आपका परिचय

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : जून 2012


 अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : १,   अंक  : 10,  जून  2012  

प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक : डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल  : ०९४१२८४२४६७ )
संपादन परामर्श : डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल : aviramsahityaki@gmail.com 

।।सामग्री।।


रेखांकन : सिद्धेश्वर 

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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत} :  इस अंक में डॉ. श्याम सखा ‘श्याम’,  डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’, जगन्नाथ ‘विश्व’, डॉ. मधुर नज्मी, राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’, कृष्ण स्वरूप शर्मा ‘मैथिलेन्द्र’, डॉ. डी. एम. मिश्र, नरेश हमिलपुरकर, ज्ञानेन्द्र साज, ललित फरक्या ‘पार्थ’, नरेन्द श्रीवास्तव व  मुकेश मणिकांचन की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएं   {कथा प्रवाह} :  इस अंक में  डॉ. सतीश दुबे, डॉ. रामकुमार घोटड़, दिनेश चन्द्र दुबे , ऊषा अग्रवाल, पंकज शर्मा, मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’, किशन लाल शर्मा एवं  बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’ की लघुकथाएं। 

कहानी {कथा कहानी पिछले अंक तक अद्यतन

क्षणिकाएं  {क्षणिकाएँ इस अंक में महावीर रवांल्टा व मीना गुप्ता   की क्षणिकाएं

हाइकु व सम्बंधित विधाएं  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक में डॉ. सुधा गुप्ता, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति,  डॉ. मिथिलेश दीक्षित, डॉ. उर्मिला अग्रवाल, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. अनीता कपूर, कमला निखुर्पा, सुभाष नीरव, डॉ. जेन्नी शबनम, डॉ. भावना कुँअर, मंजू मिश्रा, रचना श्रीवास्तव,  डॉ. हरदीप कौर सन्धु एवं  प्रगीत कुँअर के तांका

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:  इस अंक में मुखराम माकड़ ‘माहिर’ व हरिश्चन्द्र शाक्य  के जनक छंद।  
व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:  इस अंक में ललित नारायण उपाध्याय का व्यंग्यालेख 'हे पटवारी! तुष्टिमान हों, प्रसन्न हों'
स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण पिछले अंक तक अद्यतन
अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :  अविराम साहित्यिकी के इस अंक में वरिष्ठ लघुकथा चिन्तक श्री बलराम अग्रवाल से सुश्री शोभा भारती की बातचीत

किताबें   {किताबें} : पिछले अंक तक अद्यतन
लघु पत्रिकाएं   {लघु पत्रिकाएँ} : पिछले अंक तक अद्यतन

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले अंक तक अद्यतन

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} : पिछले अंक तक अद्यतन

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : अविराम के पचास   और रचनाकारों का परिचय।


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।।मेरा पन्ना/उमेश महादोषी।।
  •         अविराम साहित्यिकी का दिसम्बर 2012 मुद्रित अंक ‘लघुकथा विशेषांक’ होगा, जिसके अतिथि सम्पादक हैं वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चिन्तक-समालोचक आदरणीयडॉ. बलराम अग्रवाल जी। लघुकथाकार मित्र अपनी प्रतिनिधि/श्रेष्ठ लघुकथाएं डॉ. बलराम अग्रवाल जी (मोबाइल न. 09968094431) को उनके पते ‘ एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के सामने, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 पर भेजकर सहयोग करें। रचनाएं उनके ई मेल 2611ableram@gmail.com पर भी कृतिदेव 010 या यूनीकोड फोन्ट में वर्ड की फाइल बनाकर भेजी जा सकती हैं। कृपया स्केन रूप में रचनाएं न भेजें।
  •     अविराम के नियमित स्तम्भों के लिए क्षणिकाएं एवं जनक छंद की स्तरीय रचनाएं बहुत कम मिल पा रही हैं। क्षणिका पर हमारी एक और योजना भी विचाराघीन है। रचनाकारों से अपील है कि स्तरीय क्षणिकाएं अधिकाधिक संख्या में भेजकर सहयोग करें।
  •     शीघ्र ही अविराम ब्लाग पर ‘प्रवासी भारतीय रचनाकारों’ के सृजन का एक अलग खण्ड आरम्भ करना चाहते हैं। अतः प्रवासी रचनाकारों से उनकी प्रतिनिधि रचनाएं ई मेल से सादर आमन्त्रित हैं। कृपया रचनाओं के साथ अपना फोटो, पता व साहित्यिक उपलब्धियों एवं योगदान सहित अद्यतन परिचय भी भेजें। यदि भारत में आपका कोई स्थाई पता है, तो सूचित करने पर अविराम के मुद्रित अंक की प्रति उस पते पर भेजी जा सकेगी।
  •     कई मित्रों की पुस्तकें समीक्षार्थ प्राप्त हुई हैं, हो रही हैं। जैसे-जैसे सम्भव हो पा रहा है, हम उनकी समीक्षा दे भी रहे हैं। चूंकि हमारे स्तर पर समीक्षाएं लिखने/लिखवाने में बिलम्ब हो सकता है, अतः यदि लेखक बन्धु पुस्तकों के साथ अपने स्तर पर किन्हीं  समीक्षक से समीक्षा लिखवाकर भिजवा सकते हैं। समीक्षाएं अविराम में स्थान की उपलब्धता के दृष्टिगत सारगर्भित/संक्षिप्त हों, ऐसी अपेक्षा रहती है।
  •     हमारे बार-बार अनुरोध के बावजूद कुछ मित्र अविराम साहित्यिकी का शुल्क ‘अविराम साहित्यिकी’ के नाम भेजने की बजाय मेरे या प्रधान सम्पादिका के पक्ष में इस तरह से चैक बनाकर भेज देते हैं, कि उन चैकों का भुगतान हमारे लिए प्राप्त करना सम्भव नहीं होता है। इस तरह के चैकों को वापस करना भी हमारे लिए बेहद खर्चीला होता है, अतः हम ऐसे चैक वापस कर पाने में असमर्थ हैं।  उन्हें अपने स्तर पर नष्ट कर देने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। 
  •     यदि वास्तव में आप इस लघु पत्रिका की आर्थिक सहायता करना चाहते हैं तो किसी भी माध्यम से राशि केवल ‘अविराम साहित्यिकी’ के ही पक्ष में एफ-488/2, गली संख्या-11, राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार, उत्तराखंड के पते पर भेजें और जहां तक सम्भव हो एकमुश्त रु.750/- की राशि भेजकर आजीवन सदस्यता लेने को प्राथमिकता दें। आपकी आजीवन सदस्यता से प्राप्त राशि पत्रिका के दीर्घकालीन प्रकाशन एवं भविष्य में पृष्ठ संख्या बढ़ाने की दृष्टि से एक स्थाई निधि की स्थापना हेतु निवेश की जायेगी। कम से कम अगले दो-तीन वर्ष तक इस निधि से कोई भी राशि पत्रिका के प्रकाशन-व्यय सहित किसी भी मद पर व्यय न करने का प्रयास किया जायेगा।







अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 10,  जून  2012  



।।कविता अनवरत।।

सामग्री :   डॉ. श्याम सखा ‘श्याम’,  डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’, जगन्नाथ ‘विश्व’, डॉ. मधुर नज्मी, राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’, कृष्ण स्वरूप शर्मा ‘मैथिलेन्द्र’, डॉ. डी. एम. मिश्र, नरेश हमिलपुरकर, ज्ञानेन्द्र साज, ललित फरक्या ‘पार्थ’, नरेन्द श्रीवास्तव व  मुकेश मणिकांचन की काव्य रचनाएँ।




डॉ. श्याम सखा ‘श्याम’






ग़ज़ल


गर खुदा खुद से जुदाई दे
कोई क्यों अपना दिखाई दे


ख्वाब बेगाने न दे मौला
नींद तू बेशक पराई दे
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 


काश मिल जाये कोई अपना
रंजो-गम से जो रिहाई दे


जब न काम आई दुआ ही तो
कोई फिर क्योंकर दवाई दे


तू न हातिम या फरिश्ता है
कोई क्यों तुझको भलाई दे


डूबने को हो सफीना जब
क्यों किनारा तब दिखाई दे


आँख को बीनाई दे ऐसी
हर तरफ बस तू दिखाई दे


साथ मेरे तू अकेला हो
अपनी ही बस आशनाई दे



  • निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, पी-16, सेक्टर-14, पंचकूला-134113 (हरियाणा)





डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’






क्रोध नपुंसक


(26.11.2008के मुम्बई आतंकी हमले के सन्दर्भ में)


बन्दूकों से लड़ने निकला
क्रोध नपुंसक


अब चौके में 
आ पहुँची
टोलियां वृकों की
मानसरोवर में 
उतरी हुकार बकों की
फटा जाल
टूटी नौका 
घायल पतवारें
सागर का सन्तरण
और झंझायें ध्वंसक


अर्थहीन
रेखांकन : महावीर रंवाल्टा 
शब्दों की तोपें
लिए बिजूके
शब्दबेध चौहानी धनुके
चूके-चूके
शान्ति-कपोल
बन्द आंख से
करें प्रतीक्षा
रक्त पियें मार्जार
उधर
सतर्क प्रतिहिंसक


अन्तहीन सिलसिला
कहानी
लिए ‘तथा’ है
नरबलियों
मुर्दा जिस्मों की
यही कथा है
‘निसिचर हीन करहुं महि’
का प्रण
कहीं नहीं है
मांग रहा मंगलाचरण 
अब जीने का हक

  • 86, तिलक नगर, बाईपास रोड, फ़िरोज़ाबाद-283203 (उ.प्र.)



जगन्नाथ ‘विश्व’






साजन घर आए


अनुराग अनहदी लगन प्राण गीत गाए।
मन वीणा के झंकृत स्वर साजन घर आए।


स्वर कूल को अचानक
लहरें जवान छू गई,
मुक्त नेह की तरंग
अनछुई उड़ान छू गई,
सौंधी-सौंधी गंध उड़ी महकी सब दिशाएं।
मन वीणा के झंकृत स्वर साजन घर आए।


रेखांकन : नरेश उदास 
मृदु स्पर्शमयी किरणें
सूनापन चीर गई,
निर्धारित नीड़ छोड़
परदेसन पीर गई,
उर अभिलाषा नाच उठी, बिंदिया इतराए।
मन वीणा के झंकृत स्वर साजन घर आए।


स्मृति के सागर में
मछली ज्यूं तैर गई,
कंपन के पंख उड़े
शीतलता फैल गई,
चली दोपहरी संध्या संग लाँघती निशाएं।
मन वीणा के झंकृत स्वर साजन घर आए।



  • मनोबल, 25, एम.आई.जी., हनुमान नगर, नागदा जं.-456335 (म.प्र.)





