आपका परिचय

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : फरवरी २०१२

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : १, अंक : ०६, फरवरी  २०१२ 

प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक : डॉ. उमेश महादोषी 
संपादन परामर्श : डॉ. सुरेश सपन  
फोन : ०९४१२८४२४६७ एवं ०९०४५४३७१४२ 
ई मेल : aviramsahityaki@gmail.com 

रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव 
।।सामग्री।।
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अविराम विस्तारित :

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत} :  इस अंक में चंद्रभान भारद्वाज,  श्याम सुन्दर अग्रवाल, महेश सक्सेना, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, खदीज़ा खान , विज्ञान व्रत, डॉ. रुक्म त्रिपाठी, मोह.मुइनुद्दीन ‘अतहर’, पूनम गुप्ता एवं अमित कुमार लाडी की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएं   {कथा प्रवाह} :  इस अंक में  पूरन मुदगलविक्रम सोनी,  पारस दासोत,  डॉ. पूरन सिंह एवं खेमकरण ‘सोमन’ की लघुकथाएं।  

कहानी {कथा कहानी इस अंक में राजेन्द्र परदेशी की कहानी- 'नई राहें'  

क्षणिकाएं  {क्षणिकाएँ इस अंक में हरकीरत ‘हीर’ एवं मीना गुप्ता की क्षणिकाएं।

हाइकु व सम्बंधित विधाएं  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक में सुभाष नीरव, डॉ सतीश राज पुष्करणा, डॉ हरदीप सन्धु  एवं रमेश कुमार सोनी के हाइकु ।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:  इस अंक में    डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के जनक छंद।  

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:  इस अंक में ओम प्रकाश मंजुल का व्यंग्यालेख 'सौ रुपये में भारत माता की जय'।
संभावना  {सम्भावना इस अंक में नए हस्ताक्षर अर्जुन सिंह ‘तन्हा’ अपनी कविता के साथ

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} : डॉ0 मिथिलेश दीक्षित का आलेख वर्तमान परिवेश में नारी की भूमिका : विविध आयाम

किताबें   {किताबें} : सत्य सेवक मिश्र द्वारा  श्री हरिश्चंद्र  शाक्य की कृति ‘पूरब की बाँसुरी-पश्चिम की तान’ (हाइकु संग्रह)  की परिचयात्मक समीक्षा  

लघु पत्रिकाएं   {लघु पत्रिकाएँ} : इस बार साहित्यिक  पत्रिका 'सरस्वती सुमन' पर परिचयात्मक  टिप्पणी  

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले माह प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} : अविराम साहित्यिकी के अंक ०१, जनवरी-मार्च २०१२ में प्रकाशित सामग्री/रचनाकारों का विवरण 

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : अविराम के आठ  और रचनाकारों का परिचय।


।।मेरा पन्ना/उमेश महादोषी।।

  • पंजीकरण के बाद अविराम साहित्यिकी का पहला अंक प्रकाशित हो चूका है तथा प्रेषित किया जा रहा हैं। आशा है पाठकों-मित्रों को पसंद आएगा। क्षणिका पर पर्याप्त एवं स्तरीय रचनाएँ प्राप्त न होने के कारण कार्य अपेक्षित गति से नहीं हो पा रहा हैं। सभी मित्रों से स्तरीय क्षणिकाएं अधिकाधिक संख्या में भेजने का हम पुन: अनुरोध करते हैं
  • ब्लॉग  पर आपकी  समालोचनात्मक प्रतिक्रियाएं रचनात्मक चिंतन और स्तर- दोनों को ही प्रोत्साहित करती हैं, अत: ब्लॉग को पढ़कर जहाँ तक संभव हो, अपनी टिप्पणी अवश्य दर्ज करें
  • मुद्रित रूप में 'अविराम साहित्यिकी' का वार्षिक शुल्क  रुपये ६०/- तथा आजीवन सदस्यता शुल्क रुपये ७५०/- रखा गया है। वार्षिक शुल्क धनादेश द्वारा 'प्रधान संपादिका, अविराम साहित्यिकी, ऍफ़-४८८/२, गली संख्या ११, राजेंद्र नगर, रुड़की, जिला-हरिद्वार, उत्तराखंड' के पते पर भेजा जाना हैआजीवन शुल्क रुड़की पर देय 'अविराम साहित्यिकी' के नाम में जारी  रेखांकित  'मांग ड्राफ्ट' द्वारा उक्त पते पर ही भेजा जाये। कृपया किसी भी व्यकिगत नाम में कोई राशी न भेजें
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अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०६, जनवरी २०१२ 

