने लगी है। पति की उस मुस्कराहट में सचमुच हिन्दुस्तान नजर आ रहा था।

  • परिवार संपर्क : श्रीमती मीना दुबे, 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 



।। कथा प्रवाह ।।


शोभा रस्तोगी



उन दिनों का रक्त
      आज उसका दूसरा दिन था। कल तो उससे उठा ही न गया। कभी गर्मपानी की बोतल कभी हीटिंग पैड लगाए पड़ी रही, इत्ती गर्मी में। नो ठंडा पानी। ओह क्या मुसीबत है!
      आज कुछ संभली है। घर भी देखा कुछ। ऑफिस के लिए भी तैयार हुई। पर्स में एक्सट्रा अरेंजमेंट भी कर लिया। दर्द उसके साथ ही हो लिया। शुक्र है बस समय पर मिल गई। स्टैण्ड तक पति ने छोड़ दिया था। कंधे पे पर्स और हाथ में लंच बैग लिए बस में चढ तो गई पर सीट फुल। आज चार्टेड भी निकल गई। यूँ तो एक घंटे का रन है पर मुआ ये ट्रेफ़िक जाम इसे डबल कर देता है। ओ माई गॉड, निचुडी टांगों से दो घंटे कैसे खड़ी रहेगी? सीट माँगे भी तो क्या कहे? हर बार की दिक्कत जो ठहरी। भीड़ में खड़ी-खड़ी भी बार-बार पीछे देखती रही।
      ऑफिस पहुँच सबसे पहले वाशरुम गई। संयत हो फाइलें निपटाने लगी। तीन घंटों से अधिक बैठी रही। उठना चाहकर भी उठ न पाई। पर अब उठना अति जरूरी लगा। तभी बॉस ने बुला भेजा। कम्पनी की प्रोपर्टी फाईल लेकर। बॉस से निपट बाहर जाने के लिए पलटी भी न थी कि ओह! वही हुआ जिसका डर था। स्पॉट आ ही गया। पियोन दबी मुस्कान से देख रहा था। इधर मुड़ी तो बॉस। बॉस के चेहरे पे कुछ चौड़ा-सा फैल गया था। उसे न जाते बना, न बैठते। दोनों मर्दों की उपहास बनी वह दीन-हीन खड़ी रह गई। इधर अंदर कुछ अधिक तैरने लगा था। अब उसे लगा कि आज आई ही क्यूँ। एक और छुट्टी ले बैठती। ये स्यापा तो न होता।
      इसी भीतरी वेदना से लदफद थी कि कहीं कुछ चिरा। मन में हिम्मत उतरने लगी। गहन व्यथा जुगनू-सा प्रकाश छिटका ही देती है। पीड़ा से भरी बॉस से मुखातिब हुई। ‘‘जिस रक्त के धब्बे देख औरत की हँसी उड़ाते हो और मजा लेते हो, वही रक्त भ्रूण को इंसान का चोला पहनाता है। औरत के शरीर से महीने के पाँच दिन रिसने वाला रक्त ही अस्तित्व देता है पिता के बीज को। जन्मती है संतान और बड़े होकर तुम्हारे जैसे उपहास बनाते हैं उस रक्त का।’’
      बॉस की झुकी आँखों ने उसके  चेहरे की चौड़ाई को पूरी तरह सिकोड़ दिया। प्योन की आँखें भी पाँव तले की जमीन खुरच रही थीं।
  • आर.जेड.डी-208-बी, डी.डी.ए. पार्क रोड, राजनगर-2, पालम कालोनी, नई दिल्ली-77/मो. 9650267277

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 


।। कथा प्रवाह ।।


पूरन सिंह





हाँ, यही प्यार है

      जब से होश संभाला तो पिता से हमेशा एक ही बात सुनी- ‘‘बेटा, अपना उत्तरदायित्व समझो।’’
      माँ जब भी हाथ उठातीं, आशीष ही देतीं।
      मित्रों से बात होती तो वे हमेशा ही कहते- ‘‘विश्वास ही तो है जो हमें नई ऊर्जा देता है।’’
      पाठशाला से कॉलेज तक गुरुजी हमेशा कहते- ‘‘अनुशासन ही तुम्हारे जीवन की कुंजी है।’’
      लेकिन कल जब तुम मिलीं तो तुमने कुछ कहा नहीं, सिर्फ अपनी हथेली मेरी ओर बढ़ा दी। और मुझे देखो, मैंने उस पर माँ, पिता, मित्रों और गुरुजी की कही वे सारी बातें लिख दी तो तुम खिलखिलाकर हँस दी और कहने लगी- ‘‘हाँ, यही तो प्यार है।’’

  • 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008/मो. 09868846388

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 


।। कथा प्रवाह ।।


उमेश मोहन धवन



भूख
      
      ‘‘हरप्रीते जरा रोट्टी दे दे फटाफट, भूख अब बरदाश्त नहीं हो रही।’’
      ‘‘क्या बात है दार जी, आज सात बजे ही भूख लग गयी, रोज तो आप रात नौ बजे तक खाते हो।’’
      ‘‘पता नहीं, आज दोपहर को थोड़ा कम खाया था न, शायद इसीलिये। इतवार को सारा दिन घर पर रहो तो रोटीन ही बिगड़ जाता है। चंचल पुत्तर दिखायी नहीं दे रही, आगे वाले कमरे में है क्या? उसे बुलाना तो जरा।’’
     ‘‘नहीं जी, वह तो अपनी सहेल्ली के घर गयी है। दोपहर तीन बजे गयी थी, कहती थी कोई फंक्शन है वहाँ। किसी का जनम दिन होगा। कहकर गयी थी कि छः बजे तक आ जायेगी पर सात बज गये, आयी नहीं अभी तक। चलो कोई नहीं, आ ही जायेगी। फंक्शनों में देर-सवेर तो हो ही जाती है। ये लो जी आप खाना खाओ, आपकी पसंद की सब्जी बनायी है।’’ 
      ‘‘अभी जरा रहने दे खाना थोड़ी देर। अभी तो भूख बड़े जोर की लग रही थी पर पता नहीं अचानक ऐसा लग रहा है कि जैसे भूख मर सी गयी हो।’’
      सरदार जी ने खाने की थाली से मुँह घुमा लिया और दरवाजे की तरफ देखने लगे।
  • 13/34, परमट, कानपुर-204001 (उ0 प्र0)/मो. 09839099287