डॉ. मधुर नज्मी






ग़ज़ल


काँच का देखकर हौसला-
वक्त कहता है पत्थर उठा


आँखों-आँखों में सजदा हुआ-
आस्ताने का दर बंद था


ग्वाल-बालों की सुनता नहीं
‘कान्हा’ है ‘गोपियों’ पर फिदा


जब बलन्दी क़रीब आ गयी-
पस्त होने लगा हौसला


रेखांकन : सिद्धेश्वर 
ये अलामत तबाही की है-
मेरा साया है क़द से बड़ा


शाइरी भी इबादत हुई-
मैं जुड़ा तो जुड़ा रह गया


आज के साथ कल देखिये-
मुड़ के माज़ी को क्या देखना


उसकी रहमत का साया हूँ मैं
ऐसा महसूस अक्सर किया



  • काव्यमुखी साहित्य-अकादमी, आदर्श नगर, गोहना मुहम्मदाबाद, जिला-मऊ-276403 (उ.प्र.)





राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’






समय के हस्ताक्षर


फूक अपना घर स्वयं जो
वेदनाओं में जले हैं,
ताज पहने शूल का
नव वाटिका में जो पले हैं।
समय के हस्ताक्षर 
वे लोग हैं।


ज्ञान की तलवार पर चल
कार्य जो अभिनव किये हैं,
जान का जोखिम उठाकर
जिन्दगी हर पल जिए हैं।
समय के स्वर्णाक्षर
वे लोग हैं।


लीक से हटकर सदा जो
नव सृजित पथ्र से गये हैं,
भाव की अभिव्यक्ति के स्वर
काव्य में जिनके नये हैं।
समय के नव भास्कर
वे लोग हैं।

  • ग्राम-फत्तेपुर, पोस्ट-बेनीकामा, जिला-रायबरेली-229402 (उ.प्र.)



कृष्ण स्वरूप शर्मा ‘मैथिलेन्द्र’




दोहे


1. 
ऐसा मौसम आ गया, उपजे कई खजूर।
छाँव किसी को दें नहीं, बढ़ते गये हुजूर।।
2.
आये हैं किस देश से, जाना है किस देश।
बिना पते का पत्र में, अनजाना परिवेश।।
3.
अन्ना साबित कर दिये, जीवन कर्म प्रधान।
मंदिर से बाहर निकल, कर्मों की पहचान।।



  • गीतांजलि-भवन, म.आ.ब. 8, शिवाजीनगर, उपनिवेशिका, नर्मदापुरम्-461001 (म.प्र.)



डॉ. डी. एम. मिश्र




ग़ज़ल




दर्द  से  मुक्ति  कभी  तू  जरूर  पायेगा
सफ़र का क्या है साथ वक्त के कट जायेगा।


ज़िंदगी पाँव पर नहीं चलती देख लिया
पग बढ़े या न बढ़े पर मुकाम आयेगा।


कई हसीन ख़्वाब टूट गये अच्छा है
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
अब न पलकों पे तू भारी वज़न उठायेगा।


कहीं शिकवे, कहीं मलाल, कहीं हैं फ़िकरे
मुफ्त में सिर्फ़ यही तीन चीज़ पायेगा।


न तो पाँवों को तू ठोकर से बचा पाया है
न तो दामन को तू धब्बों से बचा पायेगा।

  • 604, सिविल लाइन, निकट राणा प्रताप पी.जी. कालेज, सुल्तानपुर-228001 (उ.प्र.)







नरेश हमिलपुरकर




एकता अखण्डता रहे


नेता अधिकारी हर आदमी ईमानदार हो
भ्रष्टाचार अत्याचार मिटानेवाली सरकार हो


चैन-ओ-अमन, भाईचारे का हर सू नारा हो
सबके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार हो


फिर वहीं गौरव, वही वैभव, वही रामराज हो
एकता अखण्डता रहे, प्यार की सदा बहार हो


दुनिया भर में भारत का जय-जयकार हो
सबको सम्मान-सुविधा और अधिकार हो


सपने सबके जुदा-जुदा, पर हैं तो सारे अपने
इच्छानुसार जीने का सबको अधिकार हो


सारे भेद मिटाकर एक करने, नेक करने
त्याग बलिदान देने बच्चा-बच्चा तैयार हो


सदाचार संस्कार सही सोच-विचार हो
स्वर्ग-सा सबका घर-परिवार, सारा संसार हो 



  • चिटगुप्पा-585412, बीदर (कर्नाटक)



ज्ञानेन्द्र साज






हवा के लिए


कुछ वफ़ा भी चले बेवफ़ा के लिए
बात कुछ तो उठे मुद्दआ के लिए


हाथ उठाके दिखावा है किसके लिए
सिर्फ दिल को टटोलो खुदा के लिए


क्या जरूरी है चेहरा ढँका जाए ही
सिर्फ नज़रें झुका दो हवा के लिए


रेखांकन : सिद्धेश्वर 
दिल में जज्बा भी हो प्यार का दोस्तो
ये जरूरी बहुत है वफ़ा के लिए


कब तलक बंद कमरों में जियेंगे हम
खिड़कियां खोल दो अब हवा के लिए


तुम किसी और के ख्वाब में खोए रहो
‘साज’ ऐसा न कहो खुदा के लिए

  • 17/212, जयगंज, अलीगढ़-202001 (उ.प्र.)