।।कविता अनवरत।।


सामग्री : चंद्रभान भारद्वाज,  श्याम सुन्दर अग्रवाल, महेश सक्सेना, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, खदीज़ा खान , विज्ञान व्रत, डॉ. रुक्म त्रिपाठी, मोह.मुइनुद्दीन ‘अतहर’, पूनम गुप्ता एवं अमित कुमार लाडी की काव्य रचनाएँ।



चंद्रभान भारद्वाज


वरिष्ठ कवि श्री चंद्रभान भारद्वाज जी का हिन्दी ग़ज़ल संग्रह ‘हथेली पर अंगारे’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से उनकी दो हिन्दी ग़ज़लें।




दो ग़ज़लें


1.
ज़िंदगी मचली उमंगों का उठा इक ज्वार था
क्या पता वह वासना थी क्या पता वह प्यार था


याद बस दिन का निकलना और ढलना रात का
कल्पनाओं के महल थे स्वप्न का संसार था


होंठ पर मुस्कान सी थी आँख में पिघली नमी
प्यार की प्रस्तावना थी या कि उपसंहार था


स्वप्न में चारों तरफ थे चाँद तारे चाँदनी
आँख खोली तो लगा उजड़ा हुआ घर-द्वार था


धार में उतरा हुआ था एक पूरा आदमी
रेखांकन : राजेंद्र परदेशी 
सिर पड़ा इस पार पर अब धड़ पड़ा उस पार था


आज कुछ संदर्भ भी आता नहीं अपना वहाँ
जिस कहानी में कभी अपना अहम् किरदर था


बिन पढ़े ही रह गया है डायरी का पृष्ठ वह
बद्ध ‘भारद्वाज’ जिसमें ज़िंदगी का सार था


2.
होंठ पर किलकरियों का नाम हो जैसे
ज़िंदगी फुलवारियों का नाम हो जैसे


तन भिगोया मन भिगोया आत्मा भीगी
प्यार ही पिचकारियों का नाम हो जैसे


आस के अंकुर उगे कुछ कोपलें फूटीं
स्वप्न कोई क्यारियों का नाम हो जैसे


बाँटती फिरती हँसी को और खुशियों को
उम्र जीती पारियों का नाम हो जैसे


टाँक कर रक्खीं हृदय में सब मधुर यादें
मन सजी गुलकारियों का नाम हो जैसे


वो बसे जब से हमारे गाँव में आकर
हर गली गुलजारियों का नाम हो जैसे


ज्ञान ‘भारद्वाज’ बैठा भूलकर उद्धव
ध्यान में वृज-नारियों का नाम हो जैसे



  • 164, श्रीनगर मेन, इन्दौर-452018 (म.प्र.)





श्याम सुन्दर अग्रवाल












रिश्ते


विश्वास का मौसम
ज़रूरत की धरती
रेखांकन : पारस दासोत 
’गर मिलें तो
उग ही जाते हैं रिश्ते।
लंबा हो मौसम
हो ज़रख़ेज़ धरती
तो बढ़ते हैं, फलते हैं
खिलखिलाते हैं रिश्ते।
बदले जो मौसम
बदले जो माटी
तो पौधों की भाँति
मर जाते हैं रिश्ते।
                   

  • बी-।/575, गली नं.-5, प्रताप सिंह नगर, कोट कपूरा (पंजाब)-151204



महेश सक्सेना




गीत की किताब का पृष्ठ हूँ फटा हुआ


गीत की किताब का 
पृष्ठ हूँ फटा हुआ,
हो गया विवर्ण हूँ 
धूल में अटा हुआ।


लुप्त हो गई कहीं 
गीत-काव्य-सर्जना,
हो रही विनष्ट-सी 
उर्व-भाव-व्यंजना,
काव्य-वृक्ष से यहाँ 
मैं पड़ा कटा हुआ।


ठौर-ठौर हो रही 
गीत से प्रवंचना,
देखता निरीह-सा 
गीत की प्रभंजना,
आज व्यर्थ हूँ पड़ा 
लीक से हटा हुआ।


रेखांकन : नरेश उदास 
काव्य-कारवाँ चला 
था कभी अतीत में,
अग्रणी रहा सदा 
गीत की प्रतीति में,
आज काव्य-भिन्न से 
मैं पड़ा घटा हुआ।


आँधियाँ कुचक्र की 
खेल खेलती रहीं,
हो गया शनैः शनैः 
अस्त मैं यहीं कहीं,
एक गीत शब्द ही 
रह गया रटा हुआ।


छन्द आदि आज तो 
हो गए अदृश्य  हैं,
मानने लगे इन्हें 
कल्पना सदृश्य  हैं,
गीतकार दीखता 
लीक पीटता हुआ।

  • 555, नया कोटगाँव, जी.टी. रोड, ग़ाज़ियाबाद (यू.पी.) 



डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी


ग़ज़ल


आँधियों को देख क्या दीपक जलाना छोड़ दें
रात में क्या प्रात के सपने सजाना छोड़ दें


तार टूटे बीन के क्या देखकर रोते रहें
इस हृदय की बीन पर क्या गुनगुनाना छोड़ दें


दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति 
हो अँधेरा भी गहन रुकती नहीं है साधना
आस के तारे हैं वे क्या जगमगाना छोड़ दें


सूखते उपवन को मरुथल क्या बताना है उचित
इसमें नूतन कल्पतरु को क्या उगाना छोड़ दें


भूल अपने लक्ष्य को जो नींद में भटका
‘श्वेता’ अपने मीत को हम क्या जगाना छोड़ दें



  • 24, आँचल कॉलोनी, श्यामगंज, बरेली-243005 (उ.प्र.)



खदीज़ा खान 






दो कविताएं




1. फिज़ा


जब अस्तित्व को/मिल जाता है
एक नया नाम
नाम को एक अर्थ 
और अर्थ को एक लक्ष्य
तो जीवन की 
फिज़ा ही बदल जाती है।


2. चलना है तब तक 


चलना है तब तक/पैरों की थकन टूटकर चूर न कर दे
पैरों तले रौंद कर/अपने ही चालों को धूल न कर दे
कड़ी धूप झुलसा भी दे अगर
कली ढूंढ़कर बिखेर भी दे अगर/उखड़ी सांस जब तक 
छोड़ न दे साथ
आखिरी आस जब तक 
छोड़ न दे हाथ 
चलना है तब तक 
जब तक बचा है/जिस्म की मिटटी में/एक भी बीज 
जो बन सकता है दरख्त 
दृश्य छाया चित्र : डॉ उमेश महादोषी 
एक भी लम्हा/जो बन सकता है वक्त
बची हुई एक किरण 
जो ला सकती है उजाला 
जमी हुई एक बूंद 
जो बन सकती है धारा 
बस एक यकीन है जब तक 
चलना है तब तक 



  • चित्रकोट रोड ,धरमपुरा न01, अशोका पार्क के पास, जगदलपुर-494005, (छत्तीसगढ़)



विज्ञान व्रत








ग़ज़ल




दिखने में यूँ मस्त नज़र है
लेकिन वो इक हमलावर है


आईने में चेहरा भर है
बाक़ी वो अपने भीतर है


रेखांकन : सिद्धेश्वर 
उसके घर जो दुनिया भर है
उस दुनिया में कितना घर है


उसको सबकी ख़ैर ख़बर है
गरदन-गरदन उसका सर है


घर के आगे पूजाघर है
देखो उसको कितना डर है



  • एन-138, सेक्टर-25, नोएडा-201301(उ.प्र.)



डॉ. रुक्म त्रिपाठी








पांच दोहे




1.
कुहू कुहू कर कोकिला, गाती फिरती आज।
राजकीय स्वागत करें, आए श्री ऋतुराज।।
2.
गुंजन करता बाग में, गुन गुन गाता छंद।
अली कली मुख चूमकर, चूस रहा मकरंद।।
3.
पतझड़ बीते ही दिखे, नव पल्लव का दौर।
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति
अतिशय यौवन भार से, झुकी आम की बौर।।
4.
विरह व्यथित है भामिनी, दूर बसे जा कंत।
वाट जोहते थक गई, बीत न जाय बसंत।।
5.
खजुराहो के चित्र अब, ऐसे दिखते संग।
जैसे रति अरु काम पर, चढ़ा बसंती रंग।। 



  • 30, रामकृष्ण समाधि रोड, ब्लाक-एच,फ्लैट-2, कोलकाता-700054 (प.बंगाल)



मोह.मुइनुद्दीन ‘अतहर’






