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सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०६, जनवरी २०१२ 

।।कविता अनवरत।।


सामग्री : चंद्रभान भारद्वाज,  श्याम सुन्दर अग्रवाल, महेश सक्सेना, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, खदीज़ा खान , विज्ञान व्रत, डॉ. रुक्म त्रिपाठी, मोह.मुइनुद्दीन ‘अतहर’, पूनम गुप्ता एवं अमित कुमार लाडी की काव्य रचनाएँ।



चंद्रभान भारद्वाज


वरिष्ठ कवि श्री चंद्रभान भारद्वाज जी का हिन्दी ग़ज़ल संग्रह ‘हथेली पर अंगारे’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से उनकी दो हिन्दी ग़ज़लें।




दो ग़ज़लें


1.
ज़िंदगी मचली उमंगों का उठा इक ज्वार था
क्या पता वह वासना थी क्या पता वह प्यार था


याद बस दिन का निकलना और ढलना रात का
कल्पनाओं के महल थे स्वप्न का संसार था


होंठ पर मुस्कान सी थी आँख में पिघली नमी
प्यार की प्रस्तावना थी या कि उपसंहार था


स्वप्न में चारों तरफ थे चाँद तारे चाँदनी
आँख खोली तो लगा उजड़ा हुआ घर-द्वार था


धार में उतरा हुआ था एक पूरा आदमी
रेखांकन : राजेंद्र परदेशी 
सिर पड़ा इस पार पर अब धड़ पड़ा उस पार था


आज कुछ संदर्भ भी आता नहीं अपना वहाँ
जिस कहानी में कभी अपना अहम् किरदर था


बिन पढ़े ही रह गया है डायरी का पृष्ठ वह
बद्ध ‘भारद्वाज’ जिसमें ज़िंदगी का सार था


2.
होंठ पर किलकरियों का नाम हो जैसे
ज़िंदगी फुलवारियों का नाम हो जैसे


तन भिगोया मन भिगोया आत्मा भीगी
प्यार ही पिचकारियों का नाम हो जैसे


आस के अंकुर उगे कुछ कोपलें फूटीं
स्वप्न कोई क्यारियों का नाम हो जैसे


बाँटती फिरती हँसी को और खुशियों को
उम्र जीती पारियों का नाम हो जैसे


टाँक कर रक्खीं हृदय में सब मधुर यादें
मन सजी गुलकारियों का नाम हो जैसे


वो बसे जब से हमारे गाँव में आकर
हर गली गुलजारियों का नाम हो जैसे


ज्ञान ‘भारद्वाज’ बैठा भूलकर उद्धव
ध्यान में वृज-नारियों का नाम हो जैसे



  • 164, श्रीनगर मेन, इन्दौर-452018 (म.प्र.)





श्याम सुन्दर अग्रवाल












रिश्ते


विश्वास का मौसम
ज़रूरत की धरती
रेखांकन : पारस दासोत 
’गर मिलें तो
उग ही जाते हैं रिश्ते।
लंबा हो मौसम
हो ज़रख़ेज़ धरती
तो बढ़ते हैं, फलते हैं
खिलखिलाते हैं रिश्ते।
बदले जो मौसम
बदले जो माटी
तो पौधों की भाँति
मर जाते हैं रिश्ते।
                   

  • बी-।/575, गली नं.-5, प्रताप सिंह नगर, कोट कपूरा (पंजाब)-151204



महेश सक्सेना




गीत की किताब का पृष्ठ हूँ फटा हुआ


गीत की किताब का 
पृष्ठ हूँ फटा हुआ,
हो गया विवर्ण हूँ 
धूल में अटा हुआ।


लुप्त हो गई कहीं 
गीत-काव्य-सर्जना,
हो रही विनष्ट-सी 
उर्व-भाव-व्यंजना,
काव्य-वृक्ष से यहाँ 
मैं पड़ा कटा हुआ।


ठौर-ठौर हो रही 
गीत से प्रवंचना,
देखता निरीह-सा 
गीत की प्रभंजना,
आज व्यर्थ हूँ पड़ा 
लीक से हटा हुआ।


रेखांकन : नरेश उदास 
काव्य-कारवाँ चला 
था कभी अतीत में,
अग्रणी रहा सदा 
गीत की प्रतीति में,
आज काव्य-भिन्न से 
मैं पड़ा घटा हुआ।


आँधियाँ कुचक्र की 
खेल खेलती रहीं,
हो गया शनैः शनैः 
अस्त मैं यहीं कहीं,
एक गीत शब्द ही 
रह गया रटा हुआ।


छन्द आदि आज तो 
हो गए अदृश्य  हैं,
मानने लगे इन्हें 
कल्पना सदृश्य  हैं,
गीतकार दीखता 
लीक पीटता हुआ।

  • 555, नया कोटगाँव, जी.टी. रोड, ग़ाज़ियाबाद (यू.पी.) 



डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी


ग़ज़ल


आँधियों को देख क्या दीपक जलाना छोड़ दें
रात में क्या प्रात के सपने सजाना छोड़ दें


तार टूटे बीन के क्या देखकर रोते रहें
इस हृदय की बीन पर क्या गुनगुनाना छोड़ दें


दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति 
हो अँधेरा भी गहन रुकती नहीं है साधना
आस के तारे हैं वे क्या जगमगाना छोड़ दें


सूखते उपवन को मरुथल क्या बताना है उचित
इसमें नूतन कल्पतरु को क्या उगाना छोड़ दें


भूल अपने लक्ष्य को जो नींद में भटका
‘श्वेता’ अपने मीत को हम क्या जगाना छोड़ दें



  • 24, आँचल कॉलोनी, श्यामगंज, बरेली-243005 (उ.प्र.)