ललित फरक्या ‘पार्थ’




पूरक


घर के बाहर खड़े वृक्ष में
जब कोई कीलें ठोंकता है
तो मैं चुभन महसूस करता हूँ,
जब कोई उसे हिलाता है
तो मैं कम्पन महसूस करता हूँ,
जब कोई उससे रगड़ता है
तो मैं छिलन महसूस करता हूँ,
जब कोई उसे काटता है
तो मैं कटन महसूस करता हूँ,
जब कोई उसे जलाता है
तो मैं जलन महसूस करता हूँ
जब कोई उसे पूजता है
तो मैं अपनापन महसूस करता हूँ
क्योंकि मेरी आत्मा भी 
उसमें निवास करती है
हम एक-दूसरे के पूरक हैं।



  • ’श्रद्धाश्रय’, 14, गोविन्द नगर, दशपुर, मन्दसौर-458001 (म.प्र.)




नरेन्द श्रीवास्तव




आखर-आखर की


आओ बात करें कुछ घर की, 
कुछ बाहर की,
और जिन्दगी रहे गवाही,
आखर-आखर की।


यह जीवन तो दुख-सुख का-
बहता सा झरना है,
साँसों के झूले पर चढ़ना,
और उतरना है,
कौन पा सका आज तलक
थाह समन्दर की।


प्यासी हिरनी लगे जिन्दगी,
भाग रही पल-छिन,
और शिकारी सा यह पतझर,
ये गर्मी के दिन,
मैत्री होती है अटूट,
पानी और पाथर की।


कोई कमी नहीं है पर,
हर आँख बहुत रोयी,
हमने कुछ खोया है तो-
बस मानवता खोयी,
नित्य सवेरा करे भूमिका-
जैसे हाकर की।


अर्थ शब्द से बिछड़ न जायें,
छन्द हों लय से दूर,
पिंगल साधु-सन्त हो जायें,
रस न मिले भरपूर,
अनुभूतियाँ हमारी थाती,
भीतर-बाहर की।


कविता में ही तो जीवन के,
अगणित रूप दिखे हैं,
यह ऐसी चिट्ठी है जिस पर
सबके पते लिखे हैं
ग़म और खुशी ज़िन्दगी की,
कविता ने उजागर की।

  •  ब्लाक कॉलोनी, वार्ड -18, जाँजगीर, छत्तीसगढ़






मुकेश मणिकांचन


भाग्यविधाता


नल से पानी आता है
नल और जल का अटूट नाता है
कभी यह संबंध टूट जाता है 
तो बेचारा नल पब्लिक के हाथों
मार खाता है।
इससे क्या सिद्ध होता है ?
कि समाज में दो वर्ग हैं-
एक लेने वाला
एक देने वाला
या यूं कहें,
एक पिटने वाला
दूसरा पीटने वाला
अर्थात
यहां देने वाला मार खाता है, और
लेने वाला उसका भाग्यविधाता है। 



  • गली रामचरण, सिरसागंज, जिला फिरोजाबाद (उ.प्र.)


अविराम विस्तारित



अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 10,  जून  2012  

।।कथा प्रवाह।।  

सामग्री :  डॉ. सतीश दुबे, डॉ. रामकुमार घोटड़, दिनेश चन्द्र दुबे , ऊषा अग्रवाल, पंकज शर्मा, मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’, किशन लाल शर्मा एवं  बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’
की लघुकथाएं। 





डॉ. सतीश दुबे






सुहाग के निशान


    गाँव से आई दादी झाड़ू-पोंछा लगा रही प्रेमा के हाथ-पैरों की ओर गौर से देखते रहने के बाद कुछ जानकारी प्राप्त करने के लिए अंदर गई तथा लौटकर उससे सवाल किया-
    ‘‘प्रेमा, तुम्हारे पैरों में न तो बिछुड़ी, पायजेब है न हाथों में चूड़ियाँ। ये सब सधवा के निशान तेने क्यों छोड़ रखे हैं। घरों में कामकाज करते-करते आजकल की नई बहुओं को देखकर तू भी इसे फैशन समझती है क्या...?’’
    दादी के कटाक्ष को संयम से निगल कर प्रेमा ने पोंछा बाल्टी में निचोड़ा तथा खड़ी होकर प्रत्युत्तर देते हुए बोली-
    ‘‘दादीजी, बर्तन-कपड़े-पोंछा में काम आने वाले तेज पावडर का घोल दिन-रात काम करने के कारण, इनमें घुस जाता है और ऐसी जलन और खुजली करता है कि मैं तुमको केह नहीं सकती। अब तुमज बताओ, घर में बैठी खसम की दी चार छोरा-छोरी निशानी का पेट भरने के लिए ये काम करूँ कि उसके सोहाग का ढोल बजाने के लिए ये खोटे-ठीकरे पहनूं’’ कर्कश स्वरों में कैफियत देते हुए प्रेमा, दादी को घूरते हुए अंदर चली गई।
    उसके इस खुद्दारी-व्यवहार से किसी कीड़े के गहरे दंश सी पीड़ा महसूस करते हुए प्रेमा की पीठ को आँखें चौड़ी कर दादी ने देखा तथा धीमें से फुसफुसाई- ये छोटे लोग होते ही ऐसे हैं, कहो सीधा और समझे उल्टा...।


