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सोमवार, 30 अप्रैल 2018

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 



।। कथा प्रवाह ।।


शोभा रस्तोगी



उन दिनों का रक्त
      आज उसका दूसरा दिन था। कल तो उससे उठा ही न गया। कभी गर्मपानी की बोतल कभी हीटिंग पैड लगाए पड़ी रही, इत्ती गर्मी में। नो ठंडा पानी। ओह क्या मुसीबत है!
      आज कुछ संभली है। घर भी देखा कुछ। ऑफिस के लिए भी तैयार हुई। पर्स में एक्सट्रा अरेंजमेंट भी कर लिया। दर्द उसके साथ ही हो लिया। शुक्र है बस समय पर मिल गई। स्टैण्ड तक पति ने छोड़ दिया था। कंधे पे पर्स और हाथ में लंच बैग लिए बस में चढ तो गई पर सीट फुल। आज चार्टेड भी निकल गई। यूँ तो एक घंटे का रन है पर मुआ ये ट्रेफ़िक जाम इसे डबल कर देता है। ओ माई गॉड, निचुडी टांगों से दो घंटे कैसे खड़ी रहेगी? सीट माँगे भी तो क्या कहे? हर बार की दिक्कत जो ठहरी। भीड़ में खड़ी-खड़ी भी बार-बार पीछे देखती रही।
      ऑफिस पहुँच सबसे पहले वाशरुम गई। संयत हो फाइलें निपटाने लगी। तीन घंटों से अधिक बैठी रही। उठना चाहकर भी उठ न पाई। पर अब उठना अति जरूरी लगा। तभी बॉस ने बुला भेजा। कम्पनी की प्रोपर्टी फाईल लेकर। बॉस से निपट बाहर जाने के लिए पलटी भी न थी कि ओह! वही हुआ जिसका डर था। स्पॉट आ ही गया। पियोन दबी मुस्कान से देख रहा था। इधर मुड़ी तो बॉस। बॉस के चेहरे पे कुछ चौड़ा-सा फैल गया था। उसे न जाते बना, न बैठते। दोनों मर्दों की उपहास बनी वह दीन-हीन खड़ी रह गई। इधर अंदर कुछ अधिक तैरने लगा था। अब उसे लगा कि आज आई ही क्यूँ। एक और छुट्टी ले बैठती। ये स्यापा तो न होता।
      इसी भीतरी वेदना से लदफद थी कि कहीं कुछ चिरा। मन में हिम्मत उतरने लगी। गहन व्यथा जुगनू-सा प्रकाश छिटका ही देती है। पीड़ा से भरी बॉस से मुखातिब हुई। ‘‘जिस रक्त के धब्बे देख औरत की हँसी उड़ाते हो और मजा लेते हो, वही रक्त भ्रूण को इंसान का चोला पहनाता है। औरत के शरीर से महीने के पाँच दिन रिसने वाला रक्त ही अस्तित्व देता है पिता के बीज को। जन्मती है संतान और बड़े होकर तुम्हारे जैसे उपहास बनाते हैं उस रक्त का।’’
      बॉस की झुकी आँखों ने उसके  चेहरे की चौड़ाई को पूरी तरह सिकोड़ दिया। प्योन की आँखें भी पाँव तले की जमीन खुरच रही थीं।
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