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सोमवार, 30 अप्रैल 2018

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 


।।कविता अनवरत।।


माधव नागदा




कविताएँ
01. वारिस

जब बढ़ता है बच्चा 
अपने व्यक्तित्व को 
पुनः-पुनः गढ़ता है पिता
बच्चे का किलकना कूदना
लगता है उसे
अपना किलकना कूदना
खतरों से खेलता देख बच्चे को
वह हो उठता है रोमांचित 
भर जाता है
उसके अन्तस का खालीपन।

नन्हा बच्चा 
चढ़ता है जब पेड़ पर
भयभीत माँ
पुकारती है अपने पति को
रोको/गिर जायेगा वह
नुकीले पत्थर हैं नीचे।
देखता है पिता
उसकी आँखों में
दौड़ जाती है चमक
पत्नी के कंधे पर हाथ रख
कहता है हौले से
प्रिय, उसे चढ़ने दो
जो काम हम नहीं कर पाये
करने दो उसे
जो गिरने से डरेगा
वह/आगे कैसे बढ़ेगा?

02. अनुगूँज

समय की रेत के नीचे
बह रही है कहीं गहरे
तुम्हारी यादों की अन्तर्धारा
रेगिस्तान में सरस्वती की तरह

अन्तस की उपत्यकाओं में
बहुत दूर/तैर रही है
मधुर अनुगूँज
जैसे/लौट-लौट आता है
पहाड़ों से टकराकर
तुम्हारे नाम का अनहद नाद

उम्र के इस पड़ाव पर
हैरान हूँ;
नहीं हुए हैं पहाड़ वीरान
शाख से बिछुड़े फूलों में
शेष है सुगंध
कबाड़ी की नज़रों से बच गये
‘शेखर: एक जीवनी’ में
दुबकी हुई है दम साधे
एक प्यारी सी चिट्ठी

वक़्त की बेरहम आँधी
सब कुछ उड़ा सकती है
मगर/प्रेम नहीं।

03. आना मेरे गाँव

धूप में न छाँव में
आना साँझ को 
मेरे गाँव में।
बीचोबीच है नेता की हवेली
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी 

जैसे दुल्हन नई-नवेली
बहुत मीठा बोलते हैं ये
फँस न जाना
किसी दाँव में

उस छोर पर है बस्ती हमारी
पाओगे झोंपड़ियों में मस्ती हमारी
सँभलकर चलना पगडंडी कच्ची
चुभ न जाए 
काँटा पाँव में

गोधूलि करेगी तुम्हारा स्वागत
होने न देंगे मान तुम्हारा आहत
साथ खाएँगे रोटी मक्का की
भूल गए प्याज
चढ़ते भाव में

नोन, तेल, लकड़ी का झगड़ा
है यहाँ हमेशा का रगड़ा
बर्दाश्त कर लेना 
ज़रा-सी चिल्ल-पों
न उलझना इनकी
काँव-काँव में

उधर है मंदिर बीच तालाब में
हम जा भी न सकते कभी ख्वाब में
रोक नहीं तुम्हारे लिए कोई
बैठकर जाना जर्जर नाव में।
आना साँझ को
मेरे गाँव में।

04. दिखाते हैं ख्वाब

वे आते हैं
होठों पर
आत्मीय मुस्कान लपेटे
दिखाते हैं
सुनहरे जंगल के ख्वाब

हाथ पकड़कर/ले जाते हैं
शब्दों को सिक्कों में ढालते हुए
छोड़ देते हैं
ऊँची कँटीली झाड़ियों के बीच

छटपटाते हैं हम,
निकलने के प्रयास में
तार-तार हो जाते हैं वस्त्र
कुंठित सब शस्त्र
लहूलुहान चेहरे हमारे

लौटते हैं जब हम
अपनों के बीच
पहचानने से सभी 
कर देते हैं इनकार।

05. किसे बचाएँ

पिता ने कहा
या तो छोड़ दो कविता
या घर
मैंने छोड़ दिया घर

नेता ने कहा
या तो छोड़ दो पार्टी
या ईमानदारी
मैंने छोड़ दी पार्टी

संपादक ने कहा
या तो छोड़ दो मीन-मेख
या नौकरी
मैंने छोड़ दी नौकरी


रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी
महन्त ने कहा
या तो छोड़ दो पंथ
या सर्वधर्म समभाव
मैंने छोड़ दिया पंथ

खाप ने कहा
या तो छोड़ दो प्रेम
या जिंदगी
मैं दोनों को 
बचाये रखने के लिए
फिर रहा हूँ लुकता-छिपता
यहाँ-वहाँ
न जाने/कहाँ-कहाँ।

  • लाल मादड़ी, नाथद्वारा-313301, राज./मो. 09829588494

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