अगला पड़ाव


    अपने बच्चों की अब तक की जीवन-यात्रा से सम्बन्धित विभिन्न अनुभवों, प्रसंगों, उम्रानुकूल चर्चा-चुहुल, बलात खोखले हंसी-ठट्ठों के बावजूद दिल-दिमांग के खालीपन की यथावत ऊब से निजात पाने के लिए कुर्सियाँ लगाकर दोनों आँगन में बैठ गए।
    इधर-उधर निगाह घुमाते हुए अचानक बापू की निगाह बाउन्ड्री-वॉल के समतल भाग पर बीच में पड़े दानों को एक-दूसरे की चोंच में खिलाते हुए चिड़ा-चिड़िया की गतिविधियों पर जाकर ठहर गई। उन्होंने बा को हरकत में लाने के लिए इशारा करते हुए पूछा- ‘‘इन परिंदों को पहचाना, नहीं ना...? मैं बताता हूँ, यह वही युगल-जोड़ी है, जिन्होंने दरवाजे के साइड में लगे वुडन-बोर्ड की खाली जगह पर तिनका-तिनका चुनकर घोंसला बनाने से चूजों के पंखों में फुर्र होने की शक्ति आने तक की प्रक्रिया को अंजाम दिया था। ये वे ही तो हैं जो आज भी यदाकदा दरवाजे की चौखट पर मौन बैठे रहते हैं और तुम कमेन्ट्स करती हुई कहती हो- ‘‘देखो बेचारों की सूनी आँखें बच्चों का इंतजार कर रही हैं....।’’
    ‘‘आप भी ना, कुछ तो भी बातें करते हो। अच्छा ये बताओ, आपने इन्हें कैसे पहचाना?’’
    ‘‘अरे, जो हमारे आसपास प्रायः दिखते हैं, उन्हें कौन नहीं पहचान लेगा? वैसे भी परिन्दों के संसार का यह नियम है कि वे बसेरा बनाने के लिए चुना गया वृक्ष और घर, विशेष परिस्थितियों तक छोड़ते नहीं हैं...।’’
    बापू ने महसूस किया बा का ध्यान उनकी बातों की ओर कम, चिड़ा-चिड़िया की गतिविधियों पर अधिक केन्द्रित था। अपने ध्यान से उपजी सोच को बापू के साथ बाँटते हुए वह बोली, ‘‘लगता है अपने फर्ज से निपटकर इन्होंने अपनी नई जिन्दगी शुरू कर दी है।’’
    बापू ने महसूस किया यह कहते हुए बा के चेहरे पर उत्साह और प्रशन्नता के भाव तरल बदलियों की तरह घुमड़ रहे हैं।
{डॉक्टर दुबे साहब की नवीनतम एव चर्चित पुस्तक ‘बूँद से समुद्र तक’ से साभार}

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)



डॉ. रामकुमार घोटड़






{लघुकथा के चर्चित एवं वरिष्ठ साहित्कार डॉ. रामकुमार घोटड़ जी का लघुकथा संगह ‘संसारनामा’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}


दीप-दान


   दुर्घटना के समय मेरे सिर पर चोट लगने से मैं बेहोश हो गया था। होश आने पर पता चला कि मेरी आँखों की रोशनी चली गई।
   आज मेरी आँखों की पट्टी खोली जानी है। डॉक्टरों ने अपने हुनर से मेरी नेत्र-ज्योति लौटाने की कोशिश की है।
   पट्टी हटते ही सर्वप्रथम मैंने उस डॉक्टर के दर्शन किये, जिन्होंने मेरी आँखों का ऑपरेशन किया है। उसमें मुझे भगवान का रूप दिखाई दिया और श्रद्धावत् मेरे हाथ स्वतः ही उनके सामने करबद्ध हो गये।
   ‘‘बधाई हो श्रीमान्....। आपका ऑपरेशन सफल रहा है और मैनेजर साहब, यह उस शख्स का चित्र व जीवन परिचय....’’, डॉक्टर साहब ने एक कागज मेरे सामने रखते हुए कहा... ‘‘ जिन्होंने मृत्युपूर्व ही अपनी आँखें दान कर दी थी, वही आँखें आपके ऐसे सैट हो गई हैं कि जैसे आपकी स्वयं की आँखें हों। ऑपरेशन में हमें किसी भी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा और न ही कोई ज्यादा मशक्कत...।’’
   मैंने कागज को हाथ में लेकर देखा, ‘‘यह...?’’ मैं उस फोटो को देखकर अवाक् रह गया। यह... यह तो मेरे चाचाजी का फोटो है.... मेरे माँ-बाप बचपन में ही गुजर गये थे। चाचाजी के कोई औलाद नहीं हुई। मुझे ही अपनी संतान की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया और पढ़ा-लिखाकर इस बैंक मैनेजर पद के योग्य बनाया। और कुछ वर्ष पूर्व हृदय-गति रुक जाने से चाचीजी कर देहान्त हो गया और चाचाजी एक अकेले, एकान्त में रहने लगे। उस एकांकी जीवन ने ही शायद उन्हें शराब का आदी बना दिया। शराब के सेवन ने उन्हें इतना अव्यवहारिक बना दिया कि मेरे बच्चे उन्हें देखकर सहमे-सहमे से रहते। मेरी बीवी-बच्चों पर उनके चाल-चलन से बुरा असर न पड़े, इसी कारण मैंने एक दिन चाचाजी पर गुस्सा कर डाला और मेरे मुँह से उनके लिए असंस्कारित शब्द निकल गये। वे प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोले। शायद उन्होंने अपना अपमान समझा और उसी समय घर छोड़कर चले गये, फिर लौटकर वापिस नहीं आये।
   और फोटो के सामने श्रद्धावत स्वतः ही मेरा शीश झुक गया।