ग़ज़ल


जब भी देखा है तसव्वुर में सरापा अपना
नींद आंखों से गई देख के चेहरा अपना


धूप और छांव कहीं गम का अम्बार कहीं
रंग हर लम्हा बदलती है ये दुनिया अपना


दाग चेहरे पे तिरे कितने उभर आए हैं
आइना सामने है देख ले चेहरा अपना


हम गरीबों के भी हालात कहां बेहतर हैं
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव


हमने सदियों से बहाया है पसीना अपना


तब तो आएगा यकीं तुमको जबां पर मेरी
सामने चीर के रख दूं जो कलेजा अपना


चांदनी रात में सूरज सी तपिश का आलम
ऐसे हालात को हर्गिज न समझना अपना


किसको हालात बताएं कोई गमख्वार नहीं 
सब ही इक दर्द लिए बैठे हैं अपना-अपना


आज के दौर में अपना किसे कहिये ‘अतहर’
सबसे दुश्वार है अपनों को समझना अपना



  • 1308, अज़ीज़गंज, पसियाना, शास्त्री वार्ड, जबलपुर-2 (म.प्र.) 



पूनम गुप्ता










नया वर्ष


साल का पहला दिन
भरता है जोश
पर चार दिन बाद ही
अनगिनत समस्याओं के बीच
उड़ गया होश
जीते रहे इस आशा में
फिर आयेगा- नया वर्ष
लेकर नयी उम्मीद, नया जोश!



  • द्वारा श्री आर. के. गुप्ता, निकट पी.डब्ल्यू.डी., ए.बी.सी.स्कूल के पीछे, डायमंड रोड, रामपुर-244901 (उ.प्र.)



अमित कुमार लाडी










कई बार


कई बार मुझे
अपने आप से ही
डर लगता है,
कई बार
अपना व्यवहार ही
बर्बर लगता है,
कई बार तो
अपना सुन्दर सा घर ही
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति
मुझे खंडहर सा लगता है
और कई बार
अपना होना भी
एक खबर सा लगता है
‘लाडी’ क्या कहे अब
किस्मत का खेल भी
झूठा सा लगता है।

  • मुख्य सम्पादक, आलराउँड मासिक, डोडां स्ट्रीट, फ़रीदकोट-151203 (पंजाब)

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०६, जनवरी २०१२ 

।।कथा प्रवाह।।  

सामग्री :  पूरन मुदगलविक्रम सोनी,  पारस दासोत,  डॉ. पूरन सिंह एवं खेमकरण ‘सोमन’ की लघुकथाएं। 


पूरन मुदगल 




पहला झूठ


    बच्चे ने कब मेरी जेब से पैन निकाल लिया, मुझे पता ही नहीं चला। देखते-देखते उसने पैन की कैप उतार ली। निब फर्श पर मारने को हुआ तो मैंने तुरंत उसके हाथ से पैन छीन लिया। वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। उसे शांत करने के लिए पैन देना पड़ा। उसने कैप खींची और पैन का रिश्ता फिर फर्श से जोड़ने लगा। पैन बहुमूल्य था और मैं नहीं चाहता था कि बच्चा खेल-खेल में उसे बेकार कर दे।
    मैंने बच्चे का ध्यान बँटाया। पैन उसके हाथ से छीनकर फुर्ती से अपना हाथ पीठ के पीछे किया, दूसरे हाथ से ऊपर की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘पैन.....चिया....।’ इस बार रोने की बजाय वह आकाश की ओर नज़र उठाकर चिड़िया को देखने लगा। उसके भोले मन ने मान लिया कि पैन चिड़िया ले गई।
   एक दिन वह बर्फी का टुकड़ा खा रहा था। मैंने कहा, ‘बिट्टू, बर्फी मुझे दो।’
   उसने तुरन्त बर्फी वाला हाथ पीठ के पीछे किया और तुतलाती बोली में कहा- ‘बफ्फी.....चिया....।‘



  • 309, अग्रसेन कालोनी, सिरसा-125055 (हरियाणा)





