अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 07-08, अप्रैल-जून 2018
‘‘जिसके स्पर्श से/जिसकी अनुभूति से/जिसके स्मरण मात्र से/आनन्द द्विगुणित हो जाता हो/भला उसको अनावृत कर देने पर/किसे क्या हासिल हो सकता है’’ की समझ के साथ ‘‘शब्दहीन/वाक्यहीन और/संशयहीन हो जाने तक...’’ जिसकी अनुभूति की जा सकती है, उस प्रेम के व्याकरण में शेष क्या रह जाता है! यही प्रेम तो है, जो जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जीने की प्रेरणा के साथ हमें मनुष्यता और सामाजिकता की राह भी दिखाता है। कविता में मनुष्यता और सामाजिकता की बात करना मनुष्य से प्रेम करना ही होता है। ‘आग तुम रहस्य तो नहीं’ संग्रह में श्रीराम दवे की कविता इसी पायदान पर खड़ी दिखाई देती है। इसीलिए उनका कवि मनुष्यता और सामाजिकता के रास्ते पर चलते हुए मनुष्य के खिलाफ होने वाली कार्यवाहियों को देखकर चुप नहीं रहता। वह बोलता है हर उस चीज के
खिलाफ, जो उसकी दृष्टि में मनुष्य, मनुष्यता और मानवीय संवेदना के खिलाफ है। वह बोलता है- बड़े बाँधों के लिए टिहरी, हरसूद जैसे शहरों के जलदाह, ओजोन पर्त में छेद कर देने वाले अनियमित व अन्धाधुंध विकास, प्रतिभाओं को हतोत्साहित करने वाली कार्यवाहियों, तानाशाहों और तानाशाही प्रवृत्तियों, मानवीय विचारों को रोकने वाले धार्मिक कट्टरपन के साथ अनेकानेक सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ। सुविधाओं के लबादे ओढ़कर साध ली जाने वाली चुप्पी कवि को पसन्द नहीं। चुप्पी साध लेने वालों से उसे वे लोग अच्छे लगते हैं, जो हाल-चाल लेने के बहाने ही सही, कुछ बोलते तो हैं। ‘‘फिर भी अच्छे हैं वे लोग/जो खैनी मसलते-मसलते या/बीड़ी का अद्दा सुलगाते/‘केसन हो भय्या/जे केसन जमाना आयी गवा हे’/जैसे जुमलों से/चुप्पी की वज्रकाया को/तोड़ते रहने की कोशिश तो करते हैं’’। दरअसल बोलना संवेदना को ऊर्जा देना भी होता है और संवेदना बेजान चीजों में भी कविता को उकेर देती है। शायद इसीलिए दवेजी गोपनीय, अनुपात जैसे शब्दों ओटला, बुहारी, कुन्दा, इमारत, सींग, चीजें, हिचकियाँ जैसी चीजों मे भी कविता खोज लेते हैं।
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डॉ. उमेश महादोषी
कविता की रचनात्मकता है आग का रहस्य
‘‘जिसके स्पर्श से/जिसकी अनुभूति से/जिसके स्मरण मात्र से/आनन्द द्विगुणित हो जाता हो/भला उसको अनावृत कर देने पर/किसे क्या हासिल हो सकता है’’ की समझ के साथ ‘‘शब्दहीन/वाक्यहीन और/संशयहीन हो जाने तक...’’ जिसकी अनुभूति की जा सकती है, उस प्रेम के व्याकरण में शेष क्या रह जाता है! यही प्रेम तो है, जो जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जीने की प्रेरणा के साथ हमें मनुष्यता और सामाजिकता की राह भी दिखाता है। कविता में मनुष्यता और सामाजिकता की बात करना मनुष्य से प्रेम करना ही होता है। ‘आग तुम रहस्य तो नहीं’ संग्रह में श्रीराम दवे की कविता इसी पायदान पर खड़ी दिखाई देती है। इसीलिए उनका कवि मनुष्यता और सामाजिकता के रास्ते पर चलते हुए मनुष्य के खिलाफ होने वाली कार्यवाहियों को देखकर चुप नहीं रहता। वह बोलता है हर उस चीज के
व्यवस्था को उसकी स्वभावगत संवेदनहीनता के लिए वह आड़े हाथों लेते हैं। दुर्घटनाओं के सन्दर्भ में उन आँकड़ेबाजों पर उनका तंज गहरे तक चोट करने वाला है, जो ‘कितने मरे, कितने घायल, कितने लापता’ जैसे आँकड़े तो जुटाते हैं लेकिन रोने-सुबकने वालों की संख्या से कोई वास्ता नहीं रखते। यह हमारी व्यवस्था का शर्मनाक किन्तु वास्तविक रूप है- ‘‘संभव है उन्हें/सुबकने वालों/जोर-जोर से रोने वालों/और/रो-रोकर निढाल हो चुके लोगों के/आँकड़ों की जरूरत नहीं हो!’’
व्यवस्था का यह रूप कहीं न कहीं हमारे समाज में व्यक्तियों की सामान्य मानसिकता को भी प्रतिबिम्बित करता है। प्रायः हम व्यवस्था पर तो तंज कसते हैं, लेकिन व्यक्तिपरक मानसिकता और उससे जनित विसंगतियो को अनदेखा कर देते हैं। कुछ साहित्यकारों ने ऐसी सामाजिक विसंगतियों पर विशेष रूप से कलम चलाई है। यह कबीर-वृत्ति दबे साहब की भी कविताओं में देखने को मिलती है। सफाई वाला, रिक्शे वाला, घरेलू काम करने वाली बाई, दूध वाला, अखबार वाला और आटा चक्की वाला- इन सबके अच्छे-से नाम होते हैं, इनके काम और व्यवहार भी अच्छे हों तो भी इनको इनके नाम से संबोधित करने या पहचानने की बजाय सिर्फ और सिर्फ इन्हें इनके काम से पहचाना-पुकारा जाता है। क्या यह सम्मान का शोषण नहीं है! दवे साहब ने ऐसे प्रश्नों को भी बड़ी सिद्दत से उठाया है। शायद इन प्रश्नों से रूबरू होने के कारण ही वह प्रेमचंद की सार्वकालिकता को कविता में रचनात्मक रूप से रेखांकित करना नहीं भूल पाये। एक रचनाकार की ऊर्जा मनुष्यता के लिए आग जैसी होती है, जो कुछ चीजों को भस्म करती है तो कुछ चीजों को निरंतरता-व्यापकता देती है- ‘‘सदियों से चली आ रही/और भस्मीभूत कर रही आग/संवारती भी है शक्लें/संडासी और चिमटों की हों/बड़ी-छोटी मशीनों की/या किसी नश्वर देह की‘‘। निसन्देह आग एक रहस्य है और यह रहस्य कविता की रचनात्मकता है, मनुष्यता का संरक्षण है। श्रीराम दवेजी की इन कविताओं का यही सार है।
आग तुम रहस्य तो नहीं : कविता संग्रह : श्रीराम दवे। प्रकाशक : सुखमणि प्रकाशन, 5, सुखशांति नगर, बिचौली, हप्सी रोड, इन्दौर। मूल्य: रु. 150/- मात्र। सं.: 2011।
- 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली, उ.प्र./मो. 09458929004
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