पेशेवर व्यस्तता


    एक चिकित्सक होने के नाते मैं अपने पेशे में इतना व्यस्त हो जाता हूँ कि पारिवारिक गतिविधियों से कट-सा जाता हूँ। दिन भर क्लीनिक में मरीजों का स्वास्थय परीक्षण एवं परामर्श करते-करते जब मैं घर लौटता हूँ तब बुरी तरह थक चुका होता हूँ, तब मैं आरामपरस्ती, फुर्सत के क्षण व एकान्त पसन्द करता हूँ। इस दौरान परिवार के सदस्य जब अपनी स्वास्थ्य संबधित परेशानी मेरे सामने रखते हैं तब मुझमें चिड़चिड़ापन व झुँझलाहट आ जाता है। तब मैं उन्हें हल्की-फुल्की दवा व परामर्श देकर औपचारिकता पूरी कर लिया करता हूँ।
    एक दिन जब मैं अपनी क्लीनिक में बीमारों से घिरा बैठा था तब बुर्का पहने एक औरत पास आकर स्टूल पर बैठ गई और कहने लगी, ‘‘डाक्टर साहब! पन्द्रह वर्ष पहले जब मेरे दूसरी संतान हुई तभी से नाभी से दाँयीं ओर दर्द रहता है। कभी-कभी तो तेज चीस भरा दर्द होता है और जब नहीं होता तब कई दिनों तक स्वस्थ रहती हूँ.....।’’
    ‘‘इतने दिनों से परेशान हो, इलाज लेना चाहिए था, क्या करते हैं आपके पति.....?’’
    ‘‘वे अपने पेशे में व्यस्त रहते हैं.....।’’
    ‘‘इतनी भी क्या व्यस्तता कि परिवार के सदस्यों का भी ध्यान न रख सकें....।’’
    ‘‘यह लो पचास रुपये आपकी फीस, और आवश्यकतानुसार जाँच करवाकर मेरा इलाज करें....।’’
    मैंने पचास रुपये लेकर टेबिल की ड्रावर में रख लिये और जीभ, गला और आँख देखने के उद्देश्य से मैंने उसे मुँह पर से पर्दा हटाने को कहा।
    उसने ज्यों ही पर्दा हटाया, मैं अवाक् रह गया। उसे देखकर और बनावटी क्रोध में कहा....‘‘तुम्हें यहाँ आने की क्यों जरूरत पड़ी और वो भी इस भेष में, मुझे घर पर ही सब कुछ बता दिया होता....।’’
    ‘‘घर पर भी आपको फुर्सत कहाँ होती है, सोचा क्लीनिक पर शायद अच्छी तरह चैकअप कर लेंगे...।’’
    ‘‘घर चलो, मैं शर्मिन्दा हूँ, अब आपका जरूरती जाँच करवाकर निश्चित तौर से इलाज करूँगा....।’’
    मैंने अपने हाथ से उनके मुँह पर पर्दा डाल दिया ताकि बीमार व कोई परिचित पहचान न ले कि यह मेरी बीवी है।

  • सादुलपुर (राजगढ़), जिला-चूरू-331023 (राजस्थान)   





दिनेश चन्द्र दुबे 






राष्ट्रसेवा


    लम्बे समय तक शिक्षा दान द्वारा राष्ट्रसेवा करते-करते आखिर वे रिटायर हुये। उन्होंने फैसला किया कि शरीर में जब तक अन्तिम साँस रहेगी तब तक वे निःशुल्क शिक्षा दान करेंगे।
   जल्दी ही उनकी ख्याति इस शहर के कौने-कौने तक फैलकर आखिर मुझ तक आ ही गई। मैंने भी उन्हें अपने बच्चों को आखिर उनके शिष्यों में शामिल करने के लिए आमन्त्रित किया। वे तुरन्त हाजिर होकर गद्-गद् कण्ठ से बोले-
   ‘धन्य भाग हमारे। आपके बच्चों को पढ़ाने की लालसा वर्षों से थी। बच्चे ही ऐसे हैं कि .....’।
   पूरे साल वे तन्मयता से बच्चों को पढ़ाते रहे। उन्होंने कई बार शुल्क भेजने पर साफ इनकार कर दिया तो मेरे मन में श्रद्धा का भाव जन्मना स्वाभाविक था। वे मेरे लिए अब बच्चों के मात्र अध्यापक से बढ़कर बुजुर्ग बन गये थे। एक दिन बच्चों को पढ़ाकर जाने वाले थे कि मुझे देखकर रुक गये।
  ‘कहिये पंडित जी, कोई दुःख तकलीफ हो तो निसंकोच हम से कह सकते हैं। अपना ही घर समझें।
   और तब वे आखिर संकोच त्यागने पर बाध्य हो गये थे- ‘क्षमा करें श्रीमान्। 
बात यह है कि आपके यहाँ आता हूँ, यह तो सभी देखते ही हैं। मैंने उन लोगों से कहा भी। लेकिन.....। यूँ अब आदमी तो हम और आप भी हैं ही। फिर पेट भरने के लिए जरूरी है कि.....।’ फिर मेरे कान के पास फुसफुसाते हुए वे बोले, ‘इस शहर में आपने मेरी प्रतिष्ठा तो देख ही ली होगी? आप कहें तो तय कर लूँ। पार्टी तगड़ी है। विश्वास की है। जितना आप कहेंगे, उतनी रकम.... और बात भी केवल आप और मुझ तक भर सीमित रहेगी। आपके यहाँ ट्यूशन शुरू करते वक्त मैंने सोचा भी यही था कि आप जैसे ईमानदार आदमी से पैसे लेने के बदले तो कुछ मुकदमों के फैसलों में आपकी मदद मांग लूँगा। बस.....’।



  • 68, विनय नगर-1, ग्वालियर-12 (म.प्र.)