विक्रम सोनी






बातचीत


    ‘आओ यार बैठें। बाहर कर्फ्यू लगा हुआ है, बैठे-ठाले हम भी किसी युद्ध पर बात करें।’
    ‘मुझे सख्त एतराज है। हम भूख पर भी बात करने में असमर्थ हैं, क्योंकि हमारे पास खाने को नहीं है। फिर युद्ध के लिए सैनिक, गोला, बारूद और युद्ध में बेमौत मरने के लिए आदमी कहाँ से लायेंगे।’
   ‘तुम ठीक कहते हो.... तो फिर चलो, अपने देश को नये सिरे से रचाने-बसाने की कोई ठोस योजना ही बनायें।’
दृश्य छाया चित्र : डॉ उमेश महादोषी 
   ‘योजना बनाने और उस पर केवल मुंह मारते रहने के लिए लंबे समय की जरूरत होती है भाई, और हमारे एक-एक घंटों पर मिनटों ने पाबंदी लगा रखी है।’ 
   ‘कुछ भी कहो, लेकिन तमाम पाबंदियों के बीच भी मुझे धान की, गेहंू की सुगंध और उसकी मिठास याद रहती है।’
   ‘हां, शायद तुम ठीक कहते हो। मुझे भी अपने गांव वाले घर की पूरब वाली झंकिया से उगते सूरज की महक समेटना खूब भाता है।’
   ‘क्यों न भाये, सदियों से गांव हमारे हैं।’
   ‘जमीन हमारी है। आकाश हमारा है।’
   ‘यार, फिर यह मुल्क हमारा क्यों नहीं है?’


(श्री विक्रम सोनी के लघुकथा संग्रह ‘लावा’ से साभार)  



  • बी-4, तृप्ति विहार, इन्दौर रोड, उज्जैन (म.प्र.)



पारस दासोत






वयोवृद्ध टाँगों का नृत्य


   कमरे की दीवारों के सहारे-सहारे.......
   आज वह, अपने वयोवृद्ध पैरों से घिसटता-घिसटता, खिड़की के पास जा पहुँचा।
   ‘यह मैं नज़र क़ैद में ही तो हूँ! -नहीं, नहीं! मैं क़ैद में नहीं हूँ!’
   ‘तो फिर क्या है? क्या कभी तूने पिंजरे में क़ैद शेर को नहीं देखा?‘....
   ‘देखा है। मैं कई बार अपने पोते-पोतियों को शहर का चिड़ियाघर दिखाने ले गया हूं।  वहां मैंने शेर को अपने छोटे-से पिंजरे में देखा है।’ -तो फिर तू इस छोटे से कमरे में टहलता-फिरता क्यों नहीं?’
   वह अपने आपसे बातें करते-करते यकायक बोला-
   ‘वाह! आज कई दिनों के बाद खिड़की पर हूं। लगता है, चिड़ियाघर का वह शेर मेरे अन्दर उतर आया है! मैं चलूंगा-टहलूंगा! नहीं-नहीं! ये मैं गलत बक गया! मैं चल रहा हूं! टहल रहा हूं! अपने इस पिंजरे में टहल रहा हूं, घूम-फिर रहा हूं! मैं, मैं शेर हूं!’
   अभी वह, खिड़की पर से हटकर दीवार का सहारा लिए चलने का प्रयास कर रहा था, उसका पुत्र आया और आज भी हमेशा की तरह वृद्ध पिता को कुछ समाचार सुनाते-सुनाते बोला- ‘पापाजी, आज अपने शहर के चिड़ियाघर का एक शेर, पिंजरा तोड़कर कहीं निकल गया है।’
   ‘क्या.. ऽऽ....!’
   वृद्व पिता, अपनी वयोवृद्ध टांगों से, दीवार का सहारा लिए बिना ही, नृत्य कर रहा था।

  • प्लाट नं. 129, गली नं. 9-बी, मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-302021(राज.)