खदीज़ा खान 






दो कविताएं




1. फिज़ा


जब अस्तित्व को/मिल जाता है
एक नया नाम
नाम को एक अर्थ 
और अर्थ को एक लक्ष्य
तो जीवन की 
फिज़ा ही बदल जाती है।


2. चलना है तब तक 


चलना है तब तक/पैरों की थकन टूटकर चूर न कर दे
पैरों तले रौंद कर/अपने ही चालों को धूल न कर दे
कड़ी धूप झुलसा भी दे अगर
कली ढूंढ़कर बिखेर भी दे अगर/उखड़ी सांस जब तक 
छोड़ न दे साथ
आखिरी आस जब तक 
छोड़ न दे हाथ 
चलना है तब तक 
जब तक बचा है/जिस्म की मिटटी में/एक भी बीज 
जो बन सकता है दरख्त 
दृश्य छाया चित्र : डॉ उमेश महादोषी 
एक भी लम्हा/जो बन सकता है वक्त
बची हुई एक किरण 
जो ला सकती है उजाला 
जमी हुई एक बूंद 
जो बन सकती है धारा 
बस एक यकीन है जब तक 
चलना है तब तक 



  • चित्रकोट रोड ,धरमपुरा न01, अशोका पार्क के पास, जगदलपुर-494005, (छत्तीसगढ़)



विज्ञान व्रत








ग़ज़ल




दिखने में यूँ मस्त नज़र है
लेकिन वो इक हमलावर है


आईने में चेहरा भर है
बाक़ी वो अपने भीतर है


रेखांकन : सिद्धेश्वर 
उसके घर जो दुनिया भर है
उस दुनिया में कितना घर है


उसको सबकी ख़ैर ख़बर है
गरदन-गरदन उसका सर है


घर के आगे पूजाघर है
देखो उसको कितना डर है



  • एन-138, सेक्टर-25, नोएडा-201301(उ.प्र.)



डॉ. रुक्म त्रिपाठी








पांच दोहे




1.
कुहू कुहू कर कोकिला, गाती फिरती आज।
राजकीय स्वागत करें, आए श्री ऋतुराज।।
2.
गुंजन करता बाग में, गुन गुन गाता छंद।
अली कली मुख चूमकर, चूस रहा मकरंद।।
3.
पतझड़ बीते ही दिखे, नव पल्लव का दौर।
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति
अतिशय यौवन भार से, झुकी आम की बौर।।
4.
विरह व्यथित है भामिनी, दूर बसे जा कंत।
वाट जोहते थक गई, बीत न जाय बसंत।।
5.
खजुराहो के चित्र अब, ऐसे दिखते संग।
जैसे रति अरु काम पर, चढ़ा बसंती रंग।। 



  • 30, रामकृष्ण समाधि रोड, ब्लाक-एच,फ्लैट-2, कोलकाता-700054 (प.बंगाल)



मोह.मुइनुद्दीन ‘अतहर’






ग़ज़ल


जब भी देखा है तसव्वुर में सरापा अपना
नींद आंखों से गई देख के चेहरा अपना


धूप और छांव कहीं गम का अम्बार कहीं
रंग हर लम्हा बदलती है ये दुनिया अपना


दाग चेहरे पे तिरे कितने उभर आए हैं
आइना सामने है देख ले चेहरा अपना


हम गरीबों के भी हालात कहां बेहतर हैं
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव


हमने सदियों से बहाया है पसीना अपना


तब तो आएगा यकीं तुमको जबां पर मेरी
सामने चीर के रख दूं जो कलेजा अपना


चांदनी रात में सूरज सी तपिश का आलम
ऐसे हालात को हर्गिज न समझना अपना


किसको हालात बताएं कोई गमख्वार नहीं 
सब ही इक दर्द लिए बैठे हैं अपना-अपना


आज के दौर में अपना किसे कहिये ‘अतहर’
सबसे दुश्वार है अपनों को समझना अपना



  • 1308, अज़ीज़गंज, पसियाना, शास्त्री वार्ड, जबलपुर-2 (म.प्र.) 



पूनम गुप्ता










नया वर्ष


साल का पहला दिन
भरता है जोश
पर चार दिन बाद ही
अनगिनत समस्याओं के बीच
उड़ गया होश
जीते रहे इस आशा में
फिर आयेगा- नया वर्ष
लेकर नयी उम्मीद, नया जोश!



  • द्वारा श्री आर. के. गुप्ता, निकट पी.डब्ल्यू.डी., ए.बी.सी.स्कूल के पीछे, डायमंड रोड, रामपुर-244901 (उ.प्र.)



अमित कुमार लाडी










कई बार


कई बार मुझे
अपने आप से ही
डर लगता है,
कई बार
अपना व्यवहार ही
बर्बर लगता है,
कई बार तो
अपना सुन्दर सा घर ही
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति
मुझे खंडहर सा लगता है
और कई बार
अपना होना भी
एक खबर सा लगता है
‘लाडी’ क्या कहे अब
किस्मत का खेल भी
झूठा सा लगता है।

  • मुख्य सम्पादक, आलराउँड मासिक, डोडां स्ट्रीट, फ़रीदकोट-151203 (पंजाब)

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