ऊषा अग्रवाल






शहर का बच्चा


  गाँव में रोज गाय और कुत्ते को रोटी देने की आदत थी। बच्चों की आगे की पढ़ाई के लिए गाँव छोड़कर शहर आना पड़ा। शहर में भी घर एकदम पॉश इलाके में, जहाँ ईंट-सीमेन्द से बने बड़े घर, धुआँ उड़ाती मोटर-बाईक और कारें ही नज़र आतीं। कुत्ता तो रात में कभी दिख जाता पर गाय को रोटी खिलाने को मैं तरस जाती।
    सुबह-सुबह बालकनी में बैठी अखबार के पन्ने पलट रही थी कि घर के सामने दो गाय बैठी दिखाई दी। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने अपनी किशोर बेटी को आवाज लगाई और कहा कि नीचे जाकर गाय को रोटी खिला आए।
    सामने की इमारत में एक बच्चा स्कूल के लिए ऑटो का इंतजार कर रहा था। उसकी मम्मी ने भी गाय को देख झट अंदर जा दो-तीन राटियाँ न्यूज-पेपर पर रख उसे गाय को खिला आने को कहा। उस बच्चे ने न्यूज-पेपर सहित रोटी गाय के सामने कुछ दूरी पर डरते-डरते ले जाकर रख दी और अपनी बालकनी में जाकर खड़ा हो गया।
    कुछ देर बाद मेरी बेटी अपने हाथ से सस्नेह गाय को रोटी खिलाने लगी, जिसे देखकर वो बच्चा आश्चर्य से अपने मुँह पर हाथ रखकर जोर से चिल्लाकर कहने लगा, ‘‘मम्मी देखो, दीदी गाय को कैसे अपने हाथ से रोटी खिला रही है!’’ 
    मैं खुशी और रोमांच स,े आश्चर्यचकित हुए उस बच्चे को तो कभी आराम से रोटी खाती गाय और उसे दुलारती अपनी बेटी को देखती अनायास कह बैठी- ‘‘शहर का बच्चा!’’

  • मृणमयी अपार्टमेन्ट, 108 बी/1, खरे टाउन, धरमपेठ, नागपुर-440010 (महा.)



पंकज शर्मा






अंतर


सरकारी वर्कशाप में गाड़ियों की मरम्मत का काम नित्य की तरह चल रहा था। एक अधेड़ उम्र के मिस्त्री (टैक्नीशियन) ने अपने हैल्पर से, जिसे भर्ती हुए साल भर ही हुआ था, कुछ सामान स्टोर से लाने को कहा। ‘‘अभी आया जनाब‘‘ कहकर वह लड़का वहाँ से चला गया। जब कुछ देर तक वह वापिस नहीं आया और मिस्त्री को अपना हाथ काम पर से रोकना पड़ा तो उसे थोड़ी खीज सी उठी।
    मिस्त्री ने अपने हमउम्र साथी, जो पास ही काम कर रहा था, को बोला, ‘‘देख ले भाई सतविन्दर, कब का गया अब तक नहीं आया। जरा सा सामान उठा कर लाना था और इतनी देर लगा दी है। इनकी उम्र में हम थे तो दौड़-दौड़ कर और चुस्ती-फुर्ती से काम किया करते थे। और इन्हें देखो, अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा इनका? पता नहीं नौकरी भी पूरी कर पाएंगे या नहीं?’’
    तभी वह हैल्पर लड़का सामान लेकर आ गया। उसने अपने मिस्त्री की बात सुन ली थी, इसलिए हंसकर बोला, ‘‘मिस्त्री जी, आपके समय में जमाना अच्छा और सस्ता था। नौकरी आसानी से मिल जाती थी और खाने-पीने को भी खूब खुल्ला और खालिस मिलता था। इसलिए इतनी दौड़-धूप और चुस्ती-फुर्ती से काम कर लेते थे। आज के हालात तो आप देख ही रहे हो, क्या हाल हो रहा है- न तो खाने-पीने की चीजें शुद्ध मिलती हैं और न ही सस्ती। ऐसे में शरीर में जान कहां से आएगी? और रहा सवाल दौड़-धूप और चुस्ती-फुर्ती का तो वह तो हमारे घुटनों की ग्रीस पहले ही नौकरी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते और उसे पाने की जद्दोजहद में खत्म हो चुकी है तो आएगी कहां से? अब रहा नौकरी करने का सवाल तो जब तक शरीर चलेगा, चलाएंगे वर्ना तो राम-नाम सत्य हो जाएंगे।’’ और वह खिलखिला कर हंस दिया।
    उसकी हंसी में तीखा व्यंग्य और सच्चाई थी, जिसे सुनकर मिस्त्री के मुंह से स्वतः ही निकल गया, ‘‘हां काके, तू ठीक कहता है।’’

  •  प्लाट नं. 19, सैनिक विहार, सामने विकास पब्लिक स्कूल, जण्डली, अम्बाला शहर (हरियाणा)



मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’




{अतहर जी का लघुकथा संग्रह ‘फूल और काँटे इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है उनक इस संग्रह से दो लघुकथाएँ।}


बहू का व्यवहार


   सास कमरे का पोंछा लगा रही थी और पास ही सोफे पर बैठी बहू, निश्चिंत स्वेटर बुन रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर में वह सासु जी को हिदायत भी करती जा रही थी, ‘‘सासु जी! जरा जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ, अभी बहुत काम बाकी है।’’
   तभी उनका चौदह वर्षीय पुत्र कमरे के अन्दर आते हुए मां से बोला, ‘‘मेरे कपड़ों में प्रेस हो गया? दस बज रहे हैं, मुझे स्कूल जाना है।’’
   स्वेटर की तीलियों को चलाते हुए मां ने बुरा सा मुँह बनाकर कहा, ‘‘अपनी दादी से पूछो। सुबह से उठकर न जाने क्या कर रही हैं। अभी तो कमरों में पोंछा ही नहीं लग पाया, प्रेस कब होगा। दोनों समय खाने को मिल रहा है पेट भर कर, तो काम की किसे परवाह है। देखो न हाथ ऐसे चल रहे हैं जैसे महीनों से बीमार हों।
    बेटे को दादी मां के प्रति मां का व्यवहार ठीक नहीं लगा। वह कुछ क्षण शांत खड़ा रहा, फिर बोला, ‘‘मां! मेरी शादी के बाद अगर मेरी पत्नी आपके साथ यही बर्ताव करे तो मुझसे शिकायत मत करना।’’ 


सबसे बड़ा भिखारी


   सर्वेक्षक ने एक भिखारी से पूछा, ‘‘भारत में सबसे बड़ा भिखारी कौन है?’’
   भिखारी कुछ देर मौन रहा, फिर सर खुजाते हुउ बोला, ‘‘साब! सबसे बड़ा भिखारी पुलिस वाला है।’’
   सर्वेक्षक - ‘‘वह कैसे? पुलिस तो जनता की सेवक है।’’
   भिखारी - ‘‘सर! आप तो पढ़े-लिखे हैं। मैं भी पढ़ा-लिखा हूं। ग्रेजुएट हूं। मुझे भिखारी इन पुलिस वालों ने ही बनाया है। ये पुलिस वाले सबसे बड़े भिखारी हैं क्योंकि ये भिखारियों से भी भीख मांगने के पैसे वसूल करते हैं।’’
   सर्वेक्षक के चेहरे के भाव बदलने लगे। आंखें लाल सुर्ख अंगारे के समान दहकने लगीं। वह जोर से दहाड़ा- ‘‘चुप.... पुलिस को बदनाम करता है। मैं सिविल ड्रेस में हूं तो तू कुछ भी बकबास करेगा और मैं मान लूंगा। तू यहां पर एक घंटे से खड़ा भिक्षा मांग रहा है, मैंने तुझसे कुछ मांगा क्या? नहीं न? चल निकाल पांच रुपये।’’
    दोनों एक साथ बड़बड़ाए, ‘‘साला, भिखारी कहीं का।’’

  • 1308, अज़ीज़गंज, पसियाना, शास्त्री वार्ड, जबलपुर-2 (म.प्र.)



किशन लाल शर्मा










रोटी


     दो कुत्तों की नजर एक रोटी पर पड़ी। दोनों रोटी की तरफ लपके। वे एक-दूसरे को रोटी लेने देना नहीं चाहते थे। इसलिए झगड़ने लगे।
   वे झगड़ रहे थे, तभी एक बंदर वहाँ आ गया। बंदर को देखते ही दोनों कुत्तों को रोटी की बंदरबांट की कहानी याद आ गई। कुत्तों ने सोचा अगर वे झगड़ते रहे तो रोटी बंदर ले जायेगा। समझदारी से काम लेते हुए आधी-आधी रोटी बांटने का आँखों ही आँखो में फैसला करके वे बंदर को भगाने को दौड़ पड़े।



  • 103,  रामस्वरूप कॉलोनी, आगरा-282010 (उ.प्र.)



बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’


सबूत


    एक महिला अपने बच्चे को लेकर एक महात्मा जी के पास पहुंची। वह बच्चे का भविष्य जानना चाहती थी।
   ‘महाराज, मेरे बच्चे का भविष्य बताइए।’
   ‘पहले तुम बच्चे का कोई ऐसा काम बताओ, जो सामान्य से अलग लगता हो?’
   ‘रात को सोते-सोते यह चिल्लाने लगता है- ‘आगे बढ़ो, आगे बढ़ो।’
   ‘उस समय यह खुद क्या करता है?’
   ‘पलंग से उतरकर नीचे छिप जाता है।’
   ‘तुम्हारा बेटा नेता बनेगा।’ महात्मा जी ने भविष्यवाणी की।
   ‘इन्हें प्रणाम कर बेटा।’ महिला ने महात्मा जी की ओर इशारा करते हुए पुत्र से कहा।
   महात्मा जी के पैरों में झुकते बच्चे ने आसन पर रखे चढ़ावे के पैसों में से एक नोट चुपके से उठा लिया।
   महात्मा जी ने देखकर भी अनदेखा करते हुए सोचा- ‘अब तो पक्का हो गया कि मेरी भविष्यवाणी गलत नहीं होगी।



  • डॉ. बख्शी मार्ग, खैरागढ़-491881, जिला- राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)