डॉ. पूरन सिंह


रद्दी कागज


    अचानक घर की काल बेल बजने लगी थी।
   मैंने दरवाजा खोला।
   ‘सर आपका कोरियर है। यहाँ...इस जगह, हाँ बिल्कुल यहीं साइन कर दीजिए।’ इतना कहकर कोरियर वाले लड़के ने एक बड़ा सा पैकेट मुझे थमा दिया था और चला गया था।
   मैंने पैकेट खोला। उसमें चार सुन्दर सी पुस्तकें निकली, जिनमें से दो कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह तथा एक उपन्यास था। मुझे बहुत खुशी हुई और साथ ही जिज्ञासा भी हुई कि ये बहुमूल्य धरोहर आखिर भेजी किसने है, सो मैंने उसे उलट-पलटकर देखा था। राम  वर्मा सर ने भेजी थी। मैंने उनका लेखन पढ़ा था। वरिष्ठ साहित्यकार हैं। मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं पुनः उन पुस्तकों को पलटने लगा था। मैं उन पुस्तकों में रखा कोई पत्र देख रहा था, शायद उन्होंने मेरे नाम लिखा हो। कोई पत्र नहीं मिला था।
   मैंने पता देखा तो उस पर मोबाइल नंबर लिखा था।
रेखांकन : नरेश उदास 
   चलिए फिलहाल इसी से काम चला लेता हूँ। मन ही मन सोचा था मैंने और नम्बर मिला दिए थे। संयोग से पहली ही बार में नम्बर मिल गया था,....हैलो!
   ‘हैलो! मैं दिल्ली से योगेश्वर बोल रहा हूँ।’
   ‘जी बोलिए।’
   ‘आप कौन बोल रही हैं?’
   ‘मैं सीता.... सीता वर्मा बोल रही हूँ।’ संभवतः राम वर्मा की पत्नी बोल रही थीं।
    ‘राम वर्मा सर से बात कराइए प्लीज....।’ 
   ‘वे अब इस दुनियां में नहीं रहे।’ आवाज में कंपन था।
   ‘ओह सेड! दरअसल उनकी कुछ किताबें आई थीं।’
   ‘हाँ, मैंने ही भेजी थी।’ वे बोली थीं।
   ‘बिल्कुल ठीक किया आपने.... मैं शीघ्र ही पढ़कर उन सभी की समीक्षा आपको भेजता हूँ।’ मेरी श्रद्धा राम वर्मा सर के लिए और बढ़ गयी थी।
   ‘अरे, भाई साहब सुनिए तो.... सीता वर्मा बोली थी, समीक्षा-अमीक्षा लिखने की जरूरत नहीं है.... दरअसल हुआ क्या था, आपका नाम-पत और आपका ही क्यों, ... नजाने कितने लोगों के नाम-पते उनकी डायरी में लिखे थे। मैंने सभी को किताबें भेज दी हैं।... क्या करती मैं.... पूरा कमरा पुस्तकों से भरा पड़ा है.... बुलाया था मैंने रद्दी वाले को... उसने लेने से मना कर दिया, कहने लगा, बहिन जी इन छोटे-छोटे कागजों से तो थैली भी नहीं बनेगी। क्या करती मैं.... इनके सभी जानने वालों को मैंने किताबें भेज दी हैं.....समीक्षा मत लिखना। फिर आप कागज भेजोगे। फिर रद्दी बढ़ेगी.....बड़ी मुश्किल से तो खतम कर पाई हूँ। क्या करती मैं.... आप समीक्षा.....नहीं....न.....ना.....नहीं...।’ कहते-कहते उन्होंने फोन काट दिया था। 
   और मैं....मैं तो मोबाइल कान से लगाए मुंह बाए स्तब्ध खड़ा था।

  • 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेलनगर, नई दिल्ली-110008



खेमकरण ‘सोमन’




टेस्ट


    डॉक्टर ने रिपोर्ट कार्ड देखा। फिर चेहरे पर परेशानी का भाव लाकर कहा- ‘‘नहीं....नहीं.....मैं इस रिपोर्ट से सन्तुष्ट नहीं हूँ। माताजी
का ब्लड टेस्ट फिर से करवाना होगा।’’
   ‘‘जी सर!’’ कहकर लड़के ने डाक्टर द्वारा दिया गया पर्चा पकड़ लिया।
   ‘और सुनो!’’ डॉक्टर ने आगे कहा- ‘‘इस बार वो सामने नवीन पैथोलॉजी में जाना, न कि प्रकाश पैथोलॉजी में। यद रहे नवीन पैथोलॉजी। पिछली बार की तरह भूल मत करना।’’
   रास्ते में लड़के ने पर्चा देखा तो हैरान! डॉक्टर ने सारे के सारे टेस्ट वही लिखे थे जो कुछ ही देर पहले वह प्रकाश पैथोलॉजी से करवा के लाया था।

  • प्रथम कुंज, ग्राम व डाक- भूरावाली, रुद्रपुर, जिला- ऊधमसिंह नगर-263153 (उत्तराखण्ड)

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०६, जनवरी २०१२  


।।कथा कहानी।।

सामग्री :
 राजेन्द्र परदेशी की कहानी- 'नई राहें'



राजेन्द्र परदेशी



नई राहें


   परिस्थितियाँ लाख विपरीत हों, जीने के लिए उनका सामना तो करना ही पड़ता है। पति के स्वर्गवास के बाद मिसेज जोशी को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी मिल गयी थी। वह कभी भी अकेले घर से बाहर नहीं निकली थीं, तब क्या दूसरे शहर में जाकर नौकरी कर पायेंगी? निर्णय नहीं कर पा रही थीं कि क्या करना चाहिये क्या नहीं। बच्चे अभी छोटे थे। अकेले रह नहीं सकते थे। उनका अपना भी कोई न था जिसके भरोसे बच्चों को छोड़कर वह अकेले जाकर सीतापुर में नौकरी करें। अगर नौकरी नहीं करें तो गुजर-बसर का कोई और साधन भी नहीं। स्वयं तो किसी तरह उम्र काट लेंगी, परन्तु बच्चों के भविष्य का क्या होगा? काफी ऊँच-नीच सोचने के बाद मिसेज जोशी ने निर्णय कर लिया कि वह सीतापुर जाकर नौकरी करेंगी।
   लखनऊ से सीतापुर के लिए बस का साधन ही अधिक सुविधाजनक है, जब जाओ, कोई-न-कोई बस जाने के लिए खड़ी मिलती है। सीतापुर जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिए मिसेज जोशी बस स्टेशन जाकर, एक बस पर बैठ गयीं। पर संकोच का आवरण ओढ़े रहीं, जो उनके चेहरे से स्पष्ट झलक रहा था। ऐसे में असामाजिक प्रवृत्ति के पुरुषों को अपनी कलुषित भावनाओं को मूर्त रूप देने का अवसर मिल ही जाता है। इसी स्थिति का लाभ उठाकर ऐसा ही एक युवक उनकी बगल में आकर बैठ गया और फिर अपनी सहानुभूति दर्शाते हुए पूछा- ‘लगता है, आप अकेले ही सीतापुर जा रही हैं?’
   ‘हाँ।’
   ‘क्यों? आपके पतिदेव नहीं हैं क्या?’
   ‘कुछ दिनों पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया है।’ इसी के साथ मिसेज जोशी की आँखें डबडबा उठीं।
   ‘बहुत दुःखद हुआ’ कहकर वह युवक मिसेज जोशी के और पास आकर बोला, ‘कोई बात नहीं, मैं भी सीतापुर डेली अप-डाउन करता हूँ, आपको कोई परेशानी होगी तो बताइयेगा’। बात समाप्त करते-करते युवक लगभग उनके इतने पास आ गया कि उसका हाथ मिसेज जोशी के हाथ को छूने लगा। वह सकुचाती हुई जितनी सिमटती जातीं, युवक के शरीर का दबाव उतना ही बढ़ता जा रहा था। संकोचवश वह प्रतिरोध भी नहीं कर पा रही थी। इसका उसने कुछ और अर्थ लगाया और अपने हाथ से मिसेज जोशी का हाथ दबाने का प्रयास किया। उन्होंने मौन आक्रोश व्यक्त किया, लेकिन युवक पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। रास्ते भर वह चारित्रिक स्तर का परिचय देने का प्रयास करता रहा। सीतापुर बस स्टेशन आते ही उसने राहत की सांस ली। फिर तुरन्त उतरकर तेजी से अपने कार्यालय पहुँच गयी।
   पहले कभी इसी परिस्थिति से गुजर चुकी माधवी मिसेज जोशी के पास आकर बोली- ‘क्या बात है? तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?’
   मिसेज जोशी ने लखनऊ से सीतापुर के बीच पास बैठे युवक की हरकतों का विस्तार से विवरण देने के बाद, लगभग रुआँसी होकर बोली- ’मुझे तो शाम को वापस जाते समय डर लग रहा है।’
    ‘राह चलते किसी के सामने अपने परिवार के बारे में बताने की क्या जरूरत थी?’ माधवी ने झिड़कते हुए कहा।
   ‘मैंने तो कोई गलत बात नहीं कही थी, जो सच था वही बताया था।‘ मिसेज जोशी ने सफाई दी तो माधवी ने रहस्य का उद्घाटन किया, ‘‘तुम्हारा सत्य सुनने के कारण ही तो उसने गलत हरकत करने का साहस किया।’
   ‘मुझे बड़ा डर लग रहा है, सोचती हूँ एक बार फिर लखनऊ स्थानान्तरण के लिए सचिव से मिलकर अनुरोध करूँ। अगर वह नहीं  मानेंगे तो यह नौकरी ही छोड़ दूँगी....।’ 
    ‘फिर बच्चों के भविष्य का क्या होगा?’ माधवी ने व्यंग्यवाण छोड़ा- ‘कटोरा देकर उनसे भीख मंगवाओगी क्या?’
   ‘लखनऊ में ही कोई प्राइवेट नौकरी तलाश करूँगी।’ मिसेज जोशी ने अपनी विवशता की पीड़ा को व्यक्त किया।
   ‘क्या वहाँ ऐसे लोगों से पाला नहीं पड़ेगा.....लखनऊ में तुम्हें लोग साधू नजर आते हैं।’ उसने तर्क भी दिया- ‘रास्ते में तुम्हें जो मिला था, वह भी तो लखनऊ का था न?’
   ‘फिर मैं क्या करूँ?’ मिसेज जोशी ने अपनी लाचारी दर्शायी।
   ‘तुम्हें कुछ नहीं करना है, तुम एक औरत हो तो औरत की शान से रहो। रोनी सूरत बनाने से तुम्हारा पति तो वापस आ नहीं जायेगा तुम्हारी मदद को। उल्टे तुम स्वयं अपने लिए रोज़ नयी-नयी मुसीबतें बुलाती रहोगी।’ माधवी कुछ देर सोचती रही, फिर सलाह दी, ‘कल से तुम वैसे ही पहन-ओढ़कर आओगी, जैसे पति के रहते पहनती-ओढ़ती थी।’
   उसकी सलाह पर मिसेज जोशी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई तो माधवी पुनः बोली- ‘जीवन से जो चला गया, वह तो वापस आयेगा नहीं, ऊपर से रोनी सूरत बनाकर रहोगी तो तेरे बच्चे भी अपनी पुरानी यादों को भुला नहीं पायेंगे....और अपने भविष्य के प्रति सजग वह नहीं रहेंगे। दूसरे लोग भी सहानुभूति के नाम पर वासना की ही आँखें तुम्हारे ऊपर गढ़ाये रखेंगे। जीवन केवल अपने लिए नहीं जिया जाता.... उसके सामने अनेक यक्ष प्रश्न होते हैं, उनके समाधान भी तलाशने होते हैं उसे।’
   माधवी के मशविरे का मिसेज जोशी पर असर हुआ। रास्ते की पीड़ा भूल, होठों पर मुस्कान लाकर बोली- ‘ठीक है दीदी, आज से मैं तुम्हे अपना गुरु मानती हूँ और तुम्हारी बतायी नई राह पर ही चलकर जीवन जिऊँगी।’
    सब कुछ सहज हो चलने लगा। दो वर्ष बाद अचानक माधवी का स्थानान्तरण दूसरे शहर को हो गया। मिसेज जोशी पुनः थोड़ा सहमी, पर माधवी के सिर पर हाथ रखते ही वह सहज हो गयी। बच्चों का भविष्य संवारती रही।
   बरसों बाद अचानक माधवी से मिसेज जोशी की भेंट नोएडा के एक बस स्टाप पर हो गयी। मिसेज जोशी को देखकर उसे एक बार भ्रम हुआ कि क्या वह मिसेज जोशी ही है, जो बिल्कुल बदली नज़र आ रही है। अगर वह जोशी ही है तो यहाँ क्या कर रही है? भ्रम दूर करने के लिए वह उनके पास तक चली गयी। पास जाकर पाया कि उसका अनुमान बिल्कुल सही है, सहसा मुख से निकला- ‘यहाँ कैसे आना हुआ?’
   ‘बेटे का इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश दिलाने आयी हूँ।’ मिसेज जोशी ने बताया।
   ‘तुम तो एकदम बदल गयी, पहले तो मैंने सोचा कोई और होगी, पर पास आकर देखा तो तुम....।’
   ‘तुम्हारी बताई हुई राह पर ही तो चल रही हूँ.....अब भला कैसे रोनी सूरत बना सकती हूँ।’
   ‘हाँ, तुम मुझे ऐसी ही अच्छी लगती हो। तुमने जीने की नई राह तलाश ली है और आज बेटे को एडमीशन दिलाने आयी हो। यह तुम्हारी मंजिल का अहम् पड़ाव है, जो तुम्हें सदैव अपने भविष्य के बिखराव पर अंकुश लगाने की प्रेरणा देता रहेगा।’ कहकर माधवी मिसेज जोशी को अपने गले लगाकर फिर बोली- ‘मुझे संतोष है कि तुमने मेरी सलाह पर विपत्तियों से संघर्ष करने का साहस जुटा लिया है।’ माधवी ने मजाक भी किया- ‘चलो गुरुदक्षिणा के रूप में मुझे कॉफी पिलाओ।’
   ‘बस कॉफी ही?’ कहते हुए मिसेज जोशी प्रमुदित मन से माधवी का हाथ पकड़कर चल दी।


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